Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
प्राचीन स्थितिका अन्वेषण स्वभावतः मूलनिवासी जातियोंके धर्मको प्रोत्साहन मिला और वैदिक धर्मका पतन हुआ, क्योंकि उसमें जादू-टोना घुस बैठा। ___ जब हम सामवेद और यजुर्वेदकी ओर आते हैं तो एक नवीन ही संसारमें प्रवेश करते हैं। समस्त वातावरण यज्ञके धूम और क्रियाकाण्डकी प्रशंसासे व्याप्त है। यज्ञसे सब कुछ मिल सकता है। ये दोनों वेद यज्ञके लिये ही रचे गये प्रतीत होते हैं। जब तक हम उस स्थितिको न जान लें जिसमें रहकर याज्ञिक संस्थाका विकास हुआ तब तक उस कालके धर्मका विवरण समझमें नहीं आ सकता । अतः उस पर प्रकाश डाला जाता है
वैदिक कालीन यज्ञ यद्यप ऋग्वेदसे धर्मके किसी विकसित रूपकी सुनिश्चित रेखा सामने नहीं पाती। तथापि इतना स्पष्ट है कि वैदिक आर्यों की उपासनाके मुख्य स्तम्भ यज्ञ थे। स्वः लोकमान्य तिलकका मत था (ओरेन पृ० १२-१३ ) कि जैसे आजकल भी पारसियों के यहाँ सदा अग्नि प्रज्वलित रहती है वैसे ही वैदिक ऋपियोंके घरों में सदा अग्नि जलती रहती थी और वे उसमें यज्ञ किया करते थे। ब्राह्मण ग्रन्थोंमें जिन अनेक यज्ञोंकी विधियोंका विस्तारसे वर्णन है, वे उत्तरकाल में प्रचलित हुए हों, यह संभव है, किन्तु वार्षिक यज्ञ करनेकी परम्परा प्राचीन प्रतीत होती है। यज्ञ करनेवाले पुरोहितके ऋत्विज नामसे भी इसपर प्रकाश पड़ता है। ऋतु+यज्-अर्थात् ऋतु में यज्ञ करनेवाला। _ ऋग्वेदके देखनेसे प्रतीत होता है कि उस समय यज्ञोंका वैसा जोर नहीं था, जैसा ब्राह्मणकालमें हुआ। ऋग्वेदकी अधिकतर ऋचाएँ सोमयाग सम्बन्धी विधि-विधानोंसे पूर्ण है। और अश्वमेधके सिवाय अन्य किसी पशुयागका भी उल्लेख
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org