Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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जै० सा० इ० - पूर्व पीठिका
उपयोग करना चाहिये । शब्द ही ब्राह्मणका अस्त्र है, उसके द्वारा वह अपने शत्रुओं को मार सकता 1
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इस प्रकार यद्यपि अथर्ववेद जादू-टोने और भूत-प्रेतसम्बन्धी विद्याओंसे भरा हुआ है फिर भी उसमें कुछ दार्शनिक मन्तब्य भी पाये जाते हैं ।
अथर्ववेद भी अग्नि, इन्द्र आदि वे ही देवता हैं जो ऋग्वेदमें हैं। किन्तु उनका वह रंग जाता रहा है। भूत-पिशाचोंके नाशक के रूपमें ही उनकी प्रार्थना की जाती है और उनका पुराना स्वाभाविक आधार सर्वथा भुला दिया गया है ।
विश्वके रचयिता और रक्षकके रूपमें एक सर्वोच्च देवताका विचार तथा ब्रह्म, तपस् असत् आदि कुछ पारिभाषिक शब्द अथर्ववेद में मिलते हैं। ऋग्वेदमें रुद्रका जो रूप है और श्वेताश्वतर उपनिषद में जिस शैवदर्शनके दर्शन होते हैं, अथर्ववेद के रुद्रशिवका रूप उन दोनोंके बीचका प्रतीत होता है ।
इसमें, जो कुछ सत् है उन सबका आद्य कारण कालको बतलाया है ( १०, ५३ - ५ - ६ ) । किन्तु इस दार्शनिक विचारके चारों ओर जिन रूपकोंका ताना-बाना बुना गया है, उन्होंने उसे एक रहस्यका रूप दे डाला है । इसके साथ ही गूढ़ कल्पनाएँ भी पाई जाती हैं, जैसे ब्रह्मचारीके वेशमें प्रथम सिद्धान्त के रूप में सूर्यकी प्रशंसा, तथा बैल, गाय और व्रात्यकी प्रशंसा । साधारणतया ग्रह माना जाता है कि अथर्ववेदका धर्म, आर्य और अनार्य विचारोंका मिश्रित रूप है । इस मत के अनुसार जब वैदिक आर्य भारतमें आगेकी ओर बढ़े तो उनकी मुठभेड़ असभ्य जातियोंसे हुई जो सर्प, पत्थर वगैरहको पूजते थे । आयने उनकी इन बातोंको आत्मसात् कर लिया। इससे
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