Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण
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विद्वानोंके मतानुसार अथर्ववेद में प्राथमिक धार्मिक विचारोंका रूप रक्षित है, जो अन्य वैदिक ग्रन्थोंमें नहीं है ।
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ऐसी संभावना की जाती है कि पुरोहितके लिये प्राचीन भारतीय नाम अथर्वन था । अतः अथर्ववेदका मतलब होता है पुरोहितोंका वेद या पुरोहितोंके लिये वेद । अथर्वका मतलब जादूगरीसे भी है । प्रारम्भ में पुरोहित और जादूगर एक ही होते थे । किन्तु पीछे इनमें विभेद हो गया। ब्राह्मण स्मृतियोंमें शत्रुओं के विरुद्ध अर्थववेदी भूत-प्रेतविद्याका प्रयोग करनेकी स्पष्ट आज्ञा दी गई है ( मनु० ११-३३ ) । और वैदिक विधि के जिन ग्रन्थों में यज्ञोंका वर्णन है उनमें भूत-प्रेतविद्या तथा जादू-टोनोंका भी वर्णन है, जिनके द्वारा पुरोहित बाधाओं को जड़मूल से उखाड़ सकते थे ।
अथर्ववेद में इन सबकी बहुतायत है और इस दृष्टिसे उसका महत्त्व विशेष है। अथर्ववेद में जादू-टोनेसम्बन्धी ऋचाएँ बहुत बड़ी संख्या में वर्तमान हैं। इनमेंसे कुछ शत्रुओंके विरुद्ध प्रयोग किये जानेवाली भूत-प्रेतविद्यासे सम्बद्ध हैं और कुछ आशीर्वादात्मक हैं। ये सब राजाओंके कामकी वस्तुएँ थीं। प्रत्येक राजाको एक पुरोहित रखने की आज्ञा थी और वह पुरोहित जादूगरीका जानकार होता था । उससे वह राजाकी रक्षा करता था । इसलिये अथर्ववेद राजन्यवर्गसे सम्बद्ध था ( हि० इं० लि०, विन्ट० पृ० १४६ ) ।
ब्राह्मणवर्ग आरम्भ से ही एक प्रयोगशील वर्ग रहा है । वह हमेशा राजाओं तथा अन्य मनुष्योंके हितमें जादू-टोनेका प्रयोग करता आया है । मनुस्मृति ( ११-३३ ) में स्पष्ट कहा है कि ब्राह्मणको बिना किसी हिचकिचाहटके अथर्ववेदका
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