Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 07 Uttaradhyayan Niryukti Evam Churni Aagam 43
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आनमो नमो निम् आगम आगम पूज्य आनंद-क्षमा ललित-सुशील सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः शम् सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि आगम आगम ४३ “उत्तराध्ययन” निर्युक्ति एवं चूर्णि: पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद [1] भाग आगम आगम आगम आगम के आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D.. श्रुतमहर्षि रागम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर । वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद सूरीश्वरजी महाराज साहेब करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है। इस संघमें पूज्य साधू-भगवंत एवं साध्वी-महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म. की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है। BihanRMATPUR दलदल Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAVAN नमो नमो निम्मलदसणस्स सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता wintelwaayuniaVANEARE Tolerances पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि] Araveena प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/98253062751 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिया बाजाराणम भाषण मामा राणमयमा मायाला आगम S दा [4] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .........................HARR RRRRRI प्रभाग-7 [४] श्रीमन्ति उत्तराध्यनानि । नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीमानंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नम: "उत्तराध्ययन नियुक्तिः एवं चूर्णिः । मूल + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्तिः + जिनदासगणि रचिता चूर्णिः । [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५ 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-७ पूज्य आगमोद्धारकी संशोधिता मुनि दीपरत्नमागरण सकनिताः आगमसूत्रमा मलमूत्र उत्तराध्ययन-नियुक्ति एवं जिनदासगणिरविता यूर्णि। [5] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H, मूलं [-]/ गाथा ||-II नियुक्ति: । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: : (निर्मुक्तिः - निशुक्ला । (४३) మంలో ప్రస్తుతం ఆ ప్రభువులకు श्रीमन्ति उत्तराध्ययनानि. प्रत सूत्रांक दीप prooriesroo कुलीन-कोटिकगणीय-वज्रशाखीय-श्रीगोपालगणिमहत्तरशिष्य(जिनदासगणिमहत्तर ) कृतया चूया समेतानि प्रकाशयित्री-मालवदेशीय रत्नपुरान्तर्गतश्रीऋषभदेवजी केशरीमलजीत्यमिधा श्रीश्वेताम्बरसंस्था. न्दौरनगरे श्रीजैनबन्धुमुद्रणालये-श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा द्वारा मुद्रापयित्वा । कार संवत् २४५९. विक्रम संवत् १९८९. क्राइष्ट सन् १९३३. पण्यं ४-.-. ఔరం సంగా దర్శనం దాని अनुक्रम उत्तराध्ययन-चूर्णे: मूल "टाइटल पेज [6] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब • जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामूली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए| .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवर्द्धिगणी : क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही 'जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ • तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्री को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम । मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत- छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | : कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | • सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये। ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... .......मुनि दीपरत्नसागर... | . स [7] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फिर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया“अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... अनुदान दाता संस्था:- "श्री परम-आनंद श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ" वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म.सा. ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर-साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है | [8] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ- उद्धार कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ८ के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादा पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "स चूर्णिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे । • समुदाय एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है । मुनि दीपरत्नसागर [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय- रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर - सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ [9] *** .. मुनि दीपरत्नसागर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन-चूर्णे: उपक्रम: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: श्रीउत्तराध्ययनचूर्णिः प्राकू तावत् आवश्यकनन्दीअनुयोगद्वारदशवकालिकनामधेयानामागमाना चूर्णयः संस्थयतया प्रादुष्कृताः, अधुना तु श्रीमतामुत्तराध्ययनानां चूर्णिः प्रादुर्भाव्यते, यथा प्राक्तनचूणीनां मुद्रणे मूलमूत्राणि न धृतानि न च नियुक्तिर्भाष्यं च धृते, किन्तु प्रामुद्रितानामेव वृत्तिपुस्तकानां गाथायंकाः पत्रांकाश्च धृताः तद्वदत्रापि न मूलसूत्राणि न च नियुक्ति पि भाष्यं च मुद्रितानि, किन्तु तत्र तत्र प्राङ्मुद्रितायाः श्रीशान्तिमरिमत्रितायाष्टीकाग्रतेः पत्रांका धृता गाथायंका अपि तत्रस्था एव धृताः, एतस्या अपि चूर्णेः प्राङ्मुद्रितचूणांनामिव नात्यन्तमुपयोगः सूत्रार्थावगमे तथापि साहित्यरसिकानां पदार्थवैचित्र्यान्वेषणे भविष्यस्यवापयोगोऽस्याः, प्रादुष्करणं चास्पाः प्राचीनसाहित्यप्राकट्यायैव यतो नात्र ग्राहकसंख्या तथाविधा, भाषा प्राकृता विकृतिश्च संक्षिप्तेति हेतुरपि तत्र, भविष्यति चाशास्महे आचारांगपत्रकृतांगभगवतीनां चूणीनां मुद्रणक्रिया, प्रार्थयामहे च सज्जनान् यदुत यत्किचित् सूचनीय विधाय कृपां ज्ञातव्यमिति अलेख्यानन्दसागरैः वीरसंवत् २४५९ आश्विन शुक्ला प्रतिपत्, सुरत उत्तराध्ययन-चूर्णे: पूज्यपाद आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित उपक्रम: [10] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: १६४०+८८ उत्तराध्ययन मूलसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १७३१ पृष्ठांक: १९९ २०७ २१४ मूलं अध्ययनं ०००१ / ०१ विनयसूत्तं ००४९ | ०२ परिषह विभक्तिः ००९५ | ०३ चातुरंगियं | ०११५ | ०४ असंस्कृत ०१२८ | ०५ अकाममरणियं ०१६००६ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थियं ०१७९ ०6 औरभियं | ०८ कापिलियं ०२२८ | ०९ नमिप्रव्रज्या | पृष्ठांक: । मूलं अध्ययनं ०१४ ०२९१ | १० द्रुमपत्रक ०५९ ०३२८ | ११ बहुश्रुतपूजा १०४ ०३६० | १२ हरिकेशियं ०४०७ | १३ चित्रसंभूतियं १३९ ०४४२ | १४ इषुकारियं ०४९५ | १५ सभिक्षुकं १७० ०५११ | १६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं १८१ | ०५३९ | १७ पापश्रमणियं १९० ०५६० | १८ संयतियं २२६ २३३ २४६ १५५ २५५ ०२०९ २५६ २६० | || पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: [11] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: १६४०+८८ उत्तराध्ययन मूलसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १७३१ पृष्ठांक: २६३ २६४ | २७३ पृष्ठांक: २८४ ૨૮૭ ૨૮૬ ૨૮ ૨૮૮ ०७९४ मूलांक: अध्ययनं ०६१४ | १९ मृगापुत्रिक ०७१३ | २० महानिर्ग्रन्थियं ०७७३ | २१ समुद्रपालितं | २२ रथनेमियं ०८४७ | २३ केशीगौतमियं ०९३६ | २४ प्रवचनमाता ०९६३ | २५ यज्ञकियं १००७ २६ सामाचारी १०५९ | २७ खलुंकियं २७६ मूलांक: अध्ययनं १०७६ |२८ मोक्षमार्गगति: | १११२ | २९ सम्यक्त्वपराक्रम | ११८९ ३० तपोमार्गगति: | १२२६ | ३१ चरणविधि: १२४७ | ३२ प्रमादस्थानं | १३५८ ३३ कर्मप्रकृत्ति: | १३८३ | ३४ लेश्या-अध्ययनं | १४४४ | ३५ अणगारमार्गगति: | १४६५ | ३६ जीवाजीव-विभक्तिः २७७ २७९ २९१ २९१ २९२ २८३ २९३ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: [12] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [“उत्तराध्ययन-चूर्णिः” इस प्रकाशन की विकास-गाथा] यह प्रत सबसे पहले "श्रीमन्ति उत्तराध्ययनानि" के नामसे सन १९३३ (विक्रम संवत - १९८९) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | * वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है । - हमारा ये प्रयास क्यों? +आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध -अध्ययन- उद्देशक-मूलसूत्र - नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है। * इस आगमचूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु चूर्णि और वृ की संकलन पद्धत्ति एक समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कईं निर्युक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते, कोइ कोइ निर्युक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है, उनकी चूर्णि भी है पर उस निर्युक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है । हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, निर्युक्ति तथा भाष्यो के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है। *शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनसंघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि भाग-७ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है । ..मुनि दीपरत्नसागर. ..... [13] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H, मूलं [-]/ गाथा ||-|| नियुक्ति: । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: श्रीउसरा प्रत अनुयोग प्रतिज्ञा चूणी सूत्रांक १ विनया ॐ नमः श्रीसर्वज्ञाय । ॥ श्रीउत्तराध्ययनचूर्णिः ॥ ध्ययने -4-4-4-SCREL-Heas H ल दीप अनुक्रम कयपवयणप्पणामो, वोच्छं धम्माणुयोगसंगहियं । उत्तर झयणणुयोगं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥१॥ प्रोच्यन्ते अनेन जीवादयः पदार्था इति प्रवचनम् , अथवा प्रगतं प्रधान प्रशस्तमादौ वा वचनं प्रवचनं, तत् द्वादशांग, । तदुपयोगान्यत्वाद्वा सधः, प्रणमनं प्रणामः पूजेत्यर्थः, कृतः प्रवचनप्रणामो येन स कृतप्रवचनप्रणाम:, 'वोच्छं' वक्ष्ये, 'धम्माणुयोगसंगहिय' ति, इह चत्वारोऽनुयोगाः प्रोच्यन्ते, तद्यथा-चरणकरणाणुयोगो, धम्माणुयोगो, गणिताणुयोगो, दवाणु. योगोति, तस्थ चरणकरणाणुयोगो कालियसुताति, धम्माणुयोगो इसिभासितादि, गणिताणुयोगो सूरपण्णत्तादि, दवाणुयोगो | दिविवादोति, अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः, समस्तं गृहीतं संगृहीतम् आख्यातं प्ररूपितमित्येकोऽर्थः, किं तत् ?-उत्तरायणाणुयोग, उत्तरज्झयणाणि वा उवरि भाण्णहन्ति, अणुयोजनमनुयोगः अर्थव्याख्यानमित्यर्थः, उत्तराध्यायानामनुयोगः तमुत्तराध्या ...अथ चूर्णिकार-कृत् अनुयोग-प्रतिज्ञा दर्शयते [14] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H, मूलं [-]/ गाथा ||-|| नियुक्ति: । पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: फलयांगों श्रीउत्तरा १ विनयाध्ययने चूणौँ । सूत्रांक H २ ARCREArc यानुयोगं, गृणंति शास्त्रार्थमिति गुरवः ब्रुवन्तीत्यर्थः, ते पुनराचार्या अहंदादयो वा तदुपदेशः-तदाज्ञा, गुरूपदेशानुवृत्तिरित्यर्थः तया गुरूपदेशानुवृत्या, गुरूपदेशानुसारेणंति ॥ तम्स फलजोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई । तब्भेदनिरुक्तिकम, पओयणाई च वच्चाई ॥२॥ 'तस्ये 'ति तस्योत्तराध्ययनानुयोगस्य फलं-प्रयोजनं योगः-सम्बन्धो मङ्गलं-उपचारः समुदायार्थः-पिण्डार्थः द्वाराणि-उपक्रमादीनि, 'तदि' त्यनेन द्वाराण्येव संवन्ध्यन्ते इति, तद्भेदाः-तत्प्रकाराः, निरुक्तिः-निर्वचनं क्रमो-व्यवस्था प्रयोजन-1 शास्रोपकार, एते अधिकारा पाच्या आह-किमुत्तराध्ययनानुयोगे फलम् उच्यते, इह जीवस्स अट्टविहकम्मबंधणबद्धस्स सम्मईसणनाणचरित्तेहिं मोक्खो भवति, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकानि चोत्तराध्ययनानि अतः तयाख्यानारम्भः, पायेण चन धर्मकथामन्तरेण दर्शनादिप्राप्तिरस्ति, अतस्तद्विकलस्याकारणता, कारणतच कार्यसिद्विरस्तीत्यत उत्तराध्ययनानुयोगादर्शनादिप्राप्तिः ततो मोक्ष इति फलवानुत्तराध्ययनानुयोगारम्भ इति । कः पुनरुत्तराध्ययनानुयोगस्याभिसंबन्ध इति, उच्यते। उत्तरायणा पुच्च आयारस्सुवरि आसि, तस्थेव तेसिं उपोद्घातसंबंधाभिवत्थाणं, ताणि पुण जप्पमिई अज्जसेज्जंभवेण मणगापतुणा मणगहियत्याए णिज्झहियाणि दस अज्झयणाणि दसवियालियंमित्ति, तम्मि चरणकरणाणुयोगो वणिज्जति,तप्पभिई च तस्सु| परि ठविताणि, एतेणाभिसंबंधेणुत्तरज्झयणाणि आगताणि, अहया साधुगुणसंजुचं कोई धम्म पुच्छेज्जा, पच्छा सो तेसि विण ॥ दीप अनुक्रम 4 + [15] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H, मूलं [-]/ गाथा ||-|| नियुक्ति: । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूणों सूत्रांक श्रीउत्तरायसंजुत्ताणं धम्म परिकहेइ चउबिहाते कहाते, तं०-अक्खेवणीए विक्खेवणीए संवेयणीए निब्वेयणीए, तत्थ परीसहहिं अक्खित्ता मंगलं चाउरंगिज्जे विक्खित्ता असंखतेणं संवेगमागच्छति, उपरिमेसु णिवेयमागच्छंति, एस अभिसंबंधो । इदाणि मंगलंति-बहु१विनया |बिग्घाई सेयाणि तेण कयमंगलोवयारेहिं । धेचम्बो सो सुमहाणिहिब जहवा महाविज्जा ॥१॥ तं मंगलमादीए मज्झे ध्ययन । पज्जतए य सस्थस्सा । पढमं सत्वत्थाविग्धपारगमणाय णिदिटु ॥२॥ तस्सेव य थिज्जत्थं, मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव । अवोच्छितिणिमित्तं सिस्सपसिस्सादिवंसस्स ।। ३॥ आह-आचार्य! मङ्गलकरणात शास्त्रं तेऽमंगलमापद्यते, अथवेह मल्-18 गलात्मकस्यापि शास्त्रस्य अन्यन्मगलमुच्यते अतस्तस्याप्यन्यत्तस्याप्यन्यन्मङ्गलमादेयम्, इत्यतोऽनवस्था, नवेदनवस्था । प्रतिपद्यते ततो यथा मङ्गलमपि शाखं अन्यमङ्गलशून्यत्वादमङ्गलं तथा मङ्गलमयेऽन्यमंगलशून्यत्वादमङ्गलमिति भावः, उच्यते, यस्य शाखादर्थान्तरभृतं मङ्गलं तं प्रत्येषा कल्पना भवेत् इह त्वस्माकं शाखमेव मङ्गलं,यद्यत्र मङ्गलमुपादीयते किमत्रामङ्गल का वाऽनवस्थेति, नायमस्माकं पक्षे, किन्तु यस्यापि शाखादर्थान्तरभूतं मङ्गलं तस्यापि नामङ्गलप्रसंगो न चानवस्था, कुतः, स्वपरानुग्रहकारित्वान्मङ्गलस्य प्रदीपवत् लवणादिवद्वा, आह-मङ्गलत्रयान्तरालद्वयं न मङ्गलमापद्यते, अर्थापत्तितः, यदि वेह सर्वमेव शास्त्रं मङ्गल मिति प्रतिपाद्यते, मङ्गलत्रयग्रहणमनर्थकम्, उच्यते, समस्तमेव शाखें तथा विभज्यते, कुतोऽन्तरालद्वयपरिकल्पन? यदमङ्गलं भवेत् , तत्कथं पुनः सर्वमेव शाखं मङ्गलमिति चेदुच्यते, निर्जरार्थत्वात्तपोवत् , आह-यदि स्वयमेव शाखं मङ्गलमित्यतः किमिह मङ्गल ग्रहणं क्रियते ?, उच्यते, ननूक्तं नयेह शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलमुपादीयते, किन्तु ।। मङ्गलमिदं शास्त्रमिति केवलमुच्चार्यते, आह-तदुचारेण किं फलं?, यदि मङ्गलमिति न संशब्द्यते किं तदमङ्गलं भवति ?, उच्यते, दीप अनुक्रम ... अत्र शास्त्रकार-कृत् 'मङ्गल' निरूप्यते [16] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं H, मूलं [-]/ गाथा ||-|| नियुक्ति: । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत - सूत्रांक १विनया -- -- --- श्रीउत्तराशियमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमत्र तदभिधानम, इह शिष्यः ५.५ शाखें उगलमित्येवं परिगृह्णीयादिति, यस्माहिह मङ्गलमपि समुदायाथ मङ्गल युद्धथा परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत, आह-ततः सर्वमेवेदं मङ्गलमित्येताबदस्तु, नार्थो मङ्गलत्रयबुद्धिपरि नुयोगः ग्रहेण?, उच्यते, ननु तत्रापि कारणमुक्तं--यथैव हि शास्खं मङ्गलमपि सत् न मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मंगलं भवति साधुवन , ध्ययन तथा मंगलत्रयकरणमवि, अविनपारगमनादिन मंगलत्रय या बिना सिद्धयतीति अतस्तदभिधानमिति, मंगेर्गत्यर्थस्य। अल्प्रत्ययान्तस्य मङ्गलमिति रूपं भवति, गम्यतेऽनेन हितमिति मंगलं, गम्यते साध्यत इतियावत् , अथवा मझो धर्मों, ला आदाने, मङ्ग लातीति मंगलं, अथवा मां गालयते भवादिति मङ्गलं, संसारादपनयतीत्यर्थः, अथवा शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मगलं, गलो-विभ, मा गलो पर्तीदिति मगलं, गलनं गालो नाश इत्यर्थः, तत्र मंगलं चतुर्विध, तंजहा-नाममङ्गलं शठवणामङ्गलं दख्खमंगलं भावमङ्गलमिति, एवं चउग्निहमति आवस्सकाणुकमेण परवेऊण भावमंगलं गंदी, सा तहेव चउ-17 विहा, तत्थावि भावणंदी पंचविहं नाणं, सपि आवस्सगाणुकमेण परूवेतवं जाय केवलनाणं, गंदी मंगलमिति चेह परिसमत्ताई, अहुणा स मङ्गलथो भण्णति, पगओ अणुयोगोऽस्थि, केवलज्ञानमिह परिसमापितं, तत्समाप्तौ च नन्दी तत्समाप्तौ च मङ्गलमिति ।। इदानी मङ्गलार्थोऽनुयोगः, मङ्गलमर्थोऽस्येति मङ्गलार्थः, अथवा अयेतेऽसावित्यर्थः, गम्यते साध्यत इतियावत् . मङ्गलस्यार्थो मङ्गलार्थः, मङ्गलसाध्य इत्यर्थः, स च का?, प्रकृतोऽनुयोगः, प्रकृतोऽधिकृत इत्यर्थः, सोऽनुयोगो मतिज्ञानादीनां कतमस्य इति?, उच्यते, श्रुतबानस्य, न शेषाणाम् अपराधीनत्वात् अपरप्रबोधकत्वाच्च, श्रुतं तु प्रायेण यतः पराधीनं परमबोधक |च प्रदीपवत , अनुयोगश्च परप्रबोधनायारभ्यते अतः श्रुतस्यैवासाविति, आह-ननूत्तराध्ययनानामनुयोगं वक्ष्यामीत्युक्त A- दीप अनुक्रम E- C N४॥ 4. C [17] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [B] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा || -II निर्युक्ति: [१/१] अध्ययनं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णों १ विनयाध्ययने ४ 11 4 11 मैवासौ कः पुनः कस्य ज्ञानस्येति किमनया चिंतया ?, उच्यते, इह श्रुतज्ञानस्यानुयोग इत्यभिधानादेवोत्तराध्ययनं श्रुतविशेष इत्युक्तं भवति, आह- अनुयोग इति कः शब्दार्थः १, उच्यते श्रुतस्य स्वेनार्थेनानुयोजनमनुयोगः, अथवा सूत्रस्थाभिधेयव्यापारे। योगः अनुरूपः अनुकूलो वा योगः अनुयोगः, अथवा अर्थतः पश्चादभिधानात् स्तोकत्वाच्च सूत्रमनु तस्याभिधेयन योजनमनुयोगः । आह-यद्येवमुत्तराध्ययनानामनुयोगः तच्च श्रुतविशेषः, अतस्तत्किं अङ्ग अङ्गाई सुक्खन्धा श्रुतस्कन्धाः अज्झयणं अज्झयणा उद्देसो उद्देसा १, उत्तरज्झयणाणि णो अङ्गं नो अङ्गाई सुतक्खन्धो नो सुयक्खन्धा नो अज्झयणं अज्झयणा णो उद्देसो णो उद्देसा, तम्हा उत्तरं णिक्खिविस्सामि अज्झयणं णिक्खिविस्सामि सुतं णिक्खिविस्सामि खंधं निक्खिविस्सामि, तत्थ पढमं दारं उत्तरंति, तत्थ इमा णिज्जुत्तिगाहा णामंत्रवणा' गाहा ( १-२ पत्रे) तं उत्तरं पनरसविहं तं०णामुत्तरं ठवणुत्तरं दव्युत्तरं खसुत्तरं दिसुत्तरं ५ तावखेत्तुत्तरं पण्णवगुत्तरं पति० कालु० संचयु० १०पधाणु०णाणु० कमु० गणणु० भावुत्तर १५ मिति, तत्थ णामुत्तरं जस्स उत्तरेति णामं कज्जति, ठवणुचरं अक्खणिक्खेवादी, अडवा चित्तकम्मादिसु उत्तरा दिसा ठाविता, दव्युत्तरं जाणगसरीर० भवियसरीर०, तब्बतिरित्तं खीराउ दधि, तत्थ पुण्यं खीरं उत्तरं दधि, खेत्तुत्तरं उत्तराः कुरवः अहवा पुत्रं सालिखेत्तं आसि पच्छा उच्छुखेत्तं जातं एवमादी, दिसुत्तरं उत्तरा दिसा, तावखेत्तुतरं मंदरो पव्वतो, सन्धेसि उत्तरेण भवति, पण्णवयुत्तरं पण्णवगस्त जं वामं तदुत्तरं प्रतिउत्तरं एगसोऽवत्थिताणं देवदत्त जण्णदत्ताणं देवदत्ताओ जण्णदत्तो उत्तरो भवति, कालुत्तरं पुव्वं समयो पच्छा आवलिया, अहवा पुव्वकालाओ पच्छाकालो उत्तरो भवति, यथा 'पूर्वोत्तरविरुद्धार्थ, भारतं तु युधिष्ठिर ।। कथं १, पूर्वमन्यथोक्त्वा पश्चादन्यथोपदिष्टवान् संचगुत्तरं संचयस्सोवरि वयत्थितं तिणं कई पत्तं वा तं संचयुत्तरं, पहाणुत्तरं, ... अत्र 'उत्तर' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः वर्णयते [18] उत्तर निक्षेपाः ॥ ५ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययन - मूलं -1 /गाथा ||-|| नियुक्ति : [२-४/२-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: अंगादिप्रभवान्युचराणि सूत्रांक HABAR श्रीउत्तुराना पहाणुत्तरं तिविई, तं०-सच्चित्रं अच्चित्तं मीसंति, सच्चित्तपहाणुत्तर तिविर, त-दुपयं चउप्पयं अपयंति, दुपदेसु तित्थचूर्णी करो चउपदेसु सीहो अपदेसु रुक्खाण जंबू सुदसणा, पणसं कताणं फलाणं, अचित्ताणं मणीण वेरुलियमणी सुवण्णाण वणसुवणं, १ विनयाध्ययने मीसपहाणुत्तरं दुपदेसु जहा स एव भगवं तित्थगरो गिहवासे सब्वालंकारविभूसितो, णाणुत्तरं केवलणाणं, सव्वणाणुत्तरं सुयनाणं, जओ-सुयनाणं महिडीयं, केवलं तयणंतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिमावर्ग ॥१॥ अथवा श्रुतवानं शानोचर, कमुत्रं क्रमः परिपाटी आनुपूर्वी इत्यर्थः, कमुत्तरं चउम्बिई, तं०-दव्वओ खेतओ कालओ भावओ, दचओ परमाणुपोग्ग| लस्स दुपएसिओ उत्तरो दुपएसियस्स तिपएसियो एवं जाव अंतिमो अणंतपएसिओ खंधो, खत्तओ एगपएसोगाढस्स दुपएसो गाढो उत्तरं, एवं जाव अतिमो असंखज्जपएसोगाढचि, कालओ एगसमयठितियस्स दुसमतठितिओ उत्तरो एवं जाव अंतिमो | असंखेज्जसमयठितीउत्ति, भावओ वण्णादाणं एकेके एगगुणा(इ)पदकमो जाव अणंतगुणपज्जवसाणोति, गणणाउत्तरं गणेज्जंताणं एकगाउ दुरुत्तरो दुगाउ तिगो एवं जाव सीसपहेलियत्ति, भावुत्तरो खातिओ भावो, उत्तरो सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः । एतेसिं लक्खणं | 'जहन्नं सउत्तरं खलु' गाहा (२-४ ) जहणं थायमित्यर्थः, जहण्णो परमाणू स उच्चरो एवं जाव अंतिमो खंधो अणंताणंतपएसिओ णिरुत्तरो, सेसा खंधा सउत्तरा अणुत्तरा य भवंति, एवमिहापि विणयसुयं सउत्तरं जीवाजीवाभिगमो णिरुत्तरो, सर्वो| तर इत्यर्थः, सेसज्झयणाणि सउत्तराणि णिरुत्तराणि य, कह, परीसहा विणयसुयस्स उत्तरा चउरंगिज्जस्स तु पुब्बा इतिकाउं| |णिरुत्तरा, एवं यं ॥ एत्थ कयरेणुत्तरेणाहिगारो', उच्यते, 'कमुत्तरेण पगयं' गाहा (३.५) उत्तरायणाणि आया-12 रस्स उरि आसित्ति तम्हा उत्तराणि भवति । एयाणि पुण उत्तरज्झयणाणि कओ केण वा भासियाणित्ति, उच्यते, 'अंगप्पा OLESCARCANE दीप अनुक्रम S IBIL६॥ [19] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं , मूलं [-]/ गाथा ||-11 नियुक्ति: [५-११/५-११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तराभवा' गाहा (४-५) तत्थ अंगप्पभवा जहा परीसहा वारसमाओ अंगाओ कम्मप्पवायपुवाओ णिज्जूढा, जिणभासिया अध्ययना चूर्णी जहा दुमपत्तगादि, पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा कापिलिज्जादि, संवाओ जहा पमिषष्वज्जा केसिगोयमेज्ज च, तं एते सव्वेव लादिनिक्षेपाः १विनया- |बंधप्पमोक्खत्थं छत्तीसं उत्तरायणा कया । उत्तरंति भणियं, इयाणि उत्तरायणंति तस्सेवेगद्वियाणि, अज्झयणति वा ध्ययने ४ अज्झीणंति वा आउत्ति वा झवणति वा, एएसिं निरुर्च भण्णति-सुतं अज्झप्पं जणेतिचि अज्झप्पजणणं, प्पकारणकाराणं लोबातो ॥७॥ IM अझयणति, अहवा अझप्पाणयर्ण प्पकारणकारागारलोवातो अज्झयणंति, अहदा बोधादीनामाधिक्येन अयनमध्ययनं, अयनं गमनमित्यर्थः, अक्षीणमर्थिभ्यो दीयमानमधवा अव्यवच्छित्तिनयोपदेशाल्लोकवनित्यं, आयो लाभः प्राप्तिरित्यनर्थान्तरं, कस्य, ज्ञानादीना, क्षपणा अपचयो निजेरेति पर्यायः, कस्या, पापानां कर्मणामिति ।। अधुणा निज्जुत्ती पवित्थारेति-'णामंठवणझयणे' माहा (५-६) अज्झयणं णामादि चउविहं, दवज्झयणं पत्त्यपोत्थयलिहियं, भावज्झयणं इमाणि चेव उत्तरायणाणि, तत्थ गाहाउ 'अज्झप्पस्साणयणं' गाहा (६-६) 'अधिगम्मति व अत्था' गाहा (७-७) जथा एयाणि पढ़तो सुणंतो गुणतो | अज्झप्पे य अपाणं णिउजति तम्हा अज्झयणति, अज्झीणपि एमेव नामादिचउव्विई, दव्वहीणं सब्बागाससेढी, भावझीणं 'जह [[वा] दीवा दीवसयं' गाहा(८-७)आयोवि णामादि चउव्विहो, दख्याओ सच्चित्तादीणं दवाणं आयो, भावाओ दुविहो-पसत्यो अपसत्थो य, तत्थ माहा 'भावे पसत्थ' गाहा (९-७) भावाओ पसत्थो विविहो, तं०-णाणाओदसणाओ चरित्ताओ, अप्पसत्थो | भावाओ कोवायादिओ, झवणावि गामादिया चउविहा, दव्वझवणा 'पल्लत्थिया अपत्या' गाहा (१०-८) भावज्झवणं दुविह १वृत्ती यद्यपि क्षपणाया न प्रशस्तेतरत्या विभागः, तथाप्यत्र कमेरजसो हानादेरावारकत्वादप्रशस्तक्षपणावं, तत्क्षपणासाधनामा | ज्ञानादीनां प्रशस्तक्षपणावमुक्त. दीप अनुक्रम BARSAATABASINESS HEACCIRECReceected [20] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम H भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा ||-|| निर्युक्ति: [१३,१८,२७/१२-२७] अध्ययन [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः १ विनया ध्ययने श्री उत्तरा०पसत्यभावज्झवणं अप्पसत्थभावज्झवणं च अप्यसत्यभावझवणा इमा गाहा 'अडविहं' गाहा ( ११-८) पसत्थभावझव चूण णा णाणादीणि, अज्झयणत्ति गतं । इदाणिं सुत्तं, तंपि णामादिचउध्विहं जहा अणुयोगद्दारे, भावसुतं तं दुविहं-आगमओ णोमें आगमतो य, आगमतो जाणए उपउत्ते, गोआगमतो एयाणि चेन उत्तरज्झयणाणि सामित्तासंबद्धाणि । खंधोऽवि जहा अणुयोगद्वारे, भावखंधो एतेसिं चैव छत्तीसाए उत्तरज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झयणभावसुतक्खधेति लग्भइ, ताणि पुण ॥ ८ ॥ ५ छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि इमेहिं नामेहिं अणुगंतव्वाणि 'विणयसुयं च परीसह गाहाओ जाव 'जीवजीवाभिगमो' चि(१३-१७/९) एतेसिं इमे अत्याहिगारा भवंति, तंजा- 'पढमे विणओ' गाहा, एवं अत्थाहिगारगाहा भाणियन्याओ (१८-२६।१० )एवमुतरज्झायाण पिंडत्थे वण्णितो समासेणं । एत्तो एकेकं पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥ १ ॥ (२७-१०) समुदायत्थो गतो, इदाणिं वाराणि तत्र प्रथममध्ययनं विनयसुत्तामिति, विनयो यस्मिन् सूत्रे वर्ण्यते तदिदं विनयसूत्रं, विनयमूलत्वाच्च धर्मस्य सर्वगुणाधारभूतं यतो न विनयशून्ये गुणावस्थानमिति तस्य महापुरस्येव द्वाराण्यनुयोगद्वाराणि चत्वारि, अनुयोग इत्यध्ययनार्थः, द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानि यथेह पुरमद्वारमधिगन्तुमशक्यं, एकद्वारमपि च कृच्छ्रेणाधिगम्यते कार्यात्तिपत्तये च भवति, चतुर्भिः पुनर्मूलद्वारैश्च सुखेनाधिगम्यते न च कार्यातिपत्तये भवति, तद्वद्विनयसूत्रमहापुरमपि अर्थाधिगमोपायद्वारशून्यमशक्यमधिगन्तुम्, अनुगमैकद्वारमपि तत्कृच्छ्रेण द्राघीयसा च कालेनाधिगम्यते, विहितसप्रभेदोपक्रमद्वारचतुष्टयं पुनरयत्नेनाल्पीयसा च कालेनाधिगम्यते इति द्वारोपन्यासः । तानि चानुयोगद्वाराणीमानि तं० उबकमो निक्खेवो अणुगमो गया इति । इयाणि तद्भेदो, उवकमो छव्विहो, णिक्खेवो २ उत्तरासो वृत्तौ. अत्र अध्ययन १ "विनय" आरभ्यते [21] श्रुतस्कन्धौ अनुयोगद्वाराणि ॥ ८ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-1/ गाथा |-|| नियुक्ति: [१३,१८,२७/१२-२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: द्वारभेदाः सूत्रांक ला श्रीउत्तरा०तिविहो, अनुगमो दुविहो, णयो सत्तविहो।इदाथि निरुत्ती, तत्र शास्त्रस्योपक्रमणमुपक्रमा उपक्रम्यतेऽनेनेति अस्मिश्चेति,उप सामीप्ये निरुक्तिश्च चूर्णी क्रम पादविक्षेपे, शास्त्रसमीपीकरणं शास्त्रस्याभ्यासदेशानयनमित्यर्थः, तथा निक्षिप्यते अनेनेति अस्मिन् वेति निक्षेपणं वा निक्षेपा, आनु१विनया'क्षिप प्रेरण' इति नियतो निश्चितो वा क्षेपः निक्षेपः न्यासः स्थापनेतियावत् , अनुगम्यतेऽनेनास्मिश्चेति अनुगमनं अनुगमः,अणुनो पूष्यादि ध्ययन वा सत्रस्य गमोऽनुगमः, पत्रानुसरणमित्यर्थः, णी प्रापणे, तस्य नय इति रूपं, वक्तव सूत्रार्थप्रापणे गम्ये परोपयोगानयति ॥ ९ ॥ नयः, नीयते चानेन अस्मिन्वति नयनं वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽधिगमनमित्यर्थः, एषां चोपक्रमादिद्वाराणामयमेव क्रमः, यतो नानुपक्रान्तं असमीपीभूतं सबिक्षिप्यते, न च नामादिभिरानिक्षिप्तमर्थतोऽनुगम्यते, न च नयमतविकलोऽनुगम|' इति, यतस्तु शाखं संबन्धात्मकेन उपक्रमेण स्थापनासमीपमानीय नामादिन्यस्तनिक्षेपमर्थतोऽनुगम्यतेऽनुगम्यते नाम नयैः, अतोऽयमेवानुयोगद्वारकम इति । तत्थोषकमो छबिहो, तं०-णामोव ठवणोव० दब्बोव० खेतोब. कालोव० भावोव० जहावस्सए ॥ | जाच अहवा भावोवकमो छबिधो, तंजहा-आणुपुच्ची नामं पमाणं वचव्यया अत्याहिगारी समोयारो, सब एवं अणुओगदाराणुकमेण परवेऊण इमं विणयसुतज्झयणं जत्थ जत्थ समोयरति तत्थ तत्व समोयारेतब्वं,तत्थाणुपुव्वी दसविहा,तं -पामाणुपुथ्वी ठवणाणुपुयी दवाणु०खेत्ताणु कालाणु०५ उकित्तणाणु गणणाणु०संठाणाणु० सामायारीआणुपुवी भावाणु०१०, एत्थ उक्कितणगणणाणुपुव्वीसु समोयरइ, उत्कीर्चनं-संशब्दनं, तं०-विनयसुर्व परीसहा इत्यादि, गणणं परिसंखाणं एक दो तिन्नि इत्यादि, वत्र विणयसुयं पुव्वाणुपुच्चीए पढम, पच्छाणुपुवाए छत्तीसइम, अणाणुपुचीए अणिययं, कयाइ पढमं कयाई वितिय इत्यादि अणाणुपुब्वीइ इमं करणं एगादियाए एगुचरीए छत्तीसगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरुपूणोति, पुष्वाणुपुथ्वी पच्छाणुपुब्बी दीप अनुक्रम [22] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्य यनं [१], मूलं [-1/ गाथा |-|| नियुक्ति : [१३,१८,२७/१२-२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत आनु -- सूत्रांक दीप श्रीउत्तराय दोवि फेडियाओ सेसाओ अणाणुपुब्बीओ भण्णंति, इमाउ परथारगाहाओ-एगादी उत्तरिवड्डिताण ठाणाण इच्छियाणं तु || चूर्णी पूष्यादि जो जो आदी य भवे सो सो तु अर्णतरो ओ॥१॥ जहियं त णिक्नेबो(जहियमि उ णिक्खित्त) पुणरवि सो चेव होइ निक्लेवो । |२|| यासो होइ समयमेदो बज्जयन्वो ततो नियमा ॥२॥ पुवाणुपुटिव हेट्ठा समयाभेदेणऽणतरो देयो । उवरिमतुलं पुरतो हस्सो ध्ययने हस्सादि तो सेसो ॥३॥ असती अणंतरस्स उ देयोऽणंतर अणंतरो तत्तो। ततोऽवि परतरो पुण ता जाव अणंतरो णस्थि ॥४॥ एवं ॥१०॥ तिसु हाणेसु पत्यारं दंसह १२३ , एस पुन्वाणुपुन्वी, तत्थेगस्स अणंतरो णस्थि, दुण्हणतरो एको ततो दुहं हेट्ठा एकं ठायेऊण : Pउवरिमतुल्लं ठवेति तिण्डं हेट्ठा तिनि निकख आदीय चेणि से, जाता २१३, ततियपरिवाडीए (दोहमणंतरो एको, तं जति ठवेति समयभेदो भवति, एकस्साणंतरो पत्थिति तिहमणतरो दुगो दिज्जइ, एगं तिगं च आईए, जातं १३२, चउत्थपरि वाडीए) एकस्सऽणतरो दुगो तं जति ठवेति समयभेदो भवति, तो अणंतराणंतरं ठवेति एक, उबरिमतुल्लं दो दोण्हं हेट्ठा पाठवेज्जाऽऽईए तिनि ठवेति, जातं ३१२, पंचमपरिवाडिए तिण्हाणतरे दो त जति ठवेति तो समयभेदो भवति, अणंतरासातरो एको तेणवि समयभेदो भवति, तओ तिण्डं हेट्ठा ण ठवेति, एगस्साणंतरो णस्थि तत्थवि ण ठवेति, दोण्हाणतरो एको तो दोण्हं हिट्ठा एक ठवेति, आदीए हस्सति चे तिणि य, जातं२३१, छट्ठपरिवाडीए दोण्हाणतरो एको, तेण समयभेदो भवति, तो तीण्णाणतरो दो तं वेति, उपरिमं तुलं नसे इक, आदीए ठवे तिनि, जाता पच्छाणुपुब्बी ३२१, एवं तिसु चचारि अणाणुपुवीओ, एवं सेसावि पवित्थारा नेया । इह यद्वत्थुनो अभिधानं जातिरूपादिपर्यायप्रभेदानुसरणस्वभावं तमाम नमनं प्रहित्वमिति, यस्तु नमनात-प्रतिवस्तु नमनात् भवनादित्यर्थः, तच्च दशप्रभेदमेकनामादि बहुभेदं वाऽमिलाप्यविषयत्वात् , अनुक्रम - [23] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||-|| निर्युक्तिः [१३,१८,२७/१२-२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउतरा०चूर्णी १ विनया ध्ययने ॥ ११ ॥ तत्थ छव्विद्दे णामे भावो छब्बिहो वणिज्जति, तत्र क्षायोपशमिक एव श्रुतावतारो नान्यत्र श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजत्त्वात् श्रुतस्य प्रमाणं दव्वादि चउब्विहं, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं तत्थ भावप्यमाणे समोयरति, भावगुणप्पमाणं च तिविह-गुणप्पमाणं णयप्पमाणं संखप्पमाणं, गुणप्पमाणं दुविहं- जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च ततो जीवाऽन्यत्वाद्विनयसूत्रस्य जीवगुणप्पमाणे समोतरति तं तिविहं णाणगुणप्पमाणं दंसणगुणप्यमाणं चरितगुणप्पमाणं तत्र बोधनात्मकत्वाद्विनयसूत्रस्य णाणगुणप्पमाणे समोतरति णाणगुणप्पमाणं चउन्विहं तं०- पच्चकखं अणुमाणं उचमं आगम इति, तत्थ विणयसुयस्त प्रायशः परोपदेशकत्वादागमप्रमाणेऽवतारो, आगमो दुविहो-- लोइओ लोउत्तरिओ य, लोउत्तरे समोयरति, लोउत्तरो दिविदोसुतं अत्थो तदुभयंति, तिसुचि समोयरति सो विविहो- सुत्तागमो अनंतरागमो परंपरागमो ( तत्थ सुत्तओ थेराणं अत्तागमो अत्थओ अनंतरागमो थेरसिस्साणं सुत्तओ अणंतरागमो अत्थओ परंपरागमों, तेण परं सुत्त ओवि अत्थओवि) नो अत्तागमो नो अनंतरागमो, परंपरागमो, गतं गुणप्पमाणं । मूढणयियं कालियं सुचंति नाधुना नयप्रमाणावतारः, 'आसि पुरा सोणियते अणुयोगाणमपुडुत्तभावंमि । संपति णत्थि पुहुत्ते होज्ज व पुरिसं समासज्जा ॥ १ ॥ संखष्यमाणं अडविहं- नामसंखा ठक्णसंखा दब्व० उम्म० परिमाण० जाणणासंखा गणणा० भावसं०, तत्थ परिमाणसंखाए अवतरति सा दुविधाकालिय सुतपरिमाणसंखा य दिडिवायसुतपरिमाणसंखा य, तत्थ कालियसुतपरिमाणसंखाए समोतरति, कालियसुतपरिमाणसंखा अणेगविदा पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघातसंखा पदसंखा पायसंखा गाहा० सिलोग० वेढग० निज्जुत्ति० अणु| ओगद्वार० उद्देश० अज्झयण० सुयक्संध० अंगसंखा चेति, तत्थ विणयसुतं सूत्रतः परितपरिमाणी, परिमितपरिमाणमित्यर्थः, [24] प्रमाणाबतारः ॥ ११ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||-|| नियुक्ति: [२९/२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: H प्रत सूत्रांक H श्रीउत्तरा अर्थतोऽनन्तपर्यायस्वादनन्तपरिमाण, तेण अनंता पज्जवा संखेज्जा अक्खरा संखेज्जा संघाता संखेज्जा पदा संखेज्जा पादा। वक्तव्या___ चूर्णी है धिकारा १ विनयासंखेज्जा सिलोगा एगा णिज्जुत्ती संखेज्जा अणुयोगहारा एगे अज्झयणे, वत्तव्यया तिविधा-ससमयवतम्बया परसमयवत्त-|| निक्षेपाः ध्ययन ब्बया ससमयपरसमयवत्तब्वया, तत्र समयः सिद्धान्तः वक्तव्यता-पदार्थविचारः, तत्र स्वसिद्धान्तवक्तव्यतानियमितमिद मध्ययनं, यापिहि कचिदध्ययने परसिद्धान्तोभयवक्तव्यता वाऽनुश्रयते सापि हि यतः सम्यग्दृष्टस्तत्त्वदर्शनपरिग्रहात्- ॥१२॥ स्वसमयवक्तव्यतेवेत्यतः सर्वाध्ययनानि स्वसमयवक्तव्यतानियतानि-मिच्छत्तममहमय सम्म जं च तदुवगारमि । विकृति परसिद्धान्तो तो तस्स ततो ससिद्धान्तो ॥१॥ अथ अर्याधिकारो, सो विणएण,-अधुणा सभोवतारी जण समान | तारियं पइद्दारं । विणयसुयं सोऽणुगतो लाघवओ ण उ पुणो वच्चो ॥१॥ उवकमो गतो,' भण्णति घेप्पति य सुई णिक्खेवपदाणुसारतो सत्थं । ओहो पाम सुत् णिक्खेतब्वं ततो तस्स ॥१॥ ओहो ज सामण्णं सुत्तभिहाणं चउविहं तं च । अज्झयण अझीणं आयो झवणा य पत्तेयं ॥ १॥णामादि चउम्मेयं वणेऊणं सुयाणुसारेणं । विणयसुअं आयोज्जा चउसुंपि कमेण भावेसुं| |३|| ओहणिप्फण्णो गतो। णामणिप्फण्णे णिक्खेवे विणयसुयंति विणओ सुतं च दुपयं णाम, एत्थ णिज्जुत्तिगाहा 'विणयो पुबुद्दिष्टो'गाहा(२९-१५) विणओ चउविहो नामाइ जहा विणयसमाहीए तहेव भाणियब्यो, सुपि पूर्ववत् , गतो णामादि|णिफणो, इदाणि सुचालावगनिफण्णो 'जो सुत्नपदण्णासो सो सुत्तालावगाण निक्खेवो । इह पत्तलक्षणो सो णिक्खिप्पति ण| || पुण किं कज्जी॥१॥सुतं चेवन पावह इह सुत्तालावयाण कोऽवसरो। सुत्ताणुगमे काहिति तमास लाधवनिमित्त॥२॥अह यति पचोऽ- | &ावि ततो ण णस्सए कीस भन्नए इहई। दाइअइ सो निक्खेबमेत्तसामनओ नव।।३।। संपदिमोहाईणं सणिक्खिचाणमणुगमो कओ। 5- दीप % अनुक्रम H % 4-%- E [25] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||-|| नियुक्ति: [२९/२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक F श्रीउत्तरा सोऽणुगमा दुविकप्पो ओ णिज्जुतिसुचाणं ॥४॥णिज्जुतिअणुगमो तिथिहो, तं०-णिक्खेवाणिज्जुत्तिअणुगमो उवाग्धात-सूत्रानुगमः चूर्णौनिज्जुत्तिअणुगमो सुत्तफासियणिज्जुचिअणुगमो, तत्थवि णिक्खेबनिन्जति अणुगया जा एसा उत्तरज्झया खेवादि| १ बिनया अभिहिया, उवोग्यायणिज्जुत्तीअणुगमो ‘उद्देसे गिद्देसे य णिग्गमे खेत्त काल पुरिसे य । कारण पच्चय लक्खण णए समोध्ययने तारणाऽणुमति ॥ १॥ किं कतिविहं कस्स कहिं केसु कह केचिरं हवइ कालं । कति संतरमविरहितं, भवागरिसफासण णिरुत्ती ॥ २॥' एताणि दाराणि जहा सामाइए ॥ संपति सुत्तप्फासियणिज्जुची जं सुतस्स वक्खाणं । तीसेऽवसरो सा पुण पत्ताविण भण्णए इदई ॥१॥ कि ? जेणासति सुत्ने कस्स तई त जता कमा (सु)। एत्तो सुचाणुगमो योच्छिति होहि तसि तया भागो ॥ २ ॥ अत्थाणमिदं तीसे जदि तो सा कीस भन्नए इहई । इह सा भषणति णिज्जुनिमित्तसामXण्णतो नवरं ॥३॥' अतोऽनेनैव सम्बन्धेनेदानी नियुक्तिअनुगमनानन्तरं सूत्रानुगमः, सूत्रस्यानुगमः२ सूत्रानुसरणमित्यधेः, किं,17 न्यूनाधिकाविपर्यस्तादीदोषदुष्टमाहोश्विनिर्दोषमिति १, निर्दोषस्य च व्याख्यानं प्रारप्स्यते, शेपस्य चापनीतदोषस्येत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीय,-' अक्खलियं अमिलियं अविच्चामेलियं पडिपुत्रं पडिपुण्णजोगं कंठोढविप्पमुफ, न क्खलियमुप्पलाकुलभूमिलांगुलवन, न च मिलितमसमानधान्यसंकरवत, अविपर्यस्तपदवाक्यग्रन्थमथवा न संसक्तपदवाक्य, विच्छेद-15 विपर्यस्तमिति, इह च व्याविद्धविपर्यस्तपदवाक्यग्रंथयोस्य विशेष:- वर्णन एव च्याविद्धं, पदं वाक्यं ग्रन्थतो विपर्यस्तमिति, BI केचित्तु व्याविद्ध वर्णपदवाक्यं ग्रन्थतो मन्यते, संसक्तपदवाक्यं विच्छेदविपर्यस्तमिति, न च व्यत्याग्रेडितमनेकशास्त्रग्रन्थसङ्क ॥१३॥ राद् अस्थानच्छिन्नग्रन्थनाद्वा पायसभेरीवत् 'प्राप्तराज्यस्व रामस्य राक्षसाणा' मित्यादिवद्वाऽप्रतिपूर्णमर्थतो ग्रन्थतच, तत्र दीप अनुक्रम CAREERIES [26] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [B] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा ||-|| निर्युक्ति: [२९ / २९ ] अध्ययनं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउतरा० चूर्णां १ विनया ध्ययने ॥ १४ ॥ ग्रंथतो मात्रादिभिर्यम प्रतिनियतमानं छन्दसा वा अर्थतो न साकाङ्क्षमध्यायकस्वतंत्र वा प्रतिपूर्णघोषमुदात्तादिभिरविकलघोषमिति, 'कंडोहविप्पमुक' मिति स्पष्टमाह, नाव्यक्तं बालमूकभाषितवत् । एवंगुणसम्पन्नं सूत्रमुच्चारणीयं ततो तत्थ णज्जिहिति ससमयपदं वा परसमयपदं वा बंधपदं वा मोक्खपदं वा विणयपदं वा, तो तंमि उच्चारित समाणे केसिचि भगवंताणं केह अत्थाधिगारा अहिगया भवंति, केई अणगहिया, तेसिं अणगहियाणमत्थाणं अभिगमणट्टयाए पदं वन्नस्सामि इमेण विहिणा'संहिता य पदं चैव पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छब्विहं विद्धि लक्खणं ॥ १ ॥ तत्थ संहितपदुच्चारणं संहिता, 'परः सन्निकर्षः संहिते 'ति वचनात् पदं नाभिकादि पंचविई, तत्राश्व इति नामिकं खल्विति नैपातिकं, परीत्योपसर्गिक, धावतीत्याख्यातिकं, संयत इति मिश्र, पदार्थश्चतुर्विधः कारकादिविषयः, पचतीति पाचकः समासविषयः राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः, तद्धितविषयो वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः निरुक्तविषयो भ्रमति च रोति चेति भ्रमरः, अथवा त्रिविधः पदार्थः- क्रियाकारकभेदतः। पर्यायवचनतो भूतार्थाभिधानत इति, तत्र क्रियाकारकभेदतो 'घट चेष्टायां घटतेऽसाविति घट इत्यादि पर्यायवचनतो घटः कुम्भः इत्यादि, भृतार्थाभिधानतो योऽसावूर्ध्वकुण्डलोष्ठायतसूत्रग्रीवादिरूप इत्यादि । 'पायं पदविच्छेदो समासविसयो तयत्थनियमत्थं । पदविग्गहोति भण्णइ सो सुद्धपदे ण संभवति ॥ १ ॥ इह प्रायेण यः समासविषयः पदयोः पदानां वा छेदो अनेकार्थसंभवे इष्टार्थनियमनाय क्रियते स पदविग्रहः, यथा राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः, श्वेताः पटाश्रेति श्वेतपटाः इत्यादि, सुत्तगतमत्थविसयं च दूसणं चालणं मतं तस्स । सद्दत्यण्णायातो परिहारो पच्चस्थानं ॥ १ ॥ इह यत्सूत्रविषयमर्थविषयं वा दूषणमारभ्यतं शिष्यचोदकाभ्यां तचालनं विचारो वेत्यर्थः, तस्य शब्दार्थन्यायतो [27] व्याख्या प्रकाराः ॥ १४ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१/१ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः निर्युक्तिः [३०...६३/३०-६३] श्रीउत्तरा० चूण १ विनयाध्ययने ॥ १५ ॥ नयमतविशेषाच्च परिहारः प्रत्यवस्थानं दूषितप्रसिद्धिरित्यर्थः । एवमनुसुतमत्थं नयन ( सहनय) मतावतारपरिसुद्धं । भासे अ निरवसेसं पुरिसं च पहुच्च जं जोग्गं ॥ १ ॥ होति कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुताणुगमा । सुत्ताला वगनासो नामादिण्णासविनियोगं ॥ २ ॥ इह सूत्रतत्पदच्छेदाभिधानात्सूत्रानुगमः कृती जायते, अवसितप्रयोजन इत्यर्थः, सूत्रालापकन्यासोऽपि नामादिन्यासविनियोगमात्रं, 'सुतफासियनिज्जुत्तिनियोगो सेसयो पयत्थाई । पायं सोचिय णेगमणयादिमयगोयरो होई ॥ १ ॥ - तिम्रत्रस्पर्शक नियुक्तिविनियोग इत्यर्थः, शेषः- पदार्थविग्रहविचारप्रत्यवस्थानभेदः सूत्रार्थानुगमन स्वाभाव्यात् स एव हि प्रायो नैगमादिनयमतविषयः, प्रायोऽभिधानात्पदविधानन्यासोऽपीति, पादं पदाविच्छेदो सुत्तप्फासं च संहिता जेण । करसह इहत्थकारयकालादिगती ततो चैव ॥ १ ॥ प्रायः पदाविच्छेदोऽपि क्वचित् सूत्रस्पर्शान्तर्भाव्येव यतः क्वचित् पदविच्छेदादेवार्थः कालकारकादयो गम्यन्त इति एयमणुयोगद्वारपजोयणं भणियं, देट्ठा दारगाहा । एयं णिक्खित्तंति । एत्थ य सुत्तागमो सुत्तालावयकओ यणिक्खेवो । सुत्तप्फासियनिज्जुती णया य पइसोचमायोज्जा ॥ १ ॥ सुतानुगमे सुतं उच्चारयच्वंति, तं चिमं सुतं संजोगा विप्पमुवस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । विषयं पायो करिस्सामि, आणुपुवि सुह मे ॥ १ ॥ (१८ प० ) संजोगे निक्खेवो' गाहा । ( ३०-२१) संयुज्जत इति संयोगः, येन वा संयुज्जते स संयोगः, सो संयोगो छब्विहो- णामसंजोगोठवणा संजोगो दव्वसंजोगो खेत्तसंजोगो कालसजोगो भावसंजोगो, नामठवणाधो गयाओ, द्रव्यसंयोगो द्रव्ययोर्द्रव्याणां वा संयोगो द्रव्यसंयोगः, सो दुविहो- संजुत्तगदब्बसंजोगो इतरेतरदव्यसंयोगो य, तत्थ गादा 'संजुत्तगसंजोगो' गाहा (३१-२३ ) तत्थ संजुतदन्यसंजोगो णाम जो पुव्वसंजुत्त एव अण्णेण दग्वेण सह संयुज्जते, सो तिविधो [28] विनयप्रा दुष्करण प्रतिज्ञा संयोग निक्षेपाः संयुक्त संयोगः ।। १५ ।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१||| नियुक्ति : [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सत्रांक इतरंतर चूर्णी संयोगः - १विनया गाथा ||१|| C श्रीउत्तरासचिचसंजुत्तदव्वसंजोगो अचित्तसंजुत्तदबसंजोगो मीससंजुत्तव्यसंजोगो, तत्थवि सचित्तसंजुत्तदव्वसंजोगो णाम जहा | रुक्खो पुब्वं मूलेहिं पुढविसंबद्धेहिं उत्तरकालं कदेण सह युज्जते, एवं जापत्ति ताव नेय, एत्थ गाहा 'मूले कंदे' गाहा (३२-२३) | सचित्तसंजुत्तदव्वसंजोगे इमे गाहा-'एगरस एगवणे' गाहा ( ३३-२६) जहा परमाणुपोग्गले एगवण्णे एगगंधे एगरसे ध्ययने | दुफासे, स तु जता कालगत्तं पडिचइऊणं नीलगतेण परिणमति तदा गंधादीहिं संजुत्ते एव लीण(णील)गत्तेणं संजुत्तेणं, एवं लोहित॥१६॥ हालिहसुकिल्लत्ततोषि, णीलगो वा जया नीलगत् परिच्चइऊण कालगत्त्रेण परिणमति तदा गंधादीहि संजुत्ते एव लीण(नील)गत्तण | संजुत्रेण, एवं लोहिचहालिहसुकिल्लततोऽपि, एवं संजोगा वीसं भाणितच्या, गंधतोऽवि, जता सुम्मिगंधं परिच्चइऊणं दुरभिगंधत्तेण| परिणमति तदा वनरसफाससंजुत्त एव दुम्मिगंधत्तेण जुज्जते, एवं दुन्भिगंधोऽपि, रसो जहा वण्णो, फासे दुसु, जता सीतफासो उसिणफासं परिणमति तदा वण्णगंधरसफासणिद्धलुक्खाण फासाण एगतरेण संजुत्त एव उसिणं संयुज्जते, उसिणफासोऽपि सीत फार्स परिणमति, गिद्धोऽपि रुक्खफासं, रुक्खोऽपि निद्धफासं, अहवा एगगुणकालगो होचिऊणं उत्तरकालं दुगुणं कालगो | भवति तदा कालगवणेण संजुत्त एव, पुणरवि तेण वा अधिकतरेण संयुज्जते, एवं णेयो जाव अणतगुणकालगोत्ति, अवसेसेसु |य वष्णगंधरसफासेसु माणितव्यं जाव अणंतगुणलुक्खोत्ति, एवं दुपदेसिगादिसुवि विभासा, अचित्तसंजुत्तदश्वसंजोगो गतो॥ इदाणि मीससंजुत्चदन्यसंजोगो,स च जीवकर्मणोः, तयोः स्थानादिसंयोगे सति यदुपचीयते स मिश्रसंयुक्तसंयोगो मवति, 'जह धातू हा कणगादी' गाहा (३४-२५) यथा धातवः सवर्णादी स्वेन स्वेन भावेन परस्परसंयोगेन संयुक्ता भवंति,अथवैतेषां क्रमेण पृथगभायो भवति. अन्यत कि अन्यच्च सुवर्ण, एवं गृहाण जीवस्यापि संततिकर्मणाऽनादिसंयुक्तसंयोगो भवति, स च यदा निरुद्धयोगा %AE% A दीप अनुक्रम 5 [१] ॥१६॥ %ACRk -%A4% [29] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ॐ गाथा ||१|| % श्रीउत्तराश्रयो भवति तदा जीवकर्मणोः पृथत्वं भवति, दुस्सति (सचिचे) मूलकंदे अचिचे परमाणुपोग्गलग्गहणं वण्णगंधरसफासादीहिंपुद्गलबन्धा चूणों ४ संततिकम्मति मिस्सस्स गहतो जह धातू कणगा इति, उक्ताः संयुक्ताः संयोगाः । इदाणि इतरेतरसंजोगो, तत्थ निज्जुत्तिगाहा १विनया-] 'इतरेतरसंजोगों' गाहा(३५-२५) इतरेतरसंजोगो छविहो, तंजडा-परमाणूण पएसाणं अभिप्पेयस्स संजोगो अणभिप्पेयस्य संजोगो रे ध्ययने अभिलावसंजोगो संबंधनसंजोगो, तत्थ दुप्पमितीण परमाणूणं जो संजोगो सो इतरेतरसंजोगो भवति परमाणूणं, पदेसेसु दुपदेसा॥१७॥ दीण नेयमिति, तस्थ 'दुविही परमाणूणं' गाहा ( ३५-२५) परमाणं इतरेतरसंजोगो दुविहो-संठाणतो खधतोय, उक्तश्च-18 | समणिकाए पंधी ण होइ समलुक्खतापविण होति । चेमायणिद्धलुक्खनणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥ तत्थेगगुणणिद्धार एगगुणणिद्वेण सह न बज्झति, तहा दुगुणणिद्धो बेगुणणिवेण समं ण, अणंताणदो अणंताणखूण ण, एवं एगगुणलुक्खेवि एगगुणलक्खेण सह ण बज्झति, एगगुणलुक्खो दुगुणलुक्खेण जाव अणतगुणलुक्खो अणंतगुणलुक्खेण, एवं सम्बत्थ समगुणसु बंधो णस्थि, वेमातणिद्धलुक्खत्तणेणारी विषमा मात्रा विमाता, एवं भवति, कहं पुण ?, उच्यते 'णिद्धस्स णिद्वेण दुताहिएणं' ॥ लुक्खस्स लुक्खण दुयाहिएणं । णिद्धस्स लुक्खेण उवेति पंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥१॥ एगगुणनिद्धा तिगुणणिद्धण| बज्झति, तिगुणनिद्धो पंचगुणणिद्धेण, पंचगुणो सत्तगुणणिद्धेण, एवं दुयाहिएण बंधो भवति, तहा दुगुणणिद्धो चउगुणणिद्धेण, चउगुणणिद्धो छगुणणिद्धेण, छग्गुणणिद्धो अट्ठगुणणिद्धेण, एवं गेयं, लुक्खेवि एवं चेव, गिद्धलुक्खस्स पुण जहन्नगुणवज्जेसु BI सेसेसु विसमेसु समेसु वा बंधो भवति, 'जहन्नगुणो 'त्ति एगगुणणिो एगगुणलुक्खेणं ण बज्झति, सेसेसु दुगुणतिगुणठिएसु | वज्झति,अण्णे पुण भणंति-एगगुणस्स दुगुणाधितेण बंधो भवतीति, दुगुणाहिएणति एगगुणस्स तिगुणेण दुगुणस्स पंचगुणेण तिगुणस्स % दीप अनुक्रम [१] %* ॥१७॥ CescateCRCE - - ... अत्र पुद्गल-बन्ध: वर्णयते [30] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक - 5-57- ध्ययने । गाथा ||१|| A श्रीउत्तरा चूर्गौल सत्तगुणेण, एवं सम्बत्थ दुगुणाधिएणं बंधो भवति,तस्थ गाहा-दोण्ह जहण्णगुणाणं णिद्धाणं तह य लुक्खदव्वाणं । एमाहिएऽविय गुणे | PR १ विनया गुणथंधस्स परिणाहो(मो)॥१॥ण होति बंधस्स (वृ.) जेऽविय-णिद्धचिगुणाधिएणं बंधो णिद्धस्स होइ दवस । लुक्खविगुणाधिएण य, | लुक्खस्स समागमं पप्प ॥शा बझंति णिद्धलुक्खा विसमगुणा अहव समउणा जतिीव। वज्जेत्तु जहन्नमुणे बज्झती पोग्गला एवं | | ॥३॥ एमेव य खंधाणं दुपदेसादीण बंधपरिणामो। जो होइ जहा अहितो सो परिणामेति तदऊणं ।। ४ ।। जति विसमे संजोगो ॥१८॥ परिणामे तस्स केवलं तु खंघचे । अवसेसे परिणामो तारिसगं चेव तं दव्वं ॥५॥ सरिसगुणा सरिसगुणं अम्भहियगुणाण हीणगुणमेव । परिणामिउं समत्था न पुर्ण ऊणा तु अहियाणं ॥ ६॥ परिणामगा समाहिय परिणामिज्जति समो व हीणो वा । | दवगुणाधियभावेण ण पुण दव्वामिगत्तेणं ।। ७॥ जति बहुगं एकगुणं थेवीपय बहुगुणं जति हवेज्जा । परिणामिज्जति बहुगं थोवेण गुणाहियगुणेणं ।। ८॥ जति कालियमेगगुणं सुकिलयपि हवेज्ज बहुयगुणं । परिणामिज्जति कालं सुकेण गुणाहियMगुणेणं ॥९॥ जति सुकिल्लगमेगगुणं कालयदव्वं तु बहुगुणं जति य । परिणामिज्जइ सुकं कालेण गुणाहियगुणणं ॥१०॥ जति सुकं एगगुणं कालगदव्वंपि एगगुणमेव । काबोतं परिणाम तुल्लगुणं जस्स संभवति ॥११॥ एवं पंचवि बना संजोएणं तु वण्णपरिणामो । समहियहीणगुणेण य वणंतरसंगयाणं च।।१२।।एमेव य परिणामो गंधाण रसाण तह य फासाणं। संठाणाण य भणितो संजोएणं बहुविगप्पे ॥१८॥ H दव्य मणियं सप्पज्जयं निग्गुणा गुणा होति । जहि दब्वं तत्थ गुणा जत्थ गुणा तत्थ परिणामो।।१४ाएर पासंगिक,ते हि परि ।। माणवः संहन्यमाना अग्घाइज्जंता दुपदेशगादि खधं णिव्वत्तेन्ति५ संठाणं च, मृत्पिण्डवच्च, यथा मृत्पिण्डः कालान्तरेण पिण्डत्वेन | परिणमन् घटत्वेनोत्पद्यते तसंस्थानवत् , एवं तन्तवोऽपि पटत्वेनोत्पद्यन्त तत्संस्थानेन च, तद्वत्परमाणु नां पिंडो खंधत्वं संठाणं च। 5 दीप अनुक्रम + [१] % 361.4- ... अत्र संस्थान-भेदा: वर्णयते [31] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूणों - गाथा ||१|| श्रीउत्तरा IN परमाणवो वा कारणांवरात् संयुज्जते संयुज्जमाना स्कन्धवेनोत्पद्यन्ते तत्संस्थानेन च, तस्थ संठाणं पंचविह-'परिमंडले य गाहास १विनया 151(३८-२७)परिमंडल संठाणं दुविहं-घणपरिमंडलं पयरपरिमंडलं. तत्थ पयरपरिमंडलं जहन्न वीसपदेसियं चीसपदसोगाढं, उक्कोसेमं ध्ययने र | अणंतपदेसियं असंखेज्जपदेसोगाढं च,तत्थ वीसपदेसियस्सा इयं स्थापना घणपरिमंडले जहण चचालीसपदेसिए चत्तालीसपदे॥१९॥ सोगाढे, एतसि चव वीसाए परमाणूणं उरि अण्णा वीसं चेव परमाणू भवंति,उकोसेण अणंतपदेसितो असंखज्जपदेसोगाढो,वट्टो दुविहोघणवढे य पयरवडे य,पयरवड्ढे दुविहो-ओयपदेसिए जुम्मपदेसिए य,ओजपएसे जहन्नण पंचपएसिए पंचपदेसोगाढो उक्कोसेण अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढो, जुम्मपएसिए जहमेण वारसपएसिए बारसपएसोगाढे उक्को सेणं अणंतपएसिए असंखिज्जपएसोगाढे, घणवढे दुविहो-ओयपदेसिए जुम्मपदेसिए य, ओयपएसिए जहन्नेण सत्तपदेसिए सत्तपदेसोगाढो , एतस्स मज्झेल्लस्स पदेसस्स | उवरि एगो ठावितो हेट्ठावि एगो एवं सत्त भवंति, उक्कोसेणं तहेब, जुम्मपदेसिए जहन्नेण बत्तीसपदेसिए बत्तीसपदेसोगाढो एते | बारस चेव उवार एते बारस चेव एते चउच्चीस, एतेसिं चउव्वीसाते उवीरं चत्तारि हेट्ठावि चत्तारि, एवं बचीसं भवंति. उक्को| सेणं तहेच, तसे दुविहे-घणे पतरे य, पतरतसे दुविहो ओयपदसिए जुम्मपदेसिए य, ओयपदेसिए जहनेण तिपदेसिए तिपदेसोगाढे, उकोसेणं तहेच, जुम्मपदेसिए जहन्नेण छप्पदेसिए छप्पदेसोगाढो उकासेणं तहेव, घणो दुविहो-ओये जुम्मे य, जहनेण पणतीसपदेसिए पणतीसपदेसोगाढो, एते पन्नरस पदेसा, एतेसिं इमे उपरि एते दस पदेसा, एतसिं उवार एते. छप्पदेसा, &ाएतेसि इमे उपरिं", एतेसिपि उवरि , एवं एतं सबंपि घणं तंसं एगं निष्फन्नं भवति, जुम्मपदेसिए जहन्त्रेण चउप्पदेसिए चउ दीप अनुक्रम KXC9* [१] ॐॐ457 [32] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा ||१/१|| निर्युक्तिः [३०...६३/३०-६३] अध्ययनं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण १ विनया ध्ययने ॥ २० ॥ |प्पदेसावगाढे, एत्थ जे तिन्नि तत्थ एतेसिं एयम्स उचरिं एको कीरह, उक्कोसेणं तदेष, चउरंसे दु०-धणे पयरे य, पयरे दुविहे ओए जुम्मे य, ओये जहनेण णवपएसिए णवपदेसावरगाढे :: उक्कोसेण तद्देव, जुम्मपदेसिए जह० चउपदेसिए चउपदेसोगाढे ॐ, उक्कोसेणं तहेव, जुम्मपदेसिए जह० अट्ठपएसिए अट्ठपएसोगाढे, एतेसिं चेव उवरिं अने चचारि, एते अट्ठ, उक्कोसेणं तहेव, आयते दुबिहे - सेढी आयतो घणायते य, सेढीआयते दुबिहे ओये जुम्मे य, ओये जहण्णेण तिपदेसिए तिपदेसोगाढे ... उक्कोसेणं तहेव, जुम्मपदेसिए जहन्त्रेण दुप्पएसिए दुप्पएसोगाढे, उक्कोसेणं तहेब, पयरागतो दुविहे ओये जुम्मे य, ओये जह०पण्णरस पदेसिए पन्नरसपदेसोगाढे उक्कोसेणं तहेव, जुम्मपदेसिए जहन्त्रेणं छप्पदेसिए छप्पदेसोवगाढे, उक्कोसेणं तद्देव, वणायते दुविहे ओए जुम्मे य, जोए जहनेणं पणयालीसपएसिए पणयालीसपएसिओगाढे, एतेसि देट्ठा उवरिं च पण्णरस, एते चेत्र पणयालीसं भवंति, उक्को सेणं तद्देव, जुम्मपएसिते जहन्त्रेणं बारसपएसिए बारसपएसोगाढे, एतेर्सि उवरिं अन्ने छप्पएसा ठाविंति एवं बारस | हवंति, उक्कोसेणं अनंतपएसिए असंखेज्जपण्सोगाढे, एवं परमाणूनां संठाणओ गतं इदानीं त एव परमाणवः संहन्यमानाः स्कन्धत्वं निर्वर्त्तयन्ति न च संस्थानं, तद्यथा-अचित्तमहास्कन्धः, जे च अण्णे अणित्थंत्थसंठाणं परिणता, अणित्थत्थं णाम अगप्पगार, पंचहं संठाणाणं एगतरमवि ण य भवति, एसो परमाणूणं इतरेतरसंजोगो गओ, इदाणिं पदेसाणं इतरेतरसंजोगो, तत्थ गाहा'धम्माइ|पदेखाणं' गाहा ( ४२-२९) तत्थ धम्मत्थिकाइयाईणं पंचण्डं अस्थिकायाणं यः स्वैः स्वैः प्रदेशैरन्यद्रव्यप्रदेशश्च सह संयोगः स प्रदेशत इतरेतरसंयोगो भवति, तत्थ धम्मत्थिकाय- अधम्मत्थिकाय - आगासत्थिकायाणं एतेर्सि तिन्हवि अपातीओ अपज्जवसिओ इतरेतरपदे संसयोगो भवति, जीवद्रव्यस्यापि आत्मप्रदेशैरेव सह इतरेतरसंयोगः, तत्थवि य तिन्हं तिहूं अणावीवो, सेसाणं [33] संस्थानानि ॥ २० ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक H गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा ||१/१|| निर्युक्तिः [३०...६३/३०-६३] अध्ययनं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउतरा०चूर्णी १ विनयाध्ययने ॥ ११ ॥ तत्थ छव्विद्दे णामे भावो छब्बिहो वणिज्जति, तत्र क्षायोपशमिक एव श्रुतावतारो नान्यत्र श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजत्त्वात् श्रुतस्य प्रमाणं दव्वादि चउब्विहं, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं तत्थ भावप्यमाणे समोयरति, भावगुणप्पमाणं च तिविह-गुणप्पमाणं णयप्पमाणं संखप्पमाणं, गुणप्पमाणं दुविहं- जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च ततो जीवाऽन्यत्वाद्विनयसूत्रस्य जीवगुणप्पमाणे समोतरति तं तिविहं णाणगुणप्पमाणं दंसणगुणप्यमाणं चरितगुणप्पमाणं तत्र बोधनात्मकत्वाद्विनयसूत्रस्य णाणगुणप्पमाणे समोतरति णाणगुणप्पमाणं चउन्विहं तं०- पच्चकखं अणुमाणं उचमं आगम इति, तत्थ विणयसुयस्त प्रायशः परोपदेशकत्वादागमप्रमाणेऽवतारो, आगमो दुविहो-- लोइओ लोउत्तरिओ य, लोउत्तरे समोयरति, लोउत्तरो दिविदोसुतं अत्थो तदुभयंति, तिसुचि समोयरति सो विविहो- सुत्तागमो अनंतरागमो परंपरागमो ( तत्थ सुत्तओ थेराणं अत्तागमो अत्थओ अनंतरागमो थेरसिस्साणं सुत्तओ अणंतरागमो अत्थओ परंपरागमों, तेण परं सुत्त ओवि अत्थओवि) नो अत्तागमो नो अनंतरागमो, परंपरागमो, गतं गुणप्पमाणं । मूढणयियं कालियं सुचंति नाधुना नयप्रमाणावतारः, 'आसि पुरा सोणियते अणुयोगाणमपुडुत्तभावंमि । संपति णत्थि पुहुत्ते होज्ज व पुरिसं समासज्जा ॥ १ ॥ संखष्यमाणं अडविहं- नामसंखा ठक्णसंखा दब्व० उम्म० परिमाण० जाणणासंखा गणणा० भावसं०, तत्थ परिमाणसंखाए अवतरति सा दुविधाकालिय सुतपरिमाणसंखा य दिडिवायसुतपरिमाणसंखा य, तत्थ कालियसुतपरिमाणसंखाए समोतरति, कालियसुतपरिमाणसंखा अणेगविदा पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघातसंखा पदसंखा पायसंखा गाहा० सिलोग० वेढग० निज्जुत्ति० अणु| ओगद्वार० उद्देश० अज्झयण० सुयक्संध० अंगसंखा चेति, तत्थ विणयसुतं सूत्रतः परितपरिमाणी, परिमितपरिमाणमित्यर्थः, [34] प्रमाणाबतारः ॥ ११ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक 3 थाउत्तरा० १विनयाध्ययने ॥२२॥ गाथा ||१|| % स च ती च ते, एवं दुगादीयो, अक्खरसंजोगमादी व्यञ्जनं भवति, तत्र व्यञ्जनसंजोगो भवति यथा स्त्री, कोऽर्थः?, व्यञ्जनान्यने- सस्थानान कानि, एसोऽभिलावसंजोगी। इदानि संबंधणसंजोगो, सो चउब्बिहो, तं०-दब्बसंबंधणसंजोगो खेत्त० काल० भाव०, | तत्थ दब्वे 'संबंधणसंजोगो' गाहा (४६-३२) सचित्तदव्वसंबंधसंजोगा तिविहो, दुपयादी, तत्थ दुपयसच्चित्तसंबंधसंयोगो | यथा पुत्रयोगात्पुत्री, एवं चतुष्पदेऽपि यथा गोसंयोगात गोमान, अपदे यथा आरामसंयोगिकादारामिकः, अचित्ते यथा 15 कुंडलसंजोगा कुंडली, मिथे यथा रथेन गच्छति रथिको गच्छति । 'खेत्ते काले य तहा' गाहा (४७-३२) खेचसं|बंधसंयोगो द्विविधो, तं०-अप्पितो अणप्पितो य, अणप्पितो- अबिसेसितो, अप्पितो-विसेसिओ, तत्थ अणप्पिती || जो जेण खेत्तेण संजुतो अप्पितो, जहा सोरडतो मालवतो मागहो इत्यादि, एवं कालेऽपि दुविहो, णवरं अप्पिओ अजहा वसन्तगो, खेतवि कालेवि एवं दुविहं तु तेण दोण्हवि दुविहो य संजोगो, इवाणि भावसंबंधण-12 संजोगो गाहापच्छद्रेण भएणति-'भावंमि होइ दुविहो आदेसे चेव णादेसो' भावे दुविहो-आदेसे। चेव णादेसो, भावे | विदो-आदिट्ठो अणादिहो य, तत्थ अणादिट्ठो भाव इति षण्णां भावानामन्यतमः, एत्थ गाहा-उदइयउवसमखइएसुतह| खइए य उपसमिए । परिणामसभिवाए य छव्यिहो होतिऽणादेसो (४८-३३) कह पुण?, जहा उदइयो भावो आदेस्सइ तदाण जति किं मणुसस्स उदईओ अमणुस्सस्स उदइओ?, उदइओ पुण सामनो जीवाजीवदव्बेहिं भवति, उपसमिओवि तहेव, एवं जाव। परिणामिओवि, सामग्रएवि भवति, 'आदेसो पुण दुविधो' गाथा (४९-३३) आदेसो दुविधी-अप्पियववहारगो अण-131 |प्पितववहारगो य, इक्केके तिविही-आत्मन्यर्पितः बहिरर्पितः अनात्मनीत्यर्थः उभयापित इति, अत्रात्मन्यर्पितो णाम 'उवस दीप अनुक्रम [१] - [35] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक -- गाथा ||१|| श्रीउत्तरामेण य' गाहा (५०-३.) आपसमिकः क्षायिक क्षायोपसामिका पारिणामिको य अप्पितो वा भवति तदा आत्मनि प्रत्यबसेयः ।। चूणों एतेसु चउमीब आत्मसंयोगो भवति, एते हि जीवगया भवति-एतेसु भावेसु जीवो भणण्णा भवति, तदात्मक इत्यर्थः । अनर्पित १ विनया लिस्तु भाव एव, 'जो सन्निवादितो खलु' गाहा (५१-३४) जो सभिवाइतो भावो उदयियवाजितो भवति तत्थेव सणिवादीणं ध्ययने चउण्हं भावाणं दुगसंजोगेणं तिगसंजोगेण चउक्कसंजोगेण एक्कारस भंगा भवंति, तत्थ छ दुगसंजोगे चतारि तिगसंजोगे ॥ २३॥ एक्को चउकसंजोगे एते एक्कार संजोगा भवंति, एसोवि अत्तसंजोग एव, गती अत्तसंजोगी। पाधसंयोगो नाम 'लेसा, + साय चंदण' गाहा ( ५२.३४ ) यदा औदयिका लेस्याः कपाया वेदनं वेदो अज्ञान मिथ्यात्वं च अर्पितं भवति तदा अनात्म कमिति प्रत्यबसेयः, किमुक्तं भवति ?-कर्मपुद्गलोदयादेतानि भवन्ति, अनर्पितस्तु भाव एवौदयिका, उक्तो बाब अभ्यन्तरश्च | भावसंयोगः तदुभयसंयोगो इमो-'नो सन्निचाओ खलु' गाहा (५३-३५) सम्बे ओदयिकं अमुंचमाना संजोगा कायन्वा, तत्थ दुगसंजोगा ओदयिक अमुचमाणेण चत्तारि तियसंजोगा छ चउक्कसंयोगा चत्तारि एगो पंचसंयोगे, एवं औदायिकभावं अचमाणेण पचरस संयोगा भवंति 'बितिओवि आदेसो' गाहा (५४-३५) अयमपरः किल आदेशः, भावसंजोगो तिविधो-अत्त-2 संजोगो परसंजोगो तदुभयसंजोगो, 'ओदयिय' गाहा (५५-३६) तत्रात्मना पडू भावाः संबध्यन्ते, जहा ओदयियोर मणुस्सो स एव उपसंतकसाओ, स एव खीणदसणमोहणीओ, स एव खोबसमसुत्तनाणी, पारिणामिओ जीवो, अयमात्मसंयोगाBIऽभ्यन्तर इत्यर्थः, बाह्यसंयोगसु 'णामंमिय' गाहा (५६-३७) इह नामिनो नाम्ना सह संयोगो भवति यथा देवदत्त इति, द्रव्या दिभिश्व पाहसंयोगो भवति यथा दंडसंयोगाइंडी, क्षेत्रेण आकाशेन सह संयोगः ग्रामेण नगरेण वा इत्यादि, काले दिवसादिना,, -- E444 दीप अनुक्रम [१] '118% [36] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| आउचराभावेण उ संजोगः अंतर एच, नहि भावो भाविनोऽर्थान्तरभूतो भवति, मा भूदभावप्रसंगा, तदुभयसंजोगो दब्वेण कोधी दंडी संस्थानानि १ विनया क्रोधी मुकुटीत्येवमादि, तथा क्षेत्रण क्रोधी मालवकः क्रोधी सौराष्ट्रक इत्यादि, कालेनापि क्रोधी वासंतिक इत्यादि, अयमन्योऽ-14 ध्ययन पि बाह्य एव परस्परं संयोगो भवति, 'आयरियसीस' गाहा(५७-३७) यथा आयरियस्स सिस्सेण सद्धि संयोगः, असावपि बाह्य संयोगो भवति, आयरिया इत्युक्ते अवश्यंशिष्येण तदितरेण भवितव्यं यस्यासावाचार्य इति, तथा शिष्य इत्युक्ते अवश्यमाचार्येण ॥२४॥ | भवितव्यं, आद-कीरशोऽसावाचार्यः शिष्यो वेति?, उच्यते 'आयरिओ तारिसओ' गाहा(५९-३९) किमुक्तं भवति?-आयरिओ तारिसो जारिसा आयरिया भवती, आयरियगुणेहि उबवेओ यथाचार्यः स्वगुणमाहात्म्ययुक्तः तारशः, शिष्योऽपि तत्तद्गुणसश,INI यथा पुत्र इत्युक्ते अवश्यमेव तस्य पित्रा भाव्य, तथा पितेत्युक्ते अवश्यं पुत्रेण भाव्यं यस्य सो पिता, एवं मातापुत्रयोर्मातादुहित्रोः तथा भार्यापत्योः, एवं शीतोष्णयोः, शीतमित्युक्तं अवश्यमुष्णे संप्रत्ययो भवति, एवं तमउद्योतयो छायाऽऽतपयो,' एवं णाण' गाहा (१६.४०) तथा ज्ञानमित्युक्ते अवश्य ज्ञानस्य ज्ञेयेन वा साई संयोगो भवति, तथा चरणमित्युक्ते चरणमाभाव्यं का स्वमित्यर्थः, न ज्ञानी ज्ञानादन्यो भवति, यद्यन्यस्तस्मादज्ञानी स्यात् , तथा चरणादपि यदाऽन्यः स्यात् तेन न चारित्री स्था, तस्माच्चरणचरणिनोरेकत्वं, तेणेवेस अभ्यन्तरसंयोग एच, न बाह्यः, तथा ज्ञातानिना सह संबंधो भवति, ज्ञानस्य च लेयेन | ॥२४॥ उभयसंबंधो भवति, एवं चारित्रेणाऽपि, तथा स्वामित्वेऽपि ममैष स्वामी, अथवा स्वामित्वेनोभयसंयोगो भवति, ममैप दासस्य । (स्वामी) एप च मम पितुः पुत्रः मम कुलाम्यन्तर इति, एप संयोग उभयसंबंधो भवति । 'पच्चयतो य बहुविहो' गाहा (६०-४१) प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः, ज्ञायत इत्यर्थः, सच बहुविधा, तद्यथा-घट प्रतीत्य घटज्ञानमेवमादीनि प्रत्यय MECHIKARICS दीप अनुक्रम [१] PLA-L-cost [37] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१/१|| नियुक्ति: [३०...६३/३०-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक संस्थानाति गाथा ||१|| श्रीउत्तरा ज्ञानानि भवन्ति, आह-यद्येवं घट प्रतीत्य घटज्ञानं पटं प्रतीत्य पटनानं तेन किं प्राप्ती, जिनस्यापि तत्प्रत्ययपूर्वकमेव ज्ञान चूणा मवति, मा भूदप्रत्ययं, उच्यते, यदवोचस्त्वं यथा प्रतीत्यप्रत्ययतो ज्ञानं भवति नाप्रत्ययमिति तेन तस्यापि भवतीत्यत्र ब्रूमः, विनया- असदेतत् , कस्मात् !, सिद्धान्तापरिज्ञानात् , यद्येतत्प्रत्ययपूर्व ज्ञानं एतद्धि छमस्थानां, जिना हि भगवंतः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः मिन्नतमस्काः, तेषां हि निवर्चितप्रत्यय ज्ञानं, तेषां माहात्म्य विभूतिरेषा भगवतो निरावरणस्य सर्वभावावभासकं प्रानं भवति । ॥२५॥ अन्यच्च केवलिनस्तु केवलज्ञाननिवर्तितप्रत्ययं, एकप्रकारमेव, यस्मादेकं केवलज्ञानमिति, अथ एकेन हस्तेन बहवः पटा ग-1 धन्ते, न तेषामेकत्वं, एवमेकेन केवलज्ञानेनानन्ता भावा एककाले गृह्यन्ते, न च तेषामेकत्वं भवतीति । देहा य बद्धमुक्का अम्भि-| तरसंजोगो भवति, तत्थ अम्भितरं कम्मगं वाहिरं ओरालियं, जाणि संपयं सरीराणि बद्धणि सो अभितरसंजोगो, जाणि मुक्काणि सो बाहिरसंजोगो, एवं मातिपितिसुतातिसु जेसु संपदं वद्दति ते अचसंयोगा, जे अतिकता ते परसंयोया भवंति, 'संबंधणसंजोगो' गाहा (६१-४२) पुवकम्मेहिं संबद्धस्स कसायस्स जीवस्स जो अमिणहि सह कम्मेहिं बंधो भवति सो संब-I धणसंजोगा भवति, जेहिं भगवतो विदितसपरा छिन्ना, ण हि बंधणा ते तेसिं भगवंताणं कोति पडिबंधहेऊ विज्जति, तथा प्रभुत्वादुत्पद्यते ममेदमिति अहमस्य स्वामी, अप्रभोरुत्पद्यते स्थानाद्यपि स्वामिसंबंधन ममीकरीत, एवमेतत्परिचिन्त्यमान | यस्य हि ममेदमिति भवति तस्य संबंधनसंयोगसंबंधो बहुमतो, नान्येषामपि, 'संबंधण' गाहा (६२-४४ ) यश्च संबंधन संयोगाभिलाषः एष संसारहेतुको भवति, अनुत्तरवासश्च भवति, तच्छेत्तुमुधवाः साधवः, अतः अस्माद्भावसंयोगाद्विप्रमुक्का इति लासंबंधणसंयोगो भणितो, इतरेतरसंयोगोयगतो। इदाणि खेत्तकालभावसंजोगो भन्नति-तत्थ गाहा-संबंधणसंजोगे दीप अनुक्रम ॐॐॐॐॐॐ ॥२५॥ [१] [38] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं 1-1/ गाथा ||२|२|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक -1 गाथा ||२|| श्रीउत्तरा० खेतादीणं विभास जा भणिया । खेत्ताइसु संजोगो सो चेव विभासितव्योतु (६४-४३) अथवाऽऽकाशप्रदेशैः साईविनीतेतर: चूणा संयुज्जमाने इतरेतरसंजोगो भवति , सेसं यथा सम्बन्धणसंजोग खत्तादी भणिता तथा विभाषितव्याः, लक्षणानि ध्ययने । एष संयोगः, अस्मात्संयोगाद्विप्रमुक्तस्य विशेषेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तोऽतस्तस्प, संयोगात् विप्पमुक्कस्स, न गच्छंतीत्यगा- वृक्षा इत्यर्थः, अगैः कृतमागारं गृहमित्यर्थः नास्य आगारं विद्यत इत्यनगारः, अतस्तस्य अणगारस्स, भिक्खणसीलो भिक्खू, भिक्खु॥२६॥ ग्गहणं मिगचारियापचित्ताणं दबअणगाराण वुदासत्थं, ते हि दव्वअणकारत्ति विगतिअ ण भिक्खयो भवंति, निदानापहत Vबालतपःकम्मभिरदत्तजीवितत्वात अप्रासुकाहारकत्वान्न मिक्षवः,अथवा अनगार एवं भिक्खुाअतस्तस्य अणगारस्स भिक्खुणो, 'विण-IN यंति' विनयंति चाष्टप्रकार कर्म विनयः, 'मादुः प्रकाशने' उक्तं हि-"प्रादुरासीत् मुनिः सिद्धस्तस्मिन्नृपति चेन्मति (जन्मनि)" तथा पाउकरण दुविह- पागडकरणं पगासकरणं च'आणुपुब्वी सुह मे' आनुपूर्व्यनुक्रमः, परिपाटीत्यर्थः, यथोपदिष्ट यथा कार्य यथा क्रमः सो वा, तथा पठ्यते च 'आणुपुब्धि सुह मे ॥१॥ स्यान्मतिः कथं विनीतो भवति, उच्यते-' आणाणिद्देसकरे' सिलोगो (२०४४) आज्ञाप्यतेऽनया यस्य आज्ञा, निर्देशनं निर्देशः, आझैव निर्देशः, अथवा आज्ञा-सूत्रोपदेशः, तथा निर्देशस्तु तदविरुद्ध गुरुवचनं, आज्ञानिर्देशं करोतीति आणाणिद्देसकरो, गुरुरेव गुरुः तस्स गुरुणो, उप-द पतनमुपपातः, शुश्रूषाकरणमित्यर्थः, 'इंगिताकारसंपन्नो' इङ्गितमेव आकारः इशिताकारः, अथवा इगितं कंपितमित्यर्थः ही तयथा-शिरसकंपो बृहस्तक्षेपो वा, आकृतिराकारः, तथा ' नेत्रवत्रविकाराभ्यां गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः' अथवाऽऽगंतगमागारं ॥२५॥ हाचेति सोत्तुमाकारं, वेत्तुमाकार, जहा 'अवलोयणं दिसाणं वियंभणं साहगस्स संठवणं । आसणसिढिलीकरण ECECA% दीप अनुक्रम २] C4k [39] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक फलं. चूर्णी गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा०पछियलिंगाई एयाई ॥ १ ॥' एवमादि संपन्नवान् संपन्नः, स एवंविधो विनीत इत्युच्यते, न हि विनयो विनीतमन्तरेणा- अविनय |स्तीति अपदिश्यते स एव विनय इति ॥ उक्तो विनयस्तद्विपक्षोऽविनयः, तहा हि मृढणयिय कालिय,अत्थापतित्तिकाऊण उच्यतेMI'आणाऽणि ईसकरे' सिलोगो (३०४४) पुब्बद्धं कंय, 'पाडणीए असंबुद्धो अनीकं प्रति यदन्यदनीकं तत्प्रत्यभनीकं, सचाय-अत्यनीकीभूते विलोमकारि इत्यर्थः, सम्यग्बुद्धः-संबुद्धः न संबुद्धः असंबुद्धः, विनयाद्यकोविद इत्यर्थः, से अवि-| शणीएत्ति पुच्चति ।। तद्विपाकस्त्यिहैव जहा सुणी पूतिकण्णी' सिलोगो (४ सू०४५) येन प्रकारेण यथा, श्वसति श्वा | स एव शुनीत्युपदिश्यते, अथ शुनीग्रहणं सुनी गर्हिततरा, न तथा श्वा, पूति यस्याः कर्णो सो भवति पूतिकी, 'निक्कसिज्जति'ति निकृप्यते सव्वसोत्ति' सन्चपागारं सर्वावस्थासु वा सर्वशः, ' एवं ' अवधारणे, दुद्दशीलो दुशीलः, अनीकं प्रति यद नीक, स चायं प्रत्यनीकीभूतो प्रतिलोमकारीत्यर्थः, जह जं भणितं न काहं, जत्तो वारेसि तत्थ वासेज्जा । (सोच्चा) किं अरि जराओ Hघेत्तुं उदयं ण दिण्णोमि ॥१॥ मुहेण अरिमावहतीति मुहरी, यत्किचित्प्रलापीत्यर्थः, स्याद् बुद्धिः- किं सो एवं करोनि जेण मानिकसिज्जति ?, उच्यते, स्वभावोपघातात, दिट्ठतो- 'कणकुंडग' सिलोगो (५ सू०४५) कणा नाम तंदुलाः, कुंडगा-14 कुकसाः, कणानां कुंडगाः कणकुंडगाः, कणमिस्सो वा कुंडकः कणकुंडका,सो य बुद्धिकरो,सूयराण प्रियस्सथ, सः तदमवि कणकुंडकं| 'जहिताणं' ति 'ओहाक त्यागे' तत्थ जहातीति भवति. स्वभावोपहतबुद्धित्वात् 'विठं भुंजति सूयरों विट्ठ- पुरीसं, यथेति वाक्यशेषः, एवं शीलं जहिताणं दुःशीलभावो दौःशील्यं तस्मिन् दौस्सील्ये, रमति, मृगवत् मृगः, दुश्शीलो सीमंतेहिं णिक-४॥२७ सिज्जति,अतः 'सुणियाऽभावं ' सिलोगो (६ सू०४६ ) श्रुत्वा-सुणिया, असोहणो भावो अभावो, जहा असोहणं सील दीप अनुक्रम [३-४८] F% [40] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ॥३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] + चूर्णि:) भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (निर्युक्तिः मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] १ विनया ध्ययने ॥ २८ ॥ श्रीउत्तरा ० २ जस्सेति असीलः, अथवा न भावः, जहा अभावो देखस्स नगरस्स वा वट्टति, साणस्स पूतिकण्णस्स सूयरस्स कणगकुंडकं चूर्णौ चहचाणं, एवं दुःसीलन रस्सेति, यस्ताभ्यामनुसासित एवं दुःशीले पडिणीए, विणये ठवेज्ज अप्पाणं पच्छद्धं कण्ठ्यं, सोहिण पूर्तिसुरागो व शिकसिज्जति, यतश्चैवं 'तम्हा विणयमेसिज्जा ' सिलोगो ( ७ ० ४६ ) तम्हा इति कारणाद्विनयं 'एसेञ्ज' त्तिविणयं कुर्यादित्यर्थः, येन किं लभ्यते ?, विनयाच्छीलं प्रतिलभ्यते, कोऽभिप्रायः १- आचार्या हि सम्यगुपचर्यमाणाः श्रुतेन लाभवन्ति, सोए ( चोय ) णादिभिव, इत्यतो विनयकरणाच्छीलं प्रतिलभ्यते, विनयः प्रतिलभ्यते इत्यर्थः, 'बुद्धबुत्ते णियागडी ' बुद्धैरुक्तं बुद्धोक्तं ज्ञानमित्यर्थः, तदेव च नियाकं निजकमात्मीयं, शेषं शरीरादि सर्वं पराक्यं, बुद्धा नामाचार्याः, बुद्धानां वा पुत्राः, नियाके यस्यार्थः स भवति णियागट्ठी, ण णिकसिज्जति कण्हुती, न कुतश्रिदपीत्यर्थः । एवंविधश्च ण णिक्कसिज्जति णिसंते सिया' सिलोगो ( ८ सू० ४६ ) अहियं शांतो निशान्तः, अक्रोधवानित्यर्थः, अत्यन्तशान्तचेष्टो वा मुखे अरिमावहतीति मुखरी, न मुखरी अमुखरी, दान्तेन्द्रियः, बुद्धाः आचार्याः, अंतिकमत्यासं, तेषामतिके तिष्ठन् सुप्रशान्तो अमुखरी दान्तश्च भवेदिति, अथवा प्रशान्तोऽमुखरी दान्तश्च तेषामंतिके तिष्ठन् अत्थयुतानि सिक्खेज्जा, अर्थेन युक्तानि सूत्राव्युपदेशपदानि वा, न येषामर्थो विद्यत इति निरत्याणि, तु विशेषणे, जहा 'भारहरामायणादीणि अथवा दिच्छो दविच्छो पाखंड इति, अथवा इत्थिकहादीणि । जति पुण णिरत्यगाणि सिक्खमाणो आयरियादीहिं अणुसासिज्जेज्ज तदा अणुसासितो ण कुप्पेज्जा' सिलोगो ( ९ सू० ४७ ) अणुकूलं सास्यते स्म अनुशासितः कुप्यते येन स कोषः तं न कुर्यात्, क्षमता क्षान्तिः तं सेवेज्जा, पापाडीन: पंडितः, पण्डा वा बुद्धिः पण्डितः तयाऽनुगतः, स एवंविधः खुडेहिं समं संसर्ग, बालकैरित्यर्थः, [41] शिक्षारीतिः ॥ २८ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक - ध्ययने गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा०क्षुणतीति क्षुद्रः, क्रूरकर्मा इत्यर्थः, क्षुद्रकर्मणो चा, संसर्जनं संसर्गः, हास्यं च क्रीडा च हास्यक्रीडे, तत्र हास्यं भासित्ता पासित्ता क्रोधवारगं चूणा मणेत्ता संभरेचा य भवति, हसंतो मोहणिज्ज बंधति, लोगपरिवायो सज्झायोवरोहे सूलादि वा होज्जा अतिहासात, उक्तं च१ विनया-1 "जीवेणं भंते! हसमाणेण वा उस्सुयमाणेण वा कति कम्मपगडीओ बंधति?, गोयमा! सत्तविहवंधए वा अडविहांधए वा" क्रीडतोऽप्येवमेव, कीडा गाहा यकवाल (वष्णलो) वादीहिं, अहवा जे कीडपुष्पगं हास्यं तद्विवजेयेत्।। ॥२९॥ अयमन्यो विनयोपदेशः, 'मा य चंडालिय कासी' सिलोगो (१० सू०४७) चंडो नाम क्रोधः, ऋतं सत्यं, न ऋतमनृतं, पागते तु तमेव अलियं, चंडं च अलियं च चंडालियं, अथवा चंड इति क्रोधः, अल पर्याप्ती, चंडेन अलं यस्य भवति चंडाला-पोतक्राध हा इत्यर्थः, चंडभावः चंडालिक, चंडालेन कलितः चंडालः (लिजः), तंमा य चंडालियं कासि, चंडाल इव चंडालः चंडालमागलायप्रीति, चंडेन वा आगलितः चंडाला, आरूढोवि य हासविकहापसंगेसुवयंमा य आलवे बहुयं-बहुपरिमाणं, अमानोनाः प्रतिषेधे, भृशं || मालपत्यालपेत्, स्वाध्यायादिव्याघातः वायुसंपदे मा (आत्म) बाधाय, तेन कार्थमात्र भाषेत, कालेन अहिज्जित्ता' कलाभिनिवर्तितः कालः,सूक्ष्मामपि कलां कलयत इति काला,सकलयति भूतानि वा कालः,यो हि यस्य अध्ययनस्य काल कालिकस्येतरस्य वा तस्मिन् काले अधीत्य 'ततो झाएज एकओ'उक्तं हि एकस्य ध्यान द्वयोरध्ययनं त्रिप्रभृतिग्रामः, एवं लौकिकाः संप्रतिपमाः, वयं तु ससहायो * असहायो वा रागद्वेषासहायवान् एक एव, 'आहच्च चंडालियंकटूटु' (११सू.४८) आहृच्चेति कदाचित, यदिह नाम कदाचिन्निग्रह | का परस्यापि सतः सहसा चण्डालः उदीर्यते तमुदीर्ण निन्हवेत तद्यथाऽऽहानं निन्हवं, व्यपलाप इत्यर्थः, योग्यप्रकाश कोषः, सोऽपि न | निववितव्यः, तत्रात्मनिन्हव एव भवति, सदा वा अचक्षुर्दानादिभिः परैरुपलक्षीयत्वा उच्यते-मवान् ममान्यस्य वा रुपित इति, दीप अनुक्रम [३-४८]] ... अत्र क्रोध एवं चंडरुद्राचार्यस्य दृष्टान्त कथयते [42] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H | गाथा ||३-४८/३-४८|| श्री नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गलिराकीया गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा० तथापि न निन्हवितव्य, एवं प्रकाशमपि कृत्वा अनुपशान्तोऽपि प्रत्युद्यमकरणात् ब्रवीत्यहम् शान्त इति, एष निन्हवः, एवं चूर्णी मृपाबादेऽपि प्रत्यक्षे वा प्रत्यक्षे वा न निन्हवितव्यं, कदाचिदिति अहनि रात्री वा, प्रत्यादिष्टस्त्वपरेण 'कडं कडेत्ति भासेज्जा' ध्ययने | सत्यमहं रुपित आसीत् अनृतं वा मयोक्तं, अकृते तुन परस्स सत्केण वत्तन्वं- यथाऽई कारीति, मा मृदस्य मृषावाद इति । जै। एक्कसि पचिोइज्जति अवराहे तस्मात् प्रभृत्येव निवर्तितव्यं 'मा गलीअस्सेव कसं' सिलोगो (१२ स.४८) मा गलिअस्सो॥३०॥ कपिहो सो गलिआओ अवहमाणो स्वयमेव कसं प्रहारादीनि इच्छति, कर्मवत्कर्माका इतिकृत्वा स्वयमेवासी कशमिच्छति, जहा। वाई नेच्छेत्, एवमयमपि यथा कृत्यप्वर्थेष्ववर्तमानः पुनर्वचनमिच्छति, चोदनामित्यर्थः, 'कसं व दटुमाइन्नो' कशतीति कशः कश गतिशातनयोः य(त)था बलविनयसौमुख्यादिभिगुणैराकार्य इति आइण्णो, स हि कसमेव दटुं गृह्यमाणमुरिक्षप्यमाणं वा उसारथेरनुकूलं गच्छति, एवं सिस्सोऽवि इंगितादीहिं आयरियभावमुवलक्खेऊण तहा करेइ, पावं वज्जइचा, पापमकृत्वेत्यर्थः, मतं वर्जयन् वैनयिक सेवितो,एवं हि कुर्वताऽऽचार्यस्य वाक्यादिश्रमः परिहतो भवति (तंडीति वा गलीति वा मरालीति वा एगट्ठा, सो पुण, | वच्चंतो कीरइ आसेण वा गोणेण वा, आइष्णे वा विणीए वा भद्दए वा एगट्ठा ) ये पुनरिदानीं 'अणासवा थूलवया' सिलोगो ला १३ स. ४९) न शृण्वतीत्यनाश्रवाः जे भणितं न काहं, पठ्यते 'अणासुणा धूलवया' ण सुणेति अणासुणा, थूराणि वांसि येषां, अनिपुणातिस्थूलशब्दा अविनीतेत्यर्थः, कुत्सितशीलाः कुशीलाः, मिदुपि चंडे पकरेंति सिस्सा, मिपि-अकोहणसीलीप कोधणशीलं करेंति, अपिशब्दात् अन्यमनतमक्रोधी वा, उक्तह-" शिष्यकस्यैव तज्जाज्यं, यदाचार्यः प्रमादवान् । कुदारुषु सु-16 ला तीक्ष्णोऽपि, परशुः प्रतिहन्यते ॥१॥"जे पुण चित्ताणुगा चित्तं अणुगच्छंतीति चित्ताणुगा लाघवोपपेता दक्षत्वेन च उत R-RAKE दीप अनुक्रम [३-४८] [43] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा |३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा० लाघवेनाविलंबमाना निर्देशायोपतिष्ठते, दक्षोपपेता नाम आज्ञां शीघ्रं कुर्वन्ति, यदान्यत् वैयावत्याय, 'प्रसादये' प्रसादयन्ति चण्डरुद्राचूना 'त' इति एवंविधा सिस्सा, विसेसण, दुष्टमाश्रयंति समिति दुराश्रयं, अग्निवत् , अत्रोदाहरणं चंडरुद्देण- अवंतीजणवए| वाचायो उज्जेणीए व्हवणा]णुज्जाणे साहुणो समोसरिया, तेसिं सगासि एगो जुवा उदग्गवेसो वयंससहितो उवागतो, सो ते बंदिऊण ध्ययन | भणति ते बालुके- तुझं मम संसारातो उत्तारेही, पव्वयामित्ति, तेहिं एते अम्हे पवंचीतीत्तकाऊण 'घृष्यतां कलिना कलि'. ॥३१॥ | रिति चंडरुई आयरियं उवदिसंति, एस ते नित्यारिहिन्ति, सोय सम्भावण फरुसो, ततो सो तं वंदिऊण भणति-भगवं! पव्वावेह ममेति, उच्चारणमाणेहित्ति, आणिएण लोयं काऊण पब्वाविओ, वयंसा य से अद्धिति काऊण पडिगता, तेऽवि उबसयं णिययं | गया, विलंबिए सूरे पंथं पडिलेहित्ति विसज्जिओ, पडिलेहिउमागतो, पच्चूसे निग्गया, पुरओ बच्चत्ति मणिओ, बच्चतो पंथाओ हाफिीडओ, चंडरुद्दो खाणुए पकूखलिओ, रूसिएण हा दुट्ठसेहत्ति दंडएण मत्थए आहतो. सिर फोडितं, तहावि संमं सहति, विमले|| पभाए चंडरुदेण रुधिरोग्गलंतषिदारियमुद्धाणो दट्ठो, दुडु कति संवेगमावणेण खामिओ, एवं दुरासज्जंपिx 151 पसादए। विनयाधिकार एव आयरियसमीवे वसंतो ' णापुट्टो वागरे किंचि ' सिलोगो, (१४ सू.५१) ण, ल अपुच्छिओ वागरेज्ज किचिदिति अत्थपर्य पुरवत्तं वा कई वा चरियं वा जतिवि जाणति, 'पुट्ठो वा णालियं व दे' पुट्ठो वा-पुच्छिओ आयरिएहि, जहा- अज्जो! तुम किर अमुक जाणसि , तत्थ अजाणमाणेण वत्तच्वं-जहा माण जाणाभि, जाणमाणेण वा जाणामिति बत्तन्वं, सम्भूयमेव वत्तवं, गिहिणावि प्रद्रोणालियं, अन्यत्र सावद्यात, यदिवा क्रोधकारणे | सत्याक्रोशादौ परस्य रुप्यते कथंचित्, तत्र तं क्रोधं असच्चं कुब्वेज्ज, अफलमित्यर्थः, कधी, उच्चते, कोवस्मुदयनीरोहो वा उदय ARSHABREASRAE दीप अनुक्रम [३-४८] ECISCEL -NCC [44] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक .चूर्णी गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरा: पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, अत्रोदाहरणं- कस्सय कुलपुत्तस्य भाया वेरिएण वावाइतो, सो जणणीए भण्णति-पुत्तः पुत्पा- क्रावस्या IN तयं पातेसुती, ततो सो तेण जीवंतओ गिहिऊण जणणिसमीवमुवणीतो, भणिओ यणेण भातिघातय! कहि ते आहणामित्ति', तेण सत्यता भणितो-जहिं शरणागता आहम्मंति, तेण जणणी अवलोकिता, ताए भण्णति-पुण पुत्त ! णशरणागया आहम्मंति, तेण भण्णइध्ययने कह रोस सहलं करेमित्ति. तीए भण्णइ-ण सम्वत्थ रोसो सफलो कज्जति, पच्छा सो तेण विसज्जितो, एवं कोह असच्चं कुब्वेज्जा । ॥३२॥1] स्यान्मतिः-कधमसत्यः क्रियते?, उच्यते, धारयता प्रियमप्रियं, एत्थोदाहरण-असिबोवन्दते णगरे तिनि भूयवादिता रायाणमुवगत', अम्हे आसिवं उवसामेमोत्ति, रायणा मणियं सूणेमो केणोवाएणति, तत्थेगो भणति-अस्थि महेगभूते, ते सुरूवं विउविऊण गोपुरपारस्थासु परिअडति,तं न निहालियब्वं, तं निहालियं रूसति, जो पुण तं निहालेति सो विणस्सति, जो पुण ते निहालिऊण अहोमुहो ठाति सो रोगाओ मुच्चति, राया भण्णति-अलाहि एतेण अतिरोसणेणंति, वितिऊ भणति-महरूचयं भूतं महइमहालयं रूवं विउव्वति लंबोमदर टिहिमकुक्षि पंचशिर एक्कपादं विसिह विस्सरूवं अट्टहासं विणिम्मुर्यतं गायतं पणचंतं विक्रांतरूवं, दणं जो पहसति || ४ पवंचेइ वा तस्स सतहासिरं फुट्टति, जो पुण ते सुद्दाहिं वायाहिं आभिणदती धूयपुष्फाईहि पूरति सो सव्वामयाओ मुच्चीत, राया भणति-अलमेएणति, ततितो भणति-ममवि एवं विह एव, णातिीवसेसकर भूतमस्थि, प्रियाप्रियणिव्विसेसं तु, पर्वचिज्जमाणं व लोएहिं | तहा पूइज्जमाणं थुव्यमाणं पबंधिज्जमाणं अभिनंदिज्जमाणं पूयाईहिं पूइज्जमाण सव्वमेव प्रियाप्रियकारिणं दरिसणादेव रोगेहि तो मोययति, राणा भणियं-एवं होउत्ति, तेण तहा कए आसिवं उपसंतं, एवं साधूवि असारूपचे सति शब्दादिप्रतिकूलगामित्वेन |परेहि परिभूतमाणो पर्वचिज्जमाणोवि हाम्मज्जमाणोवि तहा धूयमाणो वा पूइज्जमाणो वासं प्रियाप्रियं सहेत, किंच मा वायरियस्स SPEAKER दीप अनुक्रम [३-४८] [45] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| श्री नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H श्रीउत्तरा परिकिलिस्सं कलिसिति मा वा आयरिया उवरि भएणं सिस्सति जहा ममं सो दाम्माहसिाति अतो भण्णति अप्पाणमेव दमए' सेचनको चूर्णी | सिलोगो (१५सू ५२ ) दमो दुविहो-इंदियदमो णोइंदियदमो य, इंदियदमो सोईदियाईणं दमो, णोइंदियदमो कोहकसायादिदमो, 18 हस्ती विनयाप । अतो अ तेण दुबिहेणवि दमोण अप्पाणं दमए, स हि आत्मा दुष्टाश्ववत् अश्ववत्सु दुखि दमयितुं,उक्तंहि-"निरनुग्रहमुक्तिमानसी ध्ययन विषयाशोकलुषस्मृतिर्जनः। त्वयि किं परितोषमेष्यति' द्विरदस्तंभ इवाचिरग्रहः ॥ १॥" इमे अदंतदोसा-'सद्देण ॥ ३३ ॥ ४ मतो रूवेण पतंगो महुयरो य गंघेणं । आहारण य मच्छो बज्झति फरिसेण य गईदो ॥१॥ दांतगुणास्तु 'अप्पा तो सुही होइ' 13 दुईतो अदन्ताणंति, जे चदंतिन्दिआ चद्धा इतरे मुक्का, इहलोगेऽवि अदंतिदिया पारदारीकादयो विनश्यति, तद्विपर्ययतस्तु इह परत्र च नंदंते, अबोदाहरणं-दो भायरो चोरा, तेसि उवस्सए साहुणो वासावासमुवगता, तेसिं वासारत्तपरिसमत्तीए गच्छतेहिं 12 ४ तेसिं चोराण अण्णं चतं किंचि अपडिवज्जमाणाणं रतिं न भोत्तव्यंति वयं दिण्णं,अण्णया तेहिं सुबहुत गोमाहिसं आणीय, तत्थ अन्ने | समाहिसं मारेनु मंसं खइउमारद्धा, अण्णे मज्जस्त गता, मंस खाइत्ता संपहारिन्ति-अद्धग मंसे विस पक्खिवामो, तो मज्जहचाण IA 1 दाहामो, ततो अम्हं सुबहु गोमाहिसं भागण आगमिस्सति, मज्जइचावि एवं चेव समरति, एवं तेहि विस पक्खितं, आइच्चोऽ-15 लावि अत्थं गतो, ते भायरो ण भुत्ता, इतरे परोप्परं विससंजुत्तेण मज्जमसण उवभुत्तेण मता, मरिऊण य कुगातें गया, इयरे इह परलोए Mय सुहभाइणो जाया, एवं ताव जिम्भिदियदमो, एवं सेसेसुवि इंदिएसु अप्पा देतो सुही होइ अस्सि लोए परत्यय । किंचान्यत् ?-1* 13ा'वरं मे अप्पा दंतो' सिलोगो (१६सू०५३) कंठ्यः, उदाहरणं सेतणओ गंधहत्थी, अडवीए जूह महलं परिवसति, तत्थ जूहपती | 5।। जाते २ गतकलमे विणासेति, तत्थेगा करणी आवष्णसत्ता चिंतेति-जति कहिंचि मम गयकलमओ जायति सो एतेण विणासिज्जति KHASRAE-% E गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] - ... अत्र सेचनकहस्ति-दृष्टान्तदर्शयते [46] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| श्री नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ॥३५॥ ||३-४८||| श्रीउत्तुरा निकाउं लगती ओसरति. जहाहिवेण जहे छम्भति. पुणो पणो ओसरति ताहे वितितततियदिवसे जूहेण मिलति, ताहे एग रिसिया-15 उपवंशन चूणी विधिः | समि पयं दिहूं, सा तत्थ अहीणा, संवणिया य णाए रिसयो, सा पसूया सेतगयंकलभय, सो तेहिं रिसिकुमारेहिं सहितो पुप्फा-1|| १विनया-1 | रामं सिंचीत,सेतणगत्ति से नाम कतं, वयस्थो जातो, जूहं दट्टण जूहयति हतूण जूहष्णेण पडिवनं, गंतूण य अणेण सो आसमो ध्ययने विणासितो-मा अन्नावि काइ एवं काहित्ति, ताहे ते रिसओ रूसिता पुप्फफलगहितपाणी सेणियस्स रणो सगासमुवगया, कहियं चणेहि-एरिसो सम्बलक्षणसंपण्णो गंधहस्थी सेयणओ णामा, सेणिओ हत्थिग्गहणणं णिग्गतो, सो य हत्थी देवयापरिग्गहितो, ताए ओहिणा आभोइओ जहा अवस्सं घेप्पति, ताए सो भण्णति-पुत्त! वरं ते अप्पा दंतो, ण यसि परेहिं दमंतो बंधणेहि बहेहि य, सो एवं भणितो सयमेव रत्तीए वारिंगतूण आलाणखंभं अस्सितो, एवमिहापि, वर मे अप्पणा दंतोसिलोगो, उक्तं च-वरं हि ते Foकर्तमनिग्रहोचिता, बशेऽवशा इन्दियवाजिनः शठ। न चास्मि (सि) ः शीघ्रमनर्थगामिाभिःखार्णवश्वभ्रतटेषु पातितःला IF॥१॥" अयं ताव अप्पणा ठियो उवदिवो, अयमों-आयरियस्स न य अविणओ पीजयन्वो 'पडिणीयं च बुद्धाणं' सिलोगो (१७ सू० ५४ ) पडिणीतो भणितो, बुद्धा आयरिया, तत्थ वायाए ण तुम जाणसि, तुम हमति वा भणंति, यद्वा | अन्यदपि वाचा विरुद्ध गुरुसमक्खं परोक्खं वा भणति, 'कमुणा' आयरिओवज्झायाण सेज्जासंथारए णिसीयति, हत्थपाएहिं वा संघति, आसण्णानि वा गच्छगाति (गमागमाइ ) करेति, 'आवी वा जति वा हस्से' आविः प्रकाशे, आवि वर्या सर्वाग्रे,रह त्यागे, उभयग्रहणं मा भूव कश्चिदेकं करिष्यति, आकुले मध्ये वा विनयं च हापयिष्यति, एताणि पडिणीयादीणि लोणो कुर्याद् कदाचिदपि ॥ अयमण्णो पज्जुवासणविनयो आयरियस्स,कयरम्मि पदेसे ण ठातितति, भण्णति- ण पक्खतो' दीप अनुक्रम [३-४८] MERAREERIAL [47] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H प्रतिश्रवण श्रीउत्तरा | सिलोगो (१८ सू०५४) पक्षस्यनेनेति पक्षा, पुरुषस्य हि मुजाव पक्षी, ततःपक्षतति इत्युक्तं, तथा पक्षयोः भासमाणस्स से || विधिः चूणी - मुहप्परिता सहपोग्गला कण्णविलमणुप्पविसंति, कण्णसमसढी पक्षो, ततो ण चिट्ठे गुरूणंतिए, तहा अणेगग्गता भवति, १मिनया पुरतो प्रत्युरस्यपि च विणए बंदमाणाण य विग्यतोति, समं पट्टिो पेटुओ, णेव ठिज्जा किच्चाण पिढतोत्ति, आयरियं पिटुओ ध्ययन काउं आयरियाण पढेि दाऊण ण चिट्ठज्जा, उरुगमुरुगेण संघद्देऊण एवमविण चिडेज्जा, जति य कहिंचि आयरियएहिं सदितो ॥३५॥ होज्जा ततो सपणे न पडिसुणे, सयणं-सयणीयं तमि निवस्रो निसनो वा न पडिसुणेज्जाऽऽयरियस्स वयणं, किन्तु आयरिय-18 सगासमागंतूणं बंदिऊण विणयेण पडिसुणेज्जा,इमो कायगो विणयो, गुरुसमीये 'णव पल्हत्थियं कुज्जा' सिलोगो (१६सू०५४) | पल्हत्थिया पत्ते ण कज्जति, पक्वपिंडो दोदिविवाहाहि उरूगजाणीण घेत्तूण अच्छणं, सेसं कंठयं, इमो आयरियवयणपडिसुणणाविणओ-'आयरिएहिं वाहिन्तो' सिलोगो (२००५५) वाहितो णाम सहितो, 'ण कयाइवि' ति दिया वा रातो वा मुंजमाणो | पियमाणो वा,पासादपेही पसीदए जेण प्रसीदनं या प्रसादः तं पसादं 'पहि' ति केणायं उपकारेण विणएण वा पसिज्जेज्जा, "णियागट्ठी' णियाग णिदाणं नियगमित्यर्थःणाणातितियं वा णियगं आत्मीयमित्यर्थः, सेस सरीरादि सव्यं परायगं, णियाएडाणट्ठो जस्स सो णियागट्ठी, उपेत्य तिष्ठत वा चिट्ठज्जा, गुरूं-आयरियं, सदा-सबकालं । आयरियस्स वयणं कह सुणेतब्बति , | भण्णति-'आलवंते लवंते वा' सिलोगो (२१सू०५५) आलवं एक्कसि, लवणं पुणो पुणो,आलवंते लवते वा आयरिए सीसेण IN ॥ ३५॥ न णिसीतित्ता सोतव्यं, इऊण आसणं पीठगादी धारो धी:-बुद्धिः इत:-परिगतः तया इति धीरः 'यतो' मनोवाक्कायैः151 जतं' प्रयत्नेन पडिसुणे । इदाणि किच्चकाणं वचोवागरणं या वागरणं वा पुच्छमाणो सीसो आयरियं 'आसणगतो ण 1-90-CD-RRORRC गाथा ||३-४८|| ECACCIECCAR दीप अनुक्रम [३-४८]] % C [48] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक 1-1 गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरापुच्छे' सिलोगो (२२ सू०५५) आसण-पीढं फलगं भूमि वा तत्थ गतो यदुक्तं उचट्ठो, णिसिज्जगतो णाम भूमीए संथारए भाषादोष वा संचिट्ठो, 'कयाई' कदाचित् , परिसागतं अपरिसागतं आयरियं दिया था राओ वा, कहं पुच्छेज्जा, उच्यते-'आगम्मु-द १ विनया |क्कुडओ संतो' आगम्म गुरुसगासं उक्कुडगासणो पुच्छेज्ज,पंजलिउडो अञ्जलिं मत्थए काऊण । इदाणिं आयरियस्स विणओ ध्ययने | मण्णति-' एवं विणयजुत्तस्स' सिलोगो ( २३ मू० ५६ ) कंठो। बागरेज्ज जहा सुतं ' ति,जहा सिक्खियमिति, मणितो ॥३६॥ पज्जुवासणाविणतो, अयमण्णोऽवि पज्जूवासणाविणय एव, अहवा चरित्तीवणयो,आयरियं पज्जुवासमाणे 'मुसं परिहरे भिक्ख' | सिलोगो ( २४ सू०५६ ) मुसं-वितहं तं परिहरे, ओहारिणी नाम यदवधारणेनोच्यते, एवमहं करिष्यामि वक्ष्यामि गमि प्यामि वेति, 'भासादोस परिहरे' भासादोसा असच्चभूतोवघातिककसणिडरकडुयवयणादि अणेगहा ते परिहरे, माता-13 151नियडी तामपि वर्जयेत् सदा-सर्वकालं ॥ अयमपि भासादोस एव 'ण लबेज्ज पुट्ठो सावज्ज' सिलोगो (२५ सू०५६) A पुट्ठो पाम पुच्छितो मृगायुदकं वा सावज्ज, अहवा नक्खत्तं सुविणं जोगं सावज्जमज्जजुत्तं, णिरत्ययं जहा दस दाडिमाॐानि पहपूपा कुंडमजाजिनं पललपिंड पूरकीटके दिवा दिशमुदीची स्पर्शन कस्या(त्व)पिता प्रतिशीत इत्यादि, अथवा-जुलफल-11 ल वित्तमीसा उच्चक्खुडकुसुममालिया सुरभी । वरतुरगस्स विरायति ओलग्गा अग्गसिंगेहिं ॥१॥ एवं विहं ण भासेज्जा, म्रियते येन तन्मर्म,मर्म कृन्ततीति मर्मकृत,यथा इत्थिकारी भवान्, तं तु लोगरायविरुद्धं वा,भणियं च-"जम्मं मम्म कम्म |तिनिधि एयाई परिहरेज्जासि । मा जम्ममम्मविद्धे मरेज्ज मारेज्ज वा कंचि ॥१॥" तं तु 'अप्पणट्ठा परट्टा वा' आत्मार्थे-ममैव किंचिदास्यति, परार्थ श्रावकेन निजेन चार्थितो ब्रवीमीति, एवं मवेत्सावद्यमुभयार्थे, प्रद्विष्टो ब्रवी दीप अनुक्रम [३-४८]] [49] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H | गाथा ||३-४८/३-४८|| श्री नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक दअनुशासनं H गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तरामीति, एवं मर्म कर्मापि, आत्मार्थे अधिक्षिप्तः रोषितः परेण, परार्थे यद्यस्य ज्ञातकः सुहृद्वा केनचिदधिक्षिप्तो भवति, मर्माणि | 2 चूर्णी ४ वा स्पृष्टः तदाऽसौ तन्मर्माणि पडिश्रवति, जहा 'कल्लउड्डियाए जो जातो गद्दभेण मूडेण । तस्स महाजणमझे विनया आयारा पागडा होति ॥१॥' अंतरण वत्ति मिहो अंतराले, मिथो रहस्से, योगे च द्वयोबहूनां वा त्रुवतां मिथा, नेडंतराले | ध्ययने वा,अमनमंतः अम्यते वा, नांतरकथं कुर्यात, मा भूदप्रियं तेषां तयोर्वा, उक्तं च-'द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् !" अयं चान्यचारित्रविनय:- 'समरेषु अगारीसु' सिलोगो ( २६सू०५७) समरं नाम जत्थ हेडा लोहयारा कम्मं करेंति, अहवा सहारिभिः समरः, अरिभृता हि यतिनां स्त्रियः,समरं नाम दिहादिट्ठीसंबंधो तासिं, श्रागारं नाम सुण्णागारं, असुण्णागार संधाणं संधि, बहण वा घराणं तिहं घराणं यदंतरा, महापहो रायपहो, महापहरगहणं अभिजणाइण्णे, किं पुण विजणे, अहवा15 |महापहो वहियादीण, उभओ वइगुचो गंभीरो, अण्णसु त एवमादिएसु संकणिज्जेसु 'एगो एगित्थीए' सेसं कंठ्य।।जइ य इस्थिनिमित्तेण द्र अमेण वा केणइ खलितोबा होज्ज तथालवणं' मे बुद्धाणुसासंति सिलोगो(२७स.५७)यदि तस्मिन् खलिते बुद्धा-आचायो अनुकूलं 12 सासंति, शीतेन स्वादुना इत्यर्थः, अथवा शीलाविरुद्धन शीलेन शीलमेव वा आचार्याणामनुशासनं, यथा भास्करः भूपतिः, 'फरुसेणं'ति परुष-स्नेहवर्जितं यत्परोक्षं निष्ठुराभिधानं वा, यदेतत् सर्वमपि मम लाभे'त्ति पेहाए,एमेव य भावयन् , मां कृतापराधं माशीतलेनानुशासति यच्च मां परुष वदति न निष्काशयन्ति,अथवा किंगरूण परिहायिरसति यद्यहं अनाचारशबलत्वाद्विराधयिष्यामि। बोधि, तदेतच्छीलं परुषं वाऽनुशासनं मम लामोत्ति पहाए,लाभेन वा प्रसभं यतः,तं पडिसुणे कृतांजलि उत्फुल्लविनयः। अयंच विनय:'अणुसासणमोवायं सिलोगो (२८सू०५८) अणुसासणं पसंसणमित्यर्थः, उवाये नाम आयरियस्स सुस्सूसासंथारकरण CAA%ESRAESAECASRecies दीप अनुक्रम [३-४८]] [50] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा चूर्णी १ विनया गाथा ध्ययने ||३-४८|| ॥३८॥ R विस्सामणादि यच्चान्यदपि तस्य कृत्यं स उवाय,दुक्कडस्स य चोयणा,चुक्कसलिएसु,चोदणा, तदेव अणुसासणं उवातं दुक्कडचोदणं पधुपासना विनयः व हितं मण्णती पण्यो, हितमिह परप्रज्ञावान् प्राज्ञो, वेस्सं होति असाहुणों' तान्येव अनुसासन उवायं चोदनादि, अनेकमेका-18 देशात्, हितं नतु मन्यतेऽप्राज्ञः देश्य असाधो असाधुत्वकारिणः, असाधुरिव असाधुः।। स्यात्किमालंबनं कृत्वा प्राज्ञः तद्धितं मन्यते|'हितं विगतभया बुद्धा सिलोगो(२९सू.५८)विगतं भयं यस्य विगतं वा भयतोभयमितस्तस्य भयं विगतं,तस्य न भयमुत्पद्यते इत्यर्थः, यतश्च भयं नोत्पद्यते हितमेव पद्य(मन्य)ते, अत एवासौ विगतभयस्तस्माद्विगतभयाद्,बुध्यते स्म बुद्धः,परुषमप्यनुशासनं, मन्यत इति वाक्यशेषः, कुलपुत्रवत्, प्रमादस्खलिते गुरुवचनं, तदेवाकुलपुत्रस्येव गुरुवचनं वेस्सं तं होइ मृढाणं द्वेष्य, तदिति वेस्सं, मृढत्वान || मा भूढः, क्षमण क्षान्तिः सोधिमेव करोति खंतिसोहिकरणं, तस्य हि स्वभावोपहतत्वात शान्तियुक्तमपि पदमसकृत् पसादाधिकारं वेस्से || होति मूढाणं । हमोवि पज्जुवासणाविणय एव-'आसणे उचिट्टेज्जा' सिलोगो(३० सू०५९)उपेत्य तिष्ठति जति बरिसासु आसणं 15 | सेवेज्ज पीढफलगादी तया अणुच्चे ण गुरुआसणा सुमाहिकं वा, 'कुच स्पंदने' न कुचनमकुचं विराहणा संजमाताए, तत्थ ठितो संतो,अणुहाई णिहाए, अल्पशब्दः अभावे द्रष्टव्यःश्लो(स्तो)के वा,नासावृत्तिष्ठती निरर्थकं, अर्थेऽपि परिमितमेवोचिष्ठते, आहार-18 जाणीहारणिमित गुर्वादेशतो या, तिष्ठन्नपि 'अप्पकुक्कुए' ति न गात्राणी स्पंदयती ण वा अबद्धासणो भवति, अन्नत्थूसासणीससितादी अत्थस्सेह मुक्त्वा शेषमकुकुचो । अकुचित्वप्रतिपक्षे कुचित्वं, तत्परिणामार्थमित्युच्यते-'कालण णिक्खिवे (कवमें)। ३८॥ सिलोगो (३१सू०५९) ग्रामनगरादिषु जहोचितं भिक्खाबेलाए, कालेनेति तृतीया तेन सहायभूतेन, निक्खमे पडिस्सयातो गच्छेज्जा, डाणातिबेलातिकतं, कालणेव पडिकमे--पडिनियत्वेज्जा, एत्थ खेतं पहुप्पति कालो पहुप्पड़ भाणं पहुप्पद, ते अह भंगा जोएयब्धा EXEGESICE SPESE PESCI दीप अनुक्रम [३-४८] -54 [51] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| श्री नियुक्ति: [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक ध्ययने गाथा ||३-४८|| श्रीउत्तराजहोचियं, विवरीय 'अकालं च'त्ति अकालमप्पत्तमतीतं वा एव 'विवजेता' चईऊण (ण) केवलं सि(भिक्खाए पडीलहणादी- मो. चूर्णी | णमवि जहोचिते काले । भिक्खमडतो 'परिवाडीए न चिट्ठज्जा' सिलोगो (३२सू०५९) परिवाडी णाम संखडिपरिवेसणाए अंतए स्थान विधि वनयात चिज्जा,जति आगतो(तमत्तो चेव न लब्भति ता वोलेइ.परिवाडी चिमाणस्स दोसो, दुराहडं अंतरि भायणापेच्छाइ उक्खेवणिक्खे वादी दायगस्स, अविय-अरे चिट्ठमाणस्स उवसामणा दत्तेसु, दत्तंपि सत् एसणीयं गेण्हइ, पडिरूवं णाम सोभणरूच, जहा पासादीये 2 ॥३९॥ दरिसणीज्जे अहिरूबे पडिरूबे, रूपं रूपं च प्रति यदन्यरूपं तत्प्रतिरूपं, सर्वधर्मभूतेभ्यो हि तद्रूपमुत्कृष्ट, तत्तद् रयहरणगोच्छप डिग्गहमाताए, जे वा पाणिपडिग्गहिया जिणकप्पिता तेसिं गहणं, तेसिं जिणरूवप्रतिरूपकं भवति, यतस्तेन प्रतिरूपेन एसित्ता, Hएसणा मार्गणा, मितं माङ् माने 'बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरतो भाणितो' कालनेति दिवसतो, न रात्रौ अच्छ (मिए) वा, | अदुवमविलंचं भक्खए-अश्नीयात्, पविठो गोबरग्गगतो भिक्खनिमित्तं घरमणुपविस्समाणो जो तत्थ कहिंचि पुब्वपविट्ठो सवणवणी*मगादी होज्जा ततो तेसिं दायगस्स वा अप्पत्तियादिदोषपरिहरणत्थं न पविसिज्जति, कहिं च पडिवालेज्जा'-'णाइदूरे अणासपणे सिलोगो (३३सू०५९) दृरत्थो ण याणति-किं णिग्गया णवत्ति, आसण्णत्यो णज्जति जहा एस परिवाडतो अच्छति, अण्णेहिं च | अदिस्समाणो, जहा तेसिं संकान भवति, एस ते वणीमगादी णिग्गछते पडिवालेति, अतो चिट्ठज्ज भिक्षणीमित्तं वणीमगादिरहिते, एगो अरागदोसविउत्तो, लाभालाभे अरागदोपवान्, 'लंघिया तंणतिक्कमे'त्ति ते वणीमगादी लंघिऊण ण पविसे ।।अयमपि मोयर-1|३९ |विणय एव-'णातिउच्चे व सिलोगो (३४सू०६०) अतिउच्चे उड्डमालोहडं भवति, ण य दायगस्स उक्खेवणिक्खेवा दीसंति, अति-18 | जीएवि अधोमालोहडे, ण य एसणं सोहेति, अच्चासण्णेवि एयस्स मिक्खनिमित्तं ठायमाणस्स अपत्तिय तेणसंकादिदोसो होज्जा, दीप अनुक्रम [३-४८] CIRCTCr-k064-8 [52] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ॥३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] अध्ययनं [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्री उत्तरा ० चूर्णौ १ विनयाध्ययने ॥ ४० ॥ भणियं च 'अदिभूमिं न गच्छेज्जा, गोयरग्गगतो नुणी । कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मितं भूमिं परक्कमे ||१||" अतिदुरेवि एसणं ण सोहेति 'फासुयं परकडे पिंडे' फागणिञ्जीवं परे णाम असंजता तेसिं अट्ठाए कई पिंडं समयेसणाए भत्तपाणं तं 'पाडगाहेज संजते' संजए संमं जए संजतो । एवं गहणविणयसुद्धस्स झुंजणविणयो उवदिस्सति- 'अप्पपाणप्पवीतंमि' सिलोगो ( ३५०६०) अप्पाणेति वत्तन्वे बंधाणुलाने अप्पमाणे अप्पबीए, प्राणग्रहणात् सर्वप्राणीनां ग्रहणं, वीजग्रहणात् तद्भेदाः, यदिवा बीजान्यपि वर्जयंति किमुत हरितत्रसादयः ?, तं तु आरामादिसु उवस्सए वा, अपलिच्छन्नं नामाकडे अडवीए वा कुंडगादीसु, संवुडो नाम सब्बिदियगुत्तो, 'समयं संजए भुजे' समतं नाम सम्यग् रागद्वेषवियुतः एकाकी मुक्त, यस्तु मंडलीए भुंक्ते सोऽवि समगं संजएहिं मुंजेज्ज, सहान्यैः साधुभिरिति, अहवा समयं जहारातिणिओ लंबणे गेण्हण्णे वा, तथा अविक्तिवदनो गेण्डति, 'जत' न्तिन यागसिगालादि, भुंक्त 'अपरिसाडगंण परिसाउँतो । सावद्यवयणवज्जणविणएणं' सुकडेत्ति' सिलोगो (३६सू०६१) सुठुकडे सुकडं तं पसंसावयणं मज्झणुमोयणंच एवं सावद्यं वज्जये, सुकडेत्ति सर्वक्रियापसंसणं, सुपकेति पागस्स, तं पुणो हसमणादि, सुच्छिष्णं रक्खादिसु, सुहडे गमेयाततिसु. (गामघातादिसु) सुमडे सुमारियवयणकताए अणुवसंतादि, सुनिट्ठिए बहुवेसणं सणं णिङ्काणगादि सुलट्ठे, एवजातीयमण्णंपि सावज्जं ण लवे मुणी, अणवज्जं पुण लोयकरणं बंभचरणियागसिणेहपासच्छेद सेदाहरण पंडियमरणअडविहकम्मनिडवणसुलहधम्मकादि सिलोगो जहासंखेण लबे से । एवं विणीयविषयस्तथा करोति यथा क्वचित्प्रमादस्खलिते चोदयन्तोऽप्याचार्याः- 'रमति पंडिते सास' सिलोगो (३७०६१) रमत इव रमते, हृष्यत इत्यर्थः, पंडिति बुद्धिः साऽस्य जातेति पंडितः, स हि तं विणीतविणयं पंडितं रमते आचार्याः सासतः, दिईतो हयं मद्द व वाहते, भाति भाष्यते [53] भोजनं सावद्य भाषावर्जनं ॥ ४० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||३-४८|| ---- श्रीउत्तरानेनेति भद्रः सुशीलो, भद्रेण तुल्यं भद्रवत, वाहतीति वाहकास हि इंगितं मत्वा स्मरोघेः ईषत्केशाक्षेपं स्पृष्टो वा यथेष्ट बहते, सहि चूणों यथा रमते तं वाहयन् एवमाचार्या अपि विनीतमाज्ञापयन्तः क्वचित्प्रमादस्खलिते रमेत, तद्विपक्षस्तु 'पालं समइ सासेंतो' स तु शासन १ विनया- नित्यप्रमादवशात् सासत् श्राम्यति, एवं कुरु मा चैव कुरु पुनः२ चोदयन् कालेनाल्पीयसाऽपि खिद्यते, दिईतो-गलियस्संव वाहए, उभयं है ध्ययन क्लेशयतीत्यर्थः, शिष्यस्याप्ययमेव श्लोकः-रमति पंडिते सासं' शास्यमान इत्यर्थः, बालं सम्यइ सास्यमान इत्यर्थः गलियस्संव प दावाहए, स एवं गलियस्संभूतो 'वडगा में' सिलोगो (३८ सू०६२) खड्डुगाहिं चवेडाहिं अक्कोसहि वहेहि या एवमादि। भिक्खु शासने प्रकारे तमाचार्य कल्लाणमणुसासेन्तं, कल्यमानयतीति कल्याण, इह परलोकं (कहित) इत्यर्थः, तथापि तत्कल्याण-I7 | मनुशासत् कल्याणं वा तमाचार्यमनुशासनं पावदिवित्ति मण्णति, अयं हि पापो मा हति, निघृणत्वात् क्रौर्यत्वाच्च चारकपालकबदाधयति, अपरकल्पः- 'खड्डुगा मे चवेडा मे सो उ गम्मो इति, एस आयरिओ अकोविओ एवं चवेडउच्चावहिं में आउस्से हिं आउस्सति, एवमसौ कल्लाणमणु सासंत पाचदित्ति मन्नति, अपर आदेश:- बाम्भिरप्यसावनुशास्यमानः मन्यते । तां वाचं खड्डुगा मे चवेडा मे' तथा हितामपि वाचं अक्कासतित्ति, सासति वधं वा, तत्प्रतिपक्षस्तु 'पुत्तो मे भाति । | णातिति' सिलोगो ( ३९सू०६२) कटुकैमधुरा वचोभिरनुशास्यमानोऽपि मतिमान मन्यते पुत्रमिवायं मामनुशासति. नावज्ञया, केवलं शिष्यसौहार्यात, साधुरेव साधुः, तमनुशासनं कल्याणं मन्यते, एवं भाता, णाती योऽन्यो पितामहोवा, सर्व तत्क- ॥४१॥ | क्याणानुशासनं सुष्टु च ममैवैतीद्धनमिति मन्यते, इतरस्तु-पावदिट्टी तु अप्पाणं पापं अशोभनं, स हि पापदृष्टिरात्मानं हितानुशासनेनाप्यनुशास्यमान दासमिव मन्यते ॥ स एवं नित्यमप्रमादवान् गुाराधनापर ण कोवए आयरियं' सिलोगो, दीप अनुक्रम [३-४८]] ---k% 5 % -%- % [54] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक H गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णां १ विनयाध्ययने ॥ ४२ ॥ (४० सू०६२) कुप्यते येन प्रकारेण कायिकेन वाचिकेन वाऽऽचार्यः अन्यो वा तं न कुर्यात् यदा पुनर्विनयं कुर्वताऽऽचार्यैः कचिन् दुना परुषेण वा प्रकारेण अणुसासिज्जति तदा अनुशास्यमानः आत्मानमपि न कोपयेत्, अनेसु वाऽचियत्तकारणेसु तासिमायरियाणं रुट्ठो भवति अन्नेसिं वा साधूणं तदा बुद्धोवघाती न स्यात्, बुद्धो-आयरियो, बुद्धानुपहन्तुं शीलं यस्य स भवति बुद्धोषघाती, उपेत्य घातः उपघातः, स तु त्रिविधः णाणादि, गाणे अप्पसुतो एस देस गोप्पवर इओ दंसणे उम्मग्गं पण्णवेति सदहति वा, चरणे पासत्वो वा कुशीलो वा एवमादी, अहवा आयरियस्स वृत्तिमुपहंति, जहा एको आयरिओ अ ( ववा ) यमग्गो ( अगमओ), तस्स सीसा चिंतेंति केच्चिरं कालं अम्हेहिं एयस्स वह्नियच्वंति ?, तो तहा काहामो जहा भत्तं पच्चक्खाति, ताहे अंतं एव ( विरसं भत्तं ) उबति, भणंति य ण देति सड्डा, किं करेमो?, साबयाणं च कहेंति- जहा आयरिया पणीयं पाणभोयणं ण इच्छंति, संलेहणं करेंतित्ति, ततो सड्ढा आगंतूर्ण भांति किं खमासमणा! संलेहणं करेह ?, ण वयं पडिचारगा वा णित्रिष्णत्ति, ताहे ते जाणिऊण तेहिं चैव वारितंति भांति - किं मे सिस्सेहिं तुम्भेहिं वाऽवरोहिएहिं ?, उत्तमायरियं उत्तमठ्ठे पडिवज्जामि, १०२ मत्तं पच्चक् खायंति, इत्येवं बुद्धोपघाती ण सिया. आशंकायामवधारणे च स्याच्छान्दस्योपयोगः, इह त्ववधारणे द्रष्टव्यः पुनरप्यवधारणणमेव यथा बुद्धोपघाती न सिया, तहा ण सिया तुत्तगयेसए, तुद्यते येन तुतं, न गुरोरंध्रान्वेषीत्यर्थः, यदापि चास्य प्रमादाचरिते कचित् आयरिओ तस्सेव हिताए रूसए तदावि' आयरियं कुवियं णच्चा' सिलोगो (४१०६३)कुवितं संतं, कुपितं अप्पणाहिं परतो वा जाणिऊण, इमेहिं लिंगेहिं 'अचक्षुदानं कृतपूर्वनाशनं, विमाननं दुखरिताय कीर्त्तनम् । कथाप्रसंगो नच नाम विस्मयो, विरक्तभावस्य जनस्य लक्षणम् | ॥१॥ परो वा से कहेज्जा जहा गुरू ते कुवितो', तदैनं 'पत्तिएण पसादए' ण राजाभियोगवत् मे खमे रायाणिय, प्रत्यंतगमो [55] बुद्धोपधातिदृष्टान्तः ।। ४२ ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) श्रीउत्तरा०पायैः, ममैवायं अनुग्रह इतिकृत्वा प्रियेणैवेनं प्रसादयेत्, तत्कथं प्रसादयेत् , उच्यते-'विज्झविज्ज पंजलियडो' विज्झवणं क्षामणमित्यर्थः, विससेण झाएज्जा विज्झवेज्ज, प्रसादनं विध्यापनमिति च पुनरभिधानानुप्रदर्शनाददोषः, बंधानुलोम्याद् वा तदेवं वद्दज्ज णो पुणोत्तिय ॥ आचार्य विनयश्रुतमिदं 'धम्मज्जियं च ववहारं' सिलोगो (४२५०६४) धार्मिकं जीतं धम्मज्जीवं इकारस्य स्वत्वं काउं, विवि वा पहरणं विविधो वा अपहारः बबहारः, 'बुद्धेहारितं सदा' बुद्धा 'सदे' ति अतीते काले संप्राप्ते वाऽऽचर्यते 'तमायरंति ववहारं' तमिति धम्मार्जितं बुद्धैरुपदिष्टं आचीर्णं वा, गरदा नाम एस दंडरूई निग्घिणो वा अप्पेवं धर्मार्जितग्रहणान्मा भूच्छिष्योऽयं मम णीयेल्लओ वा पहुचकारी तेन कश्चिन्ममीकाराम दंडयेत् इत्यतो धर्मजीतग्रहणं, उक्तं च- 'यस्सापि तं वा०' गाहा, सूत्रगौरवार्थं युद्धेहायरियं, सरागैरेव केवलमाचर्यते, अहं हि वीतरागचरित एवं शिष्यैरपि सुगम्यते । अयमन्यः सूक्ष्मो विनयः'मणोगतं' सिलोगो (४३ ०६४) नेत्रचक्रविकारैमैनोगतं भावे लक्षयेत् वाक्यगतं तु अर्धेन उकेण वा यथा इंगितज्ञाथ मागधाः, तदेवं मनोगतं वकगतं वा अभिप्पातं जाणिऊण आयरियस्स उ तं परिगिज्झ वायाए, तमिति अभिप्रायं एवंति वा वायाए परिगिज्झ कम्मुणा तदीप्सिततमस्य समीपमापादयेत् उपपादयेत् । अपि पति- 'मणोगयं (रुई) वक्कगई जाणित्ता' सुतं, मनसो रोचतीतिमनोरुचि मनसः सचित्तस्य यत्र तत्र चार्थे गतो, मनसा रोचतीत्यर्थः, आकारैरिगिता दिभिः तां मनोरुचि, एवं वाक्य रुचिमपि अर्धोक्तादिभिः, तां मनोरुचि वाक्यरुचि, सेसं तहेवय, एवमभिप्रेतमप्यर्थमाराधयति, से 'वित्ते अबोलिए णिच्चं सिलोगो (४४०६४) वित्त एवं वित्तं तस्य वित्तयिकमेवेदं, अचोदितेनैव मया यत्कृत्यं गुरोस्तत्कर्त्तव्यं, श्रेयाणीह कृत्यानि, बलवद्विनीत धुर्यवत् (अपि) प्रतोदोत्क्षेपमपि नो, [सहते] कुतस्तर्हि निपातनं । एवं असावप्य चोदित एव सर्वकृत्येषूत्पद्यते, प्रसन्नवान् प्रसन्नः, नाहमाज्ञप्तव्य इतिकृत्वा प्रसन्नो भवति अपि चूर्णां १ विनया ध्ययने ॥ ४३ ॥ এ6 এনএ [56] प्रसाद रीतिः विनीत कृत्यं ॥ ४३ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H I गाथा ||३-४८/३-४८|| श्री नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||३-४८|| ध्ययने श्रीउत्तरा०प्रसाधते हर्षात् समये मय्यनुग्रह' इति,तच्च क्षिप्रं करोति, थामवान् नामानलसः, थामो नाम बलं, किमभिप्रेते सति पलं करोति, विनयफलं चूणों । अन्यथा करोति,सदा सर्वकालं । 'णच्चा णमिति मेहावी' सिलोगो (४५सू०६५ ) झात्वा वैनयिकानि यो वा यस्य विनयो IA यथा कार्यः तं ज्ञात्वा नमति, नमनेन च तस्योत्पद्यते पूजा, तत्करोति यः तस्य हि लोके कीर्तिर्भवति, स्वपक्षे परपक्षे वा कीय॑ते विनयवानेषः गुराधनपरा, स चैवं विनयवान् सरणं भवति किच्चाणं, शिराचितमिति सरणा, सेवंत इत्यर्थः, स हि । ॥४४॥ कृत्या नाम कृत्यासेविभिः प्रणुवमानानां शरणं भवति, तत्र हि तानि निरुपद्रवानि तिष्ठति, अथवा शरणं घरं, गृहबदसौ तेषां कृत्यानां शरणं, ततो भवति दिद्वतो-भूताणं जगती जहा, भूतानामिति जीवानां, जायन्ते तस्यामिति जगती, पृथिवीत्यर्थः, एवं तस्स गुरुं पणिवयमाणस्स कृत्यानां शरणभूतस्य पूजनीयाः अल्पेनैव कालेन तुष्यन्ति ॥ तदेवं पूज्यैः तुष्टैः किं भवति', उच्यते, 'पुज्जा जस्स पसीयंती' सिलोगो (४६मू०६५) पूजनीयाः पूजा इत्यर्थः, यस्येति यस्य साधोः, बुद्धाप्याचार्या एव, ते पूर्व पूज्यते पश्चात्प्रसीदंति, स्यादेतत्-प्रसादे सति यथा हरिहरहिरण्यगर्भादयः साक्षात्स्वर्ग किल नवंति किमेवं तेऽपि स्वर्ग मोक्षं वा नयंति? इच्छितं वा वरं देंति ?, न, किमुच्यते ?, तेऽवि सम्यगाराधनाविशेषैः प्रसभाः प्रसादे सति लाभयिष्यति 'विपुलं अहितं सुतं' अर्थेन युक्तमार्थिक सुतं-श्रुतं ज्ञानं उक्तं नम (विन) यश्रुतं ॥ तदादेशकारिफलं तु 'सपुज्जसत्थे' वृत्तं (४७| सू.६६ ) स इति शिष्यः, पूजनीयाः पूज्याः आचार्या इत्यर्थः,पूज्यैः शासितः सपूज्यैर्वा शासितः सपुज्जसत्थे, सुष्टु विनीतः संशयो | यस्य भवति स सुष्टु धिमीतसंशयः, आचार्यस्य मनसो रुचितं चिद्वति कम्मसंपदं,अनुभवमान इति वाक्यशेषः,विनीयकरणं तु मनोहर्षि चिट्ठदि कम्मपदं भजीतचितं याति मृस्वा सौधर्मसंपदं, कर्मविभूत्या इत्यर्थः, अक्खीणमदाणसीयादिलद्धिजुचो, अहवा दीप अनुक्रम [३-४८]] COCKROACECASTESCReg BHAGR- ... अत्र विनय-फलम् दर्शयते [57] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं H / गाथा ||३-४८/३-४८|| नियुक्ति : [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक H गाथा ||३-४८|| श्रीउचरा विशुद्धा कर्मसंपदा, अथवा मनोरुचिता तिष्ठति तस्य कर्मसंपदा, चरिमा कर्मविभूतिरित्यर्थः,नागार्जुनीयास्तु पठंति-'मणिच्छियं । विनयफलं चूर्णी संपदमुत्तमं मनो,अहक्खायचरित्तसंपदं प्राप्त इत्यर्थः। 'तवोसमायारिसमाहिसंवडो' तवो बारसविहो, सकारस्य इस्वत्वं वृत्तभं-15 १ विनया- गभयात, समाधान समाधिः,संवरण संखुडो इंदियनोइंदिएहि.स एवंविधो समायारीसमाधिसंवुडो महज्जुति महती युतियस्य स भवति ध्ययने महद्युतीः,तपोदीप्तिरित्यर्थः,पंच यशणि पालिय अनुपालयित्वेत्यर्थः ।। 'सदेवगंधव्यमणुस्सपूइए'वृत्तं, तपाद्यैर्गुणैरन्वितत्वात् स सपा देवेर्गान्धर्वमनुष्यैः पूजितः,स्तुत इत्यर्थः, 'जाहितदेहं मलपंकपुब्वयं त्यक्त्वा देहमीदारिक शरीर मलकपुवंति मल एवं पंकः। |कर्मणो हि पंकारख्या भवति,जहा पाबे बज्जे वेरे पंके पगए य' तथा कम्मगपुचगं हि सरीरं, अहवा मलपंकपुवयान्नव मातुउयं पिउसुकं एवं मलपंकजीवो पुव्वं आहारेऊण सरीरंणिवचेति ततो मलपंकपव्ययन्ति,तं त्यक्त्या यत उक्तं'ओरालियवेउविधाहा-1 रकतेयकम्माई सत्ताचि विप्पजहन्नाई उप्पाययित्तासि सिद्ध वा भवति सासते, सासयग्गहणं विज्जासिद्धादिणिरागरणस्थ, ॥ सावसेसकम्मे पुण देवे भवति, अप्परये ति अप्पकम्मे,लवसत्तमेसु देवेसु विजयादिसु वा अणुत्तरेसु'माहिड्डीय'त्ति सेससु वा कप्पसुते | इंदचाए सामाणियत्ताए वा उन्बजति, इतिसदो अणगहो, इह तु परिसेसए विसयो, अहया एवमत्थो, एवमिति, बेमि-प्रवीमि, थराणं | वियणमेयं, भगवता सर्व विदा उपदिई अहमपि ब्रवीमि । एवमेयं अज्झयणं उबक्कमेण णिक्खेवसमीवमाणऊण मुत्तालाबगे णिक्खेवि-5 ऊण सुत्तफासियणिज्जुचीए जहासंभवं वक्खाणियं, इदाणिं चतुत्थं अणुओगद्दारं णयत्ति, ते य वक्खाणंगं, इत्धेव सुत्ते सुत्ते उप-1|॥ ४५ ॥ योज्जा, तहावि दारासुण्णत्थं भण्णति, तंजहा गमसंगहयवहारउज्जुसुयसइसमभिरूटएवंभूता, एते सत्तवि जहा सामाइए तहा 131 लापरूवेऊण समासेण दुहा विभज्जति तंजहा-पाणणतो करणगतो यणाणाहीणं सञ्चं णाणणयो भणति किं च करणेणं । किरि FASWASTEREONEONE दीप अनुक्रम [३-४८]] [58] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ||३-४८|| दीप अनुक्रम [३-४८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३-४८/३-४८|| निर्युक्तिः [३०...६४/३०-६४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र -[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण २ परीपहाध्ययने ॥ ४६ ॥ याए करणणओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥ १ ॥ णायम्मि गिहियवे' गाहा ( ) णाउति परिच्छिण्णो गेज्झो जो कज्जसाहओ होइ । अगेज्झ अणुत्रकारी अत्थो दध्वं गुणो वावि ॥ १॥ जतितव्यंति पयत्तो कज्जे सज्झाम गिण्हितव्योति । अग्गेज्झनादिययोऽवधारणे एवसोऽयं ॥ २ ॥ इति जोती एवमिहं जो उद्देसोस जाणणाणयो सेत्ति सो पुण समदंसणसुतसामइयाई बोद्धव्यो || ३ || गतो जाणणाणयो । इदाणि चरणणयो 'सव्वेसिंपि णयाणं' गाहा ( ) सव्बेति मूलसाइप्पसाहभेदादिसदवो तेसिं । किं पुण मूलपयाणं ? अहवा किमुताविसुद्धाणं || १ || सामण्ण विसेसो भय मेदा वक्तव्यया बहुविहत्ति । अह्वाणामादीर्ण इच्छति को कं णयं साहुँ ? । सोऊ सदहिऊण य णाऊण य तं जिणोचदे संग । तं सव्वणयविसुद्धंति सव्वणयसम्मतं जंतु ॥ ३ ॥ चरणगुणसुद्वितो होति साधुरेवेस किरियणयो णाम । चरणगुणसुट्टितं जं (साधु) साधुत्ति मनेइ || ४ || सो तेण भावसाधू सव्वणया जं च भावमि - च्छंति । गाणकिरियाणयोभयजुत्तो य जतो सदा साहू || ५ || विणयसुतचुन्नी समत्ता ॥ १ ॥ अथ परीषदाध्ययनं २ E उक्तोऽस्मिन् प्रथमेऽध्याये विनयः, तस्य विनय विनीतस्य साधोः कदाचित् परीषहा नानाप्रकारा उदीर्यंते, ते अणा इलेण अव्वहितेण सम्मं सहितव्या, ते च क्षुधाद्याः, अनेन संबंधेनेनेदमध्ययनमायातं परीसहा इति, तस्स चत्तारि उवकमादीणि सव्वाणि परूयेऊणं णामणिफण्णे णिक्खेवे परीसहेति, मार्गाच्यवनार्थ निर्जरार्थं च सम्यक् परिषोढव्या, तत्थ 'णासो परीसहाणं गाहा अध्ययनं -१- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२- “परिषह" आरभ्यते [59] नयाः ॥ ४६ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], FREE मूलं / गाथा ||४८.../४८...|| श्री नियुक्ति: [६५-८५/६५-८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक निक्षेपाः गाथा ||४८...|| कारक श्रीउत्तरार ६५-७२) ते परीसहा चउबिहा णामादी, णामठवणातो गतातो, दवपरीसहा दुविहा-आगमतो णोआगमतो य, आगमतो परीवह चूर्णी जाणते अणुवउत्ते, णोआगमतो तिचिहा, तत्थ गाहा 'जाणगसरीर' गाहा (६६-७२) सन्नं परूवेऊणं जाणगसरीरवहरिचे दच्च-18 २ परापहानापरीसहा दुरिहा, तंजहा- कम्मदचपरीसहा य गोदचकम्मपरीसहा य, जाणि परीसहवेदणिज्जाणि कम्माणि बद्धाई ताव | ध्ययने न उदेति ते कम्मदव्यपरीसहा, 'णोकम्ममि य' गाहा (६७७३) तिविहा णोकम्मदव्वपरीसहा- सचिचाचित्तमीस॥४॥ गा,सचित्तणोकम्मदव्वपरीसहा जेहिं सचित्तेहिं परीसहा उदेज्जति जहा गिरिनिज्झरणपाणीयं, एयस्स छुहा उदेज्जति, अचित्ते णो कम्मदव्यपरीसहा जहा अग्गिदावणियचुण्णेहिं छहा भवति, मीसे गुलल्लएणं छुहा भवति, पिवासापरीसहो लोणपाणीएण वा 13 तण्डा उदेज्जति, तेलेहि य अचिचेहिं णिलवणादीहिं मिस्सेहि दब्बेहिं खज्जतेहि य तण्हा उदेज्जति, एवं सेसावि परीसहा || जहासंभवं जोएयव्या, गतो णोकम्मदग्बपरीसहो, दच्चपरीसहा य । इदानि भावपरीसहा, ते वेदणिज्जाणं कम्माण, उदिण्णाण । वेदणिज्जाणं भवंति, वेसि परीसहाणं इमाणि तेरस पदाणि भवंति,तत्थ गाहा-' कत्तो कस्स व दवे (समतारो) अहियास णए व बतणा काले। खेत्तोदेसे पुच्छा णि इसे सुत्तफासे याचि(६८-७३) एत्थ पुण आदिदारं कत्तो एते परीसहा निज्जूढा', उच्यते,'कम्मप्प-15 वायपुव्वा सत्तरसे पाहुडंमि जं मुत्तं । सणयं सउदाहरणं तं चेव इहंपि णातव्वं ६९-७३) कत्तोत्ति गतं, इदार्ण कस्सत्ति दारं, कस्स ते परीसहा ?, किं संजतस्स असंजतस्स संजयासंजतस्सी, एत्थ णएहिं मग्गणया इति, कोऽर्थः, (उच्यते, नयाः कारका दीपकाः व्यञ्जका भावकाः उपलम्मका इत्यर्थः, विविधैः प्रकारैरर्थविशेषान् स्बेन स्वेनाभिप्रायेण नयन्तीति । नयाः, ते च णैगमादयः सप्त नयाः. तद्यथा-णेगमसंगहबवहारउजसत्तसहसमभिरूढएवंभताः, एत्थ गाहा-'तिण्हंपिणेगम' दीप अनुक्रम [४८...] ... अत्र 'परिषहास्य नामादि निक्षेपा: दर्शयते [60] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्य यनं [२], मूलं H I गाथा ||४८.../४८...|| श्री नियुक्ति: [६५-८५/६५-८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक नया H गाथा ||४८...|| श्रीउत्तरागाहा (७०-७४ ) तत्थ गमनयस्स तिण्हंपि परीसहो भवति, तंजहा-संजतस्सवि असंजतस्सवि संजताससंजतस्सवि, एवं जाना परीपहे | उज्जुसुतस्स, तिण्हं सद्दणयाणं संजतस्सेब एगस्स परीसहो भवति, तंजहा-संजतस्स-विरयस्स, ण सेसाणं, कस्सत्तिगतं, इदार्णिका २ परीषहा कमसु. बदबत्ति दारं,कयरेण दवेण परीसहा उदेज्जति', किं जीवदब्वेण १ जीवदब्बेहिं २ अजीवदग्वेण ३ अजीबदम्बेहि ४ उदाहु जीवदव्वेण ध्ययने अवतार 1) अजीवदव्वेण५य तहा जीवदव्येण वा अजीबदवेहि वादउदाहु जीवदव्वेहि अजीबदब्वेण यउदाहु जीवदन्येहि य अजीवदव्येहि या ॥४८॥ एते पुच्छा अट्ठभंगा भणिता, तत्थ णेगमणयो भण्णति-अट्ठहिवि भंगाह परीसहा भवंति, कहं 1, उच्यते, एगण पुरिसेण परीसहेत उदीरितो चबेडिया दिना, णजीवदव्वेण एगेण कंटगाइणा, जीवदयेहि बहहिं पुरिसेहिं चवेडादिहिं आसाइतो,अजीवदव्वेहि बहुना पासाणकंटगादीण उवरि पडितो, जीवेण अजीवेण एगेण पुरिसेण एगेण सरमातिणा, एवं विभासितव्वा अढवि भंगा, संगहस्स जीवेण अहवा णोजीचेण, कथं कृत्वा ?, यो हि जीवेण दब्वेण योऽप्यजीबदब्बेण सर्वोऽप्यसौ जीवस्यैव तेण जीवेण, णोजीवोद कथं !, जतो णोजीवेण उदीरेज्जति तदा जीवोवि गहितो जओ उदीरेति, बवहारस्स नोजीवो कह ', जीवस्स कम्मेणेव । परीसहा भवंति, सेसाणं जीवस्स, कह १, पगति वेयणत्तिकृत्वा जीवस्सव परिसहो, णो अजीवस्स, तेण जीवस्सेव भवति, दम्वेति । गतं, इयाणि समोतारो,तत्थ गाहा-'समोतारो खस्लु गाहा' (७२-७५) समोतारो दुविहो-पगडीसु पुरिसेसु य, तत्थ पगडीसु ॥४८ चउसु समोतरंति- 'णाणाधरणे' गाहा (७३-७५) णाणावरणे वेदणिज्जे मोहणिज्जे अन्तराये य बावीसइ परीसहा, कत्थ कोसें। समोचारो, आह-पन्नाऽनाणपरिसहा' गाहा (७४-७५) पापरीसहो अभाणपरीसहो य नाणावरणस्स उदएणं, एको य४ |अलाहपरीसहो अंतरायस्स उदएणं, मोहणिज्जे कम्मे दुविहे पण्णचे, तंजहा- देसणमोइणिज्जे चरितमोहणिज्जे य, तत्थ । दीप अनुक्रम [४८...] RSA%A5812 [61] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [H] गाथा ||४८...|| दीप अनुक्रम [४८ ...] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [-] / गाथा ||४८...८४८...|| निर्युक्तिः [६५-८५/६५-८५] अध्ययन [ २ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण २ परीपहा ध्ययने ॥ ४९ ॥ चरितमोहणिज्जे सच परीसहा समोवरंति, तत्थ गाहा 'अरती अचेल' गाहा (७५-७६ ) 'अरई दुगुंछा य' गाहा (७६-७६) 'दंसणमोहे' गाहा (७७-७६ ) अरती अरतिवेदणिज्जस्स कम्मस्स उदयएणं समुप्पञ्जति, अचेलगपरीसहो समोतरति दुगुंछामोहणिज्जे, इत्थीपरीसहो पुरिसवेदस्स कम्मस्स उदरणं, णिसीहियापरीसहो भयस्स उदरणं, जायणापरीसहो माणस्स उदएणं, अक्कोसपरीसहो कोहस्स उदरणं, सकारपुरकारपरीसहो लोभस्स उदयेणं, दंसणमोहस्स कम्मस्स उदयेणं एको दंसणपरीसहो भवति, सेसा एकारस परीसहा वेयणीए समोतरंति, तत्थ गाहा-'पंचेव आणुपुच्ची' गाहा ( ७८-७६ ) (पंच आणुपुब्बीए) तंजहा -दिगिछापरी ०| पिवासाप सीयप० उसिणप० दंसमसगपरीसही आणुपुथ्वी एते पंच, चरिया सेज्जा रोगप० तणफासेवि जलप० वधपरीसहो एते एकारस वेदणिज्जे, एवं पगडीसु समोतारो भणितो । इदाणिं पुरिसेसु 'बावीस बादरपरागे' गाहा (७९७६ ) सत्तविह अविबंधगाणं पमत्तसंजतप्पभितीणं जावबादरसंपरागो ताव बावीस परीसहा भवंति छन्हिबंधगस्त सुहमसंपरागस्स उवसामिगसेटिस्स वा मोहणिज्जयभवा अड्ड परीसहा वज्जिऊण सेसा चोइस परीसहा, एवं एगविहबंधगस्स वीतरागस्स च्छउमत्थस्स उबसामगस्स खमगस्स वा चोहस एव, एगविहबंधगस्स सजोगीभवत्थ केवलिस्स एकारस परीसहा वेदनीयाश्रयाः, शेषा नास्ति, पुरिसेसु समोतारो य दारं गतं इदाणिं अधियासणा, कई परीसहा अहियासिया भवति', 'एसणमणेसणेज्ज' गाहा (८०-७६) तत्थ तिन्हं आइडाणं णयाणं जो एसणिज्जं वा अणेसणिज्जं वा ण पडिग्गादेति ण वा मुंजति ततो अहियासिया भवंति, उज्जुसुतस्स तिण्डं सणयाणं च जो फासुतं गेण्डह तेण परीसहा अहियासिया भवंति, अहियासणेतिगतं । इयाणिं णया, को गयो कं परीसई। इच्छइ ?- 'जं पप्प णेगमणयो' गाहा (८१-७७) णेगमणयस्स जं पप्य सीतउसिणादिपरीसहा उदीरिज्जति स एव तस्स परी [62] पुरुषेषु परीषदाः ॥ ४९ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं H I गाथा ||४८.../४८...|| श्री नियुक्ति: [६५-८५/६५-८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूणौं । H गाथा ||४८...||| श्रीउत्तरा० सहो भवति, संगहयवहाराणं जे पप्प परीसद्दा भवंति वेयणा य तं दोचि इच्छति, उज्जुसुयस्स वेदनं प्रतीत्य जीवस्येत्यादि जीवे . नयैः परीसहा भवंति, तिहं सदणयाणं आत्मैव परीसहोपयुक्तः परीयहो भवति,णयत्ति गतं। इदाणि वत्तणा-एकस्मिन् काले एगपुरिसे | परा पराहा कति परीसहा वर्तते ? 'वीसं उकोसपदे' गाहा (८२-७७) जस्स पानीसं परीसहा तस्स उकोसपदे वीसं परीसहा उदेज्जेज्जा, ध्ययने । कह?, जेण सीतोसिणा चरियाणिसीहिया एते दो दो जुगर्व एगसमए ण संभवंति, जदा सीतं न तदा उसिणं उदेज्जेज्जा, सीतो-13 ॥५०॥ सिणा चरियाणिसीहिया सपडिवखेण, जस्स चउद्दस तस्स उकासपदे वारस, जस्स एकारस परीसहा तस्स उक्कोसपदे दस | | परिसहा उदेज्जेज्जा, सीतोसिणपडिवखणं, सब्यासे एतेसिं जहण एको परीसहो उदेज्जा,वत्तणेतिगतं । इदाणि काले, केच्चिर काले एको परीसहो भवति ?-'बासग्गसो तिण्हं' गाथा (८३-७८) तिण्हं आदेल्लाणं णयाणं वासग्गसो जाब सम्मतो परि-18 लियातेत्ति, अत्रोदाहरणं जहा सणकुमारस्स सन वरिससयाणि परीसहो, जहा 'कंडू अ भत्तच्छंदो गाहा (८४-७८) उज्जुमुतस्सद अंतोमुहुत्तं, तिहं सद्दणयाणं एग समयं परीसहो भवति ,कालेत्तिगतं । इदाणि खेत्तत्ति, कतरंमि खेत्ते परीसहा! केवतिए वा खेत्ते भवति:-'लोगे संथारंमि य'गाहा(८५-७९)अत्र नया:-अविसुद्धो नेगमो भणति-तिरियलोए परीसहा, विसुद्धतरो उ भणति-जंबुद्दीचे ४ लापरीसहे, विसुद्धतरो भणति-दाहिणद्ध, विसुद्धतराओ भणति-पाडलिपुत्ते, बिसुद्धतरातो भणति-देवदत्तगिहे, विसुद्धतराओ भणति-जंमिर | उवस्सए साधू भवति तमि परीसहो, एवं ववहारस्सवि, संगहस्स संथारए परीसहो, उज्जुसुतस्स जेसु आगासपदेसेसु अप्पा ओगाढो ॥५०॥ ४ा तेसु परीसहो, तिहं सुद्धणयाणं आतभावे परीसहो भवति, खेत्तोत्ति गतं । 'उद्देसो गुरुवयण' गाहा(८५-७९) उद्देसो जहा इमे खलु बाबीसं परीसहा, पुच्छा कतरे ते बाधीसं परीसहाणिद्देसो 'इमे खलु ते बाधीस परीसहागतो णामणिफण्णो, RSSCREE दीप अनुक्रम [४८...] [63 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१/४९] | गाथा ||४८.../४८...|| नियुक्ति: [६५-८५/६५-८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक - गाथा .. ||४८...|| -१० श्रीउत्तरा इदाणिं तेरसमंदारं सुत्तफासेत्ति, तं च सुर्च उच्चारेऊण भणति तं च इमं सुतं मे आउसंतेण भगवताएवमक्वातं'श्रुतं मया आयुचूणौँ पाप्मन्! अजजा,सुहम्मो अञ्जजंचुणामं आमंतित्ता एवं भणति,एवं मया श्रुतं भगवता आयुष्मता एवमक्खायं,अथवा आयुषि सति जीवता, परीषहाः २ परीपहा अथवा पादसमीचे अधिवसता, अथवा गुरुपादानामुपवसता, श्रुतमेतं, न स्वच्छंदविकल्पत उच्यते, गुरुपारम्पयागतमेतत्, सूत्र च ध्ययने भगवता इति, भगो जस्स अत्थि भगवान्, अत्थजसधम्मलच्छीरूवसत्तविभवाण छण्ड एतेसि भग इति णाम, जस्स सति सो ॥५ ॥ भण्णति भगवं तेण भगवया, 'एवमक्खायं ' एवंशब्दो प्रकाराभिधायी, एतेन प्रकारेण योऽयं भणिहिति तं हिदये काऊण। भष्णति एवमक्खातं, अक्खातं कहितं, 'इह खलु' इह आरुहे सासणे, खलुसद्दो बिसेसणे, अन्नेवि तित्थयरा भगवंतो समाणविष्णाणाति तेहिवि एमेव, 'बावीसं परीसहा' चावीस इति संख्यापरि सर्वतोभावे, मार्गाच्यवनार्थ निर्जराथं च परिषोढच्या परीसहाः, 'समणेणं भगवता महावीरेण' सममाणा समणा, भगवता इति भणितं, पहाणो वारो महावीरो, एवमक्खात* मिति भाणितेऽवि पुणो विसेसिज्जति-समणेणं भगवता समणभावो केवलिता य दरिसिज्जितिति, णामठवणदव्वसमण-17 बिसेसणत्थं वा, एवं भावसमणेण एव भगवता महावीरेण, 'कासवेण' काशं उच्छं तस्य विकारः कास्यः रसः स यस्य पान १ लास काश्यपः-उसमसामी तस्स जोगा जे जाता ते कासवा तेण, बद्धमाणो सामी कासबो तेण कासवेण, 'पवेदिता' विद् ज्ञाने साधु वेदिता पवेदिता, साध वर्णिता, 'जे भिक्ख'जे इति अणिहिवस्स णिसे, भिक्खणसीलो भिक्खू, अहवा खुध-कम्मं तं ॥५॥ भिंदतिति भिक्खू 'सोच्चा णच्च ' क्रमदर्शनं, पूर्व श्रूयते पश्चाद् ज्ञायते, अनुक्तमपि चेतद् ज्ञायते, पूर्वमधीयते पश्चात् श्रयत18 ज्ञायते वा, श्रूयते अर्थतः बायते च, अथवा कश्चित् न तावदधीते उपदेशेन श्रुत्वा जानीते तेन समस्तः क्रम उपदिश्यते, दीप अनुक्रम [४८...] SAGAR [64] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१/४९] / गाथा ||४९-५१/५०-५२|| नियुक्ति : [८५....८६...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत % सूत्रांक [१] गाथा ॥४९५१|| श्रीउत्रा०जिच्चा' ते जिणित्ता, कथं ?, 'अभिभूय' ति पराजिणिचा अभिमुखी भूत्वा, अभिभूय इत्यर्थः, चरणं चर्या भिक्षोश्वर्या | क्षुधा चूणो भिक्षचर्या तया भिक्षचर्यया, समंताद बजतो परिव्रजतो. विविधैः प्रकारैईन्यते विनिहन्यते, अमानोनाः प्रतिषेधे, णो विहन्यते, हा परीषहः २ परीषहाध्ययने '11गतो उद्देसो । इदाणिं पुच्छा, 'कतरे ते बावीसं परीसहा जाव णो विणिहपणेजा ' पुछा गता, इदाणि णिहेसो इमे खल ते पावसं जाव णो चिहणज्जा, तं-दिगिंछापरीसहो जाब ईसणपरीसहत्ति ति 'परीसहाणं पविभत्ती। ॥५२॥ (४९.८३) विभजनं विभक्तिः प्रकर्षेण विभक्तिः प्रविभक्तिः कासवेण प्रवेदिता एवं भणितं तं ते(भे) उदाहरिस्सामि, व्याख्या-ला स्यामीत्यर्थः, तत्र तावत् क्षुधापरीसहजयोपायः 'दिगिंछापरिगते देहे ' सिलोगो (५० सू० ८३ ) दिगिंछा णाम | देसीतो खुहाअभिहाणं, परि समंतात्तापः परितापः, दिगिंछया परितापो, तेण हि दिगिच्छापरितापेन तपस्सी भिक्खू थामवं, दतपस्विग्रहणं आहारायत्तत्वात् प्राणिनां, सर्वतपसां हि अनशनमेव सुदुष्करं तपः, आह हि-'क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदनार | इति वचनात् , आदिकरणमपि चास्य परीषहस्यायमेव हि सर्वपरीपहाणामादितो भवति, कथं , आहारपज्जची पढम होइ, 15 उक्तञ्च-"माउउयं पितुसुकं तपतमाए आहारमाहारेत्ता गम्भत्ताए बकमह" ति, भिक्खुरिति भिक्षुनिर्देशः,थामवं नाम | दिप्राणवान्, सति थामे जोगसमत्थो खुधं अहियासेज्जासि, जतिवि ण सकेसि छुहं सहेउं तहावि फासुएसणिज्ज अंतपडिप्पंतो। (झिएहिं आ) हारेहिं चउत्थादीहिं तवस्सी अत्थामो छुहापरिगतो होति, पच्छा छुहापरिगतेण भिक्खुणा गवेसितव्या णव | कोडीपरिसुद्धा, ण छिंदावए ण पए ण पयावए ण किणे ण किणावए, एता णव कोडी पुइताओ, छिन्नति पाहणंति वा एगटुं, तेण ॥५२॥ लोण हणावए हणतं णाणुमोदए अग्गि, तहेव मूलपलंचादि ण छिंदे ण छिंदावए छिंदतमवि णाणुमोदए, पुवच्छिदियमपि ण | । - % दीप अनुक्रम [५०-५२] % [65] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||४९-५१/५०-५२|| नियुक्ति : [८५....८६...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: TAL प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥४९५१|| हा श्रीउत्तरापिए ण पयावए पयंत णाणुमोदए, तहेव फासुगं वाण किणे ण किणावए किणतं णाणुमोदए, एवं एसणिज्ज अंजमाणेण खुहा-13 क्षुधा चूणों परीसहो अहियासितो भवति, यद्यपि तेन क्षुत्परीसहेण सम्यग सहमानेन सरीरदौर्बल्यात 'कालीपव्वंगसंकासे' सिलोगो 151 परीषहः २ परीपहा (५१ सू०८४) काली नाम तृणबिसेसो, केइ काकजंघा भणति, तीसे पासतो पञ्चाणि तुल्लाणि तणूणि, कालीतृणपर्वणः ध्ययने पर्चभिरंगानि संकाशानि यस्य स भवति कालीतृणपर्वागसंकाशः, तानि हि कालीपर्वाणि संधिसु धुराणि मध्ये कृशानि, एवमसा-3 लावपि भिक्षुः छुहाए जानुकोप्परसंधिषु धूरो भवति, जंघोरुकालायिकबाहुसु कृशः, धम्यतः इति धमन्यः धमनिभिः संततः | सर्वतस्ततः । अस्यामप्यवस्थायां यदाहारयति तदाह-मायण्णे असणपाणस्स' मीयत इति मात्रा तां जानातीति मात्रा, यया | मा देहधारणं भवति, दीयते इति दीनः, दुर्भिक्षोपहतद्रमकवदनाथः, पिंडमलभमानो न दीनमणा भवे, एतेसि बावीसाए परीसहाणं | इमा उदाहरणगाहा- तंजहा- 'कुमारए णदी लेणे' सिलोगो ( ८७.८६) 'वणे' गाहा (८८-८६ ) तत्थ दिगिछापरीसहे कुमारण उदाहरणं, तत्थ गाहा-'उज्जणि हस्थिमित्तो' गाहा (८९८५) तेणं कालेण तेणं समएणं उज्जेणीए नयरीए 14 हस्थिमेतो नाम गाहायती, सो मतभज्जिते, तस्स पुत्तो हथिभूती नाम दारगो, सो तं गहाय पन्वतितो, ते अनया कयायि छाउजणीतो भोतकडं पत्थिता, अडविमझे सो खंतो पाए खयकाए विद्धो, सो असमत्थो जातो, तेण साहूणो वृत्ता-बच्चह, 15 तुम्भेऽवि ताव णित्थरह कतारं, अहं महया दुक्खेण अभिभूतो, जति ममं तुम्भे वहद्द तो भज्जिहिह, अहं भत्तं पच्चक्खामि, 1५३॥ निबंधेण ठितो एगपासे गिरिकंदराते भत्तं पच्चक्खाउं, साधु पद्विता, सो खुट्टओ भणति-अहपि अच्छामि, सो तेहिं चला णीओ,131 जाहे दूरं गतो वाहे वीसंमेऊण पच्चइए णियनो, आगतो खंतगस्स सगासं, खंतएण भणितो-तुमं कीस आगतो, इदं मरिहिसि,दि दीप अनुक्रम [५०-५२] [66] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||५१-५२/५३-५४|| नियुक्ति: [९०1८७-८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||५१५२|| श्रीउत्तरासोऽवि थेरो वेयणत्तो तद्दिवसं चेत्र कालगतो, खुडगो न चेव जाणति जहा कालगतो, सो देवलोएसु उववण्णो, पच्छा तेण ओही | | पिपासा चूणा IIपउत्ता, कि मया दत्तं भुत्तं वा जाव तं सरीरगं पेच्छइ, तं खुड़गं च, सो तस्स खुडगस्स अणुकंपाए त चेव सरीरगं अशुपवि परीपहः २ परीषहाध्ययने Halk| सेत्ता खडगेण सद्धिं उल्लवंतो अच्छति, तेण मणितो-बच्च पुत! भिक्खाए, सो भणति-कहित, तेण भण्णति एते धवणणिग्गो हादी पायवा, एतेसु तनिवासी पागवंतो जे तव भिक्खं दाहंति, तहति माणितुं गतो, धम्मलाभेति रुक्खहेहेसु, ततो सालं॥५४॥ कारो हत्थो निग्गच्छिउं भिक्खं देति, एवं दिवसे दिवसे भिक्खं गिण्डतो अच्छति, जाव ते साधुणो तमि देसे दुन्भिरखे जाते | पुणोवि उज्जेणिगं देस आगच्छंता तेणेव मग्गेण आगता बितिए संवच्छरे, जाव गता तं पदेस, खड़गं पेच्छति परिसस्स अंते, Bा पुच्छितो भणति-खंतोऽपि अच्छति, गता जाव सुकं सरीरगं पेच्छंति, तेहिं णायंदेवेण होइऊण अणुकंपा कएल्लिया होहिचि, दाखंतेण अहियासितो परीसहो, म खुड़एण, अहवा खुइएणवि अधियासितो, ण तस्स एवं भावो भवति जहाहं न लभेस्सामि भिक्खं तओ फलाई गिहिस्सं, पच्छा सो खुडगो साधूहि नीतो । दिगिच्छापरीसहो गतो। इवाणि पिवासापरीसहो,* का'ततो पुट्टो पिवासाए' सिलोगो (५१ सू०८६) ततो छुधापरीसहातो, अहवा भुत्तस्स संभवति पातुमिच्छा पिपा-14 लासा ताए स्पृष्टः, परिगत इत्यर्थः, दुगुंछनीति दोगुंछी, अस्संजमं दुगुंछती, लद्धो संजमो जेण स भवति लद्धसंजमः, पठ्यते च। PI'लज्जसंजते ' लजा एव संजमो, लजाते वा असंजमं काउं, तया लजया संजमतीत्यर्थः, 'सीतोदगं न सेवेज्जा' सीवोदगं| ॥५४॥ BI नाम अफासुगं, सेयणापाणाधोयणाभिसेयणादि, विगतजीवं, 'विगतजीवपि एसणीयं चरेदिति ॥ अवस्था गृपते 'जिन्नावातेस लापंथेसु' सिलोगो (५२ सू०८६) आपनत्यनेनेत्यापात: तेसु छिमावातसु, निरंतराध्यानेचिल्यर्थः, अत्यर्थ तरतीस्यातुरः, %91355 दीप अनुक्रम [५३-५४] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किञ्चित् स्खलना दृश्यते, सूत्रांक-५१ द्विवारान् अलिखित [67] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [१...] | गाथा ||५१-५२/५३-५४|| नियुक्ति: [९०/९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||५१ श्रीउत्तरा० सुष्टु पिवासा सुपिवासा यद्यपि जाताऽस्य, तेन तु छिमायातेसु पंथेसु सृष्णया परिणुप्यते -मुखं, तथाप्यसौ परिसक्नदो दणिो| चूणौँ र शुष्क(ष्य)ते स्म शुष्कः सर्वतः शुष्कमुखः परिशुष्कमुखः, बहिरंतश्चेति, दीयते दीनमानं चा दीनं, न वा तणां तित्तिधन , सहमान परीषहः २ परीषहा- इत्यर्थः, सर्वतो बजते परिबजते, ग्रामे नगरे पथि वा सर्वत्र सर्वतः । जहा केण अहियासितो, तत्र नदी इति दारं, उदाहरणध्ययन 'उज्जेणी धणमित्तो गाहा (९०-८१), एत्थ उदाहरणं किंचि पडिक्खेण किंचि अणुलोमेण, उज्जेणी नगरी, तरथ घणमितो दणाम वाणियगो, तस्स पुत्तो सम्मधम्मो(धणसम्मो)णामदारओ, सो धणमेतो तेण पुत्तेण(सम)पव्यइतो, अश्मया ते साहु मन्मण्ड वेलाए एलकच्छपहे पट्टिता, सोऽवि खुडतो तण्हाइतो मम्गतो जाते, सोवि से खततो सिणेहाणुरागेण पच्छतो एइ. साहणोऽवि | पुरतो वच्चंति, अंतरावि नदी समावडिया, पच्छा तेण बुच्चति-एहि पुत्त ! इमं पाणियं पियाहि, सोऽबि खंतो नदि उत्तिष्णो, चिंतेइ य-मणागं ओसरामि जावेस खुडओ पाणियं पियइ, मा मम संकाए न पाहिति, एगते पडिच्छद जाव खुडओ पचे णदी, ण पिबतित्ति, केई भणंति-अंजलीए उक्खित्ताए अह से चिंता जाता-पियामिति, पच्छा चितेति-कहमई एते हालाहले जीचे पिविस्स?, ण पीयं, आसाए छिनाए कालगओ, देवेसु उववन्नो, ओही पउत्ता, जाव खुड्गसरीरं पासति, तहि अणुपविट्ठो, खंत 15 हालयति, खंतो एतीति पत्थितो, पच्छा तेसिं तेण देवेण साधूर्ण तिसिताणं गोउलाणि बिउब्धियाण, साधूवि तासु बदियाई सु तकादीणि गेण्हंति, एवं वइयापरंपरएण जाव जणवयं संपचा, पच्छिल्लाए बइयाए तेण देवेण वेंटिता पम्हुसाविया जाणणा. माणिमित्रं, एगो साधू णियत्तो, पेच्छति बेढिय, पत्थि वइया, पच्छा तेण णायं सादेवत्ति, पच्छा तेण देवेण बंदिया साहुणो, न खंतो, तं च सर्व परिकहेति, भणति-तेण अहं परिचत्तो. तुम एतं पाणियं पिबाहिनि, जद मे तं पीतं होतं तो संसार भर्मतो, पडिगतो, ५२|| BASSESASAES HERSONAL दीप अनुक्रम [५३-५४] [68] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [१...] | गाथा ||५५-५७/५५-५७|| नियुक्ति: [९१/९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा % ERS ||५१ ५२|| श्रीउत्तराना एवं अहियासतवं, पिवासापरीसहो गतो॥ इदाणि सीयपरीसहो 'चरंतं विरयं गृहं सिलोगो ५६सू०८८) गामाणुगामंशात परीषहः २ परीपहा धर्म वा चरंत, विरतं अग्गिसमारंभातो गृहारंभतो वा, बाह्याभ्यंतरस्नेहपरिहारा, स्निग्धाहारस्य हि अभ्यंगितस्य वा नातिबीतं द्र TAIभवति, (अणेरिस) अनातीतं शीतं स्पृशति-अभिद्रवति एगता-सिसिरे, अहबा एगता रात्री, यद्यप्यहनि सीतेण परिताविज्जतो:ध्ययने । मावि, णातिवेलं विहन्नेज्जा, न प्रतिषेधे, वेला सीमा मर्यादा सेतुरित्यनर्थातरं, तामतीत्य बेला विहन्येत-विविधैः प्रकारैः हन्येत, ॥५६॥ ययपि शरीरतो विहन्येत अप्रावृतत्वात तहावि ण विष्णज कंपनधूपनादिभिः, पासयति पातयति वा पापं, दर्शनं दृष्टिः,पापे यस्य । दृष्टिः स पापदिट्ठी, योऽभियोगं मन्यते, अविदितपरमार्थत्वात् सः, न पापरष्टिः, संसारसद्भावदर्शनात् न शीतादुद्विजते,इदं हि शीत सकामस्य सहनीयं, (अकामेन) नरकेष्वपि, काश्यपेनोच्यते चान्यथा'णातिवेलं मुणी गच्छे, सोचाणं जिणसासणं' जिनानां शासनं जिनशासनं तत् जिनशासनं श्रुत्वा, तब हि विचित्रसंसारस्वभावं नरकेषु अतिशीतवेदना, तथा तियक्ष्यपि निष्परित्राणेन | शतान्यनुभूतानि, नो चैवं कदाचिदपि चिंतयति-'ण मे ति णिवारणं अत्थि' सिलोगो ५५सू०८८) वियते येन तद्वारणं नियतं || निवितं निपुणं वा वारणं निवारणं प्रावरणमित्यर्थः कंबलालिया, छवित्राणाय भविष्यति ततोऽपदिय(श्य)ते-छविखाणं न विद्यते | छ्यति छियते वा मछबि त्वगित्यर्थः, असौ हि शीतोष्णादीनां ग्राहिकेतिकृत्वान शीतत्राणाय,तदेवमत्राणः अशरणश्च शीतवातानुगतः अहं तु अग्गि सेवामि, अहं तु अनुमतार्थे संप्रेषणे वा, किमिदानी करिष्यामि अत्राणो अशरणव ' तदिदानिमग्गि सेवामि, I|॥५६॥ |इति भिक्खू ण चिंतए, अत्रोदाहरणं, लेणंदि दारं, तत्थ गाहा 'रायगिहमि वयंसा' गाहा (९१-८९) रायगिहे नगरे चत्वारि वयंसा वाणियगा सहबडितया, ते भदपाहुस्स अंतिए धर्म सोच्चा पब्वइया, ते सुत्तं बहुं अहेज्जित्ता अण्णया दीप अनुक्रम [५३-५४] [69] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [१...] / गाथा ||५५-५७/५५-५७|| नियुक्ति: [९१/९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||५५ ॥५७॥ ५७|| श्रीउत्तरा कयाति एगल्लविहारपडिम पडिवना, ते समावनीए विहरता पुणोवि रायगिह नगरं संपत्ता. हेमंतो बढ़त, ते य भिक्खं काउं। चूणों ततियाते पोरिसीए (निग्गता) तेसि वेभारगिरितेण गंतव्वं, तत्थ पढमस्स गिरिगुहाबारे चरिमा पोरिसी ओगाढा, सो तत्थेवर नवा परीपहः परीपहान ठितो, नितियस्स उज्जाणे, ततीयस्स उज्जाणसमीचे, चउत्थस्सणगरम्भासे चेव, तत्थ जो गिरिगुहब्भासे चेव तस्स निरायं सीयं, IA ध्ययन जो सम्म सहतो खमंतो य पढमजामे चेव कालगतो, एवं जो णगरसमीवे सो चउत्थे जामे कालगतो, तेसिं जो पगर-15 भासे तस्स णगरुम्हाए ण तहा सीतं, तेण पच्छा पच्छा कालगता, ते संमं कालगता, एवं संमं अहियासेयव्यं जहा तेहिं चउहि | अहियासियं, सीयपरीसहो गतो ।। सीयपडिपक्खे उण्इं, तदेव उच्यते-'उसिणपरितावेण' सिलोगो (५६ सू०८९) उपती-IN | त्युप्णं समयकृता वा उसिणमिति (संज्ञा), उष्णाभिधानमेव, सर्वतः तापः परितापः, बाह्याभ्यंतर इत्यर्थः, ' उवीर तावेइ रवी रविकरपरिताविता दहइ भूमी । सव्वादो परिदाहो दसमलपरिगतगा तस्स ॥१॥ तृष्णया च सवंगितो दाहो परि-18| | दाहो, तर्जितो भत्सितः, स्यात-उष्णं कस्मिन् काले भवतीत्युच्यते---घिंख परितावेणं' असत इति ग्रीष्मः घिसुपा देशतः | समयतो वा स्यात, किमत्रापि, उक्तं येन ग्रीष्मे विशिष्यते ?. उच्यते, शरदिव तस्मिन् ग्रीष्मे शरदिवा उष्णपरितापितः दू'सातं णो परिदेवए' सम्वेज्ज सातमिति सात, परिदेवनं क्रन्दनं स्थानं आह्वानमित्यर्थः, कथं मे सातं स्यात्, शीतसुखमित्यर्थः | | शीतलो वा कालः स्यादिति । 'उपहाभि' सिलोगो (५७ सू०९०) दहति तेनेत्युणं तेण उहाभितप्तन, मेहया धावतीति | मेधावी, स्नायते येन सोनिकं स्नान, अभिमुखं प्रार्थयेत कृ(भाशं वा अर्थयति, देशस्नानमपि प्रासुकेनांभसा, 'गार्य नो परि। सिंचेज्जा' सर्वतः सिंचति, गो व बीएज्जा इस्तवखपात्रादिभिर्ण वीएज्जा य अप्पगं, जहा केण अहियासिय, तत्थ सिलाह-है। दीप अनुक्रम [५५-५७] [70] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२] मूलं [१...] / गाथा ||५५-५७/५५-५७|| नियुक्ति : [९१-९२/९१-९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: SY प्रत सूत्रांक २ परीपहा EACHAR गाथा ||५५५७|| श्रीउत्तरा०रणस्स इमा उदाहरणगाहा-- 'तगराइ अरिह' सिलोगो (९२-९०) तगरा णगरी, तत्थ अरिह मित्तणाम आयरिओ, तस्स समीये दत्तो नाम वाणियओ भद्दाभारियओ पुत्तेण य अईमगेण सद्धिं पच्चइतो, सो तं खुडगं ण कइयाइ परीपहा ध्ययने भिक्खाए हिंडाचेति, पढमालियादीहि किमिच्छिएहिं पोसेति, सो सुकुमालो, साहूण अप्पत्तियं, ण तरति किंचि भासिउं, अन्नया सो खंतो कालगतो, साधुहिं तस्स दो तिन्नि व दिवसे दाउं भिक्खस्स उत्तारिओ, सुकुमारसरीरो सो गिम्हे उवरिं ॥५८॥ | हेट्ठा उज्झतो पासे य, तण्हाभिभूतो छायाए वीसमंतो पउत्थवइयाए वणियमहिलाए दिट्ठी, उरालसुकुमालसरीरचिकाउं तीसे तहिं अज्झोववातो जातो, चेडीए सद्दाविओ, 'किं मग्गसिचि', भिक्खं, दिना से मोयगा, पुच्छिओ-कीस तुर्म धर्म करेसि , | भणति-सुहनिमित्तं, भणति-तो मए चेव समाण भोगे मुंजाहि, सो उण्हेण तज्जितो उपसग्गिअंतो य पडिभग्गो, भोगे मुंजति, | सो साहहिं सर्हि मग्गिओ, न दिट्ठो, अप्पसागारियं पविट्ठो. पच्छा से माता ओमत्तिया जाता, पुत्तसोगेण, पागरं भमति अरहण्णयं बिलवंती, जहिं पासति तं तर्हि सव्वं भणति-अस्थि ते कोइ अरहनतो दिट्ठो', एवं विलवमाणी भमति, जावा का अन्नया तेण पुत्तेण ओलोयणगतेण दिट्ठा, पच्चभिण्णाता य, तहेव उत्तरित्ता पाएमु पडितो, ते पेच्छिऊण तहेव वासस्थचित्ता जाता, ताए भण्णति-पुत्त ! पन्वयाहि, मा दुग्गति जाहिसि, सो मणति-ण तरामि काउं संजमं, जइ परं अणसणं करेमि, एवंद करेहि, मा य असंजमो भवाहि, मा संसार भमिहिीस, पच्छा सो तहेव तत्ताए सिलाए पाओवगमणं करेति, मुहुत्तेण सुकुमाल-11॥५८॥ सरीरो सो उपहेण विराओ,पुव्वं तेण णाधियासितो पच्छा अहिआसीओ,एवं अधियासितबंउसिणपरीसहो गतो।इवाणि दंस-11 तामसगपरीसहो 'पुट्ठो य दंसमसएहि सिलोगो (५८ सू०६१) स्पृष्टत्वात् स्पृष्टः, सहारिभिः समरं, वक्ष्यति 'नागो व चि, दीप अनुक्रम [५५-५७] [71] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [१...] / गाथा ||५८-५९/५८-५९|| नियुक्ति: [९३/९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||५८ ५९|| ला श्रीउत्तरा०व्यवहिताभिधानमेतत् , महान्तं मुनतीति महामुनिः, 'नागो संगामसीसे वा' नास्य किंचिदगम्यं नागः, समं ग्रात इति दशमशक चूर्णी संग्रामः, शीर्यत इति शिरः श्रिताः तस्मिन् इति प्राणा वा शिरः, शयत्यसौ युद्ध मुंचति वा तमिति शूरः, यथाऽसी नागः सौर २ परीपहा- शरैरभिहन्यमानः शूरो वा योधः परानभिति, परे नाम शत्रवः, एवमसामपि दंशमशः तुद्यमानोऽपि मोहशत्रु विजिगीषुः ध्ययने तान्न गणयति. अन्येऽपि युकामत्कुणादयोऽवगृह्यन्ते, स तेस्तुद्यमानोऽपि न संतसे ण वारेज्जा' सिलोगो (५९ सू०९) ॥५९॥ संत्रसति अंगानि कंपयति विक्षिपति वा, न चैव हस्तवखशाखाधूमादिभिस्ताभियारणोपायैयारयति, न चैपामसंशित्वात् आहारकांक्षिणां, मुंजमानानां मच्छरीरं साहारणं, यदि भक्षयन्ति किं ममात्र प्रद्वेषोत्पाते?,ण 'मणंपि ण पदोसए' अपि पादार्थादिषु, किमुपायेन वा निवारणमभिधाते, 'उहण हणे पाणे' उहा णाम उपेक्षा, न वारयति खाद्यमानं शरीरं, हणे पाणे 'हना लिहिंसागत्योः प्राणा अस्य संतीति प्राणी, अतस्तेन प्राणे न हिंसेत इत्यर्थः, ते हि केवलमेव मांसशोणीतं भुजते, न मामात्म द्रव्यं वा, अत्रोदाहरणं पथेचि, अत्रोदाहरणगाहा-'चंपाए सुमिणभद्दा' गाहा (९३-९२) चंपाए नयरीए जियसत्तुस्स कारनो पुत्तो सुमणभद्दो जुवराया, धम्मायरियस्स अंतीए धम्म सोऊण निविभकामभोगो पब्बइतो, तहच्चेव एगलविहारपडिम Gपडिवनो, पच्छा हेवाभूमीए विहरंतो सरयकाले अडवीए पडिमागतो, रति मसएहि खञ्जति, सो ते ण पमअति, संमं सहति, रति पियमाणितो कालगतो, एवं अहियासेतव्वं, दसमसगपरीसहो गतो । इदाणिं अचेलगपरीसहोऽवीय इति, अचेलं-अचेलगत्तं परीसहतीति अचेलगपरीसहो, तस्य हि स्वयमेव अचेलगत्वमभ्युपगम्य नैवमुपपद्यते-' परिजुम्नेहि वत्थेहिं ' सिलोगो (६०सू ९२) वख इति वस्त्रं परि सर्वतोभावे सर्वतो जीर्णानि परिजीर्णानि, परिभुज्यमानानि परिजुम्माणि से बस्थाणि, अतो तेहिं परिजुन्नेहि, दीप अनुक्रम [५८-५९] HORSCle [72] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||६० ६१|| दीप अनुक्रम [६०-६१] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [...] / गाथा ||६०-६१/६०-६१|| निर्युक्तिः [९४-९७/९४-९७] अध्ययनं [२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र -[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णां २ परीषहा ध्ययने ॥ ६० ॥ होक्खामित्ति अचेलए, तस्स एवं अधिति भवति-परिजीर्णेषु सत्सु अचेलगो इदाणिं भविस्यामित्ति, यच्च दुःखमचेलकत्वं कथमिदानं शिष्यो इमं दितं अंगीकरेतुं श्रहियासेज्जा, यथा यस्य वित्तं नास्ति स हि न वित्तनिमित्तैरुपद्रवैर्बाध्यते, उक्तं हि'परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु कांक्षाशोकैः अपि च-' कतिया वच्चति सत्थो? किं मंड? ' कत्थ केलिया भूमी को कयविषयकालो निव्विसति किं कहिं? केण ॥ १ ॥ अयं चापरो गुणः स्वयमेवाचेलत्वे प्रत्यागते ' अथवा सचेलगो सोमि त्ति, तस्य हि अचेलकत्वे सति न कदाचित् अप्युपपद्यते-अहं वस्त्रवान् शोभामीति, अन्यानि वा शोभनतराणि वस्त्राणि मृगयिष्ये यैः शोभिष्ये, इत्येवमसौ भिक्षुर्न चिंतयति, उक्तं च-पंचहि ठाणेहिं समं पुरिमपच्छिमाणं अरिहंताणं भगवंताणं अचेलगे पत्थे भवति, तं० अप्पा पडिलेहा १ विसासिए रूपरतवे अणुमये ३लाघवे पसत्थे४विपुले इंदियणिग्गहे५ ' अतिप्रसक्तार्थनिवृत्तये व्यपदेश्यमाने मा भूदपर्याप्तोऽपि अचेलकत्वं करिष्यतीत्यर्थः ॥ 'एगता अचेलगे भवति' सिलोगो ( ६१ सू० ९२) एगता नाम जदा जिणकप्पं पडिवज्जति, जहवा दिवा अचेलगा भवति, ग्रीष्मे वा, वासासुवि वासे अपडिते ण पाउणति, एवमेव एगता अचेलगो भवति, ' सचेले यावि एगता' तंजहा- सिसिररातीए बरिसारचे वासावासे पडते भिक्खं हिंडते, पठ्यते च अचेलओ सयं होइ अचेलओ स्वयमेव, नाभियोगत इत्यर्थः, अहवा यदाऽस्य चीराण्युत्पद्यते तदा सचेलको जीर्णे श्रलभ्यमाने वा अचेलकः, सर्वथाप्यचेलकत्वमेव स्यात्, कमालंबनं कृत्वाऽचेलकत्वेन सहितः १, उच्यते ' एवं धम्महितं णचा, 'णाणी णो परिदेवए' एतदिति यदुपदिष्टं धर्मस्य हिताय, न धर्मापरोधायेत्यर्थः, धम्मो वग्गहकारं णाऊणं, पाणी णो परिदेवए, पाणिग्गहणं विदितपरापरत्वान्न लज्जते, प्रायस्तिर्यञ्चो नग्मा, नारकास्तु नमा एव न हि ते लज्जते, न चैवं (पां) शीतवातपरित्राणानि संति वासांसि [73] अचेलकपरीषहः ॥ ६० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२] मूलं [१...] / गाथा ||६०-६१/६०-६१|| नियुक्ति: [९४-९७/९४-९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा TECHES -4. ||६० ६१|| श्रीउत्तरा मयापि च नारकतिर्यग्भवभयादेव विद्यमानान्येव स्वयमपोहितानि इत्यतः शीतवातादिभिरभिहन्यमानोऽपि णाणी नो परि- अरति " देवए, परिदेवणं णाम अहं अचेलो सीएण उण्हेण दंसहि वा पीडिज्जामि, जिण्णाणि पोचाणि, अतो अण्णाणि भविस्सति, परीपहः २ परीपहा- एत्य उदाहरणं महल्लेति दारं, सोवि अज्जरक्खिअपिता तस्स पुण आदी 'वीयभयं देवदत्ता' 'दट्ठण चेडिमरणं' 'माया य ध्ययने हसोमा"सीहगिरि महगुत्ते' (९४-९७।९६) चत्तारि गाहाओ जियपडिमाउप्पत्ति कहेऊणं दसपुरुप्पत्ती अज्जरक्खितपव्वज्जा ॥६१॥ हाला दिडिवाताधिगमो जाव अज्जरक्खितेण पिया पवापिओ जाव चोलपट्टगो कओ,तेणं पृथ्वं अचेलगपरीसहो णाधियासिओ, पच्छा । अधियासिओ, अचेलगपरीसहो गतो। इदाणि अरतिपरीसहोगामाणुगामं रीयंतं'सिलोगो(६२सू०९७)असते बुद्धयादीन् गुणानिति ग्रामः, ग्रामादन्यत् पथि अनुलोमं वा गच्छतो अनुग्रामः, अगा वृक्षाः तैः कृतमगारं नास्य अगारं विद्यत इत्यनगारः तं पुण ला अणगारं अकिंचन नास्य किंचनं सोऽयमकिंचनः निष्कांचनो वास हि सुखेन रीयति अप्रतिबद्धः गृहवानपि, सकिंचन दुःखं रीयति, IG उदाहरणं तच्चनिकेतओ,आयरियं उद्दिस्स पच्छतो गच्छमाणेण नउलओ दिहो, सो तेण गहितो,भयतः आचार्य समेत्य ब्रवीति-बिभेमि पच्छतो, पुरतो गच्छामि, उज्झ भयंतीत्युक्तः, पुरतो भिति. आयरियसमीपत्थो विभेमीत्याह. उज्झ भयामिति पुनरप्युक्तः,१ | तस्य धम्मसंज्ञा सुज्झिता, दूरतोज्झितः, आचार्येणोक्का-किमिदानि न विभोस ?, जं तुरंतो ता गच्छसि, सो मणति-उज्झितं मे भयं, इत्येवं अकिंचणो महं विहरति । तमेवं परीयंत यदि नाम अरती अणुपविसज्ज, पश्चादि अरतीत्यनु, विभ्रतामिति संजमे || | अरति, तितिक्खे णाम सहमानस्ता परिव्रजेत्, अरतस्य हि नापि धर्मों, नो तद्वंतपि नरः शक्तो व्यवस्थापयितुं धम्मे इति अतो लधम्मचिप्पकारिणी मत्वा ता ' अरर्ति पिट्टतो किच्चा' सिलोगो (६३ सू० ९९) पृष्ठतो नाम दूरतः उज्झिता, विरतवान् %E51-30491-30 दीप अनुक्रम [६०-६१] CCCI 174] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] | गाथा ||६२-६३/६२-६४|| श्री नियुक्ति : [९८-९९/९८-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत अरति EXPER सूत्रांक [१] गाथा ||६२६३|| श्रीउत्तरालमा विरतः, रितस्य हि सतः कुतोऽरतिः संयमे स्यात्, आत्मेवात्मानं रक्षतीत्यात्मरक्षितः, किमभिप्रेतं ?, आत्मसमुत्था दोसा परीपहा या अरतिः, आत्मनि च वैराग्यमस्योत्पन्न, किं वारति प्रयोजयेत्, अरतिः स्यात्कृचरतः तदिदमुच्यते-'धम्मारामे' अत्यर्थ रमति २ परीषहाध्ययने TA तस्मिन् इत्यारामः धर्म एवाराम धर्मारामः, श्रुतभावनादध्ययनादिषु, आरंभ्यत इत्यारंभः, आरंभी नास्तीतिकृत्या, कृत्येष्वारंभवतांना रतिभवति, 'उपसंते मुणी' उपेत्य शांतः उपशांत:-प्रशांतः, अकषायवानित्यर्थः, अत्रोदाहरणं तापसेन, तस्थ गाहा-|| ॥६२॥ 'अयलपुरे जुवराया' (९८-९९) अयलपुरं णाम अहिट्ठाणं, तत्थ जियसत्तु राया, तस्स पुत्तो जुवराया, सो राहाय रियाण अंतिए पचहतो, सो य अण्णया विहरतो गतो तगरि णगरिं, तस्स य राहायरियस्स सज्झतेवासी अज्जराहखमणा | DIणाम उओणीए विहरंती, ततो आगता साहुणो तगरं, गता राहस्समीवं, ते पुच्छिता णिरूवसग्गं, ते भणति- रायपुत्तोमा पुरोहियपुत्तो य बाहेति, तस्स जुवरायापव्वतियगस्स सो रायपुत्तो भचिज्जतो भवति, मा संसारं भमिहितित्ति आपुच्छि ऊण आयरिए गतो उज्जेणि, भिक्खवेलाए उग्गाहेऊण पद्वितो, आयरिएहिं भणितो-अच्छादि, सो भण्णति-ण अच्छामि, णवरं उदाएह तं पडिणीतं घरं, चल्लगो भणितो-वच्च दाएहि, तेण दाइतं, सो तत्थ गतो, वीसत्थो य पविट्ठो, तत्थ ते दोऽवि अच्छंति, तेत पेच्छिऊण उद्विता, तेणवि महासद्देण धम्मलाभियं, ते भणंति-अहो लद, पब्वइगो अम्हंतेण(आ) गतो, बंदामत्ति, भणंति ते-1 आयरिया! तुब्भे गायित जाणह, तेण भणियं आम जाणामो, तुम्हे वाएहते आढचा, जाव ण जाणति, तेण भण्णति-IF॥२॥ एरिसगा चेव तुम्भे कोलिया, ण किंचिवि जाणह, ते रुट्ठा उद्धाइया, तेण घेत्तुं तेसिं णिजुद्धं जाणंतएण सब्वे संधी खोहिता, &ा पढम ता पिहियता, ने हम्मंता राहि करेंति, परियणा जाणइ-सो एस पव्वदओ हम्मंतो राडि करेइ, सोऽपि गतो, पच्छा तेहिए दीप अनुक्रम [६२-६४] [75] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२] मूलं [१...] / गाथा ||६२-६३/६५-६६|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता अरति प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||६२६३|| श्रीउत्तरादिट्ठा, णवि जीवंति, णवि मरंति, णवीर निरिक्खंति एकमेकं दिट्टीए, पच्छा रणो सिट्ठ पुरोहितस्स य, जहा इत्थ उ कोइ पब न. इतो, तेण दोवि जणा विसंखलिऊण मुका, पच्छा राया सब्ववलेण आगओ, पब्बइतगाण मूलं गतो, सोवि साह एगपासे अच्छति || २ परीपहा परियडूंतो, राया आयरियाणं पादेहिं पडितो, पसायमावज्जह, आयरिएहिं भण्णति-अहं ण याणामि, महाराय ! एत्थ एगो ध्ययने । साह पाहुणगो आगतो, जति परं तेण होज्जा, राया तस्स मूलं समागतो, पञ्चभिष्णातो य, ततो तेण साहुणा भणितो-धिरत्यु ते रायत्तणस्स, जो तुम अप्पणो पुत्तभंडाणवि णिग्गई ण करेसि, पच्छा राया भणति-पसायं करेह, मणति–जति पर पव्वयंति दोण्डं मोक्खो, अन्नहा नस्थि, रायणा पुरोहिएण य भण्पति-एवं होउ, पन्चयंतु, पुच्छिया भणंति-पव्ययामो, पुष्वं लोओ कओ, पच्छा मुका, पव्वइया, सो य रायपुत्तो णिसंकिओ चेव धम्म (कृणति ) पुरोहितपुत्तस्स पुण जातिमतो, अम्हे य मड्डाए पब्वाविया, एवं ते दोवि कालं काऊण देवलोगे उबरना, इतो य 'कोसंबीए सेट्ठी' गाहा-(९५-९९)कोसंबीए नयरीए तावसोडू नाम सेट्ठी, सो मरिऊण निययघरे सूयरो जातो, जाईसरो, ततो तस्स चेव दिवसगे पुत्तेहिं मारितो, पच्छा तहिं चेव घरे उरगो जातो, तहिपि जाइस्सरो जातो, तत्थवि अंतो घरे मा खाहितित्ति मारितो, पच्छा पुणोवि पुत्तस्स पुत्तो जातो, तत्थवि जाई सरमाणो चिंतेइ-कई अहं अप्पणो सुण्हं अम्मति वाहरीहामिी, पुतं वा तातंति, पच्छा मयतणं करेति, पच्छा महन्तीभूतो,ट्र साधूणं अल्लीणो, धम्मोऽणेण सुतो, सावगो जातो, इत्तो य धिज्जाइय देवो महाविदेहे तित्थगरं पुच्छति-किमई सुलहबोहिओ दुलभवोहियचि, ततो सामिणा भणिओ-दुल्लमनोहियोऽसि, पुणोवि पुच्छति-कत्थाई उववज्जिस्सामि?, भगवया भण्णति-कोसं-14 | बीए मयस्स भाया भविस्ससि, सो य मूओ पन्यइस्सति, सो देवो भगवंत बंदिऊण गतो मूयगस्सगासं, तस्स सुबहुयं दब ॥६३ दीप अनुक्रम [६५-६६] उनक [76] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥६२ ६३|| दीप अनुक्रम [६५-६६] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) निर्युक्ति: [९८-९९/९८-९९] अध्ययनं [२] मूलं [१...] / गाथा ||६२-६३/६५-६६|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र -[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० २ जातं दाऊण भणति अहं तुम्भ पिउघरे उववज्जिस्सामि, तीसे य डोहलओ अंबरहि भविस्सति, अमुगे य पव्वते मया अंबगो चूर्णी २ परीपहा ध्ययने ॥ ६४ ॥ सदापुप्फफलगो कतो, तुमं तीए पुरओ णामं लिहिज्जासि जहा तुम्भं पुत्तो भविस्सति, जह तं मम देसि तो ते आणामि अंबफलाणिति, ततो ममं जातं संतं तहा करेज्जासि जहा धम्मे संबुज्झामित्ति, तेण पडिवण्णे गतो देवो, अण्णया कथवयदिवसेसु चहऊण तीए गन्मे उबवन्नो, अकाले अंबडो हलो जातो, स मृगो णामगं लिहसि, तहेब कहेर, ताए भष्णति दिज्जति, | तेण आणीताणी अंबफलाणि, विणीतो डोहलो, कालेण दारगो जातो, सो तं खुड्डलयं चेव होते साधूण पायसु पाडेति सो धाहाओ करेति ण य वंदति, पच्छा संतपडिततो मूयमो पव्वइओ, सामनं काऊथ देवलोमं गतो, तेण ओही पउचा, जाव णेण सो दिट्ठो, पच्छा णेण तस्स जलोदरं कतं, जेण ण सकेति उडेडं, सब्बवेज्जेहिं पञ्चक्खातो, सो देवो डोम्बरूचं काऊण घोसंतो हिंडति--अहं वेज्जो सव्ववाही समेमि, सो भणति मम पोई सज्जावेहि, (जह समं वयसि ) तेण भणति वच्चामि तणे सज्भवितो, गतो तेण सद्धिं तेण तस्स सत्यगोसगो अलवितो, सो ताए देवमायाएऽतीव भारितो, जाव य पव्वतियगा एगंमि 'पदे से पढति, बेज्जेण सो भण्णति जति पव्वयसि तो तं मुयामि, सो तेण भारेण परिताविज्जंतो चिंतेति वरं मे पव्वाइ, भणति - पव्वयामि, पञ्चइतो, देवे गते णाचिरस्स उप्पव्वइतो, तेण देवेण ओहिणा पेच्छिऊण सो चेव से पुणोऽवि चाहि कओ, तेजेव उवाएण पुणोवि पव्याविओ, एवं एकसिं दो तिन्नि वाराओ पन्वइतो, तझ्यावाराएं गच्छति देवो तेणेव समं, तणभारं गहाय पलियन्तयं गामं पविसति, तेण भण्णति-किं तणभारएण पलितं गामं विससि १, तेण भण्णइ-तुमं कह कोहमाणमाया लोभसंपलितं | गिहवासं पविससि, तहाविण संबुज्झति, पच्छा पुणोऽवि दोषि जणा गच्छंति, णवरं देवो अडवीए उप्पद्देण पद्वितो, तेण भष्णति [77] अरवि परीषदः ॥ ६४ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||६२-६३/६५-६६|| नियुक्ति: [९८-९९/९८-९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||६२ ६३|| RSM- श्रीउत्तरा तुम कई मोक्खापदं मोचूण संसाराडपिं पविससि , तहाविण संबुज्झति, पुणो एगंमि देवकुले वाणमंतरो अच्छि(च्चिाओ चूणों हिट्ठाहुत्तो पडति, अहो वाणमंतरो अधण्णो अपुण्णो य जो उपरिहुचो कोच्चिय अतोय हेट्ठाहुत्तो पडिति, तेण देवेण भण्णति- परीपहा २ परीषहा- अहो तुमंपि अहलो जो पराहुत्तो ठवितो अच्चणिज्जे य ठाणे पुणो पुणो उप्पष्वयसि, तेण भण्णा कोऽसि तु, तेण मूबरूवं ध्ययने ४ देसियं, पुथ्वभयो य से कहितो, सो भण्णति-को पच्चओ जहाऽहं देवो आसी, पच्छा सो देवो तं गहाय गतो वेय९ पव्यय सिद्धाययणकडं च, तत्थ तेण पुर्व चेव संगारो कइल्लओ, जहा जति जहं ग संयुज्झेज्जा तो एयं ममचर्य कुंडलजुयलं सनामंकियं सिद्धाययणपुक्खरणीए दरिसिज्जासि, तेण से तं देसियं, सो त कुंडलं सनामक पेच्छिऊण जातिस्सरो जातो, संयुद्धो पच्वइतो, संजमे य से रती जाता, पुवं अरती आसी, पच्छा रती जाता, अरतिपरीसहो गतो। इदाणं इस्थिपरीसहो, स्यारिकसमुन्था अरतिः, उच्यते, स्त्रीसमुत्था, 'संगी एस मणुस्साणं' सिलोगो (६४ सू०१०३) सज्यते इति संगा, एप इति प्रत्यक्षीकरणे, एप एव सर्वसंगानां संग इति, कश्चासौ', 'जाउ लोगंसि इस्थितो' जा इति भनिर्दिष्टस्य निर्देश, लोगो तिविहो- उद्धलोगो अहोलोगो तिरियलोगो, अस्मिन् लोगे इथिओ तिरिक्खजोगीयो मणुस्सीमो देवीओ, जस्सेया परि-1 ष्णाता नाम लड्डुसियाए "एता हसति च रुदंति च अथेहेतोर्विश्वासयंति च परं न च विश्वसंसि । तस्माचरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः स्मशानसुमना इव वर्जनीयाः ।।२।।इति, समुद्रवीचीचपलस्वभावाः, संध्याभ्ररेखा व मुहूर्तरागाः। खियः कृतार्थाः। पुरुष निरर्थक, निपीडितालक्तवत् त्यति ॥२॥" एवं जाणणपरिणाए परिजाणिऊण चत्ता पाचक्खाणपरिणाए इत्यतो जस्सेता || । परिणासा, उभयथावि परिण्णाता, 'सुकडं' सुक्खं क्रियत इति सुकडं, सुट्ट वा कयं सुकडं, निष्ठार्थग्रहणं परिजाणिऊण I 4-4-%C- दीप अनुक्रम [६५-६६] 7 . - 4 - [78] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||६४-६५/६५-६६|| नियुक्ति: [१००-१०५/१००-१०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा चूर्णी [१] गाथा ॥६६॥ ||६४ ६५|| सव्वसंगपरिमुक्कस्स, किं च समणतणस्स दुकरी, समणभावं सामण ॥ ' एवमाताय मेधावी' सिलोमो, (६५ सू० १०६ ) एवमनेन प्रकारेण एवमाज्ञाय-एवमुवलम्येत्यर्थः, पठ्यते च-'एचमाधाय मेधावी' एतत्परिज्ञानमादायेति जहा एया लहुस्सिगा | टपरीपहा इत्यादि, पंकण तुल्या पंकभृता जहा पंके णिमज्जते गच्छंते, एवमेता बालिशाः सक्ताः संसार के णिमज्जंते, 'णो ताहिं विनिहिन्निज्जा चरेज्जत्तगयेसए, पातो नाम तासु अभिस्संगो तबिमिचो वा धम्मपरिच्चागो, चरे इति अनुमतार्थे, आत्मानं | गवेसयतेत्ति अत्तगवेसए, कथं ते आत्मा न संसारायति, कथं वा में चरित्रात्मा तामिन हन्येत इति । अत्रोदाहरणं-'पडिमाए मूलभवो वत्त' गाहा 'उसभरं' पंच गाहाओ (१००। १०४-१०६) भाणियच्याओ, एतं च अक्काणयं, जक्खाए० थूलभद्दो गणियाघरे बुच्छो, सेसा तिन्नि साधू. एगो सप्पवसहीए एगो चग्धवसहीए एगो कूवनडे, जाव कंबलरयणं चंदणियाए इदं, जहा थूलभद्देण अहियासियं तहा अहियासेयवं, ण जहा तेण साहुणा न अधियासियंतहा णाहियासेयव्यति इस्थिपरीसहो गतो । इदाणिं चरियापरासहो 'एग एच' सिलोगो (६६सू० १०७) एगो णाम रागहोसरहितो, अहवा हा एगो 'जणमझेवि वसंतो' गाहा ( ) एगे पुण पति एग एगो चरे लादे' एगो नाम असहायवान्, एगत्थविहारी, वितियमेकग्रहणं अरागद्वेषवान्, चरेदित्यनुमतार्थे, लाढे इति फासुएण उग्गमादिशुद्धण लाढेति, साधुगुणेहिं वा लाढय इति ज्ञापयतेति, अभिमुखं भूत्वा सोढवान् , न तैरभिभूत इत्यर्थः, कुत्र चरेत्?, किमरण्ये !, नेत्युच्यते-गामे वा नगरे या' असति ॥ बुद्धयादीन ग्राम इति, नात्र करो विद्यते इति नगरं, नयन्तीति निगमास्त एव नैगमाः, नानाकर्मशिल्पजातय इत्यर्थः, ते यत्र । ति तं निगम, राज्ञः धानी राजधानी, स्याद् बुद्धिः-किमरणे न बसतीति?, उच्यते, लोकायचा हि तस्य प्रासुकाहारवृचिः, SS Cesc दीप अनुक्रम [६५-६६] [79] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥६६ ६७|| दीप अनुक्रम [६७-६८ ] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||६६-६७/६७-६८|| अध्ययनं [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः . श्रीउत्तरा० चूर्णां २ परीपहाध्ययने ॥ ६७ ॥ निर्युक्ति: [१०६-१०७/१०६-१०७] : आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः सेन जनपदे वसति, तत्रापि वासो वसन् ' असमानो घरे भिक्खु ' सिलोगो (६०सू० १०७) असमान इति असमादिशनि) कः, असंनिहित इत्यर्थः, यथा असमानिकत्वात् गृहवान्, तस्स बद्धमणी ण वहति, एवं सोऽपि जत्थ वसति तत्थ ण सहितस्स पडियस्स वा उदतं बहर, अहवा असमाण इति नो गृहितुल्यितः, न हि तदुदंतप्रवृत्ता मूर्च्छिताचास्मिन् अथवा असमानः अतुल्यबिहारः, अन्यतीर्थिकः, परिग्रहो नामो उवस्सगस्सेव तदुपकारिणं वा कोपादीनां धनधान्यस्य वा मूर्छा परिग्रह इतिकृत्वा यैः सह वसति तैः ग्राम्यैर्नगरैः प्रातिवेशकैः वा, तेसि 'शेव कुज्जा परिग्गह' ममीकारमित्यर्थः, ग्रामादिष्वपि च वसन् नासने, गृहादीनामारामोद्यानादिषु 'असंसत्तो गिरस्थेहिं' असंसतो असंसक्त इत्यर्थः, गृहे तिष्ठति२, कथंचिन्नाम आसनोषि वसन् तैर्न भावतः संसज्जेत, निकेतं गृहं नास्ति निकेतनमस्येत्यनिकेतः अणिययवासो वा अत्रोदाहरणं सीसे (ण) हिंडगेण, तत्थ गाहा, कोल्लयरे' गाहा ( १०६ – १०७ ) कोयरे वत्थवो संगमथेरो आयरिओ, जंघाबलपरिहिणो, दुम्भिक्खे न हिंडतो, तस्स सीसो आहिंडको दत्तो नाम, जहा पिंडनिज्जुतीए तहा वाच्यं एत्थ य तस्सायरियस्स गववसहिभागिस्स जयणाजुत्तस्स अच्छंतस्सवि एकाई भावचरिया एव, जेण जुट्टा, दत्तस्स पुण दव्बचरिया अविसुद्धा, जेण न जुट्टो, चरियापरीसहो गतो, इदाणिं निसिहियापरीस हो, तप्पडिवक्खेण णिसीहियत्ति वा ठाणंति वा एगहूं, तं तु तस्स साधोः कुत्र स्थाने स्यात्, णिसीहियमित्यर्थः, 'सुसाणे सुन्नगारे वा' सिलोगो ( ६८ सू० १०८ ) सुसाणं सुन्नागारं रुक्खस्स आसनं रुक्खमूले, एतागीअसहायगो रागद्दोसविरहिओ वा, अकुक्कुओं निसीएज्जा, विविधं श्रासनं वित्रासनं । 'तत्थ से अच्छमाणस्स' सिलोगो ( ६० सू० १०९ ) तत्थित्ति तस्मिन् सुसाणादिषु, उपसज्यंत इत्युपसर्गाः, विविधाः समस्ताः प्रत्येकं सोढा, अभिधारणा नाम [80] श्री परीषदः ॥ ६७ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥७० ७१|| दीप अनुक्रम [७१-७२ ] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७०-७१/७१-७२|| निर्युक्ति: [१०८-१०९/१०८-१०९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउतरा० चूर्णे २ परीषदाध्ययने ॥ ६८ ॥ प्रार्थना, अभिमुखं वा धारयतीति अभिधारणा, केचित्तु पठति - 'उवसग्गभयं भवे' स तैः प्रार्थ्यमानो वज्झमाणो वा संकातीतो पण गच्छेज्जा, संका अण्णाणतो देवं पेच्छेज्जा भावसंका सा घेप्पति, ताए संकाए भीतो ण गच्छेज्जा, अत्रासंका, भापनीत्यर्थः भयं, आसंकितं वा भयं, किमत्र भयं स्यात् १, न विभेति भयं तु प्रत्युत्पन्नमेव येनाभिद्रुतः स्यात् पलायति वा विक्रोशति वा, एवं गामेवि हितोत्पत्तौ अणुपविसति, एत्थोदाहरणं— 'अगणि' चि, तत्थ गाहा— 'णिक्खतो गयपुरातो' गाहा ( १०७ - १०९ ) कुरुदत्तवो णाम इन्भपुचो, तदारूवाणं थेराणं अंतीए पव्वतो, सो कथाए एगल्लविहारपडिमं पडिबनो, साएतस्स नगरस्स अदूरसामन्ते पोरसी ओगाढा, तत्थेव पडिमं ठितो चचरे, ततो एकाओ गामाओ गावीओ हिरिज्जतिओ तेणोगासेण णीताओ. कुडिया मग्गमाणा यागता पेक्खता पदेण जाव साधू दिट्टो, तत्थ दुवे पंथा, पच्छा ते ण तेण जाणंति कतरेण पंथेण गीतातो, ते साहू पुच्छंति-कथरेण पहेण गावीतो गीतातो ? सो भगवं न वाहरति, तेहि रुडेहिं ण वाहरतीतिकाऊण तस्स सीसे मट्टियाए पालि बंधिऊण चितआओ अंगारा वेचूण सीसे छूढा गया य, सोऽवि भगवं संमं सहति तेण णिसीहिया परीसहो अहियासिओ, निसीहियापरीसहो गतो. इदाणिं सेज्जापरीस हो 'उच्चावयाहिं' सिलोगो (७० सू० ११०) उच्चा अवचाथ, उर्द्धचिता उच्चा, उपचिता गुणैः उच्चत्तेण वा, अथानेकप्रकारासु उच्चावयासु शेते तस्यामिति शय्या भिक्खु थामनां णातिवेलं विष्णिज्जा, वेला सीमा सेतुर्मर्यादेत्यनर्थान्तरं, अतिवेलं विहण्णेज्जा, विविधं हन्यते विहन्यते, विघातो णाम जेण संजमजीवियाओ हन्यते, उच्चाए अहो इमा शीतला उतुकखमा, अवचाए अहो इमा पावा सेज्जा अऋतुक्खमा एवं पावदिट्टि विणति, पापदृष्टिः, अभियोगमित्र मन्यते, बारसमालंचा जति महो जस्सेसा पवाता वा [81] खी परीषहः ॥ ६८ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] | गाथा ||७०-७१/७१-७२|| नियुक्ति : [१०८-१०९/१०८-१०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||७० श्रीउत्तराणिवाता वा पतिरिका वा, एवं अवचितासु, उच्चासु त अहो मे मणुना सेज्जा, एवं पावदिहि विहण्णाति । स एवं अपाप-12 चू) दिट्ठी" पयरीक्कुषसयं णच्चा' सिलोगो (७१सू०११०) पयरेको णाम पुण्णो, अव्वाबाहो वा असु(भुण्णवो वा, ण किंचिति 18 टपरीषहः २ परीषहान तत्थ ठविया, जे निमित्तं तत्थागच्छिस्संति, अयं ऋतुखमितो, ण कप्पडियादिहिं य उवभुज्जति, कल्यतामानयतीति कल्याणः, पापको नाम पांसु कूरे चा अरितुक्खमो वा पापकः, पहरिकेपि वसन्-'किं मज्झ एगरातीए? ' किमिति परिप्रश्ने, किमकरायां पदा भविष्यति, सो हि एगल्लविहारी गामे एगरातीए णगरे पंचरातीए, रमणीए तापत अधैवायं रमणीयः उपाश्रयः, हिजो अमो भवति सोमणो असोमणो बा,पापकोऽपि अद्यैवायं ममाशोभनो,हिज्जो अन्नो भविस्सति,यत्रापि चिरं वसति तत्राप्यालंधते' किंमा | एगरायाए' किमियं एगरात्री देरात्री भविष्यति, बद्धोऽपि एकरात्रं लंघयति, एवं आलम्बनं कृत्वा एवं तत्थऽधियासए, | अत्रोदाहरणं 'णिवेगं', तत्थ गाहा- 'कोसंविजण्णदत्तो' गाहा (१०८-१११) कोसंबी णयरी, जण्णदचो धिज्जातिHIतो, तस्स दो पुत्ता-सोमदचो सोमदेवो य, ते दोषि निम्विनकामभोगा पब्वइया, सोमभूतिस्स अणगारस्स अंतीए, बहुसुता Mबहुआगमा य जाता, ते अन्नया सन्नातयपल्लिमागता, ते य तेसि मातापितरो उज्जणि गतिल्लिया, तर्हि पबसिए हिज्जा| इगिीणओ वियर्ड आवियंति, ताहे तेसि पियर्ड अण्णदव्वेण मेलेऊण दिन, केई भणंति- वियर्ड चेव अयाणतीए दिलं, तेहि विय तं विसेसं अयाणमाणेहिं पीयं, पच्छा वियत्ता जाया, ते चितंति-अम्हहिं अजुत्तं कतं.पमाओ एस, वरं भत्तं पच्चक्खायंमा ति ते एगाए णदीए तीरे कट्ठाण उरि पाओवगया, तत्थ अकाले बरिसं पडियं, पूरो य आगतो, हरिता चुज्झमाणा य उदएण 31 ल समुदं णीया, तेहिं सम्म अहियासियं, अहाउयं पालियं, सेज्जापरीसहो अहियासिओ समविसमाहिं सेज्जाहिं, एवं सज्जापरी-| । ७१|| दीप अनुक्रम [७१-७२] -13A%ERE % [82] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [...] / गाथा ||७२-७३/७३-७४||ी नियुक्ति: [११०/११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक आक्रोश परीषदा गाथा ||७२७३|| श्रीउत्तराका सहो गतो। इदाणिं अकोसपरीसहो 'अकोसेज्ज परो भिक्खू सिलोगो (७२सू०१११) आक्रुस्यते यतस्स आक्रोश:-10 चूणा अनिष्टाभिधानं, परे णामाधमो बहिरात्मानं व्यवस्थाप्य भिक्षणशीलो भिक्षुः एतेसिं अकोसंताणं पडिसंजले, प्रति संजलतीति | ध्ययने र ARTHIप्रति संजलेति,समस्तं वा जलति संजलति, इंधणे वा अग्गी, संजलियलक्खणं तु पडिअकोसंति आहणंति चा, जो एवं पडिसज | लति सो सरिसो होइ बालाणं, जो पटिअकोसेति आहणति वा, अत्रोदाहरण- देवता उवसंता, सा अभिक्षणं वंदिता एति, ॥७॥दा बदद य-ममं कज्जमाणेज्जासि, सो एएण धिज्जातीएण सह असंखडं लग्गो, सो तेण बलवंतेण खामसरीरो पाडितो तालिओ य, | | रत्ति देवता तं वंदिया आगता, चंदति, खमगो तुसिणीतो अच्छति, सा भणइ-कोइ मम अवराधो ?, सो भणति- तुमे ण किं तस्स बिज्जातियस्स कतं ?, सा भणति-अहं तत्थ विसेसं चेव ण याणामि-को धिज्जाइओ खमगो वत्ति, दोऽवि तुल्ला तुझे, लासम्म पडिचायणत्ति पडिवन, इत्यतः सरिसो होइ बालाणं, तत्थ ण पडिसंजले, यतवं 'सोच्चाणं फरुसा भासा' सिलोगो भा७३ सू०११२) फरुसा निःस्नेहा अनुपचारा, श्रमणको निल्लज्जा इत्यादि, मणं दारयतीति दारुणा, ग्रसत इति प्राम:-इंद्रिय ग्रामः तस्य इंद्रिग्रामस्य कंटगा, जहा पंथे गच्छंताणं कंटगा विमाय, तहा सद्दादयोषि इंद्रियग्रामकंटया मोक्षिणां विनायेति, वाणेव कंटकान तुसिणीओ उवेहेज्जा, उपेक्षा नामैतेस्खनादरः, मनःकरण नाम तदुपयोगः, मनसोऽसमाधिरित्यर्थः, एत्थ अज्जुण उदाहरणं, मोग्गरेचि दारं । तत्थ गाहा- 'रायगिह मालगागे गाहा-(११०-११२) रायगिद्दे णगरे अज्जुणओ नाम मालागारो परिवसति, तस्स भज्जा खंदसिरी णामा, तस्स रायगिहस्स नगरस्स बहिया मोग्गरपाणी णाम अज्जुणकस्स कुलदेवतं, तस्स य मालागारस्स आरामपंथे चेव जक्खो, अण्णदा खंदसिरी भत्तं तस्स भत्तारस्सणेतुं गता, अग्गाई पुप्फाई GAHARASRAERSऊ दीप अनुक्रम [७३-७४] ॥७०॥ [83] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] | गाथा ||७२-७३/७३-७४||ी नियुक्ति: [११०/११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३) उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||७२७३|| श्रीउत्तरा० घरे घेत्तुं गच्छति, मोग्गरपाणी घरए य विभाए बूढा, सा ताए गोट्ठीए छहिं जणेहि दिट्ठा, चिंतीत-एसा अज्जुणगस्स भज्जा Pाश चूर्णी पडिख्या गिण्हा मो . तेहिं सावि गहिया, छवि जणा तस्स जक्खस्स पुरतो भोगे झुंजंति, सो हि मालागारो निच्चकालमेव परीपहा २ परपहा- अम्गेहिं बरेहिं पुप्फेहि जक्खं अच्चीत, अच्चिउकामो सो ततो आगच्छति, ताए ते भणिता-एसो मालागारो आगच्छति, तुम्भे ध्ययने मए किं विसज्जेह, तेहि णात-एताए पियं,तेहिं भणियं एतं मालागारं बंधामो, तहिं सो बंदो अवउडएण, जक्खस्स पुरतो ठवे।। ७१॥ ऊग पुरतो चेव से भारियं भुजंति, सावि तस्स भत्तारस मोहुप्पाइयाई इस्थिसहाई करेति, सो मालागारो चिंतेति-एवं अहं Mजक्खं निरुचकालमेव अग्गेहिं बरेहिं उतुगेहिं पुपफेहिं अच्चमि तहावि अहं एतस्स पुरतो चेव एवं कीरामि, जति एत्थ कोइ जिक्खो होतो तो अहंण कीरितो एवं, सुब्व एतं कट्टु, णस्थि कोई मोग्गरपाणी । ताहे सो जक्खो अणुकंपतो मालागारस्स सरीरमणुपविट्ठो, तडपडस्स बंधाण छित्तूण लोहमयं पलसहस्सनिष्फन मोग्गरं गहाय अण्णाइट्ठो समाणो तत्थ छप्पित्थिसत्तमे पुरिसे पातेति, एवं दिणे दिणे इस्थिसचमे छ पुरिसे घातेमाणो विहरति, जणवतोवि रायगिहाओ णगराओ ताव ण णिग्ग-II बच्छति जाव न सत्त पातिता । तेणं कालेण तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरति जाव सुदंसणो सेट्टी बंदओ णीति,II लोअज्जुणएण दिट्ठो, सागारपडिम ठितो, ण तरति अतिकमेडं, परिपेरतेहिं भमेत्ता परिसंतो अजुणओ, सुदसणं अणिमिसाए दिट्ठीए पलोएति, जक्खो य भोग्गरं गहाय पडिगतो, पडिओ अज्जुणगो, उडितो य ते पुच्छति-कहिं गच्छासि , भणति- IM७१॥ HI सामिचंदओ, धर्म सोच्चा पञ्चइतो, रायगिहे य भिक्खं हिंडतो सयणमारगोत्ति कोगेण अक्कुसति णाणापगारेहि, सो सम्मं सहति खमति, सम्म सहतस्स केवलनाणं उप्पन्नं, एवं अक्कोसपरीसहो गतो। इदाणिं वह परीसहो-'हतोण दीप अनुक्रम [७३-७४] [84] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७४-७५/७५-७६|| नियुक्ति: [९११-११३/१११-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||७४७५|| श्रीउत्तरान संजले भिक्खू सिलोगो ( ७४ सू०११४) हन्यते स्म हतः, संजलनं नाम रोपोगमो मानोदयो वा, संजलितलक्षणं " के वध चूर्णों पति रोपादग्निः संधुक्षितवञ्च दीप्यतेऽनेन । तं प्रत्याक्रोशत्याहंति च मन्येत येन स मतः॥१॥"मणंपि न पदोसए, किमु | परीषहा २ परीपहा प्रत्याहणण?, अथवा मनःप्रदोषा एव कायेन प्रत्युद्गच्छत्याक्रोशति वा, स्यात्-किमालंबनं कृत्वा न पडिसंज्वलेदिति ?, उच्यते, ध्ययने । 'तितिक्वं परमं णच्चा' तितिक्खणं सहणमित्यर्थः,परं मानं परमं, नातः परं निर्जराद्वारमस्ति, भिक्खुधम्म विचितए, इमा-12 ॥७२॥ | तो य आलंबणातो सहियवं 'समण संजयं दहूंछु' सिलोगो (७५ सू०११४) समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति सद समणो, सम्म जतो संजतो-हस्तपादातिसंजतो, को णाम दुज्जणो से दोषोपहतात्मानं हन्यात जाहम्ममाणोवि, स एव हत्थ|पायाइसंजओ, ण पच्छा सूरयतीति, दुज्जणा हि पच्छा सूरणभयादेव ण परं वावाययंति, उक्तं हि- " अविनयमनसो हि। दुर्जनः, क्षमिणि जनेऽप्यधिक हि बर्चते । जनमिह तु समेत्यकर्कशः, परिशुद्धेऽरमनि न प्रवर्तते ॥ १॥ कोऽपीति कधि- | द्वालः, कत्थवित्ति मामे नगरे वा उवस्सए वा, तत्थालंपणं ' अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाण बालसुलभाणं । लामं ममति धीरो | जहुत्तराणं अभावमि ॥१॥ अकोसति कोति विद्यते एवं बालेसु, अयं तु लाभो-जे मे ण तालीत, तालेति जे मे ण मारेति, मारेति जं मे धम्मातो ण भंसद, नित्यत्वात् अमृतत्वाच न शक्नोति जी नाशयितु, एवं 'णस्थि जीवस्स णासे' ति णाऊण Vण ता पेहे असाधुवंति, साधू हि सति सत्तीए न प्रत्युद्गमनायोपीतष्ठीत, असत्तो पुण जो न मणसा संकिलिस्सति, अथवा ॥७२॥ ठाण य पेहे असाधुत्वं' असाधुभावो असाधुता, पठ्यते च 'णस्थि जीवस्स णासोत्ति एवं पीहेज्ज संजए'पीहेज्ज-चिंतेज्जा,एत्थ ४) उदाहरणं वणेत्ति दारं, तत्थ गाहा-'सावत्थी जियसत्तु' गाहा 'मुणिसुब्धयंतेवासी 'गाहा 'पंच सया जतण गाहा % % % दीप अनुक्रम [७५-७६] [85] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] | गाथा ||७४-७५/७५-७६|| नियुक्ति: [१११-११३/१११-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक यांचा परीषहः [१] गाथा ||७४ ७५|| श्रीउत्तरा (१११ । ११३-११५) सावत्थीनयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, तीसे पुत्तो खंदओ नाम कुमारो, तस्स भगिणी चूणौँ | पुरंदरजसा, कुंभकारे णगरे दंडी णाम राया, तस्स दिवा, तस्स य दंडगिस्स रणो पालगो नाम पुरोहितो, अण्णदा साव२ परीपहा- स्थांए मणिसम्बयसामी तिथंकरो समोसरितो, परिसा निग्गता, खंदओऽवि णिग्गतो, धर्म सुच्चा सावगो जाती, अन्नया | 11 सो पालकमरुओ यत्ताए आगतो सावधि नगरि, अत्याणिमज्झे साधूण अवण वयमाणो खदएण णिप्पिडपसिणवा॥७३॥ गरणो कतो पदोसमावण्णो, तप्पभिई चेव खंदगस्स छिद्दाणि चारगपुरि सेहिं मग्गावेतो विहरति, जाव खंदओ पंचजणसएहिं कुमारोलग्गएहिं सद्धिं मुणिमुब्वयसामिसगासे पन्यतितो, बहुस्सुतो जातो, तहेव सो पंच सताणि सीसत्ताए अणुण्णाताणि, अण्णया खंदओ सामि पुच्छति-चच्चामि भगिणिसयासं, सामिणा मणियं-उवसग्गो मारणंतिओ, भणति-आराहगा विराहगा वा, लासामिणा भणियं-सम्चे आराधगा तुम मोतुं, सो भणति-लट्ठ जति एतिया आराधगा, गतो कभकारकर्ड, महएण जहिं उज्जाणे ठितो तहिं आयुहाणि मृणूमिताणि, राया बुग्गाहितो, जहा कुमारो परीसहपराइतो एतेण उवातेण तुमं मारेला रज गिहिहिति, माजइ विपच्चइओ उज्जाणं पलोएहि, आयुधाणि ओलइवाणि दिवाणि, ते बंधिऊण तस्स चे पुरोहितस्स समपिता, तेणं सव्वे 13 पुरिसजतेण पीलिता, तेहि सम्म अहियासियं, तेसिं केवलनाणमुप्पण्णं, सिद्धा य, खंदोऽवि पासए धरिओ लोहितचिरिकाहिं भरिज्जंतो सव्वपच्छा पीलिओ,णिदाणं काऊण अग्गिकुमारेहिं उववन्नो जीप से रजोहरणं रुधिरलित्तं पुरिसहत्यउत्तिकाउं गिद्धेहिं(गहियं जापुरंदरजसाए पुरतो पाडितं, सावि तदिवस अधिति करेति, जहा-साधण दीसंति.तं पणाए दिई, पच्चभिन्नातो कंबलओ, णिसि-13 ज्जाओ तीए चेव दिनाओ, तीए नायं, जहा ते मारिया, ताए खिसितो राया-पाव! विणडोसि, ताए चिंतिय- पधज्जामि, देवेहि दीप अनुक्रम [७५-७६] ॥७३॥ HENNA [86] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७४-७५/७५-७६|| नियुक्ति: [९११-११३/१११-११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||७४ ७५|| श्रीउत्तरा मुणिसुब्वयसामीसगास गीता, तेण देवेण णगरं दई, सजणवा,अज्जवि डंडगारणं मण्णति,अरण्णास्स य वणक्खा भवति, एत्थ यांचा चूर्णी शतेहिं साधूहि वधपरीसहो अहियासिओ, एवं सम्म अहियासितवं,ण जहा खदएण णाधियासिय,वपरीसहो गतो।इदाणि जायणा-18| परीषहः II परीसहो- 'दुक्करं खलु भो निचं'सिलोगो(७६सू.११६)दुकरक्खिं कज्जतित्ति दुकर,खलु विसेसणे,किं विससेति',दुक्खं हि णिरुपकरिणा [d. ध्ययन सता प्रतिदिवसं हि पिंडार्थे परः प्रणयितुं, भो इत्यामंत्रणे, णिच्चं नियतं कालं, आहारायत्तत्वात् प्राणीना, यावज्जीवमित्यर्थः, नास्य | अगारं विद्यते अनगारः, भिक्खणसीलो भिक्खु, अण्णेवि अणगाराः संति मृगचरोइंडिगाद्याः तद्व्युदासार्थ भिक्षुग्रहणं, तत्रापि च ये || समिक्षवः शाक्कादय:ति)अफासुगाहारत्वात् उदकादिस्वयंग्रहात् द्रव्यभिक्षवः,भावभिक्षुस्तु उद्गमउप्पायणेसणासुद्धं मिक्षणशीलत्वा भिक्षुः। Pा अतस्तस्य भिक्षो। सव्वं से जाइयं होइ'सव्वति-आहारोपकरणसेज्जादि अथवा अस्य बरीरोपकरणत्वात् देतशोधनायपि, अदन| कल्पनीयं, न प्रतिषेधे, अपरिग्रहस्यापि अदत्तादानविरतेच, नास्ति किंचिदयाचितं ।। 'गोयरग्गपविठ्ठस्स' सिलोगो (७७-15 . ११६) गोरिव चरण गोयरो, जह सो वच्छतो सद्दादिविसयसंपउत्ताएवित्थीए अमुच्छिओ, एवं साधूवि गोयरस्स अग्गं का गोयरग्गं, अग्गं पहाणं, जतो एसणाजु, ण जहा चरगादीणं परिक्खे तोसलिणं, आगतो गोयरपविद्स्स पाणी णो सुप्पसारए 131 शपातेति पिपति वा तेणेति पाणी, णो सुप्पसारए जहा मम देहित्ति, अवि य-'धणवइसमोऽपि दो अक्खराई लज्ज भयं च मोत्तूणं ।। देहित्ति जाव ण भणति पडद मुहे नो परिभवस्स ।। १।। स एवं तेण जायणापरीसहेण तज्जिओ 'सेओ आगारवासेति यति ॥७४॥ तमिति श्रेयः, सेयो आगारवासो, यत्र हि अयाचितमेव उदकादि, यत्र वा वेदादिकर्मभिः स्वयमुपायं मृतवान्धवैश्च पूर्वक मुपनीत साधुजनदीनानाथकृतसंविभागैर्भुज्यते, एवं चिंतए भिक्खू न, एत्थ रामेण उदाहरणं, तत्थ गाहा- 'जायणपरीसई' गाहा दीप अनुक्रम [७५-७६] CHECEMES [87] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||७६ ७९|| दीप अनुक्रम [७७-८०] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः मूलं [...] / गाथा ||७६-७९/७७-८०|| निर्युक्ति: [ ११४/११४] ॥ ७५ ॥ (११३।। - ११७) सो सिद्धत्थेण देवेण बोधितो तदा कण्ड्यासुदेवस्त सरीरगं सकारेऊणं कयसामाइओ लिंगं पडिवज्जिउं तुंगीसिहरे तवं तप्पमाणो, माणेण कहं भिच्चाण भिक्खट्टाए अल्लिस्सन्ति तेण कट्टाराईण भिक्खं गिन्हछ, न गामं नयरं वा अडियइ, तेण माहियासिओ जायणापरीस हो, अने भर्गति-बलदेवस्त भिक्खं हिंडतस्स बहुजणो रूपेण उम्मत्तसमो, वा ण किंचि अण्णं जाणति, तच्चिताए अच्छति, तेण सो ण हिंडति, एस जायणापरीसहो । इयाणि अलाभपरिसहो 'परसु घासमेसेज्ज' सिलोगो, ४ (७८.११७) परे णाम असंयता पापकर्माणो, प्रस्यत इति प्रासः आहारोवकरणं च भुज्जत इति भोयणं, परिणिट्ठियं-फासुगीकृतं तं व अप्पणी अट्ठाए, तम्मि सुलद्धे पिण्डे अलद्धे वा अनुगतः तापः अनुतापः अथवा अंतः तप्तं पश्चाद् घटिस्वेति तप्यति अहो मया न लब्ध| मित्यनुतापः स्याद् बुद्धि:- अलब्भे ताव तप्यते, लब्धे कथं तप्यते?, उच्यते, अल्पे वा लम्बे, संजत एव, संजतेन निरुपकारिणा को नाम दद्यात्, तदालंबनं तु 'अज्जेवाहं ण लब्भामि' सिलोगो. (७९.११७) अस्मिन्नहनि अद्यैव किं १, मया न लब्धं, यद्यपि तथावि | लाभः श्वो भविष्यति, परस्वके सिया, अथवा किमभिप्रेतं, गुरो ! यदि मयोद्धाटं न लब्धं स्थाप्यो निर्जरालाभस्तु मया लब्ध एव असणादि परिहरता, 'जो एवं पडिसंविक्खे'य एवं प्रति संप्रतिष्टति रिपोरिवोदीर्ष्णस्य तमलाभकस्स परीसहो तं न तज्जति, | यस्तु दैन्यं गत्वा परिदेवति स तेनालाभकपरीस देणाभिभूयते, लोइयमुदाहरणं-वसुदेवसच्चगदारुगा आसावहिगा अडवीए | निग्गोहपादवस्त्र अधेरर्त्ति वासो गता, जामग्गहणं, दारुगस्स पढमो जामो, कोधो पिसायरूवं काऊण आगतो, दारूगं मणतिआहारपत्थी इहमागतो एते पासुचे भक्खयामि, जुद्धं वा देहि, दारुगेण भणितं चाढं, तेण सह संपलग्गो, दारुगो य तं पिसायं जहा ण सकेति णिद्दणिउं तहां वहा रूसद्द, जहा जहा रूस्सइ तहा तहा सो कोहो वढति, एवं सो दारुगो किच्छपाणो तं जामं णि श्रीउत्तरा चूण २ परीपहा ध्ययने [88] अलाभपरीपहः ।। ७५ ।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [...] / गाथा ||७६-७९/७७-८०|| नियुक्ति: [११४/११४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक रोग पर्रापहः [१] गाथा ||७६७९|| श्रीउत्तरा०वाहति, पच्छा सच्चगं उट्ठवेति, सच्चगोवि तहेव तेण पिसारण किच्छप्पाणो कतो, ततीए जामे बलदेवं उद्यवेति,(चउत्थे वासुदेवं | चूणी उट्ठवेति) वासुदेवो (बलदेवो वासु) देवोऽवि तेण पिसाएण तहेव भण्णति, वासुदेवो भणति-ममं अणिज्जितुं कह सहाए साहिसि', २ परीषहा जुद्धं लग्गो, जहा जहा जुज्झते पिसाते तहा तहा बासुदेवो आह-अतिवतसंपनो अयं मल्लो इति तुस्सते. तहा तहा पिसाओ परीहिध्ययने र यति,सो तेण एवं खतितो जेण पितु उवाट्टयाए छूढो, पमाते पस्सते तिमिवि ते भिनजाणुकोप्परे, केणंति पुट्ठा भणंति-पिसाएण, वासु-र ॥७६ ॥ देवो भणति-से एस कोवि पिसायरूवधारी मया पसंतयाए जितो, उवडियाओणीणेऊण दरिसितो, एस अलाभपरीस्सहो गतो, जेण जेतब्बो एत्थ सुयगमदाहरणं पुरेति, पुराणिवद्धस्स तत्थ गाहापच्छदं 'किसिपारासरदंदो अलाभए होइ आहरणं सा(११४-११८) एगमि गामे पारासरो णाम, ताम्म य अनेवि पारासरा अस्थि, सो पुण किसो तेण किसीपारासरो से णाम, अहवा। किसीए कुसलो तेण किसीपारासरो, सो तंमि गामे आगत्तियं राउलियं चारि वाहावेति, ते य गोणादी दिवसं छातेल्लया भत्तवेलं पडिच्छति, पच्छा ते भत्तेवि आणीते मोएउकामे मणति-एक्के हलयं देह तो पच्छा भुंजहा, तेहिंचि छहिं हलसएहिं वाहिता, वेण तहिं बहुयं अंतराइयं बद्धं, मरिऊणं सो संसारं भमिऊणं अण्णेण सुकयविससेण वासुदेवस्स पुत्तो जातो ढंढो नाम, अरहतो ५ अरिद्रनोमसामीसगासे पव्वइतो, तं अंतराइयं कर्म उदिन, फीताए बारवतीए हिंडतो न लन्भइ कहिंचि, जदावि लब्भति तयावि जं वा तं वा, तेण सामी पुच्छितो, तेहिं कहितं-जहावतं, पच्छा तेण अभिग्गहो गहितो, जहा मे परस्स लाभो न गिहियव्यो, अण्णया वासदेवो पुच्छति तित्थगरं-एतासि अट्ठारसह समणसाहस्सीणं को दुक्करकारओ?, तेहिं भणितं-जहा ढंढो अणगारो, | अलाभकपरीसहो कहितो, सो कहिंी, सामी भणति-णगरिं पविसंतो पिच्छिहिसि, दिट्ठो पविसतेण, हस्थिखंघाउ उत्तरिऊण वंदितो, RSHIPPEADERRIOR दीप अनुक्रम [७७-८०] SCREENERS [89] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||७६-७९/७७-८०||ी नियुक्ति: [११४/११४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||७६७९|| श्रीउत्तरासो एक्केण इन्भेण दिहो, जहा महप्पा एसु जो वासुदेषेण वंदितो, सो य तं चेव घरं पविट्ठो, तेण परमाए सड्ढाए मोयगेहि रोग चूर्णों 18 पडिलाभितो, भमिउण सामिस्स दावेति, पुच्छइ य-मम अलाभपरीसहो खीणो?,सामिणा भण्णति-ण खीणो, एस वासुदेवस्स लाभो,8 परीषहः २ परीपहा तेण परलाभं न उवजीवामित्तिकाउं अमुच्छितस्स परिद्वातस्स केवलनाणं उप्पन, अधियासेतव्वो भलाभपरीसहो जहा ढंढेण है। ध्ययने अणगारेण ॥ इदाणिं रोगपरीसहो-'णच्चा उप्पतितं दुक्खं' सिलोगो (८० सू० ११९) उत्पत्ति रोग दुक्खं वा, | ॥७॥ स तु रोगो वातिकः पैत्तिकः श्लप्मजश्चेति, वेद्यत इति वेदनाः ताभिर्वेदनाभिः आतीकृतः वेदनादुट्टितो 'अदीणो न दीयते. स्म, तिष्ठति काचित्, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा, स्पृष्टवान् पुट्ठो, 'तत्थे ति तत्व वेदनायो (अध्यासीत) अथवा अदीनता थाप-17 यति प्रज्ञा, अथवा प्रज्ञालक्षणं ज्ञानमागमस्य हि फलं ।। कथं अधियासितं भवति ? 'तेइच्छिन्नामिणदिज्जा' सिलोगो (८१ म. १२.) चिकित्सितं चिकित्सा रोगप्रतीकार इत्यर्थः, अभिमुखो नन्दते आभिनंदते, सम्यक तिष्ठते संचिकूखे, ण कूजति कक्कराय-14 ति वा, आत्मानं गवेषयतीत्यात्मगवेषका चरित्रात्मानं, चारित्रात्मनि गवेष्यमाणे द्रव्यात्मापि गविष्ट एव, न परित्यक्त इत्यर्थः, | स्यात्कथं, एवं खु तस्स सामण्णं एतदिति प्रत्यक्षः, श्रमणभावः श्रामण्यं, यदुत्पन्नेषु तत्प्रतिकारायोद्यम न कुरुते, तंत्रमंत्रयोग-18 | लेपादिभिः स्वयं करणं, न स्नेहविरेचनादिना स्वयं करोति, कारापणं तु वैद्यादिभिः, शक्यं हि निरोगेण श्रामण्यं कत्तुं, यस्तु | #रोगवानपि न सावधक्रियामारभते तं प्रतीत्योच्यते- एवं खु तस्स सामन्नं, जहा केण ण कतं ? केण वा ण कारावियं , भिक्खाए ॥७७॥ 18 ओसह दिवं, जहा कालासवेसियपुत्तस्स, तत्थ गाहा-महुराए कालवेसिय' (२१५-१२०) गामे महुराये जियसत्तुरण्णो | & काला णाम बेसिया, पडिरूवत्तिकाउं ओरोहे छूढा, तीसे पुत्तो कालाए कालवेसिउत्ति कुमारो, सो तहारूवाण थेराण अंतिए | दीप अनुक्रम [७७-८० लाल [90] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८०-८१/८१-८२||ी नियुक्ति: [११५/११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] तुणस्पर्श परापहा गाथा ||८०८१|| श्रीउत्तराधम सोऊण पव्वइतो, एगविहारपडिमं पडिवनो, गतो मुग्गसेलपुरं, तस्स सद्धि भगिणी हतसत्तुस्स रण्णो महिला, तस्स चूों ला साधस्स अंसिया उवलंबंति, सो य तिगिच्छं ण कारवेति सावज्जेति, पच्छा तीसे भगिणीए वेज्जो पुच्छितो, तेण केचिदन्यसंजोगा २ परीपहाध्ययने MEसंजोएऊण सा भणिया-आहारेण से सयं देज्जाहि, तो भिक्खाए समं दिण्णं, ताहे ताओ अंसियाओ पडिबद्धा गंधण चेव, पच्छा सो चितेइ-मम णिमिचेण राया भगिणी विज्जा य आरंभति, किं मम जीविएण!, भत्तं पच्चक्खामि मुग्गसलसिहरे, तेण ॥७८|| कुमारचे रतिं सियालाण सई सोउं पुच्छिता ओलग्गगा-के एते जेसि सहो सुव्वति, ते भणंति-एते सियाला अडविवासिणो, तेण भण्णति-एतं मम पंधिऊण आणेह, तेहिं सियालो बंधिऊण आणीतो, सो त हणति, सो हम्मतो खिक्खियति, तत्थ सो रति का विदह, सो सियालो साहम्मतो मओ, अकामनिज्जराए वाणमंतरो जातो, तो वाणमंतरेण सो भत्तपच्चक्खाओ दिट्टो, ओहिणा |आमोतित्ता इमो सोत्ति आगंतूण सपेल्लियं सियालि विउविऊण खिखियंतो खाति, राया तं साधु भत्तपच्चक्खाययतिकाउं रखावेति पुरिसेहि, मा कोइ से उवसम्गं करेस्सइत्ति, जाव ते पुरिसा तं ठाणं एति ताव ताए सियालीए खइओ, जाहे ते पुरिसा ओस्सरेन्ता होंति ताहे सई करेंती खाइ, जाहे आगता ताहे न दीसह, सोवि उपसग्गं सम्मं सहति समति, एवं अहियासेयब्बो, लरोगपरीसहो सोलसमो समत्तो ॥ इदार्णि तणफासपरीहो-तृणानि स्पृशेतीत्यतो तणफासपरीसहो-'अचेलगस्स' सिलोगो (८२ स. १२१) नास्य पाचेलमस्तीति अचेलः अतस्तस्य अचेलगस्स, लूहस्स' ति रूक्षो बाह्याभ्यन्तरतः, संजतस्य, तपोन्वितः तवस्सी,तवस्सिग्महणं तपोयुक्तस्य हि रूक्षा तनुर्भवति, तस्य चास्तरणविवर्जितस्य आर्द्रभूम्यादिषु 'तणेसु सुयमाणस्स' तरतीति तृणं, तनु कुशादि, नतु | GCRE CROR दीप अनुक्रम [८१-८२] ॥ ७८॥ - [91] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८२-८३/८३-८४||ी नियुक्ति: [११६/११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत जल्ल सूत्रांक परीपहा [१] गाथा ||८२८३|| श्रीउत्तरा०पलालादि, मुसिरैः,तेविषमसधिमिः तीक्खशिखैश्च होज्जा गातविराहणा, गच्छति गत इति वा गात्रं आविराधितं भवति,विविधराई | चूर्णी कृतं विराइत-पंडरास्तस्य राजयो रूक्षस्योपतिष्ठति, फालिज्जति य दम्भेहि, स्निग्धगात्रस्य हि पंडरा रेखा न भवंति, हिणिल्ल-४ समाणेहि य ण तहा लछिनति, स ताओ लीहाओ ण संलूसेति समहरखेति, ण वा भीतो तेसिं तणेसु ण सुविज्जा || किंच- तेसु ध्ययने तणक्खएसु गीम्हे सरदि वा 'आतबस्स णिवातेणं' सिलोगो, (सू०८३-१२१) आताप्यते येन स आतपः, निपतनं ॥७९॥ निपातः,निपातो नाम स्वेद एवं विशेषितः,तेन च निपातेन तृणक्षतेषु पुंडरेसु तिउला होइ वेदणा' तुदतीति तिउला वेदना, टू |यं च सह [मान]माणे सोढो तणफासपरीसहो भवति, नतु भयमानस्य, एवंणच्या ण सेवति तंतुजं एवं-इमं उपदेसं अथवा एवमपि ज्ञात्वा वेदणोदयामिमं तथावि अक्षरणहाण सेवेज्जा तंतुज्ज, तनोत्यसौ तन्यते वा संतु, तंतुभ्यो जातं तन्तुज, अथवा तन्यत इति | तंत्र-वेमविलेखनछनिकादि तत्र जातं तंत्रज, तनुवखं कंबलो वा, तंण सेर्वति, जिणकप्पिया जे अचेला, 'तणतज्जिता' तमाः । विपमेब दार्जिता-भत्सिता, सा यथा केन सहिता, एत्थ संथारोत्ति दारं, तत्थ गाथा 'सावस्थाएँ कुमारों' गाथा (११६-१२२) 3 सावत्थीए नयरीए जियसत्तुस्स रनो भद्दो नाम कुमारो, सो पब्वइतो, एगल्लविहारी पडिमं ठितो, सो विहरतो वेरज्जे चारिउत्ति-15 काउं गहितो, सो बंधावेऊण खारेण तच्छितो, सो दम्भेहिं वेडिऊण मको, सो दम्भेहिं लोहितसीमलितेहि दक्खचिज्जंतो सम्म #सहति, एवं सहितन्वं, 'तणफासपरीसहोगतो॥इदाणिं जल्लपरीसहो-'किलिन्नगाए मेधावी' सिलोगो (८४ सू० १२२) | अस्त्रातस्य सुक्खेषु तनेसु स्वपतः खेदसंबंधात जल्लेन क्लिन्नः कायो भवति, पठ्यते च- 'किलिट्ठगाते' क्लिष्टो नाम रजोमलपरितापितः स एव किलिङगाए, मेहया धावतीति मेधावी, पतंत्यस्मिन्निति पंकः, पंको नाम स्वेदाबद्धो मलः रजस्तु सर्वशुष्कः, दीप अनुक्रम [८३-८४] ॥७९॥ * [92] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८४-८५/८५-८६||ी नियुक्ति: [११७/११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||८४ ८५|| श्रीउत्तरा०15] कमढीभूतो जल्लो शुष्कमावस्तु रजा, पंकेन वा रएण वा, रज्यत इति रजः, यदा तु पंको भवति तदा न रज इत्यतो विपाके | सत्कार चूणा M"पिंसु वा परितापेणं' प्रिंसु वा नाम ग्रीष्मे, समैततो तापः परितापः, सज्जत इति सादा, अमानोनाः प्रतिषेधे, परिदेवनं नाम || पुरस्कार: २ परीपहा TA सातमाह्वयति, जहा जलाश्रयाः होन्ति नगो वेति, तहा चन्दनोसीरारक्षीपवायचः, एवं परिदेवति, न परिदेवमानः अपरिदेवमानः।। ध्ययने स एवं अपरिदेवमानः सातं 'बेदेज्ज निज्जराही' सिलोगो (८५ सू०१२३) वेदेज इति अनुगतार्थे, सम्यग् वेदेज्जा सि, ॥८॥ालानो तस्स पडिकारं करेज्जा सि, किमर्थ वेदेज्ज-निज्जरं पेहीति, जल्लं धारयतो हि विउला निज्जरा भवति, एवं निज्जरांपेहमाणो, पेहति अभिलपतीत्यर्थः, 'आयरियं धम्माणुत्तरं धम्मं ज्ञानं पश्यति चेति वाक्यशेषः, अथवा 'विदज्ञाने' वेदेज्जा निज्जरापेही, शुद्धनयान् प्रतीत्योच्यते-वेदेज्ज निज्जरापही, वेदितो जाणतो इत्यर्थः, चरेति धर्म, अथवा जल्लधारणमेव धर्म, तंतु 'जाव शरीरभेदाए, यावत्परिमाणावधारणयोः, भिद्यतीति भेदः, जायते लीयते वा जल्लं 'जल्लो कारण उबट्टे' उद्वत्तनमित्यर्थः, किमंगद पुण सिणाणादिः, पठ्यते च 'जल्लं कारण धारए ' एस दब्बमलो भावमलनिन्जरणत्थं धारिज्जति, न च शक्यते निर्मलं शरीरं । कर्तु, यदि बाह्यवदंतओ, एत्थ दारं 'मलधारणे' ति, तत्थ गाहा 'चंपाए' गाहा (११७-१२३) चंपाए सुणंदो णाम वाणियओ,18 सावओ, आवणाओ चेव जो जं मग्गति साहू तस्स तं देइ ओसहमेसज्जं सत्तुगादीयं च, सव्वमंडिओ सो, तस्सऽण्णता गिम्हेसु | साहूणो जल्लपरिदिद्धंगता आवणं आगता, तेर्सि गंधो जल्लस्स ताण सव्वदब्बाण गंधे भिंदिउं उब्बरति, तेण सुगंधदव्वभाविएण ॥८ ॥ चितितं-सव्वं लट्ठ साहूर्ण, जति णाम जल्लं उपता तो सुंदरं होतं, एवं सो अणालोइयपडिकतो कालगती कोसंबीए नयरीए इन्भ-18|| कुले पुत्तत्ताए आयाओ, णिचित्रकामभागा धर्म सोऊण पव्वतितो, तस्स तं कम्मं उदिणं, दुब्भिगंधो जातो, जतो जतो RRESERECIRCRECE दीप अनुक्रम [८५-८६] [93] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||८६ ८७|| दीप अनुक्रम [८७-८८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) निर्युक्ति: [११८/११८] अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८६-८७/८७-८८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० ध्ययने ॥ ८१ ॥ गच्छति तओ तओ उड्डाहो, पच्छा सो साधुहिं मणिओ तुमं मा निग्गच्छसि, उड्डाहो, पडिस्सए अच्छाहि, रचि देवताए चूर्णौ ४ काउस्सग्गं करेति, पच्छा देवताए सुगंधी कतो, से जहानामए कोट्ठपुडाण वा०, पुणोऽवि उड्डाहो, पुणो देवताए आराधणं, साभा२ परीषहावियगंधी जातो, तेण णाहियासितो जलपरीसहो एवं णो णाधियासेतव्वं, जल्लपरीसहो गते । ॥ इदाणिं सकारपुर कार परीस हो, करणं कारः, शोभनकारः सकारः सकारमेव पुरस्करोति सकारपुरस्कारपरीसहो भवति, स त्वेवं सोढव्यः, स सत्कारः एवंविय' अभिवादण' गाहा (८६ सू० १२४ ) ' अभिवादणं ' अभिमुखं उड्डाणं ' सामी कुज्ज: ' ति राया कुज्जा एताणि, णिमंतणं वस्त्रपात्रलेझावसधिभ्यौराजाऽमात्यो वा मरुयाणं पासंडीणं वा अण्णं वा सकारं कुज्जा'जे ताई पडिसेवंतिय इति अणिदिट्ठस्स उसे 'ताई' ताणि अभिवादणादीणि प्रतिसेवंति- पडिसेविंति 'ण तेसिं पहिए मुणी' अहो इमे सुहिया राजादिभिः पूज्यंते वयं नेति कथमस्माकमप्येवंविधा पूजा स्यादिति, स तेर्सि अपीहमाणो 'अणुक्कसाथ ' गाहा ( ८७ सू० १२४ ) ' अणुकसायो ' अणुशब्दः स्तोकार्थः, अतो नेत्यनु, कपयंतीति कषायाः क्रोधाद्याः, न रुष्यत्यपूज्यमानः, न वा मानं करोति, मां लोकः पूर्व पूजितवान् इदानीं न पूजयतीति ' अमहेच्छ ' अल्पेच्छ इत्यर्थः, न पूजासत्कारमासंशयति, अज्ञातैषी, न ज्ञापयत्यहमेवंभूतः पूर्वमासीत्, न वा क्षपको | बहुश्रुतो वेति, आहारोपकरणादिषु अलोलुपः, न लोभ इत्यर्थः, भूयिष्ठत्वादाहारे लोप्यमस्य जतोर्भवतीतिकृत्वा व्यपदिश्यते 'सिएस णातिगिज्झेज्ज' रससहिताणि रसियाणि तेसु रसिएस गोभिगिज्ज्ञ, अहवा रसेसु णाणुगिज्झेज्जा, रसाई आर्द्रतादयः स्वस्थानपटवः यदा ये चानुकूलाः तेषु यथा पूर्व गृद्धवान् तथा न गृध्येत, ये च रसानुत्कृष्टा नाहारयति लभंति वा परं तत्र 'ण तेसिं पीहए मुणी ' पठ्यते चान्यथा' नाणुतप्पेज्ज पण्णत्रं ' वा, यथा मया दुष्टं कृतं इह लब्धिपापंडे सर्ववैरिणि वा प्रव्रजता, तत्रो [94] प्रज्ञा परीपहः ॥ ८१ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं २], मूलं [...] / गाथा ||८८-८९/८९-९०|| नियुक्ति: [११९/११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||८८ ध्ययने ८९|| श्रीउत्तरा०दाहरणं अंगविज्ज' ति 'महराए इंददत्तो' गाहा (११८--१२५) अरहंतपइड्डीवाए महुराए नयरीए इंददचेण पुरोहितेणं | प्रज्ञा चूणौँ परीपहा पासातगतेणं हेद्वेणं साधुस्स बच्चतस्स पाओ लंबितो सीसे कउत्तिकाउं, सो य सावएण सेविणा दिट्ठो, तस्स अमरिसो जातो, दिटुं २ परीपहा भो एतेण पावेण साधुस्स उवरि पादो कतोति, तेण पइण्णा कया-अवस्सं मए तस्स पादो छिदियब्बो, तस्स छिद्दाणि मग्गति, * | अन्नया अलभमाणो आयरियसगास गतूण चंदित्ता पडिकहेति, तेहि भणति--का पुच्छत्ति, अधियासितव्यो सकारपुरकारपरीसहो,15 ॥ ८२ ॥ तेण भणियं--मए पनिण्णा कतेल्लिया, आयरिएहि भण्णति--एयस्स पुरोहियस्स घरे किं वइ, तेण भण्णइ-एयस्स पुरोहितस्स र पासादो कतल्लओ, तं तस्स पवेसणे रणो भत्तं कीरति, तेहि भण्णाति-जाहे राया पविसति तं पासाद वाहे तुम रायं हत्थे गहेऊण अवसारेज्जासि, जहा पासातो पडति, ताहेऽहं पासातं विज्जाए पाडिस, तेण तहा कयं, सेट्ठिणा राया भणिओ--एतेण तुम्भे 8 मारिता आसि, रुद्रुण रण्णा पुरोहितो साबगरसेव अप्पितो, तेण तस्स इंदकीले पादो कओ, पच्छा छिन्न एव काउ लोहमआ5 काऊण सो छिन्नो, इतरो विसज्जितो, तेण णाधियासिओ सकारपुरकारपरीसहो। इदार्णि पण्णापरीसहो,प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, * प्रगता ज्ञा प्रज्ञा, प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि सति प्रज्ञाने तेण गवितो भवति तस्य प्रज्ञापरीषहः, प्रतिपक्षे ण प्रज्ञापरीपहो भवति, अविष्णाणमंतो हि ण अद्धिति करेंति यथाऽहमविज्ञातवानिति, शक्यं प्रज्ञानं, दुःखतरं पुनरज्ञानं, सो बुद्धिमिति विचिंतयति उच्यते | कथं ?- 'किं कळं अण्णाणं.' गाथा, तथा चोक्तं ' नैवंविधमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरंतमति४ दुर्जयम् ॥१॥ इति, पण्णाणं जह सहमाणस्स परीसहो भवति तथा अप्रज्ञानमपि सहितव्यं, ततो परीसहो भवति, तद्यथार्थमेवो च्यते से गूण मए पुन्धि' गाहा (८८ सू० १२६ ) से इति पूरणे आत्मनिर्देशे वा, णूणमनुमाये 'मये ' ति आत्मन्युपगमे, ACCCCCCCES दीप अनुक्रम [८९-९०] ॥८२॥ [95] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा llee ८९|| दीप अनुक्रम [८९-९० ] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||८८-८९/८९-९०|| निर्युक्ति: [११९/१२०] अध्ययनं [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णां २ परीपहा ध्ययने ॥ ८३ ॥ यथा कृतानि कर्माणि पूरयतीति पूर्व-पूर्वजन्मनि पूर्व, क्रियंत इति कर्माणि, फलतीति फलं, अज्ञानं फलतीति अण्णाणफला, अज्ञानं फलमेषां तदुदये सति येनाहं नाभिजानामि, अभिमुखं जानामि अभिजानामि 'पुट्ठो केणति कण्डुई' पृच्छयते स्म पृष्टः 'कण्डुयी' सुते अत्थे वा तत्रालंबनं-- एतानि हि प्रज्ञानवध्यानि मयैतानि प्रागुपात्तानि बध्धानीतिकृत्वा तद्भयात् पुनः प्रज्ञा बाधयति तं न करिष्ये, यानि पूर्व बद्धानि तानि ' अथ पच्छा उदेज्जति ' सिलोगो ( ८९ सू० १२६ ) अथेत्यव्ययं निपातः पूर्वकृतापेक्षः, किमपेक्षते १, वेदितव्यं उक्तं हि पावाणं खलु भो कडा कम्माणं पुब्बि दुञ्चिण्णाणं दुप्परकंताणं वेदयित्ता मोक्खो, णत्थि अवेदत्ता, तवसा वा जोसता न च सर्व बद्धं क्षयमवाप्नोति प्राप्तकालमुदीयते, यानि तु अवश्यं वेदनीयानि तानि 'अह पच्छा उदिज्जंति' अज्ञानफलानि तानि सम्यक् सहामीति वाक्यशेषः, यथैवायमेतेषां उदयः प्राप्तः एवं तत्क्षयोऽपि भविष्यतीति कृत्वा 'एवमस्सा सेति अप्पाणं' आश्वासनमाश्वासः आत्मनमात्मना, 'णच्चा कम्मविवागतं ' विविधः पाके विपाकः, तत्स्वभावो हि विपाकता तां, अवश्यं हि कर्म्म, चैतन्यवन्तमवश्यमन्येति इति वाक्यशेषः, अथवा विपाकता णाम विलक्षणंति, पाकानि हि कम्र्माणि यथा कृतानि उच्यंते इति, अत्रोदाहरणं 'सुत्ते ' ति, एत्थ गाहा-' उज्जेणी कालखमणो' गाथा ( ११९ - १२७ ) उज्जेणीए अज्जकालगा आयरिया बहुस्सुया, तेसिं सीसो न कोइ नाम इच्छइ पढिडं, तस्स सीसस्स सीसो बहुस्सुओ सागरखमणो नाम सुवनभूमीए गच्छेण विहरह, पच्छा आयरिया पलायितुं तत्थ गता सुवण्णभूमी, सोय सागरखमणो अणुयोगं कहयति, पण्णापरीसहं न सहति भणति-खेता ! गतं एवं तुम्भ सुयक्खंधं जावोकधिज्जतु, तेण भण्णति-गतंति, तो सुण, सो सुणावे पयत्तो, ते य सिज्जायरणिब्बंधे कहिते तस्सिसा सुवन्नभूमिं जतो वलिता, लोगो पुच्छति तं वृंदं गच्छंतं [96] प्रज्ञा परीषदः ॥ ८३ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||८८-८९/८९-९०|| नियुक्ति: [११९/१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक - [१] गाथा ||८८ 1 ८९|| श्रीउत्तरा०४ को एस आयरिओ गच्छति ?, तेण भण्णति-कालगायरिया, तंजणपरंपरेण फुसंत कोई सागरखमणस्स संपतं, जहा- कालगाय-| ज्ञान चूोल रिया आगच्छति, सागरखमणो भणति-खत ! सच्च मम पितामहो आगच्छति', तेण मण्णति-मयावि सुतं, आगया साधुणो, सो पोल परीपहा २परापहा अन्मुहितो, सो तेहिं साधूहि भण्णति-खमासमणा केई इहागता, पच्छा सो संकितो भणति-खतो एको परं आगतो, ण तु ध्ययने जाणामि खमासमणा, पच्छा सो खामेति, भणति-मिच्छामिदुकडं जे एत्थ मए आसादिया, पच्छा मणति-खमासमणा। केरिस | ॥८४॥ अहं वक्खाणेमि, खमासमणेण मण्णति लट्ठ, किंतु मा गर्व करेहि, को जाणति कस्स को आगमोत्ति, पच्छा धूलिणाएण चिक्खिलपिंडएण य आहरणं करेंति, ण तहा कायब्वं जहा सागरखमणेण कतं, ताण अज्जकालगाण समीवं सको आगंतु Bाणिगोयजीचे पुच्छति, जहा अज्जरक्खियाणं तथैव जाव सादिव्यकरणं च, पण्णापरीसही गतो॥ इदार्णणाणपरीसहो,सोषि जहा पण्णापरीसहो तहा उभयथा भवति, णाणपरीसहो अण्णाणपरीसहो य, तत्थ णाणपरीसह पगुच्च भण्णति-'णिरत्थयं मि विरतो' सिलोगो (९० स० १२८) रयत्ति रत्थइ वा अर्थो, नास्य अर्थो विद्यत इति निरर्थकामति, रतोऽसि लोगो (१) निरर्थके अर्थे, ४ाविरतः, विरतिः, पंचप्रकारा, तत्र तु गरीयसी मैथुनाद्विरतिर्येनापदिश्यते 'मेहणातो सुसंवुहों मुठ्ठ संबुडो, यतः संवृतत्वे ली सति किं भवति-'समक्खं' णाम सहसाक्षिभ्यां साक्षात् समक्षं तो साक्षात्, अभिमुखं जानामि, धियते स्म धर्मः, स्वभाव इत्यर्थः, का कल्याणधर्मः? का पापधर्म ? इति, काणि वा कल्लाणाणि वा कम्माणि काणि वा पापगाणि कम्माणि ?, किममिप्रेती-केवंविधा- ॥८४॥ नि कल्लाणफलनिवर्चकानि कर्माणि येनासौ कल्याणो जायते ये; पापक इत्यर्थः, ताणि वा (न), अर्थतश्च अर्थो विद्यत इति । निरर्थकं, मित्ति रतो 'तबोचहाण' सिलोगो (९१ सू० १२८) तप्पत इति तपः, उपधीयत इत्युपधान, तपोपधानानीत्यर्थः, दीप अनुक्रम [८९-९०] [97] Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९०-९१/९१-९२||ी नियुक्ति : [१२०/१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक गाथा ||९० श्रीउत्तरा०पडिमा नाम मासिकादिता, तपोपधानपूर्वकाः प्रतिमाः पडिवज्जतो, इतरथावि तपोपधानानि करोमि ग्रामनगराणि च अभ्युद्यत- प्रज्ञा शृणी विहारेण बिहरामि, तहावि 'एवंपि मे विहरतो' एवं अनेन अप्रतिबद्धविहारेण, छादयतीतिच्छद्मः,छादयतीत्यर्थः, नियतं वर्त्तते न || परीपहा २ परीपहा- निवर्तते, 'परितंतो' गाहा (१२०-१२९ ) अत्रोदाहरणं---गंगाकुले दोवि साहू पचया भातरो, तत्थेगो बहुस्सुतो एगो ध्ययने अप्पसुतो, तत्थ जो सो बहुस्सुओ सो सीसेहि सुत्तत्थणिमित्तं उपसंपन्नेहिं दिवसतो विरगो णत्थि, राचिपि पडिऊच्छण सिक्खादीहि ॥८५४ सोवितुं ण लहइ, जो सो अप्पसुओ सो सव्वं रति सुव्वइ, अण्णया सो आयरिओ निदापरिकूखेदितो चिंतेति--अहो अयं साहू पुण्णमंतओ जो सुथ्वइ, अम्हे मंदपुण्णा न सुविउपि लम्भति, एवं नाणपउत्तण माशावरणीज्ज कम्मं बद्धं, सो तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालमासे कालं किच्चा देवलोगे उववणो, ततोवि चुओ समाणो इहेव भरहवासे आभीरफुले दारओ: जातो, कमेण संवड़ितो, जोवणत्यो य विवाहितो, दारिका य से जाता अतिरूविणी, सा य महकन्नगा, अन्नया कयाइ ताणि दोवि ॥ पियापुताई अहि आभीरेहि समं सगडं घयस्स भरेऊण णगरं विकिपणाए पत्थिताणि, सा कय (भद्द) कबगा सारहित्तं सगडस्स। किरह, ततो तं गोवदारगा तीए स्वेण अक्खित्ता तीसे सगडस्स अब्भासयाई सगडाई खेडति, तं पलोएतापं ताई सयलाई सगडाई15 भगाई, तीए नाम कयं-असगडा, असगडाए पिता असगडपिता, तस्स तं चेव वेरगं जातं, तं दारियं परिणावेऊण सव्वं से घरसारं दाऊण थेराज समीचे पञ्चइतो, तेण तिनि उत्तरज्झयणाणि जाव अधीताणि, असंखते उद्दिढे तंणाणावरणं उदिणं, गता Hदोवि दिवसा अंबिलछट्टेण, न आलावगो ठाइ, आयरिएणवि भण्णति-उद्विहि, जा ते एवं अज्झयणं अणुण्णवेज्जति, सो भणति एयस्स केरिसो जोगो ?, आयरिया भणंति-जाव ण उद्वेति ताव आयंक्लिं, सो भणति--अलाहि मम अणुण्णाएणति, एवं तेण REAKISSES ९१|| दीप अनुक्रम [९०-९२] [98] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९०-९१/९१-९२|| नियुक्ति: [१२०-१२१/१२१-१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ध्ययने ||९० RE ९१|| श्रीउत्तगासा अदीणेण आयंबिलाहारण पारसहिं संबच्छरेहिं अधिज्जियं असंखयं. उवसंत, सेसं लहं चेव अधिज्जित, एवं पण्यापरीसहो | भानान चूर्णी अहियासेयब्बो जहा असगडपिउणा, तप्पडियक्खे इमं उदाहरणं, एगो लिभद्दो नाम आयरिओ पहुस्सुतो, तस्स एगो पुन्वमिती || २परीपहा स्थूलभद्रः " आसि सणातगोवि य, सो तस्स घरं गतो, महिलस्स पुच्छति--सो अमुगो कहिं गतो?, सा भणति-वाणिज्जेण, तेच घर पुचि लट्ठ आसि पच्छा सडितपडियं जातं, तस्स य पुव्वएहिं एगस्स खमस्स हेडा दव्यं णिहेल्लयं, तं सो आयरिओ नाणेन जाणति, | ॥८६॥ पच्छा तेण तओहुत्तो हत्थं काऊण भण्णति-'इमंच एरिसंतंच तारिसं' गाथा ( १२२-१३०) इमं च इत्तियं दव्वं, सो य ★ अण्णाणेण भमिति, सो य आगतो, महिलाए सिटुं, धूलभद्दो आगतो आसित्ति, सो भणइ-किं थूलभदेण भणियं, सा भणइ-ण किंचि,णवर खेमत्तं दायतो भणति--इमं च एरिसं तं च तारिसं, तेण पंडितेण णातं, जहा- अवस्सं एत्थ किंचि आत्थि, तेण खत, रणवरं णागापगाररयणाण भरिता कलसा अच्छंति, तेण णाणपरीसहो णाधियासिओ, एवं ण णाधियासितब्बं ॥ इदाणि दंसण-6 परीसहो, ऐहिकामुष्मिकं च तपोफलं अपश्यतः कस्सति दिदिवामोहो होज्ज, तत्रैहिकं धीराश्रवभरणादि पारलौकिकं देवेन्द्रादि, तत्सर्व मिथ्या, एवं दरिसणपरीसहो भवति, स तु अदर्शनपरीपह एवोच्यते, को दृष्टान्तः ?, यथा बध्यमानः साधुर्यदा न क्षुभ्यते तदाऽस्य वधपरीपहो भवति, एवमवश्यं तपोफलानि संति, यो हि दर्शनान्न मुद्यते तस्य दर्शनपरीषहो भवति, तत्रोवंदहिक ॥८६॥ मधिकृत्यापदिश्यते 'णस्थि गूणं परे लोए' सिलोगो ( ९२ सू०१३१) कथं, यस्मात्तपःफलं प्राप्य देवा इह नागच्छंति, नैव दृश्यते, इत्यतः परलोको नास्ति, कश्चित्तु जातिस्मरणादिभिः परलोकास्तित्वमभ्युपेत्य इदं न प्रतिपद्यते इड्डी वावि तवस्सिणों' न हि तपस्विनो देवलोकोपपत्तिरस्ति, न चैषां खेचऽपि सति प्रद्धिरस्ति, न तु परलोकस्याभाव एव धर्मफलस्य वा, यत्तु इह RECECE-%CRECRCHES दीप अनुक्रम [९०-९२] [99] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९०-९१/९१-९२|| नियुक्ति: [१२०-१२१/१२१-१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: दर्शन प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९० ९१|| श्रीउत्तरानागाछति परलोकादल्पर्द्धित्वात् परायत्तत्वाञ्चति, यद्येवंविषं परिज्ञानमेव न समस्ति तेषां, यथा वयममुक स्थानादागता इति, चूर्णी यतश्चैवं ततः 'अहवा पंचितो मित्ति' अदुवेति अथशब्दः,भो अहं बंचित इति कथं वंचित इति?, न भोगा भुक्ता, न च परलोको । अस्ति, धर्मफलं वा विशिष्टं 'इति भिक्खूण चिंतये', व्यपदिश्यते-'अभू जिणा' गाथा (९३ मू० १३२ ) अभू जिणा इति ध्ययने IM ऋषभादयः, अस्थि महाविदेदे,भविस्संति महापउमादयो,यच्चान्यदेवमिति तत्सर्व मृषा वदंति अक्खातं ,ण यतं एवं सांप्रत प्रज्ञापयंति॥८॥ यथा अभू जिणा, एप तु अजिनकाले परीपहा, एवमन्यदपि यत्परोक्षं जिनोक्तं तदश्रद्दधतः देसणपरीसहो भवति, तत्रोदाहरणं 'ओघाविउकामोऽचिय' गाहा (१२२-१३३) वस्थाभूमीए अज्जासाढा णामायरिया बहुस्सुता, तत्थ गच्छे जो कालं करेइ | तं निज्जाविति, भत्तपडियाइक्खितातो बहुया णिज्जाविता , अप्पाहि ता पज्जवंति , अण्णया एगो अप्पणो सीसो तेण | आदरतरेण भणितो-देवलोगाओ आगंतु मम दरिसाव देज्जासित्ति, न य सो आगच्छति, पच्छा सो चिंतेति-सुबहुं कालं किलिट्ठोऽहं, सलिंगेण चेव ओधावति, पच्छा तेण सीसेण देवलोगगतेण ओधाइतो आभोइतो, पेच्छंति ओधावंत, तेण तस्स पहे| | गामो विउविओ, गडपेच्छा य, सो य तत्थ छम्मासे अच्छितो पेच्छतो, ण छुहं ण तण्हं कालं वा दिव्यपभावेण वेदेति, पच्छा देवेण तं साहरिउं गामस्स बहिआ विजणे उज्जाणे छ दारए सस्थालंकारविभूसिए विउध्वति, सो चितेति-गिण्हामि तेसिं #आभरणयाणि. वरं सुई जीवंतोत्ति, सो एतं दारगं भणति- आणेहि आभरणगाणि, सो भणति--भगवं ! ए ताव मे अक्खाणयं हामणेह, पच्छा गण्हेज्जासि, भणति--सुणेमि, एगो कुंभकारो सो मट्टियं खणंतो तडीए अर्कतो, पच्छा एसो भणति-'जण भिक्ख पलिं देमि' गाथा (१२३-१३४) एवं भगवं अम्हे धारणचया तुब्भे सरणमुवगता, तेण भन्नति-अतिपडितवादिओऽसि, घेतूणा दीप अनुक्रम [९०-९२] ॥७॥ SEN [100] Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥९२ ९३|| दीप अनुक्रम [९३-९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] / गाथा ||९२-९३/९३-९४|| निर्युक्ति: [१२२-१३९/१२३-१४१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः [: आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः Giste 96% श्रीउत्तरा चूणों २ परीषहाध्ययने ॥ ८८ ॥ भरणानि पडिग्गहे छूढाणि, पुढविकायो गतो । इदाणिं आउकाओ चितियओ सम्पति, सोऽवि. अक्वामयं कहेति, जहा एगो तालावरो पाडलो नाम, सो अन्नया गं उचरंतो उवरिं बुट्टोदएण हरिति, तं पासिय जागो भाधि- 'बहुस्सुतं ' गाथा ( १२४-१३४ ) पच्छा तेण पडिभणितं गाथा 'जेण रोहति बीयाणि' गाथा (१२५-१३४) तसवि तहेब गण्डति, एस आउक्कातो ।। इदाणि उक्कातो ततिओ, ताहे अक्खाणयं कहेति- एगस्स तावसस्स अग्गिणा उडओ दड्डो, फच्छा सो भणति - 'जमहं दिया य राओ ' गाहा ( १२६-१३४ ) अहवा 'बग्घस्स मए भीएणं, पावगो सरणं कता । तेण अंग महं द, जातो सरणतो भयं (१२७- १३५) तस्सवि तहेब गेण्डति, एस तेउक्काओ ।। इदाणि वाउक्काओ चउत्थो, तहेब अक्खाणयं कहेति, जहा एगो जुवाणो घणणिचियसरीरो, सो पच्छा चाएहि गहिओ, अण्णेण भण्णति- 'लंघणपवणसमत्यो पुल्बि होऊण संपयं कीस ? 1 दंड लतियग्गहत्थे वयंस! किंनामओ वाही १ । ( १२८ - १३५ ) पच्छा सो मणति 'जेडासाढेसु मासेसु' गाहा ( १२९ - १३५ ) अहवा 'जेण जीवति सत्ताणि, निरोहमि अनंतर । तेण मे भज्जती अंगं, जातो सरणओ भयं ( १३० - १३५ ) तस्सवि तहेव गिण्हइ. एस वाउक्काओ ॥ इदाणिं वणस्सतिकाओ पंचमी, तहेव अक्खाणं कहेइ, जहा एगंमि रुक्खे केसिचि सउणाणं आवासो, तर्हि अंडपेलगाणि सर्वच अच्छति, पच्छा रुक्खान्मासातो बल्ली वड्डिता, रुक्खं बेती उवरि विलग्गा, बलीअणुसारेण सप्पेण विलग्गिऊण ते पेलगा सऊणा य खतिया, पच्छा सेसमा भणंति--' जाव बुच्छं सुहं बुच्छं ' गाहा ( १३१ - १३५ ) तस्सवि तहेव गेव्हइ, एस वणस्सतिकाओ गओ ॥ इदाणिं तसकायो छट्टो, तद्देव अक्खाणयं कहेति, ऊहा एवं नगरं परचकेण रोहिज्जति, तत्थ य बाहिरीयाए हरिएसा ते अभितर एहिं विणिज्जंति, बाहिरि [101] आर्याषाढा: ॥ ८८ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२], मूलं [१...] | गाथा ||९२-९३/९३-९४|| नियुक्ति: [१२२-१३९/१२३-१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: २ परीषहा प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९२ हरणं ९३|| श्रीउत्तरायाए परचकेण घेप्पति, पच्छा केणति अमेण भण्णति-'अभितरगा खुभिता' गाथा (१३२-१३६ ) अहवा एगस्थ धिग्जाति चूर्णी होणगरे रावा सयमेव चोरो, पुरोहितो भंडेति, पच्छा दोवि हरंति, पच्छा लोगो भणति-'जत्थ राया सयंच रो' गाहा(१३३-१३६) पुत्रीउदा. | अहवा एगस्स धिज्जाइयरस धूया, साय जोब्बणत्था पडिरूवदरिसणिज्जा, सो धिज्जाइओ तं पासिऊण तीए धूपाए मझोववमो ||छगलोदाध्ययने | तीसे तणएण अतीव दुचलीभवति, बंभपाए पुच्छिओ णिबंधेण, कहति, ताए भण्णति- मा अधिीत करेसि, वहा करोमि जहा || ॥८ ॥ केणह पओगेण संपत्ती भवति, पच्छा धूतं भणति- अम्ह पुच्चं दारियं जक्खा भुजंति, पच्छा देज्जति, तव कालपक्खचाउसिए जक्खो एहिति, मा ण विमाणेहि, संमाणहिसि, मा य तत्थ तुम उज्जोतं काहिसि, तीएवि जपखकाऊहल्लेण दीवओ सरावेण | ठइतो, सो य आगतो, सतं परिभोत्तूण रतकीलत्तो पसुत्तो, इमावि कोउगेण सरावगं फोडती, णवरं पेच्छति ताय, ताए नाय, जे होउ त होउ, पुर्व भुंजामि भोगे, पच्छा साई रतिकिलंताई, उग्गतेवि सूरे ण विबुज्झति, पच्छा बंभणी भणति- 'अचिरुग्गतए व सूरिए, मागहिया ( १३४-१३७) पच्छा सा तीसे धूया तं सुणेत्ता पडिभणति-'तुमए व अम्म ए लवे' मागहिया (१३५-१३७ ) पच्छा सा धिज्जाइणी भणति 'नव मास कुच्छीइ धालिता' मागहिया (१३६-५३७ ) अहदा एगेण धिज्जाइतेण तलाग खणावियं, तत्थवि य पालीए देउलं आरामो य कतो, तत्थ य तेण जण्णओ पवचितो, छगलगा एत्थ मारेज्जीत, अण्णया य कयाइ सो धिज्जातिओ मरिऊण छगलिओ चेव आयातो, सो य घेचूण अप्पणिज्जएहिं पुत्तेहिं तत्थ चेव ||८९ ॥ तलाए जण्णि मारिउं णेज्जति, सो य जातिस्मरो णिज्जमाणो अपणोच्चयाए भासाए बोन्बुयति, अप्पणा चेव सोयमाणो, 181 जहा मए चेव पवानिय एयं, सो य त्रुब्धिएमाणो साधुणा एगेण अतिसीसएण दरसति, तेण भण्णति'सयमेव य लुक्स्व लोविया । दीप अनुक्रम [९३-९४] [102] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥९२ ९३ || दीप अनुक्रम [९३-९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||९२-९३/९३-९४|| अध्ययनं [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः श्रीउत्तरा० चूर्णी २ परीषहाध्ययने ॥ ९० ॥ निर्युक्तिः [१२२-१३९/१२३-१४१] [: आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः मागहिया ( १३७-१३८ ) सो तं सोऊन तुहिक्को चैव ठितो, तेहिं धिज्जाइएहिं चितियं किमिह पञ्चइएणं पढियं तेण एस छगलओ तुहिक्को ठितो, ततो साधूणं गंतु भण्णति- किं भगवं । एस छगलओ तुम्हेहिं पढियमेत्तेहिं तुहिक्को ठितो ?, तेण साधुणा तेसिं कहितो सन्भावो, जहा एस तुज्झ पिया, कि अभिण्णाणं १, तेण भण्णति- अपि जाणामि, किं पुण एसो चैव कहेद्दिति, तेण छगलेण पुण्यभवे तेहिं पुत्तेहिं समं विहृणयं हितं तं गंतूण पाहिं खलवलेति, एवं अभिण्णाणं, पच्छा तेहिं सुक्को स साधुसमीचे धम्मं सोऊण भत्तं पच्चक्खाइऊण देवलोगगं गतो, एवं तेण सरणमिति काउं तलागासमे जण्णा पवतिआ तमेव से असरणं जातं, एवंविधोऽत्र समवतारः एवं तुम्मे इमे हे सरणं गता, तदेव तस्सवि आभरणगाणि घेतूण सिग्यं गंतुमाढतो पंथे, णवरं संजतिं पासति महितढिकितां, तेण सा भण्णति- 'कडगा य ते कुंडला' गाथा ( १२८-१३८) पच्छा ताए भण्णति- 'समणो असि संजतो असि' गाथा ( १२९-१३९ ) एवं ताए उवदिट्ठो समाणो पुणोवि गच्छति, णवरं पेच्छति पुणोवि संधावारं एंतं, तस्स विट्टमाणो इंडियस्सेव सर्वाडिसो आगतो, तेण इत्थिखधाओं उरुहित्ता वंदितो, भणितो य- भगवं अहो मम परं मंगलं निमित्तं च जं साधू मए दिडो, भगवं । मम अनुग्गहनिमित्तं फासुगेसणिज्जं इमं मोदकादि संघलं घेप्पतु, मम अणुम्गहत्था, सो पेच्छति, भागणेसु आभरगाणि छूढाणि मा दिस्संति, तेण दंडिएण बलामोडिए पडिग्गहो गहितो जाब मोदगे छुभामि, णवरं पेच्छति आभरणगाणि, तेण सो खिज्जितो उवालद्धो य, पुणोवि संबोधितो, पच्छा दिवं देवरूवं काऊण बंदिऊण पडिगतो, तेण पुब्बं दंसणपरीसहो णाधियासिओ पच्छा अधियासिओ, दंसणपरीसही बाबीसतिमो समत्तो ॥ 'एते परीसहा' सिलोगो ( ९४ सू० १४० ) एते जडुदिट्ठा सम्बेसि पुरतो कासवो भगवं वद्धमाणसामी तेण पवेदिता [103] परीषदाध्ययनोपसंहारः ॥ ९० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥९४॥ दीप अनुक्रम [ ९५] मूलं [१...] / गाथा ||९४/९५|| अध्ययन [ २ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण चतुरंगी ये ॥ ९१ ॥ भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) निर्युक्तिः [१३९.../१४१...] कहिता 'जे भिक्खु ण विणणेज्जा' मिहणणा- पराजिणणा 'केणई'त्ति बावीसाए एगतरेण 'कण्डुवि' त्ति क्वचित् । इति बेमि, गया जहा विषय सुते । परीसहज्झयणं समत्तं २ ॥ • एवं परीसहा अधियासेतव्या इमं आलंबणं काउं जहा दुल्लभा इमाणि चत्तारि परमंगाणि, एतेणाभिसंबंधेण चातुरंगिज्जं आगतं, चउसु अंगेसु हितं चातुरंगेज्जं, एतस्स चत्तारि अणुयोगदाराणि जहा विणयसुते तहा वनेऊण जहा णामनिष्फलो निक्खेवो चउरंगेज्जं दुपदं नाम, चत्तारि पिक्खिवितव्यं तत्थ एगस्स अभावे कतो चतुद्वाणं, तेण एगस्सेवणिक्खेवो कायव्वो, तत्थ गाहा- 'णामं ठवणा' गाथा ( १४१-१४१) नामटवणाओ गताओ, दब्वेकगं तिविहं, तंजहा एक दब्बं सच्चिचं अचित्तं मीसगं च साच्चत्तं जहा एगो मणूसो, अचित्तं जहा एगो कारिसावणो, मीसं जहा पुरिसो वत्थाभरणविभूसिओ, मातुपदेकगा उप्पण्णेति विगतेति वा धुवेदि वा एते तिन्नि दिट्टिवादे मातुपदा, अथवा इमे मातुगपदा अआइ एवमादि, संगहेकगं जहा दव्यसंचयमुद्दिस्स एगो सालिकणो साली भण्णति, बहवो सालयो साली भण्णति, जहा विष्फण्णे साली, तं संगहेकयं दुविहं आदि अणादिहं च तत्थ अणाइङ्कं अविसेसियं, आदि णाम विसेसियं, अणाइङ्कं णाम जहा साली सालित्ति, आदि कलमो, पज्जविषयं दुविहं आदि अणादि च पज्जया गुणादिभेदा परिणति, तत्थ अणादिहं गुणासि, आदिहं वण्णादि, भावेकगमवि आदि अणादिट्ठे च अणादिट्ठे भावो आदि उदइओ उवसमिओ खइओ खओवसामिओ पारिणामिओ, उदश्यभावेकगं दुविहं आदिमणादि च, अणादि उदयितो भावो, आदि पसत्थमप्यसत्थं च, पसत्थं तित्थकरनामोदयादि, अपसत्थं कोहोदयादि, उवसमियस्स खइयस्स अणादिड्डादिडा भेदा सामण्ण विसेसाणमभेदे न संभवति, केइ खयोवसमियपि एमेव इच्छति, अध्ययनं -२- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३- “चतुरंगिय” आरभ्यते [104] एककनिक्षेपाः ॥ ९१ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९४.../९५...|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक 1-%२ चणी % [१] गाथा % ॥ ९२ ||९४...||| - श्रीउत्तरात भवति, जेण सम्मदिट्ठीण मिच्छादिट्ठीण य खओवसमलद्धिओ बहुधा संभवंति, तास दुविहाणं चेव, जाओ सम्मदिट्ठी-|| अंगराण ताउ पसत्थाओ, जाओ मिच्छादिट्ठीणं लद्धीओ ताओ अप्पसस्थाओ, पारिणामियमाविक्कयं दुविह-आइट्ठमणाइ8 च, निक्षेपाः ३ अणाइटुं पारिणामियभावो, आदिट्ठ सातियपारिणामिओ य अणादियपरिणामिआ य, तत्थ सातियपारिणामिएक्कगं कसाय-| चतुरंगीये परिणयो जीयो कयायी, अणादिपरिणामियएक्कयं जीवो जीवभावपरिणतो सदा एवमादि, इह कतरेण एक्कएण अधिकारो?, | उच्यते, भिन्नरूवा एक्कगा चत्तारि सद्देण संगहिता भवंति, तेण संगहिक्कएण अधिकारो, सुयणाणं भावे खओवसमीए वमृतित्ति भावेक्कएण अधियारो, दुयादि परूवणावसरे परवेज्जति, एवं सेस परूवितं भवति, तम्हा चउक्कणिक्खेवो, सो सत्तविधो-'णाम ठवणा' गाथा (१४२-१४१) णामचत्तारि उवणा० दब० खेत्त० काल गणण भावच०, णामठवणाओ गयाओ, दवचउक्के || | चत्तारि दब्वाणि सचित्ताचित्तमीसगाणि, सचित्ते चत्तारि मणूसा अचित्ते चत्तारि करिसावणा मीसे चत्वारि मणूसा सालंकारा, खेत्ते चत्तारि आगासपदेसा, जमि वा खेत्ते चउक्को परूविज्जति, काले च रि समया आवलियाउ वा एवमादि, जीम वा कालेर चत्तारि परूविज्जति, गणणा एक्को दो तिथि चत्तारि, भावे एताणि चेव चत्तारि परमंगाणि, एत्थ गणणाचउक्केण अधिकारो,18 चत्तारित्ति गतं ।। इदाणिं अंगत्तिदारं, तत्थ गाहा-'णाम' गाहा-(१४३-१४१) णामठवणाओ गताओ,दध्वंगे इमा दारगाहा'गंधग ओसंधंग' गाहा- (१४४-१४१) दव्वंग छविहं, तं०-गंधंग ओसंघर्ग मजंग आउज्जंग सरीरंग जुद्धंग, एत्थ एगेग अपि ॥ ९२॥ अणेगप्पगारं, तत्थ गंधगे इमा गाथा 'जमदग्गि'गाहा (१४५ १४२) जमदग्गिणाम वालओ रिणुगा हरेणुगा चेव संवरणिय-18 | सिय णाम तमालपणं विष्णियाण मज्झो, मगंगो- गंधद्रव्यं रुक्खतणे मोचायं एताणि मल्लियावासिताणि कोडिं अग्पति, कोडी %2-10 दीप अनुक्रम [९५...] -CTER [105] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||९४...९५...|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९४...|| श्रीउत्तय चौँ ३ चतुरंगीया ॥ ९३ ॥ ग्रहणामित्युपमा, महार्या अर्यो(हो) अथवा इमं गंधगं 'ओसीर हिरिराणं' गाथा(१४६ १४२) उसीर उसीरमेव हिरिबरं वालओयांगानिः । भद्रदारुसतपुष्पाणं भागो य तमालपत्तस्स तमालपत्रमेव 'एयं पहाणं एवं विलेवणं' गाहा (१४७१४२) एतं गंधंग, भावांगानि दाणि ओसधंगं 'दो रयणीओ' गाहा (१४८ १४२) दो रयणीओत्ति दारुहरिद्रा पिंडहरिद्रा य. महिंदफलं णाम इंद्रजवा, तिनि । उसिणंग इति तिकडुग, कणगभूलं नाम बिल्ल मूलं, उदगओ अट्ठमं, 'एसा हणतो कंडू' गाहा (१४९१४२) पूती एसा, गंधंगं| गतं । इदाणि मज्जग 'सोलस दावाभागा' गाथा (१५०-१४२) कंठया, इदाणि आयोज्जंग एगमुकुंदा तर' गाथा (१५१-- १४३) एगा एव हि मुकुंदा तूर्य, यथाभिमारकमगणी य, सरीरंग 'सीसमुरोय' गाथा (१५२-१४३) कंठया, जुद्धंगाणित 'जाणावरण' गाहा (१५२-१४३) जाणं रहे आसो हत्थी य, जदि एताई णस्थि किं करेउ पाइक्को, लद्धसुवि जइ आवरणं कव-10 याई णस्थि तापि ण सेज्झति, सति आयरणे पहरणेण विणा किं सका हत्थेहि जज्झिउं, सति ग्रहरणे जति कुसलत्तर्ण गस्थि || णवि जाणति- किध जोद्धातव्यं, सति कोसल्ले णीतिएवि विणा किं करेतु ?, समूहे मारेज्जत्ति अवक्कमणं उबक्कमणं च अयाणतो, जहा अगडदत्तो दक्खत्तणेण फेडति डेविति वा, तेसु सब्बेसुवि लद्धसु जति विवसायो णस्थि व जुज्झति अणिग्वेयं, सइवि बवसाए सरीरेण असमत्थो किं करेउ ?, तेणे जाणे आवरण पहरणं कुसलतं णीति दक्खतं ववसाओ सरीरमारोग्ग एताणि जुई| गाणि ॥ इदाणि भावंगाणि 'भावंगं विय दविध गाथा (१५४-१४४) भावंग दुविधं-सुतंग नोमुत्तंगं च, सुत्नंग वारसंगााण, INT९३ गोसुत्तंग चउब्धिह, तंजहा-माणुस्सं धम्मसुती सद्धा तवसंजमंमि पीरियं च। (१५५-१४४) एते भावंगा दुल्लभया संसारे,12 तत्थ सरीरदवंगस्स इमाण एगठियाणि-अंग दस भाग' गाहा (१५६-१४४) अंगति वा दसत्ति वा भागत्ति वा भेदेति वा 4 दीप अनुक्रम [९५...] [106] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||९४...९५...|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्रा चतुरंगीया गाथा ||९४...|| ॥९४ ॥ अवयवोत्ति वा पुण्णेति वा खडेति वा देसे पदेसा पब्वे साहा पउला पज्जवेत्ति वा खिलेत्ति या, भावंगस्स इमाणि एगडियाणि आलस्या'दया य संजमो' गाहा, दयत्ति वा संजमोति वा दुगुंछा लज्जा छलणा तितिक्खा अहिंसा विरति वा, तत्थ माणुस्सं पढम है दयो धर्मविघ्नाः अंग, तं च दुल्लभ, कथं ?- 'माणुस्स खेत्त जाती' गाथा (१५८-१४५) तत्थ माणुसतं दुल्लभ इमेहि दहि दितेहिं परूविज्जति, तं०-'चोल्लग पासग' गाहा (१५९-१४५) एसा गाहा जहा सामाइए, एवं आयरियं खत्वंपि आयरिया जाति कुलं स्वति' आरोग्गं आउगं बुद्धि सवर्ण धम्मस्स कहणं पियसढा संजमो ताम य असढकरण, तं एताणि लोगदुल्लभगाणि, अथवा अन्नपरि-15 वाडीए गाथा, चचारि अंगाणि दुन्लभाणि 'इंदियलद्धीणिअत्तणा य गाथा, भावओ इंदियाणि, लभित्ताविकोइ अणिबचिएहिर चव मरति, णिब्यत्तेऽपि केई ण सव्वपज्जची हि पज्जयत, पज्जनएसुपि पुणरवि उवधाता भवंति कुंटादिभिः, अहवा णिन्वतिज्जमाणाणि उवहम्मन्ति वी(थि)रबाहुगअबाहुगजातंवखुज्जादिसु, सम्बनिव्वत्तीएवि खेमं दुल्लभं, खेमो धातं विभवं सुभिक्खन | दल्लभ, अथवा धात-विभवो, आरोग्ग- विरोगता, सट्टा-धम्मसद्धा, गहणत्ति गाहको उपयोगी, अवत्ति संजमो अडे, अथवा इमेहिं* दुल्लभं 'आलस्स' गाहा (१६०-१५१) आलस्सेण साधूर्ण पास न अल्लीयति, अहवा णिच्चत्तमपत्तो, मोहाभिभूतो इमंपि कायव्वं | नथचि सुणे न, अहवा अवज्ञा कि एते जाणतगा हिंडति ?, अधवा थंभेणं थद्धो ण किंचि पुच्छति, अहवा अढविहस्स मदस्स | अन्नयरथं भेण, अहवा दट्टण चेव पवाए कोहो उप्पज्जति, पमादेण पंचविहस्स पमादस्स अनतरेण, अहवा किविणत्ता मा एतेसिं किंचि दायब होहित्ति तण ण अल्लियति, भएण वा एते णरगतिरियाणि दायंति अलाहि तो एतेहिं सुएहिं, अण्णाणेण ॥ ९४॥ वा कुप्पहेहि मोहिओ इमंमि से ण चेव धम्मसन्ना उप्पज्जइ, अहवा वक्खेवो अप्पणो णिच्चमेव आउलो, कोउहल्लेण णडपेच्छादिसु, दीप अनुक्रम [९५...] 1-31CARECIRCA4-% NCE [107] Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९४.../९५...|| नियुक्ति : [१४२-१७८/१४२-१७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्सरा चूणौँ [१] गाथा ||९४...|| चतुरंगीया ॥९५॥ . * अहवा रमणसीलो वट्टगुलियादीहि, एतेहिं कारणोहि' गाहा (१६१-१५६) कंठ्या, धम्मंतराइयाण कम्माण उदएणं दुल्लभं संजममिवि मा वरियं, सरीरहीणताए, जो पुण मिच्छादिडो सो पुण धम्मसुतिपि लणं ण तं सद्दहति, तत्थ गाथा 'मिच्छादिट्ठी जीवो' दलेभता (१६२-१५१) मिच्छादिवी उवदि, पवयणं न सहहति, असम्भावं प्रण उवदिई वा अणुवदिड वा सद्दहति, जो पुण सम्मदिट्ठी सो उवादिदं पवयणं सदहति,असम्भावं पुण अणाभोगेण (गुरुनिओगेण) वा सइहेज्जा, तत्थ अणाभोएण अविकोविओ गिहिएसु संकितो अनहिं पण्णवेज्जमाणो अपणो य दिडिएसु एसो जिणोयएसत्तिकाऊण अविकोविओ सद्दहेज्जा, गुरुणिआगेणंति गिण्इ ई)सि सो तं निण्हयदिट्टि गुरुणाऽऽणज्जितो सद्दहेज्जा, जहा य 'ततेणं तस्स जमालिस्स अणयारस्स एवमाइक्खमाणस्स एवं भास० एवं पण्ण एवं परूवमाणस्स अत्थेगतिया समणा णिग्गंथा एवमटुं सद्दहंति, तत्थ ण जे य एयमहूँ ण सद्दहति | | ते णं समर्ण भगवं महावीरे उपसं० विहरंति, तेसु पुण निण्हया इमे 'बहुरय पदेस' गाहा ( १६४---१५२) बहुरय ज मालीपभवा' गाहा (१६५-१५३) 'गंगातो दोकिरिया' (१६६-१५३) एतेर्सि जत्थ उप्पना दिडिओ ता |इमा जगराओ 'सावत्थी उसभ' गाथा (आव० ), इदाणिं एतेसिं कालो भण्णति 'चउद्दस सोलस वीसा | गाहाउ दो, इदाणि भण्णति- 'चोइस वासा तइया' गाथा, अक्खाणयसंगहणी, 'जेठा सुदंसण' गाहा (१६७-१५३) | एवं सत्तहवि निण्हयाण वत्तन्वया भाणियच्या जहा सामाइनिज्जुत्तीए, के प्रण निण्डए एत्थ आलावग पडिकहन्ति 'सोच्चा ॥१५॥ णेयाउयं मग्गं, यहवे परिभस्सति एवं अंगति गतं, अस्स चतुरंगनिष्फण्णं चातुरंगिज्ज, णामनिफनो निक्खेवो गतो, सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं, चत्तारि परमंगाईसिलोगो(९५सू.१८१)चत्तारीति संख्या,परि(र)मानं यस्य तत्परमं, अङ्ग्यतेऽनेनेत्यंगं, दीप अनुक्रम [९५...] -- - [108] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||९५ ११४|| दीप अनुक्रम [९६ ११५] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| निर्युक्तिः [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः परमाणि च तान्यंगानि, अणुत्तराणीत्यर्थः, दुक्खं लभ्यत इति तैर्दुलभानि, इहेति इहलोके, दिह्यतीति देहं देही-जीवो भवति 'माणुसत्तं सुती सङ्का संजमंमि मनसि शेते मनुष्यः, श्रवणं श्रुतिः, कस्यासौः, श्रुतधर्मस्य, श्रद्धानं श्रद्धा, धर्मस्यैव, विराजयत्यनेनैव वीरियं, संजमे वीरियं, संजमे योगकरणमित्यर्थः तत्र तावत् प्रथमं मानुष्यं तस्मिन् सति शेषांगाणि स्युरिति, तदपिचापि दुर्लभमेव, चतुरंगीया : कथं ? 'समावण्णाण संसारे' सिलोगो ( ९६सू. १८१ ) एगतो आवण्णा समावण्णा, संसरणं संसारः, संसृतिर्वा संसारः, ॥ ९६ ॥ श्री उत्तरा०चूण ३ नानार्था भवांतरत्वे सति जायत इति, जननं जातिः, नानागोत्रास्थिति हीणमज्झिमउत्तमासु, कई णाणागोत्तासु संसरति १, 'कम्मा नाणाविधा कडा' क्रियत इति कर्म्म नामार्थान्तरत्वे सति तद्धीनोत्तरजातिनिर्वर्त्तकं कर्म कृत्वा पृथक पृथक पुढो अथवा पुणो २ विश्वनामकप्रकारं प्रजायत इति प्रजा, विश्वसा भवतीति विस्तभति वा, कथं विस्सं भविस्सति १, उच्यते. ' एगता देवलोगे 'सिलोगो (९७ सू० १८२ ) एकस्मिन् काले एकदा, दीव्यंत इति देवाः देवानां लोको देवलोकः, नारकानां लोको नारकलोकः, एगता आसुरे काये, अस्यत्यसावित्यसुरः असुराणामयमासुरः, चीयत इति कायः, आहितैः कर्मभिरारोपि तैरित्यर्थः, आधितो वा कर्मसु अथवा कर्मभिः शुभैरशुभदेवत्वेऽपि सति उच्चस्थानवान् भवति, अशुभैनीचैः स्थानैः, एवं स्थानादिसुखसंविदा यथाकर्मोपगाः, अशुभैरपि आभियोग्य किल्विषादिषु सर्वदेवभेदाः यथाकमीपगाः । मानुष्यमपि प्राप्य एगता स्वत्तिओ होई' सिलोगो ( ९८ सू० १८२) क्षतात् त्रायत इति क्षत्रियः, चंडो' इति चण्डालः, अहवा सुद्देण बंभणीए जातो थंडालो, बुकसो वर्णान्तरभेदः, यथा बंभणेण सुद्दीए जातो णिसादोति वच्यति, भणेण बेसीते जातो बत्ति युच्छति, तत्य निसाएणं अंबट्टीए जातो सो बोकसो भवति, क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयो गृह्यन्ते, चण्डालग्रहणानीचजातयः, अथवा वाग्वि [109] नरत्व दौर्लभ्यं 11 98 !! Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥९५ ११४|| दीप अनुक्रम [९६ ११५] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययन [ ३ ], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| निर्युक्तिः [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा चूर्णो ३ चतुरंगीया ॥ ९७ ॥ भागादिषु अन्येऽपि नीचोत्तमा मानुष्यजातिभेदाः, तिरिएसु 'ततो कीट पतंगो य' कंठवं, एवं पृथिव्यादिष्वपि च ' एवमाहजोणीसु' सिलोगो ( ९९ सू० १८३ ) एवमनेन प्रकारेण, आवर्त्तते यत्र स आवर्त्तः, द्रव्वावतों नदीसमुद्रादिषु भावे संसार एव, पुनः पुनर्यथाऽऽवर्त्तते सत्त्वा यथायुपं तामिति योगः, आवर्त्त आवर्त्तस्य वा योनिषु प्राणनं प्राणः प्राणा येषां संतीति प्राणिनो, 'कम्मकिव्विसा' इति कम्मेहिं किव्विसा कम्मकिव्विसा, कर्माणि तेषां किञ्चिसाणि कमेकिन्निसा त एवं तासु | आवर्त्तयोनिषु पर्यटंतोविण णिब्विज्जति संसारे, न इति प्रतिषेधे, निवेदनं निर्वेदः, संसरति तासु तासु गतिष्विति संसारः, संसरति | वा धावती तासु जातिषु सच्चः, सर्वे अर्था सव्वत्था, जे मणुस्तकामभोगोपकारिणः ते सर्व एव गृहांते शब्दादयः, ते च पर्याप्ता तस्य, न चासौ तान् भुंजानो निर्वेज्जते, अप्येवासौ यथा यथा भुंजते तथा तथा प्रतापोऽभिवर्द्धते, एवं संसारिणः संसरंतः | संसारे दुःखः शारीरमानसैरभिभूयमाना न निर्विद्यते, अध्येव रंजंत एव, कोऽभिप्रायः ?, यतस्तत्प्रतिघाताय नोद्यमंते, अथवा 'सम्वत्थ खत्तिय'त्ति सर्वैः कामैर्थस्यार्थः स सर्वार्थः, स हि भ्रष्टराज्यः, तस्याज्ञा वितथा, यो राजा, कामैः सर्वैरेवार्थः, स च तान् प्रार्थयन् न निर्विद्यते, एवमसावपि संसारी संसारे दुःखाभिभूतः संसारसुखान्येव प्रार्थयेत्, न तैः प्रार्थनासुखैर्निर्विद्यते, ते एवं संसरंत: 'कम्मसंगेहिं संमूढा' सिलोगो (१०० सू० १८३ ) सज्यते यत्र स संगः, पंकादयो द्रव्यसंगः, कामसंगस्तु कामभोगाभिलाषः, अथवा सर्व एव कर्मसंगतैः कर्मसंगैः संमूढाः समस्तं मुद्यतेऽस्मात् संमूढा, दुःखमेषां जायते दुःखिता, पेद्यंत इति वेदनाः शरीराया बहवो वेदना, अथवा अत एव दुःखिता येन बहुवेदना अथवा क्षुत्पिपासाद्येव बहवो वेदना, 'अमाणुसासु | जोणीसु' मानुषाणामियं मानुषी न मानुषी अमानुषी, नियतं निश्चितं वा हन्यते निहन्यते, विशेषेण वा हन्यते, कम्माणं तु पहाणार' [110] आवर्त्तयोनिभ्रमः ॥ ९७ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत नरत्वादि सूत्रांक [१] गाथा ॥९५११४|| श्रीउत्तराठा सिलोगो (१०१ सू०१८३) तु बिसेसणे, किं विसेसयति ?, तेषां मानुसजातिनिर्वर्तकानां कर्मणां प्रहीयत इति प्रहाणा, आनु-101 चूर्णीही पूर्वी नाम क्रमः तया आनुपूर्व्या, प्रहीयमाणेषु मनुष्ययोनिघातिषु कर्मसु निवर्त्तकेषु वाऽनुपयेण उदीर्यमाणेसु, कथमानुपूर्व्या | उदीर्यते, उच्यते, उक्कडूंते जहा तोय, अहवा कम्मं वा जोगं व भवं च आयुगं वा मणुस्सगतिणामगोत्तस्स कस्मिश्चित्तु | चतुरंगीया | काले कदाचित् , तु पूरणे, न सर्वदेवैत्यर्थः, 'जीवा सोधिमणुप्पत्ता' शुद्धयते अनेनेति शोधिः तदायरणीयकर्मापगमादि॥९८॥ त्यर्थः, मनुष्यभवो मानुष्यं तमपि च 'माणुस्सं विग्गह लटुं' सिलोगो (१०२ सू० १८४ ) विगृह्यतेऽनेनेति विग्रहः, सच यथा दुर्लभः तथा चोक्तं चोल्लगपासकादिभिः, इदानं द्वितीयमंग सुति, धम्मस्स श्रवणं थुतिः श्रूयते वा. प्रियते वार भारयतीति वा धर्मः, दुःखेन लभ्यते इति दुर्लभः, आह- श्रवणादस्य किं भवति ?, उच्यते, 'जंसोच्चा पडिवज्जति' यं3 हाइति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः ' सोच्चा' श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपो बारसविधो, खंतिग्गहणेन दसविधो समणधम्मो गहितो, अहिंसा-द गहणेण पंच महव्वयाणि || 'आहच्च सवणं लटुं' सिलोगो (१०३ सू० १८४) आहच्च णाम कदाचित्, कस्य श्रवणं,8 धर्मस्य, श्रद्धा, संयमोद्यम इत्यर्थः, परमदुर्लभा नास्मात्परं किंचिदप्यन्यत् दुर्लभं परमदुर्लभा, कथं तर्हि , विषयतृषिता हि विला (सिना सोच्चाणआउय मग्गं नयनशीलो नैयायिका, यं श्रुत्वापि बहवो सर्वतो परिभ्रश्यन्ते, केचित्तावत् दर्शनादपि परिभसंति, केचित् श्रद्धानात्, अथवा सर्वतो भ्रश्यते जहा णिण्हवा, येऽपि न भ्रश्यते तेषामपि 'सुर्ति व लड़े सिलोगो (१०४ सू०१८४) विरायते येन तं वीरितं भवति, च पुनर्विशेषणे, सर्वदुर्लभं हि संजमारियं शेषेभ्यः, अथवा पंडितवी रियामिति विशेष्यते, दां कुतः १, जओ 'यहवे रोयमाणावि केवलं रोचमाना एव सम्यग्दर्शने वर्तते, न तु चरित्रं प्रतिपद्यन्ते, एवमिय सामग्री दीप अनुक्रम [९६ ऊ२००२- ॥९८ ।। ११५] २ [111] Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९५११४|| - श्रीउत्तरादुर्लभा, एकैकस्य चारित्रलाभायुपाये चोल्लगादयो वक्तव्याः, अथैषा सामग्री कथं भवति ?, उच्यते, एकैकावरणकर्मप्रहाणतः, VI श्रद्धाचूणीं माणुसत्तमि आयातो' सिलोगो ( १८५ सू० १८५) कंठ्यं, 'तवस्सी वीरियं लद्धं तत् तपस्वीबीरियं लब्ध्वा सम्यग्दोलभ्यं वृत्तः संवृत्तः संयत इत्यर्थः, सुसंवृतात्मा तपोवीर्येण स क्षिपेद्रज इति संक्षिणुयादित्यर्थः । स्यात्-कथं संवरो भवति?, उच्यते, भावशुद्धितः, शोधिचतुरंगाया येनापदिश्यते'सोधी उज्जुअभूतस्य सिलोगो(१०६.१८५)शोधनं शुद्धिः,अर्जतीतिऋजुभूतः,तद्गुणवतस्तु धर्मशुद्धिः,तप्यते शुद्धयते महिमा ॥९९॥ शोभना वा शुद्धिः तिष्ठति, नावगच्छतीत्यर्थः, अशुद्धस्य हि अशोधितमलस्येवातुरस्य न शोभिर्भवति, स एवं भावशुद्धसंबरवानिहैव | 'णिब्वाणं परमं जाति निवृत्तिनिर्वाणं,परमं णाम न तेन मुक्तिसुखनात्रत्यं संसारसुखं तुल्यमस्थि कहापि, दाष्टांतिकोऽर्थः न शक्यते | दृष्टान्तमंतरेणापपादयितुं, एकदेशेनोपनयः क्रियते, जहा'घतसित्ते व पावए'जघात घरत्ति वा घतं, पावं व हव्यं सुराणं पावयतीति । | पावकः, एवं लोइया भणंति, वयं पुण अविससे दहण(ण दहे)इति पावकः, यथा घताभिषिक्तः पावकः परां निवृत्तिमामोति तथाऽसावृजुभावोऽपि इहैव तावत् विभुक्तामृतपानेन निवृत्तिमामोति च, उक्तं हि- 'नवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १॥ स्यात्-कधं जायते निवृत्तिः पावकस्य घृतेनेति ?, उच्यते, येन तृणतुपपलालकारीपादिभिरी| धनविशेषरिंध्यमानो न तथा दीप्यते यथा घृतेनेत्यतोऽनुमानात् ज्ञायते यथा घृतेनाभिषिक्तोऽधिक भाति, तथा निर्माणस्य घृतें-18| है धनादिकमेव, न तणा, पठ्यते 'घतसित्तेव पावर', नागार्जुनीयास्तु पठंति एवं 'चतुद्धा संपदं लहूं, इहैव ताव भायते । तेयते तेय- ॥९९ ।। संपत्रे, घयासित्ते व पावए ॥१॥ एतत्तावदिहैव फलं चतुरंगस्य, पारलोकिकं तु 'विकिंच कम्मुणा' सिलोगो, (१०७ सू० १८६) ट्रा अथवा अयमुपदेशः- स एवं निवृतात्मा विकिंच कम्मुणा हेउं, विचिर पृथभावे, पृथक् कुरुष्व अहवा विगिचेति उज्झित इत्यर्थः, दीप अनुक्रम 40.4 [९६ ११५] -539-4-42 [112] Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९५११४|| श्रीउत्तरा०हिनोतीति हेतुः, कर्महेतुरिति कर्मनिदान, रागायाः कर्महेतवः, अथवा मिथ्यादर्शनाविरतिमादि, यमो नाम संयमः तं संयमशीलवैषम्यं चुणा चिराहि, केण ?, 'खेतीए क्षमण शान्तिः आदिग्रहणात् दशप्रकार: श्रमणधर्मः, स एवं यशस्वी विकिंच कर्माणि 'पाढवं शरीरं हिचतुरंगीया 1च्चा ' पुहवीए भवं पाढर्व, तत्र पृथति पृथते वा तस्यामिति पृथिवी, पृथिव्यां भवं पार्थिवं, वैशेषिकसांख्यानां हि पार्थिवं शरीरं, चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनादि आकाशाप्लेजोवायुराज्योतिश्च, स्वसमयासिद्धितोऽपि- पार्थिवमिव पाढिवं, तद्धि शैलेशी प्राप्तस्य ॥१०॥ भगवतः शैलभूतं भवति, स च पार्थिवः शैल इत्यतः पाढवं शरीरं हित्वा, येऽपि न निर्वान्ति तैरपि संलिहितात्मभिः तदुत्सृष्ट पृथिवीतुल्यं भवतीत्यत पाढवं शरीरं हित्वा, अथवा सुखदुःखविकल्प विकल)त्वात् पाढवं शरीरं, उक्तं हि-'पुढवीचिव सम्बसहेण भगसावता', शीर्यत इति शरीरं, हेत्वा णाम हेवा, ऊर्ध्वमिति माक्षः भृशं क्रमति इति चतुरंगफलमुक्तं ॥ये पुनः पूर्वकर्मावशेषतः न तत्फलं 13 वाप्नुवंति तेऽपि चतुरंगहेतुकर्मत एव संसारफलमासाद्य 'बिसालिसहि सीले सिलोगो (१०८ मू०१०८) समानं समर्श, 14न सदृशं विसदृश्य(श), रलयोरक्यमितिकत्वा, ते हि विशालिसा हि शीलयंति समिति शील, विसरिसाणि, कई विसहशानि!, न हि सर्वे तुल्यतपोनियमसंजमा भवंति, उक्तं हि- "जहा जहा ण तेसिं देवाणं तवनियमबंभचेराणि ऊसितानि भवति, जस्स जारिस सीलमासि तारिसो जक्खो भवति" यांति क्षयमिति यक्खा, उत्तरुत्तरा णाम तपोविशेषैः स्थानः रिद्धिसुखसंपदः प्राप्नुवंति, यथा सौधर्मेसाणादी, महासुक्का व जलंता'शोमत इति शुक्राचंद्रादित्यग्रहगणादि महाशुक्ला,प्रत्यक्षत्वाच्च चंद्रादित्यानां न हीनोपमा, केन वाऽन्येनोपमीयते ?, चयनं चयः, पुनश्च्यवतीति पुनश्च्यवं, न हि तस्मिन् देवलोके, दीर्घायुत्वाच्च मन्यन्ते यथा वयं न च्यो M ॥१०॥ पामः, अथवा तेषां नित्यमुखसक्तानां चितवेयं न भवति च्योप्यामो बयमिति, 'अर्पिता देवकामानां सिलोगो(१०९ सू०१८६) EARCRACAMERARKARICHES दीप अनुक्रम - [९६ --- ११५] - [113] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||९५११४|| श्रीउत्तरा अर्पितमस्यास्तीत्यर्पितः अर्पितवानित्यर्थः,अर्पित गमितं दर्शितमित्यर्थः,ते हि पूर्वोक्तपनत(तपोऽव) स्थामिव तपउपनता इव तेषां देव- 12प्रेत्यदशाचूणों कामानां अर्पिता इव अर्पिता,यथा भवद्भिर्ललयितव्या एते,काम्यंत कमनीया या कामाः,रोचत रोचयति वा रूपं, कामतो रूपाणि विकु-18 मानि वितुं शीलं येषां ते इमे कामरूपविकुर्विणः, अष्टप्रकारैश्वर्ययुक्ता इत्यर्थः, न चैषामल्पकालिक सौख्यमित्यतोऽपदिश्यते-'उहंकप्पेसु | " चिटुंति' ऊर्द्धमव कल्पाः२ तेषु उडेकप्पेसु, अहवा उवरिमेसु कप्पेसु, पूरयतीति पूर्व, आवर्षतीति वर्षः, महणि पूर्वाणि च शतानि च, 14 अप्रत्यक्षत्वात् न पल्योपमसागरोपमानि, क्रियत धर्मधारणा, देशकानां च पूर्वायुषं मनुष्यमारभ्य यावर्षशतायुष इत्यतः तत्प्रत्य क्षीकरणामपदिश्यते पुवावास सता बहू । 'तस्थ ठिच्चा जहा ठाण' सिलोगो (११० सू०१८७) तत्थेति तस्मिमिति, यथावस्थानमिति इंद्रसामानिकान्यायुष्कत एति, नहि तेषामुपक्रमो अस्तीत्यतःआयुष्कक्खया ओति माणुसं जोणि उपत्यायान्तीत्युपति, | मनुष्यानामियं मानुषी, युवति जुपति वा तामिति योनि से दसंगेऽभिजायति' दशानामंगानां समूहो दशांग, तद्यथा 'खतं वत्थु सिलोगो (१११सू० १८७) बीयत इति क्षेत्र-ग्रामनगर, यवादिसस्यानि वा यत्रोत्पद्यन्ते, अथवा(आय)क्षेत्रमित्यर्थः,राजगृहमगवाय, वसंति तस्मिमिति वस्तु तत्र क्षेत्र सेतुं केतु सेतु केतु वा, सेतु रहट्टादि, केतुं परिसेण निष्फज्जते, इक्ष्वादि सेतु केतु, अहवा वत्थुपि | सेतुं भूमिपरादि,केतुं यदभ्युच्छ्रितं प्रासादायं, उभयथा गृहं सेतुकेतुं भवति,अथवा वत्थं खायं उपसियं खातूसिय, खातं भूमिधर ऊसितं पासाओ खातूसित भूमिघरोवरि पासादो, हिरण्णग्रहणण रूप्यसुवण्ण गहित, पश्यते तमिति पशु, से सन्वं चउप्पर्य गहिय ।। |१०१॥ | 'दासपीकसं' दयित इति दासः, पुरे शयने पुरुषः, एते चत्तारिवि खत्तवत्थुहिरण्णपसबो दासपौरुषं च एकं कामंगखंध, 'जस्थ से 31 उववज्जति' जेसु जेसु कुलेसु एताणि चत्तारिवि सदा सुचीण्णाणि वत्ध विज्जंति, इतरत्थ हि दुक्खं विभवहीनं स्यात् , किं तर्हि , दीप अनुक्रम [९६ ११५] E1%ace [114] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||९५-११४/९६-११५|| नियुक्ति: [१४२-१७८/१४२-१७८], [भाष्य- १,२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३) उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता प्रत प्रमादस्वरूप सूत्रांक [१] गाथा ॥९५११४|| श्रीउत्तरा भावना-येनासौ गर्भलालितमेव भवति, एकमंगमुक्तं, 'मित्तवं णातवं होइ' सिलोगो (११२ मू० १८७) मज्जति मज्जंति वा चूणा लातमिति भित्र मित्रमस्यास्तीति मित्रवान् , जातका अस्यास्तीति ज्ञातवान् , मित्ता सहवाड्डितादि, णातगता तऽम्मापिइ संबद्धा असंस्कृता. वा,गूयति इति गोत्रं उच्चागोत्तं राजा राजामात्यो बा, वृणीते वृणोति वर्णयति वा तमिति वर्णः (तद्वान् रूपवानित्यर्थः, 'अप्पातके महा" पन्नो' अप्पातको नाम अरोगा, क्षुत्पिपासाद्या हि नित्यं अनुगता एव शरीररोगाः, आमयास्तु नैवोत्पद्यन्ते, उक्तं हि-'कच्चिचना॥१०२॥ रोग्यमतीव मेधा' महती प्रज्ञा यस्य स भवति महाप्रज्ञः, पंडितः इत्यर्थः, अविजातो नाम विनीतः अनुकूल इत्यर्थः, यशस्वी बलवं, भएतानि दश "भोच्चा माणुस्सते भोए' सिलोगो (११३ सू०१८८) अपडिरूवे असरिसे अनेहिं अहाउयं पालित्ता पुच्चविसो-* हिं पुण बोहिं लभेत्ता । तम्हा 'चउरंग दुल्लभं मत्ता' सिलोगो (११४सू०१८८) मत्ता चातुं संजमं पडिबज्जिया तवसा धुतकम्मसे सिद्ध भवति सासते, इतिवम । नयाः पूर्ववत् , चातुरंगिज्ज सम्मत्तं ३॥ एवं चरणं दुल्लभ जाणेत्ता अप्पमातो काययो, जहा तेसुण परिभस्सति, तेण इमं पमादऽपमादणामं अज्झयणमागतं, तस्स की चचारि अणुयोगदारा जाव णामणिप्फने निक्खेवे पमादऽपमाद, पमादे वर्णिते तप्पडिवक्खो अप्पमादो वार्णत एव भवति, सो| पमातो चउब्विहो- 'णाम ठवणा' गाथा (१७९-१९० प्र०) तत्थ दव्वपमादो जेण भुत्तेण वा पीतेण वा पमत्तो भवति, जाणि वा अण्णाणि वत्थूणि पमादकर्तृणि णिज्जासगंधर्वआलस्यादीनि, भावप्रसादस्तु आत्मव प्रमत्ता, स च पंचधा प्रमद्यते 'मज्जं विसय कसाया' गाहा (१८०-१९० प्र०) मज्जपीतस्य हि भावप्रमत्तत्वात न कार्याकार्यदक्षो भवति, 'कार्याकार्ये ण जानीते, बाच्यावाच्ये तथैव च। गम्यागम्येऽति(वि)मूढच, नापेयं मज्जमित्यतः॥१॥ तथा विषयप्रमचोऽपि कत्याकृत्यानभित्रो दीप अनुक्रम [९६११५] ॥१०॥ अध्ययनं -३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -४- "असंस्कृत" आरभ्यते [115] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत करणनिक्षेपाः सूत्रांक [१] गाथा ॥११५१२७|| ॥१०३॥ ENNEC श्रीउत्तराभवति, कसाएमु विविहं आहणइ हिंसति अक्कोसति कलहसाहसीहोति, णिहापमचोवि पलीवणगादिषु विणस्सति, इंदियप्रमत्तानृणीवि मगादयो विणास पावंति, जहा सण मिगो', गाहा, एस पमादोऽवि पंचविहो भणिओ, तस्स यपडिवक्खे अप्पमादो, सोवि पंचविहो, एस चेव अप्पमादेण भणितब्बो, 'पंचविहो य पमादो माहा (१८१-१९१) किंच गतो णामीनप्फण्णो, सुत्चालावगअसंस्कृता. निफण्णो, सुत्तं उच्चारतव्वं 'असंखतं जीवित मा पमादए' वृत्तं ( ११५ सू० १९१) संस्क्रियते स्म संस्कृतं,न संस्कृतं असं स्कृतं, यतः पूर्वकृतकारण कतरतो विनाशमाप्यत् पुनः संस्कार्यते तत् संस्कृतं भवति, यथा छिद्रपट: पुणोवि संविज्जति तुभिज्जति* हवा, जंतु विणटुं पुण न सकति संस्कर्तु तदसंस्कृतं भवति, यथा घटभेद इत्यादि, अथवा आकाशादीनि वा नित्यद्रव्याणि असं स्कृतानि, तत्थ इमा गाहा 'उत्तरकरणेण' गाहा (१८२-१९४ प्र०) संस्कृतंति वा करणंति वा एगहुँ, तेण करणेन तमेव निक्खिक्तव्व-'णाम ठवणा' गाहा (१८३-१९४) णामकरणं जस्स करणामिति णाम, अथवा णामस्स गामतो वा जं IN करणं तं णामकरणं, अक्खणिखेवो जो जस्स करणस्स आगारविसेसोत्ति, दब्बस्स दव्वेण वा दमि वा जे करणं तं दबकरणंति, तं दुविहं- आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए अणुवउत्ते, णोआगमतो जाणगसरीर० भवियसरीर० तब्वइरिच, वतिरितं | दुविहं- सण्णाकरणं णोसण्णाकरणं च, तत्थ सण्णाकरणं अणेगविहं च, जैमि जैमि दब्वे करणसण्णा भवंति तं सण्णाकरणंति, जहा- कडकरणं अद्धाकरणं पेलुकरणं एवमादि, 'सण्णा णामति मती तं णो णाम जमभिहाणं ।। जं वा तदत्थवियले कीरति पदच तु दविणपरिणाम । पेलुकरणादि गहितं तदत्यहीण ण वा सद्दो ॥१॥ जति ण तदत्वविहीणं तो किं दबकरणं जतो तेणं । दव्वं कीरति सद्देण करणंति य करणरूढीओ ॥ २ ॥ इदाणिं णोसण्णाकरणं, तं दुविहं, तं०- पयोगकरणं वीससाकरणं च, विस्स % दीप अनुक्रम [११६१२८] ॥१०॥ E0:304610-12 [116] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत S TIGATYT! सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| श्रीउत्तरा० सेति कोऽर्थः ?, वित्ति विपर्यये, अन्यथा भाव इत्यर्थः, स गती, विविहा गती विश्रसा, ते दुविध-सादीय अणादीयं च, करण चूर्णी अणादीयं जहा धम्माधम्मागासाण अण्णोण्णसमाधाणंति, 'णणु करणमणादीयं च विरुवं भण्णती ण दोसोऽयं । अण्णोष्ण समाधाण जमिह करणं ण णिव्वती ॥१॥ अहवा पदपच्चयादुपचारमात्रं करणं, यथा गृहमाकाशं कृतं उत्पमकमाकाश असंस्कृता. विनष्टं गृहं, गृहे उत्पने विनष्टं आकाशं । इदाणि साइयं वीससाकरण, तं दुविहं-चक्खुफासियं अचक्खुफासियंच, चक्खुफासियं ॥१०४॥ दाज चवसा दीसइ, तं पुण अन्मा अम्मरुक्खा एवमादि, चक्खसा जं न दीसइ तं अचक्खुफासितं, जहाद | दुपएसियाणवि परमाणुपोग्गलाणं एवमाणिं जं संघातेणं भेदेण संघातभेदेण वा उप्पज्जति तं ण दीसति छउमत्थेणंति ४ तेण अचक्खुफासितं, बादरपरिणतस्स अणंतपएसियस्स चबुफासियं भवति, पयोगकरणं दुविध-जीवपयोगकरणं अजीव-18 पयोगकरणं च, होइ पयोगे जीवविवागो, तेण चिणिम्माणे सजी अजीवं वा पयोगकरणं, तं दुविहं-मूलपयोगकरणं उत्तरपयोगकरणं, मूलपयोगो णाम मूलं आदिरित्यनर्थातर, तत्थ मूले ओरालियादीणि पंच सरीराणि, पयोगकरणं नाम जो निष्फनो तो निष्फज्जति, तं तेसिं चेव उरालियवेउब्धियआहारयाणं तिण्इं उत्तरकरणं, सेसाणं तत्थि, तत्थ मूलकरणं अट।8। अंगाणि अंगोवंगाणि उर्वगाणि य, जहा सीस उरो य उपर पट्टी बाहा य दोषि उरुया त । ते अद्वैगाणी पुण सेसाणि तहेगाणि ॥१॥ हाँति उबंगा अंगुलि णासा कण्णा य जहणं चेब, णददंतमसकेसु अंगोवंगा एवमादीणि, अहवा इद उचरकरणं दंतस्स रागो कंणवणं नहकेसरागो, एवं ओरालियविउव्वियाणि, आहारए नस्थि ताणि, इमं वा आहारगस्स गमणादी[81am इति, अहवा ओरालियस्सेवेगस्स उत्तरकरणविसेसेण ओसहेण वा पंचण्ह य इंदियाणं विणड्डाणं पुणो वरणा णिरुवहताण वा EcAA%BACHAR दीप अनुक्रम [११६१२८] [117] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः विणासणं एवमादि, तत्थ पुण ओरालियवेउच्वियआहारयाणं तिविहं करणं- संघातकरणं पडिसाडणाकरणं संघातपरिसाडणाकरणं च, दोहं सरीराणं संघातणा णत्थि, उवरिल्लाणि दोन्नि अखातीणि, विनिवि करणाणि कालओ मग्गिज्जति, तत्थोमरोलिय सरीरसंघातकरणं जं पढमसमयोदवन्नगस्स, जहा तेल्लि ओगाहिओ छूढो तप्पढमताए आदियति, एवं जीवोवि उवअसंस्कृता. ॐ वज्जति पढमे समये गण्डइ ओरालिय सरीरपयोगाई दव्बाई, ण पुण मुंचति किंचि, परिसाडणार हि समयो मरणकालसमए, ॥ १०५ ॥ एत्थं च सो मुंचति ण गेण्हति, मज्झिमे काले किंचि गिण्हति किंचि मुंचति, तं च जहणेणं खुड्डायभवग्गहणं तिसमऊ, उक्कोसेणं तिनि पलितोवमाणि समऊणाणि, 'दो विग्गमि समया समयो संघायणाते तेहूणं । खुट्टागभवग्गहणं सव्वजहणो ठिती कालो ॥ १ ॥ उक्कोसो समयूणं जो सो संघातणासमग्रहीणो । किह ण दुसमयविहूणो १ साडणसमवन तिमि ॥ २ ॥ भष्णति भवचरिमंमिवि समए संघात साडणे चैव । परभवपढमे साडणमओ तद्णो ण कालात् ॥ ३ ॥ जति परभवपढमे साडो णिब्बिग्गहतो त तंमि संघातो । णणु सब्बसाडसंघातणाओ समतं विरुद्वाओ ॥ १ ॥ जम्हा विगच्छमाणं विगतं उप्पज्जमाण उप्पन्नं । वो परभवादिसमये मोक्खादाणाण ण विरोहे || ३ || चुतिसमए णेहभवो इह देहविमोक्खतो जहा तीए । जति तंमि) ण परभवोऽवि तो सो को होउ संसारी १ ॥ ४ ॥ णणु जह विग्गहकाले देहाभावि द्वितो परभवो सो । चुतिसमएवि ण देहो ण विग्गहो जति स को होतु १ ।। ६ ।। इदाणि अंतरं, संघातंतरकालो जहणगं खुट्टगं तिसमऊणं । दो विग्गम समया तति संघायणासमयो ॥ १ ॥ तेहूणं खभवं धरिडं परभवमविग्गहेणेव । गंतूण पढमसमए संघातं - तो स विष्णेतो ॥ ७ ॥ इदाणि संघातपरिसाडतरं, जं ' उभयंतरं जहने समयो निव्विगण संघातो । परमं सतिसमयाई ते श्रीउत्तरा० चूणौं ४ [118] करणाधिकारः ॥१०५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] | गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत करणा: चूणों धिकार: सूत्रांक [१] गाथा ॥११५१२७|| श्रीउत्तरा। तीसं उदहिणामाई।९। अणुभवितुं देवादिसु तेत्तीसमिहागयस्स ततियमि। समए संघातातो दुविहं साडतर वोच्छ॥१०॥ खुड्डगयभवग्गहणं जहण्णमुक्कोसयं च तेतीसं। तं सागरोवमाई संपुण्णा पुन्चकोडी य॥११॥इदाणि वेउब्वियस्स-वेउब्वियसंघातो समयो सो पुण विउव्वणादीए असंस्कृता ओरालियाणमहवा देवादीणादिगहणमि।।१२।।उकोसो समयदुगं जो समयं उच्चिय मतो बितीए । समए सुरेसु बच्चति णिविग्गहतो य त । तस्स ॥१३।।उभयजहण्णं समयो सो पुण दुसमयवेउब्धियमतस्सा परमतराई संघातसमयहीणाई तेत्तीस॥१४॥वेउन्चियसरीरपरीसाडण-12 ॥१०६॥दा कालोवि समय एव । इदाणि अंतरं, बेउव्वियसरीरसंघातंतरं जहणेणं एर्ग समयं,सोय पढमसमयवउव्वितमतस्स विग्गहेण ततिए। समये येउविएसु संघातेंतस्स भवति अहवा ततिए समए वेउब्वियमतस्स अविग्गहेण देवेसु संघातेंतस्स,संघातपरिसाडतरं जहण्णेणं समय एवासो पुणरवि घेउब्बियमतस्स अविग्गहेण संघातस्स भवति,साडस्स अंतरं जहण्णण अंतोमुत्तमुकोसेणं अणतं कालं,वणस्सतिकालो, | इदाणि आहारयस्स, आहारे संघातो परिसाडो य समयं समं होति । उभयं जहण्णमुक्कोसयं च अंतोमुहुत्तस्स ॥शा बंधणसाडुभयाण जहण्यामंतो मुहुत्तमंतरय । उक्कोसेण अवई पोग्गलपरियट्टदेसूर्ण।।तियाकम्माणं पुण संताणाणादितोण संघातो। भवाण होज्ज साडो से-* लेसीचरमसमयंमि ॥ ३ ॥ उभयं अणाइनिहर्ग संतं भव्याण होज्ज केसिंचि । अंतरमणादिभावादच्चंत वियोगतो गेसि ॥४॥ जीवमूलपयोगकरणं गतं। इदाणि जीवउत्तरपयोगकरणं,तत्थ गाहा 'एत्तो उत्तरकरणं'गाहा(१९३-२०१) संघातणा य गाथा (१९४-२०१) संघायणाकरणं जहा पडो तंतुसंघातण णिवत्तिज्जति, परिसाडणकरणं जहा संखग परिसाडणाए णिव्यत्तिज्जति, संघातपडिसाडणाकरणं जहा सगडं संघायणाए य परिसाडणाए य णिव्वत्तिज्जति, ण च संघातो ण च परि- Mसाडो जहा धूणा उड्डा तिरिच्छा वा कीरति, 'अजीवप्पयोगकरण' गाथा (१९५-२०१)जं जं निज्जीवाण कीरति जीवप्पयोगयो । दीप अनुक्रम [११६१२८] १०६॥ [119] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः तं तं वण्णादि रूपकम्मादि वावि तदजीवकरणंति ॥ १ ॥ दव्वकरणं गतं इदाणि खेत्तकरणं- 'ण विणा आगासेणं' गाथा ( १९६-२०१ ) खत्तं आगासं तस्स करणं णत्थि तहावि वंजणतो परियावण्णं, जम्हा ण विणा खत्तेण करणं कीरति, अहवा खेत्तस्सेव करणं, वंजणपरियावण्णं नाम जं करणेणं अभिलप्पति, अह जहा उच्छुकरणादीर्य, बहुधा, सालिकरणं तिलकरणं एवअसंस्कृतामादि, अथवा जम्मि खते करणं कीरति वणिज्जति वा, खेत्तं करणं आगासेवि, तस्स वंजणपरियावन्नं । इदाणि कालकरणं 'कालो जो जावतिओ' गाथा (१९७-२०२ ) कालकरणं जं जावतियकालेण कीरति, जंमि वा कालंमि, एतं आहेण, अहवेह कालकरणं चवातिजोतिसियगावसेसेणं घेत्तव्वं, तत्थ चरं सत्तविहं चउन्विहं थिरमवक्खायं, एवं गाथा (१९८-२०३ ) 'सउाणे' गाथा ( १९९-२०२) 'पक्वतिधयो दुगुणिता' गाथा । इदाणि भावकरणं, भावस्स भावेण भावे वा करणंति, 'भावकरणं (च) दुविहं' गाथा ( २०१-२०३ ) 'वण्णरसगंध' गाथा ( २०२-२०४) अप्पप्पयोगजं जं अजीवरूवाति पज्जवावत्थं । तमजीवभावकरणं तप्पज्जायप्पणावेक्खं ॥ १ ॥ को दव्ववीससाकरणातो विसेसो इमस्स १ णणु भणितं । इह पज्जयवेक्खाए दव्वट्ठियणयमयं तं च || २ || 'जीवकरणं तु' गाथा ( २०३ २०४ ) जीवभावकरणं दुविधं सुतकरणं असुतकरणं च सुतकरणं दुविधं- लोइयं लोउत्तरियं च, एकेक दुविहं चद्धं अबद्धं च बद्धं णाम जत्थ जत्थ सुअवणिबंधो अस्थि, जं एवं चैव पढिज्जति उवरियं ताणि अवद्धं तत्थ बद्धसुतकरणं दुविधं सद्दकरणं णिसीथकरणं च, 'उत्तीत्थ सद्दकरणं पगासपाढं च सरविसेसो वा । गूढतं तु निसीहं बंधस्स सुतत्थ - जं अधवा ॥ २ ॥ जं लोईयं बत्तीसं अट्टियाओ छत्तीस पच्चडियाओ वा सोलस करणाणि लोगप्पवातबद्धाणि, (अहवा संगामे पंच) तंजहाबइसाई समपार्य मंडलं आलीढं पच्चालीढं एताणि पंच लोगप्पवाते सुयकरणे निबद्धाणि, तत्थाऽऽलीढं दाहिण पायं अग्गतो , श्रीउत्तरा० चूर्णौ ४ ॥१०७॥ [120] करणाधिकारः 1120011 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० २ हुत्ते काऊं वामपाद पच्छाहुतं ओसारेति, अंतरं दोहवि पादाणं पंच पदा एवं चैव विवशेयं पच्चालीढं चूर्णां ४ असंस्कृता. ॥१०८॥ बसाहं पण्हीउ अन्यंतराहुतीओ समसेढीए करेति अग्गिमतले बाहिराहुतो, मंडलं दोवि पादे समे दाहिणवामहुत्ता ओसारेता उरुणोवि ( तहा ) आउंटावेति जहा मंडलं भवति, अंतरं चत्तारि पादा, समपदं दोवि पादे समं निरंतरं ठवेति, आरुहतपवयणे पंच आदेससवाणि जाणि अबद्धाणि, तत्थेगा मरुदेवा, गवि अंगे जवि उबंगे पाढो अथ जा मरुदेवा अच्चतथावरा होऊण सिद्धत्ति, सयंरमणसमुद्दे मच्छाण पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि अत्थि, णवारे चलयागारसं ठाणं णत्थि, करडकुरुडाण य कुणालाए तेसिं णिमालूणमूले बसही देवाणुकंपणं, रुट्ठेहिं पण्णरसदिवसेहिं वरिसणं, कुणालाणगरीविणासे ततिए वरिसे सावेते गरे दोन्दवि कालकरणं, अधे सत्तमपुढवीए कालणरगे गमणं, कुलाणाणगरीविणासणकालातो तेरसमे वरिसे महावीरस्स केबलनाशुप्पत्ती, एवमादि अणिबद्धं, एतं सुतकरणं, णोसुतकरणं दुविधं -- जुंजणाकरणं गुण करणं च, गुणकरणं दुविहं तवकरणं सजम० च, दोवि विसेसितव्या, जुजणाकरणं तिविधं मणर्जुजणाकरणं चउब्विहं मणोसच्चादि, एवं वयीवि, कायजोगो सत्तविधो ओरालियादीओ, एत्थ कतरेणाधिकारो १, उच्यते, दव्वकरणेण तत्थवि मूलप्पयोगकरणेण, तत्थवि णोसन्नादव्यकरणेन, तत्थवि पयोगकरणेण, तत्थवि जीवपयोगकरणेण, तत्थवि मूलप्पयोगकरणेण, तत्थवि आयुकरणेण, तत्थ गाथा 'कम्मगसरीरकरणेण' गाथा (२०५-२०५) कंठ्या, असंखतंति पदं गतं, जीवितमिति जीवते जीवितबानू जांविष्यति वा, जीवः, आयुः कर्मजीवनादि जीवितं भवति, तत्थेदमायुष्कं कर्म्म असंस्कृतं भवति, कोऽभिप्रायः, नहि जीवितं तुटितं तुन्नीयते वा न शक्यते पुनः संस्कर्तु छिन्नवस्त्रवदित्युक्तं तुम्हा चरितमि अप्पमादो कातव्बो, जीर्यते येनेति जरा, जरामुप [121] करणाधिकारः ॥१०८॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक अट्टनमल्ल कथा [१] गाथा ॥११५१२७|| ०९॥ श्रीउत्तरानीतो जरोपनीतो येन, यतो न तत्र त्राणं, कोऽभिप्रायः १, न जराप्राप्तस्य पुनयौवनं भवति, 'अहण उज्जेणि स्वस्तु' सव्वं अक्खा- चूर्णौ णगं माणितब्ब, जाव फलहिमल्लेण मच्छियमल्लं निहणावेऊणं णियगं घरं गतो, तत्थ विमुक्कजुद्धवावारी अच्छति, सो महल्लोसिकाउं परिभूयते सयणबग्गेण, जहाऽयं संपदंण कस्सति कज्जस्स खमोति, पच्छा सो माणेण तेसिं अणापुल्छाए असंस्कृता. कोसी णगरि गतो, तत्थ परिसमेतं उवरगमतिगतो रसायणमुवजीवति, सो बलडो जातो, जुद्धगपञ्चते रायमल्लो जिरं-18 गणो णाम तं णिहणति, पच्छा राया मुणइ, तो मम मल्लो आगंतुएण णिहत्तोत्ति ण पसंसति, रायाणगे य अपसंसंते सम्वो रंगा | | तुहिको अच्छति, ततो अट्टणेण राइणो जाणणाणिमित्तं भष्णति-'सहवड़याण सउणाण साहह तो निययसयणयाणं (च।)णिहतो णिरंगणो अट्टणेण णिक्खित्तसत्थेण ॥ १॥ एवं भणियमेत्ते रायणा एस अट्टात्तिकाउं तुट्ठण पूइतो, दव्वं च से पज्जावइओ, आमरणयं देण्णं, सयणवग्गो य एतं सोउं तस्स सगासमुवगतो, पायवडणमादीहि पत्तियाविओ, दवलोभण अल्लियावितो, |पच्छा सो चिंतेति-मम दब्बलोभेण अल्लिया-ति, पुणोवि ममं परिभविस्संति, जरापरिगतो बाद ण पुण सुमहल्लेणावि पयत्तेण | सकिस्सं जुवा काउं, तं जावई सचेडा ताव पच्चयामित्ति संपधातु पव्वइतो, एवं जरोवणीतस्स मस्थि साणं भवति एवं वियाणाहि |जणे पमत्ते' एपमित्यवधारणे, नेय जरोवणीतस्स हुत्थि ताणं, जरया चा उवणीतस्स संविषयमिति,अथवा एवमित्यनुमाने,केनानुमिनोतिी, जहा सो नलदामो चाणकेण घातितो सपुत्रदारं चोरान् घादित्वा, एवमेव जणोवि, आयारमरमर परलोगनिरवक्खो पुब्ब-| | भणिएहि पमादेहि प्रमत्तवान् प्रमत्तः, प्रमादयानित्यर्थः, विविध जानिहि विशेषेण वा जानीहि, किमिति परिप्रश्ने, नु वितर्के, कतरानं कण्णु, विविधं हिंसंतीति विहिंसा, 'अजता गहिन्ति' न यता अयता असंजता इत्यर्थः, गहितो गृहनि मृहिष्यति वा तामिति, %AECAUSESASTER दीप अनुक्रम [११६१२८] |१०९॥ CAKER [122] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूर्णी व सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| श्रीउत्तराविहिंसो काई गिहिस्सांतत्ति गमिष्यति वा, कहिं गच्छिस्सति त विहिंसा ?, अथवा जरोवणीतस्स हुणस्थि ताणमिति, एवमपि धनं न | जाणेमाणो न जराप्रहाणायोद्यतो,केवलं हिंसादिपमुखकम्मेसु पव्वंतो (पमत्ता),एवं(अ)संताणुकंपणं विहिंसा,स्वादेतत्-कथमयमेवमनाः त्राणाय तत उच्यते 'जे पावकम्मेहिं । वृत्तं ( ११६-२०६) जे इति अणिद्दिवस्स णिदेसे, पातयते तमिति पापं, क्रियत इति असंस्कृता. कर्म, कर्माणि हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहादीनि, धणं हिरण्णसुवण्णादीणि, समस्तमादीयंति समादीयंति, गृहंतीत्यर्थः, अशो॥११०॥ भना मतिः अमतिः, यथा अशोभनं वचनमवचनं, कथं !, प्राणिनां निरपेक्षत्वात् निस्तृशो निरनुक्रोशो त्यक्तपरलोकभयः, एवं | विधा अमतिं गृहीत्वा, अथवा णस्थि परलोगे गत्थि सुक्कडदुक्कडाणि कम्माणित्ति, पठ्यते च 'अमयं गहाय' अशोभनं मत अमतं अवचनवत्, अथवा अमृतमिव गहाय, अमृतेनेवार्थः संगृह्यते इत्यर्थः, तमेवं धणमुवज्जिणिऊणं 'पहाय ते पास पयट्टिए| नरे' भृशं हिच्चा अपहाय कृत्स्नमित्यर्थः, पस्सत्ति श्रोतुरामंत्रणं, त इति पावकर्मिणो, पयट्टिते पवृत्ते, तत्तु (न तु) सुई, 'मरे' इति || पुरुषस्याख्या, वरेणं जासकत्वं अनुगता अनुमता अनुबद्धा इत्येकोऽर्थः णरंग उति-गरंग-गच्छति, अनोदाहरणं 'जे पावकम्मेहिं | घणं मणुस्सा' इति- एगमि णगरे एक्को चोरो, सो रति विभवसंपबेसु घरेसु खत्तं खणिउ सुबहुं दविणजातं घेतं अप्पणो। घिरेगदेसे कूवे सयमेव खाणत्ता तत्थ दव्यजात पक्खिवति, जाहिच्छितं व सुकं दाऊण कण्णगं विवाहेउ पस्तं संति उद्दवेत्ता तत्व अगदे पक्षिवति, मा मे भज्जा अवच्चाणि वा परूढपणयाणि हंतूण रयणाणि परस्स पगासेस्संति, एवं कालो बच्चति, अण्णता ॥११॥ तेणेगा कण्णगा विवाहिता अतीव रूविणी, एसा पसूता संता तेण ण मारिता, दारगो से अट्ठवरिसो जातो, तेण चिंतियं| अतिचिरकालं विधारिता, एयं पुरुवं उद्दवेउं पच्छा दारय उद्दविस्सति तेण सा उद्दवेउं अगडे पक्खित्ता, तेण दारगण गेहातो | दीप अनुक्रम [११६१२८] % RECE%AC 1 [123] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० ४ असंस्कृता. ॥ १११ ॥ णिगच्छिऊणं कहा (घाधा ) कया, लोगो मिलितो, तेण मण्णति मे माता मारितत्ति, रायपुरिसेहि सुतं तेहिं गहिओ, दिट्ठो वो दव्बभरितो, अडियाणि य सुबहूणि, सो बंधेऊण रायसगासे समुवणीतो, जायणापगारेहिं सच्धं दध्वं दवावेऊण कुमारेण मारितो, एवं पहाय ते पास पर्यट्टिते गरे, एवं वणिजादयोऽपि कल्कादिविर्देन (भिर्धनं) उपाय तत्प्रहाय परलोके वैरिविघातमाप्नुबंति, न केवलं परलोके चैव ते दुक्खाई पार्वति इहंपि ते दुखाई पाविति दितो 'तेणे जहा संधिमुहे गहीते ' वृत्तं ( ११७-२०७ ) स्त्यायत इति तिष्णं, येन प्रकारेण यथा, संघानं संधिः, क्षेत्रमुखमित्यर्थः, अत्रोदाहरणं – एगमि नगरे एगो चोरो, तेण अभिज्जतो घरगस्त फलगचितस्स पागारकविसीसगं खणितुं खत्तं खतं खत्ताणि य अणेगागाराणि कलसागितिदिगवतसंहितं (ताणि) पयुमामि (सुमागि)ति पुरिसाकिति वा, सो य तं कचिसीसग संठितं खत्तं खणतो घणसामितेण विनातो, ततो तेण अद्धपविट्ठो पाएसु गहितो, मा पविडो संतो आयुषेण वावाइस्सति, पच्छा चोरेण बाहिरठिएण हत्थे गिहितो, से तेहिं दोहिवि बलवंतेहि उभयथा कड्डेज्जमाणो सतंकित पागारकविसीस गेहिं फालेज्जमाणो अत्ताणो विरवति, एवं स्वकर्म्मभिः कृत्यते पापकारी, एस दितो, अगं अस्थोवणयो, 'एवं पया पेच्च इहंपि लोए' एवमवधारणे, प्रज्ञा (जा) यंत इति (प्रजा) कडाण कम्माण नमोक्खो अस्थि', इह परत्र च इहलोके तावत् पियविप्पओगअप्पियसंपयोगरोगदारिददोभग्गदुक्खदोमणस्सादि, परलोके पुण नरगतिरियकुमाणसेसु सारीरमाणसाणि दुक्खाणि अणुभवंति, अवस्सवेदणीयाणि कर्माणि, अथवा 'एवं पया पेच्च इहंपि लोए, ण कम्मुणा बीहह नो कतायि ' प्रजा इत्यामंत्रणे, प्रजा इह परत्र च कर्म्मभिः कृत्यन्ते, तेनैवंविधानां कर्म्मणां (न) पीहयेत् कदाचित्, न प्रतिषेधे, क्रियत इति कर्म, पीहनं अभिलसनं प्रार्थनामित्यर्थः यैः स्तेयादिभिः पापभिः कर्मभिः इह परत्र च पीड्यन्ते [124] इहलोकेsपिधनमनधोय स्व कर्मणा छेदः ॥ १११ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] | गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत भया सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| श्रीउत्तरा० तद्विधानां कर्मणां पीहनमपि न कुर्यान, किं पुनः करणामिति, अत्रोदाहरणं-एगमि णगरे एगेण चोरेण रचिं दरारोहे पासादे स्वपरो | आरोढें खत्तं खतं, सुबहु च दव्वजातं णीणित, पिययघरं व संपावलं पमाताए स्यणीए हातसमालद्धो सुद्धवासो सो तस्थ |गतो, को किं भासतित्ति जाणणत्थं, जइ तावऽज्ज लोगो में न याणिस्सह पुणोवि पुन्वठिश्ते चोरियं करिस्सामिति संपहारेऊण.IN असंस्कृता वंदन तत्थ व लोगो बहू मिलितो संलवति-क, दुरारोधे पासादे आरोटु क्सित्येण खत्तं खत, कहं च खुइलएणं खन्तदुवारेण पचिट्ठो, ॥११२॥ पुणोवि सह दव्वेण णिग्गतोत्ति, सो सुणिउं हरिसेउं चिंतेति-सच्चमेतं, किं वहिं एतेण णिमासोचि अप्पणो उदरं कडिं च पलोएउं खत्तमुहं पलोयति, सो रायनिउत्तिएहिं पुरिसेहिं कुसलहिं जाणित्ता गहितो, राइणो उवनीतो सासितो य, एवं पावकम्मपत्थणेऽवि दोसे, किमु करणे, देहे वा हिंसादीणि पाचकम्माणि, पमत्ता पावेहिं कम्मेहिं बझंति, तेचि पावगं च पाविति, जं च परस्स चोएति पावं कम्म कज्जति तस्स अप्पणा चव वेदितव्यमिति, अत्रोच्यते, 'संसार' गाथा (१९८-२०९) वृत्तं, संमृतिः संसरणं वा संसार:-नरकादि, अथवा कोहादीय कम्म, सो संसारो, समापनवान् समापनः, परंपरेणति पुत्तस्स भज्जाए णट्ठाए एवBा मादि, उच्यते च 'संसारसमावन्नो परस्स अट्ठाए 'परो णाम पुत्तबंधवादि, साधारणं नाम सव्वसामन्नं आत्मनिमिचं बंधुराज-15 ब्राह्मणनिमित्तं वा, 'कम्मरस तो तस्स तु वेदकाले' तस्येति आत्मनिमित्तस्य साधारणस्येति वा, वेद्यते इति वेदः उदय इत्यर्थः, वेदस्स। | कालः२, दानमानक्रियया बनातीति बंधुः, बंधुः किल अहितनिग्रहहितप्रवृत्यर्थ, न चासौ तदहितं कर्म निगृहीतुं समर्थः, उक्तश्च-IN 'सव्वस्स सयणमझे, एगो कस्सति दुहिद्वितो संतो । सयणोऽवि य से रोगं ण विरिंचति व नासेति ॥१॥' इत्यनेन (न) संधवा | बांधवत्वं उचिंतित्ति-करेन्ति, अत्रोदाहरणं- एगमि नगरे एगो वापिओ अंतरावणे संचवहरति, एगागी आमीरी उज्जुगा दो रूवमे *-*-k दीप अनुक्रम [११६१२८] *- [125] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| श्रीउत्तरातूण कप्पासणिमित्तमुवट्ठिता, कप्पासो य तदा समग्यो वति, तेण वाणिएणेगस्स रूयगस्स समितं लाउँ कप्पासो दिष्णोपरार्थपापेचूणौँ हसो, जति दोण्हवि रूवगाण दचोति सा पोट्टलयं बंधेऊण गता, पच्छा वणियतो चिंतेति- एस रूवगो मुहाए लद्धो, ततोऽहं एव उव- कापोसिका | भंजामि, तेण तस्स रूवगस्स समत्तघयगुलाइ किणिउँ घरे विसज्जितं, मज्जा संलत्ता- पयपुग्ने करिज्जासित्ति, ताए पतपुण्णा * असंस्कृता |कया, इत्यंतरे उस्मुगो जामाउओ सवयंसो आगतो, से ताए परिवेसितो घयपूरेहि, सो भुजिउंगतो, वाणियओ हायप्पवणो भोयण॥११॥ स्थमुवगतो, सो य ताए परिवेसितो साभाविएण भत्तेण, तेण भण्णति-किन कया य घयपूरा ?, ताए मण्णति- कया, ते जामाउ| एतेण तेण सवयंसेण खड्या,सो चिंतेति-पेच्छ जारिसं कयं मता, सा बराई आभीरी बचतुं परनिमित्त अप्पा अपुण्णेण संजीइओ, एसो सचिंतो सरीरचिंताए णिग्गतो, गेम्हो य वट्टति, सो मज्झण्हवेलाए कयसरीरचितो एकस्स रुक्खस्स हेवा बीसमति, साधू य तेणोलागासेण भिक्खाणिमित्तं जाति, तेण सो भण्णति- भगवं! एत्थं रुक्खछायाए विस्सम, धम्मुवसमणति, साधुणा भणिय- ते व वक्खे वाइ, अहं अप्पणोचय कम्मं करेमि, तेण भष्णति-भगवं ! को वा परायतं कम्मं करोति, णणु एस सब्बलोगो सकम्मउज्जुत्तो, का साधुणा भाणितं- गणु तुम चव भज्जादिहेतु किलिस्सति, स मर्मणीच स्पृष्टः तेणेव एक्कवयणेण संबुद्धो, भगवं! तुम्हं कत्थ अच्छ-19 ह', तेण भण्णति- उज्जाणे, ततो सोते साधु कउज्जमति य जाणिऊण तस्स सगास गतो, धम्म सोऊण भणति- पब्बयामि, जाव | सयणं आपुच्छिउँ एति(मि), गतो णियगचंधवं भज्जं च भणति-जहा आवणे विवहरंतस्स तुच्छो लाभगो होति, ता पणिज्ज करेमि, दो य सस्थवाहा, तत्थेगो आदातुं पक्खेवयं लाभ मग्गति, एगो पुण पक्खेवयंपि देति लाभगं च ण मग्गति, ते करणेण (फतरेण) सह &ी वच्चामि . ते भणंति- वियएण सदि. तेहिं सो समणण्णातो बंधसहितो गतो उज्जाणं, तेहि भण्णा-कतमो सत्थवाहो ?, एस साधू ल-RA दीप अनुक्रम [११६१२८] ECRECECECER-SCRECA ॥११३ % 4 [126] Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] | गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत न सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| नहराप पुरोहित त्राणं पणसुवण्णाहि- पुत्रदृष्टान्तः श्रीउत्तरामा असोगच्छायाए उवविट्ठो, णिययघरे ववहारावेति, ण य लाभयं गेण्डइ, एतेण सह सण्णेज्जाणपट्टणं आमित्ति पन्चइतो, जहेव ण चूर्णी श्री बंधवा त्राणाय भवंति कम्मविवागकाले, एवमेव 'वित्तण ताणं ण लभे वृत्तं (११९० २२१) विद्यत इति विसं-धणसुवण्णहि-| असंस्कृता. रणगाविभवणसयणादि,वायतीति त्राण,ण हि तेण वित्तण लहते, का, प्रमत्तः-पमत्तो विसएसु, पुन्वभाणितेण वा पमाएण, इहापि तावल्लोके वित्तं न त्राणाय, किमंग पुण परलोगे?, अत्रोदाहरण-एगो किल राया इंदमहादीणं कम्हिवि उस्सवे अंतेउरे विणिग्गच्छंतो ॥११॥रघोसणं घोसावेति, जहा-सच्चे पुरिसा नगरातो निग्गच्छंतु, तत्थ पुरोहितपुत्तो रायवन्लभत्तण वेसाघरमणुपविट्ठो घोसिएवि ण । णिग्गतो, सो य रायपुरिसेहिं निग्गहितो, तेण य रायवल्लभत्तणेण तेसि किंचि दाऊण अप्पा ण मोइतो, दप्पायमाणो विवदंतो रायसगासमुवणीतो, राइणा वज्झो आणचा, पच्छा पुरोहितो उवहितो- सब्यस्संपिय देमि, मा मारेज्जसु, तोचि ण मुक्को, सूलाए भिण्णो, एवं वित्चेण ताणं न लभे पमत्तो, इहलोकिकमुक्तमुदाहरणं, 'अदुवा परत्थ' अदुवेत्यथवा, यदि वित्तं न त्राणाय पाइहलोके, कथं नु परलोके त्राणाय भविस्सति ?, उक्तश्च- अत्येण णदराया ण रक्खिओ गोहणेण कुइकनो। धन्त्रेण तिल्लयसेट्ठी पुत्तेहिं गण ताइओ सगरो॥ १॥ एवमत्राणः शारीरमानसैदुःखैरभिहन्यमानः न तस्स दुक्खस्स ग्रहणद्वारमुपलभते, को दिटुंतो?, उच्यते, 'दीवे पणट्टे व अणंतमोहो'दीप्यते इति दीपः,सो दुविहो-दन्वदीचो भावदीयो य, तत्थ य दव्वदीवो दुविधो-आसासदीचो पगास दीवो य, तत्थ आसासदीयो समुदमज्झे जो दीवो जं वुज्झमाणा पासिउ पाविउंच आसासेदी सो आसासदीबो, पगासदीवो य पता जोतनं पगासेति, तत्थ जो सो आसासदीवो सो दुविधा-संदीणो असंदीणो य, तत्थ संदीणो णाम जो जलेण छादेज्जति, सो ण जीवितत्थसंताणाय, जो पुण सो विच्छिण्णतणेण उस्तितत्तणेण य जलेणणछादेज्जति सो जीवितस्थीणं त्राणाय, असंदीणो दीप अनुक्रम [११६१२८] PERS & ॥११४॥ [127] Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत दीपद्वीपस्वरूपभेदादि सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| ॥११५॥ श्रीउत्तरा दीवो जहा कोंकणदीवो, पगासदीयो णाम जो उज्जोयं करेति, सो दुविधो- संजोइमो सो तृणपुलकवर्तिअग्निकर्डसमवायेन | चूणौँ निष्पद्यते, असजाइमो चंदादिच्चमणिमादि, एस दबदीवो । इदाणि भावदीवो, सो दुविहो- आगासदीको पगासदीयो य, तत्थ पागासद्दीवो सम्मईसणं जं पाविऊण भविया जीवा संसारमहासागरे सदाकुवादिमहीबीयोहि अवुज्झमाणा आससंति, पगासदीवो असंस्कृता. णाम पंचप्पगारा गंदी, तत्थ आसासदीवो दुविहो- संदीणो असंदीणो य, तत्थ खओवसमियसम्मईसणदीवो पडिवातित्तिकाउं संदीणो, असंदीणो तु खायगसम्मईसणदीवो, पगासभावदीयोवि दुविहो-विधातिमो संघाइमो य, तत्थ संघातिमो अक्खरपदपाद सिलोगो गाधाउद्देसगादिसंघातमयं दुबालसंग सुतज्ञान, असंघातिम केवलनाण, एत्थ दव्वदीये पगासदीवमधिकरेऊण भण्णति-IN दीव पणढे व अर्णतमोहो, एत्थ उदाहरणं, जहा-केई धातुबाइया सदीवगा अग्गि इंधणं च गहाय विलमणुपविट्ठा, सो तेसिपमादेणं Xदीवो अग्गाद ओ य विज्झायाओ, ततो ते विज्झातदीवग्गिया गुहातममोहिता इतो ततो सब्बतो परिभमंति, परिभमंता य| IMI अप्पडिगारमहाबिसेहिं सप्पेहिं डक्का, दुरुत्तरे य अधे संणिवतिता, तत्थेव निधणमुवगया, एवं दीवप्पणतुण तुल्लं दीपपणड्ढेव, अमण-IN मंतः अम्यते वा अन्तः नास्यांतोऽस्तीति अनंतः, जहा तेसिं गुहापविट्ठाणं विज्झातदीवग्गणं दुवारमलभमाणाणं तस्स तमसो अंत एव णस्थि, एवमेव संसारीणवि दीवपणहे वा अणंतमोहो भावदीवपणड्डाणं, 'अर्णतमोहे' ति मुद्यते | * येन स मोहः, तच्च ज्ञानावरणदर्शनमोहन यामिति, अहवा अदुप्पगारं कम्मं सबमेव मोहो, तच्चास्यानतमित्यतोऽनन्त मोहे, नयनशीलं नैयायिकं, मग्गमिति वाक्यशेषः, तं नेआउअमग्गमसौ दट्ठपि अदट्ठमेव भवति, जहा सो दीवपणट्ठो तं मग्गं दट्टणवि अदष्ट एव भवति, एवमसाववि अनंतमोहवान् संसारी आजवंजवीमावात् जगति दृष्ट्वा अदृष्ट एव भवति, 4%25A5%25A5%25AE% दीप अनुक्रम [११६१२८] ॥११५॥ [128] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ ૧૨૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्री उत्तरा० चूण ४ असंस्कृता ॥ ११६ ॥ किमभिप्रेतं ? यतस्तमोऽभिघाताय नोद्यमते, अथवा नैयायिकं मार्ग कश्चित् दृष्ट्वापि पुनमहोदयात् पतति, जंहा ते विज्झातपदीवा न जानंति कुतोचि लद्वारं (तं दारं ), एवं पुत्रदारादिआसक्ता नैयायिकं दृष्ट्वा अदृष्ट एवेति मिथ्यादर्शनादभिनिवेशाद्वा आइयं दमदमेव एवंविधेसु संसारिसु ज्ञानदर्शनावरण मोहनीयमहानिद्राकारिषु 'सुत्ते याविप्पतिबुद्धजीव वृत्तं ( १२० - २१३ ) सुपनं सुप्तं सुप्तमस्यास्तीति सुप्तः, सुप्तवानित्यर्थः चशब्दोऽधिकवचनपादपूरणेषु, सो दुविहो सुत्तोविद्दासुत्तो भावसुत्तो य तत्थ णिदं पति सुत्तो जागरो य, एवं भावेवि, तस्थ णिद्दाजागरणे उदाहरणं अगदत्तो, सो तेसु चोरेसु (पुण पसुतेसु सुतेसु सु (स) खोडपतेण पाउणिडं एगंते जग्गंतो अच्छति, ते य चोरा परिष्यायण विद्दापमत्तत्ति जाणिऊण सच्चे सिरच्छिण्णा कया, अगलुदत्तट्टाणेवि किच्छेण पाउतेण पहारो दत्तो, तेणचि जग्गंतेण रुक्खगणमज्झे ठितो, भगिणी भूमि गिहिपवेसणं, तापीव अप्पमत्तत्ताए व ण सकितो बंचेउं, एस दितो भावे समोतारिज्जति, पसुता चोरा घातिता सो एगो ण घातितो, एवं जे मिच्छादिट्टीणो अविरता य भावतो पत्ता धम्मकज्जाई ण पेक्खति, तेसु सुत्तेसु यावि पडिबुद्धजीवी, अपि वाढायें, भावसुतेसु वा जागरण होयचं, सुत्नेसुवि च नातिनिद्राप्रमादवान्, भावप्रतिबुद्धो नाम भावजागरः, प्रतिबुद्धजीवनशीलः प्रतिबुद्धजीवी, ण विस्ससेज्ज कसार्थिदिए, 'पंडिते व पापाडू डानः पंडितः, आपत्ति आसुप्रज्ञा नाम संयमं प्रति क्षणलबमुहुर्त प्रतिबुद्धमानता, आसु प्रज्ञा यस्य, क्षिप्रं प्रज्ञा उत्पद्यते तेण ण विस्संसतितव्यं, जहा कण्हकहाण (ग) पक्खो, कम्हा ? 'घोरा मुहुत्ता' घूर्णत इति घोरः, निरनुक्रोश इत्यर्थः कोऽभिप्रायः १, गणु जाते पुचण्डे अवरण्डे वा काएवि वेलाए मच्चू आगच्छति, अतः अल्पकालायुष्कत्वात् अनियमित कालत्वाच्च पुंसा निरंतरमेव संजातपत्रो भवेत्, [129] प्रतिबुद्धजीवित्वं | ॥ ११६ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णां ४ असंस्कृता. ॥११७॥ तमेव मुहुर्त्तन घोरत्वात् गत्वा पुनरत्येति, अथवा सगोचरप्राप्तस्य मर्थतीत्यतो घोराः, यथैष मगोचरं प्राप्तः अस्य तावत् मा मारेण भयमस्तु एवं घोरा मुहूर्त्ताः शरीरमपि अवलं, अल्पेनापि उपक्रमेणं उपक्रम्यते, एवं मत्वा- 'भाडपक्खी व चरsप्पमत्तो', पक्ष्यतेऽनेनेति पक्षः, पक्षावस्यास्तीति पक्षी, तेसि किर दोन्हं तिपादा, जो मज्झिमतो पादो सो सामण्णो, पच्छा ते अप्पमत्ता चरंति, मा एको वा एकको वा पच्छा पज्जुपेच्छा, पादो हीरेज्जा, अथवा मा पडिहामो, एवं साधुवि "बरे पदाणि पडिस्कमाणी' वृत्तं (१२१-२१६) युगपत्संभृतानि तस्येन्द्रियाणि, कपायाश्रितान्येव चापराधपदानि, उक्तं हि - 'इन्द्रियविषय कषाया एतान्यपराधपदानि', यतोऽपदिश्यते 'चरे पयाई पडिसक्रमाणो' वृत्तं चरेदित्यनुमतार्थे किं कुर्वन्, पदानि परि परि संकमानो, पद्यते अनेनेति पदं, परि सर्वतोभावे, सर्वतो संकमाणो परिसंकमाणो मा मे मूलगुणउत्तरगुणपदेसु छलणा होज्जत्ति, पाश्यते येन पाशः बंधनमित्यर्थः, जांकचि अप्पणा पमादं पासति दुच्चितितादि, दुब्बिचितिएणावि बज्झति, किं पुण जो चिंतित्तु कम्पुणा सफलीकरेति, एवं दुव्भासितदुच्चितिताति जं किंचि पास 'इहे 'ति इह प्रवचने मण्णभाणो, जाणमाण इत्यर्थः, स्यान्मतिः- एवमप्रमत्तः कहं चरेत् 'लाभंतरे जीवित वृहत्ता' लभ्यंत इति लाभा, अंतरा छिनाने प्रयच्छति वान्तरं, लाभं प्रयच्छतीति लाभान्तरं, लाभ घरेति वा दातुं कावा, जीव्यते येन तज्जीवितं, 'वृहि वृद्धी' वृंदयित्वा, कोऽभिप्रायः ?, जाव निज्जरालाभसमरथं जीवितं ताब वृहयामि, समानकर्तृकयो वृहयित्वा पश्चात् किं कुर्यात् ?, उच्यते, 'पच्छा परिणाय मलाबधंसी ' पच्छा इति जाहे ण णिज्जरालाभसमत्थं ताहे व जाणिऊण जाणणापरिण्णाए मलावधंसी भवति कथमिदानी मह महंतीए जराए वाघिणा वा अभिभूतस्स अस्थि निज्जरालामेत्ति जाणणापरिण्णाए जाणिऊण पच्छा सत्तधारणाए मलं अबर्द्धसेति- देति तमिति मलं अष्ट [130] भारंडवदप्रमचता ॥११७॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूर्गों सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| श्रीउत्तुरा प्रकारं शोधयतीत्यर्थः, 'संसुध्वंसु अवलंसने' लामान्तरे, एत्थं मंडितचोरेण दिवतो. नायडे नगरे मंडिओ नाम तुण्णाओ | मंडिकचौरपरदन्बहरणपसत्तो आसी, सो य दुट्ठरोगमिति जणे पगासंतो जाणुसु दोसु णिच्चमेव अद्दपलेवालतेण रायमग्गे तुण्णागसिप्पं दृष्टान्ता असंस्कृता. उपजीवति, चंकमंतोविय दंडधारएण पादेण कथंचि किलिस्संतो चंकमति, रतिं व खाणिऊण दव्यजातं घेत्तूण णगरसन्निीगढे ठ इआणेगदेसे भूमिघरं तत्थ णिक्खियति, तत्थ य से भगिगी कण्णगा चिट्ठति, तस्स भूमिघरस्स मजझे कूबो, जं च सो चोरो दब्वेण ॥११८॥ य लोभेउं सहायं दब्बवोढारं आणेति तं सा से भगिणी अगडसमिवे पुव्वणस्थासणे निवेसितुं पायसोयलक्खणं पादे गिण्हेऊणं तं *मि कूवे परिक्खिवति, तत्थ य मूलदेवो रातो, सो तत्थेव विज्जति, एवं कालो बच्चति णगरं मुसंतस्स, चोरगहा य तंण सकेंति | | गिहिउं, ततो णगरे उवरवा जातो, तत्थ य मूलदेवो राया, सो कथं राया संवुत्तो, उज्जेणीए नयरीए सव्वगणियाणं पधागा 19 देवदत्ता णाम गणिया, ताए सद्धिं अचलो नाम वाणियदारओ विभवसंपनो मूलदेवो य सेवति, दत्ताए मूलदेवो इट्ठो, गणियामाऊएर | अयले, सा भणति- पुत्ति ! कि एतेण पीतिकरणंति , देवदत्ताए भण्णति-अम्मो ! एस पंडिओ, तीए भण्णति-किं एस अब्भहियं | विण्णाणं जाणति', अयलोवि भावणार कसा (लक्खितो) पंडितोवा,तीए भण्णति-अयेते,बच्च अयलं भण-देवदचाए उच्छं हाइउ सद्धा, लतीए गंतूण भणितो, तेण चिंतिय-कतो पुनाई अहं देवदत्ताए पणतेत्ति, तेण सगडं भरेऊण उच्छुलट्ठीण उवणीतं, ताए भण्णति-किं| अहं इत्थिणी, तीए भण्णति-वच्च, मूलदेवं भण-देवदचाए उच्छु खाइउं अभिलासचि, तीए गंतण से कथितं, तेण कवि उच्छुलट्ठी ॥११८॥ उच्छेदेत्तुं कंदादिया काऊण चाउज्जातादिसु वासिताउ काउं पेसियाओ, तीए भण्णति- पेच्छ विण्णाणति, सातुहिका ठिता, मूलदेवस्स पदोसमावण्णा, अयलं भणति- अहं तहा करेमि जहा तुम मूलदेवं गेण्हसित्ती, तेण अहसय दिणाराण तीए दीप अनुक्रम [११६१२८] NAGARSARKARA%E [131] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत % दृष्टान्ता सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| A5 श्रीउत्तराला माडिणिमित्तं दिन, ताए गंतु देवदत्ताए भण्णति- अज्ज अयलो तुम सम वसहितित्ति, इमे दिणारा दत्ता, चूर्णी अवरण्हवेलाए आगन्तुं भणति-अज्ज अयलस्स तुरियं कज्जं जायं, तेण गामं गतोत्ति, देवदत्ताए मूलदेवस्स पेसित,४ आगतो मूलदेवो, ताए समाणं अच्छति, गणियामाऊए अयलो संवाहितो, अण्णातो पविट्ठो बहुपुरिससमग्गो, असंस्कृता. | वेढियं तं गम्भगिह, मृलदेवो य अइसंभमेणं सयणीयस्स हेड्डा णिलुक्को, तेण अलक्खितो, देवदत्ताएवि दासचेडीओ ॥११९॥ | संदिवाओ अयलस्स सरीरमभंगादि घेतृणुषट्टिताता, सोवि तमि चेव सयणिए ठियनिसनो भणह-एत्थ चेव सयणीए ठियं अभंगेह, ताओ भणंति-विणासेज्जति सयणीयं, सो भणति- एचो उक्किट्ठतरं दाहामि, मया एवं सुविणो दिहो जहा सयणीअभंगणउन्बलणण्हाणादि कातध्वं,तो तहा कयं,ताहे णिहाणगोन्लो मूलदेवो,अयलेण वालेसु यकसाय (पगहाय) कडितो,सलत्तो य अणेण-वच्चसु मुक्कोसि, इहरहा ते अज्ज अहं जीवितस्स विवसामि, जति मया जारिसो होज्जाहि तो एवं मुस्चिज्जाहि, ततो मूलदेवो अवमाणितो लज्जाते णिग्गतो उज्जेणीओ पत्थयणविरहितो, वेण्णायर्ड जतो पत्थितो, एगो य से परिसो मिलितो, मूलदेवेण पुच्छितो- कहिं जासि ?, विनायडंति, मूलदेवेण भण्णति-दोवि सम्मं वच्चामोत्ति, तेण संल-एवं भवतुत्ति, दोवि | पट्ठिता, अंतरा य अडवी, तस्स पुरिसस्स संबलं अस्थि, मूलदेवो चिंतेति-एसो मम संबलेण संविभागं करेहित्ति, एण्वि सुए | परे वा एताए आसाए बच्चति,ण से किं(चि) देति,ततो ततियदिवसे छिन्ना अडवी, मूलदेवेण पुच्छितो-गस्थि एत्थ अब्भासे गामो?, | तेण भण्णइ-एस णाइदूरे पंथस्स गामो, मूलदेवेण भण्णति- तुम कत्थ वससि ?, अमृगस्थ गामे, मूलदेवेण भणिओ- तो क्खाइ | अहं इमं गामं वच्चामि, तेण से पंथो उवदिडो, गतो तं गाम मूलदेवो, तत्थ गेण भिक्खं हिंडतेण कुम्मासा लद्धा, पवण्णो य SAHABAR % 5 दीप अनुक्रम [११६१२८] ॥११९॥ EDIA [132] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] | गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥११५१२७|| श्रीउत्तरा कालो वदृति, सो गामातो णिग्गच्छति,साधू य मासखमणपारणनिमिच (आगतं) पासति, तेण य संवेगमावण्णेण भिक्खं पराए भत्ती-18 मंडिकचौरचूणी नए वेहि कुम्मासेहिं सो साधू पडिलाहितो,भणियं चणेण-'धण्णाण सु नराणं कुम्मासा होज्ज मासगस्स पारणए',अविय देवताए अहासन्निहि ४ असंस्कृता IIयाए भण्णति-पुत्त । एतीए गाहाए पच्छिमद्धेणं जे मग्गसि तं देमि, 'गणिय च देवद दंतिसहस्स व रज्जच' देवयाए भण्णति अचिरा से भविस्सतित्ति, ततो गतो मूलदेवो बिनायडं, तत्थ खत्तं खणंतो गहितो, वज्झो गीणेति, तत्थ य अपुत्तो राया मतो, ॥१२०॥ आसो अधियासितो, मूलदेवसगासमागतो, पट्टदावणं, रज्जे अभिसित्तो, राया जातो, स पुरिसो सद्दावितो जेण सह उज्जेणीए आगतो, सो मेण भणितो-तुम्भंतणियाए आसाए आगतो अहं, इतराऽहं अंतरा चेव विवज्जतो, तेण तुज्झ एसमय गामो दत्तो, मा य मम सगास एज्जसुत्ति, पच्छा उज्जेणीएण रण्णा सद्धि पीति संजोएति, दाणमाणेण संपूरियं च काउं देवदत्ता णेण मग्गिय-| चि, तेण पच्चुवकारसंधिएण दिना, मूलदेवेण अंतेउरे छुढा, ताए समं भोगे झुंजति, अण्णया य अयलो पोतवहणेण तत्थ आगतो, सुके विज्जते भंडे, जाई पोते दवणूमणाणि ठाणाणि ताणि जाणमाणेण मूलदेवेणं सोऽवि गिहावितो, तुमे दव्यं णूमीज्जति, पुरिसेहिं बंधिऊण रायसगासमुवणीतो, मूलदेवेण भण्णति-तुम ममं जाणेसि ?, सो भणति-तुमं राया !, को तुम जण याणति ?, तेण भण्णति- अहं मूलदेवो, सक्कारेउं विसज्जितो, एवं मूलदेवो राया जातो, ताहे सो अण्णं णगरारक्खितं ठवेति सोऽवि ण सक्केति चोर गिहिउं, ताहे मूलदेवो सयं णीलकंबलं पाउणिऊण राति णिग्गतो, अणज्जतो एगाए सभाए निवष्णो | दि ॥१२०॥ अच्छति जाव सो मंडितचोरो आगंतुं भणति-को एत्थ अच्छति ?, मूलदेवेण भण्णति-अहं कप्पडितो, तेण भण्णति-एह मणुस्सं | ते करेमि, मूलदेवो उछितो, एगंमि ईसरघरे खच खयं, सुबहुं दब्बजातं जीणेऊण मूलदेवस्स उवार चडावितं, पडिया णगरबा -१८7-%ES दीप अनुक्रम [११६१२८] [133] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ॥११५१२७|| श्रीउत्तराहिरियं, जातो मूलदेवो पुरतो, पच्छतो चोरो, आसिणा कड्डिएण पद्वितो एति, संपत्ता भूमिघरं, चोरो तं दबं निहणिउमारद्धो, छन्दो. चूणों ह भणिता यऽणेण भगिणी-एतस्स पाहुणस्स पादे सोएहि, ताहे कूवतडसनिविढे आसणे उबवेसितो, ताए पायसोयलक्खेण । गहितो, जाव अतीव अतीव सुकुमारा पादा, ताए णायं-जहेस कोति भृतपुब्यो विहलितगो, ताए अणुकंपा जाता, ताए पाद| तले सणितो-नस्सत्ति, मा मारेज्जिहिसि, पच्छा सो पलातो, ताए बोलो कतो-गट्ठोति, सो असिं कविऊण मग्गिउं लग्गो, मूल- 12 देवो रायपहे अतिसणिकिट्ठ णाऊण चच्चरि सिवंतरितो ठितो, चोरो तं सिवलिंग एस पुरिसोत्तिकाउं कुंकुगिणेण असिणा दुहा-18 काऊण पभाताए रयणीए ततो निग्गंतूण गतो वीहिं, अंतरावणे तुण्णगतं करेति, राइणा पुरिसेहि सहावितो, तेण चिंतितं जहा सो पुरिसो ण ण मारितो, अवस्सं स एत्थं राया भविस्सतित्ति, तेहिं पुरिसहिं आणितो, राइणा अब्भुट्ठाणण संपूइतो, ॥51 II आसणे णिवेसाबितो, सुबहुं च पिय आभासिउं लग्गो, मम भगिणीं देहिति, तेण दिना, विवाहिता य, रायणा भोगा य से | *संपदत्ता, कइसुवि दिवसेसु गतेमु राइणा मंडितो भणितो-दध्वेण कज्जति, तेण सुबहुं दब्बजातं दत्त,अण्णया रायणा संपूड़तो.अनया पुणो || Bामग्गितो, पुणो दिण्णो, तस्स चोरस्स अतीव सक्कारसम्माणं पउंजति, एतेण पगारेण सर्व दबं दवावितो, भगिणी य से पुच्छिता, ताए भण्णति-एत्तिय वित्तं, ततो पुचावेदितलक्खणाणुसारेण दवं दवावेऊण मंडितो सूलाए आरोवितो, एस दिढतो, जहा मंडितो तेण ताब पूइतो जाव तत्तो लाभगो आसि, एवं सरीरमादि ताव आहारादीविधिहिवि घेप्पति जाव | ॥१२१॥ निज्जरालाभो, सम्मत्ते पच्छा परिवज्जति, स्यादेतत्-कोऽसौ परिज्ञाय मलं अवध्वंसयेदिति, उच्यते, णणु छदाणराधी परिष्णा इत्यतोऽपदिश्यते छंदो आहारे जीविते शरीरे अन्नेसु य बाहिरम्भतरेसु, एतस्स छन्दस्स निरोधण उदि मोक्वं, दीप अनुक्रम [११६१२८] [134] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत काभावः सूत्रांक [१] गाथा ||११५१२७|| श्रीउत्तराको दिढतो, उच्यते, 'आसे जधा सिक्खितवम्मधारी' अनाति अनुते वा अधानमिति अश्वः, येन प्रकारेण यथा, शिक्षित-18| पश्चाद्विवेचूणीं वान्, बियतेऽनेनेति वारयते वा वर्म तं वर्म धारयतीति वर्मधारी, दिद्रुतो- एगेण राइणा दोण्हं कुलपुत्ताणं दो अस्सा दिण्णा, || तत्थेगो जहिच्छितावसधं च जहाकालोवगेण इवेण जबसजोग्गासणेण संरक्खमाणो चचुरिचतलालतघाइयजइणवेगाअसंस्कृता.IN दीणि सिक्खाविति, वितिओ को एयस्स इट्ट जवसजोग्गासणं दाहितित्ति घरहे बाहेऊण ततो चेव जवसं जोगासणं देति, तुसे ॥१२२॥ खारेति, सेस अप्पणा मुंजति, संगामकाले उपट्टिते रण्णा बुत्ता-तेसु चेव आसेसु आरूढा संगाम वा पविसह, तत्थ जो सो पुच्च-15 विणितो आसो सो सारथिमणुअत्तिमाणो संगामपारतो जातो, इयरो य असम्भावभावणाभावितत्वात् गोधूमर्जतज्जुत्त इव तत्थेव भमिउमाढतो, तं च परा उवलक्खेउ हतसारथि काउं गृहीतवंतः, एत्थ पसत्थेण उपमा, आसे जहा सिक्खितवम्मधारी, लास्यान्मत केवचिरं सिक्खावेतवा ?; उच्यते, ण हि संगामंसि खित्तो जह सिक्खविज्जा, णिक्खिउं ण पुण सिक्खिज्जति, ण एवं इह, दुविहंपि सिक्खं सिक्खमाणो 'पुब्वाणि वासाणि चरप्पमत्तो' पूरयंतीति पूर्व, वर्षतीति वर्ष, ताणि पुव्वाणि वासाणी, | का भावना', पुन्य उसो जया मणुया तदा पुब्बाणि, जदा वरिसायुसो तया बरिसाणि, चरेदित्यनुमतार्थ, अप्रमाद एव इहाध्यIM यने वण्येते,तेनाप्रमत्तः मद्यादिभिः, तस्मादेतदप्रमादात् मुनिरिति, साधुरेव जणोर, खिप्पमिति एगेण भवेण उबेति-गच्छति मोक्ख-। सिद्धिमिति । अत्राह चोदक:- सक्कते मुहुर्त दिवस वा अप्पामादो काउं, जं पुण भण्णति-पुन्याणि यासाणि चरप्पमत्तो, एवतियं कालं दुक्खं अपमादो कज्जति, तेण पच्छिमे काले अप्पमादं करेस्सामि, उच्यते, 'सपुब्वमेवा ण लभेज्ज पच्छा,' लावृत्तं (१२३सू २२४ ) स इति निर्देश, तस्स पुर्वकालपमातिणो, एवमवधारणे, नैवासौ, न लभते, समाधिमिति वर्तते, आराधणं दीप अनुक्रम [११६१२८] REx ॥१२२॥ 10-15R [135] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] | गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति : [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: -BSPra प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥११५१२७|| ex वृद्धत्वे दीक्षा शावैफल्यं अविवेके त्राझणी श्रीउत्तराच, अहवा एवं उपमाने, एवमसी पूर्वकालप्रमादी अकतपरक्कमो ण लभे पच्छिमे काले समाधिमिति, उक्तब्च- 'पुब्बमकारितचूर्णी जोगो पुरिसो मरणे उपठिते संते । ण चइति व सहितुं जे अंगेहिं परीसहणिवादे ।। १ ।। 'एसोवमा सासतवातियाणं' युज्जत इति वाक्यशेषः, एप इति प्रत्यक्षीकरण, उपमीयते अनयेति उपमा, शश्वद्भवतीति शावतं तेषां एषा उपमा युज्जते, यथा-पच्छा असंस्कृता. धमं करेस्सामी, के य सासयवादिया ?, उच्यते, ये निरुव्वक्कमायुणो, ण तु जेसि फेणचुच्युयमंगुराणि जीविताणि, अथवा सासयवादी णिण्ण अप्पमत्तो कालो मरतो जसि एसा दिट्ठी, जो पुब्वमेव अकयजोगो सो ‘विसीयइ सिढिले आउयम्मि' विसेसेण सीदति सिडिलं सोचकर्म बहुअपाय, कालं काले कालेण वा उपणीतः कालोवणीतः, मरणकालमित्यर्थः, ' शरीरस्य | भेदो'त्ति शीर्यत इति शरीरं शरीरस्य शरीराद्वा भेदः, अथवा जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ भेदो-भिद्यत इति भेदः, एत्थ | दिढतो एक्केण राहणा. मेच्छाणं आगमणं जाणिऊणं विसए उग्घोसावितं, जहा पुरिसा (पणाणि)णि दुग्गाणि य समस्सीयउ, मा णे पामेच्छेहिं विणासिज्जिहिय , तत्थ केइ अबहाय वयणसम चव दुग्गमस्सिया, अण्णे पुण सयणासणवसहधण्णांइसु गिद्धा असद्दहंता ण खिप्पं दुग्गाणि समस्सिया, मेच्छा य उवगया, तत्थ जे दुग्गाणि न समस्सिया ते तु सयणभोगावभोगादिगिद्धा रायवयणं असद्दहंता, ते मेच्छेहि वेढिया विसीदति , पुत्तदारविभवभेदे वढते , एवम कृतपरिकर्मणि आयोज्यं । किंमचान्यत- स एवमकृतपरिकर्मा 'खिप्पं ण सकेति' वृत्तं ( १२ सू०२२४) क्षिप्रमहीनकालं, विविच्यते येन स विवेगः आहारोपकरणादिषु सक्तः पच्छिमे काले खिप्पं ण सकेति, अथवा सन्चस्सामण्णा एतप्पमादप्पमादाविविकाउं गिहत्था-1 विहु परं परारित्ति पञ्चइस्सामो सोऽवि जरापत्तो मरणकाले वा खिप्पं ण सकेति विवेगमेतुं पुत्रकलत्रादिसक्तः, जरादि RECE- स दीप अनुक्रम [११६१२८] ॥१२३॥ ३ [136] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||११५ १२७|| दीप अनुक्रम [११६ १२८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [ ४ ], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| निर्युक्तिः [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण ४ असंस्कृता. ॥ १२४॥ परीसहा सहिष्णुः तस्मात् ज्ञात्वा सम्यगुत्थानेन समुत्थाय अन्यान्यपि मिथ्यात्थानानि भवंति चोरादिक्रियासु कुप्रवचनेषु इहापि च निदानशल्यो वहतानि इदं तु परलोकाशंसां पति प्रहाणतण 'पयहाहि कामे प्रकर्षेण जहाहि कामा इत्थि विसया सेसदियभोगा, कामग्रहणेण भोगावि भण्णंति, खिष्पं ण सकेति विवेगमेति एत्थ उदाहरणं एगो मरुओ परदेसं गंतूण साहापारओ होऊण विसयमागतो, तस्सण्णेण मरुपण खपलालिओचिकाउं दारिका दत्ता, सो य लोए दक्खिणातो लम्भति, परविभवे वद्धति, तेण तीसे भारियाते सुबहृतं अलंकारं कारियं सा पिच्चमंडिता अच्छति, तेण भण्णति- एस पच्चंतगामो तो तुमं एताणि आभरणगाणि तिहिपव्वणी अविधाहि कहिंवि चोरा उपागच्छेज्जा तो सुहं गोविज्जति, सा भणति अहं ताए बेलाए सिग्यमेव अवणेस्संति, अण्णया चोरा तत्थ पडिता, ता तमेव य णिच्चमंडितागिहमणुपविट्ठा, सा तेहि सालंकिता गहिता, साय पणितभोयणत्वात् सोपचितपाणिपादा ण सकेति कडगादीणि अवणे, तओ चोरेहिं | तीसे हत्थे छित्तूण अवणीता, गिहिउं च अवर्कता एवं पुष्वं अकयपरिकम्मा पत्ते काले ण सक्केति विवेगमेतुं तम्हा समुद्वाय पहाय कामे, प्रजहाय कामान् किं कर्तव्यं ?, उच्छते समेत्यैव लोकं, अहवा जेण कामा चत्ता भवति तेण समिओ भवति, तं पुग समिच्च लोगं, सम्यक् एत्य समेत्य, ज्ञात्वेत्यर्थः पृथिवीकायादिलोकं, समभावो समता 'जह मम ण पियें दुक्खे' इत्यतः प्राणिनां दुक्खं न कर्तव्यं, महतं एसतीति महेसि, मोक्षं इच्छतीत्यर्थः, आत्मानं रक्षतीत्यात्मरक्षः, चरेदित्यनुमतार्थे, अत्रोदारण-एगा वणिय महिला पत्रसितपतिया सरीरसुस्सुसापरा दासभतकगम्मकरे निजणियोगेसु ण नियोजयति, ण य तेसिं कालो वनं जहि आहारं भर्ति वा देति, ते सच्चे णट्टा, कम्मंतपरीदाणीए विभवपरिहाणी, आगतो वाणियओ, तहाविधं परिसउण [137] आत्म रक्षायां वधूदाहरणं ॥ १२४॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ॥११५१२७|| श्रीउत्तरा०पच्छा सा तेण निच्छूढा, अनं तु सुपुक्खलेण सुंकण बरेति, लद्धा पणेण, तेण तसे नियगा भण्णंति- जति अप्पाणं स्पर्शजयः चूर्णी रक्खा तो परिणेमिति, संचय दुग्गतकण्णाए सोतुं णियगा भणति- रक्खीहं अप्पगंति, सा तेण विवाहिता , गतो वाणि-15 तुच्छ | ज्जेणे, सावि दासकभयकम्मगराण तं संदेसं दाउ तेसिं पुन्चण्डिकायि काले भोयणं देति, महुराहिं च वायाहिं बउहेति, मतिं । असंस्कृता. वा तेसिं अकालपरिहीणं देति, ण य सरीरसुस्वासापरा, एवमप्पाणं रक्खंतीए भत्ता उवागतो, सो एवंविहं परिसऊण तुही, ॥१२५॥ | तेण सव्वसामिणी कया, एचमिहापि पसत्यापसत्थे समोतारेयवं, कथमप्रमत्तमात्मानं रक्षेद, उच्यते, क्षणलवमुहूतेमप्रमादयन्, अप्रमत्तस्य हि सतो यद्यपि 'मुहूं मुहं मोहगुणे जयंत। वृत्तं ( १२५ सू० २२५ ) मुहुराडिते पुनः पुनमुंघते मुहंमुहूं, मोहगुणाः शब्दादयः जतंतन्ति, अणेगा इति अणेगलक्षणा, इट्ठा ये रोचयति रोचते रूवं 'समण'मिति समणाणं तरंतं कर्म, फासा फुसति-स्पृशंति, असमंजसा णाम अननुकूला, अनभिप्रेता इत्यर्थः, अथवा शीतोष्णदंशमशकादयः, ण तेसु भिक्षु मणसा पदुस्से, | पदा से असमंजसाः स्पृशति जहा सणा(दो), सेसावि विसया, एतेसिं पुणो विसयाण सव्वेसि दुरधियासतरा फासा, जतो व. |वदेस्सते 'मंदा य फासा बहुलोमणिज्जा ' वृत्तं (१२६ सू०२२६)मंदा णाम अप्पा, अथवा मंदंतीति मैदाः खियः, मंदाणं ला कासा २, मंदबुद्धित्वात, मंदा मंदा य फासा मंदसोक्खा बहू फासा, पायाइबक्खालाच मंदा, पठ्यते च 'मंदाउ तदा हियस्स बहुलोभणेज्जा' मंदाः स्त्रियस्ते हि बहूनां कामिना लोभं कुर्वति, विभ्रमेंगिताकारादिभिः प्रकारों में कुर्वति, तेन प्रकारेण ॥१२५। का तथा, तहप्पगारा- तहावत्था, अंत दुःखदा इत्यतः तासु मणपि न कुज्जा, किं पुण आसेवर्ण ?, एग्गगहणे तज्जातीयगहणंति, 181 ट्र सेसेवि वयातियारे ण कुज्जा, उक्ता मूलगुणरक्खा, इमं तु सम्मइंसणरक्खत्थं उवदिस्सति 'जे संखता' वृत्तं, (१२७ सू०२२७) 4 दीप अनुक्रम [११६१२८] SHRESEARS %AE% % [138] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [४], मूलं [१...] / गाथा ||११५-१२७/११६-१२८|| नियुक्ति: [१७९...२०८/१७९-२०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक मरणे [१] भेदाब गाथा ॥११५१२७|| श्रीउत्तराजे इति निर्देशे, संस्कृता नाम संस्कृतवचना सर्वशवचनदत्तदोषाः, अथवा संस्कृताभिधानरुचयः, तुच्छा णाम आसिक्खिता इति, II चूणी प्रवदनशीलाः प्रवादिनः, ते पेज्जा प्रेम्णो भावः पेज्ज, दोषणं दोषः, अनुमता अनुसूता, परज्झा परवसा रागद्दोसबसगा अजिति निक्षेपा ५ अकाम-17 |दिया, अतो 'एते अधम्मात्ति दुगुंछमाणा 'एते इति ये ते रागहोसपरज्झा अधम्मा य ते, न मोक्षाय, अथवा जो एतेसि मरणे सह संसर्गः तदशर्नाभिरुचिर्चा एतं अधम्मोत्ति दुगुंछमाणो, उक्तं हि. 'शंकाकांक्षाजुगुप्सा' 'कंखे गुणे' णाणसणचरित्त॥१२६॥ | गुणे, केच्चिरं कूरिछतब्वं , उच्यते, 'जाव सरीरभेदो' तिबेमि, भिद्यते इति भेदः जीवो वा सरीरातो सरीरं वा जीवातो।। तिबेमि णयाः पूर्ववत् । असंखतं सम्मत्तं । इइ असंखयाहिहाणचउस्थायणस्स चुण्णी समत्ता॥ एवं अप्पमत्तेण जाव मरणता ताव कुच्छितब्बति णाम, मरणान्तमितिकृत्वा मरणविधिरभिधातव्यत्यनेनाभिसम्बन्धेनाध्ययनमायात, तस्स चत्तारि अणुयोगदाराणि, सव्वं परूवेऊण णामणिप्फम्रो निक्खेवो अकाममरणेज्ज, ण काम अकाम, तत्थेग कामं निक्खितव्वं 'कामाणं तु णिक्खेवो' गाहा (२०८-२२९) कामा चउबिहा- णामादिकामा 'पुब्बु दिहि' ति जहा सामन्नपुब्बए, णचरं एल्थ अभिप्पेतकामेहिं अधिकारी, अभिप्पेतं णाम इच्छाकामो, अकामो सकामो| लवा जो मरणं मरति तं मरणं छब्बिई- णाममरणं ठवणा० दव० खेत्त. काल. भावमरणं, णामठवणातो गतातो, 'दश्चमरणं कुसुम्भादिएसु' गाथा (२०९-२२०) दब्बमरण जहा- मतं कुसम्भगमरजगं, मृतमन्त्रसामव्यंजन, एवमादि, खेत्तमरणं जो जीम खेते मरति मि वा खेते मरणं पबिज्जति, कालमरणं वा (जो जमि) काले मरति जंमि २६॥ वा काले मरणं वमिज्जति, भावमरणं वाऽऽयुखयो, तं भावमरणं दुविध-ओहमरणं तन्भवमरणं च, ओघमरणं ओघः संक्षेपः Ca75555 दीप अनुक्रम [११६१२८] FOREHOREONE अध्ययनं -४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -५- "अकाममरणीय" आरभ्यते [139] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तरा | पिंड इत्यनर्थान्तरं, जहा सव्वजीवाणवि य णं आयुक्खए मरणंति, तब्भवमरणं जो जंमि भवग्गहणे मरति मेरइयभवग्गहणादि, चूर्णी एत्थ पुण मणुस्सभवग्गहणेण अधिकारो।। तस्स पुण एयाता दो दारगाथाओ, तंजहा 'मरणंमी(प)विभत्ती' गाहा(२१०-२३०) निक्षेपा ५ अकाम-11'मरणमिवि एकमेक्के' गाहा(२११-२३०) मरणविभत्तिपरूवणा, अणुभावो, पदेसग्गं३ कइ मरतित्ति, कतिखुत्तो वा एक मरंति,ला भेदाच मरण एकेके मरणे कतिभागो भवति सबजीवाण६,अणुसमयं समयंसंतरं वाटएकक वा केच्चिरं कालं मरति,एवमेदाणि णव दाराण, ॥१२७॥ तत्थ पढमं दारं मरणविभचीपरूवणाच, एयाण तीहिं गाहाहिं उवसंगहिताणि भवंति-तंजहा 'आवीइ' (२१२।२३०) 'छउमत्या (२१३-२३०), सत्तरस'(२१४-२३१)आवीचियमरणं अवधिमरणं आदियंतियमरणं वलायमरणं वसट्टमरणं५ अंतोसनमरणं तम्भवमरणं में बालमरणं पंडितमरणं बालपंडितमरणं १०छउमस्थमरणं केवलिमरणं वेहाणसमरणं गद्धपद्रुमरणं भत्तपरिबा१५इंगिणी पाउवगमणत्ति, तथा आवीचीमरणगाहा-'अणुसमय णिरंतरं' गाहा (२१५-२३१)आवीचीनाम निरंतरमित्यर्थः, उववचमत्त एव जीवो अणुभावपरिसमाप्तेः निरंतरं समये समये मरति, तं च पंचविधं दवावीचियमरणं खेत्तावी कालावी. भवावी. भावावीचियमरणं, दव्याचीचियमरणं चउविहं तं०-णेरहयदव्या चियमरण जाव देवद व्याविचीयमरणं, जंणेरइया णेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दबाई लाणेरइयाउअताए गहिताई ताई दवाई आवीचि अणुसमयं णिरंतरं मरतीतिकटु णरइयदव्यावीचीमरणं, एवं जाव देवाणवि। खेत्ता-13 वीचियमरणं चउब्बिह- तंजहा- नेरयइखेत्तावीचियमरणं,जे ण नेरइया नेरइयखेचे वट्टमाणा जाई दव्याई परइयाउयत्ताए गहिताई X ॥१२७॥ | सेसं जहा दय्यावीचियमरणे, कालेवि चउविहो, नपरं नेरइयकाले वकमाणो जाई दव्वाई सेसं तहेव, एवं भावआवीचिमरणेवि, लपवरं जण्यां परइयभारे वट्टमाणा जाई दवाई सेसं तहेव । इदाणिं ओहिमरणं, (२१५०-२३२) अवधिमर्यादायां, अवधिनाम यानि दीप अनुक्रम [१२९१६० [140] Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [9], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| भेदाच श्रीउत्तराद्रव्याणि साम्प्रतं आयुष्कत्वेन गृहितानि पुनरायुष्कत्वेन गृहीत्वा मरिष्यति, इत्यतो अवधिमरण, तंपि पंचविध, तं०-दव्वो खेतो चूर्णी कालो भवोधि मावाहिमरणे, दव्योधिमरणे चउविधे-णेरइया णेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई संपई सरंति, जणं णेरइया ताई दबाई RI निक्षेपा ५अकाम अणागते काले पुणोवि मरिस्संति नेरइए, एवं सेसावि, खेत्तोवधिमरणं चउब्विहं एमेव, गवरं जण्णं णेरइया णेरइयखेचे वट्टमाणात मरण एवं णेरइयकाले वट्टमाणा णेरहयभवे णेरइयभावे वट्टमाणा. ओहिमरणं गतं । इदाणिं आदियंतियं मरणं (२३३-२३१) आत्यंतिकं ॥१२८॥ अवधिमरणविपर्यासाद्धि आदियंतियमरणं भवति, तंजहा- यानि द्रव्याणि सांप्रतं मरति, मुंचतीत्यर्थः, न ह्यसौ पुनस्तानि मरि-14 प्यति, तंपि पंचविहं-णेरइयदच्यातियंतियमरणं०, जे पेरइयदच्चे वट्टमाणा जाई दबाई संपर्य मरंति ताई दवाई अणागते कालेण पुणो । ण मरिस्संति तं रहयदष्वातियंतियमरणं भवति, एवं सेसाणवि, एवं खेनेवि कालेवि भवेवि भावेवि, आतियतियमरणं गतं ।।161 | इदाणिं वलायमरणं- 'संजमजोगविसमा मरंति जे तं चलायमरणं, जेसिं संजमजोगो अस्थि ते मरणमब्भुवगच्छति, ण सव्वथा संजममुज्झति, से तं बलायमरणं, अथवा वलंता क्षुधापरीसहेहिं मरंति, ण तु उवसग्गमरणति तं वलायमरणं । इदाणिं वसट्टमरण'इंदियासितवसगता' गाहा ( २१७-२३२)जे इंदियविसयवसट्टा मरति तं बसहमरणं, तद्यथा-बलभो रूववग्गो चक्षुरिंद्रियवशाों नियंते, एवं शेषेरपींद्रियैः (शेषाः) । अंतोसल्लमरणं 'लज्जाए गारवेण' गाहा (२१८-२३२) 'गारव' (२१९-२३२) एवं ससल्ल (२२०-२३३) गाहातयं सिद्धं, एवं अंतोसल्लमरणं, इदाणिं तम्भवमरण भवति, तं केषां भवति केप न भवतीत्युच्यतेकामोत्तूण कम्मभूमय' गाथा ( २२१-२३३ ) कंठ्या, केसिंचित्ति मनुष्याणां तिरिक्खजोणियाण च, सिंचि, ण सव्वेसामेव, 18In ॥१२८॥ गतं तब्भवमरणं । इदाणि मालमरणं, असंजममरणमित्यर्थः । पंडिताण मरण पंडितमरणं, विरतानामित्यर्थः, मिस्सा णाम बालपं. दीप अनुक्रम [१२९१६०] [141] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तरा०डिताः, संयतासंयता इत्यर्थः, तस्स मरणं बालपंडितमरणं, छउमत्थमरणं छउमत्थसंयताण मरणं जाव मणपज्जवणाणीण, केवलिणं | मरणे चूर्णी मरणं केवलिमरणं ॥ गेद्धपट्ठ णाम मृतशरीरमनुप्रविश्य गृद्धद्वाराऽऽत्मानं भक्षयति, वेहाणसं नाम उम्बंधणं, आदिग्गहणेणं उस्सासणि-181 निक्षेपा ५ अकाम- रोधा, एते उण गिद्धपुट्ठयेहाणसमरणा कारजाते अणुण्णाता, "भत्तपरिण्णा इंगिणि' गाथा (२२५-२३५) भचपच्चक्खाणं णाम | भेदाच मरण केवलमेव भत्तं पच्चक्खातं, ण तु चक्रमणादिक्रिया, पाणं वाण णिरुभति, इंगत इति इंगिणी, चलतीत्यर्थः, न चाहारयति चतुर्वि॥१२९॥ IX धमपि,पायव इव (उवगमणं) पाओवगमनं, हत्थाइहिं छिन्नो दुमो वन चलति,मरणविभत्तिपरूवणत्ति पढम दारं गत।। इदाणि * अणुभागनि, तत्थ गाहा-सोवक्कमो य निरुवकमो य' गाथा (२२६-२३७) दुविहो मरणाणुभागो भवति, तंजहा-सोवक्कमो मानिरुवक्कमो य,अणुभागोत्ति वितिय दारंगत।। इदाणि पदेसग्गा, अर्णताणता आयुगकम्मपोग्गलाहिं एगमेगो जीवपदेसो बढिय४ परिवेढितो,पदेसग्गत्ति तइयं दारं गतं । इदाणिं कति मरति एगसमएणंति-'दोन्नि व तिमि य' (२२७-२२९ । २३७) *तस्थावीयीयमरणं ताव णियमा मरंति सम्धे, तबज्जा शेससु आदिअंतिएम सिया मरंति, जत्व पुण ओही तत्थ आइयतिय यणस्थि, जत्थ बेहाणसं तस्थ गद्धप8 णस्थि, एवं पालपंडितमिस्साणिषि परोप्परविरुद्धवाणि, छउमत्थकेवलिमरणा य विरुद्धा, सेसाणि बुद्धया पेक्षाणि, कइ मरति एगसमएणति चउत्थं दारं गतं । इदाणि कतिखुत्तो एकेके मरति,एत्थ अप्पसस्थाण संखेज्जामणि वा असंखज्जाणिवा, संखेज्ञआणि ताव पंचीदयाणं देसविरतदसणसावगस्स, सेसाग पुढविआउतेउवाउदियतेंदिय चउरिदियाइएमु असंखेज्जाणि, चणस्सइकाइयाण अर्णताई अप्पसत्थाई, पसत्थाई सत्त अहवा, अहवा केचलिमरण एग, कइखुत्तो एक.कमर इत्ति गये । इदाणि कति भागा एक्कक्के मरणं मरइत्ति, तत्थ पढमे मरणे अणंतभागूणसधजीवाण मरणं, दीप अनुक्रम [१२९१६०] % [142] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] | गाथा ||१२८१६०|| | मरणे श्रीउत्तरा | सेसेसु पुण मरणेसु अर्णतभागो मरइ, तत्थ गाहा-'मरणे' (२३१-२३९ ) बद्धया प्रेक्ष्य । इदाणि अणुसमयंति, पढमं जाव आयुगेजिनाक्तता चूर्णा धरेति, सेसाणं एक्कसमयं जहिं मरति । इदाणि अंतरं-पढमचरिमाणं णत्थि अंतर, सेसाण जच्चिरं काळं अंतर होति । ५ अकाम इदाणि केवइयत्ति केवतिय कालं भवति, बालमरणाणि अणादीयाणि वा अपज्जवसिताणि, अणादियाणि वा सपज्ज-र वसिताणि, पंडितमरणाणि पुण सातियाणि सपज्जवसियाणि, 'सव्वे दारा एते' गाथा (२३२-२४०) कंठ्या । 'एत्थं पुण अधिगारो गाथा (२३५-२४१) एत्थ अहिगारो मणुस्समरणेणं, (२) दुविध- सकामं अकामं च, मोतुं अकाममरण सकाममरणेण मरियञ्च । गतीणामनिष्फण्णो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारतव्वं, तं इम-'अण्णवं' सिलोगो (१२८सू०२४१) अणेवो Bामन्यते मन्यंति वा तमिति महान् महंति वा तमिति, महांश्चासौ ओघश्च महौषः, तत्र द्रव्यमहार्णवः समुद्रो भावमहार्णवो भवः, महौषो नाम अनोरपारो, अगाधं अप्रतिष्ठानमित्यर्थः, तस्मिन् अर्णवे महोघे बहुसु पवादिषु एगोतरति दुत्तर,एगो नाम रागदोसविरहितो, अहवा कम्ममलावगमना यदा शुद्धमेबंग जीवदन्वं भवति तदा तरति, दुक्खं उत्तरिज्जतीति दुरुत्तरे, कम्मगुरुत्वात् IN संसारिभिः अपरिमाण्यात् , अनुमानतश्च यस्तु तरति वीर्णो वा तत्धेगे महापण्णे, वर्तमानकालग्रहणं तरन्नेवासौ धम्मदेसणं ल करोति, ये तु निष्ठोच्चारणं कुर्वते ते अज्ञानोघतीर्थादुत्तर(चीः )तत्र तरबपि सर्व एव धर्मदेसणं करेति,जतो विरुद्धं धीयमानं,तत्थेगे महापण्णा, तस्मिमिति संसाराणये व्यवस्थितः, एक इति स एव रागद्वेषरहितः, न अन्नपाणादिहेत, अथवा संसारार्णवं तमवाप्यापि | कश्चित् एव धर्म देशयति, तद्यथा- तीर्थकरः, अपरे हि केवलमवाप्यापि नैव धर्म देशयंति, तद्यथा- प्रत्येकबुद्धा, वित्थकरो णियमा | धम्म देसति, सेसा साधु भयणीया, स एकः महती प्रज्ञा यस्य स भवति महाप्रज्ञा, इदं पट्टमुदाहरे स्पष्टं नामासंदिग्धं उदाहृतवा दीप अनुक्रम [१२९१६० । ACCR ॥१३॥ [143] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: विमामा प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| 4 श्रीउत्तरान , पठ्यते च 'इदं पण्हमुदाहरे' पृच्छंति तमिति प्रश्नः, किमुदाहेर?, 'संतिमे खलु दुवे ठाणा'सिलोगो (१२९सू० २४१) संति | | सकामाचूर्णी विद्यते, दुवे इति संख्या, तिष्ठति यत्र तत् स्थान, आख्याताः प्रथिता, मृत्युमरणं अमनमंतः मरणांते भवा मारणान्तिकाः, तद्यथा-| काम१ अकाम- अकाममरणं चेव सकाममरणं तथा, अकामस्स मरण अकाममरणं,सकामस्स मरणं सकाममरणं, एतं दुविइंपि मरण कस्स भवति, मरणे तत्स्वाउच्यते 'यालाणं अकामं तु सिलोगो (१३० सू० २४२) द्वाभ्यामाकलितो वालो, रागद्वेषाकुलित इत्यर्थः, ते हि बाला अकामा मिनः ॥१३शामरंति, न उस्सवभूतं मरणं मनंति, तत्थ असकत-अनेकशः, पापाड् डीनः पंडितः, पंडा या बुद्धिः तया इत: अनुगतः पंडितः तेर्सि पंडितानां सकाममरणं, तं तु सति-उकोसेण एकसिं भवति, तं केवलिन:, असौ हि तं मरणं नेत्येव इत्यतः सकाममरणं, कामं जीविते मरणे वाऽप्रतिबद्धाः अकेवलिनोऽपि, तहाविदीहं संजमजीवितमपि नेच्छति, किमु भवग्गहणजीवितं , एतेसि अकामसकाममरराणानां किमंग पढम भाणितध्वंति, उच्यते, 'तथिमं पढमं ठाणं' सिलोगो (१३१ सू०२४२) तस्मिन्निति-तस्मिन् मरणविभागे 4|इममिति प्रत्यक्षं हदि व्यवस्थाप्य भणति- पढममिति, यतो द्वितीयाद्यत् प्रथमं तत, स्थाप्यत इति स्थान, महंत बीरियं जस्स सो| महावीरो तेण महावीरेण, देसियं परूवितं अक्खातमिति, काम्बत इति कामः, गृध्यत स्म गृद्धा,यथा येन प्रकारेण बालो भवति, संति अत्यर्थ अतिरुद्राणि कर्माणि कुब्वति-कुर्वति ।। 'जे गिद्धे कामभोगेहिं सिलोगो (१३२ पू०२४२) जे इति अणिद्दिडस्स उद्देशे, | गृध्यते स्म गृद्धः,काम्यन्त इति कामाः,गुज्जत इति भोगाः,कामा इति विसयाः,भोगाः सेसिदियविसया,कामा य भोगाय कामभोगाः तेस॥१३१॥ | कामभोगसु,एगो एको नाम चालः,अथवा एकं मरणमवाप्य सुहद्धनधान्यान्यवहाय कूडाय गज्छति, कूडं नाम एव ( यंत्र) यत्र ते पापाकर्मण्यवोध्य(भिर्याध्य)ते,तत्र कूडबद्ध एवं मृगानरकपालव्याधैर्हन्यमानो दुःखमुत्तरति,अथवा कूडं दुविहं-दबकूडं च भावकूडं च, | HERat % A A दीप अनुक्रम [१२९१६० iO04-04-in-tra -- - - [144] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: | प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तरा० दबकूडं यत्र मृगादयो बध्यन्ते, भावकूडं विषयापातो, तानासवतेत्यर्थः, स च कामभोगातिप्रसक्तः यदि परेणोच्यते ( तदा वक्ति- बाल प्रवृत्तिा चूणी न मया दृष्टः परो नरकादिः लोको भवो, विषयरतिस्तु दृश्यते, पश्यति) येन तच्चक्षुः तेण देवा चक्षुदिठ्ठा, इमा इति प्रत्यक्षीकरणे, | ५ अकाम येयमिष्टविषयप्रीतिप्रादुर्भावात्मिका रतिः, अप्येवं 'हत्यागता इमे कामा' (१३३ सू०२४३) हसंति येनावृत्य मुखं मंति हति मरण चा हस्ताः, कश्चित्तु जातिमरणादिभिरुपपादितपरलोकसद्भावः ब्रूते- कामं परलोकोऽस्ति, तथापि हस्तागताः- हस्तप्राप्ता, न दूरस्था | ॥१३२॥ इत्यथैः, कालेन भवा:कालिकाः, इमे हि आता प्रत्युत्पन्नाः साम्प्रतमेव भुंजंति, दिव्यास्तु कालान्तरेण भविष्यति वा नवा, न हि Vाकश्चिद मुग्धोऽपि ओदनं बद्धेलनक मुक्त्वा कालिकस्योदनस्यारंभ करोति, अबरस्तु संदिग्धपरलोक आह-कोजाणाति परे लोको, डोजानातीत्याशंकायां, को जानातीति तच्चतः, तेण परलोको अस्थि वा णस्थि वा, इत्येवमस्मिन् संदिग्धेऽर्थे णणु 'जणेण सर्टि होक्वामि' सिलोगो (१३४सू०२४४) जायत इति जनः तेन सह परत्र भविष्यामि, एवं बाले पगम्भति, प्रगल्भति णाम धृष्टो भवति, करिष्यमाणकुर्वत्कृतपु च प्रगल्भीभृतो कामभोगाणुरागण कामणुरागण केसं संपडिबज्जति इह परत्र च ॥ ततो से दंड-14 मारभति' सिलोगो (१३५सू०२४४) प्रगल्भभावात् असाविति स चालः, देव्यतेऽनेनेति दण्डः, समित्येकीभावे, एकीभावन आरमति समारभति 'तसे सुथावरेसु यंत्रसी उद्वेजने, वसंतीति त्रसाः, ष्ठा गतिनिवृत्तौ, तिष्ठतीति स्थावराः 'अट्ठाए अणहाए य' यनि तेन इच्छंति वा तमिति अर्थः, अट्ठाय नाम यदात्मनः परस्य वोपयुज्जत, तद्विपरीतमनाय, केवलमेवमेव हंति न तदुपभोग |* ॥१३२॥ करोति, अत्रोदाहरणं-जहा एगो पसुवालो प्रतिदिन प्रतिदिनं मध्याहगते रवी अजासु महान्यग्रोधतरुसमाश्रितासु तन्थुत्ताणओ | निवन्नो वेणुविदलन अजोगीर्णकोलास्थिभिः तस्य वटस्थ पत्राणि छिद्रीकुर्वन् तिष्ठति, एवं स वटपादपः प्रायसः छिद्रपत्रीकृतः, दीप अनुक्रम [१२९१६०] [145] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥१२८ १६०|| दीप अनुक्रम [ १२९ १६०] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययन [ ५ ], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| निर्युक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० ॥ १३३ ॥ अण्णदा य तत्थेगो राइयपुत्तो दाइयधाडितो तं छांय समस्सितो, पेच्छते य तस्स वडपादवस्स सव्वाणि पत्ताणि छिद्दताणि, तेज चूणौं ५ सो पसुपालतो पुच्छितो केणेताणि पत्ताणि छिद्दकताणि १, तेण भण्णति मया एतानि कीडापूर्व छिद्रितानि तेण सो बहुणा ५ अकाम- दव्वजातेणं विलोभेउं भण्णति-सकेसि जस्स अहं भणामि तस्स अच्छीणि छिदेउ?, तेण भण्णति-वुड भासत्थो होउ तो सकेमि, तेण मरणे नगरं णीतो, रायमग्गसंनिकिट्टे घरे ठवितो, तस्स य रायपुत्तस्स राया स तेण मग्गेण अस्सवाहणियाए णेज्जति, तेण भण्णति४२ एयरस अच्छीणि फोडेहि, तेण गोलियधणुयपण तस्सऽहिगच्छमाणस्स दोषि अच्छीणि फोडिताणि, पच्छा सो रायपुत्तो (राया) जातो, तेण पशुपालो भण्णति ब्रूहि वरं किं ते प्रयच्छामि, तेण भण्णति मज्झ तमेव गामं देहि, तेण से दिनो, पच्छा तेण तम्मि पच्चं तगामे उच्छु रोवियं तुंबीओ य, निष्पन्नेसु तुम्बाणि गुले सिद्धित्तु तं गुडम्बयं भुक्त्वा भुक्त्वा गायते स्म 'अहमपि सिक्खेज्जा, सिक्खियं न निरस्थयं । अट्टमट्टप्पसाएण, भुंजए गुडतुंचयं ॥ १ ॥ तेण वाणि वटपत्राणि अणट्टाए छिद्रितानि, अच्छाणि तु अट्टाय, भूतग्गामं चोदसविहं-- सुहुमा पज्जत्तयापज्जत्तया बादरा पज्जत्तयापज्जत्तया दिया पज्जचयापज्जत्तया तेइंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया चउरिंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया असन्निपचंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया सनिपंचेंदिया पज्जत्तयापज्जत्तया एवं चोदावपि विविधं अनेकप्रकारैः हिंसइ, एवं सो रहा (५) 'हिंसे बाले मुसावादी' सिलोगो (१३६ सू० २४५ ) जहा से अडाणट्टाए हिंसति तथा मुसावाते अड्डाणहाए कूडसक्खिमाति करेति मीयतेऽसौ मीयते वाऽनयेति माया, प्रीतिशून्य इति पिशुनः शख्यते शयतीति वा शठः, शठो नाम अन्यथा संतमात्मानमन्यथा दर्शयति, मौ (मं)डिकचैौरवद, भुंजमाणे सुरं मंसं मन्यते स भक्षयिता येनोपभुक्तेन बलवन्तमात्मानमिति मासं एतदेव श्रेयो मन्यन्ते परलोक्खान्यपि तावन्न प्रार्थयति [146] अन पशुपालः ॥१३३॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तराकिमु मोक्षामिति, स एवं भोगेऽवित्प्तात्मा 'कायसा वयसा मत्ते' सिलोगो ( १३७ सू०२४५)अहो मम सरीरबलं वीरिय-11 अस्स्सचूणा बिलं बा, तथा बुद्धिर्मनो वाग्वा शोभितेति मत्या मत्त, विच नाम धणं विभवो वा तेण वा मत्तः, गृद्धश्च स्त्रीपु, 'दुहतो मलं| कवत पापानां "IA|संचिणति' द्विधा दुहओ मृद्राति तमिति मलं, स्वयं कुर्वन् परैश्च कारयन्, अथवा अंत:करणेन बाझेन वा, तत्रान्तःकरणं नाम || मरणे मला मनः बाह्यं वाचिकं, अथवा रागेण द्वेषेण च, अहवा पुग्नं पार्य च, अहवा इहलोयबंधणं पेज्जं च, सम्म चिणाति संचिणाति, शंसति ॥१३४॥ ॥राव तेनेति शिशुः बाल इत्यतः, नास्य अगम किंचिनागः, शिशुरेव नागः२ गडपद इत्यर्थः, मृद्यति तामिति मृत्तिका, स हि शिशुः। नागः मृदं भुक्त्वा अंतो मलं संचिणति बहिवार्द्रभावत्वाद् देहस्य, स हि पांशूत्करेषु सर्पमाणः सर्वो रजसा विकार्यते, ततो धर्मरश्मिकिरणरापीतस्नेहः ताभिरेव पहिरंतश्च प्रतप्ताभिमुद्भिः, शीतयोनिनिर्दद्यमानो विभाष्यमामोति, एष दृष्टांतः, उपनयस्तु । | एवमसावपि बाण(ल)स्वेऽपि सुसंचितमलाइहैव मारणांतिक रोगैरमिभूयते, कथं तत्र भविष्यामः, न हि पापकर्माणः सुखA मृत्यवो भवंति, ते हि तैः पापकर्मभिः प्रत्युद्गतैरिहैव शुष्यति ॥ ततो पुट्ठी आतकेहिं' सिलोगो (१३६ सू०२४५) तत:-14 तस्मादिति प्राक्पापकर्मोदयात् स्पृष्टवान् स्पृष्टः, तेस्तैर्दुःखप्रकारैरात्मानं तंकयतीत्यातंकः, तथाप्यंतकाले सर्वग्लानवान् ग्लानः | समंताचप्पत इति परितप्यति, बहिरंतश्चेत्यर्थः, एवं 'पभीतो परलोकस्स' भृशं भीतः प्रभीतः, परलोकभयं नाम नारकादि-2 |प्वनिष्टवेदनोदयः, 'कम्माणुप्पेही ताणि विहिंसादीनि दुश्चरितानि कर्माण्यनुप्रेक्षमाणः अनुचिंतयन इत्यर्थः, अप्पा आत्म-|| ॥१३४। निर्देशः, यद्यप्यसद्गृहात् विषयभयाद्वा प्राक् परलोकं न गणितवान् परलोके भयंति च, तथाऽप्यंतकाले सर्वस्यासन्नभयस्य(स्यात्) उत्पद्यते परलोकभयं वा, तथापि भूयिष्ठेषु नरकदुःखेषु भयमुत्पद्यते, तद्यथा- 'सुता मे णरण ठाणा' सिलोगो दीप अनुक्रम [१२९१६०] 3 [147] Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [9], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: पापा प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तरा० चूर्णी ५ अकाम मरणे ॥१३५॥ (१३९सू०२४६) दीयते पापकर्माण इति नरकाः, तिष्ठति तस्मिन्निति स्थानं, तत्र रौरवमहारौरवलोलुगक्खदुक्खडादीनि नामपि अथवा कुंती वेयरणी य वा, शीलयतीति शील, अशोभनशीला इत्यर्थः, अथवा शुभं शीलं येषां नास्ति तेऽशीला:, तुर्विशेषणे, परलोक किं विशेषयति?- निरयगतिगमणं, अशीलानां तु जा गति 'यालाण कूरकम्माणं' कूतन्तीति क्रूराः पापा इत्यर्थः, हिंसाकम्में नरकभयं प्रवृत्ताः क्रूरकर्माणः, पगाढा णाम पिरंतराः, तीव्राः उकडा, जत्थेति यत्र, वेद्यत इति वेदनाः शीता उष्णा च, अथवा शारीरमानसाः, 'तत्थोववातियं ठाणं' सिलोगो ( १४० सू०२४७) तत्थेति नरकेषु, उपेत्य तस्मिन् प्रपततीति अपातः, उपपातात्संजातमोपपातिकं, न तत्र गर्भव्युक्रांतिरस्ति येन गर्भकालान्तरितं तन्नरकदुःखं स्यात्, ते हि उत्पन्नमात्रा एव नरकवदनाभि| रभिभूयन्ते, यथा-येन प्रकारेण 'मे' इति मया 'त' मिति तं नरकदुःखं अणुस्सुतं परलोकभीरुभिः साधुभिराख्यायमानं अनुश्रुतं, अथवा वालादयोऽपि सम्प्रतिपद्यन्ते यथा पापकर्माणो नरकोपगा भवंति, ते य 'आधाकम्मे हिं गच्छन्ति' आधाय कर्माणि आधाकम्माणि अतः तेहिं आधाकम्मेहिं यथाकर्मभिः, आधाकम्मेहिं तीस्ता वेदनेषु || चिरस्थितीयेषु च, एवंविधमध्यमामध्यमेष्वपि, स एवं परितप्पति, को दृष्टान्तः?- 'जहा सागडिओ जाणं' सिलोगो (१४१सू०२४१) येन प्रकारेण यथा, शक्यते धनं धान्यादि वोढुं शकट,शकटेन चरति शाकटिका, जाननिति जानानः, सम्ममिति पर्वतगारहितं, हिच्चा नाम हित्वा,महंतीति महान्,पथ्यतेऽनेनेति पथः, महांश्वासौ पचवर राजयतिनीति शकटपथो वा, विसमें ॥१३॥ मग्गमोगाढा अयाणओ थाणुबहुले पत्थरखाणुबहुले वा आरूढः प्रपन्न इत्यर्थः, अहवा उगाढे उत्तिन्नो बा, अश्नुत इत्यक्षः अक्षस्य भंगे शोचत इति शोचयति-जतिऽहं खु एएण पहेण ण गच्छंतो ण मे सगडभगो दन्यविणासो वा होतो,एवं सोयति, दिटुं दीप अनुक्रम [१२९१६०] [148] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] | गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| मरणे श्रीउत्तरा० तस्स उपसंहारो मो-एवं धमषियो' सिलोगो (१४२ सू०२४१) एवं अनेन प्रकारण, धारेति संसारातो पडमाण धम्मो, चूर्णी | | सो दसविधो समणधम्मो, विविधैः प्रकार उत्क्राम्य, अधम्म-धम्मपडिचक्खो अधम्मो, सो य हिंसे पाले मुसाबादी, तं पडिव-II ५ अकाम | ज्जिया, पालो मच्चुमुहं पत्तो मरणं मृत्यु,खद्यते तत् खतंते वा तं इति मुखं,मृत्योर्मुखं२,प्राप्तवान प्राप्तः, स यदा मृत्योर्मुखं प्रातः 'अक्खभग्गे व सोयति' एवं-सोवि एवं मरणसंनिधौ वेदनादिभिः स्वकर्मभिरात्मानमनुशोचमानः॥'ततो से मरणतमि' ॥१३६॥ सिलोगो (१४३ सू०२४८) तत इति तस्मात्,मरणमेवांतः मरणांतः, वाल उक्तः,समंता त्रसति संत्रसति, विभ्यते येन तद्भव, कतर स्मात्, परलोकभयात्, मारऊण अकामं तु- मरमाणे अकामत एव प्राप्त, अतिक्रांतकालग्रहणं क्रियते, कश्चिदिह भूयिष्ठपापकर्मा | नैव परितप्पते, सतु मरिऊणं अकामं तं नरकं प्राप्य परितप्यतीति वाक्यशेषः, भृशं तप्यति परितप्यते, धुत्ने वा कलिणाऽनुजितोऽनुशोचति, 'एयं अकाममरणं' सिलोगो (१४४ सू०२४८) एतोऽस्मात, शेष कंव्यं, 'मरणंपि सपुन्नाणंद सिलोगो (१४५ मू०२४८) म्रियते येन तन्मरण,पुणातीति पुण्यं, सह पुण्येन सपुण्य, अपिरनुज्ञायां, मरणमपि तेषां जीवितवद्भवति, न हि ते तस्मात् उद्विजंते, उक्तं हि-'पूर्वप्रेषितपरिजनमुपवनमिव सर्वकामगुणभोज्ज। सुखमभिगच्छति पुरुषः परलोकम(क) लसंचितैः पुण्यैः॥१॥'जहा मेतमणुस्सुतं' ति यथा मया तदेतदनुश्रुतं आचार्यपारंपयोत्, स्यादेवत्-कैराख्यातं , उच्यते, 'सुप्पसम्नेहिं अक्खातं ' सुष्ठु प्रसन्नाः सुप्रसन्ना बीवरागा इत्यर्थः, अजातदकागमा द्वादश हदा इव सुप्रसन्नाः, ततोऽनंतराग- ॥१३६॥ समर्थ गणधराः सूत्रीकुर्वतः एवमाहुः, मुप्पसनेहिं अक्खातं, पयते वा 'विप्पसनमणाघात विविधैः प्रकारैः प्रसन्नाः, का भावना, न हि ते नियमाणा व्याकुलचतसो भवंति, अत्यर्थ घात: आपात: न त्वापात: अनाघाता, नासौ तस्य विधि दीप अनुक्रम [१२९१६० ८२.५ [149] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [9], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक सपुण्यमरण [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तरा०वत्संलिखितात्मनः प्राणातिपातो गम्यते इत्यतो अनाघातं, इदं केषां ?, उच्यते-'संजताणं चुसीमतो' वशे येषामिन्द्रियाणि ते चूणौँ भवति बुसीम, वसंति वा साधुगुणेहिं बुसीमंता, अथवा बुसीमंतः ते संविग्गा, तेसिं बुसीमतां सविग्गाणं वा स्यादिति, अन्य ५ अकाम- गेरुयलिंगमादिणो अणसणेण मरंति तत्प्रतिषेधार्थ भण्णति-ण इमं सब्वेसिं मिकाखूर्ण' सिलोगो (१४६ सू०२४९) ण इति प्रतिमरण पेधे, इममिति प्रत्यक्षभावे, सर्वेषां तावत् भिक्खुणं न भवति, शाकपरिव्राजकादीनां न भवति, भावभिक्खूण तु भवति, अगार-1 ॥१३७॥ मस्यास्तीति अगारी, अगरिणामपि सर्वेषां न भवति, ये हि लिंगमभ्युपेत्य संलेखनाजापितात्मानः तेषां पंडितमरणं, न शेपाणां दृष्टीना, स्यादेतत्-कि सर्वेषां तदस्तीति निगयत 'नानासीला यगारत्था' नानार्थातरत्वेन शीलयति तदिति शील-स्वभावः, अचार 39 तिष्ट्रतीत्यागारत्था, ते हि नानाशीला, नानारुचयो- नानाच्छंदा भवंति, ये तावत् मिथ्यादृष्टयः ते क्वचित् मोक्षं नैवेच्छंति, यथा : मरुकाः, कुप्रवचनभिक्षयोऽपि केचिदभ्युदयावेच यथा तापसाः पांडुरागाश्च, येऽपि मोक्षायोस्थिता तेऽपि तमन्यथा पश्यति, केचि दारंभात केचिदेसादिभ्यः सारंभादित्यतो णाणाशीला य गारस्था,लोकोत्तरघरत्था हि ण सव्वे सीलधणान (च वव)सिता मरंति, यथैव । लोकोत्तरभिक्षवोऽपि ण सब्वे अणिदाणकरा णिस्सल्ला वा, ण वा सव्वे आसंसापयोगनिरुपहततपसो भवंति इत्यतो विसमसीला! यभिक्षुणो। किंचान्यत्-'संति एगेहिं भिक्खुहि' सिलोगो (१४७ सू०२४९)संतीति विद्यते, एके नाम प्रवचनमिक्षका, न चरकादयः। ते अगारत्था संजमुत्तरा, कतरति ?, श्रावकाः, ते हि ज्ञानपूर्वक परिमितमेवारंभंते सघृणा, सातुरा न स्युः, इत्यतः संति एगविरहि भिक्खूहि गारत्था संजमुनरा, उक्तंच-'देसेक्कदेसविरता समणाणं सावगा सुविहियाणं । जेसि परपासंडा सयमपि कल न अग्नति ॥१॥ स्वादेतत्-श्रावकसानोः किमतर?, उच्यते,गारत्थेहि यसवेहिं साहुसावएहिं परतित्थिएहि य साधवः संजमुत्तरा, आहरण दीप अनुक्रम [१२९१६० RSR ॥१३७।। [150] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [9], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत . . . ........ ... ..ाव सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तराना एगो सावगो साधु पुच्छति- सावगाणं साघृण य किमंतरंति !, साधणा भण्णति सरिसवमंदरंतरं, ततो सो आउलीभूतो पुच्छति । चूणा कुलिंगीण सावगाण य किमंतरति ?, तेण भण्यति-तदेव सरिसवमंदरंतरं, स आसासितो। अत्राह-ननु कुलिंगिनोऽपि तल्लिंगमा-| सद्गतिः ५ अकाम भित्य धर्मार्थ घोराणि तपास्याचरन्ति, तेभ्यः कथं श्रावको गुणविशिष्टः, ण ताणि लिंगाणि भयात् त्राणाय इत्यतोऽपदि. मरणे श्यते- 'चीराइणं' सिलोगो (१४८-२५०) चित्तति तदिति चीर-वल्कलं, अजति तेनेत्यजिनं चर्मेत्यर्थः, णिवणं णाम नग्गा ॥१३८॥ एव, यथा मृगचारिका उद्दण्डकाः आजीवकाच, जोयत इति जडा, संघातीत्यत इति संघाटी, मुंडी आशिखः, एताणिपि ण ताणाए, ण य ताणि यावत् उद्दिष्टानि, अपिरनुज्ञायां, अन्यान्यपि यादृशानि, परिगमनं पर्याय:, गिहत्वपरिागतो अन्नो भी परियाओ दुस्सीलाणं परियागता। आह- ननु तेऽपि धर्मार्थमेव पाकादिनिवृत्ता भिक्षाहारा एव, उच्यन्ते- 'पिंडोलपवि दुस्सीलो' ॥१४९-२५०।। सिलोगो, पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगाः,नयन्ते तस्मिन् पापकर्मा स्वकर्मभिरिति नारकाः | अत्रोदाहरणं- रायगिद्दे नगरे एको पिंडलओ उज्जाउज्जाणियाविणिग्गतो भिक्ख हिंडति, ण य किणवि किंचिदिन्नं, II | सो तेसि वेभारगिरिपब्वतकडगसन्निविट्ठाण पच्चतोवरि चडिऊण महतिमहालय सिलं चालेति, एतेसिं उार पाडेमिति रोद-16 ज्झाई विच्छुट्टिऊण तओ सिलाओ पडितो णिविट्ठो सिलातले, संचुणितसयकायो य मरिऊण अप्पइट्ठाणे णरए उव|वण्णो, एवं पिंडोलओ दुस्सीले परगातो ण मुच्चति 'भिक्खाए ति अकु भक्षणे, भिक्षामाकुरिति भिक्षाका, धमोथ कामान् गृह्णातीति गृही, वियत इति व्रतं शोभनं व्रतं यस्य स भवति सुत्रतः, क्रमति गच्छति, दिव्यति तस्मिन्निति दिवं, सुव्रते कमते दिवं, सुव्यतो दुविधो-आगारी अनगारी च, किमनयोः फलमिति', गृहिसुव्रतस्य तावत् 'अगारि सामाइयंगाणि' दीप अनुक्रम [१२९१६०] [151] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति : [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: चूर्णी ला प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| % श्रीउत्तरा ॥१५०-२५०|| सिलोगो, अगारमस्यास्तीति अगारी, अगारसामाइयस्स वा अंगाणि आगारिसामाईयंगाणि, समय एव सामाइया श्रावक अङ्ग्यतेऽनेनेति अंग, तस्स अंगाणि बारसविधो सावगधम्मो, तान्यगारसामाइयंगाणि, अगारिसामाइयस्स या अंगाणि, सद्भतिः ५अकाम 'सड्डी कारण फासए' श्रद्धा अस्यास्तीति श्रद्धी स चैवं धम्ममि मोक्खे बा, 'काएणं' ति कायो-सरीरं तेण फासए, मरण ते न केवलं कारण, मणसा वायाएवि, सब्बदुकरं कारण, 'पोसह ' इत्येतत् प्रोसहग्रहणात् । किंचान्यत्- पोसह उभयतो ॥१३॥ पक्षं, पतत्यनेनेति पक्षः, एकैकस्य द्वौ द्वौ, कृष्णशुक्लौ भवतः, रातीति रातिः, एगपि राई ण हवेज्जा, चतुर्विधस्यापि पौष धस्य येन केनचित् समस्तेन व्यस्तेन वा पोपणगुणेण अवञ्झं दिवसं कुज्जा,रातादिगहणणं जइ दिवसतो ण सकेति वातुलत्तणेण अ(पु)हत्तत्तणेण वा, तहावि देसावगासियं, असति य तस्सेसं वा पच्चक्खाति, अथवा बंधानुलोम्यात् रात्रादेरेकतरग्रहणेऽपीतरस्य ग्रहणात् वेदितव्यं भवति । 'एवं सिक्खासमावन्नो' ॥१५१-२५१॥ सिलोगो, एवम्-अनेन प्रकारेण, शिष्यतेऽनेनेति शिक्षा, सम्यगापन्नो, गिहेसु वासो गिहवासो,शोभनान्यस्य(ब्रतानि) सुब्वए य, 'छब्वाओं' छादयति छादयंति वा दमिति छिद्यत वाऽसौ छवि, पुज्जए एभिः शरीराणीति पव्वाणि इत्यर्थः, जाणुकोप्परादयः, कोऽभिप्रायः१, नासावन्यतमे च सपर्वशरीरे आगारी मुच्यते, किन्तु नासावनन्तरमविकं छविपर्वमासादयति, स हि पर्वसरीरं मुक्त्वा 'गच्छे जक्खसलोगर्य' जयन्ति यान्ति क्षयामिति यक्षाः, तेषां सलोकतां समानलोकतां गतमित्यर्थः, तओ चुओ पुणो छविपन्धसरीरमासादेऊण चारित्रवान् भूत्वा ॥१३९॥ सिधति, उक्त अगारिसामाइयंगाण फलं, एतदपि पच्छिमसलेहणाजूसणजूसितस्स सकाममरणमेव, अणगारसकाममरण11 फलप्रसिद्धये इदमुच्यते- 'अह जे संवुडे भिक्खू ॥ १५२ ॥ सिलोगो, पुष्य प्रेक्षताऽपेक्षो अथशब्दः, संवृत्तः दोपहमे %% --% - दीप अनुक्रम [१२९१६०] -- -- - [152] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [9], मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| ५ अकाम मरणे ॥१४॥ गयरे सिया' अयं चान्यः अयं चान्यः अयमन्ययोरन्यतरः, कतरसिं जेसि सो अन्नतरो भवति , ननु 'सव्वदुक्खप्प-10 18 अनगार हीणे वा' सव्वाणि दुक्खाणि- सारीरमाणसाणि, महती ऋद्धिरस्य स मवात महती, यः स्यादुदितः स कतरे उववज्जई, 10 सकाम मरणं विमाणेसु , उच्यते-'उत्तराई ।।१५३-२५२।। सिलोगो, उत्तराणि नाम सब्बोपरिमाणि जाणि, ताणि हि सध्यबिमाणुत्तराणि, तेसिं तु अण्णाई अणु(उत्तराई णस्थि, इत्यतः अणुत्तराई,विमोहाइं विमोहानीति निस्तमासीत्यर्थः, तमो हि वाह्यमाभ्यन्तरं च बाह्यं तावदन्येष्वपि देवलोकेषु तमो नास्ति, किं पुनरनुत्तरविमानपु?, अभ्यंतरतममधिकृत्यापदिश्यते-सर्व एव हि सम्यग्दृष्टयः | अथना मोहयति पुरुष मोहसंज्ञातः त्रिपा, ता. तत्र न, सात, द्योतते तेनेति पुतिः श्रुतिस्तेपी वियत इति युतिमतानि, अणुपुब्वसोell नाम जारिसया सोहम्मईसाणेसु द्वितीओ एत्तो अणतगुणविसिट्टा अणुत्तरेषु,ताणि पुण विजयादीणि पंच, समाइण्णाइ जक्वेहि सर्वतः कामतस्तं वा आकीर्णानि समाकीणानि, अथवा सम्यगाकीर्णानि प्रतिभागशः तानि,सन्निकृष्टविप्रकृष्टरि(नी)त्यर्थः आवसंति तेवपि आवासानि, अनुते लोकेबिति यशः, यश एषामस्तीति यशांसीति, न तेषु मनुष्यता कस्यचिदस्ति येन यशोभागिनस्ते नस्युरिति, येऽपि तत्र नोत्पर्यते तेऽपि कल्पोपगेषूपपद्यमाना, तेऽपि तत्र यान्युत्तराणि तेषूपपद्यते, उक्ता विमानगुणाः । अथैषां के गुणास्तत्रोपपन्नाना?, उच्यते 'दीहाउया' ।।१५४|| सिलोगो, दीर्यत इति दीर्घः एति याति वा तस्मिन् इत्यायुरित्यनेनेति, ऋद्धिः ॥१४॥ सम्यक् ऋचन्ते समृद्धवाः सर्वसंपदुपपेता, कामतः रूपाणि कुर्वन्तीति रूपाः कामरूपाः, स्याद्-अनुत्तरा न विकुर्वन्ति, ननु तेपाय तदेवेष्ट रूपं येन सत्यां शक्ती प्रयोजनाभावाच्च नान्यद्विकुर्वन्ति, 'अहुणोववन्नसंकासा' अभिनवोपपन्नस्य देहस्य सवस्यैवाभ्यधिका र द्युतिर्भवति अनुत्तरेष्वपि, अनुत्तरास्तु आयुःपरिसमाप्तेः अहुणोक्वन्नसंकासा एव भवंति, स्यात् तेषामभिनवोपपन्नानां कीदृग् प्रभा', दीप अनुक्रम [१२९१६० ---- y. [153] Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥१२८ १६०|| दीप अनुक्रम [ १२९ १६०] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| निर्युक्तिः [२०९...२३५/२०९-२३६] अध्ययन [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० ॥ १४१ ॥ उच्यते- 'भुज्जोअच्चिमालिप्पभा' भूयो विशेषणे, अर्चते अर्चिः अर्चयन्ति वा तमिति अर्चिः अर्चीश्रास्यास्तीति अर्चिष्माचूली स चादित्यः, भूयोग्रहणादादित्यादध्यधिक एव । 'ताणि ठाणाई गच्छन्ति ॥ १५५-२५२॥ सिलोगो, 'ताणी' ति जाणि ताणि ५ अकाम उद्दिद्वाणि तिष्ठन्तीति ठाणाणि, गच्छन्ति व्रजन्ति, सिक्खिता ज्ञाचा, करेत्ता य, संजमो सत्तरसविहो, स तु को तत्र गच्छति ?, मरणे उच्यते, 'भिक्खाए वा गिहत्थे वा' अकु भक्षणे भिक्षां आकुः भिक्खाए, गिहत्थो भणितो, किं सर्व एव भिक्खागो गिहत्थो या ?, नेति, 'जे संति परिनिब्बुडा' जे इति अणिदिट्ठस्स उद्देसे, शमनं शान्तिः उपशम इत्यर्थः, सर्वतो निर्वृतः परिनिर्वृतः, शान्तिपरिणिब्बुडे य, अक्रोधवानित्यर्थः, 'तेसिं सोच्या '॥ १५६-२५३॥ सिलोगो, तेर्सि ते पुन्वुद्दिद्वाणं अगारीण अणगारीणं च सोभणा | पुज्जा सुपुज्जा सतां वा पुज्जा सपुज्जा, संजमतवे से चिठ्ठति जैसि इंदियाणि वसंति वा जेसु गुणा गुणेसु वा जे वसंत ते बुसि| मन्तः,'ण संतसंति मरणंते' ण इति पडिसेधे, समस्तं त्रसतिर, मरणमेव अंतो मरणंतो मरणे वा वसंतः मरणान्तः, आवीचिकमरणं वाकृतं तदेव मरति इदमन्यत् अन्त्यमरणं येन भवः छिद्यते, ते हि कृतपुण्यत्वात् ण संतसंति मरणंते, सीलवंता बहुस्सुता, उक्त | सकाममरणं । इदानीमनयोः सकामाकाममरणयोः कतरेण मरितव्यमिति', उच्यते-'तुलिया बिसेसमादाय ।। १५७-२२३ ।। सिलोगो, तोलयित्वा तुलया यत्र गुणैर्विशिष्यते बुद्धया आदाय गृहीत्वा तेनैव मर्तव्यं तदेव आदेयमिति, अहवा अयं विसेसो-बालमरणमणिच्छतो भवति, इयं तु सकामस्स, अधवाऽयं विसेसो- दयाधम्मो खतीति एवं विसेसमादाय बुद्धया 'विप्पसीइज्ज मेघावी' | विविधं पसीएज्जा मेराया धावतीति मेधावी तथाभूतेन अप्पणा तेन प्रकारेण भूतस्तथाभूतः, रागद्वेषवशगो ह्यात्मा अन्यथा भवति, मद्यपानां विश्व (चित्त वत्) तदभावे तु आत्मभूत एवं अथवा यथैव पूर्वमव्याकुलम नास्तथा मरणकालेऽपि तथाभूत एव महन्तरं तुलायि [154] सकाम मृतानां स्थानं ॥ १४१ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [१...] | गाथा ||१२८-१६०/१२९-१६०|| नियुक्ति: [२०९...२३५/२०९-२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१२८१६०|| श्रीउत्तुरात्वा महंतस्सकाममरणात्ति(न्त)प्रपन्नः'तओ काले अभिप्पेए॥१५८-२५|| सिलोगो,तत इति क्रमः,अभिप्रेतं यदाऽस्य तन्मरणं 5 देहभेदामारुचितं भवति, कोऽर्थः, यदाऽस्य योगा नोत्सर्पन्ति तस्मिन् काले, अभिमुखं प्रीतिवानित्यर्थः, अभिप्रेत एवासौ तस्य मरण- काक्षा ६ क्षुल्लक निग्रीयं | काला, योगहानिनिमित्ता, सैलेखनादिभिः उपक्रमविशेषः उपक्रम्यात्मानं, श्रद्धा अस्यास्तीति श्राद्धी, रलयोरेकत्ये तादृशः, यथा वाs भ्युपगच्छतो,धर्मः संलेखना चा,तथा अंतकालेऽपि,उक्तहि 'जाए सद्धाए णिक्वंतो, तमेव अणुपालेज्ज' तत्र चास्योत्कृष्टा-17| ॥१४२।। त्मनः यदि नाम तेषां उपसर्गा उत्पधन्ते क्षुधादयो वा आत्मसमुत्थाः ततस्तेषपपनेषु 'विणएज्ज लोमहरिसं' विनयो नाम | विनाशः, यथा विनीता गौरिति, लुनाति लूयते वा तानि लीयंते वा तेषु यूका इति लोमानि लोम्नां हर्षः२,सतु भयाद्भवति, अनुलोभैर्वा उपसगैहर्षाद् भवति तं विनयित्वा, उभयथापि, न केवलं 'भेद देहस्स कंखए' भिद्यत इति भेदः, अष्टविधकर्मशरीरभेदं कांक्षिति, नतूदारिकस्या अथ कालामे संपत्ते॥१५९-२५४॥अथेत्यानन्तर्ये सलिखितामा मरणमपेक्ष्यते, सुठु अक्खातं२ आदायेव तस्स मरणाभिधानमाख्यातं सुअक्खात, सम्यक् आहितो समाहितो सुतक्यातसमाहितो, केचित्पठन्ति- आघायाए समुच्छयं | अत्यर्थ घातः आघातः, आघातसमुच्छ्यो णाम सरीरं, तद् बाह्यमाभ्यन्तरं वा बाह्यमौदारिकं तं सीलहिउं तेन च संलिहितेन द्रव्यतः भावतः अम्भितरं कम्मगसरीरं घातितं भवति अतो आघाताय सनुच्छयति, सकाममरण मरति तिहमन्नयरं मुणी, तंजहा भत्तपच्चखाण इंगिणी वा पाओवगमणं वा,मनुते मन्यन्ते वा जगति त्रिकालावस्थान भावान् मुनिरिति।अकाममरणाध्ययनं सम्मत्तम्॥ ॥१४२॥ इदाणि खुल्लयनियंठिज्जं, तस्स चत्तारि अणुओगदारा उपक्रमादि परवेऊण जाव नामनिप्फनो णिस्खेयो क्षुल्लगनियंठिज्जति, खुल्लयति आवेक्खितं पदं महंत अवेक्ख भवति, तं पुण महानियंठिज्जे, तहा खुल्लयं निक्खियम्वं, नियंठो निक्खिवियब्बो, EARNERSONAS दीप अनुक्रम [१२९१६० अध्ययनं -५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -६- "क्षुल्लकनिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते [155] Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ ૨૭૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८]], निर्युक्तिः [२३६...२४३/२३६- २४३] भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी ६ क्षुल्लकनिर्ग्रथीयं ॥१४३॥ खुल्लगस्स पढमं णिक्खेयो, तं महंतं पच्च संभवतित्ति महंतमेव परूयव्वं तं महंतं अट्ठविहं, तत्थ गाहा 'नामं ठवणा' ।। २३६-२५५।। गाहा, नामठवणाओ गयाओ, दव्यमहंत अचित्तमहाखंधो, सो सुदुमपरिणयाणं अनंताणंतपदेसियाणं खंधाणं तम्भावणापरिणामेण लोगं पूरेति जहा केवलिसमुग्धातो दंड कवाडं मन्धुं अंतराणि चउत्थे समय पूरेति, एवं सोऽवि चउत्थे समय सव्वं लोग पूरेता पडिनियतति एवं दव्यमहंतगं खत्तमदन्तगं सच्वागासं कालमहंकगं सच्चद्धा, पहाणमहंतं तिविहं- सचितं अचित्तं मीसगं, तत्थ सचित्तं तिविहं- दुपदं चउप्पदं अपदंति, दुपदाख पहाणो तिरथयरो, चउप्पदाण हत्थी, अपदानं अरविंद, अचेदाणं वेरुलिओ, मीसगाणं भगवं तित्थगरो सविभूषणो, पटुच्चमहंतं आमलकं प्रति विद्धं महंतं, एवमादि, भावमतं तिविदं पाहण्णतो कालतो आसयतो पाहण्णओ खड़ओ भावो महंतो, कालओ परिणामिओ जीवो, जं जीवदन्यमजीवदव्वं वा सता तहा परिणमति, आसयओ ओदयितो भावो, तंमि भावे बहुतरा जीवा बहंति, महंतगं, तस्स पडिवक्खो खुल्लयं निक्खिवियय, तंपिअ छब्बिहमेव, णामठवणाओ गयाओ, दव्यखुट्टगं परमाणू, खेत्तखड्डगं आगासपदेसो, कालखड्डयं समयो, पहाणखुड्डयं तिविहं-दुपयं चउप्पयं अपदं च, दुपदाणं पंचण्डं सरीराणं आहारगं, चउप्पदाणं सुट्टयं सीहो, अपदाणं लवंगकुसुमं अचित्ताणं वइरो, मीसगाणं तित्थगरो जम्माभिसेयकाले अलंकारसहितो, पटुच्चखुडये आमलगाता सरिसवो, भावखुड्यं सव्वत्थोवा जीवा खइए भावे, एत्थ पटुच्चखुड्डाण अधिकारो, खुल्लक इति गतं । इदाणिं नियंठो, तत्थ गाथा - 'निक्खेवो नियंमि' (२३७-२५५) नामटवणाओ गयाओ, दव्वणियंठो दुविहो-आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए अणुवउत्तो, गोआगमतो व 'जाणगसरीर' ॥। २३८- २५६ ।। जाणयभवियत्रीरवइरित्तो दव्वणिवंठो णिण्ह गादी, आदिग्गहणेण [156] क्षुल्लक मह निक्षेपाः ॥१४३॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ ૨૭૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| निर्युक्तिः [२३६... २४३/२३६- २४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः SINES श्री उत्तरा० चूर्णां ६ क्षुल्लक निर्ग्रथीयं ॥१४४॥ ४ पासत्थोसन्नकुसील संसत अहा छंदा, भावणियंठो दुविहो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणउवउत्तो, णोआगमतो नियंठयते वद्यमाणा पंच, तंजहा- पुलाए बकुसे कुसीले नियंठे सिणाए । पुलातो पंचविहो, जो आसवणं प्रति, णाणपुलातो दरिसणपुलातो चरिचपुलातो लिंगपुलातो अहासुदुमपुलागोत्ति । पुलागो णाम असारो, जहा धनेसु पलंजी, एवं णाणदंसणचरितणिस्सारचं जो उयेति सो पुलागो, लिंगपुलागो लिंगाओ पुलागो होतो, अहासुमो य एएस चव पंचसुवि जो थोवं थोवं विरा हेति, लद्धिपुलाओ पुण जस्स देविंदरिद्धिसरिसा रिद्धी, सो सिंगणादियकज्जे समुप्पण्णे चक्कवहिंप सबलवाहणं चुण्णेउं समत्थो । उसा, सरीरोपकरणविभूपाऽनुवर्त्तिनः ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिताः अविविक्तपरिवारा: छदशवलचारितजुत्ता णिग्गंथा उसा भण्णंति, ते पंचविहा, तंजहा- आभोगचकुसा अणाभोगवकुसा संबुडबकुसा असंवुडबकुसा अहासहुमवकुसा | आभोगवकुसा आभोगेण जो जाणतो करेइ, अणाभोगेण अयाणतो, संवुडो मूलगुणाइसु, असंवुडो तेसु चैव, अहासुद्दुमबकसो अच्छी दुसयादि अवणेति, सरीरे वा धूलिमाइ अवति । कुत्सितं शीलं यस्य पञ्चसु प्रत्येकं ज्ञानादिषु सो कुसीलो, दुविहो-पडिसेवणाकुसीलो कसायकुसीलो य, सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा, पंचसु णाणाइसु, कसायकुसीलो जस्स पंचसु णाणाइसु कसाएहिं विराहणा कज्जति सो कसायकुसीलोति । णियंठो अभितरवाहिरगंथणिग्गतो, सो उवसंतकसातो खीणकसातो वा अंतमुत्तालितो सो पंचविहो- पढमसमयणियंठो अपढमसमयनियंठो, अहवा चरमसमयनियंठो अचरमसमयनियंठो, अहासुद्दुमणियंठोत्ति, अंतोनुहुत्तणियं कालसमयरासीए पढमसमए पडिवज्जमाणो पढमसमयनियंठो, सेसेसु समयएस चट्टमाणो अपढमसमयनिथंठो, चरमे-अंतिमे समए वहमाणो चरमसमयणियंठो, अचरमा - आदिमज्झा, अहासुमो एएस सब्वे [157] पंच निग्रन्थाः ॥ १४४॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] | गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति : २३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| ॥१४॥ | सुऽवि । सिणातो-स्नातको, मोहणिज्जाइघातियचउकम्मावगतो सिणातो भण्णति, सो पंचविहो-अच्छवी असबलो अकम्मंसो संयमादि भिनिग्रंथचूर्णी | संसुद्धणाणदंसणधरो अरहा जिणो केवली, अच्छवी-अव्यथका, सबलो-सुद्धासुद्धो, एगंतसुद्धो असबलो, अंशा-अवयवाः कर्म विचार ६ क्षुल्लकणस्ते अवगया जस्स सो अकम्मंसो, संमुहाणि णाणदंसणाणि धारेति जो सो संसुद्धणाणदंसणधरो, पूजामहेतीति अरहा, अथवा निग्रंथीया नास्य रहस्यं विद्यत इति अरहा, जितकपायत्वाजिनः, एसो पंचविहो सिणायगो । एस सदत्थोऽभिहितो, संयमश्रुतप्रतिसेवनातीथेलिङ्गलेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः, एते पुलाकादयः पञ्च निन्थविशेषाः एभिः संयमादिभिरनुगमविशेषैः साध्या | भवंति, तत्र च संजमे तावत् पुलागो बकुसो कुसीलो एते तिनिधि दोसु संजमेसु-सामाइए छेदोवढावणिए ब, कसायसीला दोसुपरिहारविसुद्धीए सुहुमसंपराए य, णियंठा सिणायगा य एते दोवि अहक्खातसंजमे । सुते पुलागवकसपडिसेवणाकुसीला य उक्कोसेण अभिन्नदसपुव्यधरा, कसायकुसीलणिग्रन्थौ चतुर्दशपूर्वधरौ, जघन्ये पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु नवमे पूर्वे, बकुसकुसीलनिग्रन्थानां श्रुतमष्टी प्रवचनमातरा, श्रुतादपगतः केवली स्नातक इति । इदानी प्रतिसेवना-मूलगुणानां रात्रीभोजनस्य च पराभियोगात् बलात्कारेणान्यतमं प्रतिसेवमानः पुलागो भवति, मिथुनमेवेत्येके, बकुशो द्विविधः- शरीरबकुशः उप-10 करणबकुशश्च , तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तः विविधाह(वर्ण)विचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषयुक्तोपकरणकास्थायुक्तः नित्यतत्प्रतिकारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति , शरीराभिषक्तचित्तो विभूषितार्थो तत्प्रतिकारसेवी शरीरवकुश, १४५|| प्रतिसेवनाकुशीलः मूलगुणानविराधयन् उत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते , कसायकुशीलनियन्थस्नातकानां प्रतिसेवना नास्ति । तीर्थमिदानी, सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवंति, एके त्याचार्या मन्यन्ते-- पुलाकबकुशप्र दीप अनुक्रम - [१६१ १७८] - - [158] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूर्णी +भिनिग्रंथ सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| श्रीउत्तरा० तिसेवनाकुशीलास्तीर्थे नित्यं, शेषास्तु तीर्थेऽतीर्थे वा । लिङ्गमिति लिङ्ग द्विविध- द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्ग च, संयमादि भावलिङ्गं प्रतीत्य सर्वे निग्रन्थलिङ्गे भवन्ति, द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः। लेश्याः पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो केश्या भवन्ति, XIA निग्रंथीयं |चकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः सर्वा अपि, कपायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेस्तिस्र उत्तराः, सूचमसंपरायस्य निग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैश केवला भवति, अयोगः शैलशीप्रतिपन्नोऽलेश्यो भवति । उपपातः पुलाकस्योत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्रारे,बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोहा॥१४६ |विंशतिसागरोपमस्थितिष्यच्युते कल्पे, कपायकुशीलनिग्रन्थयोस्त्रयविंशतसागरोपस्थितिषु सर्वार्थसिद्धे, सर्वेपामपि जघन्य पल्यो पमपृथक्त्वस्थिति सौधर्म, स्नातकस्य निर्वाणमिति । स्थानम्-असंख्येयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति, तत्र म सर्वजघन्यानि ( संयम ) लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः, तो युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छतः, ततः पुलाको व्युच्छि-18 यते, कषायकुशीलस्ततोऽसंख्येयानि स्थानान्येकाकी गच्छति, ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छन्ति, ततो बकुशो ब्युच्छिद्यते, तनोऽप्यसंख्येयानि स्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकुशीलो व्युच्छिद्यते, ततोऽसंख्येयानि स्थानानि गत्वा कषायकुशीलो व्युच्छिद्यते, अत ऊर्ध्वमकपायस्थानानि गत्वा निर्ग्रन्थ प्रतिपद्यते, अत ऊर्ध्वमकषायस्थानं गत्वा निग्रन्थः स्नातकः निर्वाणं प्राप्नोति,एषां संयमलब्धिरनन्तगुणा भवति, उक्कोसो उनियंठो'।।२३९-२६०॥ गाहा,जो उक्को सएमु संयमहाणेसु वदृति सो उक्कोसणियंठो भण्णवि, जहणतो जहन्नएमु, सेसा अजहण्यामणुक्कोस्सत्ति, जेत्तियाणि संजमट्ठा-17 ४णाणि तत्तिया णिग्गंथा,नास्य ग्रन्थो विद्यत इति निग्रन्थः, निर्गतो वा ग्रन्थतो निग्गंधो,सो गंयो दुविहो।।२४०-२६०॥अम्भितरो बाहिरो य, अब्भतरो चोइसविहो, बाहिरो दसविहो, अम्भितरो इमाए गाहाए भण्णति-'कोहोमाणो माया॥२४१-२६१।।गाथा, दीप अनुक्रम [१६१ १७८] [159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक भयसप्तकम् [१] गाथा ||१६०१७७|| श्रीउत्तरा० कोहो अणंतविधोवि चउहा, एवं माणो माया लोभोऽवि, मायालोभी पेज,कोहो माणो य दोसो य,णस्थि ण णिच्चोण क्रुणइ कयं चूणाण वेएति पत्थि णिवाणं । णस्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१शा इथवियाईओ तिविहो वेओ य होइ बोद्धव्यो ।। निग्रंथीया । अरती य संजमंमी होइ रतीऽसंजमे यावि ॥ २ ॥ हासो उ विम्हयादिसु सोगो पुण माणसं भवे दुक्खं । भयगंथो सत्तविहो तत्थ इमो होइ नायब्वो ॥३॥ इह परलोयादाणे आजीवऽसिलोय तहा अकम्हाणं। मरणभयं सत्तमयं विभासमेएसि वोच्छामि ॥ ४॥ ॥१४७॥ इहलोगभयं च इमं जं मणुयाईओ सरिसजाईओ। बीहेइ जंतु परजाइयाणं परलोयभयमेयं ।। ५ ।। आयाणऽत्थो भण्णति मा हीरिज्जत्ति तस्स जं चीहे । आयाणभयं तं तू आजीवोमे ण जीवेऽहं ॥६॥ असिलोगभयं अयसो होति अकम्हाभयं तु अणिमित्तं ।। मरियण्वस्स उभीए मरणभयं होइ एवं तु ॥ ॥ एसो सुत्तविगप्पो भयगंथो पनिओ समासेणं । अण्हाणमाइएहिं साधु तु| ४. दुगुंछति दुगुंछ।।८॥ति बाहिरग्रन्थे इमा गाहा-'खेत्तं वत्थु वत्थू।।२४२-२६शा गाहा, खत्तं दुविहं-केतु सेतुं च, सेतु अरहट्टादीणि पज्जाई, केतुं वासेणं, बत्थु तिषिह-खातं उसितं खातोसितं, खातं भूमिघरं, ऊसितं पासादो, खातोसित भूमिघरोवरि पासादो, धणं || हिरण्णसुवण्णादीणि, धर्म सालिमादि, दोचि एतं संचयोति एक्कं भन्नति, सहवड्डियादि सही,णादिसंजोगोत्ति माइपिइससुरकुलसं. बंधो, जाणं रधादि, सयणं पल्लंकादि, आसण पीढकादि, दासीदासं एकं,कुवियं लोहोवक्खरमादिहि'सावज्जगंधमुक्का॥२४३॥ गाथा कण्ठ्या। गतो नामणिफण्णो जाच सुत्ताणुगमे सुत्त उच्चारेयव्य-'जावंतऽविज्जा'॥१६०२.२०२॥सिलोगो,यावत्परिमाणाव | धारणयोः, णाणति वा विज्जत्ति वा एगहुँ, न प्रतिषेध, विद्यत इति विद्या नैषां विद्या अस्तीति अविद्या, पिवति प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः पूर्णो वा सुखदुःखानामिति पुरुषः पुरुषु शयनाद्वा पुरुषः, ससर्ति धावति वा सर्व, [सुखदुःखान्येषां संभवंतीति दुःख CRACK दीप अनुक्रम [१६१ kRR |१४७॥ १७८] [160] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८|| नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| Rec- 1 विद्यामंत्रितो घटा 5 श्रीउत्तरा सम्भवाः,कामं उभयथाप्यविरोधो दुःखानि सम्भवन्तीति,अयं समासः शालि(शक्ति)सम्भवात्परिगृह्यते,न तु ये दुःखाः संभूताशयत्वात, चूणा अथवा अविद्या दुःखादेव संभूता, उक्तं हि 'नातः परतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । यथाऽज्ञानमहारोग, सर्वरोग-6 २ क्षुल्लक प्रणायकाशाएत्युदाहरण-एगो गोधो दोगच्चेण चइतो गेहाओ णिग्गतो, सव्वं पुहवि हिंडिऊण जाहेण किंचि लहति ताहे पुणरवि घर निग्रंथायर जतो णियत्तो, जाव एगमि पाणबाडगसमीवे एगाय देवकुलियाए एगरातिं वासोवगतो, जाव पेच्छइ ताव देवउलियाओ एगो पाणो, ॥१४८॥ निग्गतो चित्तघडहत्थगतो, सो एगपासे ठातिऊणं तं चित्तघडं भणति-लहु घरं सज्जेहि, एवं जं जं सो भणति तं चिय घडोर | करेइ, जाव सयणिज्जं, इत्थीहिं सद्धिं भोगे भुजति, जाव पहाए पडिसाहरति । तेण गोहेण सो दिट्ठो, पच्छा चिंतेइ-कि मज्झ बहुएण भणि(मि)एण', एतं चेव ओलग्गामि, सो तेण ओलग्गिओ, आराहितो भणति-किं करेमित्ति, तेण भण्णति-तुम्ह पसाएण ट्र अहंपि एवं चेव भोगे झुंजामि, तेण भण्णति-किं विज्ज गेण्हसि ?, उताहु विज्जाएऽभिमंतियं घडं मेण्हसि , तेण विज्जासाहण| पुरच्चरणभीरूणा भोगतिसिएण य भण्णति-बिज्जाभिमंतियं घडयं देहि, तेण से विज्जाए अभिमंतिऊण घडो दिण्णो, सो तं! गहाय गतो सगाम, तत्थ बंधूहि सहवासेहिंपि समं जहारुइयं भवणं विगुरुब्वियं, भोगे तेहिं सह झुंजतो अच्छति, कम्मता य से | सीदिउमारद्धा, गवादओ य असंगोविज्जमाणा प्रलयर्याभूताः, सो य कालंतरेण अतितोसएण तं घडं खधे काऊण एयस्स पभावेण | अहं बंधुमज्झे पमोयामि, आसवपीतो पणच्चितो, तस्स पमाएण सो घडो भग्गो, सो य विज्जाकओ उवभोगो णट्ठो, पच्छा ते गामेयगा प्रलयीभूतविभवाः परपेसाईहिं दुक्खाणि अणुभवन्ति, जति पुण सा विज्जा गहिया होता ततो भग्गवि घडे पुणोऽपि ला करतो । एवं अविज्जा णरा दुक्खाणि सम्भूताःक्लिश्यन्ते, अविद्यादन(नरा) मिध्यादर्शनमित्यर्थः, तच्चेद-एते चेवऽनभिगता भावा| दीप अनुक्रम [१६१ १७८] ॥१४८॥ - C *- [161] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [९...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता प्रत सत्यैषणा सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| CESSES - श्रीउत्तरा०विपरीततो अभिणिविहा । मिच्छादसणमिणमो बहुप्पयारं वियाणाहि ॥१॥ ते सव्वे एव मिच्छादिट्ठी दुक्खाणि संभूओपार्जीत, चुणौँलणागार्जुनीयाः पठन्ति-ते सव्व बुक्खमज्जितालंपति बहुसो मूढा'तेहिं सारीरमाणसेहि दुक्खेहि लुपंति बहुसो नाम अणेगसो, ६ क्षुल्लक- बहहिं वा दुक्खपगारहिं वा, अहवा इह परत्र च मुह्यन्ते संमृढा, जहा समुद्दे वाणिया दुव्यायाहयजाणवत्ता दिसामूढा खणेण अतानिग्रंथीयाजलगयपव्ययमासाएऊण भिन्नपोया महावीतिकल्लोलेहि बुज्झमाणा कुम्मगमगराईहिं विलुप्पंति, एवं तेऽवि अविज्जा विलुप्पंति सादा बहुसो मूढा,सारीरमाणसेहि महादुक्खेहिं विलुप्पति बहुसो मृढा,तत्वातवअजाणगा,संसारंमि अर्णतए, अमन अन्तः नास्य। * अंतो विद्यत इति अनन्तः, भणितं च सूती जहा समुत्ता, ण णस्सती होइ ओवमा एसा । जीथो तहा ससुत्तो ण णस्सति गतोवि संसारे ॥१॥'तम्हा समिक्ख मेधावी' ( समिक्ख पंडिए तम्हा ) ॥ १६१-२६४ ॥ सिळोगो, अज्ञानिनामेवंविधं विपाकं | लज्ञात्वा तस्मात् सम्यक ईक्ष्य मेराया धावतीति मेधावी 'पास'ति पास, जायत इति जाती, जातीनां पंथा जातिपंथाः, अतस्ते INIजातिपथा पहुं 'चुलसीति खलु लोए जोणीण पमुहसयसहस्साई। तम्भएण अप्पणा सच्चमेसेज्जा, अप्पणा णाम स्वयं, सच्चो संजमो तं सच्चं अप्पणा एसेज्जा-मग्गेज्जा, अत्राह-सत्यमेवास्तु, आत्मग्रहणं न कर्त्तव्यं, न हि कवित्परार्थ किश्चित् करोति उच्यतेमा भूत् कस्यचित्परप्रत्ययात सत्यग्रहणं, तथा परो भयात् लोकरंजनार्थ पराभियोगाद्वा, आत्मग्रहणमित्यतः, स एगतो बा परिसा गतो वा इत्युक्तं नागार्जुनीयानां अत्तट्ठा सच्चमेसज्जा'न पराथें यथा शाक्यानामन्यः करोति अन्यः प्रतिसंवेदयतीत्यत आचा-1 रिति(त्मार्थमिति),यः सांख्यानां वा प्रकृतिः करोति,स्यारिक सत्यं, मिति भएहिं कप्पए' मज्जंतो मेयंति वा तदिति मित्रं, मित्रस्येय मैत्री, कल्पनाशब्दोऽप्यनेकार्थः, तद्यथा-'समायें वर्णानायां च, छेदणे करणे तथा। औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्द विदुर्बुधाः॥१॥ दीप अनुक्रम ॥१४९॥ [१६१ १७८] [162] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूर्णी सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| ६१ श्रीउत्तरा० सामर्थे अट्ठममासे विचीकप्पो भवति, वर्णने विस्तरतः सूत्रं कल्पं, छेदने चतुरंगुलवज्जे अग्गकेसे कप्पति, करणे 'न वृत्ति चिन्त-13 मात्रादीनां येत् प्राज्ञः, धर्ममेवानुचिन्तयेत् । जन्मप्रभृतिभूतानां, वृत्तिरायुश्च कल्पितम् ॥ १॥' औपम्ये यथा चन्द्राऽऽदित्यकल्पाः साधवः, मानवाण| अधिवासे जहा सोहम्मकप्पवासी देवो । अत्र करणे कल्पः शब्दः ॥ स्यात-किमातहाए केवलं सच्चो एसेज्जत्ति?, णणु बंधुत्रेण | कारिता निग्रंथीयं णिमित्तमिवि सच्चो एसितब्बो, उच्यते- 'माता पिता पहुमा माया॥१६२-२६५।। सिलोगो, जहा एताणि न तव ताणाए वा ॥१५॥ सरणाए वा एवं तुमंपि तेर्सि ण ताणाए वा सरणाएवा, अयमपर कल्यस्तु न संयमः क्रियते, अयं हि बंधुनिमित्तमात्मनिमित्तं च, तत्र ता बहुभिरपि कारणविशेषः संबद्धा माता पिता ण्डसा, मातयति मन्यते वाऽसौ माता,(मिमीत)मिनोति वा पुत्रधर्मानिति माता, पाति विभार्ति वा पुत्रमिति पिता, स्नेहाधिकत्वात् माता पूर्व, स्नेहेति श्रवन्ति वा तामिति स्नुषा, विभार्ति भयते वासौ भार्या16 1 पुनातीति पुत्रः, इयंति अर्यतेऽनेनेति उरः उरसि भया औरसाः, अन्येऽपि सन्ति क्षेत्रजातादयः तत्प्रतिपेधार्थ औरसग्रहणं, 'णालं ते मम ताणाए' अलं पर्याप्ती, न पर्याप्ताः त्राणादत्राणाय ते, त्रायते अनय नेनोति वाणं, कुतो तत् वाणी, 'लुप्पंतस्स सकम्मुणा आत्मानमपि तावत्ते न त्रातुं समर्थाः, कुतस्तहि परेषां?, अथवा अविद्या उक्तास्तद्विपक्षे विद्या, सा च वैराग्यलक्षणा, तद्यथा- ननु आएवमुपलब्धा भवति तदा विरक्त इति ज्ञेयः, कथं , तदुच्यते- 'मातापिता बहुसा' आत्मदेशस्तु यदि केनचिदुच्यते- किमर्थ । बन्धुभ्यो भवान् विरक्तः, ततो ब्रवीति- माता पिता णालं ते ममं ताणाए सरणाए वा, यथैव बान्धवाः, एवं विभवा अपि, कथमात्मसंयमे प्रवृत्त इति । यतश्चैवं- 'एयमढे सपेहाए ॥ १६३-२६५ ।। सिलोगो, एतदिति यदिदमुक्तं यथा बान्धवा न प्राणाय, सम्यक् प्रेक्षया सपेहाए, पाश्यतेऽनेनेति पाशः, सम्यगिदं दर्शनं दंसणे, अथवा समिदं जस्स दसणं से भवति समिद ॥१५॥ दीप अनुक्रम C %ANETRkocx [१६१ १७८] [163] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ १७८] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, निर्युक्तिः [२३६... २४३/२३६- २४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्री उत्तरा० चूर्णां ६ क्षुल्लक ॥ १५१ ॥ दंसणे, आमन्त्रणे वा, एवं मत्वा यथा बान्धवा न त्राणायेति, 'छिंद गहिं सिणेहं च,' गृद्धयतेऽनेनेति गृद्धिः, स्निह्यतेऽनेनेति स्निहः, तत्र गृद्धिः तीव्राभिनिवेशः, स्नेहस्तु तात्पर्य, अथवा गृद्धिः द्रव्यगोमहिष्यजाविकाधनधान्यादिषु स्नेहस्तु बान्धवेषु च स्यात् किं छिन्द १, 'स्नेह', स्नेहलक्षणमुच्यते- 'ण कंस्त्रे पुत्र्वसंथवं ' ण प्रतिषेधे, काङ्क्षा अभिलाषः पूरयतीति पूर्वः संस्तूयते येन संस्तवः, तद्यथा— देवदत्तपुत्तमातुल इति यथैव हि स्वजनो न त्रायते तथैव च — 'गवा मणिकुंडलं ।। १६४-१६५-२६५। सिलोगो, गच्छतीति गौः, अश्नुते अश्नाति वा अध्वानमित्यश्वः, मद्यते मन्यते वा तमलङ्कारमिति मणिः, कुण्डल हिरण्ये कण्ठ्ये, पश्यतीति पशुः, दासपुरुषौ कण्ठ्यौ, किल तव सुखोपकाराय, यदि तत् सांसारिकं परायत्तमुखं काम्यते, तेन यदन्यदेवंविधं तदपि 'सव्वमेयं चरि (इ)त्ताणं उज्झिउं, संजमं अणुपालिया, देवत्वं प्राप्य कामरूपि भविस्ससि, काम रूपाणि करोतीति कामरूपी, रोचति रोचयते वा रूपं यथा कामरूपं तथाऽनान्यपि ईशित्वप्राप्तिप्राकाम्यादीन्यैश्वर्याणि प्राप्स्यसि इत्यतः 'गवास मणिकुंडलं, पसवो दासपोरुसं । सव्वमेयं चत्ताणं, संजमं अणुपालिया ||१|| स चाय संयमः । 'अब्भत्थं सव्वओ सव्वं ॥ १६६-२६५ ॥ सिलोगो, आत्मानमधिकृत्य यत्प्रवर्तते तदध्यात्मं, अथवा अब्भत्थं णाम यद्यस्याभिप्रेतं, अध्यात्मनि तिष्ठतीति अब्भत्थो, किं च तत् ?, सुखं, यथा भवे अन्भत्थं, सव्वतो सव्वं, सर्वाभ्यो दिग्भ्यः सव्वं नाम सव्वं शरीरं माणसं सुहं तदुपकारिणी वा सदातिविसयसुहाणि, जहा तवेदमिडुं एवमेव ( परेसिं ) 'दिस्स पाणे पियायए' प्रिय आत्मा येषां ते प्रियात्मानः, अन्यतोऽपि यदि एतदेवं 'णो हिंसेज्ज पाणिण पाणे' प्राणा अस्य विद्यन्ते प्राणी अतस्तेषां प्राणिनां प्राणाःआयुष्प्राणा बलप्राणा इन्द्रियमाणाः, विरस्यते येन परेषां वा भवति त्रैरप्रसूतिः तस्माद्भयवैरादुभय (पर) तः, उपेत्य रत उपरतः, [164] संयमरूपं ।। १५१।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति : [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| श्रीउत्तराभवयोवा यत्करोति प्राणिनां ततो वैरं भवति, इह च कलहादि परत्र च येन संसारननुपरीति तस्मादुपरतः॥ उक्तं प्राणातिपात- ज्ञानक्रिय कान्तचूणा वरमणं, परिग्रहवेरमणं प्रतिसाधयति-'आदाण णरयं दिस्स' ।। १६७२६६ ॥ सिलोगो, आदियत इत्यादान, नरक उक्तार्थः,16 निरासः निग्रंथाय कारण कारणो(यो)पचारात्, आदानाद्धि नरको जायत इत्यतः आदानमेव नरका, उक्तं हि विषं विपकालं संचर्यादि, विषं व्याधि रूपेक्षितः ॥१॥ (विषं कुपठिता विद्या, विषं व्याधिस्पेक्षितः । विषं गोष्ठी दरिद्रस्य, वृद्धस्य तरुणी विषम् ॥ १॥) तृणढि ॥१५२। कृण्वन्ति वा तृणं, तृणमात्रमपि नाददीत, प्रति ( अपि) ग्रहणं अप्रतिसक्तलक्षणं, निवृत्तये तु धर्मसाधणादिग्रहणार्थमपदिश्यतेIT'दोगुंछी अप्पणो पाते ' दुगुंछा- संजमो, किं दुगुंछति !, असंजर्म, पाति जीवानात्मानं वा तेनेति पात्रं, आत्मीयपात्र का ग्रहणात् मा भूत्कश्चित्परपात्रे गृहीत्वा भक्षयति तेन पात्रग्रहण, ण सो परिग्गह इति, जिनकल्पिकं वा प्रतीत्य पठ्यते-अप्पणो पाणिपाते दिन्नं भुजेज्ज भोयणं ' एवं मुसावादअदचादानमेहुणाणिवि ।। अत्राह- उक्तं प्रागविद्या, नतु तद्विधानानि उपदि नि, तदुच्यते-'इहमेगे उ मन्नंति' ॥ १६८-२६६ ।। सिलोगो, अपरः कल्पः अविद्या हित्वा विद्यार्विका निवृत्तिः कार्या, सा चोक्ता, 'अम्भत्थं सव्या सवं' एतच्छ्रत्वा चरणादिपरः, ' इहमेगे उ मन्नंति' 'इहे ' ति इह मनुष्यलोके, एगेति सांख्यादयः, ते सम्वे 'अपचवाय पावर्ग' पासयति पातयति वा पापं, ते पुण ' आयरियं विदित्ता' आचरंति तमित्या-14 चारः, आचारे निविष्टमाचरित, आचरणीय वा तमित्याचारः, आचरणीयं वा विदिना सब्बदुक्खा विमुचड, नतु कृत्वा, तेषां हि ज्ञानादेव मोक्षः, प्रकृतिपुरुषान्तरं यथा वेत्ति तमित्येवं विदित्ता अकरिता, यतस्तेषां यमनियमात्मको धर्मः, तं अकरेन्ता, अपरः । ॥१५२॥ | कल्प माह- ये नाम शान शीलमिच्छन्ति ते नाम मोक्षमाप्नुवन्ति, यथा शाक्यादयः, उच्यते, तेऽपि, केवलमेव वदन्ति, नतु || दीप अनुक्रम RECENTER%EA% [१६१ १७८] [165] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ ૨૭૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, निर्युक्तिः [२३६...२४३ / २३६- २४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चु ६ - निग्रंथीयं ॥१५३॥ कुर्वन्ति, कथं, अहिंसामुक्त्वा पुनः पाकेषु स्नानादि विहारादभव (दिकेषु) (दिमिषेण) प्रवर्त्तन्ते, एवं तो- 'भणता अकरिंता य०' ।। १६९-२६७।। सिलोगो, मोक्षं प्रतिजानन्तीति मोक्षप्रतिज्ञावन्तो, पुण 'वाया वीरियमेत्तेणं ' वतीति वाक्, एवं वीरियं, मात्रग्रहणं केवलं ब्रुवन्ते, न कुर्वन्ति, आश्वसति कश्चित्तं समायासेति, तंजहा वयं जानका इति सम्यगाश्वासयन्ति यथाऽऽत्मानं तथा परमपि, स्याद् बुद्धि:- कथं भयंता अकरिता य बध्यते, ननु ते ज्ञानेनैव तार्थन्ते !, उच्यते- 'न चित्ता तायए भासा ०' ॥ १७०-२६७ ॥ सिलोगो, चित्रानाम धातूपसर्गसन्धितद्धितकालप्रत्ययप्रकृतिलोपापगमविशुद्धया, 'कओ' कस्मात् कारणात् ? उच्यते, विद्यानुशासनात्, विद्याहितमनुशासनाय तमेव, तत्पूर्विका तु क्रिया मोक्षाय उच्यते, यथा गदपरिज्ञानं ते पुनः चित्रवाग्विशारदाः यतो 'विसन्ना पावकम्मे हिं' ते न मोक्षाय (इति) वाक्यशेषः, विविधं सन्ना विसन्ना, पापान्येतत् कृत्यानि पावकिचाई, पाचं वा हिंसादीनि तेसु सन्ना, न तानि शक्नुवन्तो कर्त्तुं 'बाला पंडियमाणिणो' स्याद् बुद्धि:- केनोच्यते ?, स्पष्टरूक्ष्यं हि दुक्खं कर्तुम्, अविशिष्टमुच्यते- "जे केई सरीरे सत्ता" ।। १७१-२६८ ॥ सिलोगो, ये इत्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, शीर्यत इति शरीरं तस्मिन् सक्तिः, वृणोति वृणीते वर्णयन्ति वा तमिति वर्णः, रूप्यत इति रूपं, संसर्चिः धावते वा सर्वावस्थं सर्वतो, मणसा वयसा चेव, मणसा तावत्कथं रूपवन्तः स्याम इत्येवं चिंतयन्ति, बायाए भिपजोऽनुपानक्रियां पृच्छति, 'सव्वे ते दुक्खसंभवा' नाम दुक्खं पश्यंते, एवमाद्या अन्याऽप्यविद्या संसारायैव तेनाविद्यासंतानविद्यायता संसारोच्छेदाय प्रवर्तितव्यं स चात्मा संसारी मुक्तौ चा तत्र योऽसौ संसारी सहि सति (अ) विद्याविगमे भिक्षुत्वमासाद्य - 'आवण्णा दीहमद्धाणं०' ।।१७२-२६८ ।। सिलोगो, | अथवा उक्ता अविद्या, तद्विपक्षभूता विद्या, स च विद्यावान्'आवण्णा दीह मद्वाणे (१७२०२६८) आपन्नवान् आपन्नः, अणादि, दीर्घते [166] ज्ञानक्रियेकान्तनिरासः ॥१५३॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति : [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| ६ क्षुल्लक श्रीउत्तरा०वा दीर्घः, अधति प्राणीनिति अध्वा, दीर्घमध्वानं नाम संसार एव, न तत्रावस्थानमस्ति, अथवा जन्नं जायमानस्स चा कुतोऽव-दिक्स्वरूप चूणा स्थानमित्यतो वा दीर्घः, उक्तं च-"अपना दीर्घमध्वानमनादिकमनन्तक । स तु कर्मभिरापना, हिंसादेरुपचीयते ॥ १॥ तेषा निग्रंथीया स नरकादिषु विपाकः स चेदप्रियः तम्हा सबदिसं पस्स"तस्मादि' ति तस्मात् संसारभवा(या)त् सर्व उक्तार्थ, दृश्यते अनेनेति | दिक,सा दिसा सत्सविधा-नामदिसा ठवणादिसा दब खत्त कालदिसा सम्ब(ताव)खत्तदिसा भाव[खेत्त]दिसा पण्णवगदिसा,णामदिसा ॥१५४॥ जहा अनतरा दिसाकुमारी, ठवणादिसा अक्खनिक्खेवादिसु दिसाविभागो ठवितो, स तु सउणरूतपरूवणादिसु ठाविज्जति, [1 | दवदिसासु सव्वपदेसयं वत्तं तेरससु चेव पदेसेसु ओगाढं, एवं दससम्बदिसागं जहण्णगं दव्वं, खेत्तदिसा अद्रुपदेसियो रुयगो, |जतो इंदाइयाओ दस दिसाओ पबत्तंति, तावखेचदिसा जस्स जओ आदिच्चो उएइ सा पुष्वा, जतो अस्थमेति सा अबरा, दाहिणपासे दक्षिणा, वामओ उत्तरा, पनवगदिसा जचोहुनो पण्णवगो ठाति सा तस्स पुब्बा, दाहिणेण सा दाहिणा, पच्छतो अबरा, वामओ उत्तरा, एयासिं च अंतरेणं अनाओ चत्तारि अणुदिसाओ भाणियवाओ, एतासिं चेवऽढण्ह अंतराओ अट्ठ दिसाओ,* एताओ सोलस सरीरउस्सयबाहुल्लाओ सयाओ तिरियदिसाओ, पादतलहेडा अधोदिसा, सीसस्स उपरि उड्डा, एता अट्ठारसबि 31 लापण्ण बगदिसाओ भवंति, भावदिसा अट्ठारसविधा, तंजहा-पुढविकाइओ आउकाओ तेउकाओ. वाऊ४अग्गवीया मृलवीया पोरचीया खंध या८ बेईदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचेंदिया तिरिक्खजोणिया१२सम्मुच्छिममणुस्सा कम्मभूमा अकम्मभूमगाई अंतरदीवया१६ ४. देवा नारगा१८,दिश्यते अनयेति दिसा,सा तस्य भाविनोभावस्तेन प्रकारेणोपदिश्यते तद्यथा-पृथिवीकायिको वा एवं यावद् देवो नारको ४ ॥१५४|| वा,पूर्व पश्यत इति पस्स, मा समारभस्य,अत एव दृष्टाऽसौ दिग्भवति, यतो न सम्म आरभ्यते असमारभमाना, अप्पमत्तो परिब्वए' FEACKERASAN दीप अनुक्रम [१६१ १७८] [167] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति: [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१६०१७७|| श्रीउत्तरा०॥ यथा कामपि दिशं न विराधयेत्, उक्तं प्राणातिपातविरमणं, अपरिग्रहप्रसिद्धये तु 'पहिया उड्ढमायाय' ।।१७३-२६८॥ सिलोगो चूणौँ । स्यात्-प्रागुपदिष्टं यथा अम्भत्थं सब्बतो सब्वं',तथैव च आदानं नरकंदिस्से ति प्राणातिपातविरमण परिग्रहविरतीय भणिताकि तादि ६ क्षुल्लका पुण भण्णति', उच्यते, तत्र भेदा नोपदिष्टाः, इह तु अष्टादश दिश उक्ताः, परिग्रहेऽपि तत्राविशिष्ट मुक्तं-आदाणं णरकं, इह विनिग्रंथीयं शिष्यते-इदं ग्राह्यमिदमग्राह्यमिति, तद्यथा-वहिया उड्ढमायाय' हेवा बहिया, उद्धियत इति उद्ध, ऊर्द्ध नामात्मानं वर्जयेत्यर्थः, ॥१५५॥ यथा लोकायता प्रतिपन्नाः ऊर्दू देहात्पुरुषो न विद्यते, देह एव आत्मा, तत्रात्मानं शरीरोपचारं कृत्वोपदिष्यते 'वहिया. उड्ढमायाय, नावखे कयाइवि', स्यात्-शरीरात्मा किनिमित्तं धार्यते , उच्यते, 'पुब्बकम्मक्खयट्ठाए' पूरयतीति पूर्व, | क्रियते इति कर्म, क्षेपणं क्षया, 'इम' मिति इदं औदारिक सम्यक् उद्धरेत खुहादिपरिस्सहेहिं पडमाणं समुद्धरे, तस्यैवं पूर्वकर्म-II क्षयहेतोः तं देह धारयतः साम्प्रतं कर्माऽनुपचयहेतोः इदमपि दिश्यते, किं', 'विषिश्च कम्मुणो हे' ॥१७४-२६९।। सिलोगो, विविच्येत्यनुमतार्थे उपदेशो वा, क्रियत इति कम्मे, हिनोतीति हेतुः, हेतुरिति यतः कम्में प्रसवति, स चाविथैव, उक्तं हि"कहण्णं भंते ! जीवा अतु कम्मपगडीओ बंधति , रागा दोसा वा" बन्धहेतवः एकैकस्य तु तत्प्रदोषनिहवादयः, एवं सर्वत्र, तेषु लोके वा केच्चिर कालं णिरंभितव्या?, उच्यते-'कालखी परिवए' कालनाम यावदायुषः तं पंडितमरणकालं काङ्क्षमाणः || सर्वत्रासम्बध्यमानः परिव्रजेत, सर्वासरित्यर्थः, स एव निरुद्धाश्रयो यावत्काल काङ्घतो आराच्छरीरधारणार्थमाहाराद्युपग्रहणं | करोति, न हि निरुपग्रहाणि शरीराणि शक्यन्ते उद्बोढुं, तत्रोपग्रहमाहारः उपकरणं वा, तबाहारपरिणामार्थमपदिश्यते-'मातं पिंचस्स पाणस्स' मीयते मात्रा, पिण्डयति तमिति पिण्डः, पिण्डग्रहणात् त्रिविध आहारः, पाणग्रहणात् पानकमेव, कढं नाम | दीप अनुक्रम *DASANASI [१६१ १७८] [168] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] | गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, नियुक्ति : [२३६...२४३/२३६-२४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१६० १७७|| श्रीउत्तुरा०निव्वत्तियं पासुगं कियं जखीरादि फासुगं,तंपिण)अत्तद्वाए, दृढपुसलि(१) न घा,तदपि देण्णं, भक्षयेत् खादियमेव, स्वादिममास्वादयेत् साधिचूर्णी ला 15 अशनमश्नीयात, पानकं पियेत, बन्धानुलोमात्तु भक्षयेत्, तं तु भुक्तशेषमभुक्तशेष था-'सन्निधिं च न कुब्धिला' ॥१७५-२६९॥ | वर्जन सिलोगो, सन्निधानं संनिधिःन प्रतिषेधे, अपातीत्यणुः, मीयत इति मात्रा-तिलतुसभागमित्तपि 'लेवमायाय संजए' कोऽर्थः, | लेवेपि ण संवसावे पत्ते वत्थे वा, किमंग पुण असणादिअट्ठा, अतिप्रसक्तलक्षणनिवृत्तये मा भूतदुपकरणमपि न संवास्यति, ॥१५६॥13 | तेन तदुपकरणं यत्र गच्छति तत्र तत्र 'पक्खीपत्तं समादाय' पक्षी पत्रसंभारंबा पतत्यनेनेति पत्रं पिच्छमित्यर्थः, विभाति तमिति भारः तत्तुल्यो,यथाऽसौ पक्षी तं पत्रभार समादाय गच्छति एवमुपकरणं भिक्षुरादाय मिरवेक्खी परिव्वए, नास्याकाङ्क्षा विद्यत इति निरखकाझी, उक्तं पूर्वकर्मक्षयार्थ शरीरं धारयेत्, तद्धारणोपायः, तद्यथा-आहार उपकरणं,तदपि-'एसणासमिओ लज्जूक ॥१७६-२७०।। सिलोगो, एसणासमिओ, लज्जू नाम लजावान् , लज्जुप्पमाण उक्तार्थः, 'अणियतवासी अनियतः केवलं मास, न एसणासमित एव जाव इंदियादिपमादा परिवज्जए येनोपदिश्यते-'अप्पमत्तो पमत्तेहिं इंदियादिपमत्तेसु गिहत्थेसु, पिंडस्स | पिंडयोः पिण्डानां वा पात:२ अतस्तं पिंडवातं 'गवेषयेत्' मार्गदित्यर्थः, एवं से उयाहु ॥१७७-२७०|| सिलोगो, एव-15 मर्थावधारणे, 'स' इति भगवान् तीर्थकरः, उदाहुरिति उदाहृतवान्, 'अणुत्तरनाणी' ति केवलणाणी, नातो उत्तरोत्तर अण्णं गाणं अस्थिति अणुचरणाणी, 'अणुत्तरदंसी' केवलदेसित्ति, अणुत्तरणाणदंसणधरो जाव से उदाहृतवान्, स्याद् बुद्धिःकोऽसौ ?, उच्यते, 'अरहा णायपुत्ते' अर्हतीत्यर्हन, नास्य रहस्यं विद्यते, णातकुलप्पभू(सू ते सिद्धत्थखत्तियपुत्ते, भगवान् ॥१५६।। | भगोऽस्यास्तीति भगवान् , ऐश्वर्यादि, 'वेसालीए 'ति, गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशालं शासनं वा, विशाले! दीप अनुक्रम [१६११७८] [169 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||१६० १७७|| दीप अनुक्रम [१६१ ૨૭૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [६], मूलं [१...] / गाथा ||१६०-१७७/१६१-१७८||, निर्युक्तिः [२३६...२४३ / २३६- २४३], भाष्य गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण ७ और श्रीया० ॥१५७॥ ना इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालिया, 'वैशाली जननी यस्य विशालं कुलमेव च । विशालं प्रवचनं वा तेन वैशालिको जिनः ॥ १ ॥ ' विवाहिते ' व्याख्याते, केचिदन्यथा पठन्ति 'एवं से उदाहू अरहा पासे पुरिसादाणीए भगवंते बेसालीए बुद्धे परिणिडवुडेत्ति बेमि ॥ अर्ह पूजायां, पूजामईतीत्यर्हः, पश्यतीति पाशः, पुरुषग्रहणं सत्यपि त्रिलिङ्गग्रहणसिद्धत्वे पुरुष एव तीर्थकरो भवति प्रायः, स न द्वयोर्लिङ्गयोः, आदातत्र्य आदानीयः पुरुषैर्वा आदानीयः, ज्ञानदर्शनचारित्रसर्वपराक्रमवृष्यादिगुणा अस्य इति विशालीयः, शेषमुक्तं, बुध अवबोधने, बुद्धवान् बुद्धः समन्तान्निर्वृत्तः, एवं जम्बोर्भगवान् आयुष्मान् सुधर्मा कथयति एवं से उदाहु जाव परिणिम्बुए इति बेमि । नयाञ्च पूर्ववत् । खुड्डगणियडिज्जं छट्टमायणं सम्मत्तम् ६ । >उक्ता अविद्या सविधान, ते तु अनिवृत्तात्मानो नोक्ताः क्रूरेषु कर्मसु प्रशस्य तद्विपाकं नापेक्ष्यते उरभ्रवत् इत्येषो क्रियते सम्बन्धः । तस्स चचारि अणुओगदारा, उदकमादी, ते परुवेऊण णामणिष्फण्णे उरब्भिज्जं, उरम्राज्जातं औरभ्रियं, उरअस्येदं औरश्रीर्य, सो उन्भो णामादि चतुर्विधो, दब्बे दुविहो- आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणए अणुवउत्तो, गोआगमओ तिचिहो जाणगसरीरादि ३, तत्थ ' जाणगसरीर ' ॥ २४५२७१ ।। वतिरित्तो दव्योरभो तिविहो, तं०- एगभविओ बद्धाउओ अभिमुहणामगुलो, भावोरभो दुविधो-आगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए उबउत्तो, णोआगमेत्यादि, णोआगमतो भावो रम्भे इमा गाहा- 'उरभाउणामगोयं ॥ २४६-२७१॥ गाथा कण्ठ्या, एतस्स इमा अत्थाऽधिकारगाथा 'ओरम्भे य' ।। २४७-२७१।। गाहा, ओरम्भे कागिणी अपए बबहारो सागरो, एते पंच दिता उरभिज्जे अज्झयणे वणिज्जंति । 'आर'ने रसगिद्धि' ।। २४८-२७२ ॥ गाहा, उरभारंभो कीस गते १, उच्यते, सोऽप्यासितो २ मारिज्जति, ण य तत्थोवायो कोऽवि, एवं असंजता अध्ययनं -६ परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -७- "औरभीय" आरभ्यते [170] उपसंहारः उरभ्र निक्षेपाः ।। १५७१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत %E%E चूर्णी । उरभ्ररवान्तः सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तराजीवा 'आरंभे ति मंसरसगिद्धा, उरम्भमच्छमहिसादयो, तेसि दोग्गतिगमणपञ्चवाया भवंति, इत्यत ' उवमा कया उरन्मे, | उरम्भिज्जस्स णिज्जुत्ती' णामणिप्फण्णो गतो ॥ जाव सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेयब, तं च इमं 'जहाऽऽएसं समुहिस्स' ७ और- 1 ॥१७८ मू.७३॥ सिलोगो, येन प्रकारेण यथा, आएसं जाणतित्ति आइसो, आवेसो वा, आविशति वा वेश्मनि, तत्र आविशति श्रीया वा गत्वा इत्याएसा, शोभनं गतं संगतं तं वा उद्देश्य समुद्देश्य, कथमुद्देश्य, आएसा अम्परहितो यथा आगमिष्यति, अमुगो ॥१५८ वा, तदा एवं मारेत्ता तेण सह भक्खिस्सामि, उच्छवदिने वा 'कोयि' ति कश्चित् , क्रूरकर्मा पापः, 'पोसेज्जा' 'पुष पुष्टी' एति एत्याकारितो एत्येलका, कथं पोसयति ओयणं जबसे देति' उतचि उदत्ति वा तमिति ओदनं ददाति, जवसो मुग्ग-1 मासादि, यानि चान्यानि तद्योग्यानि विसयणामादि, जो जस्स विसाति स तस्स विसयो भवति, यथा राज्ञो विषयः, एवं यद्यस्य विषयो भवति, लोकेऽपि वक्तारो भवन्ति सो यात्मगृहे राजा, अंगति तस्मिमिति अंगनं, गृहांगनमित्यर्थः, अथवा | विषया रसादयः तान् गणयन् प्रीणितोऽस्य मांसेन विषयान् भोक्ष्यामीति, अथवा विषयान् इति, धर्म परलोकभयं वा, एत्थ कप्पितं उदाहरणं- एगो ऊरणगो पाहुणयनिमित्तं पोसिज्जति, सो पीणियसरीरो सुण्हातो हलिद्दादिकयंगरागो कयकण्णचूलतो, कुमारगा य तं नाणाविहेहिं कीलाबिसेसेहिं कीलाति, तं च वच्छगो एवं लालिज्जमाणं दहण माऊए हेण य| गोवियं दोहएण य तयणुकंपाए मुकमवि खीर ण पिवति रोसेणं, ताए पुच्छिो भणति- अम्मो! एस पीदयगो सव्वेहिं| एएहिं अम्ह सामिसालेहिं इडेहिं जबसजोगासणेहिं तदुवओगेहिं च अलंकारविसेसेहिं अलंकारितो पुत्त इव परिपालिज्जति, अहं तु मंदभग्गो सुफाणि तणाणि काहेवि लभामि, ताणिीव ण पज्जत्तगाणि, एवं पाणियंपि, ण य में कोवि लालेति, ताए दीप अनुक्रम [१७९२०८] RESEARCCikck ॥१५८॥ [171] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत उरभ्रदृष्टान्ता सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीया श्रीउत्तरामण्णति-पुत्त ! 'आउरचिनाई एयाई ॥२४९-२७३॥ गाथा, जहा आउरो मरिउकामो ज मग्गति पत्थं वा अपत्थं वा तं, चूणौँ दिज्जति से, एवं सो पंदितो मारिज्जिहिति जदा तदा पच्छिहिसि, उक्तो दृष्टान्तः। प्रकृतमुपदिष्यते- 'तओ से पुढे परि७ और-14 विदे॥१७९-२७४ा सिलोगो, 'तत' इति ततो जवसौदनप्रदानात पुष्यते वा पुष्टः परिवृहितः परिवृढः, मियतेऽनेनेति मेदः। | उदीर्णान्तः उदीयते वा उदरं पीणिए' विपुलदेहे, प्रीणीतः तप्पित इत्यर्थः, विपुलदेहे नाम मांसोपचितः, 'आएसं| ॥१५॥ | परिकखए । कर्मवत् कर्मकर्तेतिकृत्वाऽपदिश्यते-मांसोपचयादसौ स्वयमेव मेदसा स्फुटन्निव आएस परिकखए, कथं सो आगच्छेदिति, उत्सवादिवो, यत्रायमुपयुज्येत, अथवा परिकंखति, 'जाव न एजति आएसो' ।।१८०-२७४|| सिलोगो, याव परिमाणावधारणयोः, कह दुही जवसोदनेऽपि दीयमाने ?, उच्यते, वधस्य वध्यमाने इष्टाहारे वा वध्यालंकारेण वालीक्रयमाणस्स लाकिमिव सुखं, एवमसौ जबसोदगादिसुखेऽपि सति दुःखमानेचा, 'अह पत्तंमि आएसे' अथेत्ययं निपात आनन्तर्ये, | श्रिताः तस्मिन् प्राणा इति शिराः, ततो सो वच्छगो तं नंदियगं पाहुणगेसु आगएसु वधिज्जमाणं दर्छ तिसितोवि भएणं माऊए । थणं णामिलसति, ताए भण्णति-किं पुत्त ! भयभीतोऽसि', हेण पण्डयपि म ण पियसि, तेण भण्णइ-अम्म! कत्तो मे 8 |पज्ज थणाभिलापो', गणु सो वच्छतो णीदतो अज्ज केहिवि पाडणएहिं आगएहिं ममं अग्गतो विणिग्गयजीहो विलोलनयणो | | विस्सरं रसंतो अत्ताणो असरणो विणिहतोत्ति तब्भयातो कतो मे पाउमिच्छा, ततो ताए भण्णति-पुत्ता। णणु तदा चेर ते कहिय, जहा आउरचिण्णाई एयाई, एस तेसिं विवागो अणुपचो । एस दिईतो 'जहा खलु से ओरम्भे ॥१८१-२७४।। | सिलोगो, यथा येन प्रकारेण, खल विशेषणे, स एव विशिष्यत इति स इति प्रागुक्ता, उरसा भ्राम्यति विभर्ति वा तमिति उरभ्रः, t%A4% A4% AF दीप अनुक्रम [१७९२०८] -EALEARN ॥१५९॥ + [172] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा नरकहेतवः चूर्णी ला प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| ७ और भ्रीया०४ ब ॥१६॥ समाहितमिति सम्पगीक्षितः, 'एवं वाले ' एवमवधारणे, एवमुपमाने, द्वाभ्यामाकलितो बाला, अधम्मो इट्ठो जस्स स भवति अधम्मिट्ठो, 'ईहति' ईहते नाम चेष्टते, नरकः उक्तार्थः, आयुष्कमुक्ताः , नरकेषु आयुपं कुत्सितं नरकायुष्क, अत्राह-16 * यथाऽसौ मांसबंहितात्मा आएस परिकखति एवमसौ बालः केन हितात्मा नरकायुः कंखतिी, उच्यते, 'हिंसे वाले मुसाबाई ॥१८२-२७५ ।। सिलोगो, हिंसयाति हिंसा, द्वाभ्यामाकलितो बाला, रागद्वेषाभ्यामित्यर्थः, मृपा वदतीति मुसावादी, अत्ती प्राणानिति अद्धा, विविधो लोक २, अद्धानंमि विलोकं करोतीति अद्धानंमि विलोकः, पन्थमोष इत्यर्थः 'अण्णदत्तहरे तेणे' | अम्नेसि दत्तं हरतीति अन्नदत्तहरः, अहवा अमेसि दत्तं तं हरति, स्तेन स्त्यायत इति स्तेना, मायास्यास्तीति मायी, कस्य हरामि किन्नु हरामीति वा, किन्तुहरः, शठः कैतवो, पंचास्य(सुवि प्पमत्तो, 'इत्थीविसयगिद्धे य' ॥१८३-२७५।। सिलोगो, इत्थीणं विसया इस्थिबिसया, इस्थिविसयभोग इत्यर्थः, इत्थीविसयगिद्धे, अथवा स्त्रीषु विषयेषु गृद्धः, गृध्यते स्म गृद्धः, *महतो आरंभो परिग्गहो य जस्स (स) भवति 'महारंभपरिग्गहे' 'भुजमाणे सुरं मंसं' मन्यते तत् मन्यते वा तं मन्यते वा सा भक्षयिता तेनोपभुक्तेन बलिनमारमानं मांस, परिहितः-परिवृढः, तेन मांसेन परिहिताः, परे य दमयतीति परंदमो, 'अयककरभोई य' ।। १८४ ।। सिलोगो, अजतीत्यजः, ककरं नाम महुरं दंतुरं मांस, अजा इव कक्करभोजनशीला अयकक्करभोई, तुंदिलमस्य जातं तुन्दिलः, चितं यस्य लोहित चियलोहितः, स तैरेव हिंसादिभिराश्रववृत्तः, मांसभक्षीयता आयुगं नरए कंखे, एति याति वाऽऽयुः, आनीयते तस्मिन्नरकं, कांक्षतीव कांक्षते, का तर्हि भावना, नासी नरकस्याद्विजते येन नरकसंवर्तनीयानि कर्माण्यारभते, स एव दृष्टान्तः, जहाएसं व एलए ॥ अनेहिवि पगारेहिं निरयाउयंक खति-'आसणं सयणं जाणं ॥१८५-२७५।। दीप अनुक्रम [१७९२०८] ॥१६॥ [173] Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत नरकहेतवः श्रीउत्तरा चूर्णी ७और -in- 14 सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीया ॥१६॥ सिलोगो, आसणं उवविसणपीढगादि, शय्यते तस्मिन्निति शयनं-पश्चकादि, जाणं-सगडहस्थिमस्सादि, दित्त-हिरण्णसुवण्णादि, तत्र गृद्धाः तदुत्पादयन्तः संरक्षमाणाश्च 'कामाई भुजित्ता' कामा-इस्थिविसया, एगग्गहणे तज्जातीयानां ग्रहणमितिकत्वा सेसिदियविसयावि महता, तै जित्वा दुस्साहणं धणं हिच्चा' साहर्ड णाम उपार्जितं, दुई साहर्ड दुस्साहडं, परेसिं| परेसिं उवरोध काऊणंति भणितं होति, दुक्खेण वा साहडं दुस्साहडं, सीतवातादिकिलेसेहिं उवचितंति, अथवा कताकतं देत-| | व्बमदेतव्वं खेत्थखलावत्थं दुस्साहडं, दुस्सारवितंति भणितं होति, 'बहुं संचिणिया रय' रीयत इति रजा, सो अविहो कम्मरयो। 'ततो कम्मगुरू जंतू ।। १८६.२७५ ॥ सिलोगो, 'तत' इत्यानन्तर्येण क्रियत इति कर्म, गृणातीति गीर्यते वा गुरूः, 'जंतु' ति जीवस्याख्या, प्रत्युत्पन्ने सुखे रज्जते रलयोरैक्यमितिकृत्वा 'पच्चुप्पण्णपराय(लज्ज)णे'अएब्व आगयाएसे' अज-1 | तीत्यजः, अजेन तुल्यः अयव्य, जहा सो आयबद्धो मारेज्जिउकामो सोयति, एवं सोवि मारणंतियवेदणाभिभूतो परलोगभृतो । | सोयति, एकाधिकारे प्रकृते अयमनेकादेशः। ततो आयुपरिक्खीणे (बले) खीणे ॥१८७-२७६|| सिलोगो, एति याति वा, 14 | आयुषि परिक्षीणे चुचा इतो, कुतभुतो, देहात विविधम्-अनेकप्रकारं हिंसकाः विहिंसकाः 'आसुरियं दिसं बाला' नास्य सूरो विज्जति, आसुरियं वा नारका, जेसिं चक्खिदियअभाव सूरो उद्योतो पत्थि, जहा एगेंदियाणं दिसा भावदिसा खेत|दिसावि घेप्पति, असात्यसुर:, असुराणामियं आसुरीयं, अधोगतिरित्यर्थः, अवसा णाम कम्मवसगा 'तम' मिति अन्धकार, स तत्थ नरकगतिं गतो बहुं दुक्खमणुभवन्तो परितप्पति ॥ दिईतो- 'जहा कागिणीए हेडं' ॥१८८-२७७ सिलोगो, येन प्रकारेण यथा, कागिणी णाम रूवगस्स असीतिमो भागो, वीसोवगस्स चतुभागो, अत्रोदाहरणम्-एगो दमगो, तेण वित्ति HOC-04 दीप अनुक्रम [१७९२०८ [174] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] ७ और-14 गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा०४ करेंतेण सहस्सं काहावणाण अजियं, सो य तं गहाय सत्येण समं सगिह पस्थितो, तेण भवणिमित्तं रूवगो कागिणीहि भिनो । चूर्णी तो दिणे दिणे कागिणीए भुंजति, तस्स य अवसेसा एगा कागणी, सा विस्सरिया, सत्थे पहाविए सो चिंतेति-मा मे रूवगोर दृष्टान्तः आन७ आर- मिदियव्यो होहित्ति उलगं एगस्थ गोयेउं कागिणीणिमित्तं णियत्तो, सावि कागिणी अनेण हडा, सोऽपि पउलतो अण्णेणते। श्रीया दृष्टान्तः दिट्ठो ठविज्जतो, सोऽवि तं घेत्तूण गट्ठो, पच्छा सो घरं गतो सोयति, एस दिढतो, 'अपत्थं अंबगं भुचा' अह कस्सइ रनो ॥१६॥ला अंबाजिण्णण विनाया जाया, सा तस्स वेज्जेहिं महता जत्तेण तिगिच्छिया, भणितो य-जइ पुणो अंबाणि खाहिसि तो विण Pस्ससि, तस्स य अतीव पियाणि अंपयाणि, तेण सदेसे सम्बे अंबा उच्छादिया, अण्णया अस्सवाहणियाए णिग्गतो, सह अम-14 चेण अस्सेण अवहरिओ, अस्सो दूरं गतूण परिस्संतो ठितो. एगमि वणसंडे चूयच्छायाए अमोण वारिज्जमाणोऽवि णिविट्ठो,। तस्स य हेट्ठा अंबाणि पडियाणि, सो ताणि परामुसति, पच्छा अग्घाति, पच्छा चक्खिउँ णिच् हति, अमच्चो वारेइ, पच्छा भक्खेउं मतो । भणितं दिटुंत दुर्ग, कागिणीदिद्रुतोवसंथारप्पसिद्धीए भण्णति-एवं माणुस्सगा कामा' ॥१८९-२७७|| सिलोगो, ४ जणाम कोई मणुस्सकामा दिग्बकामाण अतिए करेज्जा, अन्तिकं समीपमित्यर्थः, ततो ते कागिणीओऽवि अप्पतरा होज्जा।। जहा कामा तहा आयुपि हो(जो)ज्जा, अनुवर्तमान एव श्लोका, एवं माणुस्सयं आयुं दिव्बमाउस्स यंतिए, दिव्या पुण 'सहस्स| गुणिता भुज्जो' ति, ण केवलं सहस्सगुणा, अर्णतगुणा वा दिव्या कामा, दिव्यं चायुः, बंधाणुलोमयाओ आउंकामा य । दिब्धिया ।। स्यात्-कथमायुते जीच्यते', उच्यते-'अणेगवासा नउत्ता' ॥१९०-२७८।। सिलोगो, न एगमनेक, वर्षतीति वर्षः,18॥१६२॥ उतं णाम चउरासीतिसयसहस्साणि (पुवाणि ) से एगे णउतंगे, चउरासीतिण उतंगसतसहस्साणि से एगे णउते, चउरासीति- दीप अनुक्रम [१७९२०८] [175] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा उयसयसहस्साणि से एगे पउतंगे, एवं तवं, 'अणेगाई' वि असंखेज्जाई, ताई जाई 'पपणवतो' प्रज्ञा अस्यास्तीति प्रज्ञा- वणिम् वान् अतस्तस्य ज्ञानवता, स्थीयत इति स्थितिः, 'जाई जीयंति दुम्मेहा' इमेहि अप्पकालिएहिं जीयंति 'दुम्मेह' त्ति दुम्युद्धि-II दृष्टान्तः ७ और-1 गा 'ऊणे चाससयाउए' हीणवाससयाउए, भगवता वरिससताउएसु मणुएस धम्मो पणीतो इत्यतः ऊणे वाससयाउए, भणितो || श्रीया । कागिणी अश्वदिडतो य । इदाणि चवहारदिढतो, तप्पसिद्धिनिमित्तं मण्णति-'जहा य तिपिण वणिया॥१९१-२७९॥सिलोगो, ॥१६॥ जहा एगस्स पणियगस्स तिणि पुत्ता, तेण तेसिं सहस्सं सहस्सं दिनं काहावणाण, भणिया य-एएण वबहरिऊण एत्तिएण। कालेण एज्जाह, ते तं मूलं घेसूण णिग्गया सणगरातो, पिथप्पिथेसु पट्टणेसु ठिया, तत्थेगो भोयणच्छायणवज्ज जूयमज्जमं-1 सवेसावसणविरहितो वीहीए वबहरमाणो विपुललाभसमनितो जातो, चितितो पुण मूलमविद्दवंतो(जहा)लाभगं भोयणच्छायणमल्ला|संकारादिसु उवभुंजति, ण य अच्चादरेण ववहरति, ततितो न किंचि संववहरति, केवलं जूयमज्जमंसवेसगंधमनतंबोलसरीरोपकार-14 पाकिया अप्पेणेव कालेण तं दवं णिपियंति,जहावाहिकालस्स सपुरमागया,तस्थ जो छिन्नमृलो सो सम्बस्स असामी जातो, पेसए। | उपचरिज्जति, वितितो घरवावारे णिउत्तो भत्तपाणसंतुट्ठो, ण दायब्वभोगव्वेसु ववसायति,ततिओ सम्बस्स घरबित्थरस्स सामीकतो, लाकेई पुण कहंति-तिमि बाणियगा पत्तेयं २ ववहरति, तत्थेगो छिन्नमूलो पेसत्तमुवगतो, केण वा संयवहारं करेउ?, अच्छिन्नमृलो पुणरवि वाणिज्जाए भवति, इयरो बंधुसहितो मोदए, एस दिलुतो, अयमत्थोवण्णतो-'यवहारे उधमा एसा, एवं धम्मे विजाणह' ६ ॥१६॥ (१९२-२७९) एवामेव-तिमि संसारिणो सत्ता माणुस्सेसु आयाता, तत्थेगो मद्दवज्जवादिगुणसंपन्नो मज्झिमारंभपरिग्गहजुत्तो कालं काऊण काहावणसहस्समूलत्थाणीयं तमेव माणुसचं पडिलहति, वितितो पुण सम्म ईसणचरित्तगुणसुपरिराणि)द्वितो सरागसंजमेण CAL-. दीप अनुक्रम [१७९२०८] A [176] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा०ालद्धलाभवणिय इव देवेसु उबर नो,ततितो पुण हिंसे वाले मुसाबाते (१९३-२८०)इस्चताह पुष्वभणितहिं सावज्जजोगेहि पट्टि | चणिग्चूणों छिन्नमूलवणिय इव णारगेसु (तिरिएम) वा उववज्जति । एतदेव पुरस्कृत्यापदिश्यते-'दुहतो गती बालस्स' ॥१९४-२८०॥ दृष्टान्तः ७ ऑरश्रीया० सिलोगो, तस्स पावस्स कम्मस्स पवत्तमाणस्स दुहतोत्ति द्विधा, द्विप्रकारा इत्यर्थः, सद्यथा-नरकगतिः तिर्यग्गतिश्च, पालस्येति | रागद्वेषकलितस्य, सा तु 'आवती वधमूलिका' तत्र शीतोष्णाचा व्याधयश्च आवती व्यवस्तु प्रमारणं ताडनं वा, मूलहेतुं वा ॥१६४॥ आदी व्यध इत्यर्थः, स तु 'देवत्तं माणुसत्तं च तस्मात् कारणात् 'जिते' जितो लौल्यभावो लोलता शाख्येति शाममेवेति(ठयती | ति वा) शठा, न धर्मचरणोधमवान्, कोऽभिप्रायः?, यद्यसौ ते मनुष्यके कामभोगेण भुजतो ण तेहिं देव माणुस च जिव्वंतो, णीओ वकंतो इत्यर्थः, 'ततो जिए सई होई ॥१९५-२८०॥ सिलोगो, तत इति दुर्गतिं गतः, कुत्सिता गतिः दुर्गतिः, इत्थं तस्सवि ततः 'दुल्लहा तस्स उम्मज्जा' उम्मज्जणं उम्मज्जा, उम्मज्जायति, 'अद्धा' कालः 'सुचिरादवि' यदुक्तं सुचिरकालादपि 'एवं जिय सपेहाए'।१९६-२८०॥सिलोगो, एवमनेन, को जितः,पालः, कथं जितो, जेण माणुस्सपि णासादित, सम्यक् । समीक्ष्यते यया समीक्षा तया 'तुलिया वालं च पंडियं' तुलयित्वा तु तुलिया बालत्वं च पण्डितचं च, कुतो', पालो विसीयति, चशब्दात् जो य ण जितो, ण चा च्युतलाभक इति, स्यादेतत्-यथा जितस्य नरकतियग्यौनिघूपपत्रस्य दुर्लभा तस्स उम्मज्जा, एवं जो ण जितो ण य लद्धलाभो, जो य लद्धलाभो संसारी, तयोः कुत्र गतिः, उच्यते-यस्तावन्न जितो न च लब्धवान् सम पुनरपि मानुष्यमासादयति, ततोऽपदिश्यते 'मूलिय ते पविस्संति' जहा ते मूलप्पवेसा पुणरवि वाणिजाय भवन्ति, एवं जे| ॥१६॥ ट्रा संसारिणो पुणरवि माणुसत्तणं पाति ते मूल मेव पविसंति, ते मनुष्य क्षेत्रजात्यादिविशुद्ध, पुनरपि धर्मचरणयोग्या भवन्तीत्यतः दीप अनुक्रम [१७९२०८] CA [177] Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत + सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| श्रीउत्तरा० मूलमेव पवेसेंति, 'माणुसं जोणि मिति' जणीति जोणिः, स्यादेतत्-किमाचरंतो माणुसतं पावेंतित्ति 'विमायाहिं सिक्वाहिशीलवता चूणौ ॥१९७-२८०॥सिलोगो, मिनोतीति मीयते वा मात्रा, विषमा मात्रा विमात्रा, सिक्खाते शिक्ष्यन्ते वा तामिति शिक्ष्या, वियत इतिह ७.आर- व्रतं,ब्रह्मचरणशीला सुव्रता,पठ्यते च 'जे णरा गिहिसुव्वया'तत्र शिक्षानाम शास्त्रकलासु कौशल्यं, वेमाता नाम अनेकप्रकाराः प्राया । पुरिसे पुरिसविसेसे इत्यतो येमाता, सुव्रता गाना (नाम) पगतिभद्दया, उक्तं च'चउहि ठाणेहिं जीवा मणुयाउं पकरेंति, तंजहा१६६५ पगतिभद्दयाए पगतिविणीययाए साणुकोसयाए अमच्छरियाएं' 'उति माणुसं जोणि मनुष्याणामियं मानुषी, 'कम्मसच्चा हु पाणिणो' कम्माणि सञ्चाणि जेसि ते कम्मसच्चा, तस्स जारिमाणि से तावविधि गतिं लभति, तं सुभमसुभं पा, अथवा माकम्भेसत्या हि, सच्चं कम्म, कम्म अवेदे नवेइचि, यदि हि कृतं कर्म न वेद्यते ततो न कर्मसत्याः स्युरिति, यदिवा नष्ट कर्मा, इष्टफलामाधुर्यादिति, पठ्यते च-'कम्मसत्ता ह पाणिणो' कर्मभिः सक्ताः, उक्तं अल्पारंभपरिग्रहवता फलं, यैस्तत् । मूलमासादेिने त) । लद्धलाभ प्रतीत्योच्यते 'जेसिं तु विउला सिक्खा ॥१९८-२८२।। सिलोगो, ये इति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः, विपुला विशाला इत्यर्थः, सिक्खा दुविधा-गहणा आसेवणया, 'मुलियं ते उडिया' उद्विता नाम अतिक्रान्ता, पठ्यते च-'मूलं|| लअइच्छिया' अतिक्रान्ता इति, लब्धलाभका वा 'सीलमंता' सह विसेसण सविसेसा, सविससा नाम लाभगए वा लाभगा | *वा सीलवंता सविसेसा इत्यर्थः, णो दीणो अहीणो इति अद्दीणो णाम जो परीसहोदए ण दीणो भवति, अथवा रोगिवत् । का अपत्याहारं अकामः असंजमं वज्जतीति दीन, जे पुण हुप्यन्ति इव ते अद्दीणा जति देवयं ।। उक्तं सीलवर्ता फलं, 'एवं अदी-TIK पण भिकू॥१९९.२८३।। सिलोगो, एवमवधारय, दीयते दीनमात्र वा दीन:, न दीन: अदीना, परीसहोदएऽपि सति अदीना, दीप अनुक्रम [१७९ २०८] [178] Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा || १७८ २०७|| दीप अनुक्रम [ १७९२०८ ] भाग-7 “उत्तराध्ययन- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८]], निर्युक्ति: [ २४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णों ७ और श्रीया० ॥१६६॥ तदेवमदीणवं भिक्खु देवलोगमानि तं मत्वा, अगारमस्यास्तीति अगारी तं चागारीणं वेदित्वा, मानुष्य उपवन इति वाक्यशेषः, अगारी यः श्रावकः, असावपि देवलोकवान्, एकान्तदण्डस्तु नरक एक एव भवति, एवं सो बालो अप्पेहिं कामेहिं बहु जीवति, स एवं त्रितयस्यास्य विशेषज्ञः 'कहन्तु जिचमेलिक्वं' कथमिति परिप्रश्ने, जिच्चतोऽपि एलिक्वंति एरिसं, सर्वस्तु कथमीदृशः १, त्रितयविशेषाभिज्ञो जिच्चेज्ज, जिच्चमाणं वा अप्पाणेण संवेदेज्जा, तहाऽहं अप्पसुहत्थे देवसुहं जितो मूलं वा वमिति इति, अथवा जिच्चति यया सा जिच्चा जे तु वेमात्रेण हि जित्वा लक्ष्यते जेतुमस्तीति, जिच्चा सो तु कई लक्ष्यतेः । उक्ता व्यव हारोपमा, साम्प्रतं सागरोपमा, अत्राह - वक्ष्यति भवं सागरोपमं इदं तावदस्तु यदुक्तं कागिणीदृष्टान्तः स नोपपद्यते, ननु चक्रवर्त्तिबलदेववासुदेवमण्डलिकेश्वराणां अन्येषां पृथग्जनानां यथा वस्तूपमानि इष्टानि विषयसुखानि दृश्यते, तथा मनुष्यवशप्राप्तावेवापदिश्यते इत्यतस्तानि न काकिणीमात्राणि विषयसुखानि, उच्यते-से हि काकिणीमात्रादप्यवस्थिता एव, कहं १, जेण ते वंतासवा० अणितिया बहुसाधारणा इति, तिरिया य, तद्विपरीतास्तु देवकामाः, अप्येवं सहस्रमात्राऽभिदर्शनं ननु तत्रैवाप दिष्टं 'सहस्वगुणिता भोज्जो'त्ति जावतगुणोति अयं तु सुमहदंतरविषयकरो दृष्टान्तः, सभिरुद्वतरथ, येनोच्यते- 'जहा कुसग्गे उदगं ||२००-२८३|| सिलोगो, येन प्रकारेण यथा, समंताद् अतीव उत्ता पृथिवी सर्वतस्तेनेति समुद्रः, कुशाग्रं, यथा कचित्कुशाग्रे लम्बमाणमुदकं दृष्ट्वा ब्रूयात् यदिदमुदकं कुशाग्रे लंबते एतत्समुद्रोदकं व तच्च यथा प्रमाणताविधुरं 'एवं माणुस्सया कामा' अंतिए णाम तस्स समीचे कता, तैः सह तुल्यमाना विम्ब (न्दु) मात्रा अपि न पूर्वति । 'कुसग्गमेता इमे' ॥२०१-२८४ ।। कुशाग्रमात्रा इति कुशाग्रोदकबिंदुमात्रा 'इमे'वि मानुष्यकाः सागरकुशाग्रमात्रा 'सन्निरुद्धमि आउए' सनिरुद्धं न [179] सागर दृष्टान्तः ॥१६६॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] | गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत फल चूर्णी सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| OLORCHECRE श्रीउत्तरावरिससतातो पर जीवंतीति, अंतरावि य णाणाविधेहिं उवक्कमविसरहिं सन्निरुज्झते, ततो अप्पसारेसुकामे सन्निरुद्ध य आउतमि बालपंडित भवान् कस्स हेतुं पुरो काउं'कस्सेति कस्स कारणं भवं असंजमं पुरस्कृत्य अधर्माय प्रवृत्तोऽसि?, किमन्यज्जो(नो) वदिश्यति, न ७और- तु स्वयं चदावाल्यादुपचितं कर्म वेत्तव्यमिति, येनात्मा 'जोगखेमं न संविदे? संक्षेपार्थस्तु कस्सेहं अवराह उरि काउं? कं भ्रीया० या पुरतो किच्चा? अप्पाण जोगखेमे ण संवियसि, उन्मत्तवत् , किंच-'इह कामाऽणियहस्स' ॥२०२-२०३।२८५।। सिलोगो, ॥१६॥ | 'इहे'ति इह मनुष्यत्वे, काम्यंत इति कामा, कामेभ्य अनिवृत्तस्य, इयत्ती इच्छति वा अर्थो, आत्मार्थ एवापराध्यते, 'सुच्चा नेयाउयं मग्गं' नयणशीलो नैयायिकः 'मग्ग' ति दसणचरि चमइयं मोक्खमग्ग, तं श्रुत्वा, पठथते वा-पत्तो णेयाऊयं मग्गं, माजभुज्जो परिभस्सति, प्राज्ञः सन् नैयायिक मार्ग जं पुणरवि सब्बतो भस्सति, जे पुणरवि मिच्छत्तं चैव गच्छति, एतस्स चेव। सिलोगस्स पच्छद्धं केति अण्णहा पठति-'पूतिदेहनिरोहेणं, भवे देवेत्ति मे सुयं' पोसयतीति पातयतीति (पुति) औदा-14 रिकशरीरमित्यर्थः, पूतिदेहस्स निरोधे पूतिदेहणिरोहो णासी देहो होतो जइ अत्तहो नावरसंतो इति मे सुर्य, इति उपपदशेनाथे, मे इति मया,श्रुतमाचार्येभ्यो, नान्यतः। उक्तं बालिशफलं, देवलोकात् च्युतमनुष्येपु'इड्ढी जुत्ती॥२०४.२८५||सिलोगो, इड्डी-10 ऋद्धी, द्युतत्यनेनेति द्युति, अश्नुते सर्वलोकेष्विति यशः, वृणोति वृण्वति वा तमिति वर्णः, एति याति अस्मिन्निति आयुः, 'सुखं' सौख्यं 'अणुत्तरं' ति मणूसेसु ज सव्वुत्तम 'जत्थ भुज्जो मणुस्सेसु, तत्ध से उववज्जति'ति कंठ्यं, उक्त बालपंडितयोः ॥१६७॥ फर्क, तदनुषङ्गादेवापदिश्यते-'बालस्स पस्स थालतं'।२०५-२८५।। सिलोगो, कंठया। धीरस्स पस्स धीरत्तं'।।२०६-२८५॥15 ला सिलोगो, धातीति धीरा, सेसं कण्ठयं । 'तुलिआण बालभावं' ॥२०७-२८५।। सिलोगो, तलियातो-तोलयित्वा, चालतो भावो। ENANTRA दीप अनुक्रम [१७९२०८] [180] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [७], मूलं [१...] / गाथा ||१७८-२०७/१६१-२०८||, नियुक्ति : [२४५...२४८/२४४-२४९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत आपण IM सूत्रांक [१] गाथा ||१७८२०७|| ॥१६॥ श्रीउत्तरा चालत्वं नरकादिगमन, 'अबालं चेव पंडिते' अवालो पण्डित इत्यर्थः, तस्माद्देवलोके गमनं, एतानि तोलयित्वा 'चइऊण कपिल निक्षेपाः बालभावं, अबालं सेवए' आचरेत् 'मुनी' मुनीति त्रैलोक्यावस्थान भावानिति मुणी, इति बेमि नयाः पूर्ववत् ॥ उरम्भिज्ज ८ कापि-11 | णाम सत्तममज्झयणं सम्मत्तम् ।। लीया इदानीमलोभाध्ययनं, तस्स चचारि अणुओगद्दारा उचकमादि परूषेऊण (णाम ) निष्फननिक्खेवे काबिलिज्जति, तत्थ गाहा-'निक्खेवो कविलंमी॥२५०-२८६॥गाहा, निक्खेवो कविकस्स, निक्खेवो नामादिचउव्विहो, णामठवणाओ गयाओ, पदव्वकविलो दुविहो-आगमतोपोआगमतो य,आगमतो जाणए अणुवउत्तो नोआगमओ तिविहो-जाणगसरीरादि'०॥२५१-२८६॥ तत्थ जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो कविलो तिविहो-एगभविओ बद्धाऽऽउओ अहिमुहणामगोत्तो, भावकपिलो दुविहोआगमओ णोआगमतो य, आगमतो जाणए उवउत्तो, णोआगमतो इमा गाहा-'कविलाउणामगोर्य' ।। २५२-२८६ ।। गाहा, कण्ठया, एतस्स भावकविलस्स इमा य उप्पत्ती- कोसंबी कासवजसा ॥२५३-२८९।। गाहा। तेणं कालेणं तेणे समएणं कोसंबीए है नयरीए जितसत्तू राया, कासवो भणो चोदसविज्जाठाणपारगो, राइणो बहुमतो, वित्ती से उवकप्पिया, तस्स जसा णाम भारिया, तेर्सि पुत्तो कचिलो णाम, कासवो तमि कविले खुडलए चेव कालगतो, ताहे तमि मए तं पर्य राइणा अण्णस्स मरुय-1 गस्स दिणं, सो य मासेण छत्तेण य धरिज्जमाणेण बच्चइ, तं ददळूण जसा परुण्णा, कविलेण पुच्छिया, ताए सिट्ठ-जहा पिया|8| ॥१६८॥ ते एवंविहाए इड्डीए णिम्गच्छियाइओ, तेण भण्णति-कथं', सा भणति-जेण सो विज्जासंपण्णो, सो भणइ-अहपि अहिज्जा दीप अनुक्रम [१७९२०८] RECENERABARKARS अध्ययनं -७- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -८- "कापिलीय" आरभ्यते [181] Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२०८२२७|| श्रीउपराकामि, सा मणइ-इहं तुम मच्छरेण ण कोइ सिक्खवेति, वच्च सावत्थीए नयरीए, पिइमिचो इंददत्तो णाम माहणो, सो ते सिक्खा-12 कपिलवृत्च चूणौं | वेहिति, सो गतो तस्स सगास, तेण पुच्छितो-कोऽसि तुम, तेण जहावतं कहियं, सो तस्स सपासे अहिज्जिङ पयत्तो, ८ कापि- तत्थ सालिभद्दो णाम इम्भो, सो तेण उवज्झाएण णेच्चतियं दवावितो, सो तत्थ जिमिचा २ अहिज्जइ, दासचेडी य तं परिवेलीया. सेइ, सो य हसणसीलो, तीए सद्धिं संपलग्गो, तीए भण्णाइ-तुमे मे विपितो, प य ते किंचिवि, गवरि मा सिज्जासि | पात्तमुल्लणिमित्तं अहमण्णेहिं २ समं अच्छामि, इयरहाऽहं तुम आणाभोज्जा । अण्णया दासीण महो तुक्कड, सा तेण HAI समं णिविणिया, णिई सा न लहइ, तेण पुच्छिया-कतो ते अरती, तीए भण्णति-दासीमहो उवहितो, ममं पत्तपुष्काइमोल्लं राणस्थि, सहीजणमझे विगुप्पिस्सं, ताहे सो आधिर्ति पगतो, ताए भण्णति-मा अधितिं करेहि, एत्थ धणो णाम सिडी, अ(ह)प्पभाए लाव जो पढमं बद्धावेह से दो सुवष्णए मासए देह, तस्थिमं गंतूण तं बद्धावेहि, आमंति तेण भणिय, तीए लोभेण मा अण्णो AIगच्छिहित्ति अतिपभाए पेसितो, वच्चंतो य आरक्खियपुरिसेहिं गहितो, बद्धो य । ततो पभाए पसेणइस्स रण्णो उवणीतो, राहणा 13 पुच्छितो, तेण सम्भावो कहितो, रायाए भणितो-जं मग्गसि तं देमि, सो भणति-चितिचा मग्गामि, रायणा तहति भणिए। असोगवणियाए चिन्तेउमारद्धो-कि दोहि मासहि साडिगाभरणा पडिवासगा जाणवाहणा उज्जाणोषभोगा मम वयस्साणं | पब्बागयाण घरं भज्जाचट्ठयं 5 चण्णं उबउज्ज, एवं जाव कोडीएवि ण ठाएति । चिततो सुहज्झवसाणो संवेगमावण्णो जाई ॥ | सरिऊण सर्यबुद्धी सयमेव लोय काऊण देवयादिण्णगहियायारभंडगो आगतो रायसगासं, रायणा भण्णति-किं चिंतियं १, सो भणति-'जहा लोहो तहा लोभी' गाहा (* २२४।२५६-२८९) कण्ठया, राया भणति-कोडिंपि देमि अज्जोत्ति भणति राया पहट्ठ दीप अनुक्रम [२०९२२८] ६९॥ - [182] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत ध्रुवत्वं सूत्रांक [१] गाथा ||२०८२२७|| श्रीउत्तरा| मुहवष्णो । सोऽपि चइऊण कोडिं जातो समणो समियपावो ॥१॥(२५७-२८९)छम्मासा एउमस्था(२५८-२८९) छम्मासा छउमस्थो राससारस्याचूणों आसी, इत्तो य रायगिहस्स नयरस्स अंतरा अट्ठारसजीयणाए अडचीए पलभरपामोक्खा इकष्टदासा णाम पंच चोरसया ८ कापि अच्छति, अइससे उप्पपणे (२५९-२८९) गाहा । णाणेण जाणियं, जहा ते संबुझिस्संति,ततो पट्टितो, संपत्तो य तं पएसं. साहिलीया. | एण य दिट्ठो कोऽवि एतित्ति आसण्णीभूतो, नाओ जहा समणगोत्ति, अम्हं परिभविउं पागच्छति, रोसेण व गहितो, सेणावइ॥१०॥13 समीयं णीतो, तेण भण्णाति-मुयह पंति, ते भणंति-खेल्लिस्सामो एतेणंति, ताव एते भणंति-नच्चसु समणगोत्ति, सो भणइ-वायंतगो | णत्थि, ताहे ताणिवि पंचवि चोरसयाणि तालं काहेति, सोऽवि गायति धुवगं,"अधुवे आसासयंमी, संसारंमि दुक्खपउराए।कि। | णामतं होज्ज कम्मयी जेणाहं दुग्गइंण गच्छेज्जा॥१॥"(२०८-२८९) एवं सन्वत्थ सिलोगतरे धुवगं गायति, अधुवे'त्यादि, | तत्थ केइ पदमसिलोगे संबुद्धा,केह वीए,एवं जाव पंचवि सया संबुद्धा। णामणिप्फनो,सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारतवं,सो भगवं तेसिं चोराण | बोहणणिमित्तं इमं धम्म गीतयं गायति-'अधुवे असासयंमि ॥२०॥नत्थ निवृत्तं,अधुवो णाम णरगादिगमणसंबद्धो संसारो जतो अ४ धुवो,अत एव असासतो की,जतो एव मम प्रियाप्रिय इत्यत एवाहं बोधयितुमानीतः,न हि भक्तिवादे पुनरुक्तमपि,यथा सर्वातिशयनि धान तथा आघवणियाए तहा प्रसापे(दे। उपदेशे च,एवमिहवि अधुवे असासते य,उवदेशतो भयदरिसणओ यण पुणरुत्तं भवति,अधुवे | असासयंमि माणुस्सतं गच्चंतं भवति तेण अधुवं, ण कोइ अच्चतमणुस्सो अस्थि, असासयं तु सोपक्रमायुषत्वात् , संसरतीति ॥१०॥ संसारः, सारीरमाणसाणि दुक्खाणि जत्थ पउराणि संभवति दुक्खपउरो, अतो तमि संसारमि दुक्खपउराए तीणोऽपि स भगवान् | तं तितीर्घः इदमवोचत्- 'किं णाम होज्जतं कम्मर्ग' किमिति परिप्रश्ने, किनाम, क्रियत इति कर्म, जेणाहं दुग्गहतो दीप अनुक्रम [२०९२२८] [183] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥२०८ २२७|| दीप अनुक्रम [२०९ ૨૨૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, निर्युक्तिः [२४९...२५९/२५० - २५९], अध्ययनं [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण ८ कापि लीया. ॥ १७९॥ मुम्बैज्जा, जेण कम्मुणा कतेण अहं दुग्गइतो मुच्चेज्जा, कुत्थिता गति दुर्गति, सा चतुर्विधा णेरइयदुग्गती तिरियमणुय० देवदुगतीय, णागकर (ज्जु) णीया पुण पढति 'अधुवंमि मोहं' गाहा, एतेवि एमेव धुवगं पच्चुग्गायंति, नालिं च कुर्हिति तेहिं पच्चुग्गातीए कविलो भणति - 'विजहित्तुं पुण्वसंजोगं ॥२०९-२९०॥ विविधं हित्वा वि०, पुथ्यो णाम संसारो, पच्छा मोक्खो, पुत्रेण संजोगो पुव्वस्स वा संजोगो पुय्वसंजोगो, अथवा पुव्वसंजोगो असंजमेण णातीहिं वा, स्निह्यते अनेनेति स्नेहः, न कुत्रचिदिति, न तान्यनुसरे। 'तो णाणदंसणसमग्गो' ॥२१०-२९१॥ वृत्तं, तो इति ततो धुवाणंतरं स भगवान् कपिलः ज्ञानदर्शनसमन्वितः हियनि स्सेसाय, तत्थ हितं पथ्यं, इह परत्र च नियतं निश्चितं वा श्रेयः निःश्रेयसं अखयं, संसारव्युच्छदायेत्यर्थः, कथं हि सर्वे सच्चाः संसारविच्छेदं कुर्युः, 'तेसिं विमोकखणट्टाए' 'तो' ति तेसिं चोराणं, तेहिं सव्वेर्हि पुव्वभवे सह कविलेण एगङ्कं संजमो कतो आसि, ततो तेहिं सिंगारो कतिलओ जम्हा अम्हे संबोधितव्वेति, अतो भण्णति-तेसिं विमोक्खणढाए, अथवा तोसें विमोक्खणट्टाए, कथं हि एते चोराः सर्वकर्मविमोक्षाय अभ्युत्तिष्ठेयुः, तेसिं विबोहणडाए मासति मुणिवरो, मुनीनां वरः- प्रधानः, विगतो मोहो यस्य स भवति विगतमोहः, केवलीत्यर्थः, किं सोऽपि तथा १, न, उच्यते- 'सव्यं गंधं कलहं च ॥ २११-२९१॥ वृतं, 'सव्वं 'ति अपरिसंसं, ग्रन्थनं ग्रथ्यते वा येन स ग्रन्थः, स द्विविधः चाह्योऽभ्यन्तरथ, कलाभ्यो हीयते येन स कलहः, भण्डनमित्यर्थः, तथाविधं तथाप्रकारं यद्विधं असंयतानां भिक्षुरुक्तः, अथवा तथाविधो भिक्षुः “सव्वेहिं कामजारहिं' सच्चेहिं- अपरिसे से सु काम्यंत इति कामाः कामजातेसुंति कामप्रकारेषु, इच्छाकाममदनकामेष्वित्यर्थः, 'पासमाणे' त्ति तेषामिह परत्र च पापं पश्यन् 'ण लिप्यति' त्ति न हि प्राज्ञः अव्ययं दृष्ट्वाऽऽचरति, त्रायतीति त्रायी, संसारमहाभयादात्मानं त्रायतीति त्रायी, पुनः 'भोगा [184] संसारस्याध्रुवत्वं ॥ १७१ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥२०८ २२७|| दीप अनुक्रम [२०९ ૨૨૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८]], निर्युक्तिः [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा• चूण ८ कापि लीया 1180311 ४ मिसदोसविसन्ने ॥ २१२-२९२ ॥ वृत्तं, भुज्यंत इति भोगाः, यत् सामान्यं बहुभिः प्रार्थ्यते तद् आमिषं भोगा एव आभिषे२, दोसो नाम इहपरत्र च दुःखोत्पत्ति कारणं, भोगामिस एव दोस्रो, विषमन्नवत्, यतो न शक्नोति पङ्कविषन्न इव गजमात्मानं समुद्धत्तुं, अतो भोगामिसदोसेहिं विसन्ना भोगामिसदोसविसना, तदेव 'हियनिस्से यसबुद्धिवोच्चत्थे' हितमिह परत्र च यत्य (प्रेयोऽ)र्थः, निःश्रेयसं मोक्षपदमित्यर्थः, वु च्चित्थाोति जस्स हिते निःश्रेयसे अहितानिःश्रेयससंज्ञा, विपरीतबुद्धिरित्यर्थः, स एवंगुणजातीयत्वात् उवचए धूलसरो मरहट्टाणं मंदो भन्नति, अवच्चए जो किससरीरो सोवि मंदो भण्णति, भावमंदो अवच्चए, जस्स धूला बुद्धि सो मंदबुद्धी भण्णइ, एत्थ धूलबुद्धिमंदेण अधिकारो, मूढो णाम कज्जाकज्जमयाणाणो, सोर्तिदियवि सदोदो (यवसङ्ग्रो) वा अहवा वालमंदमूढा शक्रपुरन्दरवदेकार्थमेव, सो एवंविधो बालो मंदो मूढो भोगामिसदासविसनो' बज्झति मच्छिया व खेलंमि' जहा मच्छिया विखेलेण चिक्कणेण नाम श्लिष्टा वध्यन्ते एवं सो भोगसंश्लिष्टत्वात् अडविण कम्मेण बज्झति- 'दुप्पारच्चय।०' ॥२१३-२९२ ॥ वृत्तं दुःखं परित्यजन्ते इति दुष्परित्यजाः 'इमे' इति इमे मनुष्यजाः कामाः, कामाः कामा न सुखं त्यजन्त इति णो सुजहा, दधातीति धीरः न धीरः अधीरः पुरुषः उक्तार्थः, 'त्यज हानौ ओहांकू त्यागे' इत्यतः पुनरुक्तं तच्च न भवति, कस्मात् ?, अविशेषितोद्देशात्, उक्तं च- 'दुष्परिच्चया हमें ननूपदिष्टं केन केभ्यः, तत उच्यते- 'णो सुजहा अधीरपुरिसेहिं' जहिंसु, अधीरपुरिसा भवन्ति तेसि दुप्परिच्चया, यद्यपि अधीरपुरुषैः दुस्त्यजा तथापि अह संति सुध्वया सवे 'जे तरंति वणिया व समुहं' अथेत्यानन्तर्ये, निपातो वा सन्तीति विद्यन्ते, जे, किं कुर्वन्तो कचित् पठन्ति 'जे तरंति अंतरं वणिया व' अवरो नाम समुदो, समन्तादुनाचे उन्ना वा पृथिवीं कुर्वत अनेनेति समुद्रः, ये इत्यनुद्दिष्टस्य निर्देशः, वणिग्भिस्तुल्या वाणिया, कामं दुरुत्तरः समुद्रः तथाविधप्लवेन तीर्यते, एवं दुस्त्यजा कामा [185] *%-196%e0%খ। এন ग्रन्थादि त्यासः ॥ १७२ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] | गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२०८२२७|| लीया. DIL श्रीउत्तरा अधीरैः तथापि तृणमिव पटान्ते लग्नं त्यजन्ति,के पुनः गृहेभ्यो विनिसृत्य, समणा मु एगे वयमाणा||२१४-२९३॥वृत्तं ,श्राम्यन्तीति कृतीधिका चूर्णी लाश्रमणा, 'मु' इति आत्मनिर्देशः, एके,न सकूँ, ये मिथ्या दृष्टिदर्शिनः परतंत्राः, प्राणनं प्राणः, प्राणानां वधः प्राणवधः अतस्तं, मिया नामज्ञत्वं इति मृगा मृगभूतान हिताहितज्ञा, ते हि प्राणांचव ण याणंति, कुतस्तईि प्राणिवधं ज्ञास्यन्तिी, कथं केसितिर, एगिदिया अजीवा एव, तमजाणता 'मंदा नरगं गच्छति' मंदा नाम बुद्ध्यादिभिरपचिता, मंदबुद्धय इत्यर्थः, नीयते तास्मिन्निति ॥१७३॥ नरकानारकं कर्म कुर्वते ते नरका, कारणे कार्योपचारादिति गच्छंति, 'पाला पावियाहिं दिट्ठीहिं' वाला X | उक्ता, पातयति पासयति वा पापं, दर्शनं दृष्टि अतच्चे तत्त्वाभिनिवेशात् पापदृष्टयो भवति, बहुत्वग्रहणं तु सर्वे कुप्रवचनिनो मिथ्यादृष्टयः, स्यादाशका-स्वयं न कुर्वते प्राणवर्ध , उच्यते , अस्तु तावत् स्वयमकरणं, अनुज्ञायामपि||| एवं दोषः, यतोऽपदिश्यते- 'न हु पाणवहं अनु० ॥ २१५-२९४ ।। वृत्तं, न प्रतिषेधे, प्राणवध उक्तः, ये नौद्देशिक भुंजते ते नानुजाणति, णय प्राणवध अणुजाणतो मुरवेज्ज कदाचिदपि 'दुक्खाना' मिति सारीरमाणसाणं, अविधस्स कम्मस्स दुःख मिति संज्ञा, स्यादेतत्-केनोपदिष्ट, उच्यते-'एबमारिएहिमकवायं णाणदंतणचरितारिया, स्यादन्येऽप्यायो। क्षेत्रार्यादयः लातद्विशेषणार्थम् (अ)केचालिन्युदासार्थमुपदिश्यते 'जेहिं सो साधुधम्मो पत्रत्तो' साधूणां धर्मः सो साधुधः, न च तीर्थकर एवं PIस्यात, कथं श्रमणो भवति', उच्यते, 'पाणे य नाइवाइज्जा ॥ २१६-२९३ ।। वृत्त, प्राणनं प्राणः, अतिपतनमनिपातः, प्राणा- १७३ त्रातिपातम्येव, चशब्दात् हर्णते णाणुजाणामि, मृपावादादीन्यपि न सेवेत, 'से समियत्ति' से इति निर्देशा, सम्यक इतः । शमिता, शान्त इत्यर्थः, तत्रागत इति प्रतीतं, एवं समितात्मनः 'ततो से थावयं कम्म निज्जाइ उदगं व थलाओं' निज्जाइ दीप अनुक्रम [२०९२२८] ऊ1-%4 [186] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [3] गाथा ॥२०८ २२७|| दीप अनुक्रम [२०९ ૨૨૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८]], निर्युक्तिः [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० ५ चू ८ कापि लीया. ॥१७४॥ नाम अभो गच्छति, दृष्टान्तः उदगं वा थलातो, केषां नातिपातेज्जा १, उच्यते, 'जगणिस्सितभूताणं तसणामाणं च धावराणं च' पठ्यते च 'जगनिस्सितेसु धाधरणामेसु भूतेसृ तसणामेसु वा ॥ २१७-२९४॥ वृत्तं जेसु ते प्राणाः आश्रिता इत्यर्थः येऽप्येवं पठन्ति- 'जगणिस्सिएहिं० धावरेहिं वा' तेषामस्त्यविरुद्धं कथं १, हिंकारस्य सन्निधानत्वात् कारणत्वाच्च, तत्र कारणे बहुवचन एव उपयोगो हिंकरणस्य, त ( य )था तेहिं कयं सन्निधाने तु एकवचन एवं हिंकारोपयोगः, जहा कहिं गतो आसिकहिं च ते सद्धा, बन्धानुलोम्यात् अनेकेऽप्येकादेशोऽविरुद्धः, तेन पुनरपि ब्रूमः शिष्योऽसौ, महद्धर्थाद (महार्थ्यात्) सच्चानुकंपया च 'न तेहि (सि) मारभे दंडं' न इति प्रतिषेघे तेहिति तेहिं पुष्यादिदेहिं तसेहिं थावरेहिं या(वा)ण हणे, मणेवि अध्पणा ण हणे, अज्जापि केनचिदुच्यते- 'वीसासयाऽभिनिवेसेन वा प्रणयाद्वा स्वयममारयता, एतत्सर्वे यदि मारयति ततस्ते न मारयामि, कशादिभिर्वा हन्यमानो तथापि नो तेहिं आरमे दंडं, एत्थ दिहंतो--उज्जेणीए सागरस्स सुतो चारेहिं हरि मालबके सूयगारस्स इत्थे विक्कतो, लावगे मारयसु ण भारयामीति इत्थीपादत्तासणं सीसारक्खणकरणं चेति । स एवं प्राणत्यागेऽपि सच्चानपरोधी, मणसा वयसा कायसा चैव, मणेण सयं पाणाइयातं न करेति एवं योगत्रयकरणत्रयेण नव मंगा माणियच्वा ॥ उक्ता मूलगुणाः, तदुपकारीति | उत्तरगुणा भनंति--ते च समितिगुप्त्यादयः (तत्र) गवेपणासमितिमधिकृत्योपदिश्यते- 'सुद्धसणाउ णच्चा ॥ २१८-२९५॥ शुद्धयन्ते शोभते वा शुद्धः, एपति एभिरित्येपणा, ततथैवं ज्ञात्वा तत्थ सुद्धसणाओ सतहं पिंडेसणाणं जाव अलेवकडाओ, ताओ पुण उवरिल्लाओं चत्तारि, अथवा सव्वाओ चैव एसणाओ सुद्धाओ, तास्वेवात्मानं स्थापयेत्. ताहिं भिक्खं गेण्डतिति इच्चेवं तासु अप्पा ठावितो भवति, तासु य ठावेंतिण संजमे अप्पा ठात्रितो भवति, तदप्येषणीयमेषित्वा 'जाताए घास मेसिज्जा' जाता [187] प्राणवधत्यागः ११७४॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: 4-% प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२०८२२७|| एपणासमितिः अनियमिवानामासुरत्वं श्रीउत्तरा|| नाम यात्रा मात्रा, अस्यते असत इति प्रासा, अथवा जातग्रहणात् यत्प्रासुकजातं, तदपि सुंजानः 'रसगिद्धे न सिपाभिवाए' चूणौँ मा न रसगिद्धो होज्जा, मिक्षा अकुः भिक्खाए, स्यात्-किमालवणं, उच्यते--'पंताणि चेव सेविज्जा' ।।२१९२९५।। वृत्तं, प्रगतं ८ कापि- अन्तं प्रान्तं, किं च तत् प्रान्तम् ।, उच्यते-'सीयपिंडं पुराणकुम्मासं, अदु वुक्कसं पुलागं वा' अदुबेत्यथवा, बुक्कसो णाम | लीया. कुसणणिम्भाडणं च, अथवा सुरागलितसेसं चुक्कसो भवति, तत्थ सुक्कवेलूण पूतलियाओ कज्जति, पुलागं णाम निस्साए XIणिप्फाए चणगादि यहा विनष्ट स्वभावतः तत् पुलागमुपदिश्यते, 'जवणट्ठा निसेवए मथु' मध्यते इति मंधु सत्तुचुनाति, उत्तरगुणरक्षणाधिकारे प्रकृते इमेवि उचरगुणा एव, ते तु केचिदनुजाय अपदिश्यते केचित् प्रतिषेधतः 'तत्थ सुद्धसणाउणच्चेति' एवं कर्तव्यमिति अनुज्ञा प्रतिषेधस्तु 'जे लक्खणं च सुविणं च ॥२२०-२९५।। वृत्तं, ये इति अनुपदिष्टस्य निर्देशः, लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, सामुद्रवत, सुप्यते स्वप्नमा वा स्वमं, स्वमाध्ययनमित्यर्थः, अंगतीत्यंग, अंगविद्या नाम आरोग्यशास्त्रं, प्रयुंजतीति, लोकस्योपदिश्यन्ते-'ण ते समणा वुच्चंति, एवं आयरिएहिं अक्वायं' कण्ठ्यः, एवं गृहाण्यपि हित्वा इंदियवसमा इह जीवियं अनियमित्ता॥२२१-२९६॥वृत्तं 'इहे'ति इह लोके,जीवितं संजमजीवितं,न नियमित्ता अनियमित्ता, इंदियनियमेणं, नोइंदियनियमेणं,ये विविधैः प्रकारैवो भृशं भ्रष्टाः प्रभ्रष्टाः, समाधानं समाधिः योजनं योगः समाधियोगेहि प्रभ्रष्टाः पन्भट्ठा समा| धियोगेहि, ते 'कामरसगिद्धा' काम्यन्त इति कामा:- इच्छाकामा मदनकामा य, भुज्यत इति भोगा, रसास्तिक्तादयः, गृध्यते स्म | गृद्धः, ते लक्षणादीनि कामभोगरसगाद्धर्थात् प्रयुंजता 'उववज्जति आसुरे काए' उपपतनमुपपाता, उपपद्यन्ते स्म, असुराणामयं | आसुरः, ते हि वा (बहिचा) रियसमणा असत्थभावणाभाविया असुरेसु उववज्जति, अथवा असुरसशो भावः आसुरः ऋर इत्यर्थः, --04 % % दीप अनुक्रम [२०९२२८] । ॥१७५। F- 15 [188] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, नियुक्ति : [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२०८२२७|| लीया. श्रीउत्तराउववज्जति आसुरे काए' ति रौद्रेषु तिर्यग्यानिकेषु उबवति, 'तत्तोऽविय उवट्टित्ता' ॥२२२-२९६॥ वृत्तं, ततः असुर-10 लोभस्याचूर्णी ला कायातो उब्वाट्टित्ता, संसरतीति संसारः, पहुंति चउरासीतियोनिलक्षभेदः पुनः पुनः, अणुपरिति परियडंति, बहुकम्मलेवलित्ताण। नन्त्यं ८ कापि- पहुं'ति अट्ठविधमबि कम्म अणेगभेद, अथवा 'बहुति दीहकालद्वितीयं, कर्ममेव लेपः अतस्तेन कर्मलेपेन, लिप्तानां बुद्धयते स्म बोधः सुष्टु दुर्लभः सुदुलेभा 'तेसिंति' असुरकायानिबद्धाणी, यदुक्तं सुचिरकाल संसारं भमिस्संति, स्याल्लक्षणादीनि किमर्थ ॥१७६॥ & प्रयुज्यते ?, लोभार्थे, न लोभस्यान्तोऽस्ति, कथं ?-कसिणंपि जो इमं लोयं ।।२२३-२९७।।वृत्तं, कसिणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण, अपि पादाथै, 'यो' य इति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः, यः कश्चित् 'इम मिति प्रत्यक्षं, लोक्यत इति लोकः विविधः ऊर्ध्वलोकादि, प्रतिपूर्ण नाम पूरयित्वा, 'एकस्येति अन्यतमस्यासंयतस्य 'नेणावि से ण (सं) तुस्से 'इति दुप्पूरए इमे आया' इति उपप्रदर्शने, दुःख पूर्यत इति दुप्पूरए, 'इये' इति असंयतात्मा स्यात् कथं लोकेनापि रत्नपूर्णेन न तुभ्येत्, उच्यते-'जहा लाभी' ।।२२४-२९७|| वृन अत्र दृष्टान्तः, इदमेव ममेव हि 'दोमासकतं कज्ज कण्ठ्यः, स्थाद् वमित्वा मुनिः किमाकायते, ननु त्रीविषयाथै, उक्तंच- "कामन वित्तं च वपुः खियश्च०, तस्यैता मनुष्यराक्षस्यो, पिशितैरिव राक्षसः न शक्यन्ते वसुभिस्तोपयितुं इत्यतस्तासु नो रक्सी FO॥२२५-२९७।। वृत्तं 'नो' इति प्रतिषेधे, राक्षसीभिस्तुल्या राक्षस्यो, न गृध्येत, न लुभ्येत इत्यर्थः, गच्छतीति गंडे, गंड नाम स्तनी वक्षःसु गंडानि यासी ता भवंति गंडवक्षसः, अनेकानि चित्तानि यासा तेन भवन्त्यनेकचित्ता.कुर्वन्ति तावत् प्रथमं प्रियाणि, यावन्न जानन्ति नरं प्रसक्तं । ज्ञात्वा च तन्मन्मथपाशबद्धं, ग्रस्तामिषं मीनमिवोदरंति ॥१।। अथवा- अर्ज भणति पुरतो अन्नं पासेण लवज्जमाणीओ | अन्नं च तासि हियए न खमंतं करेंति महिलाओ ॥१॥'जाओ पुरिसे पलोभित्ताणं' जाओत्ति अनिर्दिष्टस्य। SEXREAPERS दीप अनुक्रम [२०९२२८] ॥१७६॥ - -- [189] Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥२०८ २२७|| दीप अनुक्रम [२०९ ૨૨૮] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [८], मूलं [१...] / गाथा ||२०८-२२७/२०९-२२८||, निर्युक्तिः [२४९...२५९/२५०-२५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णौ ९ नम्यध्यय ॥१५७॥ निर्देशः, पुरुष उक्तार्थः इत्येवं मत्वा नार्थः तासु, नारीसुनो परिशिज्जा ।। २२६-२९८ । वृत्तं मानुषाध्वित्यर्थः भृशं गृद्धयेत प्रगृद्धयेत् इत्थीविष्पज हे अणगारे' स्त्रीभेददर्शनार्थं पुनरुक्तं, जेण तिरिक्खजोणित्थिओ णारीवइरित्ताओ तेण ण पुणरुचं, विविधेहिं पगारेहिं जहेज्ज विप्पजहेज्ज, स्यात्-कुओ न गृध्येत १, उच्यते- 'धम्मं च पेसलं गच्चा' धारयतीति धर्मः, प्रियं करोतीति पेशलः, यथावत् ज्ञात्वा तत्रैवात्मानं स्थापयेत्, तमेवाचरेदित्यर्थः, 'इइ एस धम्मे अक्खाए ॥ २२७-२९८ ॥ वृत्तं इति उपप्रदर्शनार्थः, एष इति योऽयमुक्तः, धारयतीति धर्म्मः, 'अखाते' चि कहित परूविते इत्यर्थः केन?- कपिलेन, स कीदृशा ? 'विसुद्धपणेण' विसुद्धा प्रज्ञा यस्य स भवति विशुद्धप्रज्ञः तेन, केवलज्ञानवता, 'तरिहिंति जे तु कार्हिति ते एतं करिहिंति' तरिहिंति संसारौषं तेहि आराहिया दुबे लोगुत्ति इह लोगे तावत् बहूणं सावयादीणं अच्चणिज्जो, परलोएवि णो आगच्छस्संति (हत्वद्वेव्वं ( अहमदेवत्ता) वेदणादि, अहवा इहं अव्यासंगसुहा भिज्ञा सरिसमावित्तत्वाच्च सर्वलोक. स्तेनाराधितः परलोकेऽपि निर्वाणसुखमित्यतः तेन इहाराधिताः दुवे लोगति, एवं ते सच्चे संबुद्धा इति बेमि नयाः पूर्ववत् ।। कापिलिज्जं सम्मत्तम् ८ ॥ अलोलता उक्ता, इहमपि अलोलता एमेवऽधस्स चत्तारि अणुयोगद्दाराणि परुवेऊण णामणिप्फण्णे णिकखेवे णमी पव्वज्जा यदुपदं णामं तच्च 'णिक्खेवो उ णर्मिमि' ।। २६० २९९॥ गाहा, नमी चउष्विहो- णामादि, दव्वणमी दुविहो-आगमतो णोआगमतो आगमतो जाणए अणुवउत्तो, गोआगमतो 'जाणगसरीर' (२६१-२९९) जाणय० भवियसरीर०, तव्यइरिचो तिविधो- एगभवियादि ३, भावणमी दुविध-आगमतो गोआगमतो य, आगमओ जाणए उवउत्तो, णोआगमतो 'णमीआउणामगोतं (२६२-२९९) गाहा, अध्ययनं -८- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -९- "नमिप्रव्रज्या" आरभ्यते [190] लोभस्यानन्त्यं ॥ १७७॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२२८ २८९|| दीप अनुक्रम [२२९ २९०] भाग-7 “उत्तराध्ययन- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, निर्युक्ति: [ २६०... २७९ / २६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूणीं ९ नम्यध्यय. ॥१७८॥ कण्ठ्या, नमित्तिगतं, इदाणिं पव्वज्जाणिवेवो' (२६३-२९९) गाहा, पव्वज्जा चउष्विहा, णामादि, दव्यपव्वज्जा जाणयसरीर० बतिरित्ता अन्नउत्थियादीण, भागपव्वज्जा भव्त्रस्स य सावज्जारंभपरिच्चागो, सो जह केण कओ ?, उच्यते, 'करकंडु कलिंगेसु ॥२६४-३०६ ॥ गाहा, कलिंगजणवए कंचणपुरं रागरं, तत्थ करकंडराया, तस्स उप्पत्ती जहा जोगसंग हेसु जाव दहिवाहणो राया करकंडुयस्स रज्जं दाऊण पव्वतो, करकंद्र दोहवि रज्जयाणं सामी जातो। पंचालजणवए कंपिलपुरे नगरे दुम्मुहो णाम राया, विदेहजणवए मिहिलाए नगरीए नमी राया, गंधारजणवए पुरिसपुरे नगरे नग्गति णाम राया । एतेसिं संबोधकारणाणि इमाणि, तंजा 'वस अ इंदकेऊ ।। २६५-३०६।। गाहा, तत्थ करकंडुस्स ताव भण्णति सो करकंद्र राया गोउलप्पिओ, तस्स अणेगाई गोउलाई सो अन्नया सरयकाले गोउलं गतो, पेच्छइ वच्छगं थिरथोरगचं सतं वण्णेणं, राहणा गोवालो भणितो मा एतस्स मातरं दुहेज्जह, जाहे य वद्धितो होज्जा ताहे अण्णेसिंपि गार्वाणं दुद्धं पाएज्जह, तेहिं गोवेहिं तहेव कर्य, सो वसभो महाका (बलो जातो, जूहाहिबो कतो, अन्नया राया कस्सइ कालस्स आगतो पेच्छति महंतं वसभपट्टएहिं घट्टिज्जंतं, भणति गोवे-कहिं सो बसहोति., तेहिं सो दाइतो, पेच्छंततो राया विसादं गतो, अणिच्चतं चिंतंतो संबुद्धो, 'सेअं सुजातं सुविभत्तसिंगं' ।। २७१-३०६ ।। गाहाओ तिन्नि, करकंड संबुद्धो । इदाणिं दुम्मेहो जो इंदकेउं उस्सितं लोकेण महिज्जतं पासह, पुणो य महिमावसाणे विलुप्तं पडितं मुत्तपुरिसाण मज्झे, पासिऊण अणिच्चयं चिततो संबुद्धो 'जो इंदकेउं समलंकियं तु ॥ २७२.३०६ ।। गाहा कण्ठथा, इदाणि णमिणामा, तत्थ गाहा - 'महिलावइस्स णमिणों ॥२६६३०६ ॥ भवंति गाहा, णमीति किं ताव तित्थकरो किंताय अन्नो कोइत्ति १, अत उच्यते- 'दोन्निवि नमी विदेहा' ।। २६७-३०६ ।। गाहाओ तिनि कण्ठ्याः, एत्थ वितिएण णमिणा अधिकारी, अस्सन्नया केनापि [191] प्रत्येकबुद्धाः ॥१७८॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२२८ २८९|| दीप अनुक्रम [२२९ २९०] भाग-7 “उत्तराध्ययन- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०]] निर्युक्ति: [ २६०... २७९ / २६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउतरा० चूर्णां ९ नम्यध्यय. ॥ १७९ ॥ पुव्यकम्मोदएण दाहज्जरो संवृत्तो, विज्जा ण सक्कंति तिगिच्छितु एवं छम्मासा गता, तत्थ दाहोवसमणनिमित्तं देवीओ चंद घसंति, तासिं कलिगाणि खलखलेंति, सो भणति कष्णघातोत्ति, देवीहिं एक्केक्कं अवणीयं, तथावि कृष्णघातो, ततो वित्तियं, एवं जाव एक्केक्कथं ठियं, तेण भण्यति-कीस इदाणिं खलखलसदो नत्थि ?, ताओ भणति इदाणिं एक्केक्कगं वलयगं, तेण सद्दो गत्थि, एवं भणितो संबुद्धो, 'बहुआणं सद्दयं सुच्चा ॥ २७४-३०६ ।। गाहा कण्ठया, सो तेण दुक्खेण अम्माहतो परलोगाभिकखी चिंतेतिजर एयाओ रोगाओ मुच्चामि तो पन्चयामि, कत्तियपुष्णिमा वट्टति, एवं सो चिर्तितो पालुत्तो, पभायाए रयणीए सुमिणए पासति -सेयं नागरायं मंदरोवारं च अत्ताणमारूढं णंदिघोसतूरेण य विवोहितो, हट्टतुट्ठो चितेर अहो पहाणो सुविणो दिट्ठोत्ति, पुणो चिंतइ कत्थ मया एवंगुणजातितो पव्वतो दिट्ठपुज्योति, चिंतयंत्रेण जाती संभरिता, पुव्वं माणुस भवे सामण्णं काऊण पुप्फुत्तरे विमाणे उबवण्णो आसि तत्थ देवते मंदरो जिणमहिमाइसु आगएण दिपुव्योति संबुद्धो व्यतितो। एवमेते करकंडादी चचारिवि रायाणो पुष्फुत्तराओ चइऊण एगसमएण संबुद्धा, एगसमए केवलनाणं, एगसमएणं सिद्धिगमणंति । इदाणिं णग्गतीस 'जो चूअरुक्खं तु मणाभिरामं ॥२७५-३०६॥ गाथा, सो आहेडएण णिग्गच्छंतो सो चूतपादनं कुसुमितं पासइ, तेण ततो एगा चूतमंजरी गहिता, ततो अन्नेगवि, जया अनेसि ण य हाँति ताहे अन्नेहिं पंत्ताणि गहिताणि, एवं सो चूतो सपुप्फपत्तो कट्टाव सेसो कतो, राया तेणेव मग्गेण आयातो, अपेच्छंतो पुच्छति, अमच्चेण दाइतो कट्ठाबसेसो, अणच्चियं चितियंतो संयुद्धो पन्त्रइतो । एवमेते पव्यतिता समाणा विहरंता खितिपतिडियनगरे गता, तत्थ णयरमज्झे चाउद्दार देउलं, तं पुत्रेण करकंडू पविडो, दुम्मुहो दक्खिणेण, किह साहुस्स अन्नतोमुहो अच्छामिति तेण वाणमंतरेण दाहिणपासेवि मुहं कतं, णमी अवरेणं, ततोचि कर्य, [192] प्रत्येकबुद्धसमागमः ॥ १७९ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०, नियुक्ति: [२६०...२७९/२६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत नामदाक्षा सूत्रांक [१] गाथा ||२२८२८९|| श्रीउत्तरागंधारस्सवि उत्तरेण कयं, तस्स य करकंडुस्स आबालप्पभिति सा कंडू अत्थि, तेण कंड्यगं गहाय मसिणं २ कण्णो कंजूइतो, तं तेण एगस्थ संगोवियं, तं दुम्मुहो पेच्छइ, सो भणइ-'जया रज्ज० ॥२७६-३०६॥ सिलोगो कण्ठया, जाव करकंडू पडिवयणं न देति ताव णमी वयणसमकं इमं भणइ-'जया ते पेतिते रज्जे.' ॥२७७-३०६।। गाहा, कि एगस्स तुम आउत्तगोत्ति नमी नग्गनम्यध्यय तिणा भण्णति, ताहे गंधारो भणतिज या सव्वं परिच्चज्ज ॥२७८-३०६॥ गाहा कण्ठया, (ताहे) करकडू भणति-'मुक्खमग्ग-1 ॥१८॥ पवण्णाणं (पवन्नेसु) ॥२७९-३०६।। गाथा कण्ठया, एत्थ पुण णमिणो अधिगारो, जेण गमिपव्यज्जत्ति भण्णति ।। गतो णाम *णिप्फण्णो, सुत्तालावगणिफण्णे सुत्तमुच्चारेतव्वं, तं च इमं सुत्त-'चइऊण देवलोगाओ'।२२८-३०७॥ सिलोगो,चइत्ता-चइऊण | देवानां लोको देवलोकः तस्माद् देवलोकाद, उत्पन्नवान् उत्पन्नः, माणुस्साणं लोगो मणुस्सलोगो. उवसंतमोहणिज्जो दस-| णमोहणिज्ज चरित्रमोहणिज्जं च उवसंतं जस्स सो भवति उपसंतमोहणिज्जो, 'सरति पोराणियं जाई' पोराणजाति अनमि माणुसभवग्गहणे संजमं काऊण पुप्फुत्तरविमाणे आसी तं पुब्बियं । 'जाइं सरितुं भगवं'(१२२९-३०७) सहसा संबुद्धो सहसंबुद्धा, असंगत्तणो समणतणे,स्वयं,नान्येन घोधितः, स्वयंबुद्धः कुत्र अणुत्तरे धम्मे पुत्तं ठवित्तुं रज्जे' पुनाति पिचति वा पुत्रः,अभिनिक्ख||मति स्म अभिनिक्खमति, कश्चासौ , नमी राया, स्थादेतत्, कुत्रावस्थितः कीदृशान् बा भोगान् भुक्त्वा संबुद्धः?, तत उच्यते 4'सो देवलोगसरिसे (२३०-३०७) स इति से नमी, देवानां लोगो देवलोगो तत्सदृशे, अंतेपुरखरगतो, अन्तःपुरम्-उपरोधः वर प्रधान, पहाणे अंतेपुरे, अनन्यसदृशे इत्यर्थः, 'वरे भोगे'त्ति देवलोकसरिसे चेव बरे भोगे भुंजित्तुं णमीराया भीतूण वा, केइ पठति-बुद्धवान् बुद्धः, बुद्धा तु भोगे परिकचयंति, 'महिलं सपुरजणवयं ।। २३१-३०७॥ सिलोगो, मिथिलं णगरं च अनेसि च दीप अनुक्रम [२२९२९०] ॥१८॥ [193] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥२२८ २८९|| दीप अनुक्रम [२२९ २९०] भाग-7 “उत्तराध्ययन- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) निर्युक्ति: [ २६०... २७९ / २६०-२७९], अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः 4 श्रीउत्तरा० पुरवरेहिं सजणवएण, बलं चतुरंगिणीसेनां, उरोधो अंतेउरं, परियणं सयणादि, 'सव्वें' ति अपरिसेसं 'चिच्चा' त्यक्त्वा अभिमुखंचूण निष्क्रान्तः 'एगतमहिडिओ भयवं' एगंत नाम उज्जाणं, विजणमित्यर्थः, एगंतम हिङ्कितं जेण सो एगंतमहट्टितो, अथवा एगंतमहिट्टितो भगवं, एगंतं नाम एकोऽहं न च मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं (नासौ यो ) मम दृश्यते || १ || एवं एमत्तमहिट्ठितं जेणाऽसौ एगतमधिट्टितो, एगंतेण वा अधिट्ठितो जो सो एगतमहिट्टितो, वैराग्येनेत्यर्थः 'भग' इत्याख्या, सा जस्स इति सो भगवं, 'कोलाहल ग (प) भूतं' ||२३२-३०८ ॥ सिलोगो, आनंदितविलपितकूजिताद्याः शब्दा जनपदस्य कोलाहलभूता इति, सर्वमेव कोलाहलशब्देन आकुलीभूतमित्यर्थः, 'अभुट्टियं रायरिसिं' ||२३३|| सिलोमो, अभिमुखं स्थितं अट्टितं राजा एव ऋषिः राजर्षिः, ऋपीति धर्म्ममिति ऋषिः प्रव्रज्या एवं स्थानं प्रव्रज्यास्थानं, तदेवमुत्तमं पव्वज्जाठाणमुत्तमं 'सक्को माहणरूवेणं शक्नोतीति शक्रः, से विष्णणणत्थं भणरूवं काऊण तस्स समीनं आगंतूण इममिति प्रत्यक्षं वचनं, अब्रवीत, उक्तवानित्यर्थः, 'किं तु भो अज्ज मिहिलाए ||२३४-३०८।। सिलोगो, किमिति परिप्रश्ने, नुर्वितकें, किंतु स्वात्, भो इत्यामन्त्रणे, 'अज्ज मिहिलाए ति अज्ज अहनि, मिथिलाए नवरीए कोलाहलयं नामादितविलपितकूजितैः सम्यग् आकुला संकुला, शृण्वन्ति श्रूयंते वा सुध्वंति, दारयति दीर्यते वाऽनेनेति दारुणः प्रसीदन्ति अस्मिन् जणस्य नयनमनांसि इति प्रासादः, गृह्णातीति गृहं अतो ते हि 'सुब्बंति दारुणा सहा' पासादेसु गिहेतु या 'एतम० ।। २३५-३०९।। सिलोगो, अद्वेत्ति वा हेतुचि वा कारणंति वा एग, एतं अहं एयम, निसामेत्ता श्रुत्वा, हिनोति हीयते वा हेतुः करोति कारणं, चोदितं पुच्छितं ततो णमी रायरसी देविंदं इणमन्त्रवी । 'मिहिलाए०' ॥ २३६-३०९ ।। सिलोगो, चीयत इति चेइयं चित्तंति वा, ततः चेतनाभावो वा नम्यध्यय. ॥ १८१ ॥ [194] दारुणाः शब्दाः ॥ १८९॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०, नियुक्ति: [२६०...२७९/२६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत ग्रेिना श्रीउत्तरा० चूर्णी सूत्रांक [१] गाथा ||२२८२८९|| नम्यध्यय ॥१८॥ जायते चेतियं, अतो तमि चइए, 'वच्छे'ति रुक्खस्साभिधाणं, सुतं प्रियवायरणं वच्छा, पुत्ता इव रक्सिज्जति बच्छा, अतो Mix संग्रामेण तेहिं वच्छेहि, सीयला छाया कता जस्स स भवति सीतलच्छायो,एत्य सिलोगभंगमया हिकारस्स लोवो कओ, मनांसि रमते मनोरम alच परीक्षा अतो तमि मनोरमे उज्जाणे, पचेहिं पुप्फेहिं फलेहिं च उचैते पत्तपुष्फफलोवेतो बहूणं दुप्पयचउप्पयपक्खीणं च बहुगुणेति, वा| इयोवेए पत्तोवेए पुप्फोयेए फलोवेए 'सदा' इति सव्वकालोबभुज्जति 'चारण हीरमाणमि' ॥२३०-३०२।। सिलोगो, सो वातो। सक्केण वेउवितो, 'हीरमाणे चि तेषण वातेण रुक्खेसु भज्जमाणेसु जे तत्थ उज्जाणे रुक्खेसु खगा ते दुहिता असरणा, अत्राणा इत्यर्थः, कंदति-विलपंति, अस्माकं वृक्षप्रयोजनमिति, 'एतमट्ठ' ततो णमि सक्को भणति-स एव अग्गिणा जगरि । उज्झमाणं विउन्विऊण आह-'एस अग्गी अवाओ अ॥२३९-३१०॥ सिलोगो, अगतीत्यग्निः वातीति वातः, मंदिरं णामणगरं, भगवं अंतेपुरं तेण 'कीस ण नावपिवह कीस नावपेक्खसि-नावलोकयसिन्ति । ततो णमी आह-'सुहं वसामो जीवामोर २४१-३११|| सिलोगो, किंचण दूविहं-दव्ये भावे य, सेसं कण्ठचं, चत्तपुत्तकलत्तस्स'॥२४२.३१शासिलोगो, कण्ठया, पहुंघु मु.। णिणो भई' ॥२४३-३११।। सिलोगो, मातीति भद्रं, मनुते मन्यते वा जगति त्रिकालावस्थाभावानिति मुनिः,द्रव्यादिमुनिप्रतिषेधार्थ । अणगारस्स भिक्खुणो, अथवा स मुनिः योऽनगारः यो भिक्षुः, सब्बतो विष्पमुक्कस्स, कथं ?, 'एगंतमणुपस्सओ' एकत्वं नाह | कस्यचित्, अथवा एकान्तं निर्वाणं असंसारावासमित्यर्थः, शक्र उवाच-'पागारं ॥२४६३१२॥ सिलोगो, प्रकुर्वन्तीति प्राकारा, गोभिः पूर्यत इति गोपुरं, 'उस्सूलए सयग्घीओ उस्सूलगा णाम खातिआ उवाया जत्थ परबलाणि पङति, शतं घ्नन्तीति ॥१८२।। शतघ्न्यः, सेसं कण्ठयं । नमिरुवाच 'सद्धं णगरि किच्चा०' २४७-३१२।। सिलोगो, श्रद्धाऽस्यास्तीति श्रद्धी, नातिकरो विद्यत दीप अनुक्रम [२२९२९०] [195] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 “उत्तराध्ययन- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, निर्युक्तिः [२६०...२७९/२६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः प्रत सूत्रांक श्री उत्तरा० चूर्णों [१] ९ गाथा नम्यध्यय ||२२८- ॥१८३॥ २८९|| दीप अनुक्रम [२२९ २९०] २-०३ इति नकरं, अतस्तं 'सद्धं नगरं किच्चे'ति 'तवसंवरमगलं'ति तवो बारसविहो, संवरो दुविहो- इंदियसंवरो पोईदियसंवरो य, 'स्वतिं णिउणपागारं ' खंती-खमा 'तिगुत्तं' मणोवायाका एहिं 'दुप्पयंस' ति दुक्खं परीसहबलेणं विद्वेसिज्जति । 'धणुं परक्कमं किच्चा' ॥२४८-३१२।। सिलोगो, घ्नन्ति तेन धारयति वा धनुः, जीवा सेरियासमिती, घिर्ति च केवणं किच्चा, सिंगघणुअस्स मज्झे कट्टसइओ मुट्ठीओ गृह्येते येन तं पलिबंधणं कीरति तं केयणं बुच्चति, 'सच्चेण पलिकंथर' पलिकंध्यते येन तं पलिकथनं भवति, स च 'हारुक्खा- 'तवणाराय' ॥२४१-३१२ ॥ सिलोगो, नरं मुंचतीति नाराचः, तपोनाराचयुक्तः, भेत्तूर्ण कम्ममेव कंचुओ, तं च अट्टपगार कम्मं, 'मुणी विगयसंगामो' संग्रामत इति संग्रामः, भवनं स्थितिविभवः तस्मात् भवात् समन्तात् मुच्यते परिमुच्यते ॥ शक्र उवाच-'पासाद० ' ॥ २५१-३१३|| सिलोगो, प्रासाद उक्तः 'वमाणगिहाणि' नाम भवणप्पगारा अणेगविधा, वालग्गपोतिया णाम मूतियाओ, केचिदाहुः- जो आगासतलगस्स मज्झे खुडलओ पासादो कज्जति । 'संसयं खलु०' ॥२५३-३१३।। सिलोगो, संशयनं संशयः, संशय्यते च अर्धद्वयमाश्रित्य बुद्धिरिति संशयः, कथं संशयो भवति ?, अनिर्द्धारणार्थः संशयः, न तेनावधारितं यथा मया इत्थं णमेतावतं कालं वसितव्यं, यदा सार्थं लप्स्यामस्तदा गमिष्याम इत्यतः संशयनं मनसि कृत्वा गृहमसावध्याने करोति, अत्ति प्राणानित्यध्वा तं एवं नित्याध्वाने - नित्यप्रस्थाने जीवलोके न गृह्णासि नित्यस्वर्गकर्त्तव्यानि 'जत्थेव गंतुमिच्छेज्ज' मोक्षगृहारम्भस्तु ज्ञानादिभिस्तस्य कार्य इति । शक्र उवाच 'आमो (सेहिं) से० ' || २५५ ३१३ || सिलोगो, आमोक्खतीत्यामोक्खा पंथमोषका इत्यर्थः, लोमाहारा णाम पेणमोसगा, ग्रन्थि भिति ग्रन्थिभेदका, जुत्तिसुवण्णगादीहिं लोगं मुसन्तीत्यर्थः, तस्करो नाम चौरः, तदेवमेकं स्वयं करोति, एते (हिंतो ) नगरस्य क्षेमं काऊण, नमिस्वाच- 'असई तु मणु [196] प्रासादा दिना नगर | रक्षादिना च ॥ १८३॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०, नियुक्ति: [२६०...२७९/२६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] सम्यक्त्व परीक्षा गाथा ||२२८२८९|| श्रीउत्तरा भास्सैहिं' ॥२५७ ३१४।। सिलोगो, असकृद्-अनेकशः,मिच्छादण्डो नाम अनपराध इत्यर्थः, कोभिप्रायः?, लंचापाशैः(पक्षः) कारकमपि मुंचति, सेसं कण्ठ्यं । शाक उवाच-'जे के पत्धिवा० ॥२५९-३१४|| सिलोगो, प्रथिवी अस्यास्तीति पार्थिवः, राजेत्यर्थः, जे वा पार्थिवा नानमंति, न बसे ते वर्तन्ते इत्यर्थः, ससं कण्ठ्यं । नमिरुवाच'जो सहस्सं०२६१-३१४।। सिलोगो. 'जे' ति अनिर्दिष्टस्य नम्यध्यय. निर्देशा, सहस्सं सहस्सेण गुणितं, नमन्तं ग्रसतीति संग्रामः, दुक्खं जिणिज्जतीति दुज्जयाः, अतस्ते दुज्जए जिणे, ण तेण किंचि ॥१८४॥ जितमेवं जिणे, किंतु 'एग जिणेज्ज अप्पाणं' कण्ठया, परमः प्रधान इत्यर्थः, अथवा 'अप्पाणमेव ॥२६२-३१४॥ सिलोगो, है कहं पुण अप्पा जितो भवति?, 'पंचेंदियाणि ॥२६३-३१४।। सिलोगो, एते हि आत्मानुगता एव शत्रवः, एतान् जित्वा, पच्छद्धं काकण्ठच। शक्र उवाच-'जइत्ता विउले जन्ने०॥२६५-३१५|| सिलोगो, यजति तं यज्जा, तान् यज्ञान् अश्वमेघवाजपेयपोंडरीकादयः, तां यजित्वा विपुलानां कामभोगानां प्रक्रामशो दानं बहुसुवर्णकादयः 'भोएत्ता' भोजयित्वा समणा अदुव माहणा- धीयारा, दव्वं देज्जा, भोच्चा-भोक्त्या स्वयं जट्ठा य यष्ट्वेत्यर्थः, यज्ञमिति वाक्यशेपः। नमिरुवाच-'जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे.' ||२६७-३१५।। सिलोगो, मीयते तमिति मास:. गच्छतीति गौः,'तस्सावि संजमो सेओ' जो सो मासे २ गवां शतसहस्रं ददाति | तस्यापि संयम एव श्रेयः। किं घनं धनं प्रयच्छमानस्थापि?, तत आकिंचन्याश्रयवानथ संयमः ।। क्र उवाच- 'घोरासमं चहत्ताण ॥२६९-३१६।। सिलोगो, 'घुर सीमार्थशब्दयोः' घूर्णते अस्य भयं घोराः, दुखं हि यथावदनुपाल्यते, उक्तं हि -'या गतिः। क्लेशदग्धानां, गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्रदारं भरताना, तां गतिं व्रज पुत्रक! ॥१॥ आश्रयन्ति तमित्याश्रयाः, का भावना दि सुखं हि प्रव्रज्या क्रियते, दुःखं गृहाश्रम इति, तं हि सर्घाश्रमास्तर्कयन्तीत्यतः घोरा, सेसं कण्ठयं ।। नमी उवाच- 'मासे मासे SHRIKRAMDEHA- - दीप अनुक्रम [२२९२९०] - 6 ॥१८॥ [197] Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] | गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०||, नियुक्ति : [२६०...२७९/२६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२२८२८९|| श्रीनगासिलोगो, मीयतेऽनेनेति मासः, शेषं कण्ठार्थ, नवर कामभोग इत्यभिधीयते, पोडशीमपि कलां नार्घन्ति । शक्र उवाच- हिरण्णं लाभेन चूणौँ सुवणं.' ॥२७३-३१७। सिलोगो, हिरण्य-रजतं शोभनवर्ण सुवर्ण, मन्यत इति मणिः-वेरुलियादि, मोत्तियं जलयं वेलयं च, कंस कल्पेन कसपत्रादि, दूसं बस्थपगारा, एताण, सह वाहणेण सवाहणं, अस्सहत्थिमादि, सेसं कण्ठयं । नमिरुवाच -'सुवन्नरुप्पस्स' च परीक्षा नम्बध्यय. ॥२७५-३१७।। वृत्तं, सोहणं वर्ण सुवर्ण, रोचते तदिति रूपं, पर्वतीति पर्वतः, सियाऽणवधारणा, केलासो नाम मन्दरो, तत्समाः ॥१८॥ तत्तुल्याः, नास्य संख्या शक्यते तुलापरिमाणेन कर्तुं इत्यतः असंखता, सेसं कण्ठयं । 'पुढवी साली जवा चेव०॥२७६-३१७।। सिलोगो, प्रथते पृथति वा तस्यां पृथिवी, सालियचा प्रसिद्धा, हिरण्यं रूप्यं, पश्यतीति पशु-गोमदिष्यादि, पशुभिः सह, पडिपुन नालमेगस्स, उत्तमसंपदुपेतान्यपि एतानि यद्येकस्य भवन्ति 'अलं पर्याप्तिवारणभूषणेषु न अलं नालं पर्याप्तिक्षमानि स्युः, इत्युपदर्शनार्थे, इति ज्ञात्वा तवं चरे, चरेत्यनुमतार्थे।।शक्र उवाच-'अच्छेरगमभुदए०।२७८-३१८|| सिलोगो,अतीव भवत्यद्भुत प्रतिभाति यस्तान् भवान् विद्यमानान् कामान् हित्वा असंते भोगे इच्छसि, संकप्पेण विह(बोसि, असत्संकल्पः तेण असत्संकल्पेन विहन्यसि, नेमिरुवाच नाहं कामान् कामयामि, कस्माद् !, उच्यते-'सलं कामा० ॥२८०-३१८।। सिलोगो, शलति शूलयति वा शल्यं, जहा सल्लं देहलग्गं अणुद्धरिज्जंति दुक्खावेति, तुल्या कामा, बेष्टि विष्णाति वा विषं, जहा हलाहलं विसं मारणंतियं, एवंविधाः कामाः, आसी दाढा, दाढासु जस्स विसं स आसीविसो भण्णति, सो य सप्पो, आसीविसेण उवमा | P१८५॥ जेसि कामाणं ते आसीबिसावमा कामा, सेसं कण्ठयं । 'अहे वयइ कोहेण ॥२८१-३१८।। सिलोगो, सक्को तं पव्ययंत बहूहिं उवाएहिं विण्णासेउ खोभेउं असत्तो-'अवउ [इ] ज्झिऊण' ॥२८२-३१९॥ सिलोगो, वग्गूणाम सोभणं, अहवा वाभिरेव वग्गू ।। HEA - दीप अनुक्रम [२२९२९०] -- - - -- - [198] Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [९], मूलं [१...] / गाथा ||२२८-२८९/२२९-२९०, नियुक्ति: [२६०...२७९/२६०-२७९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तुरा सूत्रांक [१] गाथा ||२२८२८९|| द्रुमपत्रके ॥१८६॥ 'अह ते णिज्जितो कोहो ॥२८३-३१।। सिलोगो, कण्ठयो, नवरं निरिक्कं नाम या पृष्ठी, पृष्ठतः कृत्वेत्यर्थः, 'अहो ते उदिधातः अज्जवं साह॥२८४ ३१९।।सिलोगो,सेसं कण्ठयां इ[अ] हंऽसि उत्तमो० ॥२८५-३२०।। सिलोगो,इहंसि उत्तमोराया,पुच्चा-1 परभवंमि, कह, उत्तम ठाणं, लोगुत्तमा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तस्य फलं परिनिर्वाणं अतो लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि | 'णिरओ निष्का इत्यर्थः, 'एवं अभित्धुणतो.॥२८६-३२०|| सिलोगो, कण्ठ्या,'नमी नमेह अप्पाणं' सिलोओ, कण्ठयः 'एवं करेंति संपन्ना (संबुद्धा)' ।।२८९-३२०॥ सिलोगो, एवंशब्दः प्रकारवचने, एवं करेंति एतेण प्रकारेण, पण्णा बुद्धिः सह || पण्णाए संपनो, पंडिता विदुसा, पवियक्षणा प्राज्ञः, सपण्णा पंडिता पचियक्षणा, मुल्ल(पुण्ण)ति हेण उच्यते, सपण्णा इति कर्मण्यता दर्शिता, पण्डिता इति सा बुद्धिः परिकर्मिमता जेसिं, पवियक्खणा वायाएवि परिग्रहणसमत्था, विणिपति भोगेहि, विसेसेणं निवर्तन्ति विणियति, भोगेहिं, जहा से गमी रायरिसी, येन प्रकारेण यथा, पासणं तदाहरणं तेण पत्धुतो गमी रायरिसी इति वेमि ।। नयाः पूर्ववत् ।। णमिपव्वज्जा णवममायणं समत्तम् ९॥ अलोभ उक्तः, स तु अनित्यतां भावयता अलोभः करणीयः, तत्राध्ययनं दुमपत्तयंति, तस्स चत्तारि अणुयोगहारााणि, तस्थ णामनिष्फने दुमपत्तयन्ति, दुमे पत्तं च दुपदं णाम, तत्थ दुमो चउविधो, 'णार्मठवणा'गाथा (णिक्वेयो उ ममी)ल| ॥२८०-३२१॥ णामंठवणाओ गयाओ, दबदुमो दुविहो-( जाणग०॥२८१-३२१॥) जाणगसरीरभवियसरीखतिरित्तो तिविधो। एगभवियादि, भावदुमो 'वुमपाउनामगोयं॥२८२-३२१॥ गाथा कण्ठया, एतस्स पुण अज्झयणस्स उपोद्धातो जहा णिज्जुत्तिगाहादि रायगिहपिढचंपि सालमहासालाण णिक्खमणं तेसिं गाणुप्पत्ती भगवतो गोतमस्स अट्ठापदगमणं तावसपबज्जा पारणगं cccci दीप अनुक्रम [२२९२९०] A अध्ययनं -९- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१०- "द्रमपत्रक' आरभ्यते [199] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२९०३२६|| १० श्रीउत्तरा| परमण्णेणं पच्चागतं भगवं अणुभासति, गोतमा, चचारि कड़ा पण्णचा, तंजहा--मुंबकडे विदलकडे चम्मकडे कंबल कडे, अत्रत्तो PIकिसलयचूर्णौ णयविसं खाइज्जति(?),चम्मकडेसु महतावि जत्तेण सक्केति मोएउं, एवामेव गोतमा! चत्तारि सीसा पण्णत्ता, मुंबकडसमाणे४, तुर्मपत्रोदन्तः च णं गोयमा ! मम कंबलकडसमाणे, किंच- चिरसंसट्टे सि गोतमा ! चिरपरिचिते सि गोयमा ! पनचीआलावगो जाव | दुमपत्रका आविसेसमणाणत्ताए ण भविस्सामो, किंच-गोयमा! देवाण वयणं गेझं ! आयो जिणाणं ?, गोयमो भणति-जिणाणं, तो कि ॥१८॥ अधिति करेसि , तं सोऊण मिच्छामिदुक्कडं करेति, ताहे सामी गोयमनिस्साए दुमपचयं भणति ।। णामणिप्फण्णो गतो, सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेयच्वं जहा-'दुमपत्तए पंडुयए' ।।२९०-३३४॥ वृत्तं, दोसु मातो दुमो, दुमस्स पत्तं दुमपतं, पंडणाम कालपरिणामेण आपंडुरीभृतं 'जहा' इति येन प्रकारेण 'पडतित्ति, किं बिलग्गं अच्छति', 'सती'ति राती, गणो नाम बाहोलं, अच्चए। णाम ख(पू)या, एत्थ णिज्जुत्तिगतमुदाहरणं कप्पित भण्णति, किसलयपनेहिं सुकुमारताए सुवण्णयाए य हसतित्ति धासो, सासयमु. दाएण, 'पंडुपत्ताणिति ततो पंडुप्पत्तं परियहियलावणं॥३०७ ३३५|| गाथा, जो षण्णे सुकुमारतासुवण्णलावण्णविसेसो आसि ते(त)परावत्तितं विगतलावणं चलमाणसब्बसंधि वेंडं बंधणाओ टलंतं एवं पत्तं वसणपत्नं कालप्राप्त भणति-'जह तुन्भे०॥३०८-३३५।। गाहा, जह तुब्भे संपतं किसलयभाचे वट्टमाणाणि अम्हे हसह एवं अम्हे य किसलयभावो आसि, जहा य अम्हे संपयं कालपरिणामेणं विवनच्छवियाणि एवं तुम्भेवि अचिरकाला भविस्सह, मा तुझे ताव गबह, धुवा एसा खलु अणिचता, अणवत्थिताणि जोव्वणाणिचि, अप्पाहणिया णाम उवेदसो, पुत्तस्सव पितामातरं तो उबदिसति, एवं पंडुरपत्तं किसलयाण उवदेसं देति, 'णवि ॥१८७॥ अस्थि० ॥३०९-३३५।। गाहा कण्ठया, एवं मणुयाण जीवियंति एवमवधारणे,जहा पडुच्च चलाउं, एवं मणुयाउयंपि,मनोरप PARA-%%%AE URRENT दीप अनुक्रम [२९१३२७] C [200] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२९० ३२६|| दीप अनुक्रम [२९१ ३२७] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१०] मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७]], निर्युक्तिः [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउतरा ० चूण दुमपत्रके ॥ १८८ ॥ त्यानि मनुजा, जीव्यते येन तज्जीवितं, अनित्यं अधुवं चलमित्यर्थः समं सम्यक्, अयं अस्मदीये समये, गोतम इति गोत्रान्तेनैवासौ, भगवानामंत्रणे, 'अमानोनाः प्रतिषेधे', प्रमादय, अथवा समयमात्रमपि मा प्रमादय, नित्यमेव मा प्रमादवान् भव, एवं सेत्स्यति अचिरात् स्यात् किमर्थ अप्रमादः क्रियते ?, उच्यते, जीवितस्यानित्यत्वमेव ख्यापयति, यथा अतीव च दौर्बल्यमायुपः, तद्यथा-'कुसग्गे जह ओस बिंदुए० ॥ २९१-३३५ ॥ वृत्तं, कुसो दब्मसरिसो, कुसस्स अग्गं कुसग्गं, अतस्तस्मिन् कुशाग्रे, यथा येन प्रकारेण, ओसा सरयकाले पडति, तीसे बिंदु कुसग्गे ठितं, तत् कुशो हि तनुतरो भवति दर्भात् तेन तदा तद्ग्रहणं, दर्भाग्रेsपि चिरं भवति, सहि आगलितः वातवशात् द्रव्येण वा संक्षोभितः अच्चेति इत्येष दृष्टान्तः।। ' एवं मणुयाण जीविर्य' कण्ठ्यः, यद्यप्युपचयाविशेषः किंचिचाम निरु[लो ]पक्रमं स्यात् तदपि च न दीर्घकाल मित्यतोऽपदिश्यते 'इह इत्तरियंमि आउए० ।। २९२-३३६।। वृत्तं इति उपदर्शनार्थ, इत्तरियं अल्पकालियं वर्षशतमात्रं, एति याति वा तमित्यायुः, जीव्यतेऽनेनेति जीवितं, तस्मिन् जीवितेऽनुकम्पा, जीवित एव 'बहुपच्चवायए' एतं प्रति अपायाः, तद्यथा-अज्झवसायनिमित्ते० यावद्वर्षशतं न पूर्यते यावद्वा ते अपाया नागच्छति ताव 'विहुणाहि रयं पुरे (रा) कर्ड' विविहं सोहिविसेसेण वा धुणाहि, रज इति कर्म, पुराकृतं पुरेकडं, स कथं विधूयते १ समये अप्रमादवदित्यर्थः समयं इदं चालंबनं कृत्वा अप्रमादः कार्यः, कथं ?, तद्वक्ष्यामः - 'दुलहे खलु माणुसे भवे० ' ।। २९३-३३६ ।। दुःखं लभ्यत इति दुर्लभः, मनुष्याणामयं माणुस्से, भवतीति भवः, 'चिरकालेणवि' अनंतकालेण इत्यर्थः, सव्वपाणिणं सव्वसहो अपरिसेसवाची, प्राणा एषां सन्तीति प्राणिनः सर्वग्रहणं नास्ति अत्यन्तमनुष्य एवं कश्चन बंधस्य, एकान्ते न सुलभं मानुष्यं 'गाढा य विवाय कंमुणो' गाढं चिकणा हढा इत्यर्थः, विविधैः पाको विपाको मनुष्यत्वविधानि [201] এ- এ6% ! आयुपश्चलवं 1186611 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा० चूर्णों पृथ्व्यादि कायस्थितिः सूत्रांक [१] गाथा ||२९०३२६|| दुमपत्रक ॥१८९॥ कम्मानि चिक्कणानि, अत्र त एव चोलकाद्या दृष्टान्ता वक्तव्याः, अस्माच्च कारणात् सुदुर्लभ मानुष्यं यस्मादन्येषु जीवस्थानेषु चिरं जीवोऽवतिष्ठते, मनुष्यत्वे तु स्तोकं कालमित्यतो दुर्लभ, तत्र तावत् पृथिव्या 'पुढविकायमतिगतो० ॥२९४-३३६।। वृत्तं, पुढवि-भूमी कायो जेसि ते पुढविकाइया, पुढविकाय एव वा पुढविकाइया, एत्थ कायसदो सरीराभिधाणे, पुढविकाए चा, तत्र | पुढविकाइया पुढवीति, पृथु विस्तारे विच्छिण्णा इति पुढवी, अतस्तं पुढविकायमतिगतो-अणुपविट्ठो उक्कोसे तासां सर्वउत्कृष्ट जीवो तु संबसे कालं संखातीत, संख्यामतिक्रान्तमित्यर्थः, तत्थेव मरिठं उववज्जति असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी(अवसप्पिणी तो कालतो, एसो य कालो खेत्ततो विससिज्जति-असंखेज्जाणं लोगाण जावइया आगासपदेसा एवत्तियाणि पुढविक्कायमरणाणि मरिउं तत्थेव तत्थेव च उबबज्जइ, ततो खेत्ततो असंखेज्जा लोगा, एवतियं कालं पुढविक्काए उक्कोसेणं अच्छति । 'आउक्कायम तिगतो.॥२९५-३३६।। वृत्तं, 'अप' इति आऊ, सो कायो जेसिं ते आउकाईया, आउक्काए वा भवा आउक्काइया, 'भाप्लु व्याप्ती' इति आपः, अतो त आउक्कायमतिगतो, जहा पुढविक्कार्य, 'तेउक्कायमतिगतो०२९६-३३६।। वृत्तं, तेजो कायो जेसि ते तेउपकाइया, 'तिज निशाने तेउ, तहेव वा गतिगन्धनयोरिति वायुः तस्यवि तहेब, वन पण संभक्ताविति 'वणस्सइ०।२९८-३३६।। एतस्य अणतकाल अणंताओ उस्सप्पिणीतो कालओ, खेत्तओ अर्णता लोगा, दबतो असंखेज्जा पोग्गलपरियडा, सव्वपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफासअशनादीहिं फासेज्जंति सो पोग्गलपरिवट्टो भवति, ते असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा वणस्सइकाए अच्छति,तस्स णं असंखज्जस्स परिमाणं आवलियाए असं खिज्जतिभागो, आवलियाए असंखिज्जइमो भागो जावतिया समया एवतिया पोग्गलपरियट्टा वणस्सतिकाये अच्छति। वेइंदिया२९९-३३६॥ तेइंदियः॥३००-३३६॥'चउरिदिएसु०॥३०१-३३६।। संखे-1 HDKAANCE दीप अनुक्रम [२९१३२७] ॥१८९॥ [202] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||२९० ३२६|| दीप अनुक्रम [२९१ ३२७] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७]], निर्युक्तिः [२८०...३०९/२८०-३०९], अध्ययनं [१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्री उत्तरा० चूण १० पत्र ॥ १९०॥ ज्जकाल || 'पंचिंदिय० ' ॥३०२-३३६ ।। तिरिक्ख जोणिएस सत्तट्ठ भवग्गणाणि, 'देवणेरइएस० ॥ ३०३-३३६|| एक्केवकं भवग्गणं, एवं (भव) संसारे० ||३०४-३३८।। वृत्तं, एवमनेन प्रकारेण भवनं भूतिर्वा भवः, संसरणं संमृतिर्वा संसारः, भव एव संसारः भव| संसार:-नरकादि, अन्ते भवसंसारे संसरति परीति गच्छतीत्यर्थः, सुभासुभाणि सातअसातादीणि, क्रियते इति कर्म्म, जीवत इति जीवः, ५ मादी मज्जपमादादि पंचविधो, बहुशः बहुलो, अतः समयमात्रमपि प्रमादं मा कुरु, यद्यपि कदाचित् तन्मानुष्यं लभति तदापि 'लडूणऽवि माणु (सत्तणं) सं' ||३०५ -३३८ ।। वृत्तं तत्रापि आर्यत्वं दुर्लभं, क्षेत्रार्यत्वं रायगिहमगहचंपादि, जतो बहने दस्सुअमिलिक्खुया, दस्यति दस्सइति वा दस्यु:-चोरा, ते हि प्रत्यन्तवासिनो धर्माधर्म्मवहिष्कृता, 'मिलेक्खुया' म्लेच्छा अविस्पष्टभाषिणः अनार्यभाषाः, गम्यागम्य अपरिहारिणः शकयवनादयः, निःसंज्ञाः, तद्विवेन किं मनुष्यत्वेन ? 'लडूणऽवि आरिथत्तणं०' ।।३०६-३३८।। पुच्बद्धं कण्ठयं, विकलानि इन्द्रियाणि यस्य स भवति विकलेन्द्रियः 'दीसति' प्ति प्रत्यक्षमेव दसिंति, अपूर्णेन्द्रिया एव जायमानाः, जाता अपि च व्याध्यपराध्यादिभिरुपक्रमविशेषैर्विनाशमिन्द्रियानि प्राप्नुवन्ति इत्यतः 'विगलिंदियता हु दिस्सह' अतो धम्मस्स अजोगा, तं जाव अविकलेदियणीरोगो ताव समयं गोथमा 'अहीणपंचिंदियत्तंपि से लभे० ॥३०७-३३०॥ वृत्तं, यद्यपि अहीनेन्द्रियत्वं लभ्यते, तथापि 'उत्तमधम्मसुती हु दुल्लभा' उत्तमा-अनन्यतुल्या सर्वज्ञोक्ता धर्मस्य श्रुतिः, श्रवणं श्रुतिः, 'कुतित्थिणिसेवते जणे' तीर्यते तार्यते वा तीर्थ, कुत्स्यानि तीर्थानि शाक्यादीनां तान्येव तु निषेवते भूयिष्ठो जनो इत्यतः 'कुतित्थिणिसेवए जणे', अत इदमस्मदीयं तीर्थं संसारार्णवतारणार्थमेव, गाहा, समयं गोयम मा प्रमादये 'लडूणवि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्तणिसेवए जणे ० ||३०८-३३६ ॥ मिच्छत्तं विवरीतग्गहो जहा अधम्मे धम्म [203] पंचेन्द्रिय काय स्थितिः नरत्वादि दुर्लभता ॥ १९०॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] चूर्णी गाथा ||२९०३२६|| श्रीउचरासमा धम्मे अहम्मसमा एवमादि, अथवा जं अपत्थं इह च परत्र च तत्थेव चिन्तणीयमिति, उक्तं च-"प्रायेण हि यदपथ्यं चलहानिः 8 तदेव चातुरजनप्रियं भवति। विषयातुरस्य जगतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषया॥१॥"अथवा इमं मुर्ति कहेज्जमाणपि सदोषोपहतत्वात १० मिथ्यादर्शनभावितत्वाच्च न गृह्णन्ति, उक्तञ्च-जह ध(च)म्मकारमुणिया छेदप्पा(चम्मापया)छेदगाण बहुयाणं । धाता मधुन्वतद्रुमपत्रके जुतं परमण्णं णेच्छ्ते मोच ॥ १॥ अहवा-जह पित्तवाहिगहितो तस्सुवसमणत्थमाणियं मधुरं। कडुगमिति मण्णमाणो ससकरं ॥१९॥ निच्छए खीरं ॥ १॥ तदेवं तावत् श्रुतिमुत्तीर्य समतं गो०। 'धम्मपि हुसद्दहंतया ॥३०९-३३८।। वृत्तं, तं पुण किं कारणं ण, फासति , उच्यते-'इह कामगुणहिं मुच्छिता' 'इहे' ति इह मनुष्यलोके कामगुणा:- शब्दादयः, मूच्छित इव मूच्छितः, | जह पित्तमुच्छादिमुच्छितो इह लौकिके अपाये ण चिंतेति तथा श्रावकौघात(घः', यावत् शुद्धाऽस्ति ते धमें ताव कामेष्वनावृत्तो द्रभूत्वा समय, इतश्च अप्रमाद: करणीयः, कुतः, शरीरदोबल्यात्, इदं हि-'परिजूरति ते सरीरयं ॥३१७-३३९।। वृत्तं, परि सर्वतो भावे, समन्ताज्जीर्यते परिजूरति, व्याधिज्वरादिभिरुपक्रमविशेषैः, शीर्यते शरीरं, क्लिश्यन्त्येभिश्च क्लिष्टाः, क्लेशयन्ति |वा कामिन: क्लेशाः, ते तु पण्डरा भवन्ति, तृतीयवर्णान्तरसंक्रान्ता इत्यर्थः, से सोयवले हायति, मंद मन्दं शृणोतीत्यर्थः. समयं गोयमा, एवं चक्खुघाणजिम्भाफासा. से सब्बरले ते, सब्बवलं नाम एतेसिं चेव पंचण्डं इंदियाण परिहाणीए सबबलपरिहाणी भवति, अथवा बलं तिविहं-सारीरं वाइयं माणसियं, सारीरं प्राणवलं स्थानचंक्रमणादि च, वाचिकं चलं स्निग्धनीहाका रिसुस्वरता, सा हीरमाना रुक्षा मंदा अल्पा बहुमायासा च भवति, माणसियमपि ग्रहणधारणाऽसामर्थ्य भवति 'अरई गंडा ॥१९॥ विसूइया० ॥ ३१६ ॥ वृत्तं, गच्छतीति गण्डं, चिंरिव विदधतीति विसूचिका, विविधैर्दुक्खविशेषैरात्मानमल्कयतीति आत-1 दीप अनुक्रम [२९१३२७] [204] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||२९०३२६|| १० दुमपत्रके श्रीउत्तरारका, तैवोदीण विहडति-विद्धंसति ते सरीरगं, समयं गोयमा ! । यतश्चैय ख्याध्यादीनामातंकानां सामान्यमथु(थि) च शरीरं | त्यागस्थेये चूर्णी | तस्मात-'बुञ्छिद सिणेहमप्पणो० ॥ ३१७ ।। वृत्तं, विविधं छिंद वोच्छिद, स्निह्यत इति स्नेहा, 'अप्पणो'त्ति आत्मीये शरीरे, कमनीयं कुमुदं, शरदि जातं शारदिक, पातव्यं पानीयं, 'ते सम्वसिणेहवज्जिए' सर्वस्नेहा नाम आत्मनि च चायेषु च वसु(स्तु)पु, सर्व एव वर्जयित्वा समय गोयमा। 'जि(चि)च्चाण(य)धणं च भारियं०॥३१८-३४०॥वृत्तं, चिच्चा'त्यक्त्वा धणं॥१९॥ हिरण्णसुवण्णचतुष्पदादि, दधाति धीयते वा धन, ध(भ)रयणीयासी भार्या, 'पव्वइओ हु (हि) सिं' प्रगतो गृहात् संसारातो वा पब्वइओ, अणगारियं नास्यागारं विद्यत इत्यनगारः अतः प्रबजितत्वं अणगारियं, मा वंतं पुणोवि आविए अमानोनाः प्रतिषेधे, वंतं मुत्तपडिग्गलितं मा तं पुणोऽवि आदिए-आपिब, पुलाग(गुणगे)ज्झसमाकुलमणस्स मन्नत भुजगमष्णा वा । रोसवसविष्पमुक्कं ण पिति विसं (अगंधणया)॥१॥ विसविवज्जियसीला । 'अवउजिझय मित्तबंधवं.॥३१९.३४०॥ वृत्तं, 'अवउज्झिय'त्ति छड्डेउं, मेज्जति मज्जति चा मित्र, सहजाता भाया मित्ता, बांधवे हि अहिता निवतयंति, ते च पुल्वपच्छा संधुता, विपुलं विच्छिण्णं सुमहारासि संचयो हिरण्णस्स सुवण्णस्स चतुष्पदादेः कुवियस्य य मा तं चितियं गवेसए, समतं गोतमा!॥ इदं अनागतोभासित सुत्न-'ण हु जिणे अज्ज दीसइ०॥३२०-३४०॥ वृत्तं, यद्यप्येष्यत्काले आसन्ने न द्रश्यन्ति तथापि तैरिदमालवणं कर्तव्यं 'बहुमए दीसह मग्गदसिए' बहुमतो णाम पंथो, जहा णगरं अपेच्छमाणोषि पंथं पेच्छंतो जाणइ-इमेण पंथेण IN॥१९॥ णगरं गमति, एवं 'संपइ नेआउए पहे' 'संपति'त्ति साम्प्रतकाले, नयनशीलो नैयायिका, पथ्यत इति पन्थाः सम्यग्दर्शन-10 बानचारित्रमयः ते एवं भगवं असंदिग्धपन्था व्यवस्थितः सन् समयं गोयमा ! 'अवसोहिय० ॥३२१-३४१।। वृत्तं, दबकण्टकाः दीप अनुक्रम [२९१३२७] SALERY REASERABAD [205] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूर्णी सूत्रांक [१] गाथा ||२९०३२६|| Rec4-9-% श्रीउत्तरा० चन्बूलकण्टकादि अवसोधेउ जहा गम्मति, एवं भावकण्टका हि तावसयरकपरिव्राजकादि कुश्रुतिस्कन्धक, यथा तान् कुश्रुतिकण्ट-1 संयमशद्धि कान् अवसोहिय उत्तिन्नोसि एवं महालयं अवतीर्णस्त्वं, पथं सम्यग्दर्शनचारित्रमयं 'महालयंति आलीयन्ते तस्मिन्नित्यालय प्रभृति महामार्ग इत्यर्थः, 'गच्छसि मग्गं विसोहिया' यास्यसि मार्ग--सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयं विशोधयितं, अतिचारविरहित द्रुमपत्रके कृत्वेत्यर्थः, समय गोयमा ! 'अपले जह भारवाहए ॥३२२-३४१॥ वृत्तं, यथा अवलो भारवाहकः पर्वतं दुर्ग पन्थानमवगाह अबलत्वातं सुवर्णभारं भाण्डभार वा प्रोझय स्वगृहं प्राप्तः, तैर्निर्धनत्याद्विभवहीनः पश्चादनुतप्यते, तद्वदेव भवानपि संयमभार ॥१९३॥ मुक्त्वा स पच्छा पच्छाणुतावए, समयं गोतमा !॥'तिण्णो हु सि अण्णवं महं॥३२३-३४१॥ वृचं, तीर्णवान् तीर्णः तीयेत इति वा, अतरणशीलो वा अण्णवो, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ, द्रव्यार्णवः समुद्रः, भावार्णवस्तु संसार एव, उक्कोसट्टितियाणि दवा कम्माणि, तस्य भवार्णवस्य तीरं प्राप्तः, किमुक्तं भवति ?- उक्कोसद्वितीयाणि सव्वाणि खवइत्ता थोकमावसेस इत्यर्थः, अब सेसाणं अभितुर पारं गमेत्तए, समयं गोतमा 'अकलेवरसणिमूसिया०॥३२४-३४२।।वृत्तं, कलेवरं नाम सरीरं, न कडेवर २, अयंति तामिति श्रेणि, अशरीरश्रेणिरित्यर्थः, सात संजमट्ठाणाणि सेणी, तं संजमहाणसेणि उस्सविय उपरिमाई २ संजमहाणाणि उवसरतो सिद्धिं गोतम! लोगं गच्छति, खेमं शिवं अणुत्तरं, णत्थि ततो अनुत्तरंति समयं गोतमा! ।। 'बुद्धे परिणिव्युए चरे॥३२५-३४२।। वृत्त, धम्मे बुद्धो, परिणिच्चुतो णाम रागदोसविमुक्के, चरेदिति अनुमतार्थे, कुत्र चरे, मामे णगरे तु, तत्र जाउ ता असति बुद्धचादीन् गुणानीति ग्राम, नात्र करो विद्यत इति नकर, सम्यग् यते, 'संतिमग्गं च चूहए' शमन शान्तिः, शान्त मार्गः२, अधवा शान्तिरेव मार्गः शान्तिमार्गः, बृहयेत बृहये, बुद्धः परानपि बोधयेदित्यर्थः, समयं गोतमा॥ ततः स भगवान् । दीप अनुक्रम [२९१३२७] [206] Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१०], मूलं [१...] / गाथा ||२९०-३२६/२९१-३२७||, नियुक्ति : [२८०...३०९/२८०-३०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत पूजाना सूत्रांक [१] गाथा ||२९०३२६|| निक्षेपाः श्रीउत्तरा. गौतम एतत् 'बुद्धस्स णिसम्म भासिय० ॥३२६-३४२||वृत्तं, 'बुद्धस्सति भगवतो तीर्थकरस्य, निशम्येति श्रुत्वेत्यर्थः, भासित चूणो दशोभनं कथितं सुकथितं, अर्थपदैरुपशोभित, अस्य फलं-रागं दोसं च छिदिय, माया लोभो य रागो, क्रोध माणो य दोसो, 'सिद्धिं गतिं गतो सिद्धानां गतिः सिद्धगतिः,सिद्धानां गतिं गतो गौतम इति बेमि । नयाः पूर्ववत्।।वुमपत्तयं सम्मत्तं दसमज्झयणं१०॥ को अणुसासेति !, बहुस्सुतो, ततो तेणं अणुसासितेण बहुस्सुयस्स पूया कायव्वा, अह्वा अप्पमादवितेण बहुस्सुतस्स पूया ॥१९४॥ कायथ्या, एतेण अभिसंबंधेण बहुस्सुतपुज्ज अज्झयणमागतं, तस्स चत्तारि अणुयोगद्दारा उबक्कमादी, नामनिष्फण्णे निक्खेवे 'बहु-15 सूए पुज्ज०॥३१०-३४शाति,तत्थ बहुं पूया य)णिक्खिचियव्यंति(दु)पदं णाम,तत्थ गाहा बहुसुयपूया गाहा ॥३१०॥ तत्थ बहुं चउ विहं णामादि,दव्बबहुं जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्त पंच अस्थिकाया, एत्थवि जीवा य पोग्गला य बहुगा चेव 'भावबहुगेण जबहगा' गाथा||-३४३।।ताव बहुस्सुओ चोदसपृथ्वी, अणंतगमजुत्तत्ति अणतेहिं गमेहि जुत्ते भावे जाणति, ज्ञेयानां भावाना पज्जवे | जाणति, किई पुख्वाणं अणंतगमा भवति?, तस्थ णिदरिसणं मणुस्सा दयादि ४, दब्बातो ते चेव मणुस्सदवं जाणति, खेतओ जमि खते, कालतो अणतेहिं भवग्गहणेहिं जुत्तं तं मणुस्सदव्वं जाणति, भावतो कालादिपज्जाया स जाणाति, एवं सव्वं ज्ञेयं | अगंतेहिं गमेहिं पज्जवेहि य संजुत्तं जाणति, गमा दख्वादि पज्जवा बालादि, भावे खओवसमिए मुतणाणं, खइयं केवलणाणं, बहुगत्तिगतं, इदाणि मुतं-तं चउविहं णामादि, जाणगभवियसरीवतिरित्तं दध्वसुतं पचयपोत्थयलिहितं, अथवा सुत्न पंचविहं ४ापण्णत्तं अंडयादि, भावसुतं दुविह पं०,तंजहा-सम्मसुतं मिच्छसुतं च,तत्थ सम्मसुतं भवसिद्धिया उ जीवा॥३१३-३४४माथा,। किं कारणं सम्मसुतं भणति, उच्यते, जम्हा कम्मरस सोधिकरं । इदाणि मिच्छ सुतं, 'ता मिच्छविट्ठी जीवा॥३१४ ।। गाथा, LASTERESASARENASIBNE BACAREASOO R दीप अनुक्रम [२९१३२७] ॥१९४॥ अध्ययनं -१०- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -११- "बहुश्रुतपूजा" आरभ्यते [207] Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| श्रीउत्तरा० कम्हा मिच्छसुतं भण्णति , उच्यते-जम्हा कम्मस्स बंधणं भणिय, आदाणं नाम बंधणमित्यर्थासुतंति गतं, इदाणि पूया, सा बहुश्रुतचूर्णी चउचिहा-नामादि, दथ्वपूजा दध्वनिमित्तं दन्वभूता वा, तत्थ गाथा-'ईसर सलबर०॥३१५-३४४॥ गाथा, दब्बनिमित्तं ईसरमाईणं पूजाना ११ विण्हुखंदरुदादीणं च, ण ते हि गुणेहि जुत्ता तेण तेसिं दवपूजा,(भावपूया) अरहतमाईणं जेण तेसि संसाराओ उत्तारेतित्ति भावपूया,एत्थ निक्षेपाः बहुश्रुतपू० चोदसपुब्विपूयाए अधिकारो,गतो नामनिप्पण्णो, सुनाणुगमे सुत्तं उच्चारेतब्ब, तं च सुत्तं इम-'संजोगा विप्पमुक्कस्स०॥३२७॥१९॥ ४-३४५||सिलोगो,पुव्वद्धं जहा विणयसुते,आयारं पाउक्करिस्सामि,(पूयत्ति वा विणओत्ति वा)आयारोत्ति वा एगहुँ, 'जे यावि होहर निबिज्जे०३२८-३४५|| सिलोगो, य इत्यनुद्दिष्टस्य निर्देशः, नास्य विद्या निबिज्जेऽपिशब्दात्सविद्योऽपि अविद्य एव भवति यः | स्तब्धो भवति, उक्तञ्च-"ज्ञानं मदनिर्मथनं मायति यस्तेन दुश्चिकित्स्यः सः। अगदो यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कुतोऽन्येनी ॥१॥लब्धो आहारादिषु, तद्विपाकं न जानीते, अणिग्गहे अंकुशभूता विद्या तस्या अभावादनिग्रहः, अभिक्खणं-पुणो पुणो उल्लवतित्ति फुक्कतेण अहिट्ठाणेण सुव्वति अम्हे पडिचोदेति, अविणीतो य भवति, केणी, जेण अवहुस्सुतो, यस्तु सBा विद्यो भवति सो ण थम्भति त दोसं जाणतो, अलुद्धो णिम्गहीतप्पा, बिज्जा ठाणे उल्लवति विनीतो य भवति, बहुश्रुतत्वात् । लतं च तं बहुश्रुतत्वं कथं ण लब्भात !, इमेहिं-'अह पंचहिं ठाणेहिं '३२९-३४५।। सिलोगो, अथेत्यानन्तर्ये, पंचेति संख्या, ठाणेहिंति प्रकारा, 'जहि ति अणिदिवाण णिद्देसो, मोक्खो, गहणसिक्खावि णस्थि, कतो आसेवणसिक्खा?, कयरे पंचट्ठाणा ?, ||१९५॥ उच्यन्ते-थंभा कोहा पमादा रोगा आलस्सा, तत्थ ते णो कोइ पाढेति, इयरो थद्धत्तेण ण वंदति, कोहा कोहणसीलो, पमादो पंचविधो, तंजहा--मज्जप० विसयप० कसायप० णिहाप० विगहापमादो, अत्याहारेण अपत्थाहारेण वा रोगो भवति, आलसिगो य INE नि दीप अनुक्रम [३२८३५९] % % [208] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| ११ श्रीउत्तरायण लब्भति । कथं लम्भति ?, तेसिं चेव विवच्चासेण । अधवा इमेहिं लम्भति-'अह अहहिं ठाणेहिं ॥१३३०-३४५॥ सिलोगो, अविनीत चूर्णी अर्थत्यामन्त्रणे, शिक्षा शीलयतीति शिक्षाशीलो, गृह्णातीत्यर्थः, हसनशीलो हसिरो न हसिरोऽहसिरः, दंतो इंदियदमेण णोइंदि-15 विनीत स्थानांनि यदमेण य, ण य म उदाहरति आयरियाणं जेण दुम्मिज्जति, णोऽशीलो गृहस्थ इव, ण विशीलो भूतिकम्मादीहि, णसिया अवबहुश्रुतपू० | धृते अइलोलुए आहारविगतीहिं, अकोहणे ण रूसति, सच्चरतो ण मुसाबादी, संजमरतो वा, सिक्खासीलो जस्स सिक्ख॥१९॥ यति एरिस सील,अविणयस्स ठाणाई-'अह चोदसहि ठाणेहिं ॥ ३३२-३४७॥सिलोगो,कण्ठ्यः। अभिक्खण३३३-३४७|| पुणो पुणो रूसति, एवं च पकुव्वति-अच्चतं कुवति, तहा मित्तिज्जमाणो वमतित्ति जहा कोइ भायणादि रंगिउ ण याणेति, IA अन्नो धम्मसद्धाए अहं करेमित्ति, इयरी प्रत्युपकारभया णेच्छति, सुयं लद्धण मज्जति अइबहुस्सुतोत्ति । 'अवि पावपरिक्खेवी *३३४-३४७|| सिलोगो, ण पावं परिक्खिवति, किंचि पडिचोदितो माइक्खवियाणि उग्गणेति,मित्ताणवि रुस्सति, सेसाणं च रुहो| पाचव, जाच सुटु पितो मित्तो तस्स परंमुहस्स अवनं भासति रहोति, जाहे न सुपरण)ति कोइ भणति, णाणादिसु उज्जुत्ते, सो इतरो | पीपडिसोयो) भवति. 'पइन्नवाई०३३५-३४७॥सिलोगो, अपरिक्खिउं जस्स व तस्सव कहेति, दुहणसीलो दुहिलो, महिसो वा दुहिलत्ति, थद्धे लुद्धे आनिग्गहे पुव्वमाणिता, असंविभागी आहारादिसु, अचियत्तोऽदरिसणो वा, अथवा तं तं भासति वद्ध(ोति | वा जेण अचियत्तो भवति, अप्रिय इत्यर्थः, एवंगुणजातीओ अविणीओ। 'अह पन्नरसहि ठाणेहिं ॥३३६-३४७॥ सिलोयो, पुब्बद्धं कण्ठथं 'णीयवत्ति'ति' णीयापिनी, कथं , उच्यते--णीयं सेजंग(ति) हाण, यिं च आसणाणि य । णियं च पाय | ४| वंदेज्जा, णीय कुज्जा य अंजलि ॥१॥' 'अचवले'त्ति चचलो चउव्यिहो-गतिशहाणरभासाभावे, गतिचवलो दवदवचारी, दीप अनुक्रम [३२८३५९] [209] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत विनीतस्था चूणों नानि १२ सूत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| Clete श्रीउत्तराठाणचक्लो जो चलंतो अच्छति, णिवण्णो ण अच्छति,इत्थं वा पादं वा सीस चा पोलो)लितो अच्छति,अथवा सव्वं अंगं चालेति, अबद्धासणो वा, भासाचवलो चउम्बिहो, तंजहा-असप्पलावी असम्भष्पलाची असमिक्खपलायी अदेसकालप्पलावी, तत्थ असप्प-1|| लाबी नाम जो असंतं उल्लावेति, असम्भप्पलावी जो असन्म उल्लावेति, खरफरुसअक्कोसादि असम्भ, असमिक्खियपलावी | बहुश्रुतपू० असमिक्खिउं उल्लावेति, जे से मुहातो एति त उल्लावेति, अदेसकालपलावी जाहे किंचि कज्जं अतीतं ताहे भणति-जति पकरेंति । सुंदरं होतं, मए पुच्वं चेव चितितेल्लयं, तो(भाव) चवलो, सुत्ते अत्थे य, सुत्ते उद्दिढे असमत्ते चेव तसि अनं गेण्हति,एवं अत्थेऽवि, 'अमाईत्ति जो मायं न सेवति, सा य माया एरिसप्पगारा, जहा कोइ मणुनं भोयन लबूण पंतेण छातेति 'मा मेयं दाइयं संत | दठूर्ण सयमादिए अकुतूहली विसएसु विज्जासु पावठाणत्तिण बट्टतित्तिा'अप्पं च अहिक्खिवति॥३३७-३४७॥ सिलोगो, अल्पशब्दो हि स्तोके अभावे वा, अत्र अभाचे द्रष्टव्यः, ण किंचि अधिक्खिवति, नाभिक्रमतीत्यर्थः, 'पबंधं च ण कुण(च)ति', अच्चतरुट्ठो न भवति, मित्तिज्जमाणो भजति, प्रत्युपकारसमर्थः, उपकृतं वा जानीते, 'सुयं लडुंन मज्जति' तं दोसं जाणतो, जो 'न च पायपरिक्वेवी०॥३३८-३४७॥ सिलोगो,ण छिद्दाति मग्गति, णो चोइतो पमादक्खलियाई उग्गणेति,ण य मित्तेसु कुप्पत्ति, अण्णस्स न कुप्पति, किं पुण मित्तस्स , अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाणं भासह सव्यस्सेव कल्लाणं भासइ, प्रियः अनुकूल इत्यर्थः, 'रहे'त्ति जइ कोइ परंमुहं किंचि भणिज्जा जहा णाणाइसु ण उज्जुत्तोचि तं पडिसेहेति । 'कलहडमर' ॥३३९-३४७॥ कलह एव उमर कलहडमर, कलहेति वा भंडणेति वा डमरेति वा एगट्ठो, अहवा कलहो वाचिको डमरो हत्थारंभो, वज्जेति-ण करेति, बुद्धो धम्मे विणये य अभिजाणते, विणीतो कुलीणे य, ही लज्जायो, लज्जति अचोक्खमायरतो, पडिसलीणो SACROCE ext- दीप अनुक्रम [३२८३५९] ext [210] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| श्रीउत्तरा। आचार्यसकासे इंदियणोइदिएहिं, एतेहि गुणेहिं उववेदो सुविणीतो बुच्चति-भन्नति, किंबहुना ?, जइ इमेहि गुणेहिं उबवेतो- बहुश्रुताचूर्णी 13'वसे गुरुकुले निच्च॥३४०-३४८॥ सिलोगो, आयरियसमीचे अच्छति णिच्च-सदाकालं, आह हि- "णाणस्स होह भागी थिर-15 नामुपमा Iयरगो दसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलयासं न मुंचंति ॥१॥" जह जोगवं भवति, जोगो मणजोगादि संजमजोगो बहुश्रुतपू० वा, उज्जोगं पठितव्वते करेइ, उधाण जो जो सुयस्स जोगो तं तहेब करेति, पियं करोतीति पियंकरो, आधारउवाहिमादीहिं ॥१९८॥ छन्दाणुलोमेहिं पाठविणयमादीहिं वा, 'पियंवादी' ण किंचि अपियं वदति, से सिक्खं ल डुमरिहति, तमि एवंगुणजातीते ३ सीसे देति सुतं आयरिओ, सीसो पडिच्छंतो सोभति, विराजते इत्यर्थः, को दिढतो, उच्यते 'जह संखमि पयं निहियर ॥३४१-३५३।। सिलोगो, यथेत्यौपम्ये संखमि संखभायणे पयं-खीरं णिसितं ठवियं न्यस्तमित्यर्थः, उभयतो दुहतो, संखो खीरं च, अहवा तओ खीरं च, खीरं संखे ण परिस्सयति ण य अंबिलं भवति, विरायति - सोभति, एवं उपसंहारे, अणुमाणे चा, बहुस्सुए सुयविसारओ जाणक इत्यर्थः, स एव भिक्खू, भायणे देंतस्स धम्मो भवति कित्ती वा, सो तहा सुत्तं अबाधितं भवति, अपत्ते देंतस्स असुतमेव भवति, अथवा इहलोगे परलोगे जसो भवति पत्तदाई(त्ति),अहवा एवंगुणजातीए भिक्खू बहुस्सुते भवति, धम्मो कित्ती जसो भवति, सुयं व से भवति, अथवा इहलोए परलोए विराजति, अथवा सीलेण य सुतेण य । भूयो वितिओ A दिहतो-'जहा से कंबोयाणं॥३४२-३५३॥ सिलोगो, जहा जेण पगारेण, सेत्ति णिदेसो, कंबोतेसु भवा कंबोजाः, अश्वा इति । हावाक्यशेषः, आकोणे गुणेहिं सीलरूपबलादीहि य, कथए, 'अस्सो' अस्सेत्ति अस्सेति असति य आसु पहातित्ति आसो, जवेण पवरोत जयो हि सज्झो परमं विभूसणं जाती, जवोववेतोत्ति भणियं होति, जहा सो आसो जातीजवोववेतत्तणेण सेसेसु पहाणत्वं । दीप अनुक्रम [३२८३५९] CCaMIER-ACC [211] Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| -%EC श्रीउत्तराकालमति, एवं पहुस्सुतोवि सीलमततवोचतते पूजनीयो भवति । 'जहाऽऽइन्नसमारूदे०॥३४३-३५३||सिलोगो. आइण्णो भणितो, १२५शासिलागा, आइण्णा भाणता बहुश्रुताचूणौँ । सम्यगारूढः समारूढः, सूरे दतपरक्कमो, दढपरक्कमो नाम आसणे दढो प(बव)हारे परक्कमो य, उभयो णंदिघोसेणं,उभयो ११ । दोहिं पासेहि, अहवा आम्गतो पच्छितो य, णदिघोसेत्ति मंदिघोसो तस्स, कतो य नंदिघोसो', उच्यते, जे एरिसे अस्से दूरुहति || बहुश्रुतपू० | तस्स गंदीवि भवति, जहा सो अप्पाणं परं च रक्खति सत्तुपक्खातो, एवं इमोवि परतिस्थिरहितो रक्खति बहुश्रुतत्वात् ।। ॥१९॥ 'जहा करेणुपरिकिण्णे०३४४-३५३॥ सिलोगो,करेणु हस्थिणियाओ ताहि परिकिण्णोति कु-भूमी तं जरेती कुंजरं, हायणं वरिसं, | सद्विवरिसे, परं बलहीणो, अपत्तबलो परेण परिहाति, बलं बलेण मत्तो अपडिहतोत्ति, अहिं सत्चेहि ण हम्मतित्ति, एवं बहुस्सु-t तेऽवि परप्पवाईहिं न हम्मति । 'जहा से तिक्खसिंगे ॥३४५-३५३॥ सिलोगो, तिक्खसिंगत्वात् जातस्कन्धत्वाच्च अन्नेहिं ध-150 सभेहिं णामिहविज्जति शोभते च, एवं बहुस्सुतोवि परतित्थिय अंगमत्तेण शोभति ॥ 'जहा से तिखदाढे||३४६-३५३शासिलो| गो, उदग्गं पधानं शोभनमित्यर्थः, उदग्रं वयसि वर्तमानं, जहा सो सीहो सब्वेहिं दुप्पसणीयो, एवं बहुस्सुतोऽवि परतित्थिय| मियातीहिं दुप्पहंसणीयो । 'जहा से वासुदेवे० ॥३४७-३५३।। सिलोगो, जहा वासुदेवो सध्यस्थ अपरानिओ, एवं बहुस्सुतोवि कुतीथिएहिं अपराजितो॥'जहासे चाउरते ॥३४८-३५३||सिलोगो,चाउरंतित्ति तिहिं दिसाहिं समुदो एगतो पव्वतो,जहा सोर *चक्कबड्डी महड्डिए मणुसिद्धीए, अपराजितो य, एवं बहुस्सुतोऽवि महईए सुयविभूतीए, न तीरइ य परप्पवाईहिं पराजिणिउँ, 'जहा से सहस्सक्खे० ॥३४९-३५३॥ सिलोगो, सहस्सक्वेत्ति पंच मंतिसयाई देवाणं तस्स, तेसिं सहस्सो अक्खीणं, तेसि || ॥१९९॥ पीतिए दिहमिति, अहवा जं सहस्सेण अक्खाणं दीसति तं सो दोहिं अक्खीहिं अमहियतरायं पेच्छति, एवं बहुस्सुतोऽवि३ दीप अनुक्रम [३२८३५९] %AC%E 31 [212] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥३२७३५८|| दीप अनुक्रम [३२८ _३५९] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [११]. मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९]], निर्युक्तिः [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी ११ बहुश्रुतपू० ॥ २०० ॥ सुतणाषेणं अनंते भावे जाणति ण पासति, जह य इंदो महन्तीए सुरविभूतीए बच्चति, एवं सोऽवि । 'जहा से तिमिरविद्धं से० ' | ॥३५० ३५३॥ सिलोगो, तिमिरं अन्धकारं तं विद्धंसति-विणासति, जाच मज्झण्णो तात्र उड्ङ्केति, ताव से तेयसा वद्धति, पच्छा परिहाति, अहवा उत्तितो सोमो भवति हेमंतियबालसूरिओ, एवं जहा आइच्चो तेएण जलति एवं बहुस्सुतोऽवि तेजवान् । 'जहा से उडुबई चंदे० ' ॥३५१-३५३॥ सिलोगो, उडूई-णक्खताई तेसि पती उड़पति, सो य अद्धपदे गिट्ठपरिवारो (अट्ठमीआइसु परिवारो ) पडिपुण्णो हि पडिपुण्णमंडलो पुण्णमासीए अतीव सोभयति, एवं बहुस्सुतोऽवि चंद इव सोमलेसो सीसपरिवारितो सोभयति, एवं एक्केक्केण गुणेण दिडुंता भणिता । इमो अरोगेहिं भण्णति- 'जहा से सामाइयाणं० ॥३५२-३५३ ।। सिलोगो, जहा कोट्ठागारो णाणाविधाण घण्याण सुपडिपुण्णो, एवं बहुस्सुतो णाणाविधाण सुतणाणविसेसाण सुपडिपुण्णो । 'जहा सा दुमाण पवरा० ॥३५३-३५३॥ सिलोगो, जह जंबू अमितफला देवावासो य, एवं बहुस्सुतोऽवि सुयणाण अभियफलो, देवावि य से अभिगमणादीणि करेंति । 'जहा सा नईण पबरा० ।। ३५४-३५३।। सिलोगो, जहा सीता सव्वणदीण महल्ला बहूहिं चजलासतेहिं च आइण्णा, एवं चोइसपुथ्वीविसेससुतणाणेण महान् प्राधान्ये चट्टति, अगेगे यणं सुतत्थी उवसप्पति । 'जहा से णगाण पवरे० ॥ ३५५-३५३ ॥ सिलोगो, जहा मन्दरो थिरो उस्सिओ दिसाओ य अन्थ पवचंति, एवं बहुसुतोऽवि बहुसुय तणेणेव थविरो उस्सिओ य दव्वदिसाभावदिसापभावगो य ॥ किं बहुणा :- 'जहा से सर्वभुरमणे ||३५६-३५३|| सिलोगो, जहा | सयंभुरमण समुद्दो अक्खयोदगे रयणाणि य अस्थि गंभीरो य, एवं बहुस्सुतोवि अक्खयसुयणाणजलो णाणादिरयणोचवेतो सुतमाणगुणोववेत्तणेण य गंभीरो, न हु उच्छुलो। 'समुहगंभीरसमा' || ३२७-३५३|| सिलोगो, जहा समुद्दो अवगाढत्तणेण गंभीरो [213] बहुश्रुतानामुपमा ॥ २००॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [११], मूलं [१...] / गाथा ||३२७-३५८/३२८-३५९||, नियुक्ति : [३१०...३१७/३१०-३१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ||३२७३५८|| श्रीउत्तराभा एवं बहुस्सुतोऽवि गंभीरो, ण उत्ताणसोयणत्थितसलिलामिव बुलबुलेति. दुरासयत्ति ग सक्का आश्रयितुं परिसहेहिं परखादीहि हरिकेशवृत्तं चूर्णौ च, यदुक्तं ण य सक्कंति ते एतेहिं छिडेउं, अचक्किया ण सक्किया केणइ, दुप्पहंसिया दुक्खं पधंसिज्जतिचि दुप्पहंसिया, यदुक्तं दुराधरिसा, कस्मात् - सुतस्स पुषणा, विउलस्स विपुलं चोद्दस पुब्बा, विमलं हिस्संकितं वायणोवायं बहथं वा हरिकेशीये विपुलं, ताती आत्मपरोभयताती, ते हि भगवंतो तेण सुत्तेण तदुपदेशेण य 'स्ववित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया' अट्ठप्पगारं ॥२०१॥ खवित्तु उत्तमा पधाणा सिद्धिगती तं गता, जम्हा एते गुणा सुत्तस्स 'तम्हा सुयमहिढेज्जा॥३५८-३५४ासिलोगो तस्मात्कारणात् सुतं अहिज्ज-सुत्ते ठाएज्ज, उत्तमो अट्ठो-मोक्खो तं उत्तमं अत्थं मोक्खं गवेसए, गुणो तस्स, 'जेणऽप्पाणं परं चैव' जेणंति सुत्चेणं, अप्पाणंति तस्स सुत्तस्स उपदेस करेमाणो स्वयं, परस्सवि परस्स उपदेस देसमाणो, सिद्धिं संपाउणेज्जासि लातेण सुत्तेण करणभूतेण संपाउणिज्जासि इति बेमि । णयाः पूर्ववत् ।। बहुस्सुतपुज्जं सम्मत्तं इकारसमै ११ ॥ स एव पूजादि अधिकारोऽनुवर्तते, जहा बहुस्सुतो पूइज्जति, सो य जहा जक्खेण हरिएसबलो पूइतो, अनेनाभिसम्बन्धेनायातस्य तस्य हरिएसिज्जस्स चत्वारि अणुओगदारा उवक्कमादी, तत्थ णामनिष्फन्ने निक्खेवे हरिएसिज्ज, एत्थ गाहा ला'हरिएसे निक्खेवो ॥३१८.३५४॥ गाथा, सो हरिएसो णामाति चउब्यिहो, तत्थ दवहरिएसो 'जाणगसरीर०॥३१९-३५४॥ चतिरिचो तिविधो-एगभषियादि, भावहरिएसो 'हरिएसनामगोय॥३२०-३५४||गाथा कण्ठ्या, तस्स हरिएसस्स उत्पत्ती इमा-IN२०१॥ महुराए नयरीए संखो नाम राया, सो पम्वतितो, विहरंतो य गय परं गतो. तहि च (भिक्खं) हिंडतो एग रत्थं पत्तो, सा य 15 | किर अतीव उण्हा मुम्पुरसमा, उण्डकाले ण सक्कति कोवि ताहे वोलेउ, जो तत्थ अजाणतो उप्पदति सो विणस्सति, तीसे पुण| XXH-5-Sec दीप अनुक्रम [३२८३५९] 4-07-% % * अध्ययनं -११- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१२- "हरिकेशिय" आरभ्यते [214] Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत तेन्दुकयक्षः सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| १२ % श्रीउत्तराणाम चेव हुयवहरत्था, तेण साहुणा पुरोहियपुसो पुच्छितो-एसा रथा निव्वहति ?, सो पुरोहियस्स पुत्तो चिंतेति-एस उज्झउत्ति, | भणति-निव्वहति, सो पढिओ, इय। य अलिंद द्विओ पेच्छति अतुरियाए गईए बच्चत, सो आसंकाए उइण्णो तं रथ, जाब सा | तस्स तवप्पभावेणं सीयाभूता, आउट्टो, अहो इमो महातवस्सी मए आसादितो, उज्जाणठियं गन्तुं भणति-भगवं! मए पाच-1 हरिकेशीये कम्मं कयं, कहं वा तस्स मुंचज्जामि , तेण भण्णति-पव्ययह, पब्बइतो, जातिमयं रूवमयं च काउं मओ, देवलोगगमणं, चुओ ॥२०२॥ संतो मयगंगाए तीरे बलकोट्टा नाम हरिएसा, तेसिं अहिवई बलकोट्टो नाम, तस्स दुबे भारियाओ--गोरी गंधारी य, गोरीए कुञ्छिसि उबवण्णो, सुमिणदंसणं, बसंतमासं पेच्छति, नत्य कुसुमियं चूयपाय पेच्छइ, सुमिणपाढयाणं कहियं, तेहि भण्णतिमहणो ते पुत्तो भविस्सति, समएण पनया, दारगो जाओ कालो विरूओ पुव्वभवजाइरूवमयदोसेणं, बलकोट्टेसु जाउत्ति पलो से। नाम कयं, भंडणसीलो असहणो, अनया ते छणेण समागया भुति सुरं च पियति, सो अप्पियाणि करेइचि निच्छूटो अच्छति समंतओ पलोएतो, जाव अही आगतो, उद्विया सहसा सम्वे, सो अही हि मारिओ, अणुमुहत्तस्स भेरुंडसप्पो आगतो, भेरुंडो |नाम दिग्बगो, भीया पुणो उडिया, णाए दिब्बगोत्तिकाऊण मुक्को, बलस्स चिंता जाया-अहो सदोसेण जीवा किलेसभागिणो | भवंति, तम्हा--"भदएणेव होयचं, पावति भद्दाणि भद्दओ । सविसो हम्मती सप्पो, भेरुंडो तस्थ मुल्चति ॥१॥" एवं चिततो संबुद्धो, पम्वतिओ, विहरतो वाणारसिं गओ, उज्जाणं तेंदुरवणं, तेंदुर्ग नाम जक्खाययणं, तत्थ गडी तेंदुगो नाम जक्खो परिव सति, सो तत्थ अणुण्णवेडं ठितो, जक्खो उबसंतो, अण्णो जस्खो अण्णहिं वणे वसति, तस्थवि अण्णे बहू साहुणो ठिया, सोय लगंडीजखं पुच्छति-ण दीससि पुणाई तं, तेण भणियं--साई पज्जुवासामि, तस्थ य तेंदुए दिहाणेण साहवो, सोऽपि उपसंतो, सो % A दीप अनुक्रम [३६०४०५]] 4 ॥२०२।। [215] Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा चूणों १२ सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| हरिकेशीये -- ॥२०३॥ भणति-ममवि उज्जाणे यह साहू ठिया, एहि ते पासामो, ते गया, ते य[साय] समावचीए साहुणो विकई कहेमाणा अच्छति, सो| यज्ञपाटके भणति--"इत्थीण कहऽत्थ वट्टइ, जणवयरायकहऽस्थ वट्टई । पडिगच्छद रम्म तेंदुर्ग, अइसहसा बहुमुंडिए जणे ॥१॥" अह अण्णया |४| हरिकेश्या जक्खाययणं कोसालियरायधूया भदानाम पुप्फधूवमादी गहाय अच्चि निग्गया, पयाहिणं करेमाणी तं दळूण कालं विगरालं छिचिकाऊण निढळूहति, जक्खेण रुद्वेण अण्णाइट्ठा कया, णीया घरं, आवेसिया भणति ते-गवरं मुंचामि जहणं तस्सेव देह, तं च साहति-जहा एईए सो साहू (निच्छूढो, रण्णावि जीवउत्तिकाऊण दिण्णा, महत्तरियाहिं समं तत्थाणीया,रति ताहि भण्णतिबच्च पतिसगासंति, पविट्ठा जक्खाययणं, सो पडिमं ठिओ णेच्छति, ताहे सरिता, ताहे जस्खोपि इसिसरीरं छाइऊण दिव्यरूवं दंसेति, पुणो मुणिरू, एवं सवरा विलंबिया, पभाए णेच्छएत्तिकाऊणं पविसंती सपरं पुरोहिएण राया भणिओ-एसा रिसि-1 मज्जा भणाणं कप्पहात्ति, दिण्णा तस्सेव । सो य जण्णे दिक्खिज्जिउकामो, सा अणेण लद्धा, सावि जण्णपचित्तिकाऊण दिखिया । गतो णामणिप्फएणो, सुत्ताणुगमे सुचमुच्चारतब्ब, तं च सुत्तं इम- 'सोवागकुलसंभूओ॥३५९-३५९।। सिलोगो, शयति श्वसिति वा श्वा श्वन पचतीति श्वपाकः तेसिं कुले संभृतो, गुणं अनुत्तरं धारयतीति अणुत्तरगुणधरो, मनुते मन्यते वा धर्मा-18 धानिति मुनिः, हरिएसबलो नाम हरति हियते वा हरिः हरिं एसतीति हरिएसो 'बलो' बल इति संज्ञा, नयति नीयते वार नाम, आसीत्, भिक्खु भणति, जियाइं इंदियाणि जेण सो जिइंदिओ। 'हरिएसणभासाए ॥३६०-३५९||सिलोगो, पुब्बद्धं कण्ठ्यं, 'जओ आयाणणिक्खेवे' यत्नवान्-यतः, आदीयत इत्यादानं, निक्षिप्यत इति निक्षेपः, समं यतो संयतो,संजमजोगेसु सम्ममाहितो २० समाहिओ । 'मणगुत्तो० ॥३६१-३५९।।सिलोगो, पुच्वद्धं कण्ठ्यं, भिक्वट्ठा भिक्खनिमित्त, बंभणाण जण्णं इज्जत इति इज्जत दीप अनुक्रम [३६०४०५]] ॥२०३१ [216] Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तराभव तस्स पुरोहितस्स जण्णवाडमुवहितो । 'तं पासिऊणमिज्जंतं०॥३६२-३५९॥सिलोगो,तं तवेण परिशोषितं, बहिरंतश्च शोषि- छात्रवाचूर्णी तः, 'पंतोवहिउवगरण' उपदधाति तीर्थ उपधिः, उपकरोतीत्युपकरणं, तं नाम जीर्णमलिन उवहसन्ति, न आर्या अनार्याः । क्यानि १२ जाइमयं पडिथद्धा०॥३६३.३५९॥सिलोगो कण्ठया,ते पुरोहितसिस्सा जेते जण्णत्थमागता ते भणति'कयरे तुम एसिध दित्तरूवे| हरिकेशीये | अथवा ते अन्नमन्नं भणंति-- कयरे आगच्छति दिचरूवेचि, दीप्तरूपं प्रकारवचनं, अदीप्तरूप इत्यर्थी, अथवा विकृतेन दीप्तरूपो ॥२०४॥ भवति पिशाचवत्, कालो वर्णतः, विकरालो दंतुरः, फोक्कणासो नाम अग्गेपूलनासो ओनयणासो, पाउए लक्खीयत इति, | चिलं, ओम नाम स्तोकं, अचेलओवि ओमचेलओ भवति, अयं ओमचेलगो असर्वांगप्रावृतः जीर्णवासो वा, पश्यति पाश्य(शय)ति वाले पांशुः, पिशितासः पिशाचः, पांशु पिशाचभूतः पाशुपिशाचभूतः, पांशुपिशाचवत् (स) कालो वर्णतः विकरालो दन्तुरः, पुनश्च |पांशुभिः समभिध्वस्तः, एवमेषोऽपि, 'संकरसं परिहरिय कंठे' तृणपांशुभस्मगोमयादीनामुक्करः संकरः, तत्थ दूसं संकरसं, Hउक्कुरुडियासिचयमित्यर्थः, स भगवान् अनिक्षिप्तोपकरणत्वात् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्र तं पंतोवकरणं कंठे ओलंबेत्तुं गच्छई मायतस्तेन आह-संकरदस परिहरिय कंठे । सनिकृष्टं ते तमूचुः- कयरे तुम इय अदंसणिज्जे०॥३६५-३६०॥द्रष्टव्यो दर्शनीय: न दर्शनीयः अदर्शनीयः, आशंसति तमित्याशा, पुनरपि यः तथैवोचुः 'ओमचेलगा पंसुपिसायभूया गच्छ व खलाहि' स्खल इति: | परिभवगमन निर्देशः, तयथा-'खलयस्सा उच्छज्जा', अथवा अवसर अस्मात् स्थानाद, 'किमिहं ठितोऽसि''इहे'ति इह द्वारांकागणे, इत्युक्तः स तैस्तूष्णीं आयातः भगवान्, स च भगवान् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्रांतर्हितो भूत्वा स यक्षः तेन्दुकवृक्षवासी त मनुगच्छति, अथासौ 'जक्खो तहिं तिदुय० ॥३६६-३६०॥ वृत्तं, तस्स तिंदुगठाणस्स मज्मे महतो तिंदुरारुक्खो, तहि सो भवति दीप अनुक्रम [३६०४०५]] 41 २०४॥ M % 1217] Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तरा वसति, तस्सेव हिट्ठा चेइयं, जत्थ सो साहू ठितो, सव्वतेण उडतो, 'अणुकंपतो तस्स महामुणिस्स' महंत मुणातीति महा अध्यापकोचूणौंद्र मुणी 'पच्छादायित्ता णियतं सरीरं' दिव्यप्पभावेण साधुसरीरमणुप्पविसइ, इमाणि वयणाणि उक्तवान्, वचनीयानि वाक्यानि, क्तिः १२ 'समणो अहं संजओ चंभयारी.' ॥३६७-३६०॥ सिलोगो, संजतबंभचारिग्रहणं चरकादिप्रतिषेधार्थ, समणो अहं संयतः, हरिकेशीय हति हितो वा अनेन धर्म इति, प्रचरणशीलो वा, अथवा काश्रमणः, यः संयतः, कः संयतः, यो ब्रह्मचारी, चिरतो धनसयन॥२०५॥ परिग्गहाओ,दध्या(धा)ति तं धीयते धीयन्ते वाऽनेनेति प्राणिन इति धनं, पचनं पाकः परिग्रहो-हिरण्णादि, परप्पवित्तो(वित्तस्स)| | परार्थप्रवृत्ता जत्तत्थं किमि आगतोत्ति', तदुच्यते-अन्नस्स अट्ठा इहमागओमि, इदं च 'वियरिज्जइ खज्जई पिज्जति(भुज्जई) य०॥३६८-३६०॥सिलोगो, वियरिज्जति णाम अनुज्ञायते दीयते वा,खाइमं खज्जति वा भोज भुजति,बा, प्रभूतं अमित, भवताणमेय'ति आमुष्मिकमेतत, अप्येवं विशेषतः जाण धम्म, 'जायणजीविणु'त्ति जीवते येन याचितुं जीवति याचितेन चा जीवति जायणजीविणं, अहबा जाण धम्म, यथैपा जायणजीविणोचि, सेसावसेसं यदत्र भुक्तशेष ॥ इत्युक्तेऽध्यापक आह-'उवक्वडं | भोयण' ॥३६९-३६१॥ वृत्रं, 'उवक्खडं'वि उपसंस्कृतमित्यर्थः, 'अत्तट्टियं सिद्धमिहेगपक्वं' आत्मार्थ सिद्ध 'इहेति इह यज्ञे, एगपक्खं नाम नाबामणेभ्यो दीयते, उक्तं हि"न शूद्राय बलि दद्यानाच्छिष्ट न हविः कृतम् । न चास्योपदिशेद् धर्म, न| चास्य व्रतमादिशेत् ॥१॥" यतवैवं धंभणा 'ण तु वयं एरिसमन्नदाणं, दाहामो तुझं किमिहं ठिओसि!' पात्रभूते-14 भ्यस्तदीयते ब्राह्मणेभ्य इति । ततो यक्ष उवाच-यदि पुण्यार्थे दीयते तेन ममापि दीयता, कस्मात् , जसो-'थलेसु पीयाई1DI जा॥३७०-३६२॥ वृत्तं, तिष्ठति तस्मिमिति स्थलं, कृषतीति कर्षका, निनं नाम हेडा, आसशा नाम जीविष्याम:, अनेन यदा सुदृष्टि दीप अनुक्रम [३६०४०५]] - . - .HRI २०५॥ - - [218] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत १२. सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तराभवति तदा थलो [चा]प्तानां बीहिणां संपद्यतेति, मन्दवृष्टौ त्वधस्तनानां, यद्यपि भवतां विप्रधुद्धिरात्मनः तथापि थलभूते ममावि / यथोक्तिः चूर्णों दीयता, ननु द्वावपि हितौ भविष्यतः, यतः- 'आराहए पुण्णमिणं खु खित्तं । 'खेत्ताणि अम्हे पहं वितियाणि लोए.' हरिकेशीये ||३७१-३६२।। वृत्तं, पुम्बद्धं कण्ठयम्, 'जे माहणा जाइविज्जोववेया' जननं जायते पा जातिः, यतेऽनेनेति वेदः, वेदउपवेता, बंधानुलोम्यात् विज्जोववेया, ताई तु खित्ताई तानि तु ब्राह्मणसमानि, क्षीयत इति क्षेत्रं, सुट्ठ पेसलाणि सुपेसलाणि, शोभनं । ॥२०६॥ प्रीतिकरं वा, यक्ष उवाच- कोहो य माणो य॥३७२.३६३।। वृत्तं, पुच्चद्धं कण्ट्यं, कोहमाणग्गहणेण चत्वारिवि कषाया घेप्पंतित यत्र ते क्रोधाद्याः अशुभा भावा भवंति ते ब्राह्मणजातीयेष्वपि ते माहणा जाइविज्जाविहीणा', कथं हीणो, जो हि अना-11 याणि कर्माणि करोति तस्य किं जात्यावेदन वा?, भवंतश्च हिंसादिकर्मप्रवृत्ता एवं ताई तुम्भे खेत्ताई सुपाचगाई-सुटु पावगाई।। | स्यादेतत्, ननु वेदवेदाङ्गधरा विप्राः पात्राणि भवंति, उक्तं हि-"सममब्राह्मणे दानं, द्विगुणं ब्रह्मबन्धुषु । सहस्रगुणमाचार्य, अनन्तं वेदपारगे ॥१॥" अनोच्यते-'तुभित्थ भो! भारहरा ॥३७३-३६॥ वृत्त, भारं धारयंतीति भारधरा, गीयते गिरति गृणाति वा गिरा, तुम्भे केवलमेव गिराभारं धरेह अधीत्य वेदान्, येन हि वो वेदेषक्त-"नह वै सशरीरस्यावसतः पियाप्रिययोरप| हतिरस्ति, असरीरं वा वसंतं प्रियाप्रिये ण स्पृशती"ति एवमादीनां भवन्तः पठन्तोऽपि अर्थ न जाणंति, केवलमेव हिंसार्थ उप-16 दिशन्ति, न च हिंसया शरीरित्वं निवर्त्यते, ये तु हिंसकाः ते तु ऊपरखलक्षेत्रतुल्याः, जे पुण 'उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति' ॥२०६॥ उच्चावयं नाम नानाप्रकारं, नानाविधानि तपांसि, अहवा उच्चावयानि शोभनशीलानि, मनुते मन्यते वा मुनिः, 'ताई तु| खेत्ताई सुपेसलाई' पुण्यनिष्पादनसमर्थानीत्यर्थः, ततस्तमध्यापकं ते छात्रा णिर्मुखं रष्ट्बोचुः-'अज्झावयाणं पडिकूल दीप अनुक्रम [३६०४०५]] SRANA [219] Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: % भद्रोक्तिः चूणों प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| १२ श्रीउत्तराभासी० ॥३७४.३६४॥ वृत्तं, अध्यापयतीति अध्यापका, यद्यपि प्रभूतमेतदन्न 'अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं, न य | दाहामु तुमं नियंठा' नियंठा नाम निग्रन्था, यक्ष उवाच- 'समितिसु (हिं) मझं सुसमाहियस्स० ॥३७५-३६४॥ वृत्तं, हरिकेशीये! कण्ठ्यं, एवं यक्षेणोक्ते अध्यापक आह-'के इस्थ खत्ता॥३७६-३६४ावृत्तं,क्षत्रा नाम क्षत्रियपुत्राः, ज्योतिषः समीपे(उप)ज्योतिषो, अध्यापका नाम ये तत्रान्य अध्यापका, धोका, चट्टा छात्रा इत्यर्थः, एनं दण्डेन फलेन हत्वा, दण्यतेऽनेनेति दण्ड: कोप्पराभि॥२०७|| घाता, फलं तु पाणीघातः। 'अज्झाययाणं वयणं सुणित्ता०॥३७७-३६४ावृत्तं, काम्यतिऽसौ काम्यति वा क्रीडत इति कुमार, 'दंडेहिं दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डः, वित्त इति संत्रा, शक (कश) तीति शक्यः (कशः) समागताः, ऋषति धर्ममिति ऋषिः। 'रण्णो तर्हि कोसलियस्स धूया ॥३७८-३६५।। वृत्तं, कोसलायो भवः कोसलिका, भयते भाति वा भद्रा, अथवा भद्रेति वा संज्ञा, अङ्गयतेऽनेनेति अंगं, अनिंदितान्यंगानि यस्याः सेयनिदितांगी। 'तं पासिया संजय हम्ममाणं' कण्ठया, 'देवाभिओगेण | निओइएण॥३७९-३६५।। वृत्त, देवानामभियोगः२, अभिमुखं ध्याता अभिध्याता, मनसः अभिमता इत्यर्थः, नोप्रियेतिकृत्वा | राज्ञा अहमस्मै दत्ता, तथापि जेनं भगवता नरिंददेविंदभिवंदितेण 'जेणामि बंता इसिणास एसो' एप ग्रहणं यो हि णाम देवैरपि पूज्यते स कथं भवद्भिनिरस्यते', न भवंतो एवं जाणंति, अहमेतं वेनि, एसो हु सो उग्गतवो महप्पा०॥३८०-३६५॥ वृत्तं, सो इति पूर्वोद्दिष्टस्य निर्देशः, संतप्यते येन संतापयति वा तपः, उग्गं-उग्रं तपो यस्य स भवत्युग्रतपः, महानात्मा यस्य स महात्मा, जितानि इन्द्रियाणि येन स भवति जितेन्द्रियः, सम्म जतो२, बृंहति हितो वा अनेनेति ब्रह्मा, ब्रह्मेण ब्रह्म वा चर्य चरतीति | ब्रह्मचारी, 'जो मे तया निच्छद दिज्जमाणी' कण्ठ्यं, 'महाजसो ॥३८१-३६५।। वृत्तं, कण्ठ्यं, महंति तमिति महान् , अश्नुते OPEOGACHECRELAM ESCCCTESCANA दीप अनुक्रम [३६०४०५]] E4. । ॥२०७॥ - X % [220] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा० सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| ॥२०॥ सर्वलोकेष्विति यशः, महान् यशो यस्य स भवति महायशाः, अणुभाव णाम शापानुग्रहसामर्थ्य, घूर्णत इति घोरः, परतः काम-18 भद्रोक्तिः तीति पराक्रमः, परं वा कामति, 'मा एयं हीलेह अहीलणिज्ज' 'हिट्ट (हील) विबाधायाँ सेसं कण्ठयम्, 'एयाई तीसेन ॥३८२-३६८॥ वृत्तं, पाति तामिति पत्निः, सोभणाणि भासिताणि सुभासिताणि, इसित्ति वा रिसित्ति एगहुँ, 'वेयावडियट्ठाए' विदारयति वेदारयति वा कर्म वेदावडिता, नैति क्षयमिति यक्षाः, अन्येऽपि चास्य यक्षाः सहायका, काम्यतेऽसी कामयति || वा क्रीडनकानि कुमारः, विविध(निपातयंति विति(नि)पातयन्ति । 'ते घोररूवा ठिअ अंतलिक्खे ॥३८३-३६८| वृत्तं, घोराणि रूपाणि जेसिं ते घोररूपा, अंतलिक्खमाकाशं अंतलिक्वत्थं, असुरे भवा आसुरा, 'तहिं ति तस्मिन् जन्नवाडट्ठाणे ते जणं' छात्रजणं ताडयन्ति-हणति, ते च ब्राह्मणास्तेस्ताडिताः सन्तः भूमौ निहितविदारितदेहा रुधिरभलभलस्स धम्मेमाणा क्रन्दन्ति, 13 ततस्ते भिन्नदेहाः, भिन्नो देहो जोर्स ते भिन्नदेहाः, इति भणंतो उच्चा रुधिरं वमंतो-मुखेन उग्गिरंतो 'पासेत्तु भद्दा इणमाहु मुज्जो' । 'गिरिं नहेहिं खणह ॥३८४-३६८॥ सिलोगो, गिरिरिति गृणाति गिरंति वा तस्मिन् गिरी, नक्षीयंति नखाः, गिरी | णाम पब्बतोत्ति, तं गिरिं गहेहिं खणध, अयतीत्ययः, दस्यते एभिरिति दन्ताः, अयं-लोहं तं लोहं दंतेहिं खायह, जात एव तेओ। जम्मकाल एव सो जायतेया-अग्गी, णतु जहा उदीतो सोमो(सूरो), मज्झण्हे तिण्हे, पज्जतेऽनेनेति पादः, अतो ते(तुब्भे)जाततेयं पादेहि ाला हुणह जे भिक्खु अवमन्त्रह । 'आसीविसो० ॥३८५-३६८॥ वृत्तम्, 'आसीविसो' दाढासु विसं जस्स स भवति आसीविसो, सच २०८॥ पन्नगः, किं भणितं होति , जहा सो आसीविसो आगलिते सितोचि णासाय, एवं सोवि भगवं, उग्गं तपो यः स भवति उग्र-18 तपाः, प्रधानतपा इत्यर्थः, महांत एसतीति महेसी, निर्वाणमित्यर्थः, घोराणि व्रतानि यस्य घोरवतः, दुरनुचरानित्यर्थः, घोर 15EASEX दीप अनुक्रम [३६०४०५]] S - -04 [221] Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत अध्यापक कृता प्रसचिः सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तरा०पराक्रमो यस्य स भवति घोरपराक्रमः, अनन्यसदृश इत्यर्थः तं एवंगुणसंपन तुम्भे 'अगणी व पक्खंद पयंगसेणा' चूर्णी अग्गणं अम्गी, भिसं आदितो वा संदे परखंदे, पंतं पतंतीति पतंगा, सिनोति सीयते वाऽसिना वाऽसौ दानमानसक्कारादिभिः सेना, यथा तस्याः पतङ्गसेनायाः अग्नि प्रस्कन्दल्या विनाशो भवति एवं भवतामपि 'जे भिक्खुं भत्तकाले बहेह' । ततस्ते तयाहारकशा ऽनुशास्ताः किं कुर्म इदानीं, सा चेव तानुवाच-सीसेण एयं०॥३८६-३६८|| वृत्तं, श्रिता तस्मिन् प्राणा इति शिरः, अतो तेण | ॥२०॥ सीसेण, एतदिति एतं साधु, सरणं उबेह-उवागच्छह, सम्यगागता समागताः, सम्बजणेण तुम्भे जइ इच्छह जीवियं वा धर्ण वा, | एसो हु कुविओ बसुई डहिज्जा, उक्तं च-"न तद्दरं यदस्तेषु, यच्चाग्नौ यच्च मारुते । विषे च रुधिरप्राप्ते, साधी च कृतनिधये ॥१॥" वसूनि निधत्ते इति वसुधा । ततस्ते-'अवहेडिय० ॥३८७-३६८॥ वृत्तं, स्पृशंति तां स्पृश्यते वाऽसाविति पृष्ठिा, उत्तम | | अंग उत्तमंग, अवतोडितानि पृष्ठिं प्रति उत्तमंगानि येषां ते एते 'अवहेडियपिद्विसउत्तमंगा', पसारिया बाहु निकम्मचिट्ठे, णिन्भेरियच्छे, णिम्भरित-निर्गतमित्यर्थः, अश्नोतीत्याक्षिरुच्यते, वमते रुधिरं, उड्डूंमुहे निग्गतजीहणित्ते, खन्यते तत् खनंति या का तत् मुखं, जायते जयति जिनति वा जिह्वा, नयतीति नेत्रं, 'ते पासिया ॥३८८-३६८॥ वृत्तं, खंडयन्तीति खण्डिका, कश्यतीति | काष्ठं, विमणो विसनो अह माहणो सो, इप्ति पसादेति सभारियाओं' भरणी भार्या, (या)'हीलं च निन्दं च खमाह भंते। बालेहिं मूढेहिं०॥३८९-३६८॥ वृत्तं, अव्यक्तवयसो बाला वेदश्रुतिविमूढधीः, अत एव अजाणगा, हीलिया तस्स खमाह भते!' भयस्य भवस्य वा अन्तं गतः भवंत: 'महप्पसादा इसिणो भवंति' महप्पसादो जेसि ते महप्पसादा २ नाम समाहिमि(प)त्ता, 'ण हु मुणी कोवपरा' मन्यते मनुते वा मुनिः, ततः स भगवान् तदातृशंकया मुनिराह- पुब्बि च पच्छा व 12-H-ELCOHORRECPEECH दीप अनुक्रम [३६०४०५]] ACANCIA ॥२०॥ [222] Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तरा (इहि च) अणागयं च० ॥३९०-३६९।। वृत्त, पुचि णाम पूर्वकाले, बिहेडनपूर्णकालात्, परतः पवाद्विहेडनकालान्, 'समो-HI मुनिकृत ज्जाति' बिहेडनकाल एव, मनः प्रदुष्यत इति मणप्पओसो न मे अस्थि कोई, 'जक्खा मुह)वेयावड़ियं करोति,यान्ति क्षयमिति || हरिकेशीये । | यक्षः, विदारयति वेदारयति वा कर्म वेदावडियं, 'तम्हा' तस्मात् एते निहताः कुमाराः। तत उपाध्यायप्रमुखा ब्रामणा ऊचुः-- HI'अत्थं च धम्मं च बियाणमाणा० ॥३९१-३६९।। वृत्तं, इयर्ति रक्षति वा अर्थः, शुभाशुभकर्मविवाग रागद्वेषविपाकं वा धारय-12 ॥२१॥ लातीति धर्मः, सुतधम्म चरित्तधम्मं च, अहवा दसविहं समणधर्म, विशब्द नानाभावे, अनेकप्रकारं जाणमाणा, नित्यं आत्मनि | गुरुपु च बहुवचनं । 'तुम्भे नवि कुप्पह भूइपण्णा' भृति मंगलं वृद्धिः रक्षा, प्रागर(गेव) ज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, तत्र मङ्गले सर्वे-1k | मंगलोत्तमाऽस्य प्रज्ञा, अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायां तु रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्प सर्वसञ्चानां वा, पच्छदं कण्ठ्यं । 'अच्चेमु ते महाभाग०॥३९२-३६९।। वृत्तं, अर्चनीयं अचिमो, भुजाहि सालिम शालितीति शालिः शालिभ्यो जाता शालिमः, नानाप्रकारैर्व्यजनैः संयुतः नानाव्यंजनसंयुतं । 'इमं च मे अस्थि पभूयमन्नं ॥३९३-३६९॥ वृत्त, कण्ठ्यं, प्रतिलाभिते तस्मिन् पंच' दिव्वाणि पाउन्भूयाणि, 'तहियं गंधोदयपुप्फवासं०॥३९४-३६९।। वृत्त, गन्धोदकवर्ष पुष्पवरिसं, वसूनि [मास] रत्नानि वसूनां । धारा, पुष्फसबला पपात, पहताओ देवदुंदुहिओ, आगासे सुरेहिं अहोदाणं घुटुं । अथ ते प्रामणा ऊचुः 'सक्खं खुदीसह | ॥३९५-३७०॥ वृत्तं, साक्षात् दृश्यते तपःप्रसादः, अध तान् मुनिराह-'किं माहणा! जोइ समारभंता' ।।३९६-७३२॥ वृत्त, किंसदो ॥२१०॥ | खेचे पुच्छाए य बट्टति, खेवी निंदा, एत्थ निदाए, किं माहणा जोइसमारभंता, पुतते घोतिः, सर्वभावेन आरभंता समारभंता. | अग्निरित्यर्थः, अग्निसमारंभं करेंता, 'उदएण सोहिं बहियावि मग्गहा' उदकं पानीयं, शुद्धत इति शोधिः, अतः तेन । दीप अनुक्रम [३६०४०५]] [223] Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||३५९ ४०४|| दीप अनुक्रम [३६०४०५] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, निर्युक्तिः [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी १२ हरिकेशीये ॥२११॥ | उदकेन या शोधिः सा बाह्या, उक्तं च-दुविधा सोधी- दन्नसोधी भावसोधी य, दव्वसोधी मलिनं वस्त्रादि पानीयेन शुद्धयतो, भावसोधी तवसंजमादीहिं अडविहकम्ममललितो जीवो सोधिज्जति, अदव्वसोधी भावसोधी, बाहिरियं जं तं जले बाहिरसोधी मग्गह, 'ण तं सुविहं कुसला वर्यति' न तं सुदिट्ठे कुसला वयंति, सुद्ध दिडं सुदिडं कुसला वयंति, कुसा दुविहा- दव्व- तुमुन्युत्तरं च कुसा भावकुसा य, दव्वकुसा दब्भा, भावकुसा अडप्पगार कम्मं, ते भावकुसे लूनंतीति कुसला, इतस्ते कुशला वदंति, इतव 'कुसं च जूयं च० ॥ ३९७-३७२॥ वृत्तं, कुसा-दम्भा, युर्वति तेनात्मानः समुच्छ्रितेन यूपा, तृणेढि तृण्वंत्ति वा तमिति तृणं, कत्थतीति काएं, सोयं नाम पात्री, प्रातः- पूर्वाह्री अग्नि जुहूवंत इत्यर्थः, 'पाणाई भूयाई विहेडयंता' प्राणनं प्राणाः, जम्हा तिसु कालेसु भवन्ति अतो भूतानि, बहेडनं विनाशनं, भुज्जोऽवि पुनः पुनः मन्दा मन्दबुद्धयः पकरिसेण करेइ, पातयंतीति वा पापं कर्मेत्यर्थः, अथेत्यानन्तर्ये । ब्राह्मणा पप्रच्छु:-'कचरे भिक्खु ० ' ।। ३९८-३७२ ॥ वृत्तं कथमिति केन प्रकारेण भिक्षो इत्यामन्त्रणं, 'वयं जयामो' वयमिति आत्मनिर्देशः, वयं जिन (त) वन्तः, सेसं कण्ठ्यं, सुनिराह 'छज्जीवकाए असमारभंता० ॥ ३९९-३७२ ॥ वृत्तं इंदियणोईदिएहिं । 'सुसंबुडो पंचहिं संवरेहिं० ॥४००- २७२॥ वृत्तं, सुठु संकुडे पंचहि संवरेहिं अहिंसादीहिं 'इहे 'ति इह मानुष्यलोके जीवितं असंजमजीवितं 'अणवकखमाणो' 'वोडका' विविधमुत्सृष्टो विशिष्टो विशेषेण वा उत्सृष्टः कायःशरीरं, शुचिः अनाश्रवः, अखण्डचरित्र इत्यर्थः त्यक्तदेह इव त्यक्तदेहो २ नाम निष्प्रतिकर्म्मशरीर: 'महाजयं' जयतीति जयः, प्रधानो जयः महाजयः, जयंते यज॑ति वा तमिति यज्ञः स यज्ञानां श्रेष्ठः, आह' के ते जोई के व ते जोइठाणा० ॥४०१-३७४ ।। वृत्तं, संतप्यतेऽनेनेति तापयति वा तपः, जीवो जोतिद्वाणं, ज्योतत इति ज्योतिं ज्योति स्थानं २, ज्योतिते ज्योतिं, [उत्तररूपमेतद् व्या [224] ब्राह्मणप्रश्नो ॥२११॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३१८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूर्णी सूत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तराख्यानमिति न चार्वेतल्लिखन,अत्र तु ज्योतिस्तत्स्थानमुक्कारीषाङ्गैधःशान्तिहोमप्रश्नपरं सूत्र] मुनिराह-'तवो जोई० ॥४०२-३७४॥ ब्राझणवृत्तं, संतप्यतेऽनेनेति तापयति वा तपः, जीवो जोईट्ठाणं, ज्योतत इति ज्योतिः, ज्योते: स्थानं ज्योतिस्थानं, आग्निहोत्रमित्यर्थः, प्रश्नो | मनोवास्काययोगा शुक्, शरीरं कारिपांग, क्रियते इति कर्म, कर्मेधाः कर्म द्रष्टव्यं, संयमयोगाश्च, शान्तिः सर्वजीवानां आत्म सुन्युत्तरंच हरिकेशीये नथ,एतद् होम जुहोम्यहं 'इसिणं पसत्यं पति धर्ममिति ऋषिः, एतषीणां, प्रशस्यते येनासी प्रशस्तः, तीर्थमित्यर्थः, अन्या-15 ॥२१२॥ बाधस्तु मखप्रयोजनं गुणेषु च । भूय आहुः-'के ते हरए॥४०३-३७४।। वुत्न, हरतो नाम इट्ठो, 'संतितित्थे ति शमनं शान्तिः , शान्तिरेव तीर्थः, अथवा सन्तीति विद्यन्ते, कतराणि संति तित्थाणि?, सेस कण्ठ्यम्। मुनिराह-'धम्मे हरए०॥४०४-३७४॥ वृत्तं, अहिंसादिलक्षणो धर्मः, स एव ध्रवः (हर.), बृंहति बहते बंहिते तेन धर्म इति ब्रह्म, तच्च ब्रह्माष्टादशप्रकारं, शमनं शान्तिः, तित्थं दुविहं-दव्वतित्थं भावतित्थं च, प्रभासादीनि द्रव्यतीर्थानि, जीवानामुपरोधकारीनीतिकृत्वा न शान्तितीर्थानि भवति, यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये तद्भावतीथं भवति ब्रह्म एव शान्तितीर्थ, अणाइचे अकलुपं-मिथ्यात्वकषायकलुषरहितं, आत्मनः, प्रशान्तोपशान्तलेसो, पीतशुक्लाया लेश्या, आत्मनः ग्रहण न शरीरस्य तीर्थः, शरीरलेश्यासु हि अशुद्धास्वपि आत्मलेश्या शुद्धा भवंति, शुद्धा अपि शरीरलेश्या भजनीया, अथवा अत्त-इति या इष्टाः, ताश्च पीतायाः, ताश्च शुद्धाः, अनिष्टास्तु अणत्ताओ, उक्तं हि-'अत्ता इट्ठा कंता पिया मगुण्णा',अत्ता एव प्रसन्ना, अत्ताश्च प्रसन्नाथ अत्तपसबलेसे,जहिं सि पहातो विग-1 | तोऽस्य मल इति विमला, विगतं पापमस्येति विगतपापः, सुसीइभूतो भवति-भृशः जहामि दोसमिति पापं । एतं 'सिणाणं|8| ॥२१२॥ लकुसलेण(हिं) दिलुगा४०५-३७४।। वुत्तं, एतदिति यदुक्तं सिणाणं, महासिणाणं णाम सव्वकम्मक्खओ, तं महासिणाणं इसिणं SAEWASIDASERECENER- दीप अनुक्रम [३६०४०५]] RE [225] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१२], मूलं [१...] / गाथा ||३५९-४०४/३६०-४०५||, नियुक्ति : [३२८...३२७/३१८-३२७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चित्रसंभूत सुत्रांक [१] गाथा ||३५९४०४|| श्रीउत्तरा०पसत्थं, जहिं सि पहाता अहिंसादिलक्षणे धम्मे हरते विगतमला विमला, विगतमलत्वाच्च विशुद्धा, महारिसी उत्तमं ठाणं- सिद्धिं "चूनौँ । पचा इति बेमि । नयाः पूर्ववत् ।। इति हरिकेशीयं बारसमं अज्झयणं समत्तं १२ ॥ पूर्ववृत्त १३ चित्र- इदाणि चित्तसंभूइज्जं, तस्स चत्तारि अणुओगद्दारा उवक्कमादि, तत्थ णामनिप्फने णिक्खेवे चित्तसंभूइज्जति, तत्थ || संभृतीय ठागाहा-'चित्ते संभूमि अ॥३२८-३७६।। गाथा, चित्तसंभूताणं णामादि चउचिहो णिक्खेवो, णामठवणाओ गयाओ, दव्य-12 सासमा चित्तसंभूता जाणगमवियादि विविधा, भावचित्तसंभूता 'चित्तेसंभूआउं वेअंतो० ॥३३०-३७६|| गाथा कण्ठया, एतेसिं उप्पत्ती-IX इहेव जंबुद्दीवे दीये भारहे वासे कोसलाजणवते साएते णगरे चंडवडंसओ णाम राया, तस्स धारिणीए देवीए मुणिचंदो णाम * Bा कुमारो, अण्णया चंडवडिंसओ नाम राया मुणिचंदकुमार रज्जे अभिसिंचिऊण णिवितो, विधुयकम्ममलो य परिणिन्बुतो ।। | अण्णया सागरचंदणामा आयरिया बहुसिस्सपरिवारा साएते णगरे समोसरिता, परिसा णिग्गया, राया विणिग्गतो, धम्मकथा य, IX मुणिचंदो राया रज्जे पुतं अभिसिंचिऊण पम्वतिओ, तओ सागरचंदायरिया अन्नया अद्धाणं पवण्णा, मुनिचंदो य भत्तपाणनिमित्त एगागी पर्चतं गाममणुपविट्ठो, पड्डिता साधुणो, गहियभत्तपाणो य अडविपहेण पडितो, पम्हढदिसाभागो य रुक्खलतागुच्छ-12 गुम्मगहणं अणेगसलसीहपवरं णिण्णुण्णतचलणिपंकबहुलं सावतसउणरुद्दसहसाणुणाति महती विझाडवीमणुपविट्ठो, तत्तो गिरिदरीसु हिंडमाणो उत्तणेसु पादवच्छादितेसु वणेसु सुमहल्लअच्छभल्लकुरंगाििग(जु)तेसु गिरिणियंवेसु हिंडमाणो तदिदे दिवसे उत्तिण्णो अडपि, तिसापरिगतसरीरो य सोक्खोट्ठकंठतालुगो एगाए रुक्खच्छायाए मुच्छावसणट्ठचेट्ठो संगि (विहितो, तिण्डे(?)च 131 ॥२१३॥ लणाइदूरे गोउलं, ततो चत्तारि गोवालदारगा गोरसभावितेसु उदगं घेत्तूण गोरक्खणणिमित्तं णिग्गता सोताणि(आगता),तेहिं साधू पक्ड-13 दीप अनुक्रम [३६०४०५]] SA- C4 अध्ययनं -१२- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१३- “चित्रसंभूतिय" आरभ्यते [226] Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४०५४४०|| SERECTRE श्रीउत्तरानमाणो दिहो, ततो अणुकंपापरेहिं तुरितं गंतूण परिसिचो सो साधू तेण सितियपाणएण, विइतो पत्थप्पतेण, समासत्यो य प-13/चित्रसंभूति चूणा ज्जितो, उचिति (प्पाडि य णीतो गोउलं,पडि[हियरितो य तेहिं पराए भत्तीए,तेणवि जिणदेसियं धर्म गाहिता, तत्थ नाहा-'तण्हा- समागमः १३ चित्र छुहाकिलंतं०।। ३३२ ।। गाहा, उक्तार्था, 'तत्वो दुन्नि दुगुंछ काउं०॥३३३.३३६|| गाथा,तेसिं गोवाणं दो गोवा साधुदुगुंछाए संभूतीर्य णीतागोयं कम्मं णिव्वचेति, साधुअणुकंपाए सावगत्तणेण य तेवि चचारिचि मरिऊणं देवलोग गवा । नतो जे ते अदुगुंछिणो ते ॥२१४॥ कतिवि भवंतरियातो सुसुमारपुरे माहणदारगा जाता, दुगुंछिणो पुण दसन्नाजणवते एगस्स माहणस्स दासा जाता, एवंद सव्वा वंभदत्ती हिंडी भाणितन्वा । गतो णामणिप्फण्णो, मुत्ताणुगमे सुचमुच्चारेयवं, तं च इमं सुत्तं-'जाईपराजिओ खलु०॥४०६-३७६।। सिलोगो, जाई चंडालजाती पुवं आसीत्, अथवा संसारजातयः गोपालदासाचा, तेहिं दुक्खेहि पराइतो कासि नियाणं तु हत्यिणपुरमि णगरंमि गतो, देवलोगं गतो, ततो चुतो कंपिल्लपुरे णगरे बंभस्स एणो भारियाए चुलणीए भदत्तो आयातो पउमगुम्मातो विमाणातो, 'कंपिल्ले संभूओ०४०७-३८३।। सिलोगो, चिचो पुण पुरिमताले पागरे इम्भकुले 15 पुत्तत्ताए पचायातो, तहारूवाणं घेराण अंतियं धम्म सोऊण पचतितो, विहरतो कपिलपुरमागतो। तत्थ-'कंपिल्लंमि अनयरे| ॥४०८-३८३॥ सिलोगो कण्ख्यः। 'चक्कवट्टी०॥४०६-३८४॥ सिलोगो, महायसोत्ति, अस्सुते सर्वलोकमिति यशः, भायरं बहुमाणेण, बहुमानग्गहणे मानेन, न कृतकेन उपचारमात्रेण, काल(न) स्वार्थ इति श्रेष्ठः, इदं वचनमब्रवीत-'आसिमो भायरा दोऽवि० | ॥४१०-३८४॥ सिलोगो कण्ठ्या, 'दासा दसन्नये आसी ४११-३८४॥सिलोगो कण्ठ्या,दसण्णाजणवते दासा आसि,मृग्यते इति ॥२१४॥ मृगः, मिगा कालिंजिरे णगे, न गच्छतीति नगा, पर्वत इत्यर्थः, 'हंसा मयंगतीराए' हसन्तीति हंसाः, मां गच्छतीति गंगा, SUGAXHAXSAMSUNG दीप अनुक्रम [४०६४४१] -% [227] Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४०५४४०|| पूर्वभवाः चित्रोपदेशः संभृतीय श्रीउत्तरामतगंगा-देहाती मतगंगा-हेवाभूमीए गंगा, अण्णमण्णेहिं मग्गेहिं जेण पुच्च बोद्ग पच्छा ण वहति सा मतगंगा भण्णति, तस्यास्तीरं मतगंगातीरं, चूर्णी तरंति तेणेति तीरं 'सोवागा कासिभूमिए' श्वयति स्वसिति वाचा पुनः पचंतीति श्वपाकाः, काशीजनपदभवंति, 'देवा य देव१३ चित्र लोगंमि०॥४१२.३८४॥ सिलोगो कण्ठयः, ततः अहमसौ त्वया विना राजकुले जाता, राज्य प्राप्य जातिमनुस्मृत्याचिंति-चन्मया तावत् पूर्व-'सच्चसोअप्पगडा०॥४१४-३८५।।सिलोगो, सद्भधो हितं सत्य, शुद्यतेऽनेनेति सोय,अथवा अमायमासोऽयं शुद्धोवा ॥२१५॥ बताभ्युपगमः, अथवा सत्यमिति संयमः, शौचमिति तपा, कम्मा पगडा ते इति पूर्वोक्ता मासोपवासादयः तेषां फलं देवलोके |ऽनुभूय इहापि ते अद्यापि अंजामि, 'किं नु चित्तेवि से तहा' किमिति परिप्रश्ने, नु वितर्के, किं नु चित्रस्यापि एवंविधा काद्धिPा था । स मुनिराह-ननु राजा 'सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं०॥४१५-३८५।। वृत्तं, संसर्चि धावति वा सर्प, शोभनं चीर्ण सुचीर्ण, सह फलेन सफलं, 'कडाण कम्माण' पपुवा णिवत्तणिकाइयाणं ण मोक्खो अस्थि, यत:-'अत्थेहि कामेहि अ उत्तमेहिं उत्तमा:-16 | सर्वप्रधानाः, 'आया ममं पुण्णफलोववेओ । जाणाहि संभूय० ॥४१६-३८५॥ वृत्त, यथा त्वमात्मानं एवं मन्ये हे सम्भूत ! 'माहिहदियं पुषणफलोववेयं चित्तंपि जाणाहि तहेव रायं तावदयं पुरा भ्राता आसीत्, तत्कथं आत्मोपमया देवान|3 | जानीये 'इही जुत्ती तस्सवि अप्पभूआ' स्याद् बुद्धिः- कथमहं श्रेष्ठिश्रियं विहाय प्रव्रजितः १, उच्यते-पुरिमतालसमोसरिताणं थेराणे 'महत्थरूवा वयणं०' ॥४१७-३८५।। वृत्त, महंत्यर्थपदरूपाणि महत्थरूवा, उक्तिर्वचनं, प्रभूतग्रहणं विकल्पशः एकैकमर्थ कथयन्ति, स्याद्वादो न दृश्यते तेन रूपग्रहणं न कर्त्तव्यं, तत उच्यते-ते हि भगवन्तः पूर्वापरदोषविशुद्धाणि रूपाणि(निरूपणानि) | वचनानि दर्शयन्ति, उक्त हि-"नानामार्गप्रग." महन्ती रूपाण्यङ्गानि गच्छन् शक्तन्तु, गाथा तत्र गुणति वा व्यावृत्तः खेदं escAAAAKA.छॐ दीप अनुक्रम [४०६४४१] ch-%CEMUCHECLARA ॥२१५॥ [228] Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥४०५ ४४०|| दीप अनुक्रम [ ४०६ ४४१] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययन [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१]], निर्युक्ति: [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः १३ चित्र संभूतीयं ॥२१६॥ श्री उत्तरा० २ नैति शान्ति तां गीयते वाऽसौ गाथा, अनु पथाद्भावे स्तोके वा, पूर्वजिनैस्तच्छिष्यैव गीतान्यनुगायति गाहाणुगीता, नृत्यत इति चूण नरः समूहः संघातः, समूहग्रहणं न एकशः कथयति विगृह्य, नरसंघ मज्झस्था स्वगुणवाचा अवदातवाचं कथयति, यतश्व यथैव कथयन्ति तथैव चरन्तीत्यतः 'जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया' यस्माच्छीलमेव गुणः 'इहे'ति इह प्रवचने, इह आर्यव वे, तेन तत्सकाशे श्रमणोऽहं जातः, क्वचित्तु पठन्ति 'इहज्जवं ते समणोऽम्हि जाओ' यस्माद्भिक्षवः शीलगुणोववेया आर्यत्वावस्थिता इत्यतोऽहं तान् दृष्ट्वा पृष्ट्वा च तत्सकाशाद्धर्मं श्रुत्वा सुमनो जातः, प्रसन्नमना इत्यर्थः, राजोवाच- साधु भगवन् ! यत् प्रवजितः, किन्तु मया दीयमानान् भोगान् भुङ्क्ष्व इमेसु पंचसु पासादयसु लल तावत् ।। तंजहा- 'उच्चोद९० ।।४१८३८६ ॥ वृत्तं, अथवा ममैते पंच प्रासादा तेषु तावद्विद्यन्ते, तंजहा - उच्चोदए महू कक्के मध्ये ब्रह्मा 'प्रवेदिता आवसधा य रम्मा' देवै । वैर्द्धकिपुरःसरैः प्रवेदिता इत्यर्थः, आवसंति तेष्वित्यावसहा ते च नान्यभवनप्रकाराः, सच्चे ते, कामकमा नाम यत्र मम रोचते तत्र भवन्ति, अथ स्थितं तु 'इमं गिहं चित्त गिहोववेदं' इममिति यन्नगरस्य मध्ये, गृह्णातीति गृहं धनं-- हिरण्यादि वित्तं तदेव सर्वलोकोपभोज्यं नवभ्यो महानिधिभ्यो आनीतं, पंचालानाम जनपदः तद्गुणान् विषयान् पञ्चलक्षणान् तैरुपपेतं तस्मिन् गृहे, बत्तीसतिबद्धेहिं नाडगसहस्सेहिं 'णट्टेहि गीतेहि य० ॥ ४१९-१८६ ॥ वृत्तं णारीहि य आभरणविभूसियाहिं परिवारयंतो से स कण्ठचं, 'तं पुम्वनेहेण कयाणुरागं० ॥४२० ३८७ ॥ वृत्तं कण्ठयं, चित्र उवाच- 'सव्वं विलवितं गीतं० ॥४२१-३८७॥ वृतं, गीयं रुष्णजा [णि ]तियं विलापपायमितिकृत्वा सव्र्व्वं चिलवितं गीतं, अथवा तथा कामि इत्थिया पवसितपतिया पतियो (गुणे) सुमरमाणी तस्स समागमकखिया समरंती य भक्षुणो गुणे वित्थरओ पदोसपच्चुसेसु दुहिया चिलवति भिच्चे वा पशुस्स कुवियस्स पसाद [229] भोगप्रार्थना ॥ २१६ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४०५४४०|| क श्रीउत्तराणाणिमित्तं जाणि वयणाणि भासति, पणओ दासभावे अप्पाणं ठवेऊण, सोवि विलावतो, ते चैव इत्थी पुरिसो वा अण्णोण्णसमा- गीतादीनां घृणौँ ५ गमभिलासी कुविदपसादणणिमितं वा जाओ कायमणोवातियाओ किरियाओ पउंजति ताओवि विजातिणिवि(ब)द्धाओ विला१३ चित्र- | गीतंति उच्चति, तं पुण चितह किं बिलावपक्खे न बति', अथवा यथा कारणा कारिज्जमाणो रोगाभिभूता या इष्टवियोगाचतों वा पत्वादि संभृतीय विलपति, तदेवासो छउमेण कारणा कारेज्जमाणो रागवेदणाभिभूतो विषयप्रयोगे वा गायन् विलपत्येव, अथवा कारणे कार्यवदुष॥२१७॥ प्रचारात् कृत्वा सर्व विलवित गीतं, यदेतद्गीयते अस्य हि ध्रुवो नरकादिषु विलापः, इदाणि 'सव्वं गई विडवणा' इति, इत्थी पुरिसो वा जो जक्खाइट्ठो परावरुद्धो वा मज्जपीतो वा जाओ कायविक्खेचजातीओ दंसेति जाणि वा वयणाणि भासति विडंबणा, 5 जइ एवं तो जोऽवि इत्थी पुरिसो वा पहुणो परिओसणिमित्तं णिउंजितो धणपतिणो वा विदुमजणणिबद्धं विविधमणुसासितो पाणि पादसिरणयणाधराति संचालेति सावि विडवणा, परमत्थेण आभरणा भारत्ति गहेयब्बाणि, जो सामिणो णियोगेण मउडादीणि आभरणगाणि मला(स्थय गताणि बहेज्जा, सो अवस्स पीलिज्जति भारेण, जो पुण परविम्हावणणिमित्तं ताणि चेव जोग्गेसु सरीरहत्थेसु संनिवेसिताणि सो रागेऽपि भार बहेज्ज, णो से परिस्समो, भावेमाणो कज्जगरुयताए ण मंणेज्जा व भार, तस्सवि भारी परमत्थतो, 'सब्वे कामा दुहावह'ति कामा दुविहा-सहा रूवे य, तत्थ सद्दमुच्छितो मिगो सहसुहृमि पुण्णमणो मूढताए बधबंधणविणिवातो-वघवन्धमरणाणि पावेति, तहेव इत्थी पुरिसो वा साणुवाती सदे साधारणा मम बुद्धी, तस्स हेउ सारक्षणपरी परस्स कलुसहियतो पदुस्सति, ततो रागवसपंथपडितो रयमादियति, तनिमित्तं पा संसारे दुक्खभायणं भवति, तहा रचो रूवमुच्छितो साधारणे विसए मम बुद्धी रूबरक्षणपरो परस्स पदस्सति सकिलिट्ठो सुचिन्तो य पावकम्ममज्जिणते, तप्पम भी 3 दीप अनुक्रम [४०६४४१] %A ॥२१७ -% [230] Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||४०५ ४४०|| दीप अनुक्रम [ ४०६ ४४१] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१]], निर्युक्ति: [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः : आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा० चूर्णां १३ चित्रसंभूतीय ॥२१८॥ संसरमाणो दुक्खभाषणं भवति, एगग्गहणे तज्जातीयरगहणं, एवं भोगेसुचि गंधरसफासेस सज्जमाणो परंमि य पदुस्संतो मूढताए कम्ममादियति, ततो जाइजरामरणबहुलं संसारं परियकृति, तेण दुहावहा कामभोगा परिच्चयितव्या सेयत्थिणा || 'नरिंद 1 जाती० ॥४२३-३८८॥ वृत्तं, नरिंद इति तस्सेवामंतणं हे नरिंद !, जाती अधमा णाम सव्वजहण्णा, शुनः पचतीति श्रपाकाः, 'दुहतो 'ति दोऽवि जणा गता आसीत्, पच्छद्धं कण्ठ्यं, 'सोवागनिवेसणाणि'त्ति सोवागघराणि । 'तीसे अईहह उ पाविया९० ।।४२४-३८८|| वृत्तं कण्ठयम् । 'सो दाणि सिं राय ! महाणुभागो० ॥ ४२५ ॥ वृत्तं, 'सो दाणि 'त्ति स भगवान् पुरा सम्भूतः अणगारो आसीत् 'दाणिं सि राय ! महाणुभागो' कण्ठयानि वाक्यानि तत्पुनरपि एताई जहितु भोगाई असासयाई, आदाणमेवं अणुचितयाहि, अथवा आदाणहेउं अभिणिक्खमाहि, आदाणं णाम चारितं, तद्धेतुं अभिणिक्खमाहि । 'इह जीविए राय० ।। ४२६-३८९॥ वृत्तं पुचद्धं कण्ठ्यं, 'से सोअई मच्तुमुहोवणीए' मरणं मृत्युः खन्यते वा तत् खनंति वा तमिति, मृत्योर्मुखमुपनीतः, सेसं कण्ठ्यः ' जहेह सीहो० ॥ ४२७-३८९॥ वृत्तं येन प्रकारेण यथा, 'इहे 'ति इह मनुष्यलोके, म्रियते इति मृगः, हि ( म्रियमाणो न सिंहाय अलं तद्वद्वयमपि न मृत्यवे अलं येऽपि वा मात्राद्या ज्ञातयः तेऽपि भवस्स कालमि तं सहरा भवति, अंशो नाम दुःखभागः वमस्य न हरन्ति, अहवा स्वजीवितांशेन ण तं मरंतं धारयति । 'न तस्स दुक्खं०' ।।४२८-३८९ ।। वृत्तं कण्ठ्यं, स तान् बन्धून् विक्रोशतो हित्वा 'चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च०' ॥ ४२९ ॥ वृत्तं कण्ठ्यं, 'तं इक्कगं तुच्छसरीरगं०' ।।४३०-३९०॥ वृत्तं, तुच्छं णाम शून्यमित्यर्थः, केन तुच्छं १, जीवेन, रहितमित्यर्थः चीयत इति चितिका, 'भज्जा य पुत्तावि य नायओ य' कण्ठ्यं, 'दायारमन्नं अणुसंकमंति' ददातीति दाता, य एषां तद्विहीनानां वृत्तिं ददाति, सोगो वा [231] रा उपदेशः ॥२१८॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१||, नियुक्ति : [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४०५४४०|| श्रीउत्तरा चूणों १३ चित्रसंभूतीयं ॥२१९॥ अवणिज्जइ 'उवाणिज्जह जीवियमप्पमायं ॥ ४३१-३९० ॥ वृत्तं, तस्मै उपनीयते मृत्यवे परलोकभयेनेत्येवोववणं, जरा वण्णो-1 राजेअवदातादि, सर्वार्थिकोऽन्यथा भवति, पंचालराया ! वयणं सुणाहि, मा कासि कम्माई (णि) महालयाई (णि) अनन्ता- उपदेशः नीत्यर्थः, दुम्मोचकत्वाच्च चिरस्थितीयानि । 'अहंपि जाणामि जहेह साह ४३२-३०९॥ वृत्त, कण्ठथे, जो एत्थ सारो भोगेसु य सारो कदलीगर्भजलबुबुदसनिभैः। किन्तु 'भोगा इमे संगकरा भवंति संग कुर्वन्तीति संगकरा, जे पुव्वं ता अम्हा| रिसेहिं अज्जो असिद्विधा (या) नाम अविनीततृष्णा, आर्य इति साधोरामन्त्रणं, स्यात् कथं दुस्त्यजान्', पूर्वनिदानदोषात्, 'हत्धिणपुरंमि चित्ता॥४३३-३९१।। श्लोकद्वयं कण्ठयं, कामभोग सत्तत्वात इच्छन्नपि न शक्नोति कामकादुचर्तु, दृष्टान्त:'नागो जहा पंकजलावसन्नो० ॥४३५-३९१॥ वृत्तं, नास्य किंचिदगम नागः, स्थालायालं स्थली, सेसं कण्ठयं, साधुराह-यदि भोगान् न शक्नोति त्यक्तुं भिक्षुमार्गमनुयातु, तेऽपि च भोगा बह्वन्तराया, तत्र मूलान्तराय एवं मृत्युकालः, स चाय--'अच्चेइकालो ॥४३६-३९१।। वृत्त, अति एति अत्येति-त्वरितं यान्ति, रात्रयो 'न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा भूत्वा न भवन्ति रोगादिविघातैश्च, 'उविच्च भोगा पुरिसं जहंति' उपेत्य भुजंत इति भोगाः, पुरुष उक्तार्थः, जहंति-त्यजन्ति भाग्यहीन, दिढतो-दुर्म जहा खीणफलं व पक्खी। 'जईऽसि भोगे चइउं असत्तो ॥४३७-३९२।। वृत्त, अज्जाई णाम आयरियाणि धम्मे हितो।। अणगारधम्मे 'सव्वपयाणुकंपीति छज्जीवणिकायाणुकंपगो, ता होहिसि देवो 'इतो' इति अस्माद् मनुष्यभवादनन्तरं 'विउ- ॥२१९॥ वी' वैक्रियशरीर इत्यर्थः, 'ण तुज्झ भोगे०१४३८-३९३॥ सिलोगो, (वृत्त) पुम्बद्धं कण्ठयं, मया तु मोहं कओ, मोहो णामानर्थक एव, वीचारप्रलापो बिलापो विप्रलापो । 'गच्छामि रायं। आमंतिओऽसि' तमामन्त्र्य यथासुखं प्रविजहार इति । छACAMA5 दीप अनुक्रम [४०६४४१] ॐARI [232] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ॥४०५ ४४०|| दीप अनुक्रम [ ४०६ १] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१३], मूलं [१...] / गाथा ||४०५-४४०/४०६-४४१]], निर्युक्ति: [३२८...३५९/३३०-३५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः 'पंचालरायाऽविय बंभदत्तो० ॥४३९-३९३ ।। वृत्तं, अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो, अप्यतिद्वाणे इत्यर्थः । 'चित्तोऽवि कामेहिं विरतकामो० ॥ ४४० - ३९४॥ वृत्तं उदत्तं नाम प्रधानं, तस्य चारित्रं तपो यः स उदत्तचारिततपः, महांत एसतीति महेसी, ता अणुत्तरं, इषुकारीये ४ ज्झणं समत्तं ॥ | संजमं पालयित्वा वीतरागसंजममित्यर्थः, अणुत्तरं सिद्धिगई गओत्ति बेमि । नयाः पूर्ववत् ॥ चित्तसंभ्रुहज्जं तेरसमं अ १४ ॥२२०॥ श्री उत्तरा० चूर्णो सम्बन्धो- णिदाणदोसो तेरसमे, चोइसमे पुण अणियाणगुणा, एतेणाभिसंबंधेणायातस्स चोहसमज्झयणस्स चत्तारि अणुओगद्दारा उबक्कमादी, ते परूवेऊण णामणिष्फण्णे णिक्खेवे उसुयारिज्जंति, तत्थ गाहा- 'उसुआरे निक्वेवो० ॥३५९ ३९६।। गाथा, उसुयारो चउन्विहो - णामादि, णामउसुयारो जहा उसुयारपज्जातो, जस्स वा उसुयारेचि नाम, ठवणा अक्खणिक्खेवो, दब्बतो उसुयारो दुविधो-आगमओ णोआगमओ य, आगमओ जाणए अणुवडतो, गोआगमतो 'जाणग०' । ३६०-३९६॥ गाथा, जाणगसरीरभविय सरीरवतिरित्तो तिविधो एगभवियादि, भावओ उसुआरे इमा गाथा- 'उसुआरनाम गोए (तं ) ० ।। ३६१-३९६ ॥ गाथा, कण्ठया, उसुयारस्स इमा उप्पत्ती - जे ते दोन गोवदारया साहुअणुकंपयाए लद्धसंमचा कालं काऊन देवलोगे चउपलिओ मडिआ देवा उबवत्रा, ते तओ देवलोगाओ चहउं खिइपइडियनगरे उववन्ना, दोऽवि भायरो जाया, तत्थ तेसिं अनेवि चचारि इन्भदारगा वयंसया (जाया), तत्थवि भोगे भुंजिडं तहारूवाणं घेराणं अंतिते धम्मं सोऊण पव्वइया, सुचिरकालं संयमं अणुपालेऊण भत्तं पच्चक्लाइउं कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पउमगुम्मे विमाणे छावि जणा चउपलिओवमठितिया देवा उववण्णा, | तत्थ जे ते गोववज्जा चत्तारिवि देवा ते चइऊण कुरुजणवए उसुयारपुरे नयरे एगो उसुधारो नाम राया जातो, बीओ तस्सेव अध्ययनं -१३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन - १४- “इषुकारिय” आरभ्यते [233] इपुकारनिक्षेपः ॥२२० ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा पुत्रयुगलं चूणों १४ सूत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| इषुकारीये। ॥२२॥ | महादेवी कमलाबई नाम संयुत्ता, ततिओ तस्स चेव राइणो भिगुणाम पुरोहितो संवुत्तो, चउत्थो तस्स चेव पुरोहियस्स भारिया || संवुत्ता वासिट्ठी गोतेण जसा नाम । सो य भिगु अणबच्चो गाढं तप्पए अवच्चनिमित्तं, उबयाणए देवयाणि पुच्छइ नेमित्तिए । ते दोऽवि पुन्च भवगोवा देवभवे घट्टमाणा ओहिणा जाणिउं जहा अम्हे एयस्स भिगुस्स पुरोहियस्स पुत्ता भविस्सामो, ती | समणरूवं काऊण उवनया भिगुसमी, भिगुणा सभारिएण बंदिया, सुहासणत्था य धम्म कहेंति, तेहिं दोहिवि साचगवयाणि | गहियाणि, पुरोहिएण भण्णति-भगवं! अम्ह अवच्चं होज्जति ?, साहहि भण्णति-भविस्संति वो दुवे दारगा, ते य डहरगा। चेव पब्बइस्संति, तेसि तुम्भेहि बाधाओ ण कायथ्यो पन्चयंताणं, ते सुबह जणं संबोहिस्सतित्ति भणिऊण पडिगया देवा, जातिचिरेण चइऊण य तस्स पुरोहियस्स भारियाए बासिट्ठीए दुये उदरे पच्चायाया, ततो पुरोहितो सभारितो नगराओ विणिग्गतो, पच्चंतगामे ठितो, तत्थेव सा माहिणी पसूया, दारगा जाया, तओ मा पब्वइस्संतित्तिकाउं मायावित्तेण चुम्गाहिज्जति-जहा एए| उपचाइयगा दिव्यरूबाई घेत्तुं मारंति,पच्छा तेसि मंसं खायंतित मा तुब्भे कयाई एएसि अल्लियस्सह । अन्नया ते तमि गामे रमता बाहिं। निग्गया इओ य-अद्धाणपडिवण्णा साहू आगच्छन्ति,तयो ते दारगा साहू दतॄण भयभीता पलायंता एगमि बडपायचे आरूढा, साहुणो समावत्तीए गहियभत्तपाणा तमि बडपायवहिहे ठिया, मुहत्तं च वीसमिऊणं भुजिउं पयत्ता, ते बडारूढापासंति साभावियं भत्तपाण,नस्थि मिसतितओं चितिउं पयत्ता-कत्थ अम्हेहिं एयारिसाणि रूवाणि दिपव्याणिति,जाई संभरिया,संबद्धा,साहूणो बंदिउगया अम्मापिउसका मीवं,मायापितरं संबोहिऊण सह मायापितेण पव्यइया,देवी संबुद्धा,देवीए राया संबोहिओ,ताणिवि पच्वइयाणि,एवं ताणि छावि केवलणाणं| पाविऊण णिब्याणमुवगयाणित्ति ।। णामणि'फण्णो णिक्खेवो गतो, सुत्ताणुगमे मुत्तमुरुधारेयव्वं, तं च इमं सुच-'देवा भवित्ताण' दीप अनुक्रम [४४२४९४] [234] Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४]], निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], अध्ययनं [१४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० २) ॥४४१-३९७॥ सिलोगो, 'पुरे भवंमी त्ति अणंतरे भवे 'केयी' त्ति तेसिं छण्हं जणाणं, पूर्यत इति पुरं, पुराणं-चिरंतणं, उसुआर नाम, चूण उसुकारपुरमित्यर्थः, 'खातं' प्रथितं समृद्धं बहिरन्तश्च सारेण सुरलोगसरिसं मुइन्न (त) त्तणेण, काणणुज्जाणवाविपुक्खरणीहिं देवलोगरम्मं, 'सकम्म सेसेण० ॥४४२-३९७॥ वृत्तं, 'सकम्मसेसेण 'ति देवलोगाओ अबसिएण 'पुराकरण' त्ति पुब्वं कवेणं संज४. मेणं, कुलेसु सुदत्ते-उग्गे पसूया । उदत्ताई जाई जाईए कुलेण घणेण य, उक्तं च- "जाई इमाई कुलाई भवन्ति अड्ढाई दित्ताई०," ॥२२२॥ ॐ संसार एवं भयं संसारभयं तस्स णिब्विण्णो, जहाय भोगे मातापित्रादयथ 'जिणिदमग्यो णाम गाणदंसणचारिताणि, सरणं १४ इषुकारीये पवन्ना, अज्जु च्चु ) ए गता इत्यर्थः, 'पुमत्तमागम्म कुमार वो धी० ॥४४३-३९७॥ वृत्तं, तत्थ पूर्वभवे वयंसया' पुमत्तमागम्मति माणुस्सं, देवलोगं, देवलोगा पुण माणुस्संति, तंमि माणुसे खेचे दोषि कुमारा तेर्सि पिता पुरोहितो, तस्स पतीवि जसा णामतो, विच्छिण कित्ती विशालकीर्त्ति, राया उसुयारो, ता देवी कमलावइति । 'जाईजरामच्चु ० ॥ ४४४ - २९८॥ वृत्तं जायत इति जातिः, जीर्यत इति जरा, जाती च जरा च जातिजरा, मृत्योर्भयं २, अतस्तथा जातिजरया मृत्युभयेन च अभिभूतों लोको, बहिं विहारो मोक्खो तस्स हेऊ णाणादीइ तम्मि अभिनिवेसितं दितं, संसारचक्कं छब्विहं, तंजहा- जाती जरा सुहं दुक्खं जीवितं मरणं, तस्य विमोक्षार्थं, विपक्षभूतं दृष्ट्वा कामतो ते सुविरत्ता, के ते १, उच्यते- 'पियपुत्तगा० ॥ ४४५-३९८।। वृत्तं पुरस्य हितः तथा 'सुचि 'ति, णणिदाणोवहतं, सेसं कण्ठयं । 'ते कामभोगेसु ० ॥४४६ ३९८ ॥ वृत्तं, कामा दुविहा- सदा रूवा य, भोगा तिविधा-गंधा रसा फासा, 'ते' इति ते दारया असज्जमाणा, मणुस्सता तात्र खेलासवादी, दिव्वावि विधुला चयणधम्मा य, कथं ण सज्जति ?, जेण मोक्खाभिकखी, अत्यर्थं तीव्रा श्रद्धा, तातं उवागम्म इमं उदाहु- 'असासयं ० ' ॥४४७-३९८ ॥ वृत्तं, शश्वद्भवतीति शाश्वतं [235] पुत्रयोराग्योक्तिः ॥२२२॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४]], निर्युक्तिः [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः १४ श्रीउत्तरा न शाश्वतं अशाश्वतं अतो ते दर्द्ध' इमं ' इति मणुस्स भवे, विहरणं विहारः, भोगा इत्यर्थः, जतो भन्नीत' भोग भोगाई मुंजमाणो विहरति ' चूर्णो ७ 'बहुअंतराए' चि ते भोगा अंतरायबहुला, व्याध्यादिभिरुपद्रव विशेषैः 'ण य दीहमायुं' 'तम्हा' तस्मात् 'गिहंसि न रई तू लभामो' 'आमंतयामो' त्ति आपुच्छणा, चरिस्सामो मोणं जताणि उपशमं करिष्यामः, मुणिभावो मौनं, संयममित्यर्थः, 'अह तायओ० ' ॥४४८-३९९ ॥ वृत्तं, अथेत्यानन्तयें, तवस्स वाघायकरं वयासी, सुक्खतो दरिसणओ य, जहा 'इमं वयं वैयविओ वयंति, जहा न होई असुआण लोगो' इममिति प्रत्यक्षीकरणे 'वय' मिति वाग्, 'विद् ज्ञाने' विदंति तमिति वेदः, चिऊ जाणगा, वेदं जाणंतीति वेदविदु, किं वदन्ति-अथ अपुत्रस्य लोक एव नास्ति, तस्मात् 'अहिज्ज वेए० ॥ ४४९ ३९९॥ वृत्तं, अधीत्य वेदान् श्राद्धादिषु च भोजयित्वा विप्रं पुत्रांश्च जनयित्वा ताँथ गृहेषु स्थापयित्वा वीवाहयित्वेत्यर्थः, भोगाँश्च भुक्त्वा स्त्रीभिः सार्द्धं, पच्छा अंतकाले वणप्पावेसं तावसादणिं एतत्प्रवेशस्तं प्रशस्तं प्रशस्यतो वा, नातो विपर्ययेनेति । 'सोअरिंगणा आयगुणिघणेणं० ॥। ४५० ४०१।। वृत्तं, शोक एवाग्निः शोकाग्निः अतस्तेन शोकाग्निना, आत्मगुणा-रागादयः त एव च इंधनं 'मोहानिलापज्जलणाहिएणं' महाणगरदाहातोवि अधिअतरेण संतत्तभावो जस्स सव्वतो तप्यमाणं वहिरन्तश्च लोलुप्पमाणं लोलुप्पमानं भरणपोसण कुलसंताणेसु य तुम्भे भविस्सहात्ति, बहुधा-पुनः पुनः बहुं च बहुष्पगारं । 'पुरोहियं तं कमसोऽ तं० ॥४५१-४०१॥ वृत्तं, अधिज्जवेदा दिएहिं जहक्कमं कामओ गुणेहिं सदादि भोच्चा सुतपदाणं च काउं, कुमारगा तस्स तं वयणं सुणित्ता इदमुक्तवन्तः - 'वेदा अधीता न भवति ताणं' ॥४५२ ४० १॥ वृत्तं कस्माद् १, हिंसकत्वात् उक्तं च-- 'अकारणमधीयानो, ब्राह्मणस्तु युधिष्ठिरः । दुश्शीलेनाप्यधीयन्ते, शीलं तु मम रोचते ॥ १ ॥ तथा-- 'शिल्पमध्ययनं नाम, वृत्तं ब्राह्मण इषुकारीये ॥२२३॥ [236] पुरोहितोक्तिः ॥२२३॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [४४२ ४९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४]], निर्युक्तिः [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा चण १४ इपुकारीये ॥२२४॥ लक्षणम् । वृत्तस्थं ब्राह्मणं प्राहुर्नेतरान् वेदजीवकान् || २ ||" 'भुत्ता दिया णिति तमं तमेणं ति अजिइंदिया हि भोजिता (नमो) णरगो ततोचि जं तमतमो तंमि णिति, 'जाता य पुत्ता न भवति ताणं' जहा- सद्धिं पुत्तसहस्साई, सगरो किर मेदि । पमोत्तृण सो समणो पव्वतितो, इह खलु पुत्ता ण ताणाए, को नाम ते अणुमन्निज्ज वाक्यं, एतदुक्तं त्वया अधीता (त्य) वेदा, जे यि कामगुणा त एवंविधा 'खणामित्तसुखा० ' ॥४५३-४०१ । वृत्तं, खणमिति कालः सो य सत्त उस्सासणीस्सासा एस थोवो एस एव खणो। भन्नवि, तावत्कालं सौख्यं विषयेषु, बहुकालदुक्खा, कामभोगासक्ता हि नरकेषूपपन्ना अनेकानि पल्योपमानि सागरोपमाणि दुक्खमणुभवतित्ति बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा पज्जत्तियदुक्खा, अणिकामसोक्खा ण णिकामं, अपर्याप्तसौख्या इत्यर्थः, संसारसोक्तस्स विपक्खभूता, प्रत्यनीकभूता इत्यर्थः, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा, खनिः- आकरो य एकार्थं 'परि० ॥४५४-४०१॥ वृत्तं परिव्वयंतित्ति याति यौवनं 'अणियत्तकामों' अणियत्तइच्छो 'अहो य रातो परितप्यमाणो परि-समंतात्, सर्वतस्तापः परितापः, त्रिभिर्वा योगेः तापः परितापः, असंपत्तीए सद्दादीणं, अण्णप्पमत्तो आहारार्थं सु-भृशं मत्तो-मुच्छितो गिद्धे-गहिते अज्झोवने, अथवा सरीरापत्यदारादिषु प्रसभं मुच्छितो, घणं-हिरण्णादि तं एसमाणे उवज्जिणमाणे उवज्जिए वा अपरिभुजिउं चैव प्राप्नोति मृत्युं पुरिसा जरं च प्राप्नोति, पश्चात्र शक्नोति तदुपभोक्तुं व्यर्थकमेवोपार्जनं भवति, अथवा एवं परितप्पति- 'इमं च मे अस्थि० ॥ ४५५-४०१॥ वृत्तं इमं च मे अस्थि सरीरे महिलाए, गृहोपभुज्जं वा, इमं च णत्थि, तो तं उबज्जिणामि, इमं कतं इमं करोमि, अथवा अच्छउ वा तं इमं अद्धकथं, इमं ताव करेमि, तंमि दरनिविते तं चैव तं एवमेवमत्यर्थं लालप्यमाणं हरतीति हरः, मृत्युरित्यर्थः, किं बाहिरा मृत्युना', नित्युच्यते, हरतीति हराः व्याधयः मुहुत्त दिवस संयच्छरा वा आयुं [237] कुमारोक्तिः ॥२२४॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत १४ सूत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| Gवखंडन श्रीउत्तराना हरंति, उक्तं च-कि तेर्सि ण चीभेया आसकिसोरीहिं सिग्घलग्गाणं | आयुवलमोडयाणं दिवसाणं आवडताणं ॥१॥ एवं णच्चा चूर्णौ । कहं पमातो करेयब्चो धम्मेऽपि ता?, 'धणं पभूतं०।४५६-४०२शावृत्तं कण्ठ्यं । कुमारगाह-'धणेण किं धम्मधुराहि ॥४५७-४०२।। नास्तिक पक्ष | वुत्तं, धम्मधुरा-संजमधुरा, सयणो पुब्धसंथुयादि, कामगुणा सहादि, उक्तं च-"छड्डेतूणं गम्मइ सारं दारं च पुत्रदारं च । अतिइपुकारीयेणियगंपि सरीरं छड्डेउमवस्स गंतव्वं ॥१॥" 'समणा भविस्सामु गुणोधारी' गुणोहो-अट्ठारस सीलंगसहस्साणि घारंता ॥२२५॥ परावहिं विहारा अभिगम्म भि[हिं]खं' बहिर्विहारे स्थित्वा मिक्खारा भविस्सामो, बहिर्विहारो णाम अप्पडिबद्धविहारोपि ता। आह-यदप्युक्तं प्राक् 'णिध्वाणमग्गस्स विपक्खभृता' प्रत्यनीकभृता तं निर्वाणमेव नास्ति, कुतः १, बंधाभावात्, कथं बन्धो नास्ति', जीवाभावात, कथं जीवो नास्ति', 'जहा य अग्गी अरणीउऽसंतो०॥४५८-४०२॥ चुत्तं, येन प्रकारेण यथा, अंगती-151 त्यग्निः, उत्तरारणिसंयोगात् मध्यमानोऽभूत्वा सम्भवति, विद्यते उपलभ्यत इत्यर्थः, भूत्वा चोत्तरकालं न भवति, इत्येवं जीवोsभूत्वा भवति, उक्तं च--'एतावानेव पुरुषो, यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे ! वृकपदं घेतद्यद्वदन्ति पहुश्रुताः॥१॥ तथा क्षीरेऽपि कालान्तरपरिमाणात्,तथाऽनाथेयपुरुषप्रयत्नाकच सर्पिरुत्पद्यते अभूत्वा, उत्तरकालं च न भवति यथा, एवमात्माऽपि एवमेव जाता!' एवमवधारणे,जाता इति पुत्रा, सरीरंमि सत्ता समुच्छिस्संति अजसंघातबत्, णासतित्ति प्रलयमेति एवमात्मापि, एवं तेक(ल)मपि, एवमेव ह्यात्मा, तथाविधनाशोपलब्धौ भस्म विशुद्धं क्लेदात(प्रेक्षित)मिति, चित्तमात्र आत्मा, कुमारकावाहतुः, यदुक्तं नास्त्यात्मा ॥२२॥ तदभावाच्च निर्याणवैफल्यमिति, अत्रोच्यते-(अस्ति निर्वाण) कुतः?, स्वभावव्यवस्थितत्वात, इह यो भावः येन भावेन व्यव|स्थितः सोऽस्ति, को रष्टान्तः, यथा घटः स्वेन भावेन व्यवस्थितः, तस्मात् स्वभावव्यवस्थानात् पश्यामः जीवोऽस्तीति, इतश्च 4%ACCASISA % % 95 दीप अनुक्रम [४४२४९४] + -% % % [238] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| १४ श्रीउत्तराजीवोऽस्ति, कुतः, प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतेन्द्रियान्तरविकारसुखदुःखोपलब्धेः इत्यात्मनि एते भावा भवन्ति, को नास्तिक चूर्णी दृष्टान्तः?-यथा वायुः, शाखाभरकरणैरप्रत्यक्षोऽप्यस्मदादिभिरुपलभ्यते, तथा चात्मा प्राणापाननिमेषोन्मेपजीवनमनोगतेन्द्रि-II पक्ष | यांतरविकारसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नप्रभृतिभिः प्रत्यक्षैरनुमीयते अस्ति स जीवो एषां भावानां कर्तृति, तस्मात् प्राणापाननिमेषो-तिल इषुकारीये न्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियांतरविकारसुखदुःखोपलब्धीरपि पश्यामः, जीवोऽस्तीति, इतच जीवोऽस्ति, कुतः, पूर्ववृत्तार्थस्मर॥२२६॥ णाव, को दृष्टान्तः १, यथा घटः पूर्ववृत्तस्मत्तों न भवति न च तथाऽऽत्मा, आत्मा हि इहलोकवृत्तानामर्थानां कश्चिच्च परलोक वृत्तानामप्यर्थानां जातिस्मतॊ भवति, तस्मात् पूर्ववृत्तस्मरणात् पश्यामः जीवोऽस्ति, ययस्तीति कथं निस्सरन् प्रविशन् वा ४ नोपलभ्यते, उच्यते-'नोइंदियाग्गिज्झु०॥४५९-४०३।। वृचं, णोइंदियग्राह्यः, कथं नोइंदियग्राह्यः', उच्यते, अमूर्तत्वात्, नोइन्द्रियं मनः, मनश्चात्रैव, अतः स्वप्रत्यक्ष एवायमात्मा, कस्मात् , उच्यते-त्रैकाल्यकार्यव्यपदेशात्, तद्यथा-क(जा)तवानई जानेऽहं शास्येऽहमिति योऽयं त्रिकालकार्यव्यपदेशहेतुः अहंप्रत्ययोऽयमानुमानिको न, नागमिकः, किं तर्हि , स्वप्रत्यक्ष एवार्य, अनेनैवात्मनां प्रतिपाद्यत्वात्, नायमनात्मके घटादावुपलभ्यते, इहेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, यो हि तदुपरमेऽपि तदुपलब्धमनुस्मरति स तस्मात् अर्थान्तरमुपलब्धा दृष्टः, यथा-पंचवातायनोपलब्धार्थानुस्मा देवदत्त इति, अतःणोइंदियगिज्य अमुत्तभावादिति, अमूर्तत्वाच्च नित्यः, आह-आकाशस्येव नित्यस्यामूर्नस्य कथं जीवस्य बन्धो भवति ॥२२६|| | उच्यते, 'अम्भस्थ णिततस्स बंध' आत्मानं प्रति यद्वर्त्तते तदध्यात्म, तच्च रागद्वेषमोहमिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाय-18 योगा।, 'हेउ'त्ति हेतुः कारणं तु, अपदेशा-निमित्तं, अस्मात् कारणाव नित्यत्वामृर्चत्वसामान्येऽपि आकाशस्य सति वैशेषिको दीप अनुक्रम [४४२४९४] [239] Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४]], निर्युक्ति: [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी १४ जुकारीये ॥२२७॥ धर्मः अध्यात्मकृतो बन्धहेतुः जीवस्य संसारहेतुः कथं वन्धमा ?:- 'जहां वयं धम्ममजाणमाणा० ॥४६०-४०३॥ वृत्तं येन प्रकारेण यथा, वयमित्यात्मनिर्देशः, जैनं धर्ममजानमानाः पातयन्ति पासयति वा पापं रागद्वेषोद्भवं साधुषु उद्वेजननिमित्तकं पुरा प्रथमं क्रियत इति कर्म अकार्षीत्, ओरुज्झमाणा जं तुम्भेहिं घणियं समं लभंता, परिरक्खिज्जंता साधु एलका (संपका) तं णेव भुज्जोऽवि समायरामो पार्व गिहवासे चरेंति, किमर्थं गृहवासे रविं न लभहीं, वेणंति । अन्भायंमि० ॥४६१-४०३ ॥ सिलोगो, वायुरादितेणं, जहा मिगजूहं बाहेण अम्माहयं वागुराए परिक्खितं असोहणाणि पहरणाणि पडंति, तब्वध्यानि भूमी वा पति, एवं अभ्याहते लोके गिहवासे न रमामो । पुरोहित आह- 'केण अव्भाहओ लोओ० ' ॥४६२-४०४ ॥ सिलोगो, कण्ठ्यः, पुच्छाए कुमारकाह- 'मच्चुणभाहओ लोओ० ' ॥४६३-४०४॥ वृत्तं, पुव्वद्धं कण्ठ्यं, अमोहा रयणी, किं दिवसतो ण मरति, उच्यते-लोकसिद्धं यन्मरतीति (रति) बाहरंती य, अहवा सो न दिवसे विणा (रचीए) तेण रत्ती भण्णति, अपच्छिमत्वाद्वा णियमा रती, कहं मारेती ?, उच्यते ' जा जा वच्चइ रयणी० ॥४६४-४०४॥ सिलोगो, 'जा जा' इति वीप्सा, सेसं कण्ट्, 'जा जा वच्चइ र यणी० ॥४६५-४०४ । सिलोगो, कण्ठ्यः । आह-सत्यमेतत्, किन्तु, किंचिकालं (संवस) अतो एगड्डा चैव पव्वयामो, उच्यते- 'एगओ संवसित्ताणं० ॥४६६-४०५॥सिलोगो, 'एगतो' ति एगट्टा, किंचिकालं संवसित्ताणं 'दुहओ'ति अम्हे दोवि जगाई 'संमत्त संजुत'त्ति तुम्भ पज्जयं धम्मं गहाय पच्छा जाया ! गमिस्सामो, अणियत्तवासी गाने एगरातीओ नगरे पंचरातीयो भिक्खाहारा, आह- 'जस्सऽतिथ मच्चुणा सक्खं०' ॥४६७-४०५॥ सिलोगो, 'जस्स'ति णिदेसे 'अथ' इति आमन्त्रणं, सख्यं मित्रता, जस्स होज्ज मच्चुसक्ख दिहं तेणं, जस्स किल जमो मिचो सो तेण णिज्जमाणो भगति - किंचिकालं सह [240] अनित्यता ॥२२७॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत ब्राझणी प्रत्युक्तिः सूत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| श्रीउत्तरा चूर्गों १४ इपुकारीये ॥२२८॥ क्खह, न य तेण उब्धिक्खितं. बच्च जेहिं ता णिलुक्को जणो घेप्पति, जो वा जाणति अयरामरोऽहं सो हु कंखे सुए सिया' जहा || कलं जहामोत्ति 'अज्जेब धम्म पडिवज्जयामोगा४६८-४०५||सिलोगो, अयेव साम्प्रतं, धम्मो-समणधम्मो,पडिवज्जामोद अभ्युपगच्छामो, न पुणभुवगच्छामो संसार, अणागयं नेव य अस्थि किंचि जे अम्हेहि न भुतपुर्व अणंते संसारे देविंदचक्कपट्टित्तणे देवेसु, अथवा नास्ति मृत्योः कुत्रचिदगमः, न विद्यते किंचिदस्याज्ञातं, न भवति, अणागय नेव य अस्थि किंची, एवं ज्ञात्वा श्रद्धाक्षेमं श्रेयःकिन्नो विणइत्तु राग, रागो-ममत्तभावो, उक्तं च-"अयं णं भंते ! जीवे एगमेगस्स जीवस्स माइत्ताए पियचाए भाइत्ताए भगिणित्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए सुण्हचाए भज्जताए मुहिसयणसंबंघसंथुयत्ताए उबवण्णपुब्वे ?, हंता गोयमा! असति अदुवा अणंतखुत्तो"ति । ततो तं पुरोहित पव्वज्जाभिमुखं स्थितं ज्ञात्वा तस्य भणी धम्मविग्धं करेति, ततो पुरोहितो॥४ भणति-पहीणपुत्तस्स हानस्थि चासो ४६९-४०६॥सिलोगो, पहीणपुत्तस्स उ णत्थि वासो, गृहे इति वाक्यशेषः, वासिद्धिचि आमन्त्रणं, भिक्षोः चर्या भिक्षुचर्या, भिक्खाचरियाकालो पुरश्चरणकाल इत्यर्थः, उक्तंच-'प्रथमे चयसि नाधीतं, द्वितीये नाजिंतं धनम् । तृतीये न तपस्तप्त, चतुर्थे किं करिष्यति ॥१॥ दिट्ठतो जहा दारुस्स सहाओ छायं (थाj) सो तं सारक्खणं सहायकृत्यं च कुर्वन्ति, छिनो हि गम्मा विणासं च पावंति, तहेव वाहं थाणुभूतो, अन्नेवि दिटुंता-'पंखाविहणो व जहेव पक्खी० ॥४७०-४०६॥ वृत्त, पंखविहीणो पक्खी पलायणे ण समत्थो मज्जारादीहि विणास पापति, संगामे वा उवाहिते भिच्चविहणो राया सत्तूहि णासिज्जति, सारो धर्ण, विवनसारो वणिज इव समुदमझे पोतविणासेण पहीणपुत्तोमि तहा अहंपि, माहणी आह-'सुसभिया०॥४७१-४०६||सिलोगो, सुठ्ठ संहिता सुसंहिता, सुसंस्कृता द्रव्यादिभिरुपकरणेहि कामगुणा-शब्दादयः दीप अनुक्रम [४४२४९४]] ACADA-CHACROCURES [241] Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सुत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| उत्तरा०हमे इति ये साम्प्रतं गृहे वर्तन्ते, संपीडताः, सम्यक् पण्डिताः, अग्गरसानां सुखानां वराः प्रधानाः प्रभूता-बहुकाः, त एवं-10 गुणजातीए भुजामु ता कामगुणे पगामं, पज्जत्तियं काम, गमिस्सामु पहाणमग्गं पहाणमग्गो णाम शानदंसणचरित्ताणि, माझणी १४ प्रत्युक्ति दसविधो वा समणधम्मो, पहाणं वा मग पहाणमग, तीर्थकराणामित्यर्थः, पुरोहित आह'भुत्ता रसा०॥४७२-४०७॥ वृत्तं, के | dl कारीये ते भुत्ता, रसा भोगा इत्यर्थः, हे भवति जहाति तव यौवनमित्यर्थः, न असंजर्म, संजमठ्ठा जीवियणिमित्तं पजहामि भोगे, २२९॥ लाभ अलाभं च सुहं च दुक्खं संचिक्खमाणो सहमाण इत्यर्थः, करिस्सामि मोणं मुनिमावी मीनं, संयममित्यर्थः, माहणी | आह-'माह तुमं०॥४७३-४०७॥वृत्तं, मा पडिसेधे,ह पूरणे, समणो सोदरिया भाताति कामभोगा (वा) जुन्नी व हंसोणदीए। | पडिसोयं गतुं अचायतो अणुसोतमेव गच्छति, एवं तुमंपि दुरणुचरसंजममारवहणअसमत्थो भायादीण भोगाणं वा सुमरिहिसि, अतो | 'भुजाहि' कण्ठचं, पुरोहित आह-'जहा य भोई०४७४-४०८॥ वृत्तं, येन प्रकारेण यथा हे भोती! 'तनुजः' तनु:-शरीरं, भुजा|भ्यां गच्छतीति भुजङ्गः 'निम्मोअणि' कंचुकं 'हिच्चा छडेता 'पलाइ' गच्छति, मुत्तित्ति णिरवेक्खो, अपडिबद्ध इत्यर्थः, | 'एमए'त्ति एवमेते भुजङ्गवत् 'जाया' इति पुत्रा 'पयहंति भोए अत्यर्थ चयंति पयति, तेऽहं कहं नाणुगमिस्समिक्को, ४ाएगो रागहोसरहितो अहं सयणादी अवहाय, कहता अहं एगो अच्चाहामि?, 'छिदित्तु जालं०॥४७५-४०९।। वृत्त,जालं मच्छ जालं अपलं दुब्बलमितियावत् रोहिता मच्छा, एवं वयं मोहजालं छिदित्तु धरिवहति धुर्यः संयमधुरावहणसीला तपांसि उदा-1 २२९|| राणि-उत्तमानि वीरास्तपेश्वराः भिक्षोथरिया भिक्खुचरिया अतोतं धीरा हु भिक्वायरियं चरति, 'एवमेए'त्ति पुत्तेसु संजमणिहितमतीसु 'नहे च कुंचा०॥४७६४०९॥वृतं, णभे-आकासे कोंचाण पंतीओ आगच्छंतीओ तताओ-वितताओ दलेत्तु CAREECRACa दीप अनुक्रम [४४२४९४] ECECAR - R ॐात्र X [242] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| १४ उत्तरा० छिंदत्तु वोलेत्तु(न्ति)एवं सति पुत्ता यकण्ठ्यं । सव्वाई 'पुरोहितं तं ससुयं०॥४७७४०९॥वृत्तं, पुब्बद्धं कण्ठयं,कुडुंबसारो हिरण्णा- राझीकृत चूणी यदि विउलं-बहुगं उत्चम--पहाणं, अन्नभोगेहितो तं राया गेण्हिउमारद्धो, पच्छा तेऽवि अभिक्खं-पुणो पुणो, सम्म उवाय समुवाय, उपदेशः किमुवाच ?, उच्यते-'वंतासी पुरिसोरागं० ॥४७८-४०९॥ वृत्तं, बतं असिउ शीलं यस्थासौ वन्ताशी, पुरिसो उक्तार्थः, हे* कारीये राजन् ! ण सोहति पसंसितो, कहं वंतासी भवति,जेण माहणेण परिच्चत्तं धणं,कण्ठया सव्वं जगंजह तुहं(तव).॥४७९-४०९।। २३०॥ सिलोगो, कण्ठ्यः , णवरंणेच ताणाय ते तवत्ति परलोए, उक्तंच-'अत्थेण णंदराया ण ताइओ गोहणेण कुइअन्नो । धन्त्रेण तिलय-12 सेट्टी पुत्तेहिं न ताइओ सगरो ॥१॥' किंच-'मरिहसि रागं ! जया॥४८०-४०९|| सिलोगो, अवस्स यदा तदा दिवा रात्री वा, उक्तंच 'धुवं उई तणं कहूं धुवभिन्नं मट्टियामयं भाणं । जातस्स धुवं मरणं तूरह हितमप्पणो काउं॥ १॥ मनो रमयन्तीति मनोरमा, कामगुणा सहादयो, अत्यर्थ जहाय-पहाय, ण ते अणुगच्छंतित्ति भणितं होति । (ए)को हु धम्मो नरदेव! ताण | एक्को-रागदोसरहितो, अथवा स एव एक्को धम्मो, नराणं देव नरदेव ! ताणं भवति, नान्यः कश्चित्ताणं भवति स्वजनादि, एवं ४ स्वजनधनादि असरणादि गाउं 'णाहं रमे पस्विणि पंजरे वा०॥४८१-४११।।वृत्तं, पंजरो दुक्खभूतो, एवं संसारो दुक्खभूतो, अहसंताणं छिदिउं चरिसामि मोणं, मुनिमावो मौन, संजममित्यर्थः, किंचणं दवे भावे य, दबकिंचणं हिरण्णादि, भावकिंचणंद ॥२३०॥ कोहादि, 'उज्जुकडा' अमायी, णिरामिसा अहिरण्णसुवणिया, परिग्गहारंभकतेसु दोसेसु णियत्तचात्, 'दव्वग्गिणा जहा रपणे०॥४८२।। सिलोगो, पुन्बद्धं कण्ठ्यं, अन्ने सत्ता पमोयंति परिसं जति वाहादयो, दोसं गच्छति जे तत्थ डझंति, सत्चा रागद्वेषवसगा संतो, दह्यमानेषु, 'एवमेव वयं मूढा॥४८३-४१९ सिलोगो,कण्ठ्या । भोगे भु(भो च्चा०४८४-४११।। दीप अनुक्रम [४४२४९४] 445454 [243] Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४४१ ४९३|| दीप अनुक्रम [ ४४२ ४९४] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४]], निर्युक्तिः [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः १४ इनुकारीये ॥२३१॥ श्रीउत्तरा० सिलोगो, भोगान् भुक्त्वा इदाणि वमित्ता- छड्डेता लहु-वातो वा भूता लहुभूता, जहा सो बातो अप्पडिबद्धो सदा गच्छत्येव चूर्णो ४ एवं अप्पविद्धविहारिणो आमोदमाणा मुदहरा, सो संजमे गंदि मन्नति, दिया इति दो वारा जाता द्विजाः, पक्षिण इत्यर्थः, एक्कासं अण्डजत्वेन पच्छा अण्डयं भिचा जायंते पक्षिणो, कामतः, कार्मति स्वेच्छया इत्यर्थः, एवं लहुभूतविहारिणो आमोद| माणा विहग इव विमुक्का जण्णं २ दिसं इच्छंति ते तण्णं दिसं अप्पडिबद्धा गच्छंति- 'इमे य लढा फेदति ० ' ।।४८५-४११।। सिलोगो, 'इमे' इति प्रत्यक्षं लद्धा प्राप्ताः, के ते ?, शब्दादयो विषयाः, कंदतीति ( फंदा ) चला - अणिच्चा, मम इति आत्मनिर्देशः, हत्थपत्ता, अज्ज इति आमन्त्रणं अथवा अज्ज दिवसे संपदुपपेता, वयं च सत्ता एतेसु कामेसु चलासु, एते असासए, णिच्चाणं, | छडिहामो जहा हमेहिं छड्डिता । स्यात् किमर्थं छइडिज्जंति, उच्यते- 'सामिसं कुललं दिस्सा० ।।४८६-४११॥ सिलोगो, सह आमिसेण सामिसो, कुललो गिद्धो सउलिया वा, मंसपेसीए गहिताए अन्नाहिं सउलियाहिं वाहिज्जति, चत्तए ण वाहिज्जंति, अतो 'आसं समुज्झित्ता' कण्ठ्यः । 'गिद्धोवमे य णच्चा० ।। ४८७-४११। सिलोगो, गिद्वेण वा उनमा जेसिं कामाणं ते इमे गिद्धोवमा, जहा सो गिद्धो सामिसो वावज्जति, णिरामिसोण वावज्जति, कामभोगसंपन्नो तद्वितनिमित्तं वा धिज्जातिदाईयादीहिं, अतो गिद्धवमे भोगे णच्चाणं, संसारं वšतित्ति संसारखडणे, 'उरगो सुवण्णपासिव्य' उरेण गच्छतीति उरगः, सप्पो- सुवण्णो गरुडो उरओ तस्स पासे, अब्भासे समीपे इत्यर्थः, संकमाणो बीहमाणो तणुं-मंदं चरति, एवं विसयकसाएस तणु अंब (संच) रे 'नागुब्व (नागो वा) बंधणं छित्ता० ॥ ४८८-४११॥ सिलोगो, जहा इत्थी वारीतो बंधणाई छेत्ता वसहिं अप्पणो वए, तस्स वसहि अडवी, वनमित्यर्थः एवं सद्धं बसहिं वए 'इति'ति यदुक्तं 'एतं पत्थं' एतत् पथ्यं यत् स्नेहपासं छेत्ता, हे महाराय ! उसु [244] | राज्ञीकृत उपदेशः ॥२३१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१४], मूलं [१...] / गाथा ||४४१-४९३/४४२-४९४||, नियुक्ति : [३६०...३७३/३६०-३७३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: उत्तरा प्रत सुत्रांक [१] गाथा ॥४४१४९३|| २३२॥ आरत्ति मे सुतं, इति उपप्रदर्शनार्थे 'म' इति मया श्रुतं, ज्ञातमित्यर्थः, किमुक्तं भवति -नाग इव स्नेहबन्धनं छित्त्वा आत्मानं राशीकृत सद्धं वसहि नय, एतत् पथ्यं हे महाराजा!, एतत् मया श्रुतं साधुसमीपे । 'चइत्ता विपुलं रज्जं०॥४८९-४११।।सिलोगो, त्यच्या उपदेशः विपुलं-विस्तीर्ण राष्ट्र-राज, काम्यंत इति कामाः, प्रार्थ्यन्त इत्यर्थः, भुज्यंत इति भोगाः, अतस्ते भोगा दुःखं त्यज्यन्त इति दुस्त्यजाः, णिव्विसया-सहादिविसयरहिया णिरामिसा-धणामिसेण रहिता निष्णेहा-पुत्चदाराइसु णिम्ममत्ता णिपहि-0 ग्गहा दुषदादिसु । 'सम्मं धम्भ वियाणित्ता०॥४९०-४११॥ सिलोगो, 'सम्म' जहावस्थित संसारे सम्भावो धम्मो तं सम्मंद्र वियाणिचा जहा कामभोगा सयणधणादि वा न परित्राणाय अतो चिच्चा कामगुणे बरे, वरे-प्रधाने, तवं परिगृह्य इत्यर्थः, प्रकर्षण गृह्य प्रगृह्य, 'अहखातं ति यथा ख्यातं तथा प्ररूपितं, अथवा कामं वीतरागचरितमित्यर्थः, घोरं भयानक, कातराणां दुरनुचरं, घोरो परक्कमो जेसि ते घोरपरक्कमा, दुरनुचरपराक्रमा इत्यर्थः। एवं ते कमसो बुद्धा०॥४९१-४११॥ सिलोगो, एव| मनेन प्रकारेण कमसो-परिवाडीए बुद्धा संबुद्धा सव्वे-छावि जणा धम्मपरायणा-धर्मोट्ठाता 'जम्ममच्चुभउचिग्गा' जननं जन्म, मरणं मृत्युःजन्मश्च मृत्युश्च जन्ममृत्यू तावेव भयं जन्ममृत्युभयं तस्स, भयस्सुब्बिग्नी भीतो प्रस्तः दुरनुचर: 'दकख-18 स्संतगवेसिणो' दुक्खस्स अंतो-मोक्खो तं गवेसंति मागेतीत्यर्थः, 'सासणि विगत ॥४९२-४११।। सिलोगो, 'शासु अनुशिष्टी' शास्तीति शासनं, विगतमोहो-केवलणाणी तेसिं सासणे 'पुचि भावणाभाविया' पुन्वभवे संजमवासणाए भाविता, विसेसिता इत्यर्थः, पुन्बद्धं कण्ठथं । इदाणि तेसिं णामुक्किचणा किज्जा-राया सह देवीए॥४६३-४११॥ सिलोगो, राया उसुयारो णाम ॥२३२॥ सह कमलावतीए महादेवीए, माहणो भिगू पुरोहितो, माहणी जसा, ते य दारगा, सव्वेवि एते परिणिबुता,निथ्वाणं निवृतिः,परि दीप अनुक्रम [४४२४९४]] % AE [245] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] गाथा ||४९४ ५०९|| दीप अनुक्रम [ ४९५ ५१०] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, निर्युक्तिः [३७४...३७८/३७४-३७८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र-४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण समिक्षु ॥२३३॥ निब्बुए इति बेमि । णयाः पूर्ववत् ॥ चोदसण्हं उत्तरज्क्षयणाणं पुण्णी सम्मत्ता १४ ॥ उक्तं चतुर्दशमध्ययनं इदानीं पंचदशमुच्यते तस्य को मिसम्बन्धः १, सम्बन्धो वक्तव्यः, स च त्रिविधः, तद्यथा-सूत्रप्रकरणाध्यायसम्बन्धस्त्रिविधः स्मृतः । केचित्तु अविशेषेण, अतः सम्बन्ध इष्यते ॥ १ ॥ केचित्तु आचार्या अविशेषेण एकविधमेव सम्बन्धं व्याचक्षते, तद्यथा - सूत्रस्य सह सूत्रेण सम्बन्धः, यथा चतुर्दशमे धर्म्मकर्म्मसूत्रं एते परिषिच्युतेति, पंचदशमस्य आदिसूत्र- 'मोणं चरिस्सामिचि, परिनिर्वाण च मुनेरेधतीत्येष सम्बन्धः तथा प्रकरणसम्बन्धो यथा चतुर्दशमे धर्मकथाप्रकरणं व्यावर्ण्यते एवं पञ्चदशमेऽपि धर्मकचैव वर्ण्यते, तथा अध्ययनसम्बन्धः - चतुर्दशमेऽध्ययने अनिदानस्य गुणा व्यवर्णिताः एवं पञ्चदशमेऽपि अनिदानगुणसंपन्न एव भिक्षुर्भवति, अथवा सामान्येनाध्ययनसम्बन्ध एव वर्ण्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं उपक्रमो निक्षेपः अनुगमो नय इति, 'ऋमु पादविक्षेषे' उपक्रमणमुपक्रमः उपक्रम्यते वाऽनेनेत्युपक्रमः, तथा निक्षेपः 'क्षिपू प्रेरणे' निक्षेपणं निक्षेपः, तथा अनुगमः 'गमृ ट पृ गतौं' अनुगमनमनुगमः, अनुगम्यते वाऽनेनेत्यनुगमः, अनुगगम्यते वाऽनेने (स्मादि) त्यनुगमः, तथा नयः 'णीन् प्रापणे' नयनं नयः, नीयते वाऽनेनेति नयः, उपक्रमो णामादिकः षड्विधः, भावो द्विविधः गुरुभावोपक्रमः शास्त्रोपक्रम, अयं गुरुभावोपक्रम :- जो जेण पगारेण तुस्सति करेति णयाणुवित्तीहि । आराहणाए मग्गो सोच्चिय अन्माहतो तस्य ॥ १ ॥ शास्त्रोपक्रमः आनुपूर्व्यादिकः पद्विधः, स च पूर्वोक्त एवमनुयोगद्वारे, निक्षेपत्रिविधः, ओघनिष्पन्नः नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नचेति, ओघनिष्पन्नः पूर्वोक्तः, नामनिष्यन्ननिक्षेपः सभिक्षुकामिति भिक्षुशब्दस्य निक्षेपः-'निक्खेवो भिक्खुमी चउव्विहो ० ॥३७३-४१३॥ गाथा, इत्यादि, नामस्थापने पूर्ववत् द्रव्यभिक्षुर्द्विविध:- आगमनोआगमाभ्यां अध्ययनं -१४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१५- “सभिक्षु" आरभ्यते [246] संबन्धः ॥२३३॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत S सूत्रांक [१] निपार १५ गाथा ||४९४५०९|| श्रीउतरा। आगमतः पूर्वोक्तः, नोआगमतविविधः-ज्ञशरीर० भव्यशरीर० व्यतिरिक्तो, व्यतिरिक्तश्च निनवादि, मोक्षाधिकारशून्यत्वाद्, द्रव्य चूर्णी X कुकर्म ग्रहस्तं भिनत्ति असौ भावभिक्षुः, अथवा भेत्ता भेदन भेत्तव्यं वेति द्रव्ये भावे च, द्रव्ये भेत्ता रहकारादि भेदन परश्वादि। भेत्तव्यं काष्ठादि, भावतः भेत्ता साधुः भेदनं तपादि मेत्तव्यानि अमनि रागद्वेषौ दण्डात्रयः गौरवास्खयः चिकथाश्चत्वारः (तस्रः) । सभिक्षु संज्ञाश्चत्वारः (तस्रः) कषायाश्चत्वारः प्रमादा:पंच एवमादीनि भेत्तच्यानि, भिन्दं तु भावभिक्षुर्भवति, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः।। ॥२३४॥ इदानी सूत्राकापकनिष्पन्नो निक्षेपः (स च) अबसरप्राप्तोऽपि न निक्षिप्यते, कुतः, सूत्राभावात, असति सूत्रे कस्यालापकाः, सूत्र | सूत्रानुगमे, सूत्रमुच्चारणीय, सोऽनुगमो द्विविध:-सूत्रानुगमो नियुक्यनुगमश्च, सूत्रानुगमे सूत्रमुरुचारणीय अस्खलितादि, नियुत्यनुगमखिविधा-निक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमति, निक्षेपनियुक्त्यनुगतव नामस्था| पनादिप्रपञ्चेन, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः इमाहिं दोहिं मूलदारगाहाहिं अणुगंतब्बो 'उद्देसमा गाथा, किं कतिविधं०॥ गाथा, IA एवमवस्थिते सूत्रस्पर्शिकादि चतुष्टयं युगपद्गच्छन्ति, तथा चोक्तं-एत्थ य सत्ताणगमो सुत्तालावगकतोय निक्खेवो । सुत्तफासिय णिज्जुत्ती णया य पतिसुत्तमायोज्या ॥१॥सूत्रानुगमे त्रं, तच्चेद-'मोण चरिस्सामि ॥ ४९४ ।। वृत्तं, मन्यते तिकालवस्थितं जगदिति मुनिः, मुनिभावो मीनं, चरिस्सामो 'चर गतिमक्षणयोः' मुनित्वमाचरिष्यामः, 'समिच्च धम्म' सं एत्य | ४२३४॥ | समेत्य 'इण् गतौ' धर्म प्राप्य इत्यर्थः श्रुतधर्म, चारित्रधर्म चरिस्सामो, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिा 'उज्जुकडे ऋजुभावं कृत्वा । | 'सोधी उज्जुयभावस्से'ति, णियाणछिपणे'त्ति 'दाव् लवने' प्राणातिपातादिषन्धकरणरहितः छिन्नवन्धनोऽभिधीयते, अप्रमत्त-151 | संयत इत्यर्थः, 'संथवं जहिज्ज' संस्तवो शिविधा-संवाससंस्तवः वचनसंस्तवच, अशोमनैः सह संचासः, वचनसंस्तवश्च तेषा CE%BERRESir दीप अनुक्रम [४९५५१०] EARIES [247] Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: चूर्णी प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४९४५०९|| श्रीउत्तरा० मेव यः तत्परित्यजेत्, 'अकामकामे' अकाम:-अपगतकामः, कामो द्विविध:- इच्छाकामो मदनकामश्च, अपगतकामस्य या हि इच्छा तां कामयति, सा च कामेच्छा मोक्षं कामयतीति, प्रार्थयतीत्यर्थः, 'अण्णायएसी परिब्वए' अज्ञातैपी, अज्ञातमज्ञातेन एषते-भिक्षते असौ अज्ञातैषी, निश्रादिरहित इत्यर्थः, परिव्रजेत्-समन्ताद् व्रजेत्, सर्वप्रकारं सर्वभावेनेत्यर्थः, य एवंगुणविशिष्टः समिक्षु०स भिक्षुर्भवति। 'राओवरयं चरिज्ज लाढे॥४९५-४३०॥ इत्यादि, रात्रादुपरतं घरे, किमुक्तं भवति', रात्रौ न भुरके, रात्रौ | ॥२३५॥ गतादि क्रियां न कुर्यात विरते बिरतीभावात, विरतिग्रहणाच्चारित्रं गृह्यते, पंच महाव्रतादिकं कर्मचयरिक्तीकरणे चारित्रं, | वेदं वेत्तीति वेदवित् , वेदः श्रुतज्ञानं, संपन्नो भवेदित्यर्थः, अत्ता रक्षितो चारित्रात्मरक्षितो भवेत, प्राज्ञो-विदुः, संपन्नो आयोपायविधिज्ञो भवेत्, उत्सर्गापवादद्रच्याचापदादिको य उपायः, 'अभिभूय परीसहान्' अभिभूय तिरस्कृत्य, 'सव्वदंसी' आ| त्मवत्सर्वदर्शी भवेत्, 'जे कम्हिविन मुच्छिए' यः कस्मिंश्चिदपि न मूर्छितो भवति, न रागं गच्छतीत्यर्थः, प्रतिपक्षेण द्वेष न | गच्छतीति स भिक्षुरिति।। अकोसवहं०॥४९६-४२०॥ इत्यादि, एवं वक्ष्यमाणेषु रागद्वेषविप्रमुक्तेन भवितव्यं, यदि कविदाक्रोश-IN | यति धन्धं वा फरोति, तद्विचिंतयित्वा आलोच्य धीरो भवेत्, न क्षोमः करणीयः, कथम् ?- आक्रोशति मा बालः तत्र लाभ एव मन्तव्यः, दिष्टया या यद् मा न ताडयति, ताडयत्यपि बाले लाभ एव मन्तव्यः, दिष्टथा च यन्मां जीवितान्न व्यपरोपयति, एवमादि, तथा च "आक्रुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं का कोप: स्यादनृतं किन्नु कोपेन' ॥१॥" मुनिर्भूत्वा गच्छेत, ज्ञानी भूत्वा संयम अव्यग्रमनाः चरेत्, यापयबित्यमात्मगुप्तः, सचारित्रात्मको गुप्तो भवेत् इति, अन्यग्रमनसा असंप्रहृष्टेन च भवितव्यं, कथं , दुःखे समुत्पन्ने न शोकान भवितव्यं, सुखे च समुत्पन्ने न प्रहृष्टेन भवितव्यं, एवं सर्वमपि 5A5%25 दीप अनुक्रम [४९५५१०] -940 [248] Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१] भिक्षलक्षण गाथा ||४९४५०९|| श्रीउत्तरा० रागद्वेषात्मकं यः सहते क्षमते स भिक्षुर्भवति । 'पंतं सयणासणं०॥४९७-४२०॥इत्यादि, एषु च कारणेषु अरक्तद्विष्टेन भवितव्यं, चूर्णी । पंतं-निकृष्टं अशोभनं शयनासनानि भजित्वा-सेवित्वा 'भज सेवायो' शीतोष्णं च सेवित्वा, नानाप्रकारं च दंसमसकादि प्राप्य, नानाप्रकारं मकुणपिशुकपद्पदादि, अन्यग्रमनसा असंग्रहृष्टेन भवितव्यं, रागद्वेषविप्रमुक्तेनेत्यर्थः, य एतत् कृत्स्नं परीससमिक्षु हजातं सहते स भिक्षुर्भवति॥'नो सक्कियमिच्छह ॥४९८-४२०॥ इत्यादि, एषु च सत्कृतादिषु रागो न करणीयः, यदि कश्चि॥२३६॥ त्सत्कारं करोति, अभ्युत्थानादिकं, न तदिच्छेत्-न प्रार्थयेत्, शोभनो कारः सत्कारः, स च न पूजामिच्छति, वस्त्रादिकं, न वन्दन-| कमिच्छति, किमुक्तं भवति -एषु क्रियमाणेष्वपि रागं न गच्छतीत्यर्थः, सः संयतः सुव्रतस्तपस्वी च भवति, यश्च ज्ञानादिसहितः चारित्रात्मगवेषी च स भिक्षुर्भवति। जेण पुणो जहाइ जीवियं ॥४९९.४२०॥ इत्यादि, 'ओहांक त्यागे' येन प्रकारेण संयमजीवितं परित्यजति तन करोति, येन मोहनीयः कर्म बध्नाति तच्च न करोति, कृत्स्नं-सम्पूर्ण, कृष्णं च अशुभमित्यर्थः, 'नियच्छति' प्राप्नोति बध्नातीत्यर्थः, तच्च न, जहाति, नरनारीप्रहाणार्थ परित्यागः, यच्च कौतुकं न गच्छति स भिक्षुर्भ-| का वति । 'छिन्नं सरं भोमं ॥५००-४२०॥ इत्यादि, एतानि च जान अपि न प्रकाशयेत्, छिन्नमिति वस्त्रच्छेदः काष्टादीनां वा छेदान्, शुभाशुभं न प्रकाशयेत्, अधिकरणमितिकृत्वा, एवं सर्वत्र अप्रकाशता, पुरुषः दुंदुभिस्वरो काकस्वरो वा एवमादिस्वरव्याकरणं, भौमादित्वात् भौमः, अकाले जे पुप्फफलं, स्थिराणां चलनं, प्रतिमानां जल्पनादि, अन्तरिक्षादिग्दाहपांशुवृष्टयादयः | दिव्या ग्रहयुद्धादि, 'सुविणं' स्वप्नलक्षणं, तथा पुरुषस्त्रीहस्त्यश्वादिलक्षणं, दण्डो यो यस्मिन् अपराधे भवति, 'वत्थुविज्जा | वास्तुलक्षणं, पुरुषादीनां अंगविकारः, कस्य कीदृशं अंगं शोभनं भवति, बहु ऋषगन्धारादीनां स्वराणां विजया अभ्यास EASEASEARSARIES FAGARCAE-%AAAAAC दीप अनुक्रम [४९५५१०] ॥२३६॥ [249] Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१] गाथा ||४९४ ५०९|| दीप अनुक्रम [ ४९५ ५१०] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१५]. मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०]], निर्युक्तिः [३७४...३७८/३७४-३७८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी १५ समिक्षु ॥२३७॥ इत्यर्थः एवमादिभिर्विद्यादिभिर्यो न जीवति स भिक्षुर्भवति । 'मंतं मूलं० ॥ ५०२४२० ॥ इत्यादि, मन्त्रान् साधुकरणान् ज्ञात्वापि न प्रकाशयेत्, एवं मूलानि, तथा विविधान् वैद्यचिन्तान् वमन विरेचन धूमनेत्रस्नात्रादिकान् न प्रकाशचेत् तथा आतुरशरणं विचिकित्सार्थं न कुर्यात्, तं जाणणापरिष्णाए परिजाणिऊं अनंतरं पच्चक्खाणपरित्राए प्रत्याख्यानं करोति स भिक्षुर्भवति । 'खत्तियगण ० ॥५०२-४२० ॥ इत्यादि, क्षत्रिया - राजानः, गणा - मल्लगणादयः, 'उग्गा' दण्डपाशिकादयः, राजपुत्रा ब्राह्मणभोगिका, विविधाश्च शिल्पिनः एतेषां निःशीलानां प्रशंसां पूजनं वा न करोति स भिक्षुर्भवतेि । 'गिहिणो० ' ॥ ५०३ ॥ इत्यादि, गृहस्था ये प्रब्रजितेन दृष्टाः अप्रब्रजितेन वा, तेषां निःशीलानामिहलोकफलार्थं यः संस्तवं न करोति स भिक्षुर्भवति । 'सयणासण०' ।।५०४-४२०॥ इत्यादि, शयनासनपानभोजनानि, परकीयं यदि तं परो न ददाति प्रतिषेधयति वा, प्रतिषेधितो वा निर्वृत्तः सन् यः प्रद्वेषं न करोति स भिक्षुर्भवति। 'जं किंचाहार० ॥ ५०५-४२० ।। इत्यादि, यत्किचिदाहारं परतो लब्ध्वा यस्तेन आचार्योपाध्यायादि त्रिविधेन नानुकम्पति, 'जइ मे अनुग्रहं कुज्जा, साधु होज्जामि तारिओ' यदि मनसा एवं चिंतयति, वाचा सर्वादरेण यथापरिपाठ्या निमन्त्रयति, कायेन च परार्थेन ददाति स भिक्षुर्भवति, यः पुनर्मनसा वचसा कायेन च सुसंवृत्तः स भिक्षुर्भवति । 'आयामगं चेव० ॥ ५०६-४२० ॥ इत्यादि, आयामादि प्रसिद्धमेव नीरसं पिंडं पानकं वा लब्ध्वा 'णो हीलये' न द्वेषं गच्छेत्, प्रान्तकुलादि च यः परिव्रजति पर्यटति स भिक्षुर्भवति । 'सदा विविधा० ॥ ५०७ ॥ इत्यादि, शब्दा विविधा नानाप्रकारा लोके भवन्ति, दिव्या मानुष्यकाः तैरश्वाच भीमा भयानकाः भयमैरवाः सुतरां उच्चासनका ओराला महंगा उपसर्गादिषु भवंति यस्तान् श्रुत्वा सतेन न बीमेति स भिक्षुर्भवति । 'वायं विविहं०' ॥५०८-४२०॥ इत्यादि, वादं विविधं नानाप्रकारं समिच्च सं एत्य-ज्ञात्वा [250] भिक्षुलक्षणं ॥२३७: Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१५], मूलं [१...] / गाथा ||४९४-५०९/४९५-५१०||, नियुक्ति : [३७४...३७८/३७४-३७८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत चूगी सूत्रांक [१] गाथा ||४९४५०९|| - श्रीउत्तरा०'लोए' लोकप्रवाद थुत्वा 'सहित' सहितो शानदर्शनचारित्रे खेयाणुगतो-खेदेन अनुगतो, खेदो विनयवैयावृत्य स्वाध्यायादिषु, प्रज्ञश्च एतेष्वेव कोवियप्पा-कोविदात्मा ज्ञातव्येषु सर्वेषु, परिचेष्टित इत्यर्थः, प्राज्ञोऽभिभूय परीपहान्, आत्मवत् सर्वदर्शी, उप शान्तो विहेडनं प्रपञ्चनं, वाचा कायेन च परापवाद इत्यर्थः, अनपवादी पूर्वोक्तगुणायुक्तच यः असौ भिक्षुर्भवति । 'असिप्प-1 सभिक्षु जीवी' ॥५०९-४२०॥ इत्यादि, न शिल्पेन जीवति, नास्य गृहं विद्यत इत्यगृहः, अभित्रः जितेन्द्रियः बाह्याभ्यन्तरसंगविप्रमुक्तः3 ॥२३८ अणु-स्तोकं अल्प, अल्पकपायी, लघूनि-नि:साराणि निष्पावादीनि तान्यपि अल्पानि भक्षते, शरीरगृहमपि त्यक्त्वा एके राग-1X | द्वेषरहिता, एभिः गुणयुक्तो यः स भिक्षुभवति । इदानी नया:-णी प्रापणे, नयन्तीति नयाः, नयंति गमयंति प्राप्नुवंति वस्तु ये ते नयाः, अथवा द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको, अथवा निश्चयव्यवहारौ, अथवा सप्त नया, अथवा पंच नया, एकका शतभेद | एवं सप्त पंच वा नयनशतानि भवन्ति, अथवा ज्ञाननयश्चरणनयश्च, एवमेते आत्मीयेनाभिप्रायेण पस्तुगमका अस्मिन्नध्ययने भवंतीति । अयं ज्ञाननयः 'णायंमि गिहियब्वे ॥गाहा, अयं पुनश्चरणनया सव्वेसिपि नयाणा गाथा, इति परिसमाप्ती || | उपप्रदर्शने, बेमि-प्रवीमि आचार्योपदेशात्, न स्वमनीषिकया ॥ पश्चदशमध्ययनं समाप्तम् ।। उक्तं पञ्चदशमध्ययनं, इदाणिं षोडशम, तस्य कोऽमिसम्बन्धः, सम्बन्धो वक्तव्यः, स सम्बन्धविविधः, तद्यथा-'सूत्र-|| # प्रकरणाध्याय' इत्यादि, सूत्रप्रकरणसम्बन्धी ऊौ, अध्यायसम्बन्धः भिक्षुगुणाः पञ्चदशेभ्यो वर्णिताः, भिक्षुश्च ब्रह्मचर्यव्यवठा स्थितो भवति, इह च पोडशेऽध्ययने ब्रह्मचर्यगुप्तयो वक्ष्यन्ति, अनेन सम्बन्धेन आयातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् दाव्यावर्ण्य नामनिफरणे निक्षेपे दशवंभचेरसमाहिद्वाणमिति णाम, दशशब्दस्य ब्रह्मशब्दस्य चरणशब्दस्य समाधिशब्दस्य स्था PERMERROREIGNERSA दीप अनुक्रम [४९५५१०] 1॥२३८॥ अध्ययनं -१५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१६- "ब्रह्मचर्यसमाधि" आरभ्यते [251] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [२-१२] गाथा ||५१० ५२६|| दीप अनुक्रम [५११ [५३८ ] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१६], मूल [२-१२/५११-५३८] / गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८]], निर्युक्ति: [३७९...३८५/३७९-३८५], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० नशब्दस्य च निक्षेपः कर्त्तव्यः, दश एकेन विना न भवन्तीति एकस्य तावनिक्षेपः क्रियते, स सप्तप्रकारः 'णामं ठेवणा० ॥ ३७९-४२१ ॥ चू इत्यादि, णामैककं देवदत्तादि, स्थापनैककं द्विविधं सद्भावे असद्भावे च सद्भावस्थापनैककं लेप्यहस्त्यादि, असद्भावे अक्खादि, ४ ब्रह्मसमाधि द्रव्यैककं सचितादि, मातृकापदैककं 'उप्परणेति वा० संग्रहैककं ग्रामादि, पर्यायैकक एको जीवपर्यायो नारकादि, अजीवपर्यायो वा है निक्षेपः ब्रह्मचर्या०५ गन्धादि, भावैककं औदयिको भाव इति । इदानीं दशशब्दस्य निक्षेप:- 'दससु अ छक्को० ॥३८०-४२२ ॥ इत्यादि, नामदशा दश १६ ॥२३९॥ नामानि देवदत्तयज्ञदत्तादीनि, स्थापनादेश स्थापनाथा (दशा) नां स्थापना, सद्भावे असद्भावे च द्रव्यदश दश सचित्तादीनि द्रव्यानि, क्षेत्रदश दश आकाशप्रदेशा दशसु वा क्षेत्रेषु यद् द्रव्यमवगाढं, कालदश दश समया दशसमयस्थितिकं वा यद् द्रव्यं, भावदशा पर्या यद्वयं (दशक), जीवपर्याया अजीव पर्यायाश्च, देशकालपर्याया,(क्रोधादयः) नरकादिगतयश्चत्वारः, साकारोपयोगोऽनाकारोपयोगथ, अमी जीवपर्याया दश, अजीवपर्याया रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाः शुभा शुभाश्व पर्यायाः॥ 'भं मी उ चउकं० ।। ३८१-४२२ ।। इत्यादि, नामब्रह्म ब्रह्म इति यस्य नाम, ठेवणारंभं वण्णुप्पत्ती जहा बंभचेरेसु, द्रव्यब्रह्म अज्ञानीनां वस्तिनिग्रहः, मोक्षाधिकारशून्यत्वात्, भावेऽपि वस्तिनिग्रहः एव ब्रह्मचर्यमभिधीयते ज्ञानिनां मोक्षपथास्थितानां तस्य रक्षणार्थममूनि वसत्यादीनि स्थानानि रक्षणयानि सूत्रा| मिहितानि । 'चरणे छक्को० ' ॥ ३८३-४२२॥ इत्यादि, चरणे पट्को निक्षेपः, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यचरणं द्विविधं गतौ भक्षणे च वर्त्तते, गतौ भूम्यां गच्छति, चरणे मोदकादीन् भचयति, क्षेत्रचरणं यस्मिन् क्षेत्र गच्छति भक्षयति वा, यस्मिन् वा क्षेत्रे चरणं व्यावएर्यते, एवं कालचरणमपि, भावचरणं गुणानां चरणं । 'समाधीए उ चउक्को० ॥३८४-४२२।। इत्यादि, समाधिशब्दस्य चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यसमाधिः येन द्रव्येण समाधिः उत्पद्यते, भावसमाधिः ज्ञानदर्शनचारित्रतपआत्मिका, स्थाप [252] ॥२३९॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान आगम भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) (४३) | अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८] | गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८|| नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउचराना (स्थान)शब्दस्य पञ्चदशप्रकारो निक्षेप नामं ठवणा०॥३८५-४२२॥इत्यादि,नामस्थापना यो यस्य नाम्नः अ), योग्य इत्यर्थः || [२-१२] स्थापनस्थापनं यो यस्य स्थापना), यथाऽऽचार्यगुणोपेत आचार्यः स्थाप्यते, द्रव्यस्थानं सर्वद्रव्याणां स्थानमाकाशः, क्षेत्रस्थानं निक्षेपः गाथा ब्रह्मचर्या || क्षेत्रमुखमाकाशमुख्यं तस्य यच्चात्मस्थानं, 'अद्धा' इति कालस्याख्या तस्य स्थानं समयक्षेत्र अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्ररूपं, ऊर्ध्वंस्थान ||५१० साधो कायोत्सर्गस्थानं, 'उपरतिस्थान' उपरमणमुपरतिः, प्राणातिपातादीनां विरतिरित्यर्थः, वसतिस्थानं साधोः स्थानं, स्त्री पशुपण्डकविवर्जिता वसतिः, संयमस्थानं संयमाध्यवसायविशेषाः, प्रग्रहस्थानं धनुषः खड्गस्य वा ग्रहणस्थानं, समपदं वैशाख५२६|| * मित्यादि, अचल स्थानं यस्मिन् स्थाने स्थितस्य चलनं न भवति, यथा सिद्धस्य, गणनास्थानं अक्षं एक दश शतं सहस्रमित्यादि, की संधनास्थानं अयं मूलेन सह संबध्यते वस्तुनि, न अग्रं, अग्रेण सह, मूलं वा मूलेन सह संबध्यते, भावस्थानं, सर्वेषां भावाना | मौदयिकादीनां जीवे स्थान, आश्रय इत्यर्थः ।। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापकस्य विषयः, स च अवसरप्राप्तोदीप पि न निक्षिप्यते, कुतः ?, सूत्रामावाद, असति च सूत्रे कस्य आलापकाः', सूत्रं च सूत्रानुगमे भविष्यति, सोऽनुगमो द्विविध:अनुक्रम | सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, निर्युत्पनुगमविविधः-निक्षेपनियुक्ति: उपोद्घातनियुक्तिः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिश्च, निक्षेपनियुक्तिः र अनुगतैव, उपोद्घातनियुक्तिः इमाहिं दोहिं मूलदारगाहाहिं अणुगंतव्या, तंजहा-"उद्देसे०"|गाहा।।" किं कविविहं०"। गाहा, एवं [५११ | सूत्रानुगमो सत्रालापकनिष्पनो निक्खचो सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिनेयाश्च युगपद्गच्छन्ति, तथा चोक्तं-'एत्थ य सुत्ताणुगमो सुत्तालाव५३८] | यकयो य निक्खेवो । सुत्तप्फासियनिज्जुची नया य पतिसुत्तमायोज्जा ॥१॥ सूत्राणुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेद-- "सुअं मे आउसं! तेण भगवया एवमक्खायं० (सूत्रं२-४४३) ॥ श्रुतं मया हे आयुष्मन्! तेन भगवता एवमाख्यातं, हे आयुष्मन्! २४०॥ ॥२४ ॥ FACAAAACARE । [253] Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) (४३) अध्ययनं [ १६ ], मूलं [२-१२/५११-५३८] / गाथा || ५१०-५२६/५११-५३८]], निर्युक्ति: [३७९...३८५/३७९-३८५], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः प्रत सूत्रांक [२-१२] गाथा ||५१० ५२६|| दीप अनुक्रम [५११ [५३८ ] श्रीउत्तरा० चूर्णो १६ ब्रह्मचयों० * ॥२४१ ॥ इति शिष्यामन्त्रणं, सत्स्वप्यन्येषु जात्यादिषु आमन्त्रणेषु आयुरेव गरीयः, कुतः १, आयुषि सति सर्वाण्येव जात्यादीनि भवति, के एवमाह--सुधर्मास्वामी, जम्बुनामानं शिष्यमाश्रित्य ब्रवीति, यथा मया भगवतः समीपे श्रुतं, अनेन शिष्याचार्यप्रबन्धः प्रदशितो भवति, अथवा श्रुतं मया आयुषि सति भगवता, जीवता भगवता एवमाख्यातमितियावत् अनेन क्षणभङ्गनिरासः कृतो भवति, अथवा श्रुतं मया आवसताऽनु, समीपे निवसता इत्यर्थः, अनेन गुरुकुलवासः ख्यापितो भवति, नित्यं गुरुकुलवासिना भवितव्यमिति, अथवा श्रुतं मया आमृपता, गुरुपादाविति वाक्यशेषः, विनयेन मया लब्धं इतियावत्, अनेन विनयमूलो धर्मः प्रदर्शितो भवति, 'इह खलु थेरेहिं' इत्यादि, इह अस्मिन् प्रवचने, खलु अवधारणे, इहैव नान्यस्मिन् प्रवचने, धर्मे स्थिरीक रणात् स्थविरा: तैर्भगवद्भिः स्थविरैः ऐश्वर्यादिसम्पदुपेतैर्दश ब्रह्मचर्यस्थानानि, प्रज्ञप्तानि कथितानीत्यर्थः, यानि भिक्षुः भिक्षुशव्दव पूर्वोक्तः श्रुत्वा निशम्य, अवधार्येत्यर्थः, 'संजमबहुले' संयमः पृथिवी कायादिकः संवरः पंच महाव्रतानि समाधि:ज्ञानादिकः, बहुलशब्दः पुनः पुनः करोत्यर्थः, एतानि ब्रह्मचर्यावस्थितः सर्वाण्येवाराधयति, तथा च यः गुप्तो मनोवाक्कायैः, तथा इन्द्रियैः ब्रह्मचर्ये च गुतः सदा अप्रमत्तो विहरेत्, सः अमृनि स्थानानि आराधयतीति । इदानीं शिष्यः पृच्छति -कतराणि | तानि दश ब्रह्मचर्यस्थानानि ० १ || (सूत्रं ३- ४२४) ॥ आचार्यो निर्वचनं करोति-अमूनि तानि वक्ष्यमाणानि, तंजहा- 'नो इत्थीपसुपंडग' इत्यादि, 'न' इति प्रतिषेधे, स्त्रियः प्रसिद्धाः पशवः गावीमहिपीअश्वगर्दभादि, पण्डका-नपुंसकाः, संसक्तानि -आकीर्णानि तैः, शयनानि स्थानानि च एतानि न सेवते यः स निर्ग्रन्धो भवति, 'तं कथमित्यादि, तत्कथमिति चेत् (कथं एतानि स्थानानि सेवमानो न निर्ग्रन्थो गवति ?, उच्यते एतानि स्थानानि सेवमानस्य ब्रह्मचर्ये शंका भवति, सेवामि न सेवामीति शङ्कामाचं. [254] स्थाननिक्षेपः ॥२४९॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६ ब्रह्मचया० % आगम भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) (४३) | अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८]] / गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८||, नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा कांक्षा कतमा सेवामीति, किं दिव्या मानुष्याः तिरिची; कांक्षामात्र, विचिकित्सा मतिविप्लुतिः धर्मज्ञस्य, किं जायते सेवमानस्य, ' स्थान[२-१२] चूणा | कर्म बध्यते, असेवमानस्य न बध्यते, ईदृशी विचिकित्सा समुत्पद्यते, भेद संयमालभते, चारित्रखण्ड कमित्यर्थः, उन्मादं वाऽऽप्नु-1 निक्षेपः गाथा | यात्, ग्रहगृहीत एव भवेत, केवलिपन्नत्ताओ वा धर्माद् भ्रस्येत, धर्मो द्विविधः श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, अस्माद् द्विविधादपि धर्माद् । ||५१० भ्रस्यते, तस्माद्विदेत दोषजालं, ज्ञात्वा-णो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेविता भवति से णिग्गंथे. अयमपनयः।। तहा-'नो। ॥२४२॥ इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ से निग्गंधे भवति। (सूत्रं ४-४२५) । य: खीणां कथामपि न कथयति, सा च इत्थीण कथा ५२६|| चतुर्विधा भवति. तंजहा-जातिकहा कुल रूव० वत्थकहा, जातिकहा बंभणी खतिणी सोमणा असोभणा दा, कुलकथा उग्गादि दमिला मरहडिका, णवत्थं जं जंमि देसे सोभणं वा असोभणं वा तं कहयति, तत्कथमिति चेत् यतः ते सार्दू निवसतः शयनासन-12 | स्थानानि सेविन: दोपजालं भवति । तथा कथामपि तथा कथयति तदेव दोपजालं सविशेषतरं भवति, तस्मात् कथापि स्त्रीणां दीप IMIन कथनीया इति। 'नो इस्थीहिं सद्धिं संनिसिज्जागए विहरेत्ता भवति' (सूत्रं ५) । यः स्त्रीभिः सार्द्ध निसिज्जागतो न* अनुक्रम तिष्ठनि, तत्कथमिति चेत् यथा कथां कुर्वतः दोपजालं भवति तथा नैपद्यागतस्थापि,तस्मात् निषद्यागतेनापि स्वीभिः सार्द्ध न स्थात | व्यमिति । इन्द्रियाण्यपि न निरीक्षितव्यानि तासां, कस्मात्?, दोषजालभयान, 'एवं नो इत्थी' (सूत्रं७-४२६:) कुटुंतरे वा [५११ | कुंचिदादिसई सुणेत्ता(न)भवति स निग्रन्थो, पकेष्टकादि कुब्धं, केतुगादि भित्ती, वस्त्रादि दुष्यं, कुपितशब्दं रत इत्यर्थः, शेपशब्दा ५३८] गतार्थाः, एवमादयः शब्दाः खीणां न श्रोतव्याः, पूर्वोक्तदोपजालभयात, एवं पूर्वरतक्रीडितानि न स्मर्चव्यानि, पूर्वदोपजाल-18 | भयान, एवं नो इत्थीणं कुटुंतरे ठातितव्यं, पूर्वोक्तदोषजालभयादेव, एवं प्रणीतं रसभोजनं न भक्षयेत्, दोषजालभयात्, प्रणीतं % Re% [255] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१६], मूलं [२-१२/५११-५३८] / गाथा ||५१०-५२६/५११-५३८||, नियुक्ति : [३७९...३८५/३७९-३८५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: पापनिक्षेपः प्रत सूत्रांक [२-१२] गाथा ||५१०५२६|| १७ A भीउत्तरा० गलतस्नेह तैलघृतादिभिः । तथा अतिमात्रं यावत् आहारो नाभ्यवहरणीयः, अतिमात्राया अग्रणीतस्य कस्मादम्यवहरणं न चूर्णी | | क्रियते ?, उच्यते-पूर्वोक्तदोषजालभयादेव, तथा विभूपापि शरीरवस्त्रादिषु न करणीया, किमिति !, विभूषितशरीराः स्त्रीणां अ-1 HIभिलपणीया भवंति ततस्तदेव दोपजालमाप्नोति । तथा-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शेषु यः सक्ति न करोति स निग्रन्या भवति, कध-1 पापश्रमः | मिति चेत्, उच्यते--शब्दादिपु प्रसक्तस्य तदेव पूर्वोक्तं दोषजालमापद्यते । इदानीं एतदेवार्थः श्लोकः प्रदर्शयति । नयाः पूर्ववत् ।। उक्तंभचेरसमाहिठाणं षोडशमध्ययनामिति ।। दाणि सप्तदशं, तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, सम्बन्धो वक्तव्यः, स च सम्बन्धः त्रिविधः, तद्यथा-'सूत्रप्रकरणाध्यायः' इत्यादि, सूत्रप्रकरणसम्बन्धी उद्यौ, अध्यायसम्बन्धः षोडशमे दश ब्रह्मस्थानानि वर्णितानि तैः सम्प्रयुक्तः सुश्रमणो भवति, एवं श्रमणेन | कर्तव्यमिति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावण्यंते,नामनिष्फण्णे निक्षेपे पावसमणिज्जति पापशब्दो निक्षेप्तव्यः, श्रमणशब्दश्च, पाये छक' मित्यादि(३८५-४३१) पापशब्दस्य पदको निक्षेपः, नामादि, नामस्थापने पूर्ववत । द्रव्यपापं आगमनोआगमान्यां, आगमतः पापपदार्थज्ञः अनुपयुक्तः, नोआगमतः ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः सचित्तादि, सचित्तं द्विपदादि, द्विपदानां पापमनुष्यादि, पापः पापसमाचारः, अशोभनसमाचार इत्यर्थः, एवं सर्वत्र पापं अशोभनमाभिधीयते, | चतुष्पदानां शृगालादि, अपदानां विषवृक्षकिंपाकफलादि, अचिचानि एतान्येव जीवरहितानि, मिश्राणि एषामेव भागो जीव| सहितः भागो जीवरहितमिति, क्षेत्रपापं नरकानि, यस्मिन् वा क्षेत्र नरकादिकं वर्ण्यते, कालपापं अतिदुम्समादि, यस्मिन् वा | काले पापं वयते । 'भावे पावं इणमो० ॥ ३८७-४३२ ॥ इत्यादि, भावपापं इमं प्राणातिपात: मृषावादः अदचादानं | दीप अनुक्रम [५११५३८] Lik*-* ॥२४३॥ 1ASI अध्ययनं -१६- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१७- "पापश्रमणिय" आरभ्यते [256] Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९||, नियुक्ति : [३८६...३९१/३८६-३९१], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ॥५२७५४७|| १७ श्रीउत्तरा० अब्रह्म परिग्रहः, क्रियते, तानि च शब्दादीनि पापस्थानानि अभिधीयते, कारणे कार्योपचारः, तैः पापं बध्यते इति, ततस्तानि || चूणा पापस्थानानि अभिधीयते, यानि च सूत्रोक्तानीति, इदानीं श्रमणशब्द:-समणे चउक्कनिक्खेवो' ॥ ३८८-४३२ ॥ निक्षेपः इत्यादि, तस्य चतुष्को निक्षेपः, नामादि, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यश्रमणः निणवादि, भावश्रमणो ज्ञानी चरित्रयुक्तश्च | पापश्रम. 'जे भावा० ॥३८९-४३६ ।। इत्यादि, 'एयाई पावाई० ॥ ३९१-४३६ ॥ इत्यादि, एतद्गाथाद्वयं गतार्थ, ये भावाश्चाशोभना ॥२४४॥ इहाध्ययने वर्णिताः तान् सेवमानो पापश्रमणोऽभिधीयते, उक्तो नामनिप्फण्णो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापकस्य विषयो, अस्माद् यावत् सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, एतत् पूर्ववद् द्रष्टव्यं, सूत्रं चेदं-'जे केह उ (मे) पब्बडए.' ।। ५२७-४३६ ।। इत्यादि, यः कश्चित् प्रबजितः अनिर्दिष्टस्वरूपः तस्येदं विशेषणं, निर्ग्रन्थो बाह्याभ्यन्तरग्रन्थविप्रमुक्तः, बाह्यो ग्रन्थः द्विपदच| तुष्पदहिरण्यसुवर्णादिकः, अभ्यन्तरः क्रोधादि, श्रमणधर्म श्रुत्वा 'विनयोपपन्नो' ज्ञानदर्शनचारित्रउपचारविनयसम्पन्नो इत्यर्थः, 'सदर्लभ लभेज्जा (लहिउं) बोधिलाभ' संवेगवैराग्यसंम्पन्नः संयम प्रति यतितमारब्धः, स एवंगणविशिष्योऽपि भूत्वा चरित्रावरणीयकर्मोदयात सीदितुमारब्धः यथामुखं विहरति, तत्र चोदित:--कि स्वाध्यायादि न करोति ?, पश्चात सीदतां यानि जीवचनानि तान्यसौ वक्तुमारब्धः 'सिज्जा दढा० ॥२२८-४३६।। इत्यादि, शय्या-वसतिः, सा च मे दृढा निरूप्यते, तथा निरसं MITR४॥ पावरणाणि च विद्यन्ते, अन्नपानादि च लभ्यते, न कश्चिदतिशयो विद्यते, न च बहुथुताल्पश्रुतयोः कश्चिद्विशेषः, ततः किं मम 18] गलतालुविशोषणेण, निर्धर्मवचनमेतत, पापश्रमणोऽपि स एव अभिधीयते, एतानि च पापानि कुर्वन् पापश्रमणोऽभिधीयते । 'जे केइ उ' ॥५२६-४३६।। इत्यादि, निद्राशील निद्रास्वभावः, निद्रां प्रकामशः सेवते, भुक्त्वा पीत्वा च निरपेक्षं स्वपिति, न स्वा | दीप अनुक्रम [५३९५५९] PRATEEcit: [257] Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९||, नियुक्ति : [३८६...३९१/३८६-३९१], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा चूर्णी १७ सूत्रांक [१२...] गाथा ॥५२७५४७|| पापश्रमः ॥२४॥ ध्यायादि करोति, असौ निद्राप्रमादे वर्तमानः पापश्रमणो भवति । आयरिय०॥५३०-४३६।।इत्यादि, श्रुतं विनयं च यैः शिक्षा-15 पितः तानेव खिंसति-परिभवति बाल:-अज्ञः,असावपि पापो भवतीति । आयरिय० ॥५३१-४३६॥इत्यादि, तथा आचार्योपाध्या-18 पापश्रमणं ४२५शा इत्यादि तथा आचापापाच्या लक्षणानि यानां सम्यक प्रतिपत्ति न करोति, यश्च न सम्यक् प्रतिपूजयति, स्तब्धश्च भवति,असौ पापो भवति। संमद्दमाणे०॥५६२-४३६॥ इत्यादि, तथा जीयेषु च यः निरपेक्षः सन् संमर्दयन् अणायुत्तो गच्छति, पाणिग्रहणाद्द्वीन्द्रियादयः प्रसाः परिगृहीता, चीजहरितग्रहणात् स्थावराः, यश्च असंयतः संयत इति आत्मानं मन्यते असावपि पापो भवति । 'संधारं०॥५३३-४३६।। इत्यादि। संथारे यत्र सुप्पते, फलग-शयन उपविशनं बा, पीढं उपविशनमेव, निषद्या पायकंबलादि वा,एतत् सर्व अपमज्जित्ता आरुभती,तथा| ग्रहणं स्थापनं अपमज्जित्ता यः करोति स पापो भवति। दवदवस्स०॥५३४.४३६।।इत्यादि,निक्कारणमेव त्वरितगामी, युगान्त- | रप्रलोकी उपयुक्तश्च न भवतीत्यर्थः, तथा प्रमत्तश्च अन्यतरेण प्रमादेन पुनः पुनर्भवति, उल्लंघनं पाटनमन्यतरस्य सत्चविशेषस्य रोपाविष्टः करोति, चंडो-रोषणः, नित्यं रोषणशीलच यः स पापो भवति । पहिलेहेइ०५३५-४३६||इत्यादि, तथा प्रतिलेखना | च यः करोति प्रमत्तः, अन्यतरेण प्रमादेन, पादकंवलादि च न प्रतिलेखयति, तदपि दोषदुष्टं अणायुक्तं प्रतिलेखयति यः स पापो भवति । 'पडिलेहेइ० ॥५३६|| इत्यादि, तथा प्रतिलेखयति प्रमत्तः, किंचिन्मनोहरकलरिभितादि शब्दं श्रुत्वा गुरुणा णोदितः, अज्जो न वट्टति, ततस्तमेव गुरुं परिभवति यः स पापो भवति । बहुमाई.॥५३७-४३६।।इत्यादि, बहुमायी-सर्वत्र प्रयोजनेषु मायया व्यवहरति, न सुद्धहदयः, प्रकर्षण मुखेन अरिमावहतीति मुखरी, तादृशं भाषते येन सर्व एव अरिर्भवति, तथा स्तब्धः15 ॥२४५॥ | लुब्धश्च, यथा मायया क्रोधेन मानेन लोभेन च न क्वचित् किंचित्करोति निग्रह, एतदुक्तं भवति-सर्वमेव प्राणातिपातादि करोती % दीप अनुक्रम [५३९५५९] 94% %2.0 [258] Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५२७ ५४७|| दीप अनुक्रम [ ५३९ ५५९] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [१७], मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९|| निर्युक्तिः [३८६...३९१/३८६-३९१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्री उत्तरा० चूण १७ पापश्रम० ॥२४६॥ त्यर्थः, न कचित् विवेको विरतिर्वा विद्यते, न च संविभागशीलः, एतदोषदुष्टत्वात् न कस्यचित् प्रिया, असौ पापो भवति । 'विवार्य च० ॥५३८-४३६ ॥ इत्यादि, खामितविउसिताई अधिकरणाई उदीरेति, अन्येषामुपशान्तानामिति विग्रहः, उदीरयति, अधर्मशीलत्वात्, अदुवा अथवा स्वपक्षं परपक्षं वा हंति, न्युग्रहे कलहे वा युक्तः - आयुक्तः, विग्रहः सामान्येन कलहो वाचिकः, यः एवंप्रकारः असौ पापो भवति । 'अधिरासणे० ||५३९-४३६॥ इत्यादि, स्थिरासनो न भवति, निकारणमेव इतश्चेतश्च बंभ्रमीति, 'कुच परिस्पन्दने' दास्ताः क्रियाः करोति येन परस्य मोहमुत्पादयति, सुद्धपुढवीए ण निसीएज्जत्ति एवम स्मरति, आसनोपविष्टेनोपयुक्तेन भवितव्यं तच्च तथा न करोति यः स पापो भवति। ससरक्ख० ॥५४०-४३६॥ इत्यादि, स्वपन् पादौ न प्रमार्जयति, संधारउतरपादौ (पट्टी ) न प्रतिलेखयति, संस्तारके च तिष्ठन् उपयुक्तो न भवति, सर्वत्र च तिष्ठता गच्छता च उपयुक्तेन भवितव्यं, यश्चैवं न करोति असौ पापो भवति । 'दुद्धदही ० ' ॥५४१-४३६॥ इत्यादि, विकृतिं अशोभनं गतिं नयन्तीति विगतयः, ताथ क्षीर विगत्यादयः, विगतीमाहारयतः मोहोद्भवो भवति, न च कथंचिदपि अनशनादि तपः करोति असौ पायो भवति । 'अत्थतमि य० ॥ ५४२-४३६॥ इत्यादि, अस्तमनकालेऽपि आहारं नित्यमाहारयति, यदि नाम कश्चिच्चोदयति किमिति भवं आहारं नित्यमाहारयति न चतुर्थषष्ठादि कदाचिदपि करोति ?, एवं चोदितः प्रतिचोदयति यः स पापो भवति । 'आयरिय० ॥ ५४३-४३६ ॥ इत्यादि, आचार्यपरित्यागी परपाषडसेवकः 'गाणंगणिए' गणा गणं संचरति जघन्येन अपूर्णपण्मासे निष्कारणे असौ गाणंगणिकोऽभिधीयते 'दुब्भूते' दुष्प्रा (दुष्टा) र्थो, दुष्टं अशोभनं भवनं यस्य, भवनं वर्त्तनं करणमित्यर्थः यः एवंप्रकारः स पापो भवति । 'सयं गेहं० ॥ ५४४-४३६ ॥ इत्यादि, स्वयं गृहं परित्यज्य प्रवज्यां गृहीत्वा परगृहेषु व्यापारं करोति, निमित्तादीनां च व्यापारं [259] पापभ्रमणं लक्षणानि ॥२४६॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५२७ ५४७|| दीप अनुक्रम [ ५३९ ५५९] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) मूलं [१२..] / गाथा ||५२७-५४७/५३९-५५९|| निर्युक्तिः [३८६...३९१/३८६-३९१], अध्ययनं [१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णौ १८ संयतीया. ॥२४७॥ करोति, एवं संयमं प्रति सीदन् पापो भवति 'संनाहपिंडे ० ॥ ५४५-४३६ ॥ इत्यादि, सन्नायपिंडं जेमेह जिह्वेन्द्रियासक्तः, सुखासक्तसमुदानं भिक्षापर्यटनं नेच्छति, एतच्च एतद्वयमपि न भवति, तथा गृहस्थासनानि नित्यं सेवति यः असौ पापो भवति । 'एयारिसे० ॥ ५४६।५४७-४३७ ॥ इत्यादि, वृत्तद्वयं ईदृश: 'पंच कुसीलसंवृत्तः' पंच इति पासत्थोसष्णकुसीलणितिय संसक्तरूवधरा इत्यर्थः, मुनीनां प्रवराणां हिडिमो निकृष्टो जघन्य इत्यर्थः एवंप्रकारस्य आत्मा साधुलोके विषममिव गर्हितो भवति, नासौ इहलोके पूज्यः, नापि परलोके, यः पुनरेतान् दोषान् वर्जयति यदा स सुत्रतो भवति मुनीनां मध्ये, तस्यात्मा साधुलोके अमृतमिव पूज्यते, अमृतं कियद्वर्णगन्धरसोपेतं वर्णबलपुष्टिसौभाग्यजननं सर्वरोगनाशनं अनेक गुणसम्पन्नं कल्पवृक्षफलवद मृतमभिधीयते, एयत्थविशिष्ट इहलोकं परलोकं च आराधयतीति । इति परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने च, गुरूपदेशात्, न स्वाभिप्रायेणेति । नयाः पूर्ववत् ॥ इति पापसमणं नाम सप्तदशमध्ययनमिति १७ ॥ उक्तं सप्तदशमध्ययनं इदानीमष्टादर्श, तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, सम्बन्धो वक्तव्यः, स च त्रिविधः, तद्यथा- 'सूत्रप्रकरणाध्याय' इत्यादि, सूत्रप्रकरणसम्बन्धौ ऊह्यौ, अध्यायसम्बन्धः सप्तदशमे पापश्रमणो व्यावर्णितः, इह पुनरष्टादशमे सुश्रमणो व्याव यते अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य अध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिष्फल्ने निक्खेवे संजईज्जे, 'निक्खेवो संजइज्जमि० ॥३९१-४३८॥ इत्यादि, संजयशब्दस्य चतुर्विधो निक्षेपः नामादि, यावत् शशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः त्रिविधः, एकभविकादि, भावसंजओ आगमतो नोआगमतो य, 'संजयनामं गोयं वेयंतो० ॥ ३९३ ४३८॥ इत्यादि, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेप: । इदानीं सूत्रालापक इति, अस्माचावज्ज्ञेयं यावत् सूत्रं - 'कंपिल्ले नयरे० ' ॥५४८ || इत्यादि, नियुक्तिगाथाः सूत्रगाथाश्च अध्ययनं -१७- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन - १८- "संयतीय" आरभ्यते [260] संयताघिकारः ॥२४७॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१८], मूलं [१२..] | गाथा ||५४८...६००/५६०-६१३||, नियुक्ति : [३९१...४०४/३९२-४०४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक संयताधिकारः चूणौं । ARC [१२...] गाथा ॥५४८६००|| A श्रीउत्तरा०प्रायसः प्रकटार्थी एव, नियुक्तिकारः सूत्रोक्तमेवार्थ क्वचिदनुवर्तते, अतः परं गाथानुसारेण प्रवेश: आख्यातकप्राय प्रायः भवि- प्यति, सो य संजओ राया कहिं आसी', कहिं वा तेण साहुचणं लद्धं , त भण्णति 'कंपिल्लपुर ॥३९४-४३८॥ इत्यादि, कंपिल्लपुरं नयरं, तत्थ य संजतो नाम राया, सो कइया मिगवहाए णिग्गतो चउन्विहेणं सेनेणं हयेहिं गएहिं रहेहिं पुरिसेहि य, | संयतीया | तदेव चउन्विहं सेनं नासीरं भवइ, तस्स य कंपितपुरवरस्स समीवे केसरं नाम उज्जाणं, धणघडियकडच्छायं, तेण राइणा ते मिगा| ૨૪૮ समंततो परुद्धा संता केसरुज्जाणं पविट्ठा,अप्फोयमंडवे गद्दभालीणाम अणगारो झाणं झियायमाणो चिठति, अप्फोव०॥५५२-४३९ इति, किमुक्तं भवति?-आकर्णिी, वृक्षगच्छगुल्मलतासंछण्णे इत्यर्थः, सो य राया गच्छगते मिगे वधेति, तेसि च मिगाणं कति मिगा| | भीता तेसिं सरणमिव मग्गमाणा उपगता, तेण राइणो अच्छरीयमिति चिंता जाता-किं मण्णे इत्थ कोइ होज्जा, ततो राया आसगतो ते मिगे हए अहए य पासति, तं च साधु दट्टण संभंतो भीतो भणति-अहो मया मन्दपुण्णेण मन्नेऽनगारो विधितोऽतिरसगिद्धेण 'धत्तुणा' घातणसीलेनेत्यर्थः, सो राया, आसं विसज्जहत्ता०॥५५५-४४०॥ तं साहुं विणएणं बंदिऊण अवराहं तं तु खामेति राया, ण जाणिया तुन्भे तो सरो यत्तितो मया,'अह मोणेण अह मोणमस्सितो सो अणगारोण वाहरति तस्स, तब्भभयभीतो इणमत्थं सो उदाहरति-'कपिल्लपुराहिबई' ॥ ४००-४४० ॥ इत्यादि, सर्वा नियुक्तिगाथाः प्रकटार्थाः, सूत्रगाथा अपि प्रायसः प्रकटार्था एव, यद्वक्तव्यं तदुच्यते-ततो सो संजओ राया गहभालिस्स अतिए चेच्चा रज्जं पच्चइतो,ग्रामसमुदायो राष्ट्रमभिलघीयते, तो तं पव्वइतं सोऊण तत्थ खतिओ देवलोयचुतो सारिसतो वीमसाए पुच्छति-जहा ते दिस्सती रूवं, पसन्नं ते जहा है दीप अनुक्रम [५६०६१३]] MEXICORNSRC -CROCARECOR ॥२४८॥ [261] Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१८], मूलं [१२..] | गाथा ||५४८...६००/५६०-६१३||, नियुक्ति : [३९१...४०४/३९२-४०४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक क्रियाद्युप [१२...] गाथा ||५४८६००|| श्रीउत्तरामणो । किनामे किंगोत्ते, कस्सट्ठाए व माहणे । कह पडियरसी युद्धे, कहं विणीयत्ति बुच्चसि ॥ ५६८-४४३ ॥ उच्यते--संज-11 क्षत्रियायचूणौँ 18 ओ नाम नामेणं, अहं (तहा) गोषण गोयमो । गद्दभाली ममायरिया, बिज्जाचरणपारगा ॥ ५६९,४४३ ।। जम्हा सव्ये पाणिणोX देशा ण हमि तम्हा माहणेत्ति बुच्चामि, तथा पुनरपि क्षत्रिय आह-क्रियावादिणं आसीतं शतं अक्रियावादिना चतुरशीतिः अज्ञानिकसंयतीया. वादीनां सप्तषष्टि वैनयिकानां द्वात्रिंशत्, एभिश्चतुर्भिः स्थानः एकान्तवादिनः 'मितज्ञा' मितानिनः मितशीलमुपचारः, मितं ॥२४९॥ परिमितं स्तोकमित्यर्थः, ज्ञानिना, कथं एवमेते परमार्थ ज्ञास्यन्ते?, कथं वा परस्योपदेश दास्यति', अज्ञानाच्च पापं कुर्वन्ति, ततो पडंति णरए घोरे, पुनर्धर्ममाचरन्ति ते दिव्यां गतिं गच्छन्ति, सव्वे ते विदिता मज्झ इत्यादि गताथों, पुनरपि क्षत्रिय आह| अहमासी ब्रह्मलोके कल्प महाप्राणे विमाणे द्युतिमा वरिससतोचमा, किमुक्तं भवति-पल्योपमसागरोपमैर्यत्रोपक्रमः क्रियते आयुए, पाली मर्यादा, या पन्योपमैः स्थितिः सा ली, या पुनः सागरोपमैः स्थितिः सा महापाली, सोऽहं बहूनि सागरोपमानि ब्रह्म-I7 लोककल्पे भोगान् भुक्वा इदं मानुष्यकं भवमायातः, इहापि मम ज्ञानमस्ति येनात्मनः परेषां च आयुं जाणामि, तंजहा-स एव | क्षत्रियः संजयस्योपदेशं ददाति, नानाप्रकारां रुचिं च छदं च परिवर्य संजतो भवति जिनमते, एकग्गचिसो भव इत्यर्थः, ये च | अनास्ता सा ज्ञात्वा परिवर्जयेत्, ये च साधिकरणप्रश्नाथ तेषां प्रतिक्रमे, अहो विस्मये, अहो भवां संयमे उत्थिता, अहोरात्र | | सर्वमित्यर्थः। एतज्ज्ञात्वा तपः कुरु, यच्च मां पृच्छसि तव तं कथयामि, क्रिया अस्तित्वं तत्र रुचि कुरु, कथं , अस्ति माताs. | स्ति पिता अस्ति सुकृतदुष्कृत्तानां कर्मणां फलविपाक इति, नास्तित्वं च परिवर्य, सम्यग्दृष्टि त्वा धर्ममाचर, एतत्पुण्यपदं| ॥२४९॥ श्रुत्वा कृत्वा च ये मोक्षं गता तानहं कीर्तियिष्यामि स्थिरीकरणार्थ, भरहोवि भरहवासं चेच्चा कामाणि पचहए इत्यादि, एव दीप अनुक्रम [५६०६१३]] CARE-RESIEX SHEKHARA [262] Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१८], मूलं [१२..] | गाथा ||५४८...६००/५६०-६१३||, नियुक्ति : [३९१...४०४/३९२-४०४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||५४८६००|| १९ श्रीउत्तरा। मादाय धीरा धर्म कृत्वा मोक्षं गताः, ये पुनरहेतुभिर्वर्तन्ते उन्मत्तका इव विचरन्ति, एतत् शुभाशुभं विशेषं गृहीत्वा ये धीरा मृगापुत्रचूर्णी बुद्धिमंतो दृढपराक्रमाः ते शुभं प्रति प्रयतते, ये पुनरन्ये ते विपरीतं कुर्वन्ति, एतज्ज्ञात्वा मया आणिदाणखमचि-अनिदाणमय निक्षेपादि मृगापुत्रीये न्धस्तरक्षमा तत्समर्थास्तनिष्पादका, यद्वा अबन्धामिका सत्यभाषाभाषिता, एतत् कुर्वतः विष्वपि कालेषु परमां गतिं गताः, ये पुनरहेतुभिः वत्तेन्ते ते कथं शुभा गति यास्यन्तीति,शेष तदेव,नयाः पूर्ववत्।संजइज्जं अष्टादशमध्ययनं परिसमाप्तमिति१८॥ ॥२५०॥ उक्तं अष्टादशम्,इदानीमे कोनविंशतितमम् ,अत्र सम्बन्धः,अष्टादशमे भोगऋद्धीपरित्यागात् सुश्रमणो भवति, इहापि अप्रतिक-| मशरीरत्वात् सुतरां श्रमणो भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावj नामनिष्पन्ने निक्षेपे मियापुत्तिज्ज, मृगशब्दः पुत्रशब्दश्च निक्षेप्तव्यः, "णिक्खेवो अमिआए०॥४०५-४५१॥ इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ । इदानी नामनिरुक्ति प्रवीति-मिगदेवीपुत्ताओ०४०८-४५१॥इत्यादि, गतार्था, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापक इति, अस्मात्तावद्वक्तव्यं यावत्सूत्रं निपतितं, सूत्रं चेदं-'सुग्गीवे णयरे ॥६०१-४५२।। इत्यादि, सूत्रोक्तमप्यर्थ नियुक्तिकारः पुनरपिाद प्रवीति, किं ?, द्विद्धं शु(सुच)द्धं भवतीति, "सुग्गीचे णगरे' इत्यादि आख्यानकगाथाः प्रायसः गतार्था, 'उण्णंदमाण' इति 'टुनदि समृद्धी' हृदयेन तुष्टिबहुमानो भोगसमृद्धा सा तुल्यो नान्य इति, दोगुंदक इति त्रायस्त्रिंशदेवा नित्यं भोगपरायणा ते दोगुंदगा इति भण्यन्ते, एवं सोऽवि नित्यं भोगपरायण इति दोगुंदगा, देहति-पश्यति, संनिणाणमिति संशिनः ज्ञानं संशिज्ञानं ॥२५॥ तत्समुत्पन्नं, जातिस्मरणमित्यर्थः, तेन जाइस्मरणेन स्मरति यथा मया अन्यस्मिन् जन्मनि संयमः कृत इति, पच्छा पुरा व जहि SAHASRe%-ॐ AGRAA% CARRANG दीप अनुक्रम [५६०६१३]] अध्ययनं -१८- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -१९- “मृगापुत्रीय" आरभ्यते [263] Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [१९], मूलं [१२..] | गाथा ||६०१...६९८/६१४-७१२||, नियुक्ति : [४०५...४२१/४०५-४१९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६०१६९८|| महा नियंठिज्ज श्रीउत्तरायव्यो, पर्यन्तकालो पुरा लघुवयस एव, यद्वा युष्माकं पश्चात्पुरतो वा, परित्यज्य, शेषं तावदेव जायते इति, नयाः पूर्ववत् । एको. निग्रन्थचूर्णी नविंशतितमं मृगापुत्रीयं समाप्तम् ।। २९ । २० निक्षेपाः दाणिं विंशतितम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः , एकोनविंशतितमे अप्रतिकर्मशरीरता व्यावर्णिता, विंशतितमे महानिर्ग्रन्थत्वमिति व्यावर्ण्यते, अप्रतिकर्मशरीरश्च महानिर्ग्रन्थो भवतीत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य अध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद्वथा | वर्ण्य नामनिष्पने निक्षेपे महानियंठिज्ज, खुड्डगणियंठिज्ज भण्णति, क्षुल्लके अज्ञाते नो महान्तं ज्ञायते ततो क्षल्लकज्ञापनार्थ ।। ॥२५॥ 'नाम ठवणा०॥४२२.४६६॥इत्यादि, नामक्षुल्लक क्षुल्लक इति यस्य नाम, स्थापनाक्षुल्लकः असद्भावे अक्षादि, सद्भावे काष्ठका दिक्षुल्लकस्थापना, द्रव्यक्षुल्लकं ज्ञशरीरभव्यशरीरण्यतिरिक्तं सचित्तादि, सचित्तं प्रथमसमयोत्पन्न सूक्ष्मपनकजीवशरीरं, अचिनं परमाणु, मिथ तस्य पनकशरीरस्य परित्यागकाले केचित् सचित्ताः केचिदचित्ताः शरीरप्रदेशाः, क्षेत्रे क्षुल्लक आकाशप्रदेश, | यस्मिन् वा क्षेत्रे भुल्लकं व्यावयेते, योगः व्यापारः, स च शैलश्यवस्थायां क्षुल्लको भवति, भावानामौपशमिक एव क्षु|ल्लका, सर्वस्तोक इत्यर्थः, एतेसिं क्षुल्लकाना प्रतिपक्षे महंतगा होति, महंतशब्दोऽपि व्याख्यात एव । इदानीं नियंठशब्दस्य नि-18 क्षेप:-'निक्वेवो नियंठंमि०४२३-४६६।।इत्यादि, गाथाद्वयं गतार्थ, भावनिम्रन्थः पंचविधा पुलाकः बकुशः कुशीलः निग्रन्थः स्नातको, निर्ग्रन्थः स च पंचविधः एभिर्वक्ष्यमाणैः द्रव्यैरनुगन्तव्यः, तानि चामूनि-'पण्णवण वेय रागे' इत्यादि गाथात्रयस ॥२५॥ | गृहीतानि ।। ४२५१४२६१४२७-४७१, प्रज्ञापना-एषां पुलाकादीनां स्वरूपकथन, पुलाको पंचविहो पण्णचो, तंजहा-णाणपुलाए देसणपुलाए चरित्रपुलाए लिङ्गपुलाए अहामुहमपुलाए णाम पंचमो, तत्थ णाणपुलाओ ज्ञानस्य विराधनां करोति, कध, HAI-MAC4%AC-90sal SCI- दीप अनुक्रम [६१४७१२] - - -- अध्ययनं -१९- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२०- "महानिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते [264] Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ ७७२] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [ ४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४३] मूलसूत्र -[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः २० श्रीउत्तरा० २) कालविनयबहुमानादीनि न सम्यक्करोति, तथा ज्ञानस्य ज्ञानिनां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोति, एवं ज्ञानं पुलाकीकरोति, चण निस्सारीकरोतीत्यर्थः एवं सर्वत्र, दर्शन पुलाए शंकादिदोषसहितं दर्शनं धारयति, गुणाश्रोपबृंहणादयः, नात्र सम्यक्करोति, तथा दर्शनिनां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोति, एवं दर्शनं पुलाकीकरोति, चरिचपुलाओ चारित्रस्य देहे देशस्य खण्डनं सर्वखंडणं वा करोति, तथा चारित्रस्य चारित्राणां च निन्दाप्रद्वेषमत्सरादीनि करोति, एवं चारित्रं पुलाकीकरोति, लिंगपुलाओ लिंगं-रजोहरणमुखवत्रिकाणि तं अविधीए अणादरेण वा धारयति, निन्दाप्रद्वेष मत्सरादीनि (वा) करोति, एवं दर्शनं पुलाकीकरोति- निस्सारीकरोति, अहासहुमताए एषां चतुर्णामपि सूक्ष्मान् अतिचारान् करोति, एवं पुलाकी व्याख्यातः । बउसे पंचविहे पण्णचे, तंजा-आभोग उसे अणाभोगवउसे संबुडवउसे असंबुडबउसे अहासुडुमबउसे णाम पंचमे, बकुस इति किमुक्तं भवति ? - रागेण सरीरोपकरणादिषु विभ्रूषां करोति, शरीरे देशस्नानं सर्वस्नानं वा करोति, केशादिषु संयमनं वा करोति, शरीरस्य वर्णरूपगन्धादि वा करोति, तथा आभोगेन जानं करोति आभोगबकुशः, अनाभोगेन अजानन्- अज्ञानीभूत्वा करोति अनाभोगकुशः, संवृत्तः सन् करोति, चारित्रावरणीयकर्मोदयात्, असंवृतवकुशः, असंवृतो वा करोति असावसंवृतबकुशः, अथाप्य (यथा) सुमं वा यत्किचित्तावन्मात्रं करोति, एवं उपकरणवसत्यादिषु करोति । कुसीले दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पडिसेवणकुसीले कसायकुसीले य, पडिसेवणकुसीले जहा पुलाए, नवरं कुशीलशब्दोच्चारणं कर्त्तव्यं, कुत्सितं शीलं कुशीलं मूलोत्तरगुणेषु कषायकुशले पंचविधे चैव जदा पुलाए, नवरं कषायशब्दोच्चारणं कर्त्तव्यं, कषायानुगतं शीलं । नियंठे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा- पढमसमयनियंठे अपढमसमयनियंठे चरमसमयनियठे अचरमसमयनियंठे आहामुदुमणियंठे णामं पंचमं, निर्गतग्रन्थो निर्ग्रन्थः, कर्म्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरति दुष्टयोगाश्च, महा नियंठिज्ज ॥२५२॥ [265] पुलाकादीनां प्ररू पणादीनि. ॥२५२॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ _७७२] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० २० महा नियंठिज्जं ॥२५३॥ यद्वा ग्रन्थो बाह्योऽभ्यन्तरथ, बाह्यः खजनबान्धवधनकनकरजतादि, अभ्यन्तरः क्रोधादि, अस्माद् ग्रन्थान्निर्गतो निर्ग्रन्थः, असौ प्रथमसमयोत्पन्नः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थोऽभिधीयते, आहासुहुम नियंठो निर्ग्रन्थत्वं यत्किचित्तावन्मात्रेण वर्त्तते । सिणाते पंचविहे पण्णते, तं० -अच्छवी असबले अकम्मंसो संसुद्धणाणदंसणधरे अरहा जिणो केवली अपरिस्सावी, छवि-सरीरं, नास्य छवि विद्यत इति अच्छवि, कथं १, यथा नास्य शरीरे मनागवि मूर्च्छा विद्यते, परित्यक्तशरीर इत्यर्थः, न चान्यशरीरप्रतिबन्धकः १, अशवलः शुभाशुभकर्म्मविप्रमुक्तः २, घातिकर्माणि प्रति नास्य स्तोकोऽपि कर्म्मबन्धो विद्यत इति अकमांशः, धातिकर्माण्येव प्रति३, संशुद्धज्ञानदर्शनघरः क्षायिकज्ञानदर्शनधर इत्यर्थः ४, देवासुरमनुजेभ्यः पूजामईतीति अरह, क्रोधादिजयाज्जिनः, केवलं- सम्पूर्ण ज्ञानदर्शनं धारयतीति केवली, नास्य ज्ञानदर्शनसुखानि परिश्रवन्तीति अपरिश्रावी५ । पुलाकादीनां स्वरूपकथनमुक्तम्, इदानीं तेषामेव पुलाकादीनां | वेदचिंता - ते हि किं सवेदका अवेदका इति ?, वेदास्त्रयः- स्त्रीपुंनपुंसका इति, पुलाए सवेदए, गो अवेदए, जइ सवेदए कि थिअवेदए पुरिसवेदए नपुंसवेदए !, णां इत्थीवेदए, पुरुषवेद वा णपुंसगवेदए वा होज्जा, बउसा पडिसेवगा तीहिवि सवेदए होज्जा, कसायकुसीलए सवेदए अवेदए उवसन्तवेदए वा खीणवेदए वा होज्जा, सवेदए तीहिंपि वेदेहिं वा होज्जा, नियंठो स वेदए अवेदए होज्जा, जति अवेदए उवसंतवेदए वा खीणवेदए, जह सवेदए तीहिंपि सवेदए, सिणायए अवेदर खीणवेदए होज्जा। पुलाकादयः सरागा वीतरागाः इति प्रश्नः १, पुलाए सरावो, ण वीतरागो होज्जा, एवं जाव कसायकुसीले नियंठे णो सरागो होज्जा, वीतरागे होज्जा, उवसंतवीतरागे खीणवीतरागो वा होज्जा, सिणाते खीणवीतरागे नियंठे होज्जा । पुलाकादयः किं स्थितकल्पे अस्थितकल्पे भवन्तीति प्रश्ने, कः स्थितकल्पे १, पुरिमपश्चिमानां तीर्थकराणां तीर्थेषु नियमात् क्रियते अयं कल्पः [266] पुलकादिस्वरूपं. ॥२५३॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः प्रत सूत्रांक [१२...] २० गाथा ||६९९- महा ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ _७७२] श्रीउत्तरा० नियंठिज्ज ॥२५४॥ ततः स्थित कल्पोऽभिधीयते, शेषाणां अनियतः स चायं आचे लवकुदेसिय सज्जायर रायपिंड कितिकम्मा बत जेड पडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकल्पे ।। १ ।। कल्पशब्दच करणे वर्त्तते यथोक्तं "सामर्थ्य वर्णना काले, छेदने करणे तथा । औपम्यै चाधिकारे (वासे) च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः || १ ||" पुलाकादयः सर्वेऽपि स्थितकल्पे अस्थितकल्पे वा भवतीति, अथवा कल्पसामान्यात् पुलाए किं जिणकप्पे थेरकप्पे कप्पातीते वा होज्जा', णो जिणकप्पे, णो कप्पातीए, थेरकप्पे होज्जा, चउसे पडिसवणाकुसले य जिनक थेरकप्पे वा होज्जा, णो कप्पातीते, कसायकुसीले तिहिवि होज्जा, नियंठे सिणातो कप्पतीते, पुलाए सामाईयसंजरण वा छेदोवद्वावणियातो वा होज्जा, सेसेसु पडिसेधो, एवं बउसपडिसेवगावि, कसायकुसीलो आइल्लेसु चउस संजमेसु होज्जा, गो अहक्खाए, नियंठविणायगा णियमा अहक्खातसंजमे होज्जा । पुलाए कि पडिसेबर अपडिसेबए ?, णियमा पडिसेवते, जति पडिसेवए मूलगुणपडिसेबर उत्तरगुणपडिसेबर १, मूलगुणेसु पंचन्हं महन्त्रयाणं अन्नपरं पडिसेविज्जा, उत्तरगुणेसु दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अनतरं पडिसेविज्जा, बउसे उत्तरगुणपडि सेवए नो मूलगुणपडिसबए, पडिसेबणाकुसीले जहा पुलाए, उवरिल्ला तिष्णिवि अपडि सेवगा । पुलाए कतिहिं णाणेहिं होज्जा १, दोहिं वा तीहिं वा, चउसपडिसेवगादि, एवं कसायकुसीले णियंठया दोहिं वा | तीहिं वा चउहिं वा होज्जा, पुलाओ न अपुब्वाई अहिज्जेज्जा, बडो जहणेणं अह पवयणमाताओ उक्कोसेणं दस पुत्राई अहिज्जेज्जा, एवं पडिसेबओऽवि, कसायकुसीलो णियंठो य जहणेण अह पवयणमाताओ उक्कोसेणं चोदस पुय्वाई अहिज्जेज्जा, सिणातो सुयवतिरितो । पुलाओ तित्थे होज्जा, गो अतित्थे, एवं बउसपडिसेवगावि, कसायकुसीलो तित्थे वा अतित्थे वा होज्जा, जति अतित्थे तित्थकरो वा पत्तेयबुद्धो वा होज्जा एवं नियंठसिणायावि। पुलाओ कि सलिंगे होज्जा अण्णेसिं लिंगे वा होज्जा ?, [267] पुलकादिस्वरूपं. ॥२५४॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ _७७२] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण २० महा नियंठिज्जं ॥२५५ ।। दब्बलिंगं पद्दुच्च सलिंगे वा अनलिंगे वा होज्जा, भावलिंगं पडुच्च पियमा सलिंगे होज्जा, एवं जाव सिणातो । पुलातो कहिं सरीरेहिं होज्जा, तीहिं ओरालियांतेयाकम्मएहिं वउसपडिसेवगाणं बेडत्रियं अन्महियं, कसायकुसीलो पंचहि सरीरेहिं भयजाए, नियंठसिणाता जहा पुलाओ । पुलाओ कि कम्मभूमिए होज्जा० १, जम्मणं संतिभावं पडुच्च कम्मभूमिए होज्जा, जो अकम्मभूमीए होज्जा, एवं सेसावि, साहारणं पडुच्च कम्मभूमीए वा होज्जा अकम्मभूर्माए वा होज्जा, (पुलाओ कंमि काले होज्जा १ जम्मणं संतिभावं च पडुच्च सुसमदूसमाए दूसमसुसमाए दुसमाए) एवं सेसावि, साहरणं पडुच्च (छसुवि, जम्मेणं), सुसमदुस्समाए दूसमसुसमाए दूसमाए तिसुवि कालेसु होज्जा, उस्सप्पिणीए जम्मणं पटुच्च दुस्तमसुसमाए सुसमदुस्समाए य दोसु कालेतु होज्जा, महाविदेहे चतुर्थप्रतिभागे सर्वकालमेव भवेज्जा, संतिभावं पडुच्च पढमदुर्ग छट्टो य कालो य पडिसिज्झति, सेसेसु होज्जा, जम्मणं जंमि काले जन्मोत्पत्तिः, संविभावो यस्मिन् काले विद्यमानत्वं एवं बउसकुसील नियंठसिणायावि साहारणं पटुच्च सव्वत्थ होज्जा, णवरं नियंठसिणाताण साहरणं णत्थि । पुलाए कालगते समाणे कहिं उववज्जेज्जा ?, जहणेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्सारे, बउसपडिसेवगाणं जहणेणं तं चैव, उक्कोसेणं अच्चुते कप्पे, कसायकुसीले जहणणं तं चैव, उक्कोसेणं अच्चुते कप्पे, कसायकुसीले जहणणं तं चैव उक्कोसेणं अणुत्तरोबवाइएसु, नियंठस्स सव्वाए, पडिसेवित्ता अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा, सिणातो सिद्धिगतीए उववज्जेज्जा, पुलाए देत्रेसु उववज्जेज्जा, पुलाए देवेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए सामाणियत्ताए तायत्तीसत्ताए लोकपालचाए अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा १, अविराधणं पडुच्च एतेसु सन्देसु उववज्जेज्जा अहमिदवज्जं, विराहणं पटुच्च अण्णतरेसु उबवज्जेज्जा, एवं बउसपडिसेवगावि, कसायकुसीले अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा, णियंठे अजहण्णमणुक्को सेणं [268] 56-964 % %% पुलकादिस्वरूपं. ॥२५५॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ ७७२] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्री उत्तरा० चूण २० महा नियंठिज्ज ॥२५६॥ ॐ सम्बसिद्धे उबवज्जेज्जा, एवं बसप डिसेवगादि । पुलागस्स देवलोगट्टिती जहणणं पलिओवमहुतं, उक्को सेणं अड्ङ्कारससागरीबमाई, बउसप डिसेवगाणं जहण्णेणं तं चैव, उक्कोसेणं बावीससागरोवमाई, कसायकुसीलस्स जहण्णेण तं देव, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमाई, नियंठस्स अजहरणमगुक्कोसेणं ते तीससागरोबमाई । पुलागस्स असंखेज्जा संजमट्ठाणा, एवं जाव कसायकुसीलस्स, नियंठसिणाताणं ऐंगे अजद्दण्णमणुक्कोसए संजमडाणे, एतेसि पुलागादीणं संजमट्टाणाणं कतरे कतरेहिंतो अप्पमा वा बहुगा वा उभया वा विसेसाहिया वा १, नियंठसिणाताणं अजहण्णमणुक्कोसा संजमद्वाणा सन्वत्थोवा, दोपहवि तुल्ला, पुलागस्स असंखेज्जगुणा, एवं बउसकुसीलागं असंखज्जगुणा, पुलागस्स अनंता चारित्तपज्जवा, एवं जाब सिणातस्स, पुलागेणं पुलागस्स सङ्काणसण्णिगासेणं चरित्तपज्जवेहि य सिय हीणे सिय तुल्ले सियऽम्महिते, जइ हीणे वा अनंतभागहीणे वा असंखेज्जभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा, एवं अन्महियएवि, पुलाए बउसस्स परद्वाणसंनियासेणं चरितपज्जवेहिं होणो, णो तुल्लो, णो अन्भहिए, ज‍ हीणे अनंतगुणहीणे सेसेहिं, एवं पडिसेबगस्स कसायकुसीलस्स छट्टानपडिए, नियंठसिणाता जहा चउसस्स, एवं सेसेहिवि सह संजोगो कायो, उवरिल्ला अमहिया हेट्ठिल (का होणा) | पुलाए सजोगी तीहिवि जोगेहिं एवं जाव नियंठो, सिणातो सजोगी वा अजोगी वा पुलाए सागारोवउत्ते चैव अणागारोवउत्ते चैव, एवं जाव सिणातो । पुलाए सकसायी तं संजलणेहिं चउहिं, एवं जाव पाडसेवओ, कसायकुशीलो छ, नियंठो एक्काते सुक्कलेसाए, सिणातो परमसुक्कलेसाए। ते पुलाए बकुमाणा हीयमाणा अवह्निता?, | ताहिवि परिणामतेहिं एवं बउसकुसीलाचि, णियंठसिणाता वडमाणा अवडियपरिणामा वा, पुलाए बद्धमाणपरिणामा जहणेण एकं समयं उक्कोसेणं अतोमुहुत, एवं हीयमाणेवि, अवट्टिए जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेण सच समया, एवं जाव नियंठो [269] %% पुलकादिस्वरूपं. ॥ २५६॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] | गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२||, नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत २० न सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९७५८|| श्रीउत्तरा० सिणातो अबट्ठियपरिणामए जहण्णणं अंतोमुहुर्त, उक्कोसेण देसूणा पुन्चकोडी । पुलाए आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ पुलकादिचूर्णी [बंधति, बउसो सच वा अदुवा बन्धति, एवं पडिसेवएपि, कसायकुसीले सत्त वा अढ वा छ वा बन्धति, छ आउयमोहणिज्जवज्जा || स्वरूपं. ओ बंधति, णियंठे एगं वेदणिज्ज बन्धति, सिणाए बंधए वा अबंधए वा, जति बंधए वेदणिज्जं एग बन्धति, पुलाए अट्ठ कम्म-14 महा पगडीओ वेदति, एवं जाव कसायकुसीले, णियंठो मोहणिज्जबज्जाओ सत्त वेदेति, सिणाए नेदणिज्जआउयणामगोत्ताओ नियंठिन्ज |चत्तारि वेदेति। पुलाए चेव वेदणिज्जाउअवज्जाओ छ उदीरेइ, बउसे सत्त वा छ वा उदीरेति, आउवेदणिज्जबज्जाओ छ उदीरति, ॥२५७॥ एवं पडिसेवएवि, कसायकुसीले सत्त वा अदुवा छ वा पंचवा उदीरेति, आउवेदणिज्जमोहणिज्जबज्जाओ पंच उदीरति, (णियंठे)। पंचवा दोनिया उदीरेति, दोन्नि उदीरमाणे णाम गोत्तं च उदीरेवि, सिणाए उदीरए वा अणुदीरए बा, जति उदीरेति णाम | गोतं च उदीरेति । पुलागे पुलागतं चहत्ता कसायकुसीलतं वा असंजम वा उपसंपज्जति, पडिसेवओ पडि सेवं चइत्ता बउसत्तं वा कसायकुसीलत्तं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जा, कसायकुसीले कसायकुसीलत्तं चइताणं पुलागत्तं वा बउसत्तं वा संजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जति, णियंठत्तर्ण चहत्ता कसायकुसील वा सिणायत्तं वा असंजमं वा उपसंपज्जति, सिणायतो सिणाय चइत्ता सिद्धिगति उपसंपज्जति । पुलाए णोसनोवउत्तो होज्जा, बउसपडिसवणकसायकुसीला उभयं वावि । णियंठ-13 |सिणाता जहा पुलाए आहारए होज्जा, एवं जाब णियंठे, सिणाते उभयहावि। पुलाए जहण्णेणं एगं भवं होज्जा, उक्कोसेणं तिष्णि| भवग्गहणाई, बउसे जहणेणं एग उक्कोसेणं अट्ठ, एवं जहा कसायकुसीले, णियंठे जहा पुलाए, सिणाए एक्कं । पुलागस्स एग-1 ॥२५७/ भवग्महणिया आगरिसा जहणेणं एक्को उक्कोसेणं सतम्गसो, एवं जाव कसायकुसीलस्स, णियंठस्स जहणेणं एक्को उक्कोसेणं ३ दीप अनुक्रम [७१३७७२] 62% [270] Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] | गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२||, नियुक्ति : [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक स्वरूपं. [१२...] गाथा ||६९९७५८|| श्रीउत्तुरा दोनि, सिणातस्स एक्को, पुलागस्स णाणाभवग्गहणिया आगरिसा जहणणं दोनि उक्कोसेणं सत्त, बउसस्स जहण्णेणं दोनि पुलकादिचूणों उक्कोसेणं सहस्सग्गसो, एवं जाच कसायकुसीलस्स, णियंठो जहण्णेणं दोन्नि उक्कोसेणं पंच, सिणातस्स णस्थि एक्कोवि। पुलाए । महा कालओ केच्चिरं होति, जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुचं, बउसे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी, नियंठिज्ज एवं जाव कसायकुसीले, णियंठे जहा पुलाए, सिणाए जहा बउसे। पुलाका बहवः, पुलाकरवेन कियच्चिरं कालं [अंतरं] होति, जहनेणं एक समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुतं, एवं नियंठावि, अवसेसा सब्बद्धं । पुलागस्स केवतियं कालं अंतर होति , जहण्णेणं ॥२५८॥ अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं, अवठ्ठपोग्गलपरियहं देसूर्ण, एवं जाच णियंठस्स, सिणातस्स नस्थि अंतरं, पुलागाणं केवतियं । | कालं अंतरं होति', जहण्णण एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वासाई, एवं णियंठाणवि जहण्णण, उक्कोसेणं छम्मासो, सेसाणं |णस्थि अंतरं । पुलागस्स तिन्नि समुग्याता पण्णत्ता, तंजहा-वेदणा कसाया मारणतिया, बउसपडिसेवगाणं पंच, तिनि ते चेव, विउब्बिए तेयए य, कसायकुसीलस्स छ, पंच ते चेव, आहारए य, णियंठस्स नस्थि एक्कोऽवि, सिणातस्स एक्को, केवलिसमु. ग्घातो। पुलाए लोगस्स कतिमाते होज्जा ?, किं संखेज्जतिभागे असंखेज्जतिभाए होज्जा संखेज्जेसु भाएसु होज्जा' असंखेज्जेसु भाएसु होज्जा' सव्वलोएसु होज्जा ?, गोयमा! असंखेज्जतिभागे होज्जा, सेसेसु पडिसहो, एवं जाव णियंठे, सिणाते सव्वेसु होज्जा, | एवं बउसगाणवि । पुलागो खआवसमिते भावे होज्जा, एवं जाव कसायकुसीले, णियंठे खइए वा उवसमिए वा भावे होज्जा, INT सिणाते खइए भावे होज्जा,एवं पुण माणा,(पुलाए ण पुष्वपडिवण्णया)विया पडिवज्जमाणयावि होज्जा?, गोयमा ! सिय अस्थि, सिय ॥२५८॥ Xणस्थि, जति अस्थि जहनेणं एक्को वा दो वा तिनि वा,उक्कोसेणं सयपहुत्तं, पुथ्वपडिवत्तिया सिय अस्थि सिय पत्थि, जति अस्थि तू XAXC-CGC REETIRESEARSA दीप अनुक्रम [७१३७७२] [271] Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ _७७२] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णौ २० महानियंठिज्जं ॥२५९॥ जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं, वडसावि एगसमएणं केवतिया पडिवज्जमाणया, (सिय अस्थि सिय णत्थि ) जति अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं सहस्त्रपुहुतं, पुम्वपडिवण्णया जहणणं उक्कोसेणवि कोडिसयहुतं, एवं कुसीलपडिसेवगावि, कसायकुसीला पडिवज्जमाणया जति अस्थि जहणणं एक्को, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं, पुव्व पडिवण्णया जहण्णेणवि उक्कोसेणवि कोडिसहस्सपुहुत्तं, णियंठा पडिवज्जमाणया जति अस्थि जहण्णेण एक्को वा दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं बाबई [ति]सतं, खवगाणं चउप्पण्णा होंति, उवसमगाण उ पुब्वपडिवण्णया जति अस्थि जहणणेणं एक्को वा दो वा विणि वा, उक्कोसेणं सयपुडुतं, सिणाया पडिवज्जमाणया जति अस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं असयं, पडिवन्नस्स जहणेण उक्कोसेणवि कोडिपुहुत्तं । एते णं भंते, पुलागवकुसकुसल णि यंठसिणायाणं कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसहिया वा ?, गोतमा ! सव्वत्थोवा नियंठा, पुळागा संखेज्जगुणा, सिणाता संखेज्जगुणा, बउसा संखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसीला संखेज्जगुणा, कसायकुशीला संखेज्जगुणा इति ॥ उक्तो नाम निष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, असति सूत्रे कस्यालापकाः, सूत्रं च सूत्रानुगमे भविष्यति, तत्रानुगमो द्विविधः सूत्रानुगमो निर्युक्त्यनुगमन, निर्युत्यनुगमस्त्रिविध:- निक्षेपनिर्युक्तिः उपोद्घातनिर्युक्तिः सूत्रस्पर्शिकानिर्युक्तिश्थ, यो यस्य विषयः स पूर्वोक्तः, सूत्रादिचतुष्टयं युगपद्गच्छति, एत्थ य सुत्ताणुगमो इत्यादि, सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चार्यते तच्चेदं 'सिद्धाण णमो कच्चा ' (६९९) इत्यादि, सिद्धस्यैवाध्ययनस्य प्रकटार्थस्यादि यत्किंचिद्वक्तव्यं तदुच्यते-सिद्धार्थानां परिनिष्ठितार्थानां नमस्कृत्वा संयतानां च भावतः परमार्थतः, धर्म्मवतां तथ्यां अनुशास्तिं शृणुत मम, क एवमाह ? - सुधर्म्मस्वामी, आख्यानकप्रबंधेन कथयति अस्थि मगद्दासिए रायगिहं [272] पुलकादिस्वरूपं. ॥२५९॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||६९९ ७५८|| दीप अनुक्रम [७१३ ७७२] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२०], मूलं [१२..] / गाथा ||६९९...७५८/७१३-७७२]], निर्युक्तिः [ ४२२...४२७/४२०-४२२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण २१ समुद्र पा० ॥२६०॥ नयरं, तस्थ सेणिओ राया बिहारजताते निम्गतो, विहारजत्ता परिभणिया भण्णति, तनिमित्तं निग्गतेण मंडिकुच्छीनाम चेहयं, तहिं ठितो साहू दिट्टो, झाणं झियायति, तत्थ तेसिं समुल्लाबो- रण्णो साधुस्स य, एत्थ अज्झयणे वण्णिज्जति, प्रायसः प्रकटार्थ एव स राजा तं साधु दृष्ट्वा परं विस्मयं गतः, अहो अस्य साधोः रूपसौभाग्य सौम्यवत्ता क्षतिमुक्ति असंगपत्ता च भोगेषु लक्ष्यते, तस्य पादौ प्रणम्य प्रदक्षिणं च कृत्वा नातिदूरे निषण्णः, ततो ब्रवीति, (कथं तरुणो रूपवान् प्रवजित: ?, साधुरुवाच- अना थोऽहं मम सुहन विद्यते, अनुकंपको वा ततो राजा ग्रहसितः, एवंगुणसमेतस्य कथं नाथो तव न विद्यते ?, अहं तव नाथो मवामि, साधुरुवाच - स्वमपि अनाथ एव मम नाथत्वं कथं करिष्यसि ?, एवं साधो राजध संवादो वर्ण्यते, जाव विहरति वसुधं विगत्पापोति ब्रवीमि नयाः पूर्ववत् ॥ विंशतितममध्ययनं महानियंठिज्जं २० ॥ उक्त विंशतितममध्ययनं इदानीं एकविंशतितमं तस्य कोऽभिसंबंध: १, विंशतितमे निग्रंथोऽभिहितः, एकविंशतितमे विविक्तचर्याऽभिधीयते स च निग्रंथो विविक्तचर्यासहित एव भवतीति, नान्यः, अनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं व्यावर्ण्य नामनिष्फले निक्षेपे आदाणपदेन समुदपालिज्जं नाम, अर्थतो विविक्तचर्यानामा ध्ययनमिदानीं एकविंशतितमं नामनिक्षेपं करोति 'समुद्दपालिय' मिति, 'निक्खेवे' इत्यादि ( ४२९ ) नामादिको चतुर्द्धा निक्षेपः, नामस्थापना द्रव्याणि पूर्ववत्, मावे समुद्रपालितायुर्वेदंतो भावतो तु णातन्त्रो, ततो समुट्ठितमिणं समुद्दपालिज्जमज्झयणं, उको नामनिष्पन्नो निक्षेप, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः अस्माद्यावत्सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं सूत्रं चेदं - 'चंपाए पालिए नाम 'मित्यादि ( ७५९ - ४८४ ) सूत्रोक्तमेवार्थं यत्पुनः निर्युक्लिकारो त्रवीति तत्पुनरुक्तं, तत् ज्ञापयति-- वैराग्यभावना येन जायते अध्ययनं -२०- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन - २१- "महानिर्ग्रन्थिय" आरभ्यते [273] निक्षेपाः ॥२६०॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२१], मूलं [१२..] / गाथा ||७५९...७८२/७७३-७९६||, नियुक्ति : [४२८...४४२/४२३-४३६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||७५९७८२|| A4% A A श्रीउत्तरा न तत्पुनरुक्तं , यत्संयमपुष्टिकारमेच भवति, तथा च आह- 'सज्झायज्झाणतव०' गाथा ॥ इदानीमाख्यानकप्रबंधन | समुद्रपाल"चौं तस्योत्पत्तिसंबंधि कारणं चाभिधीयते-चंपा णाम णगरी, तत्थ पालित्तो णाम सत्थवाहो, अहिंगतो जीवार्थे (दि)षु पदार्थेषु, अरहंत२० | सासणरतो, सो अनया कयाई पोएणं पत्थितो, मणिमधरिमभरिएणं, गणिमं पूगफलज्जातिफलकक्कोलादि, समुद्दतीरे पिहुंडं | महा नाम नगरं संपत्तो, तत्थ य वाणियएणं दारिया दिना, विवाहिता य, अन्नया कयाइ तं पचि आवण्णसचं घेतूण पत्थितो | नियंठिज्ज। सदेसस्स, सा समुद्दमज्झमि पसवती पुत्तं पियदसणं लक्खणजुतं, तस्स समुहपालेत्ति नामं कर्यपंचधाईहिं परिक्खिनो परिव॥२६१॥ वड्ढति, बावत्तरिकलापंडितो जातो, ततो जुष्यणपत्तस्स कुलरूवाणुसरिस चउसद्विगुणोपेतं रूचिणीनामभारियं आणावेति, सो रूविणीए सहितो दोगुंदओ व देवो भुजति भोए निरुब्बिग्गो। अह अन्नया कयाई सो ओलोयणचिहिते पासति(नगर),वझं णीणि | ज्जंतं पासेति, तं दणं सन्नी विवेगी गाणी सैकियदक्कियाणं कम्माणं जाणती फलविवाग, चरित्तावरणीयकम्माणं खओवसमे-15 णं च संबुद्धो संवेगमणुत्तरं च संपत्तो आपुच्छिऊण जणणिं णिक्खतो, खायकित्तीओ, काऊण तवच्चरणं बहूणि वासाणि सोधूय-1* किलेसो तं ठाणं संपत्तो जं संपत्ता ण सोयंति, एपोऽर्थः सूत्रेऽभिहित एव, तथापि नियुक्तिकारेणाभिहितः, द्विद्धं सुबद्धं भवतीति । इदानी सूत्रे यत्किचिद्वक्तव्यं तद्ब्रवीमि 'जहित्तु सरगंथ'।। (७५९-६८६)॥ इत्यादि,'ओहाकूत्यागे' त्यक्त्वा असद्ग्रन्थकर्म अशोभने कर्म अशुभकर्मगतिबन्धात्मक, नरकतिर्यग्योनिप्रायोग्यमित्यर्थः, तं, महान् क्लेशो यस्मिन् तं महाक्लेश, महा मोहो यस्मिस्तन्महामोह, कृष्णं कृष्णलेश्यापरिणामि, भयानक, असद्ग्रन्थं त्यक्त्या संयमपयोये स्थित्वा श्रुतधर्म अभिरुचि छा करोति, व्रतानि-महावतानि, शीलानि च उत्तरगुणानि, तानि च अभिरोचयति, तथा परीषहा सहति अहिंसयनित्यादि, सब्वेहिं दीप अनुक्रम [७७३७९६] लक-% % ES % [274] Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२..] गाथा ||७५९ ७८२|| दीप अनुक्रम [७७३ ७९६] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२१], मूलं [१२..] / गाथा ||७५९...७८२/७७३-७९६]], निर्युक्तिः [४२८...४४२/४२३-४३६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः २१ समुद्रपा० ॥२६२॥ श्री उत्तरा० २ भूतेहिं इत्यादि गतार्था । 'कालेण' इत्यादि ७७२-६८७) काले कारणभूतेन यद् यस्मिन् काले कर्त्तव्यं तत् तस्मिन्नेव समाचरति, चूर्णी स्वाध्यायकाले स्वाध्यायं करोति, एवं प्रतिलेखनाकाले प्रतिलेखयति, वैयावृत्यकाले वैयावृत्यं, उपसर्गकाले उपसर्ग, अपवादकाले अपवादं करोति, राष्ट्रविषये आत्मनश्च बलावलं ज्ञात्वा सिंह इव साध्वसजादेत (सो) न त्रासं गच्छति, वाङ्मात्रमेव इदं, असत्यमपि न चिंतयति, स तत्र गच्छति, एवं सर्वार्थेषु रागद्वेषात्मकेषु दृढो भवति । 'उवेदमाणी' इत्यादि (७७३-४८७) उपेक्षां कुर्वन् परिव्रजति, प्रियमप्रियं सर्व समानं सर्वकार्येषु अभिरोचयति, अपवादं न सर्वकालमेव रोचयतीत्यर्थः, न चापि पूजायां सति करोति, न च परापवादं करोति । 'अणेगछंदा' इत्यादि ( ७७४ ) यावत्परिसमाप्तं, छन्दोऽभिप्रायः, अनेकाभिप्राया इह मानवेषु दृश्यन्ते, रागद्वेषात्मको यस्तेष्वनिष्टेषु द्वेषं करोति स कर्म्मबन्धको भवति, के च ते १, भयानकाः- भैरवाः, तत्र तस्मिन् मनुष्यलोके उपगच्छन्ति दिव्या मानुष्याः तैरवा वा, तथा परीषदा अनेके उदयं गच्छति यत्र सीदन्ति कातराः, स भिक्षुस्तत्र न सीदति, संग्राममध्ये इव हस्तिराजा, परीपहा विशेष्यन्ते, शीतोष्णदंशमशकादयः, आतंका- रोगाः, ते च नानाप्रकाराः स्पृशंति तान्, अककर:- अनाक्रन्दं, अधियासेति, राजसैः पुराकृतानि कर्माणि क्षपयति, प्रदाय रागं च द्वेषं च अज्ञानं च विचक्षणो भिक्षुः, मेरुर्यथा वायुना न चाल्यते, एवं परीसहोपसर्गेर्येथा न चाल्यते तथा करोति, तथा नात्यर्थमुन्नतेन न चात्यर्थमवनतेन किं ? - युगान्तरप्रलोकिना गन्तव्यं, महर्षिणाम महान्तं वा एषते यः स महर्षी, मोक्षार्थीत्यर्थः, न पूजायां सक्तिं करोति, न चापवादं करोति, किन्तु ऋजुभावं प्रतिपद्यते स एवंविधः निर्वाणमार्गमुपैति । 'संयमे अरहरइस हे० ' ।। ७७९-४८७।। संयमे अरतिः असंयमे च या रतिः तां सहति, संस्तवो वचनसंस्तवः संवासश्च तच्च त्यजति, अकर्त्तव्येषु विरतः, स आत्मसहितं करोति, प्रधानश्च भवति, [275] समुद्रस्य साधुता ॥२६२॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२२], मूलं [१२..] / गाथा ||७८३...८३१/७९७-८४६||, नियुक्ति : [४४३...४५०/४३७-४४७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक चूर्णी । [१२...] गाथा ||७८३८३१|| - परमार्थपदानि-ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तेषु तिष्ठति, मिथ्यादर्शनादीनि श्रोतांसि छिन्मानि-अपगतानि तस्य, न क्वचित् ममीकार, रथनेमि श्रीउत्तरा ततः न किञ्चन विद्यते तस्य । 'विवित्ताणि॥७८०-४८७ास्त्रीपशुपण्डकविवर्जितानि लयनानि सेवति, तान्येव विशेष्यन्ते, अक- निक्षेपादि | तमकारितमसंकल्पितानि संयमोपघातविरहितानि पूर्वऋषिभिः आचीर्णानि सेवति, तथा परीषहांश्च सहति, शोभनं ज्ञानं सज्ज्ञान, २२ रथनेमीयं सज्ज्ञानेन उपगतः महर्षिः, नास्य उत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरं, सर्वप्रधान इत्यर्थः, तं अनुत्तरं धम्मसंचयं परेचा मूलगुणज्ञानधारी | भ्राजते सूर्य इव अन्तरिक्ष, स एवंगुणविशिष्टः शुभाशुभकर्मविप्रमुक्तः संशुद्धज्ञानदर्शनधरः तीसंसारं समुद्रमिव समुद्रपाले | ॥२६॥1अपुणागमं गतिं गतोत्ति, इति परिसमाप्ती, नयाः पूर्ववत्, ब्रवीम्याचार्योपदेशात् ।। एकविंशतितम अध्ययनं समाप्त ।। उक्त एकविंशतितम, इदानीं द्वाविंशतितम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः ?, एकविंशतितमे विविक्तचर्याऽभिहिता, द्वाविंशतितमे | | वृति(धृति)श्चरणं च वर्ण्यते,सा च विविक्तचर्या धृतिमता चरणसहितेन च शक्यते कर्तुम्,अनेन सम्बन्धेनायातस्पास्याध्ययनस्यानुयोग द्वारचतुष्टयं पूर्ववद्ध्यावर्ण्य नामनिष्फन्ने निक्षेपे रहणेमिज्जंति-'रहनेमी निवेक्खवो० ॥४४३।।४४४॥४४५-४८८॥ इत्यादि | | गाथात्रयं गतार्थ, तत्र कोऽसौ हरि(रह) णेमी?, तस्योत्पत्तिः गाथानुसारेणैव च विजेया,सिवत्ति देवी अणोज्जंगी,किमुक्तं भवति?-1 अनुपमाङ्गी, प्रथमाजी इत्यर्थी, रहनेमिस्स चत्तारि बरिसशते गिहत्थत्तं, एग परिसं छउमत्थे, पंच वर्षशते केवली, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, अस्मात् यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं-'सोरियपुरंमि नयरे' ॥ ७८३-४९१ ।।इत्यादि, सर्व गाथानुसारेणेव णेयं यावत् 'जहा से पुरिसोत्तमो' त्ति बेमि, नयाः पूर्ववत्, प्रवीम्याचार्योपदेशात्, ॥२६॥ द्वाविंशतितममध्ययनं रहनेमिजं समाप्तम् ॥ 14--- दीप अनुक्रम [७९७८४६] 4 अध्ययनं -२१- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२२- "रथनेमिय" आरभ्यते अध्ययनं -२२- परिसमाप्तं [276] Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२३], मूलं [१२..] | गाथा ||८३२...९२०/८४७-९३५||, नियुक्ति: [४५१...४५७/४४८-४५४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||८३२९२०|| केशिगौत श्रीउत्तरा उक्तं द्वाविंशतितम, इदानीं त्रयोविंशतितम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः, द्वाविंशतितमे धृतिश्चरणं च वर्णित, सा धृतिर्धर्मे || केशिगौतम चूणा कर्तव्या, चरणं पुनश्चारित्रधर्म एव, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावपं नामनिप्फण्णेद समागमः २३ । निक्षेपे केसीगोतमिज्जति - 'निक्खेवो गोअमंमी चउक्कओ' ॥४५१|४५२१६४५३-४९८॥ इत्यादि गाथात्रयं गतार्थ, उक्तो नामनिष्फण्णो निक्षेषः । इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावदोद्धव्य, सत्रं चेदं-'जिणे पास-18 ॥२६४॥ त्ति णामे' इत्यादि (८३२-४९९) सर्व हृदि व्यवस्थाप्य यत्किचित् वक्तव्यं तदुच्यते, अस्य पार्श्वस्वामिनः केशी नाम शिष्यो, ज्ञान चरगसंपन्नो बहुशिष्यपरिवारः श्रावस्त्यां तिंदुकनाम उद्यानं तत्र समवसृतः, अथ तस्मिन्नेव काले बर्द्धमानस्वामिनः शिष्य इंद्र भूती गौतमगोत्रः, तस्यैव नगरस्य बहिः कोष्ठकं नामोद्यानं तत्र स्थितः, द्वावपी अत्यर्थ लीनौ, मनावाक्कायगुप्तावित्यर्थः, सुसमाहिती, ज्ञानादिसमाधियुक्तावित्यर्थः, उभयोरपि शिष्याणां चिन्ता समुत्पन्ना-तुल्ये तीर्थकरत्वे किमिति शिक्षोपादाननानात्वी, अथ तौ तत्र विज्ञाय शिक्षाणां प्रवितर्कितं समागमकृतमतीको द्वावपि केशिगोतमौ पूर्वतरं ज्येष्ठ इतिकृत्वा केशी गौतमः प्रति । विनयाद् यावद् शिष्यपरिवृतो तिंदुकोद्यानमुपगतः, तस्येदानी केश्याचार्यः (स्य) अनुरूप प्रतिपत्तिं कर्तुमुद्यतः, पलालांकुशतृणानि च 3 साधुप्रायोग्यानि भूमौ निषद्यादुपरि निषा पदापयति, तो कैशीगौतमौ भ्राजेते चंद्रसूर्यसमप्रभौ । तौ समागतो ज्ञात्वा बहवः पापंडा गृहस्था देवदानवाश्च समागताः, तयोः किल विवादो भविष्यति, ततः केशी गौतमं पृच्छति, गौतमोऽपि केशी ब्रवीति, पृच्छ पृच्छस्वेति, यमा-महाव्रतानि, तव तत्र पार्श्वस्वामिना चत्वारि महाव्रतानि अभिधीयते, तानि वर्द्धमानस्वामिना पंच, एक-18 ॥२६॥ | कार्यप्रवृत्तानां किमिति विसंवाद, कार्य मोक्षः, कशिमेवं हुवाणं गौतमः स प्रज्ञायते प्रज्ञा प्रज्ञया-ज्ञानेनालोच्य तत्वातत्यानां च दीप अनुक्रम [८४७९३५]] A-CORRC-R अत्र अध्ययन -२३- “केशिगौतमिय" आरभ्यते [277] Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||८३२ ९२०|| दीप अनुक्रम [८४७ ९३५] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२३], मूलं [१२.. ] / गाथा ||८३२... ९२०/८४७-९३५||, निर्युक्तिः [४५१...४५७/४४८-४५४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चण २३ केशिगत० ॥२६५॥ पदार्थानां विनिश्चयं आलोच्य देशकालानुरूपं धर्मं कथयति तीर्थकराः, किं तद्विप्रत्ययकारणं १, तदुच्यते, द्वादश कारणानि, सूत्रोक्ता नि) एव नियुक्तिकारेण प्रोक्तानि, 'सिक्खा क्या य' इत्यादि ( ४५५-६ - ७ ) गाथात्रय संगृहीतानि, शिक्षापदानि पंच महाव्रतानि चत्वारि किमित्यभिहितानि प्रथमं तथा लिंगद्विविध्यं किमिति द्वितीयं, आत्मा कषाया इंद्रियाणि च शस्त्रं तत्तृतीय, पाशानां अवकर्शनं, वृत्तीच्छेदने पाशानां छेदनमित्यर्थः, रागद्वेषादयः पाशः, चतुर्थं तंतूद्धरणबंधने, तंतु-भवलता उद्धरणं-नाशनं तद् बंधने कृते भवलता उधृता) भवति, अग्निविध्यायनं च पंचमं, अग्निः कषायः निर्वापणं श्रुतं शीलं च६, दुष्टाश्वो मनः७, पथः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्राणि तस्य परिज्ञानं ८, महापरिश्रोतानि मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगाः तेषां निवारणं ९, संसारावस्य पारगमनं १० तम:- अज्ञानं तस्य विघाट प्रकाशकिरणं ११, मोक्षस्थानस्य उपसंपदा, मोक्षस्थानप्राप्तिरित्यर्थः १२, एवमेतानि द्वादश स्थानानि सूत्रे व्याख्यातानि पुरिमाण दुव्विसोज्झो उ इत्यादि, प्रथमतीर्थकर शिष्याणां दुर्विशोध्यः संयमः, ऋजुजडत्वात्, पश्चिमतीर्थकर शिष्याणां दुरनुपालकः संयमः, वक्रजडत्वात्, मध्यमतीर्थकर शिष्याणां ऋजुप्रज्ञत्वात् सुविशोध्यः सुखं चानुपालयः, अतो- अनेन कारणेन द्विधा प्रकल्पितः। साधु गोतम' इत्यादि, सर्वत्र पृच्छा उत्तरं च बोद्धव्यं, तथा अ (स) चेलको मध्यमतीर्थकरैः, स ( अ ) चलकः प्रथमपश्चिमैर्धर्मः प्रदर्शितः, लिंगद्वैविध्येऽपि इदमेव कारणं, तथा च संयमयात्रार्थमात्रक (ग्रहणं) अग्रहणं भवितव्यमिति, परमार्थतस्तु ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षकारणं, न लिंगादीनि एवं द्वादशसु कारणेषु व्याख्यातेषु केश्याचार्यो गौतमस्य स्तुतिं करोति, साधु गोमत! पन्ना ले, छिन्नो मे संसओ इमो नमो ते संस्यातीत !, सन्यसत्तमहोदही ॥ ९१६ ।। एवं तु संसए छिन्ने, केसी घोरपरक्कमो। वंदितु पंजलिउडो, गोतमं तु महामुणी ॥ ९१७|| पंचमहव्वयजुत्तं, भावतो [278] विप्रत्ययकारणानि ॥२६५॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२४], मूलं [१२..] | गाथा ||९२१...९४७/९३६-९६२||, नियुक्ति : [४५८...४६२/४५५-४५९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा |९२१९४७|| चूर्णी २४ ॥२६६॥ श्रीउत्तरापडिवज्जिया। धम्मं पुरिमस्स पच्छिमंमि मग्गे सुहावहे ॥९१८॥ तोसिता परिसा सव्वा, सम्मत्ते पज्जुबत्थिया।151 समितयः संजुता ते पदीसंतु, भगवं केसीगौतम।९२०-५१२शात्ति बेमि। नयाः पूर्ववत्, प्रवीमीत्याचार्योपदेशा,त्रयोविंशतितम। प्रवचन उक्तं बयोविंशतितम, इदानी चतुर्विंशतितम, तस्य कोऽभिसंबंधः ?, त्रयोविंशतितमे धर्मो व्याख्यातः, स धर्मः समि-|| मातिराप्ति विना नैव भवति, ताथ चतुर्विंशतिमे व्याख्यायते, अनेन संबंधेनायातस्यास्थाध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद्यावये || नामनिष्पने निक्षेपे समितीउ-समितयः पंच तिस्रो गुप्तयः एताः प्रवचनमातरोऽभिधीयंते, तत्र प्रवचनशब्दस्य तावनिक्षेपः 'निक्खेवो पवयणमि गाथाद्वयं (४५८-९।५१४) व्यतिरिक्तं कुतीथिंकप्रवचनं, भावप्रवचनं द्वादशांगं गणिपिटकं, पिटकशब्द: म समुदायवाची, प्रोच्यते अस्मिन् जीवादयः पदार्था इति प्रवचनं । इदानी मातृशब्दस्य निक्षेपः 'मातंमि उ निक्खेवो इत्यादि गाथाद्वयं (४६०-६१५१४) व्यतिरिक्त भाजने द्रव्यमातं, स्थितमित्पर्थः, भावे समितिगुप्तिषु प्रवचनै मात, स्थितमित्यर्थः, 'असु ई' इत्यादि(४६२.५१४)गतार्था,उक्तोनामनिष्पन्नो निक्षेपः,इदानी सूत्रालापकस्यावसरः, अस्माद्याची सूत्रं निपतितं तावद्ध-4 क्तव्यं, सूत्रं चेदं अट्ठ उपवयणमाता इत्यादि गाथात्रयं(९२१-२३५१५,गतार्थ, आलंबणेन'गाथाद्वयं ९२४-५।५१६)ईर्यासमितिरभिधीयते, 'ईर गतिप्रेरणयोः ईर गती, गंतव्यं गमनं, तत् कारणपरिशुद्धं वक्तव्यं, तद्यथा-आलंबनेन कालेन मार्गेण उपयुक्तेन च, आलंबनेन कारणेन, चैत्यवंदनआचार्यादिप्रयोजनशरीरचिंतादिना कारणेन गमनं कर्तव्यं, न हि निनिमित्त, तथा आगमेऽप्य- २६ भिहितं 'जाव णं अयं जीवे एयति वेयति चलती'त्यादि, कालेन यद्यस्मिन् काले कर्त्तव्यं तस्मिन्नेव करोति, यथा भिक्षाकाले | मिक्षार्थ पर्यटति, एवं सर्वकाले मंतव्यं, मार्गेण संयमोपघातरहितेन गंतव्यं, यत्नेन युगांतरप्रलोफिना उपयुक्तेन गंतव्यं दीप अनुक्रम [९३६ ९६२ अध्ययनं -२३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२४- "प्रवचनमातृ" आरभ्यते [279] Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||९२१ ९४७|| दीप अनुक्रम [९३६ ९६२] + चूर्णि:) भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः मूलं [१२.. ] / गाथा ||९२१...९४७ / ९३६- ९६२||, अध्ययनं [२४], निर्युक्तिः [४५८...४६२/४५५-४५९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी २४ प्रवचन० ॥२६७॥ इंद्रियार्थाव्याक्षिप्तेन गंतव्यं, न च स्वाध्यायं कुर्वता गंतव्यं तन्मूर्त्तिना तदेव पुरस्कृत्य गंतव्यं । इदानीं भाषासमितिः- कोहे माणे य इत्यादि गाथाद्वयं । ९२९-३०।५१७) क्रोधादिविरहितेन उपयुक्तेन भाषा भाषणीया, तथा चोक्तं- "पुव्यं बुद्धीए पासेचा, पच्छा वकमुदाहारे" इदाणी एषणासमितिः 'गवेसणा य' इत्यादि गाथाद्वयं ( ९३१-२१५१७) अन्वेषणग्रहणपरिभोगेः त्रिभिः कारणैराहाररुपधिशय्या विशोधयेत्, उद्गमोत्पादना च गवेषणाऽभिधीयते, ततः ग्रहणं, ततः परिभोगः, चउकं विशोधयेत्, संयोजना प्रमाणं अंगारः धूमे कारणे च। इदानीमादाननिक्षेपणासामतिः "ओहो वहिदुग्गहितं" इत्यादि गाथाद्वयं (९३३-४) द्विविधो उपधिः -औषिको औपग्रहिकथ, इमं विधि प्रयुंजीत पूर्व चक्षुषा प्रतिलेख्य पश्चाद्यत्नेन मृदुना प्रमार्जयेत्। इदानीं प्रतिष्ठापना समितिः- 'उच्चारं पासवर्ण' इत्यादि गाथा (९३५/५१८) गतार्थं । उक्ताः सभितयः, इदनीं गुप्तयोऽभिधीयते, मनोगुप्तिः वचन गुप्तिः काय गुप्तिरिति, तत्र मनोगुप्तिश्चतुः प्रकारा, सत्या मृषा सत्यामृषा असत्यामृषा चेति चतुर्विधा मनोगुप्तिः, संरभसमारंभात्मकं सत्यं न चिंतयति, एवं सत्यामृषं न चिंतयति, | 'संकल्पः संरंभः परितापकरो भवेत् समारंभः । आरंभः व्यापत्तिकरः शुद्धनवानां तु सर्वेषां ॥ १ ॥ एवं वाग्गुप्तिरिति विज्ञेया, इदानीं कायगुप्तिः'ठाणे निसियणे' इत्यादि गाथाच उकं (९४४-७/५२०) स्थानं कायोत्सर्गादि, निषीदनं त्वग्वर्त्तनं ऊर्ध्वं लंघनं उल्लंघनं, उत्क्षेपणं विक्षेपणं चेत्यर्थः, इद्रियाणं युंजनं, स्थविरकल्पे जिनकल्पे वा स्थितः समारंभ आरंभ वा कार्य वर्त्तमानं निवर्त्तयेत् यत्नेन, समितयश्ररणस्य प्रवर्त्तने, गुप्तयः अशुभनिवृत्तये, ता एताः प्रवचनमातरो यः समाचरति संसाराद्विमुच्यत इति, नयाः पूर्ववत् ॥ | मार्गाख्यं २४ ॥ इदानीं पंचविंशतितमं तस्य कोऽभिसंबंधः, चतुर्विंशतितमे समितयो गुप्तयश्व व्यावर्णिताः, पंचविंशतितमे ब्रह्मगुणा व्यावर्ण्यते, तच्च ब्रह्म समितिभिर्गुप्तिभिर्विना नैव भवति, अनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वार चतुष्टयं पूर्ववद्ध्यावर्ण्य नामनिष्पत्रे' अध्ययनं -२४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन - २५- "यज्ञीय" आरभ्यते [280] गुप्तयः ॥२६७॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२५], मूलं [१२..] | गाथा ||९४८...९९१/९६३-१००६||, नियुक्ति : [४६३...४८२/४६०-४७९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: श्रीउत्तरा प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा |९४८९९१|| चूर्णी | यज्ञीया० ॥२६॥ निक्षेपे जण्याइज्ज,णिक्खेकेवो जपणंमी'त्यादि गाथाद्वयं(४६३-४१५२१)व्यतिरिक्तं ब्राह्मणादीनां जयनं,भावयन्नः तपःसंयमानुष्ठान, जयघोषस्य | अध्ययननिरुक्तगाथा 'जयघोसा' इत्यादि (४६५।५२१गतार्था । उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, - वैराग्यं | अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेद-'माहणकुलसंभूतो (९४८५२३ इत्यादि प्रायसः गतार्थ, तथापि यत्किंचिद्वक्तव्यं | तदुच्यते,यथा इदं प्रवृत्त तथा कथ्यते-बाणारसीए नगरीए दो विप्पा मायरो य, जमलाऽऽसी,जयघोसो विजयघोसो, तत्थ जयघोसो | पहातुं गतो गंग, तत्थ पेच्छति सप्पेण मंडुकं गसिज्जंत, सप्पोऽवि मज्जारेण छनो, मज्जारो सप्पं अक्कमिडं ठितो, तथावि सप्पो । मंडुकं चिञ्चयंत खायेति, मज्जारोवि सप्पं चढप्पडमाणं खायति, ते अण्णमष्णघाता इत्यादि सर्वा नियुक्तिगाथा गतार्था,जायाई। |जयनशीलः, 'जमजन्नति (यम)तुल्यो यमयज्ञः, मारणात्मका, इंद्रियग्रामं निगृह्णाति, सम्यग्दर्शनादिमार्गगामी, अथ तस्मिन् काले | जयघोसेण यज्ञः प्रस्तुतः, ततोऽसौ (वि)जयघोषः मासक्षपणपारण के भिक्षार्थ समुपस्थितः, तेनासौ प्रतिषिद्धः, न ते दास्यामि भो। | भिक्षा, ये च वेदविदो विप्रा, ये च यज्ञस्य याजिनः । ज्योतिषांगविदो ये च, ये च धर्मस्य पारगाः॥१॥ ये समर्थाश्च उद्धर्तु, आत्मानं! परमेव वा। तेषामिदं तु दातव्यं, अन्नदानं हितैषिणाशतत्त्वं वेदमुखं वक्षि यज्ञानामपि यन्मुख । नक्षत्राणां मुखं यच्च, धर्माणां चापि यन्मुखं॥३॥ ये समर्थाश्च उद्धा, आत्मानं परमेव वा। तेनापि त्वं न जानीपे, अथ ज्ञानी ततो भण॥४॥ अस्याक्षेपस्य उत्तरं दातुं अशक्तः, ततोऽसौ सपरिवारः ब्रवीति-भगवन् ब्रूहि सर्व यथा तथा, अग्निहोत्रमुखा वेदा, यज्ञार्थ वेदसा मुखं । नक्षत्राणां मुखं चंद्रः, धर्माणां काश्यपो मुखं ॥ १॥ राहुमुक्तं यथा चंद्र, नमस्यंति अजानकाः । एवं वेदविदः केचित, ब्रह्मतत्वं न जानते ||२५८॥ J॥२॥ यो गृहानिर्गतस्सन् न पुनस्तत्रैव सज्जति, यश्च प्रवजन् न शोचति, आचार्यवचने च रमते, रागद्वेषौ च न कुरुते, तं वयं ACCASCA-नक दीप अनुक्रम [९६३१००६] SIDASHIER-Back [281] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२६], मूलं [१२..] / गाथा ||९९२...१०५८/१००७-१०४३||, नियुक्ति : [४८३...४८९/४८०-४८६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ||९९२१०५८|| ---%E श्रीउत्तरा कर्मब्राह्मणं प्राणातिपातादिविरत, वयं इमं प्रामण पशुबंधादिपापकर्मरहितं, निरतं न त प्रामणं नमः, एवं जयघोषेण वि- जयघोषस्य वैराग्यं चूर्णी 4 जयघोपो भवति प्रतिपादितः, तस्यैव सकाशे प्रबजितः, तपः कृत्वा 'स्ववित्ता पुव्वकम्माई'इत्यादि गताथों: (९९११५३१) नयाग २६ पूर्ववत् ।। जपणइज्जं नाम पंचवीसइममायणं ।। सामाचारी उक्तं पंचविंशतितम, इदानी पदविंशतितम, तस्य कोऽभिसंबंधः, पंचविंशतितमे ब्रमगुणा व्यावर्णिताः, पविशतितमे सामा॥२६९॥ चारी, ब्रह्मगुणावस्थितेन अवश्यमेव सामाचारी करणीया, अनेन संबंधेनायातस्यास्याप्यध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववयावर्ण्य || नामनिष्पने निक्षेपे सामाचारी निकम्वेवो सामंमि'इत्यादि गाथाद्वयं(४८३-४।५३३)व्यतिरिक्तं क्षीरशकेरादीनां सामभावो,भावसामं इच्छामिच्छादिक, आयारे निक्खेवो'इत्यादिगाथात्रयं ४८७-८-९।५३३ व्यतिरिक्तो नामादि,नामने तिणिसलता,धोवने हरिद्रारागः, प्रवासने कपिल्लकादि,शिक्षापने शुकसारिकादि,सुकरणे सुवर्णादि लब्धि(दध्ना सा गुडा,एप द्रव्याचार, भावे दशविधसामाचार्या चरणं, उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः,इदानी सूत्रालापकस्यावसरः,अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावक्तव्यं, सूत्रं चेई 'सामायारि पव क्खामि'इत्यादि(९९२-५३४) सर्व प्रायः गतार्थ,तथापि यत् किंचिद्वक्तव्यं तदुच्यते-दिवा पौरुषिप्रमाणं छायया ज्ञायते,आसाढमासे | इत्यादि प्रयोगेण,रात्री पुनः कथं नातं तद्, उच्यते,यमक्षत्र रात्रि परिसमापयति तस्मिनक्षत्रे चतुर्भागे स्थिते प्रथमप्रहरः कालिक श्रुते तस्य तस्मिन् स्वाध्यायः क्रियते, तस्मिन्नेव नक्षत्रे णभोमध्ये स्थिते अर्द्धरात्रः, तस्मियेव नक्षत्रे चतुर्भागे शेपस्थिते पत्रिमः ||२६९॥ प्रहरः,दशविधा सामाचारी चक्रवालसामाचारी न अत्राभिहिता, (ओघरूपा च ) तौ च आवश्यकानुसरेण ज्ञातव्याविति, नयाः पूर्ववत्, षड्विंशति-तमं सामाचारीनामकं समाप्तं ।। -- - दीप अनुक्रम [१००७१०४३] - - - अध्ययनं -२५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२६- “सामाचारी" आरभ्यते अध्ययनं -२६- परिसमाप्तं [282] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२७], मूलं [१२..] / गाथा ||१०४४...१०६०/१०५९-१०७५||, नियुक्ति : [४९०...४९८/४८७-४९५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३) उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत २७ सूत्रांक [१२...] गाथा ||१०४४१०६०|| श्रीउत्तरा इदानी सप्तविंशतितम, तस्य कोऽभिसंबंधः, पड्विंशतितमे सामाचारी अभिहितेति सप्तविंशतितमे अशठता व्यावर्णिता, निक्षेपादि चूणालाच साधुना सर्वप्रयोजनेषु कर्तव्या, अनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववयावप नामनिष्पने निक्षेपे | शक्षदुष्टता खलुकिज्जमि' इत्यादि गाथाद्वयं (४९०-१५४८) व्यतिरिक्तो बलीपर्दो मायी, खुलुंका गली मरालो शठो प्रतिलोमे अविनीत A खलुंकीये . जाम इत्यादि इत्येकार्थः, भाव खलुको प्रतिलोमो, सर्वेषु मोक्षप्रयोजनेषु खलप्रकार 'अबदाली' इत्यादि (४५२-५४८) अबदाली स्कंधानुयुगं योत्रं च | ॥२७०॥ सुविण्णासति, उन्नसति, योत्रं युगं च भांडं भनक्ति, उत्पथेन गच्छति, विषथेन-विषमेण पथा गच्छति,'जं किरदव्व ग्वुज्ज'इत्यादि गाथाद्वय(४९३-४१५४८)गतार्थ, 'दंसमसक' इत्यादि (४९५१५४८)दंसमसकतुल्या जात्यादितुदनसीला,जलूकतुल्या दोषग्राहिनः, 5 कपिकतुल्या असमाधिकारिणः, तीक्ष्णा' निस्त्रिंशा मृदवः- अत्यंत अज्ञाः चंडा-रोषणाः मार्दविका अत्यंतमलसा, एते भाव-18 खलुका । 'जे किर गुरुपतिणीया' इत्यादि गाथात्रयं ४९६-७-८१५४८)गतार्थ,उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानी सत्रालापकस्या-11 वसर, अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं,सूत्रं चंद-'थरे गणधरे गग्गे'इत्यादि (१०४४ ५५०) स्थिरीकरणात् स्थविस, गण धारयतीति गणधरः-गणी, गच्छआचार्य इत्यर्थ , गर्गसगोत्र इति, मन्यते त्रिकालावस्थितं जगदिति मुनिः, विशारद हेतोः, संग्रहो. जापग्रहकुशल इत्यर्थः, गणिभावं प्रति आकीर्णः, सुतरां आचार्यगुणोपेतः, ज्ञानादिसमाधिकारकः, स इदानी आचार्यः शिष्यस्योपदेशं ददाति-बहन-रथादि तस्मिन् युक्तस्य वलीवर्दादेहित यातव्योपदेशः अभिवर्त्तते, अथ न वहते तत् तस्यैवाशोभनं भवति, 11 एवं शिष्यस्यापि संयमयोगान् सम्यग्वहतः संसारच्छेदो भवति, यः पुनः संयमयोगेषु अविनीतान खलुंकान् योजयति असौ विधि-18 ।२७०11 चोदनामपि कुर्वन् क्लिश्यति, असमाधिं च लभते, लाघवं च प्रामोति, वक्ष्यमाणवलीचर्दसदृशाः कृशिष्या भवंति, ते च इमे दीप अनुक्रम [१०५९१०७५]] तयRTA अत्र अध्ययन -२७- "खलुंकिय" आरभ्यते [283] Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [१२...] गाथा ॥१०४४ १०६०|| दीप अनुक्रम [१०५९ १०७५] भाग-7 “उत्तराध्ययन" - मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [२७], मूलं [१२..] / गाथा ||१०४४...१०६०/१०५९-१०७५]], निर्युक्तिः [४९०...४९८/४८७-४९५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूण २८ मोक्षमार्ग.! ॥२७१।। - 'एवं सति पुच्छमि ' (१०४७-५५२) इत्यादि गाथा सर्वा. एकं बलवर्दविशेषं पुच्छे पीलयति, अन्यमभीक्ष्णं तुदयति, अन्यदतस्तत्र दुष्टस्तत्कारणं कृत्वा पार्श्वस्थं उल्लंघ्य नश्यति, एवमादि कियत् वर्णयिष्यामि, यादृशास्ते दुष्टबलीवर्दा दुष्टशिक्षा अपि तादृशा एव, धर्म्मयाने वा योजिता भज्यन्ते धृतिदुर्बला एभिः कारणमैज्यन्ते, रिद्धिरससातागुरुत्वात्, सबलशीलत्वात्, क्रोधनत्वात्, भिक्षा लसिकत्वात्, स्वपक्षपरपक्षमान भी रुकत्वाद्भज्यन्ते, अन्यैः अनुशास्यमानोऽपि अन्तरभाषया दोषोद्घट्टनान् कुरुते, आचा र्याणां वचनं प्रतिकूलयति कथं ?, क्वचित् प्रेष्यमाणो ब्रवीति नासौ ममं जानाति, अथवा नासौ मम दास्यति, अथवा निर्गता सा एवमहं मन्ये, अन्यं तत्र श्रेष्यतां, प्रेष्यमानो प्रतिकूलयति, ततः स्वच्छन्दी सुखं विहरति, राजवेष्टिमिव मन्यमानो भृकुटिं कुर्वति, आचार्येण वाचिता संगृहीता भक्तपानेन पोषिता जातपक्षा पलायंते हंसा इव दिशो दिशं ततो आचार्या विचितयंतिखलुकैः सह समागतः किं मम दुष्टशिष्यैः ?, आत्मा मेऽवसीदति-' याशा मम शिष्यारतु, तादृशा गलिगईभा । गलिगर्दभं परिन्यूज्य, दृढं गृह्णात्यसौ तपः॥१॥ आचार्यः मृदुगंभीरसुसमाहितः शीलसमाहितो विहरतीति, नयाः पूर्ववत् । सप्तविंशतितमं समाप्तम् ॥ उक्तं सप्तविंशतितमं इदानीमष्टाविंशतितमं तस्य कोऽभिसम्बन्धः ?, सप्तविंशतितमे अशठता व्यावर्णिता, अष्टाविंशतितमे मोक्षमार्गोऽभिधीयते, मोक्षमार्गोऽशठस्यैव भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद्वयावर्ण्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे मोक्खमग्गगती 'णिक्खेवो मोक्खमि० ।। ४९९-५००-६५५।। इत्यादि, गाथाद्वयं ज्ञभव्यन्यतिरिक्तो निगलादिषु, भावमोक्खो अहिकम्ममुकको नाथच्यो भावमोक्खो, 'निक्खेवो मग्गमि०' ॥५०१-२/२५५ ।। इत्यादि गाथाद्वयं व्यतिरिक्तो जले स्थले वा, भावभागों ज्ञानदर्शनचारित्राणि, 'निक्खेयो उ गतीए० ' ॥ इत्यादि गाथात्रयं ( ५०३-४ ५ ) व्यतिरिक्तं जीवानां अध्ययनं -२७- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन - २८- "मोक्षमार्गगति” आरभ्यते [284] निक्षेपादि शैक्षदुष्टता च ॥२७१॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [२८], मूलं [१२..] / गाथा ||१०६१...१०९६/१०७६-११११||, नियुक्ति : [४९९...५०५/४९६-५०२], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत * श्रीउत्तरा चूणौं 40-% .९ सूत्रांक [१२...] गाथा ||१०६११०९६|| सम्यक्त्वा ॥२७२॥ पुद्गलानां वा गतिः, भावगती पंचप्रकारा, मोक्षगतीए अधिकारो, उक्तो नामपिनो निक्षेपः, इदानी सूत्रालापकस्यावसर, निक्षपाद अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद्भक्तव्यं, सूत्रं चेदं- 'मोक्वमग्गगति तच्च० ॥१०६१-५५६।। इत्यादि, सर्व प्रायः प्रकटार्थ,शिक्षदुष्टता तथापि यत्किंचिद् क्तव्यं तदुच्यते, चत्तारि कारणा ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि चतुष्टयमपि, ज्ञानदर्शनलक्षणं कथं ?, येन ज्ञानदर्शनाभ्यां बिना आत्मभावं न लभंत, गुणानामाश्रयो द्रव्यं, जीवद्रव्यस्य ज्ञानादयो गुणाः, अजीवद्रव्यस्य रूपादयः गुणा, द्रव्यासृताः पर्यायासुताच, पर्यायाः गुणाश्रिताश्च, धर्माधर्माकाशानि एकद्रव्यानी,न तेषां स्वतः प्रदेशकल्पना विद्यते,जीवाः पुद्गलाः कालाव अनन्तानि,वर्तनालक्षणः कालःचालयुवावृद्धत्वादिभिलक्षणलक्ष्यते,पुद्रललक्षणं तत्रान्धकारआतपोद्योतादीनि, पर्यायलक्षणं एकत्वं पृथ त्वं एकद्विव्यादिका संख्या संस्थान-आकारविशेषः, संयोगवियोगी, देवदत्तस्य गृहेण सह सम्बन्धः संयोगः, तस्माद् वियोगो विभागः, जीवादयस्तथ्याः पदार्थाः, तत्वा(ध्या)ना भावानां निसर्गादधिगमाद्वा शुद्धानां रुचिः सम्यग्दर्शन, तदशप्रकारं निसर्गादि,४ है कथं लक्ष्यते, तचानां भावानां गुणोत्कीतनेन सम्यग्ज्ञानानुष्टानेन व्यापनकुदर्शनवर्जनेन च लक्ष्यते, सम्यग्दर्शनविरहितं चारित्रं न भवति, दर्शन तु चारित्रविरहितमपि भवति, तथा ज्ञानं च दर्शनरहितं न भवति, ज्ञानेनापि विना चारित्रं न भवति । ज्ञानादिगुणविरहितस्य मोजो न भवति, अमुक्तस्य च निवृतिर्नास्ति, सुखं नास्तीत्यर्थः, ज्ञानादीनां विषयं प्रदर्शयति ज्ञानेन सर्व 11 है| पदार्थान् जानाति, दर्शनेन तानेव अद्धत्ते, चारित्रावस्थितस्यापूर्वपापग्रहणं न भवति, तपसा पूर्वोपात्तस्य कर्मणः क्षयं करोति ।। ॥२७२॥ नयाः पूर्ववत् ॥ अष्टाविंशतितमं मोक्षमार्गगतिनामकमध्ययनं समाप्त ॥ उक्तं अष्टाविंशतितम, इदानीमेकोनत्रिंशत्तम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः?, अष्टाविंशतितमे मोक्षमार्गोऽभिहितः, एकोनत्रिंशत्तमे अवश्य-| दीप अनुक्रम [१०७६११११] 11 अध्ययनं -२८- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -२९- "सम्यक्त्व पराक्रम" आरभ्यते [285] Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) । भाग-7 "उत्तराध्ययन"- मूलसूत्र अध्ययनं [२९], मूलं [१३-८८/१११२-११८८] / गाथा ||१०९७-/१११२-११८८||, नियुक्ति : [५०६...५१२/५०३-५०९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत श्रीउत्तरा सूत्रांक [१३-८८] | गाथा ||१०९७|| ३० मा 444X % दीप 18| मेवाप्रमादः करणीयः, स एव मोक्षमार्गः, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववत् व्यावर्ण्य नामनिष्प से | संवगादि चूरें | निक्षेपे अप्पमादज्झयणति, आदानपदेनेदमध्ययन सम्यक्त्वपराक्रममभिधीयते, गौणी संज्ञा अप्रमादश्रुतामति, अन्ये तु वीतरा-18 गश्रुतमिति, तत्र द्रव्ये पत्रादिलिखितं, अथवा व्यतिरिक्तं सूत्रं पंचप्रकार-अंडजादि, उक्तो नामनिष्फण्णो निक्षेपः, इदानी सूत्राला-1 तपोमार्ग. पकस्यावसर,अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं,सत्र चेद-सुतं मे आउसं! तेण(१३सू०५७२)मित्यादि सर्व, सम्यक्त्वसहितस्य | पराक्रमः सम्यक्त्वपराक्रमः, पराक्रमः- उत्साहो, वक्ष्यमाणेषु प्रयोजनेषु उत्साहः करणीयः, प्रत्येककारणानि सिद्धयन्ति, संसारे ॥२७३॥ स्थितश्च भवति संचिनः, 'ओपिजी भयचलनयो। संसारोद्विग्ना, उक्तंच- यथा मृगा मृत्युभयस्य भीता, उद्विग्नवासान लभन्ति निद्राम् । एवं बुधा ज्ञानविबोधितात्मा, संसारभीता न लभन्ति निद्रां ॥१॥" संवेगन कृतेन को गुणो भवति , तदुच्यते-' संवे-| गणं भंते! (जीवे) किं जणयति?, गोयमा! संवेगणं रूद्धा जणयति'(१५सू०५९८ एवं सर्वेषु पदेषु पुच्छानिवन्धनं वाच्यं,निव्वे-2 तेण सातासौख्यात् गृहस्वजनबन्धाच निर्वेदं करोति, निर्विनः सन् धर्मे उद्यमं करोति, भावसत्यं प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्ता | सम्यगुपयुक्तः करोति, योगा-मनोवाक्कायाः, सत्यमनोयोगः कर्तव्या, नासत्यमनोयोगः, एवं वागपि, काये लंघनप्लवनडेवनादि |2|| न करोति, एवं यावत् संभोगभत्तपच्चक्खाणेणं अणियट्टि जणयति, अत्र प्रवृत्ती प्रत्याख्यानशब्दो, यथा अम्बुव्रतो, अनिवृत्तिश्च र तस्मिन सयोगे भवति । सेलेसी ण भंते ! किं जणयति ?, अकम्मताए जीवा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वायंति सच-1||२७३॥ दुक्खाणं अंत करेंति, ब्रीमीति, नयाः पूर्ववत् ॥ समाप्तं एकोनत्रिंशत्तमम् ।। उक्तं एकोनत्रिंशत्तम, तस्य कोऽभिसम्बन्धः, एकोनत्रिंशत्तमे अगमादो व्यावर्णितः, त्रिंशत्तमे तपोऽभिधीयते, तच्च तपः 4- ++ अनुक्रम [१११२११८८] .4. P M अध्ययनं -२९- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३०- “तपोमार्गगति" आरभ्यते [286] Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक श्रीउत्तरा० [cc...] चूर्णां गाथा ३१ चरणवि० ॥२७४॥ |||१०९८११३४|| दीप अनुक्रम [११८९ १२२५] अध्ययनं [३०], मूलं [८८...] / गाथा ||१०९८-११३४/११८९-१२२५|| निर्युक्तिः [५१३...५१६/५१०-५१३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) 64-196 अप्रमादसहितस्यैव भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं (५१२-४-५-६।५९९) पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिप्पने निक्षेपे तपोमार्गगती 'णिक्वेवो तु तवंमी' त्यादि, गाथाचतुष्टयं व्यतिरिक्तो पंचतपादि भावे द्वादशविधं तपः शेषं गतार्थ, उक्तो नामनिष्फण्णो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसर, अस्माद् यावद् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं 'जहा य पावगं कम्' इत्यादि (१०९८ ६०० ) सर्व तप संतापे' तपसो मार्गः तपोमार्गः, गमनं गतिः, तपोमार्गस्य गतिः २, तपो येन प्रकारेण क्रियते इत्यर्थः, यदि पूर्व संवृताश्रवद्वारः ततः तपसा निःशेषं कर्म्म क्षपयति, प्राणिवधादीन्याश्रवद्वाराणि, अनशनं द्विविधं इत्वरं यावत्कथितं च इत्वरं चतुर्थादि, तदा अनेन प्रकारेण षड्विधं भवति श्रेण्यादि, चतुर्थषष्ठाष्टमादि षण्मासपर्यव साना श्रेणी श्रेणी श्रेण्या गुणिता प्रतरं भवति, प्रतरं श्रेण्या गुणितं वनं मवति, तदा घनो वर्गितो वर्गों भवति, सोऽपि वर्गः पुनरपि वर्ग्यते ततो वर्गवर्गो भवति, षष्ठोऽपि चित्तो नानाप्रकारो प्रकीर्णतपोऽभिधीयते, तदन्यत्राभिहितं शेषं दशवेकालिकचूर्णो अभिहितं एवमेवं तु द्विविधं, जे सम्मं आयरे गुणी से खिप्पं संसारा मुंचति पंडितेति बेमि, नयाः पूर्ववत् ॥ इति त्रिंशत्तमं अध्ययनं समाप्तम् उक्तं त्रिंशत्तमं, अथैकत्रिंशत्तमं, तस्य कोऽभिसम्बन्धः ?, त्रिंशत्तमे तपोमार्गगतिरभिहिता, एकत्रिंशत्तमे चरणविधिरभिधीयते, तपसा च विना चरणं नैव सम्पूर्ण भवति, अनेन सम्बन्धेन यातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिष्कष्णे निक्षेपे चरणविधिरिति, 'निक्खेवे चरणम्मि' इत्यादि गाथा पंच (५१७८-९-२०-२१।६११) व्यतिरिक्ते चैत्यवन्दन को गच्छति, मोदकं भक्षयति, भावे पंचविधमाचारमाचरति, व्यतिरिक्ते इन्द्रियार्थानां विधिः, भावे संगमयोगस्य तपसब यो विधिः, उनको नामनिष्फ अध्ययनं -३०- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३१- "चरणविधि" आरभ्यते [287] तपोवर्णनं. ॥२७४॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३१], मूलं [८८...] / गाथा ||११३५-११५५/१२२६-१२४६|| नियुक्ति : [५१७...५२१/५१४-५१८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||११३५११५५|| श्रीउत्तरायणो निक्षेपः। इदानी सूत्रालापकस्यावसरः, अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्र चंद-'चरणविधि पवस्वामि' इत्यादि असंयमादि चूर्णी (१९३५) सर्व, असंयमाद् विरतः, संयमे प्रवत्तेन, मंडलग्रहणाच्चातुरंतः संसारः परिगृह्यते, नारकतिर्यग्योनिमनुष्यामरभावः, पिंडेषणायां अवग्रहप्रतिमासु भयस्थानेषु ब्रह्मगुप्तिषु च एवं प्रतिक्रमणाणुसारेण ज्ञेयं, इत्येतेषु स्थानेषु यः प्रयत्नं करोति असौ प्रमादश्रुत ॥ संसाराद् विमुच्यते इति अवीमीति, नयाः पूर्ववत् ।। इति एकत्रिंशत्तम अध्ययन समाप्तम् ॥ ॥२७॥ उक्तं एकत्रिंशचम, इदानी द्वात्रिंशत्तम, एकत्रिंशत्तमे चरणविधिरभिहिता,द्वात्रिंशत्तमे प्रमादस्थानान्यभिधीयते,चरणं च अप्र-16 मत्तस्यैव सम्पूर्ण भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावये नामनिष्पन्ने निक्खेवे प्रमादस्थानं, H'निक्वेवो उ पमाते' इत्यादि गाथा अष्ट ।। १५२२-३--४-५.६-७-८-९।६२०) । व्यतिरिक्तो द्रव्यप्रमादः मद्यमधुप्रसन्नादि, भाव-18 प्रमादः निद्रा विकथा कपाये इन्द्रियाणां च कियास्थानं पूर्वोक्तं, तीर्थकराणां अप्रमत्तता व्यावयेते, ऋषभस्वामिनो वर्षेसहस्रेऽपि | संकलिज्जमाणे अहोरात्रं प्रमादः, वर्द्धमानस्वामिनः द्वादशसु वर्षेषु समधिकेषु संकलिज्जमाणे अन्तर्मुहूर्त प्रमादो, ये पुनर्नित्यं प्रमादास्ते संसारसागरं पर्यटन्ति, उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपो, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, अस्माद् यावत् सूत्रं निपतितं तावद् वक्तव्यं, सूत्रं चेदं-'अच्चंतकालस्स॥११५६-६२२।।इत्यादि, सर्व, अत्यन्तकालः अतीतोऽनागतो वर्तमानः परिगृह्यते, समूलस्य सर्वदुःखस्य यः प्रमोक्षस्तस्य, सर्वमूलस्येति दुःखस्य मूलं कर्म, कर्मणो मूलं रागद्वेषौ, तौ छित्त्वा भवति मोक्षो तन्मे प्रतिपादयितुः एकान्तहितं शृणुत, स मोक्ष एवं भवति ज्ञानप्रभावनया अज्ञानमृपावर्जनेन रागद्वेषक्षयेण गुरुवृद्धसेवया बालजनवर्जनेन स्वाध्यायेन ॥२७५।। धृत्या च भवति, तथा आहारेण मितेन एषणीयेन च, निपुणार्थे बुद्धिर्यस्य स सेव्यो गीतार्थः, निकेतनं-स्थानं तद्विवेकयोग्यं समाधि 4% दीप अनुक्रम [१२२६१२४६] --कर 0 4- 4. अध्ययनं -३१- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३२- "प्रमादस्थान" आरभ्यते [288] Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३२], मूलं [८८...] / गाथा ||११५६-१२६६/१२४७-१३५७|| नियुक्ति : [५२२...५२९/५१९-५२६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: चूर्णी म प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||११५६१२६६|| ३ श्रीउत्तरा कामो भजते, रागद्वेषौ कर्मवीज, मोहप्रभवं कर्म, कर्म च जातिमरणस्य मूलं, जातिमरणं दुःखमूलं, रागद्वेषौ मोहश्च यथा उध्रियते प्रमादवजेनं तमुपायं वक्ष्ये, रसा ते काम न निषेवणीया, आसविता दीप्तिकरा भवन्ति, प्रीणितं कुर्वन्तीत्यर्थः, प्रीणितं च कामा समभिद्रवन्ति, दुमं यथा स्वादुफलं हि पक्षिणः, यथा दवाग्निः प्रनुरेंधनः समारुतो नोपशमं गच्छति, तथेन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजने शमं न || | गच्छति, विविक्तशय्यासनयंत्रितानां ओमासणाणं दमितेन्द्रियाणां रागादयो नाभिभवन्ति चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधीभिः। प्रकृत्य नये इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञा न तेषु रागं करोति, अमनोज्ञेषु च द्वेष, तदाऽसौ समो भवति, चक्षु रूपं गृह्णाति, रूपेणापि गह्यते ॥२७६॥ चक्षुः, रूपेषु यो गद्धिमुपैति तीवां स शीघ्रमेव विनश्यति, आलोकलोलो यथा पतंगः, रूपानुगतोऽसौ चराचरप्राणिनो हिनस्ति, तस्माद्रागानुगतस्य परिग्रहो दोषः, यस्य जायते परिग्रहादत्ताहारित्वं ततो मृषावादः, एवं रागद्वेषानुगतो बहुकर्मसंचयो भवति, | | रूपाद्विरत्तो विशोको भवति, दुःखौघपरंपरेण च न लिप्यते, जलेन वा पद्मिनीपत्रं, एवं श्रोत्रघ्राणजिह्वास्पर्शा, विनाशमागच्छति इहलोके परलोके च, इहलोके तावत् शब्दान् मृगो घ्राणान्मधुकरः मच्छो जिह्वया गजो स्पर्शेन, इहलोक एवं विनाशमागच्छन्ति, निश्चयेन न ते दोषमुत्पादयन्ति, किन्तु यस्तेषु राग द्वेषं वा करोति स बध्यते, एवं क्रोधादयोऽपि कर्मवन्धहेतवो भवन्ति, यः || पुनर्विरक्तभावःस कर्मबन्धेन न लिप्यते, ततः शुभाध्यवसायिनःक्षपकश्रेण्यनुप्रवेशः,ततःक्रमेण मोहनीयज्ञानावरणीयदर्शनावरणी यांतरायेषु क्षयं गतेषु केवलं-सम्पूर्ण ज्ञानमुत्पद्यते, तत आयुषः क्षयात् सादिकमनन्तमच्याचा, निर्वाणसुखं प्राप्नोति, एवं अनादि- २७६।। MI कालप्रभवस्य मोक्षो व्याख्यातः, येन अत्यन्तसुखिनः सच्चा भवन्ति । इति ब्रवीमि, नयाः पूर्ववत।। समाप्तं द्वात्रिंशत्तममध्ययन। उक्त द्वात्रिंशत्तम इदानी प्रयविंशत्तम उच्यते, तस्य कोऽभिसम्बन्धी, द्वात्रिंशत्तमे प्रमादोऽभिहितः, प्रयस्त्रिंशत्तमे का-11 दीप अनुक्रम [१२४७१३५७] -AP अध्ययनं -३२- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३३- "कर्मप्रकृति" आरभ्यते [289] Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३३], मूलं [८८...] / गाथा ||१२६७-१२९१/१३५८-१३८२|| नियुक्ति : [५३०...५३७/५२७-५३३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: श्रीउत्तरादा चूणौँ ३३ प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||१२६७१२९१|| प्रकृत्य -A- Tण्यभिधीयन्ते, प्रमादवशगो जीवः कर्म बध्नाति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववदू व्यावये नाम- प्रमादवर्जन | निष्पने निक्षेपे कम्मपगडी 'कम्ममि निक्खेवो० ॥ इत्यादिगाथा अष्ट (५३०.१-२-३-४-५-६-७१६४० नियुक्ती)) व्यतिरिक्तं कर्म | द्रव्यं च नोकर्मद्रव्यं, अनुदयः कर्मणो, नोकर्मद्रव्यं लेप्पकर्मादि, भावे कर्मणां उदयः, व्यतिरिक्तो द्रव्यप्रकृतिः कर्मणो कर्माX| भ्यां कर्मणि अनुदयः, नोकर्म ग्रहणप्रायोग्यानि मुक्तानि द्रव्याणि, भावे मूलोत्तरप्रकृतीनां उदया,- पयतिद्विति अणुभागो। पदेसकम्मं च सुट्ठ णाऊणं । एतेसि संबरे खलु खवणे उ सयावि जइतन्त्र ।।१।। उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्या-11 ॥२७७|| वसरः, अस्मायावत्सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चंद-'अट्ट कम्माई बोच्छामी' त्यादि(१२६७-६४१) सर्व, तेषां कर्मणां चतु:प्रकारो बन्धो भवति प्रकृतिबन्धः स्थितिबन्ध अनुभागवन्ध प्रदेशपन्ध इति, प्रकृतिशब्देन स्वभावो भेदशाभिधीयते, स्थितिः। कालावस्थानं, अनुभावो यो यस्य कर्मणः शुभो अशुभो वा विपाकः, प्रदेशबन्धः जीवप्रदेशानां कर्म पुद्गलानां च सम्बन्धः, तत्र प्रकृतिबन्धो द्विविधः मूलोत्तरभेदः, अष्टौ मूलप्रकृतयः, तद्यथा-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय वेदनीयं मोहनायं आयुष्कं नाम गोत्र। अन्तरायामिति, ज्ञानमावृणोतीति ज्ञानावरणीय, दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीय, वेदना करोतीति वेदनीय, मुह्यतीति मोहनीय, 1 येन नारकादिभावस्तिष्ठति तदायुष्फ, गतिजात्यादिभिः प्रकारैर्नामयतीति नाम, प्रधानमप्रधानं वा करोतीति गोत्रं, अन्तरायं । करोतीति अन्तरायिकं, इदानीं उत्तरप्रकृतयोऽभिधीयते-ज्ञानावरणं पंचप्रकारं आभिनिवोधिकश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि, एषा-12 ||२७७॥ | मावरणं, दर्शनावरणं नवमेदं चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानि तेषामावरण, निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानार्द्धरिति, एषामुदयं । करोतीति वेदनीयं सातमसातं च,तयोरुदयं करोतीति,मोहनीयं अष्टाविंशतिमेदं,तत्समासतो द्विविध-दर्शनमोहं चरित्चमोई, दर्शनमोह %E904 दीप अनुक्रम [१३५८१३८२] [290] Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३३], मूलं [८८...] / गाथा ||१२६७-१२९१/१३५८-१३८२|| नियुक्ति : [५३०...५३७/५२७-५३३], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३] उत्तराध्ययन-नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि: - प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||१२६७१२९१|| ३४ K श्रीउत्तरा सप्तभेदं अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोमा सम्यक्त्वं सम्यग्गिथ्यात्वं मिथ्यात्वं, चरित्तमोहनीय एकविंशतिभेदं अप्रत्याख्यानाः प्रमादर चूर्णी क्रोधादयश्चत्वारः प्रत्याख्यानावरणा क्रोधादयश्चत्वारः संज्वलनक्रोधादयश्चत्वारः हास्यरत्यरतिभयोकजुगुप्साखीपुनपुंसकवेदा, लेश्याध्य०3 एषामुदयादेतानि भवन्ति, आयुष्कं चतुर्भेदं नरकतिर्यग्योनिमनुष्यदेवानि, एषामुदयात्, नाम द्विचत्वारिंशद्भेदं शुभमशुभं च अनयोरुदयात् , गोत्रं द्विविधं , शुभमशुभं च अनयोरुदयात् , अन्तरायं पंचप्रकार- दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च, ॥२७८॥ | एतान्यपि तदुदयादेव भवंति । इदानी स्थितिबन्धोऽभिधीयते- णाणावरणीयस्य स्थितिः जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टेन त्रिंशत्साग रोपमकोटाकोट्यः त्रीणि च वर्षसहस्राणि आबाधा अंतरं भवति, बाध लोडने, न बाधा अबाधा, तत्र उदयो न भवतीत्यर्थः, तैश्च सत्स्थितिरूना भवति, एवं दर्शनावरणीयान्तराययोः, वेदनीयस्थितिर्जघन्येन द्वादश मुहर्चा उत्कृप्टेन त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः. शेषं तदेव, मोहनीयं द्विविधं-दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च, दर्शनमोहनीय जघन्येनान्तर्मुहूर्न उत्कृष्टेन चत्वारिंशत्सागरोपम-19 | कोटीकोटयः, चत्वारि वर्षसहस्राण्याबाधा अन्तरं भवति, शेषं तदेव चारित्रमोहनीस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त उत्कृष्टेन सप्ततिः सागरोका पमकोटाकोटयः, सप्त वर्षसहस्राणि आपाधा अन्तरं भवति, शेषं तदेव, आयुष्कस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोप मानि, नामगोत्रयोर्जघन्येन अष्टौ मुहूर्ता, उत्कृष्टेन विंशतिः सागरोपमकोटाकोटथः, वर्षसहस्रद्वयं आबाधा अंतरं भवति, शेष तदेव । ईर्यापथस्य कर्मणः स्थितिर्जघन्येन उत्कृष्टन च समयः, अनुभावप्रदेशबन्धौ पूर्वोक्ती, कर्मबन्धकरणानां संवरः करणीयः, बढ़ाना क्षपनं प्रति यत्नः करणीय इति, ब्रीमि, नयाः पूर्ववत् ॥ इति चयस्त्रिंशत्तममध्यपनं समाप्तम् ।। उक्तं त्रयस्त्रिंशत्तम,इदानीं चतुखिंशत्तमं उच्यते तस्य कोऽभिसम्बन्धः त्रयस्त्रिंशत्तमे कर्मोक्तं, चतुर्विंशत्तमे तत्कारणभूता लेश्या, हररु दीप अनुक्रम [१३५८१३८२] - KNS - - २७८॥ अध्ययनं -३३- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३४- "लेश्या" आरभ्यते [291] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [cc...] गाथा ||१२९२ १३५२|| दीप अनुक्रम [१३८३ १४४३] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (निर्युक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३४] मूलं [८८...] / गाथा || १२९२-१३५२/१३८३-१४४३||, निर्युक्ति: [५३८...५४७/५३४-५४५], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णां ३५ अनगारा० ॥२७९ ॥ अनेन सम्बन्धेनायातस्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्ववद् व्यावर्ण्य नामनिष्यन्ने निक्षेपे लेसज्झयणं, 'लेसाणं निक्खेवो० ' (५३८-४७नि०६५१) इत्यादि गाथा दश व्यतिरिक्ता द्रव्य लेश्या द्विविधा कर्म्मलेश्या अकर्म्मद्रव्यलेश्या, अकर्म्म द्रव्य लेश्या द्विविधाजीवानामजीवानां च जीवलेश्या भव्याभव्ययोः, सा सप्तविधा, कृष्णादयः, सप्तमा संयोगजा, लेश्याप्रायोग्यद्रव्याणि परिगृह्यन्ते, जोगा बज्झा वसंतगा य पत्ता उदीरणावलियं (५४८) जीवलेश्या द्विविधा चन्द्रादि ग्रन्थत एव ज्ञायन्ते, कर्मदव्यलेश्या षड्विधा कृष्णादि, अत्रापि जीव संबद्धानि द्रव्याणि परिगृह्यन्ते, भावलेश्या द्विविधा विशुद्धा अविशुद्धाः, उपशमे क्षये च शेषं गतार्थ, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापकस्यावसरः, अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदं 'लेसज्झयणं पवक्खामी ० ' ।। १२९२-६५२ ।। इत्यादि, सर्वं लेश्यानां दश कारणानि नामादीनि वक्तव्यानि, कृष्णलेश्यावर्ण: जीमूतो- मेघ, स च स्निग्धः, गवलं महिषं श्रृंगं, रिष्ठो-द्रोणकाकः, कापोते कोइललगो तेलंकरका, रसा जह कडुगतुंचगादी, गंधा गोमडाती, स्पशी जहा करगयादि, परिणामो उत्तमाधममध्यम स्त्रिविधः, स एव त्रिभिर्गुणितो नवभेदो भवति, नव त्रिभिर्गुणिताः सप्तविंशतिः सप्तविंशति त्रिभिर्गुणिता एकाशीति एकाशीतिस्त्रिभिर्गुणिता द्वे शते चत्वारिंशे भवतः कृष्णायास्तिस्रो लेश्या दुर्गतिगमनाय भवन्ति, लेश्यापरिणामस्य आदिसमये अन्तसमये वा न कश्चित् म्रियते यदा तु अन्तर्मुहूर्ते गते शेषे वा भवति तदा परभवं गच्छति, अपसत्थाओं परिवज्जेजा, पसत्थाओ अहेट्ठए मुणिति, बेमि नयाः पूर्ववत् । इति चतुस्त्रिंशत्तमं अध्ययनं समाप्तम् उक्तं चतुस्त्रिंशत्तमं इदानीं पंचत्रिंशत्तमं तस्य कोऽभिसम्बन्धः १, चतुस्त्रिंशत्तमे लेश्याऽभिहिता, पंचत्रिंशत्तमे अणगारगुणा अभिधीयन्ते, अनगारथ अशस्तलेश्याविरहितो प्रशस्यलेश्यायुक्तो भवति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य अनु अध्ययनं -३४- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन - ३५- "लेश्या" आरभ्यते [292] श्रमदवर्जनं ।।२७९|| Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३५], मूलं [८८...] / गाथा ||१३५३-१३७३/१४४४-१४६४|| नियुक्ति : [५४८...५५०/५४६-५४८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४३] मूलसूत्र-०३) उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि श्रीउत्तरा प्रमादवजेनं प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||१३५३१३७३|| ॥२८॥ योगद्वारचतुष्टयं पूर्ववत् व्यावर्ण्य नामनिष्फण्णे निक्षेपे अणगारमग्गगती 'अणगारे निक्लेवो० ॥५४९-५०१६६३॥ इत्यादि गाथात्रय, व्यतिरिक्त निलवादि, भावे सम्यग्दृष्टिः अगारवासाद्विनिर्मुक्तः, उक्तो नामनिष्फण्णो निक्षेपः । इदानीं सूत्रालाप| कस्यावसरः, अस्माद्यावत् सूत्रं निपतितं तावद्वक्तव्यं,सूत्रं चेदं-'सुणेह मे एगमणे' इत्यादि (१३५३-६६८)सर्च 'पंज संगे ' एसो | Pा संग ज्ञात्वा परिवर्जयेत् , एकान्ते, परेण आत्मार्थकते वासं तत्राभिरोचयेत, नैव स्वयं गृहाणि कुर्वीत नैव कारापयेत् नैवानुजानीयात, | यस्मात्तत्र त्रसस्थावराणां दृश्यते वधः, तथा भक्तपाने च करणकारणाणुमोदने सस्थावराणां वधः, इन्धन प्राप्य विसर्पते अग्नि | सर्वतो धारश्च, संयमयात्रार्थ भुज्जीत, न रसार्थ, न वन्दनपूजनादि प्रार्थयेत् , धर्मशुक्ले ध्याने सदा ध्यायेत् । पश्चिमे काले | | आहारपरित्यागं कृत्वा, 'निर्ममो निरहंकारो, वीतरागो निराश्रयः। संप्राप्य केवलं ज्ञानं, शाश्वत परिनिवृतः ॥' इति ब्रवीमि, नयाः पूर्ववत् । इति पञ्चत्रिंशत्तमं अध्ययनं समाप्तम् ।। उक्तं पश्चत्रिंशत्तमं, इदानी पद्मिशत्तम, तस्य कोऽमिसम्बन्धः १, पञ्चत्रिंशत्तमे अनगारगुणा अभिहिताः, पत्रिंशत्तमे जीवाजीवविभक्तिरभिधीयते, अणगारेन च जीवाजीवविभक्ति तव्या, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य अध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयं पूर्व | वद व्यावये नामनिप्पने निक्खेवे जीवाजीवविभक्तिः, 'निक्खेवो जीवंमि। (५५२-३१६७१) इत्यादि गाथाद्वयं, व्यतिरिक्त | गुणपर्यायवियुक्तं जीवद्रव्यं, भावे गुणपर्यायसहितं, जीवपरिणामो दशविधः पंचेन्द्रियाणि क्रोधादयश्चत्वारः मनश्च, सहवर्तिनो गुणाः क्रमवर्जिनः पर्याया,गुणा प्रशस्ता:अप्रशस्ताच,प्रशस्ता सानादयो,अप्रशस्ता क्रोधादया,पर्याया नरकादिभवा:, निक्खेवो उ अजीवे |॥५५४-५।६७१॥ इत्यादि गाथाद्वयं,व्यतिरिक्तं गुणरहित अजीवद्रव्यं, भावे गुणपर्यायसहितं अजीवद्रव्यं, परिणामो दशविधः शब्द दीप अनुक्रम [१४४४१४६४] % A4 ॥२८॥ अध्ययनं -३५- परिसमाप्तं अत्र अध्ययन -३६- "अणगारगुण" आरभ्यते [293] Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) । भाग-7 "उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र-४ (नियुक्ति: + चूर्णि:) अध्ययनं [३६], मूलं [८८...] / गाथा ||१३७४-१६४०/१४६५-१७३१||, नियुक्ति : [५५१...५५९/५४९-५५९], भाष्यं [१-१५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४३], मूलसूत्र - [३] उत्तराध्ययन नियुक्ति: एवं जिनदासगणि-रचिता चूर्णि: अधिकारी प्रत सूत्रांक [८८...] गाथा ||१३७४१६४०|| जीवजीवा श्रीउत्तरारूपस्पशेरसगन्धाः शुभा अशुभाष । 'निक्खेवो विभत्ती' इत्यादि गाथा सप्त ५५६-६२२६७१) विभजनं विभक्तिः, जीवानाम- जीवानां च भेदप्रत्याख्यापन, जीवानां सिद्धानां असिद्धानां च, अजीवानां रूपीणामरूपीणां च, भावे भावानां विभक्तिः भाववि३६ भक्तिः, भावानां भेदप्रत्याख्यापन, अत्राधिकार जीवद्रव्यविभक्त्या अजीवद्रव्यविभक्त्या च, जे इति निर्देश, किलशब्दः परो Hक्षवाची, एवं किल आचार्याः कथयन्ति-ये भव्यास्तेषामपि ये परीतसंसारिणो-भवाष्टाभ्यन्तरे सेत्स्यन्तो, पुनरपि भव्यग्रहणं येषां ॥२८॥ तदावरणीयकर्मणां क्षयोपशमा विद्यते किल पठन्ति धीरा छत्तीसं उतरज्झाए,तम्दा जिणपण्याचे अणंतगमपज्जवेहिं संजुत्ते। अज्झाये जहजोग्गं गुरुप्पसाया अहिजंति॥१॥येषां सिद्धिर्भविष्यति, ये च गठियसत्वा रागद्वेषबहुला ये च अणंतसंसारिणःते संकिलिङ्ककम्मा कर्मभिः ओतप्रोता ते अयोग्या उत्तराध्ययनाना,तस्माज्जिनप्रज्ञप्तं अनन्तगमपर्यायैः संयुक्त तं स्वाध्याययोगेन यथायोग यथाविधि पुञ्जीत,13 यो यस्याध्ययनस्य योगः तेन गुरुप्रसादादधीते,उक्तो नामनिष्पनो निक्षेपः। इदानी सूत्रालाप कस्यावसरः,अस्माधावत्सूत्रं निपतित | तावद्वक्तव्यं, सूत्रं चेदै-'जीवाजीवविभत्ती० ॥१३७४ ६७२।। इत्यादि,सर्व, विभजनं विभक्तिः,भेदप्रत्याख्यापनमित्यर्थः, शृणुत मन मम, क एवमाह-सुधर्मस्वामी जम्बनाम ब्रवीति, सं०-जीवाजीवात्मको लोकः, सच क्षेत्रकालभावादिभिरनुगन्तव्या, अजीवाड-1 रविणो दशविधा, धम्मस्थिकायाधर्मास्तिकायः सम्पूर्णः परिगृह्यते, देशः त्रिभागचतुर्भागादि, प्रदेशो निरंशः एव धर्मास्तिकायः, आकाशं च, कालो, दशधा, धर्माधी लोकालोकप्रमाणं, समयक्षेत्र काला, द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायात्सर्व अनाद्यपयवसितं, पर्याया-1 मर्थिकस्य सादिपर्यवसितं, रूपिणश्चतुर्विधा, स्कन्धो अचित्तमहास्कन्धादि समूर्णः परिगृह्यते, देशस्विभागचभतुर्मागादि, प्रदेशोऽ | संख्येयतमोऽनन्ततमो वा प्रदेशः, परमश्चासावणुश्च परमाणु, निरंशः, क्षेत्रतः स्कन्धा, परमाणव, लोकालोको भजनीयो, कालतः दीप अनुक्रम [१४६५ ।२८१॥ १७३१] [294] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [cc...] गाथा ||१३७४ १६४०|| दीप अनुक्रम [१४६५ १७३१] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [३६], मूलं [८८...] / गाथा || १३७४-१६४० / १४६५-१७३१||, निर्युक्तिः [५५१...५५९/५४९-५५९], भाष्यं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णों ३६ जीवाजीवः ॥२८२॥ सन्ततिं प्राप्य अनाद्यपर्यवसिताः, रूपिअजीवानां स्थितिर्जघन्येन समयः उत्कृष्टेन असंख्येयः कालः, अन्तरं जघन्येन समय उत्कृष्टेन अनन्तः कालो, भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानादि परिणामः वर्णः कृष्णादि, गन्धः सुरभ्यादि, रसः विक्तादि, स्पर्शः कक्खडादि, संस्थानं परिमण्डलकादि, इदानीं संयोगः क्रियते वर्णतो ताव किन्हे भयिते स तु गन्धतो रसतो फासतो चैव भयिते, संठाणातोचि य, एवं नीललोहितहालिदसुकिल्लठाणं भजना, संयोगः कर्त्तव्य इत्यर्थः एवं वन्नगन्धरसफाससंठाणेहिं संजोया कायच्या, एषा अजीवविभक्तिः समासतो व्याख्याता । इदानीं जीवविभक्तिरुच्यते जीवा द्विविधाः सिद्धा संसारिण, सिद्धा परमार्थत एकाकारा एव पूर्वभाव प्रज्ञापनां प्रतीत्य भेदा अभिधीयते ' इत्थी पुरिस सिद्धा य, तहेब य नपुंसगा । सलिंगे अन्नलिंग य, गिहलिंगे तहेव य ॥ १ ॥ उकोसियाए ओगाहणाए तह मज्झिमाए य जहन्नाए य उट्टं, अहो य तिरियं समुमि ||२|| दस चैव नपुंसेसु, वसति इत्थीयासु य । पुरिसेसु असतं, समएणेगेण सिज्यंति शाचत्तारिय गिहलिंगे, अण्णलिंगे दसेव य । सेणिमि य असए, समएणेगेण सिज्झति ॥ ४ ॥ द्रव्यलिंग प्रतीत्य इदमभिहितं भावलिंगेन विना नास्ति सिद्धिः, उकोसयाए ओगाहणाए सिज्जांती जुगवं चैव । चत्तारि जहण्णा य जुगवं अद्भुतरं सतं ।। ५ ।। चतुरो उड्डलोगंमि, बीसपुहुतं अरे भने । सतं अद्भुत्तरं तिरिए, एगसमएण सिज्झती | ||४|| दुबे मुद्दे सिज्यंति, सेसजलेसुं न यो (चउ जणा। एसा उ सिज्झणा भणिता, जीवभावं पडुच्च उ ॥ ७|| संसारत्था जीवा द्विविधा साः स्थावराव, स्थावरा तिविहा जीवा पृथिवी आपो वनस्पति इति सा द्विविधा तेजो वायवश्व कीर्त्तिता, द्वीन्द्रियादयचतुर्विधाः, एषां भेदः भवस्थितेः आयु इतरं च विज्ञेयं ग्रन्धानुसारेणेति, जीवमजीवे एते गच्चा सहिऊण य सम्बन्नू संमतंमी जएज्जा, संजमे विदु एसेज्जा, तेणोवगते कालं किच्चाण संजते सिद्धे वा सासते भवति देवे वावि महिडिए ।। इति पादुकरे बुद्धे, [295] अजीवभेदाः ॥२८२|| Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [cc...] गाथा ||१३७४ १६४०|| दीप अनुक्रम [१४६५ १७३१] भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र - ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [३६], मूलं [८८...] / गाथा || १३७४-१६४० / १४६५-१७३१||, निर्युक्तिः [५५१...५५९/५४९-५५९], भाष्यं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः श्रीउत्तरा० चूर्णी णावते परिनिब्बुते । छत्तीसं उत्तरज्झयणे, भवसिद्धिय सष्णिये ॥ १॥ ति, इति परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने च, प्रादुः प्रकाशे, प्रकाशीकृत्य-प्रज्ञाप३६ * यित्वा बुद्ध:- अवगतार्थः ज्ञातकः ज्ञातकुलसमुद्भवः वर्द्धमानस्वामी, ततः परिनिर्वाणं गतः, किं प्रज्ञपयित्वा ?, षट्त्रिंशदुत्तराध्ययजीवाजीवः + नानि भवसिद्धिक समतानि भवसिद्धिकानामेव संमतानि नाभवसिद्धिकानामिति ब्रवीम्याचार्योपदेशात्, न स्वमनीषिकया, नयाः ॥ २८३ ॥ पूर्ववत् ॥ वाणिजकुलसंभूओ, कोडियगणिओ उ वयरसाहीती । गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगंमि ॥ १ ॥ ससमयपरसमयावऊ ओस्सी दितिमं सुगंभीरो । सीसगणसंपरिवुडो वक्षाणरतिष्पिओ आसी ॥ २ ॥ तेर्सि समिण इमं उत्तरझयणाण चुण्णिखंडं तु । रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदबुद्धीणं ॥ ३ ॥ जं एत्थं उस्सुतं, अयाणमाणेण विरतितं होज्जा । तं अणुओगधरा मे, अणुचिंतेउं समारेंतु पशिोध्ययनचूर्णी समाप्ता ग्रन्थानं ॥ ५८५० ॥ उत्तराध्ययनचूर्णिः संमत्ता ॥ ॥ ४ ॥ अध्ययनं -३६- परिसमाप्तं 39M उत्तराध्ययनचूर्णिः परिसमाप्ता [296] सिद्धभेदाः ॥ २८३ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] गाथा |--II दीप अनुक्रम [ भाग-7 “उत्तराध्ययन”- मूलसूत्र ४ (निर्युक्तिः + चूर्णि:) अध्ययनं [-] मूलं [--] / गाथा ||--||, निर्युक्ति: [--], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र-[०३] उत्तराध्ययन-निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णिः ॥ २८४॥ इति श्रीउत्तराध्ययनानां षट्त्रिंशतचूर्णिः * समाप्ता मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादिता (आगमसूत्र ४३) “उत्तराध्ययन-चूर्णि: " परिसमाप्ता: [297] ||२८४॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: भाग-7 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "उत्तराध्यनानि मूलसूत्र" [नियुक्ति एवं जिनदासगणि-रचिता वृत्तिः] 4 (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "उत्तराध्ययन" नियुक्ति: एवं चूर्णि: नामेण परिसमाप्ता सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-७ [आगम-४३] SAUR [298] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹਾਸ ਰਸ ਨੂੰ ਸਹੀ ਮਾਰ ਕਲਸ ਨੂੰ ਬਸ ਰਸ ਉਗ ਜ ਦੇਸ਼ ਭਰ ਗਸ਼ ਉਸ ਨੂੰ ਆਮ ਗਲ ਹੈ। ਬਲ ਸਰਾਸ आगम ਹc ਕਿ ਸਸ ਹਰਸ਼ ਬਰਾਬਰ ਹਾਰ ਸ ਗੁਰ ਸ ਹਸ ਸ [299]. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सचूर्णिक-आगम-सत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता। T ERRA Vapes K AM पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज - आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed.. Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751 [300] Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्व र्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है । इस संघमें पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी -महाराज के लिए उपाश्रय भी है , जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है । [301] Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणम् आजम मूल संशोधक आगम आगम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम आगम आगम आगम आगम - 43 “उत्तराध्ययन” नियुक्ति एवं चूर्णि: आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आजम आजमाआजम आजम [302]