Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ०-पूर्व पीठिका स्मृतियाँ निषादोंको ब्राह्मण पिताके संसर्गसे शूद्रा माताओंमें उत्पन्न हुई सन्तान वतलाती हैं। पुराण उन्हें विन्य और सतपुड़ा पहाड़ोंका निवासी बतलाते हैं।
उक्त उल्लेखोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर संहिताओं, ब्राह्मणों, उपनिषदों और सूत्रोंके कालमें वैदिक आर्य पंजावसे पूरबकी ओर बढ़े थे और गंगाके दोआवेमें बस गये थे। उस कालमें उनका प्रधान कार्यक्षेत्र कुरुक्षेत्र था। यह उल्लेखनीय है कि वैदिक सभ्यताका स्थान पंजावसे न.मशः पूरवकी ओर बदलता गया। इस कालमें पंजाव और पश्चिमकी प्रधानता ही नहीं गई किन्तु शतपथ और एतरेय ब्राह्मणमें पश्चिमकी जातियोंको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखा गया है। इस कालमें ऋग्वैदिक कालीन जातियों में बहुत परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है तथा अनेक नई जातियाँ प्रकाशमें आती हैं । भरतोंकी वह स्थिति नहीं रहती, किन्तु वे कुरुओंमें समा जाते है और कुरुपञ्चालोंकी एक शक्तिशाली जाति खड़ी हो जाती है जिसने मध्यदेशको हथिया लिया। पूरवमें कोसल, विदेह. मगध और अंग चमकते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। आन्ध्र पुड, मूतिव, पुलिन्द, शवर और निषाद ये जातियाँ वहिष्कृत मानी जाती थीं जिनका ब्राह्मणीकरण नहीं हो सका था।
इस तरह उपनिषद काल तक नर्मदाके उत्तर तक ही पार्योंका प्रभाव विस्तार हो सका था। (वै. एल, पृ० ५५२-२६२, कै० हि, जि०१, अ०५, प्रीहि० ई०,)।
धर्म और दर्शन ऋग्वेद पश्चात् कालीन धार्मिक और दार्शनिक विचारोंको जाननेके लिये सबसे प्रथम अथर्ववेदको लेना ठीक होगा; क्योंकि
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