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উলোগোৱা বিক্রিীসুল।
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- भूषण शाह
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॥ ॐ ही श्री श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
देवलोक से दिव्य आर्शिवाद :आगमप्रज्ञ परम पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी महाराजा
लेखक - भूषण शाह
-: प्रकाशक / प्राप्ति स्थान :
चन्द्रोदय परिवार
.शेठ मानसंग भोजराज ... शाह नविनचंद्र कांतिलाल रुपकलावाला बी-405-406, सुमतिनाथ, बाबावाडी, मांडवी (कच्छ)
पीन.-370465 मो.-9601529519 ... 8490051343
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ग्रंथ नाम - जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (प्रस्तुत ग्रंथ में स्थानकवासी रतनलाल डोशी द्वारा लीखित पुस्तक "जैनागम विरुद्ध मुर्तिपूजा" की सचोट समीक्षा है । यह ग्रंथ कीसीभी व्यक्ति व समुदाय विशेष को ध्यान में न रखकर बनाया गया है । मात्र यहां सन्मार्ग का संस्थापन कीया गया है । (प्रस्तुत ग्रंथ का न्याय क्षेत्र कच्छ मांडवी होगा) हमें आप ओनलाइन भी पढ सकते है... फेसबुक पर - jainatva jagaran इस पेज को लाईक करे. Email:- jainatva jagaran@gmail.com हमसे जुड़ने के लीए jainatvajagran पर लीखे. आपको हमारे अपडेट मीलते रहेंगे jainelibrary से भी आप इसे पढ सकते है। लेखक - भूषण शाह नकल - ५०,००० (पचास हजार) प्रकाशन वर्ष - ई.स. २०१४ मुल्य - ₹ 100/
-: प्रकाशक / प्राप्ति स्थान :
चन्द्रोदय परिवारबी,४०५-४०६, सुमतीनाथ बाबावाडी, मांडवी (कच्छ)
__ पीन.-३७०४६५. सुनिल बालड कपील मुणोत जैन प्रकाशन मंन्दिर जमना विहार ३८, मुणोतनगर, दोशीवाडानी पोल, भीलवाडा महर्षि गौतम मार्ग, कालुपुर रोड,
ब्यावर (राजस्थान) टंकशाल, अहमदाबाद
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ग्रंथ समर्पितम्.... सन्मार्ग संस्थापक, श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ के गौरव मुनिराज मुक्तिविजयजी महाराजा मुनिराज बुद्धिविजयजी महाराजा मुनिराज वृद्धिविजयजी महाराजा (स्थानकवासी नाम-मूलचंदजी) (स्थानकवासी नाम-बुटेरायजी) (स्थानकवासी नाम-वृद्धिचंदजी)
PS:चा Raaf6559
KHANORTANDONNEIGROWONDEMENT
DILDIQQDIRELAND INDIA TOMTOM
APOOTOANORAMMOOOK
आता सतब्द तुरु चरमवंद आचार्य श्रीमद विजयानन्द सूरीश्वरजी म.सा.
MONOMICRON O MODMONDIMONOMOdisiangs,
पंजाबदेशोद्धारक आचार्य विजयानंदसूरिजी महाराजा (स्थानकवासी नाम-आत्मारामजी) के हस्तकमलो में सादर समर्पितम्...
-भूषण शाह...
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२.
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४.
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६.
अनुक्रमणिका
प्रस्तावना.
आदि वचन
स्थानकवासी पंथ.
हृदय की बात.
जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा के निवेदन की समीक्षा.
भूमिका की समीक्षा.
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७. तुंगिका के श्रमणोपासक
समीक्षा.. १८. चारणमुनि और मूर्तिपूजा समीक्षा १९. द्रौपदी और मूर्तिपूजा → समीक्षा
→
२०. कथाओं के उदाहरण समीक्षा.
२१.
लोंकागच्छीय यति
समीक्षा.
२२.
स्थापनाचार्य का मिथ्या अडंगा → समीक्षा.
२३. व्यवहारसूत्र का समभावित चैत्य
समीक्षा.
२४. पट्टावली के नाम से प्रपंच २५. स्वर्णगुलिका
समीक्षा
दाढ़ा - पूजन - समीक्षा
भरतेश्वर के मूर्ति निर्माण की असत्यता समीक्षा श्रेणिक और मूर्तिपूजा
समीक्षा.
चंपानगरी और अरिहंत चैत्य → समीक्षा
पूयणवत्तियं समीक्षा
चमरेंद्र और मूर्तिपूजा का शरण → समीक्षा
देवाणं आसायणाए
समीक्षा
आनन्द श्रमणोपासक
अंबड परिव्राजक और मूर्तिपूजा
समीक्षा
→ समीक्षा..
समीक्षा
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२८.
२९.
३०. साधुमार्गी जैन मूर्तिपूजक नहीं हैं → समीक्षा
समीक्षा.
स्थापनासत्य में समझफेर
समीक्षा
१४८
डॉ. हर्मन जेकोबी का अटल अभिप्राय समीक्षा... १५१
स्तूप निर्माण का कारण समीक्षा
१५३
भक्ति या अपमान समीक्षा
१५५
१५६
१५६
समीक्षा १५८
क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं ? → समीक्षा १६७ चैत्य शब्द के अर्थ → समीक्षा.
१६९
३१. विकृति का सहारा
३२. मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध
३३.
३४.
३५. बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प
समीक्षा
१७३
३६.
समीक्षा १८२
क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है → समीक्षा .. १७७ ३७. मूर्तिपूजा विषयक ग्रंथो की अप्रामाणिकता ३८. मूर्तिपूजा के विरूद्ध प्रमाण संग्रह → समीक्षा. ३९. उपसंहार का संहार
१८४
समीक्षा ....
१९४
४०.
२०२
आगम सूत्रो में जिनप्रतिमा का अधिकार ४१. आगमिक एवं मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में द्रव्यपूजा एवं भावपूजा का समन्वय
४२. मूर्तिपूजा नुं महत्व
४३. मूर्तिपूजा के जैनागमों में पाठ
४४.
ज्ञाताधर्म कथा का पाठ
आत्मारामजी महाराज का पत्र जडपूजा गुणपूजा का स्पष्टीकरण
भगवति में ज्ञान शब्द प्रयोग सूचि
भगवति में चैत्य शब्द प्रयोग सूचि
४५.
४६.
४७.
४८.
४९. ढुंढक मत विचार.
५०.
मूर्ति
श्रेष्ठ आलंबन.
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॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥
१. प्रस्तावना
धर्मध्वंसे क्रियालोपे, स्वसिद्धान्तार्थ विप्लवे ।
अपृष्टेनाऽपि शक्तेन वक्तव्यं तं निषेधितुम् ॥
जब जब धर्म का ध्वंस हो रहा हो, जिनशासन में आन्तरिक एवं बाह्य क्रिया का लोप हो रहा हो, जब परमतारक परमात्मा के बताए आगमों के सिद्धांत का नाश हो रहा हो, ऐसे समय में कोई पूछे या ना पूछे शक्तिसंपन्न आत्मा को उन्मार्ग का उत्थापन व सन्मार्ग का संस्थापन करना, ऐसी प्रभु आज्ञा है ।
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अभी मेरे हाथ में स्थानकवासी द्वारा निकाली कई पुस्तके आई । वैसे कभी भी कोई जवाब देना या पुस्तक छपवाना नही सोचा था परंतु 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' पुस्तक को देख मन में विचार आया कि अगर इस समय खंडन नहीं किया गया तो धीरे धीरे बीज का वृक्ष बन जाएगा। अगर समयसमय पर अनुपयोगी वृक्षादि को काटा न जाए तो वे सबको परेशान करते हैं । जैन शासन में परमात्मा की जन्मराशि पर बैठा भस्मग्रह बहुत ही हानिकारक साबित हुआ है। इस ग्रह के प्रभाव के समय में कई तरह का विग्रह हुआ है। नए नए प्रभु आज्ञा विरुद्ध पंथ भी निकले हैं । कई निन्हव भी हुए हैं। बस इसी श्रेणी में आता है स्थानक पंथ अर्थात् ढुंढक मत बिना आगम आधार बिना कोई सोच बस केवल द्वेष के वश चल पडा पंथ यह है स्थानकवासी ढूंढिया मत ।
स्थानकवासी समाज में मूर्धन्य पंडित माने जानेवाले - लेखक श्री रतनलालजी डोशी (सैलाना वाले) ने मूर्तिपूजा विरुद्ध एक किताब छपवायी है, जिसका नाम है
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'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा'
यद्यपि मंदिर और मूर्ति को उपयोगी समझकर आज अधिकांश स्थानकवासी संत और स्थानकवासी लोग अपने गुरु के समाधिमंदिर, मूर्ति, चबूतरा, छत्री आदि निर्माण करवाते ही है और आजकल मन्दिर भी बनवा रहे हैं। जैसे स्थानकवासी दिनेशमुनि कच्छ बीदडा, शिवमुनि अम्बाला आदि, इस शुभकार्य में हिंसा पाप मानते नहीं हैं। क्योंकि यदि इसमें हिंसा का पाप माने तो वे क्यों इसे बनवाते ? और धन बर्बाद करके पाप क्यों मोल लेते ?
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
यानि हाथ कंकण को आरसी की आवश्यकता ही नहीं रहती - फिर भी जब मंदिर और मूर्ति की बात आती है तो स्थानकवासी संत आदि असत्य का अनुचित कोलाहल मचाते हैं, इसलिए हमने
" जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा"
नाम की यह सत्यसंदेश किताब छपवायी है, ताकि श्रद्धावंत धर्मीलोग भ्रमित न होवे ।
श्री रतनलालजी डोशी ने अपनी "जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा" पुस्तक में कही की ईंट - कहीं का रोडा, भानुमति ने कुबडा जोडा - वाला हाल प्रस्तुत किया है ।
श्री जैनागमों में एक भी स्थल पर मूर्तिपूजा का विरोधी वाक्य या अंश वे बता नहीं सके है । क्योंकि यदि जिनमंदिर व जिनमूर्ति पूजा का श्री आगमशास्त्रों में विरोध होता तो जिस प्रकार भगवान श्री महावीरस्वामीने हिंसा का या कामभोग का स्पष्ट निषेध किया है, जैसे कि - सव्वे जीवा, सव्वे पाणा, सव्वे सत्ता न हन्तव्वा, अथवा सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा... इसी प्रकार जिनमंदिर का और जिनपूजा का भी स्पष्ट निषेध होता, वह नहीं किया है, इससे भी स्पष्ट होता है कि- जैनागमों में मंदिर व मूर्ति का निषेध नहीं है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
और निषेध होता तो पूर्व से ही निषेध होता, जब कि निषेध और विरोध करनेवाला स्थानकवासी पंथ तो करीब ५०० वर्ष में नया पैदा हुआ है और वह भी अनागमिक और बेबुनियाद पंथ है । . जिनमंदिर व जिनमूर्ति के विरोध का कारण स्थानकवासी लोग हिंसा होने का बताते है - पर हिंसा तो कबूतर को दाना-चुगा देने में तथा गाय को घास डालने में भी है । तो फिर वे इन सभी का निषेध-विरोध क्यों नहीं करते ?
श्री रतनलालजी डोशी ने - 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' में बहुत विपरित कुतर्क लगाये हैं, जो उनके अभिनिवेश की पुष्टि करता है। यदि जैनागमों के प्रति इस प्रकार के विपरीत कुतर्क ही लगाने हों, तो फिर सारे के सारे जैनागमों को झुठलाने पडेंगे, जैसे कि दिगम्बरों ने किया है ।
और यदि कहेंगे कि- जैनागम सत्य है, पर उसमें आती जिनघर, चैत्य, जिनपडिमा, चैत्यवंदन इत्यादि सब बाते असत्य हैं । तो फिर प्रश्न होगा कि - ये ही असत्य है, उसमें क्या प्रमाण है ? क्योंकि आप तो नये पैदा हुए हो, और जिनमंदिर और मूर्तिपूजा तो आपसे पहिले की प्राचीन है, जिसके साक्षी स्वतः सभी जिनागम और प्राचीनमूर्तियां है।
यदि आगमशास्त्रों को असत्य ठहराना हों तो अज्ञानता व मिथ्यात्ववश आप ऐसा कह भी सकते हैं । जैसे
(१) भगवान के समवसरण होने में कोई प्रमाण नहीं है । सर्वत्यागी भगवान भला रत्न-सोना-चांदी के गढ़ पर क्यों बिराजमान होंगे ?
(२) पुष्पों की वृष्टि होना भी असत्य है, क्योंकि इस की आवश्यकता ही वीतराग को नहीं होती।
(३) गौतमस्वामी चार ज्ञान के धारक नहीं थे, यदि होते तो आनंद की सीधी-सादी सत्य बात को क्यों झुठलाते ? .
(४) तीर्थंकर भगवान जब चलते थे, विहार करते थे- तब कांटे उलटे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हो जाते थे, पेड नम जाते थे, पक्षी प्रदक्षिणा देते थे ऐसी अनहोनी बातों में हम विश्वास नहीं करते हैं।
(५) तीर्थंकर के ज्ञानातिशय का प्रभाव ऐसा था कि- एक साथ में लाखों व्यक्तियों के लाखों प्रश्नों के उत्तर में भगवान एक वाक्य बोलते थे। - यह कैसे संभव हो सकता है ? लगता है कि - आगमशास्त्र जब ग्रंथारुढ हुए तब छद्मस्थ आचार्यों ने ऐसी झूठी बाते लिख डाली हों।
जैनागमों में कुतर्क को भावशत्रु की उपमा दी गई है, यथाबोधरोग क्षमापाय, श्रद्धाभंगोऽभिमानकृत् ।
कुतर्कः चेतसो नित्यं, भावशत्रुः अनेकधा । अर्थ : कुतर्क यह आत्मा का सदैव का अनेक रीत से भावशत्रु नुकसान कर्ता है, क्योंकि
कुतर्क (१) बोधरोग = सद्बुद्धि ज्ञान, सन्मार्ग को ही रोग लगाने वाला है जिससे जीव अपने बोध को मलिनं करता है ।
कुतर्क (२) क्षमापाय = क्षमा का नाश करनेवाला है । कुतर्क सर्वज्ञ के वचन से विपरीत ऐसे असद् पदार्थों पर अभिनिवेश करता है, जिससे क्षमा नाश होती है, जिससे जीव अपने बोध को मलिन करता है ।
कुतर्क (३) श्रद्धाभंग = स्वयं की एवं औरों की सश्रद्धा-विश्वास का नाश करनेवाला है, मिथ्यात्व लानेवाला है, क्योंकि यह आगमवचन को स्वीकारता नहीं ।
कुतर्क (४) अभिमानकृत् = अभिमान करानेवाले, मैं ही सच्चा हूँ, बाकी सब झूठे हैं- ऐसा मिथ्याभिमान कराने वाला है ।
जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा में श्री रतनलालजी डोशी ने अनेक कुतर्क किये है, संसार को बढ़ाया है।
कुतर्क करके - आगमवचनों को असत्य ठहराकर, स्थानकवासी संत
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
आदि परंपरा स्वयं उन्मार्ग का एवं महामिथ्यात्व का प्रचार करती है, देखिये -
(१) आलू-प्याज-मूली - गाजर - लहसून आदि जमीकंद में अनंतजीव है, ऐसा हम मानते नहीं है, ऐसा कहना असत्य है, हम स्थानकवासी संत तो आलू की चिप्स, प्याज के पकोड़े, मूली की भाजी, गाजर का हलवा, लहसुन की चटनी बड़े चांव से खाते हैं और खिलाते हैं । जमीकंद खाने में हिंसा है या पाप है ऐसा आगमों में लिखा है - यह हमारी स्थानकवासी संत परंपरा के अनेक तथाकथित विद्वान् सन्त नहीं मानते है ।
(२) तीर्थंकर का खून सफेद होता है - ऐसा आगमशास्त्रों में लिखा है- पर हम स्थानकवासी इसे गपौड़ा (गप्प ) समझते हैं ।
(३) सद्योजात शिशु महावीर के चरणस्पर्श से मेरु कंपायमान हुआ था, यह भी आगमिक झूठ है, इसका हम स्थानकमार्गी कभी स्वीकार नहीं करते है, क्योंकि यह कैसे संभव हो सकता है ।
(४) महादेह क्षेत्र में सीमंधरस्वामी आदि २० तीर्थंकर इस समय विद्यमान हैं, ऐसी फालतू बातों में हम स्थानकवासी थोडा सा भी विश्वास नहीं रखते हैं, कौन वहाँ देखने गया है, आगमों में लिखा है - यह तो पाठ भेद है, इस पर कोई भी विद्वान् कदापि विश्वास नहीं कर सकता ।
(५) रजस्वला महासती - साध्वी की अपवित्रता और उसके लिए तीन दिन शास्त्र स्वाध्याय निषेध की बात आगमों मे कहीं लिखी नहीं है, ऐसी बात आज के काल में सर्वथा अविश्वसनीय है । इसलिए हम स्थानकवासी ये बात नहीं मानते । हमारे स्थानकमार्गी समाज में तो साध्वी-सतियां जी आगम स्वाध्याय करती हैं, हम इसमें नहीं मानते ।
(६) सूर्य-चंद्र के विमान को भी हम शाश्वत नहीं मानते है फिर इसमें जिनालय की बात तो गप्प ही है । पहिले ये आकाश में नहीं थे, बाद में आ गये है । पहले से थे इस में कोई प्रमाण नहीं है, ऐसी अंधश्रद्धा में हम स्थानकवासी को किंचित् मात्र भी विश्वास नहीं है । भले ही चाहे कोई आप्तपुरुष के नाम से हमें भ्रमित करे पर हम भरमाने वाले - बहकनेवाले .
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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नहीं है, चाहे भले कोई हम स्थानकवासियों को मिथ्यात्वी कहे या अज्ञानी कहे हमारे लिए जो स्थानकवासी संतों ने कहा वो ही सच्चा है ।
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कुतर्कों की भी तो कोई हद है ? ऐसे अज्ञानीयों को क्या कहे ? लोकशाह आदि ने कोई क्रान्ति का सृजन नहीं किया बल्कि भ्रान्ति का ही सृजन किया है। प्रभु वीर की देदीप्यमान श्रमण परम्परा एवं उनके शाश्वत वचनों पर 'शंका' करके मिथ्यात्व को पोषित कर क्रियोद्धार नहीं, कुठारघात किया है । श्री जैनागमों में ऐसी तो हजारों बातें हो सकती हैं, जो कि स्थानकवासी संत आदि नहीं मानते हैं, इन पर चाहे जैसे कुतर्क कर सकते हैं । सज्जन मनीषी तर्क-वितर्क कर सकते हैं लेकिन कुतर्क वो ही करते हैं जिन्हें अपनी पराजय, अपनी पोल खुलने का भय हो । पर क्या इससे श्री आगमवचन थोडे ही बदले जा सकते हैं। याद रखिए सत्य तो सत्य ही होता है सांच को आंच नहीं आती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है स्थानकवासी परंपरा के संतो का - कि जिन्होंने जिनमंदिर और मूर्तिपूजा का विरोध किया है, फिर भी वे अपने गुरु के समाधिमंदिर, पगल्या, छत्री, चबूतरा आदि का निर्माण करवाते ही हैं ।
यानि इन स्थानकवासी संतो को जिनेश्वर भगवान जिनालय और जिनेश्वर भगवान की मूर्ति से ही वैर-विरोध है, स्वयं के गुरु के मंदिर और मूर्ति से नहीं । छद्मस्थ गुरुओं की मूर्ति को वंदन सम्यक्त्व और सर्वज्ञ तीर्थंकरो मूर्ति को वंदन मिथ्यात्व ? यह कैसा अभिनिवेश है ? स्वयं के गुरुओं के तो समाधिमंदिर-गुरुमूर्ति बने और वीतराग - सर्वज्ञ - तीर्थंकरों के जिनालय व जिनमूर्ति का विरोध, है न अज्ञानता ? - गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज ? शास्त्र में कहा है कि
जो जहवायं न कुणई, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्नो ?
वड्ढेइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो ||
अर्थ : जो आगमशास्त्रों में जैसा है वैसा नहीं कहता है, जो आप्तवचनों को झुठलाता है- इससे बढकर मिथ्यात्वी दूसरा कौन है ? अन्यों की सत्
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा श्रद्धा का नाश करके-दूसरों को जैनधर्म में अश्रद्धा कराने वाला मिथ्यात्व को बढावा देता है।
जैसे सुविहित संयमी पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी म. ने जिनमंदिर व जिनमूर्ति का प्रबल समर्थन किया है, वे मंदिरमार्ग के कट्टर आग्रही थे । उन्होंने जो विरोध किया था, वह चैत्यवास का किया था, यानि जैन साधु मंदिर में नहीं रह सकते इसका विरोध किया था । जब कि डोशीजीने समझा कि- आ. श्री. हरिभद्र सू.म.ने जिनमंदिर और जिनमूर्ति का विरोध किया था, पर यह गलत है।
यद्यपि-आज अधिकांश स्थानकवासी संत जैसे अपने गुरु के गुरुमंदिर और गुरुमूर्ति का निर्माण करवाते है, इसी प्रकार वे जिनमंदिर और जिनमूर्ति की भी आवश्यकता समझने लगे हैं ।
इसके प्रमाण है (१) गोंडल (सौराष्ट्र-गुजरात) संप्रदाय के आचार्य रतिलालजी म. के शिष्य नम्रमुनि ने घाटकोपर (मुंबई) में-पारसधामबनवाया है, जहाँ श्री उवसग्गहरं स्तोत्र का पाठ भक्तजन करते हैं, वैसे ही मुंबई (कांदीवली) में भी दूसरा मंदिर बना है।
___ (२) जयपुर-श्यामनगर में - आ. श्री जैनदिवाकर चौथमलजी म. की १३२ वीं जन्म जयंति के उपलक्ष्य में श्री देवेन्द्रमुनि व श्री रुपमुनिजी ने भव्य जिनालय बनवाया है, और इसमें श्री अवंतिपार्श्वनाथ आदि तीन भगवान की मूर्तियों को उन्होंने बिराजमान किया है। ____ यानि स्थानकवाले भी अभी जिनमंदिर व जिनमूर्ति की आदरणीयता का स्वीकार करते है।
इसलिए अब स्थानकवासी बिरादर को जिनमंदिर व जिनमूर्ति का प्रेमश्रद्धा-भक्ति पूर्वक आदर करना - स्वीकारना चाहिए और मोक्षमार्ग की ओर अग्रेसर होना चाहिए, ऐसी हमारी विनंती है।
- भूषण शाह चन्द्रोदय परिवार
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १. आदि. वचन स्थानकवासी संप्रदाय अनागमिक एवं निराधार पंथ है । मूर्तिपूजा के विरोध में कुंठा के कारण इसका जन्म हुआ है । स्थानकवासी संत आदि जिनमंदिर - मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं । जैनधर्म में जिनमंदिर और मूर्तिपूजा का विरोध आज से करीब ५०० वर्ष पूर्व में हुए लोंकाशाह नामक एक जैन गृहस्थ ने किया था ।
जैनशासन में मूर्तिपूजा के खिलाफ प्रबल विद्रोह करनेवाले लोंकाशाह, यह प्रथम ही थे । मुसलमानों की ओर से उनको मूर्तिपूजा के खिलाफ प्रचार करने में बहुत सहायता मिली थी । एक सम्प्रदाय बन गया जिसका नाम था लोंकागच्छ । किन्तु उनके अनुयायियों ने सत्य समझकर फिर से मूर्तिपूजा को अपना लिया और लोंकागच्छ में पुनः मूर्तिपूजा पूर्ववत् प्रारंभ हो गई थी।
काल के प्रभाव से धर्मसिंह और लवजीऋषि ने लोंकागच्छ सम्प्रदाय से अलग फिर से लोकाशाह की भक्ति के नाम पर मूर्तिपूजा के खिलाफ प्रचार चालू किया। उनका भी सम्प्रदाय चल पडा । लोग उनको ढूंढकमत के नाम से पहिचानने लगे, जो नहीं जंचा तो आखिर स्थानकवासी या साधुमार्गी ऐसा सुनहरा नाम बना लिया ।
इस स्थानकवासी सम्प्रदाय ने मनचाहा कुलिंग वेष बना लिया, उनको मानने वाले अनपढ लोग मिल गये । कुछ शास्त्र मान भी लिए, तो कुछ उनकी मनगढंत मान्यताओं के प्रतिकूल थे उनको छोड दिया । आगम शास्त्रों के मनगढंत अर्थ किये । भगवान महावीर की मूर्ति को ही छोड़ दिया, हाँ नाम लेने का अधिकार तो अपने पास रखा ही । अतः जो स्वयं को उचित लगा, वह मान लिया किन्तु जो तीर्थंकरों व प्रभावक पूर्वाचार्यों को उचित लगा, उसे अमान्य कर दिया ।
इस प्रकार अनागमिक और बेबुनियाद, मनगढंत इस स्थानकपंथ ने
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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जिनमंदिर व जिनमूर्ति को द्वेष व अज्ञानवश उड़ा दिया । इस विषय में
स्थानकवासी संत श्री विजयमुनि शास्त्री
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अमरभारती (दिसम्बर १९७८, पृ. १४) में लिखते हैं कि
* "बड़े खेद की बात है कि - हमारे कुछ मुनियों ने हमें जिनमंदिर व जिनमूर्तियों से दूर क्यों रखा ?"
ऐसे अनेक स्थानकवासी सन्तों ने जिनप्रतिमा - जिनमंदिर- तीर्थों के विरह की व्यथा स्वीकार की है, किन्तु तीर्थंकरों के शाश्वत वचनों में संदेह रखने वाले धर्मप्राण (?) लोंकाशाह के अनुचित मार्ग को स्वीकार करने के बोझ में दबे हैं । स्थानकमार्गी संतो ने आगमशास्त्रों के शब्द व अर्थ के साथ खिलवाड किया है, उल्टे-सुल्टे अर्थ किये है- इस विषय में वे आगे लिखते हैं कि
* पूज्य श्री घासीलालजी म. ने अनेक आगमों के पाठों में परिवर्तन किया है । तथा अनेकस्थलों पर नये पाठ बनाकर जोड़ दिये हैं । इसी प्रकार पुष्कभिक्खुजी म. ने अपने द्वारा संपादित सुत्तागमे में अनेक स्थलों से पाठ निकालकर नये जोड़ दिये हैं । बहुत पहले गणि उदयचन्दजी महाराज 'पंजाबी' के शिष्य रत्नमुनि ने भी दशवैकालिक आदि में सांप्रदायिक अभिनिवेश के कारण पाठ बदले हैं ।
स्थानकमार्गी संत चाहे श्री अमोलक ऋषि हों, या श्री घासीलालजी हों, या श्री. चौथमलजी हो या आचार्य श्री हस्तीमलजी हों या आ. जेठमलजी हो, या आचार्य श्री नानालालजी हों या आचार्य मधुकरजी हों या श्री पारसमुनि हों या आगमदिवाकर हो ....
या स्थानकमार्गी पंडित चाहे श्री रतनलालजी डोशी हों, या वकील श्री नेमिचंदजी बांठियाँ हो, या चाहे श्री घीसुलालजी पित्तलिया हों, या चाहे श्री जीतमलजी बाफना हो, या चाहे श्री मांगीलालजी चंडालिया हों या चाहे श्री मानमलजी चोरडिया हों
सभी के सभी असत्यवादी, अप्रमाणिक, पक्षपाती व अज्ञान - मिथ्यात्व
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा से भरे पड़े हैं । जिनका जन्म ही मिथ्यात्व विष रुपी जड़ से हो, वह सम्पूर्ण वृक्ष ही विषैला हो जाता है । वे जैनधर्म का चाहे इतिहास लिखेंगे या आगमों का अर्थ लिखेंगे, सत्य नहीं ही लिखेंगे क्योंकि उनको जिनमंदिर व जिनमूर्ति में आस्था नहीं है । स्थानकवासी पंडितश्री सुखलालजी अपने पर्युषणा व्याख्यान “मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' में लिखते हैं कि
* हिन्दुस्तान में मूर्ति के विरोध की विचारणा मुहम्मद पैगम्बर के पीछे उनके अनुयायी अरबों और दूसरों के द्वारा धीरे धीरे प्रविष्ट हुई।
जैन परम्परा में मूर्ति विरोध को पूरी पांच शताब्दी भी नहीं बीती
स्थानकपंथी मूर्धन्य आचार्यश्री हस्तीमलजी म. अपने "जैनधर्म का मौलिक इतिहास-खंड-२, टिप्पणी पृ. ३२" में लिखते है कि
* मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई का कार्य सर्वप्रथम ई. सन् १८७१ में जनरल कनिधम के तत्त्वावधान में, दूसरी बार सन् १८८८ से १८९१ में डा. फ्यूचर के तत्त्वावधान में तथा तीसरीबार पं. राधाकृष्ण के तत्त्वावधान में करवाया गया। इन तीनों खुदाईयों में जैन इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण विपुल सामग्री उपलब्ध हुई। वह सामग्री आज से १८९१ से लेकर १७ १८ वर्ष की प्राचीन एवं प्रामाणिक होने के कारण बड़ी विश्वसनीय है।* ___ * मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से निकले ई. सन् ८३ से १७६ तक के आयाग पट्ट, ध्वजस्तंभ, तोरण, हरिनगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, सर्वतोभदप्रतिमाएँ, प्रतिमा पट्ट एवं मूर्तियों की चौकियो पर उटूंकित शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वस्तुत: ये दोनों स्थविरावलियां (श्री नंदीसूत्र की स्थविरावली और श्री हिमवंतस्थविरावली) अति प्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी है। ..
समीक्षा : उक्त बयान से स्थानकवासी आचार्यश्री हस्तीमलजी स्वयं स्वीकार करते है कि- मथुरा के कंकाली टीले से जैन इतिहास के अवशेष
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा करीब ११० जिनमूर्तियां निकली थी और उनकी चौकी पर उटूंकित शिलालेखों में लिखे आचार्यों के नाम व श्री नंदीसूत्र व श्री हिमवंत पट्टावलियों में लिखे आचार्यों के नामों से प्राचीन जैन इतिहास प्रमाणित होता है, इससे भी जिनमूर्तियों की पुष्टि होती है। इतना लिखने पर भी वे जिनमंदिर-जिनमूर्ति विरोध को छोडते नहीं है, यह बडी आश्चर्यजनक बात है ।
जैनागमों में आए शब्द-चेइय, चेइय-जत्ता, जिणघर, जिणपडिमा, अरिहंत चेइयाणं, चेइयायतन, चैत्यवंदन, चैत्य, चेइयभत्ति, चेइयं, जिनस्तूप चेइयथूभ, इत्यादि शब्दों का मनगढंत, जीचाहा-मनमाना अर्थ करते हैं । भाषा कभी स्थिर नहीं रहती । शब्दों का प्रचलन समय के साथ बदलता है । जिसे आज हम 'मूर्ति' अथवा 'मंदिर' कहते हैं, आगमकारों ने उसी को 'चैत्य' कहा है । भोली जनता को 'चैत्य' का भिन्न अर्थ बताकर स्थानकवासी स्वयं को बचाने का प्रयत्न करते हैं।
किसी जैनागम में, कोष या व्याकरण में 'चैत्य' के लिए ज्ञान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, जैसे ज्ञान के भेद में - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान इस प्रकार भेद लिखे हैं- न कि - मतिचैत्य, श्रुतंचैत्य, अवधिचैत्य, मनःपर्यवचैत्य केवलचैत्य आदि। फिर भी ये सभी संत आदि चेइय (चैत्य) का अर्थ ज्ञान करके- जिनमंदिर व मूर्ति का झूठा विरोध करते हैं।
स्थानकवासी के गुरुवंदन के पाठ तिक्खुतो में "कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवांसामि"
इसमें आया चेइयं (यानि हे गुरुदेव ! आप की मैं जिनमंदिर, जिनमूर्ति की तरह पर्युपासना (वंदन-पूजन सेवा-भक्ति) करता हूँ, ऐसा सच्चा अर्थ पलटकर चेइयं का अर्थ ज्ञान कर देते हैं । यानि इनको पाप का - असत्य का थोडा सा भी भय-डर नहीं है ।
इसी प्रकार ये लोग "जिन" शब्द का असत्य अर्थ कामदेव करते हैं और "जिनपडिमा" का अर्थ कामदेव की प्रतिमा करते है। जिन का
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा अर्थ वीतराग, सर्वज्ञ, अरिहंत भगवान, तीर्थंकर ऐसा नहीं करते हैं ।
जब कि (१) जैनशास्त्रों की शैली में सर्वत्र "जिन' शब्द का अरिहंत ही अर्थ होता है। अन्यथा तो जैन यानि जिन को माननेवाला का अर्थ कामदेव को माननेवाला ऐसा भी हो सकता है।
(२) देवलोक में जो जिनमूर्ति है - वह पद्मासनस्थ है, जबकि कामदेव की मूर्ति पद्मासन में कभी नहीं होती।।
(३) कामदेव के ऋषभ-चंद्रानन-वारिषेण-वर्धमान नाम प्रसिद्ध नहीं है, जब कि देवलोक की मूर्तियों के ये चार नाम प्रसिद्ध हैं।
(४) जिनप्रतिमा के आगे नमुत्थुणं बोला जाता है, और नमुत्थुणं से अरिहंत के सिवा किसी अन्य की स्तवना कहीं पर भी प्रसिद्ध नहीं है।
(५) इन्द्र समकिती होते हैं - वे कामदेव का नमुत्थुणं से स्तवन करें यह कैसे संभव है?
(६) कामदेव की मूर्ति का जिनागमों में विस्तार से वर्णन होना भी संभव नहीं।
इन सभी बातों से स्पष्ट है कि- जिनप्रतिमा का अर्थ अरिहंत की प्रतिमा ही है। परंतु सभी स्थानकवासी संत आदि उसका उलटा-गलत अर्थ कामदेव की प्रतिमा करते है, ताकि जिनमूर्तिपूजा मानने की आपत्ति न आए । एक झूठ छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं । उसी का अनुसरण हमारे स्थानकवासी बंधु कर रहे हैं ।
स्थानकवासी संप्रदाय के आद्य प्रेरक श्री लोकाशाह नाम के गृहस्थ के विषय में भी ये लोग बढ़ाचढ़ाकर, मन गढंत, असत्य बातें लिखते हैं । जबकि सत्य यह है कि - संस्कृत-प्राकृत की कोई जानकारी न होने के बाद भी श्री लोकाशाह के मात्र अक्षर अच्छे होने से वे आगम शास्त्र की कॉपिया लिखते थे। और उसको लिखने की महेनत का धन-वेतन उनको मिलता था। और इस धन (पैसे) के विषय में तथा नकल करने में गलतियाँ
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करने के विषय में उनका विवाद यति से हो गया और लोंकाशाह मंदिर और मूर्ति के वैरी - विरोधी बन गये ।
स्थानकवासी संत आदि लोंकाशाह के विषय में जो प्रशंसा के पहाड़ रचते हैं, वे सर्वथा असत्य और गलत ही है। स्थानकवासी विद्वान इतिहासवेत्ता श्री वाडीलाल मोतीलाल शाह अपनी किताब ऐतिहासिक नोंध में लिखते हैं कि
-
* मैं इस बात को अंगीकार करता हूँ कि मुझे मिली हुई लोंका शाह विषयक हकीकतों पर मुझे विश्वास नहीं है । तथा लोंकाशाह के विषय में हम अभी अंधेरे में ही हैं ।
* लोकाशाह कौन थे ? कब हुए ? कहाँ कहाँ फिरे ? इत्यादि बातें आज हम पक्की तरह से नहीं कह सकते हैं । : ( ऐतिहासिक नोंध - पृ. ५६ )
-
आगे वे लोंकाशाह के विषय में लिखते हैं कि
* पर इस तरह का उल्लेख उनके निर्गुण भक्तोंने कहीं नहीं किया कि लोंकाशाह किस स्थान में जन्में ? कब उनका देहान्त हुआ ? उनका घर संसार कैसे चलता था ? वे किस सूरत के थे ? उनके पास कौन कौन से शास्त्र थे ? इत्यादि हम कुछ नहीं जानते हैं । : ऐतिहासिक नोंध पृ.
८७ )
इस प्रकार स्थानक मत के आद्य प्रवर्तक लोंकाशाह के विषय में सदंतर अंधकार होते हुए भी स्थानकवासी संत लोंकाशाह के विषय में बढ़ा चढ़ाकर उपमाओं का सागर बहाते हैं । उनको धर्मप्राण मानते है, धर्म के उद्योतक मानते हैं, पर यह सर्वथा असत्य है क्योंकि लोंकाशाह के विषय में दूसरे स्थानकवासी सत्यप्रिय पंडित श्री नगीनदास गिरधरलाल शाह अपनी ऐतिहासिक सुप्रसिद्ध किताब "लोंकाशाह और धर्मचर्चा" में लिखते हैं कि
• लोंका शाहने धर्म का उद्धार किया ही नहीं था, सत्य पूछो तो उन्होंने अधर्म का ही प्रतिपादन किया था । (पृ. २९)
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा * लोकाशाह को अर्धमागधी भाषा का ज्ञान नहीं था। पृ. २५..
* लोकाशाह ने मात्र क्रोध और द्वेष से ही सूत्रों का तथा मूर्तिपूजा का विरोध किया था और स्थानकवासियों ने सूत्रों के गलत-खोटे अर्थ करके मूर्तिपूजा का निषेध किया है। इसलिए इनके कार्यों में धर्म का उद्योत तो है ही नहीं, किन्तु धर्म की हानि ही है * (पृ. २९)
* अधर्म की प्रकपणा करनेवाले और जैनसमाज में धर्मविरुद्ध की बातों और धर्मविरुद्ध सिद्धान्तों को फैलानेवाले व्यक्ति (लोकाशाह) को अपने आप्त (मान्य) पुरुष के रुप में मानना, यह जैनधर्मी के लिए मिथ्यात्व को अपनाने जैसा है। * (पृ. ४७)
यानि लोकाशाह धर्मप्राण नहीं अपित धर्मनाशक ही थे । उनकी प्रवृत्तियों में धर्म का उद्योत नहीं था, किन्तु धर्म का अंधकार ही था। इसलिए स्थानकवासी सज्जनों को हमारी नम्र विनंती है कि वे लोंकाशाह कथित बेबुनियाद - अनागमिक-उन्मार्ग का त्याग कर अपना आत्मकल्याण साधे । लोंकागच्छीय यति भानुचन्द्र जी लिखते हैं कि 'लोंकाशाह' ने भस्मग्रह का निवारण किया । किन्तु शास्त्रीय आधार से न ही वह समय था, न ही ऐसे मिथ्यात्व को क्रियोद्धार कहना उचित है। भस्मग्रह के प्रभाव से अनेक निन्हव हुए । उनमें से एक थे - लोकाशाह ।
हमारा यह प्रश्न है कि - यदि स्थानकवासी अपने पंथ को लोकाशाह से भी पूर्व का बताते हैं तो
(१) लोकाशाह के गुरु का नाम क्या था ?
(२) लोंकाशाह के पूर्व में स्थानकवासी मत में कौन-कौन से बड़े विद्वान् आचार्यादि हुए ? उनके नाम बताइये ।
(३) उन्होंने कौन कौन से शास्त्रों की रचना की थी ?
(४) उन्होंने कौन कौन से शासनोन्नतिकारी, शासनप्रभावक कार्य किए थे ?
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स्थानकवासी संतो का जैनशासन में कुछ भी योगदान नहीं
जैनशासन की उन्नति हों, ऐसा एक भी कार्य आज तक में स्थानकवासी परंपराने नहीं किया है।
जैन शासन की आन-बान-शान बढ़ाने में इनका कुछ भी हिस्सा - योगदान नहीं है ।
न ही स्थानकवासी परंपरा कुछ शास्त्र सर्जन कर सकी है । श्री महावीरस्वामी के बाद आगमों के गूढ़ अर्थ को समझने के लिए (१) वीरनिर्वाण के १२४२ वर्ष में शीलांकाचार्य ने श्रीआचारांगसूत्र और श्री सूयगडांग सूत्र की टीका बनाई थी। (२) १५९० वर्ष पीछे श्री अभयदेवसूरिजी ने श्री स्थानांग सूत्र से लेकर श्री विपाकसूत्र पर्यन्त के नव (९) अंगों की टीका बनाई थी । (३) आचार्य श्री मलयगिरि महाराजने श्री राजप्रश्नीय सूत्र, श्री जीवाजीवाभिगम सूत्र, श्री पन्नवणासूत्र, श्री चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्र, श्री सूर्य प्रज्ञप्तिसूत्र, श्री व्यवहार सूत्र और श्री नंदीसूत्र इन ७ (सात) सूत्रों की टीकाएँ बनायी, (४) आचार्य श्री चन्द्रसूरिजीने निरयावलीसूत्र पंचक की टीकाओं की रचनाएँ की, (५) पू. आ. श्री मल्लधारी हेमचन्द्राचार्यने श्री अनुयोगद्वार सूत्र की टीका बनायी, (६) पू. आ. श्री क्षेमकीर्तिसूरिजी ने श्री बृहत्कल्पसूत्र की टीका रची, (७) वादिवेताल श्री शांतिसूरिजी महाराजने श्री उत्तराध्ययनसूत्र की टीका की रचना की है । इत्यादि अनेकानेक महामनीषी सुसाधुओं के जिनशासन में अनेकविध योगदान को नकारकर स्थानकवासियों ने स्वयं के इतिहास को अंधकारमय बनाया है ।
इन रचनाकारों ने श्री जैनागम समझाने में अपार उपकार किया है । नयी जन्मी बेबुनियाद स्थानकवासी परंपराने क्या किया ? सिर्फ जिनमंदिर और जिनमूर्तिपूजा का बिना समझे विरोध ही किया और जैनशासन को अपार हानी पहुँचायी । प्राचीन इतिहास को गलत बताकर भोले लोगों को भ्रमित किया व उन्मार्ग का प्रचार किया । यानि जैनसंघ को जोड़ने का कुछ भी नहीं किया सिर्फ तोड़ने का बेकार काम किया है । मिथ्यात्व फैलाने का काम किया है ।
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स्थानकवासी परंपरा न ही भद्रबाहुस्वामी, देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, वादिवेताल शांतिसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, मानतुंगसूरि, प्रद्योतनसूरि, सिद्धसेनदिवाकरसूरि, हिमवंतसूरि, उमास्वाति महाराज, सिद्धर्षि गणि, वादि देवसूरि, दादाजिनकुशलसूरि, हेमचंद्रसूरि, हीरसूरि उपाध्याय यशोविजयजी जैसे समर्थज्ञानी विद्वान दे सकी है।
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न ही स्थानकवासी परंपरा महामेघवान राजा खारवेल, संप्रतिराजा, आम राजा, विक्रमादित्य, शीलादित्य, कुमारपाल राजा जैसे जैन संस्कृति रक्षक समर्थ राजाओं को उत्पन्न कर सकी है ।
न ही स्थानकवासी परंपरा शकटाल, उदायन, कपर्दी, पेथडशा, वस्तुपाल - तेजपाल जैसे शासनप्रभावक जैन मंत्रियों का निर्माण कर सकी है ।
न ही स्थानकवासी परंपरा भामाशाह, देदाशाह, झांझणशाह, भेरुशाह, जगडुशाह, भीमाशाह, धरणाशाह, जावड शाह, विमलशाह, जगतचंद्र शेठ, मोतीशा शेठ, बाहडभट्ट जैसे उदार - दानवीर जैन संस्कृति रक्षक श्रावकरत्नों का सर्जन कर पायी है ।
न ही स्थानकवासी संत सन्मति तर्क, द्वादशारनयचक्र, षड्दर्शन समुच्चय, प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, स्याद्वादमंजरी, उपमितिभव प्रपंचकथा, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, प्रशमरति, तत्त्वार्थसूत्र, सिंदूरप्रकरण, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, स्याद्वादरहस्य जैसे विद्वत्तापूर्ण शासनप्रभावक शास्त्रग्रन्थों का सर्जन कर पाए हैं ।
न ही स्थानकवासी परंपरा आबू - अचलगढ - देलवाडा, राणकपुर शत्रुंजयभद्रेश्वर, कापरडा, नाकोडा, पावापुरी - जलमंदिर, जैसलमेर, केसरिया, तारंगा, वैभारगिरि, चित्रदुर्ग, शंखेश्वर, एलीफन्टागुफा, उदयगिरि- खंडगिरि जैसे विश्वमशहूर, जैनशासन की बोलबाला करानेवाले बेनमून भव्य स्थापत्यों का सर्जन कर पायी है ।
न ही स्थानकवासी परंपरा ने
तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सम्मेतशिखर, गिरनार, पावापुरी, शत्रुजय, चंपापुरी इत्यादि पावन तीर्थभूमियों की रक्षा व उन्नति में कोई थोड़ा सा भी योगदान दिया है ।
हाँ, स्थानकवासी परंपरा के संतो ने खोटा-नुकसानकारी कार्य जरुर किये हैं - यथा -
(१) जिनमंदिर और जिनमूर्तियों का विरोध करने का, (२) जैनधर्म का इतिहास झूठा-असत्य लिखने का, (३) आगमसूत्रों के पाठ उलट-पुलट करने का, (४) आगम के सूत्रों का गलत अर्थ करने का ।
उक्त विषयों में स्थानकवासी संत न कुछ जानते हैं, न अपने व्याख्यानवांचणी मे कुछ कहते हैं एवं अपने भक्त स्थानकवासी जनों को जैनशासन के प्राचीन भव्य-प्रेरणादायी इतिहास से - स्थापत्य से अज्ञान के अंधकार में ही रखते हैं।
आश्चर्य तो यह है कि - स्थानकवासी संत जैनशासन की इस गौरवगाथा - गरिमा - से भी वैर-द्वैष और अरुचि रखते हैं ।। मूर्ति और मूर्तिपूजा - जैनागम और जैन इतिहास से सिद्ध है
अरिहंत तीर्थंकर की आत्मा की आकृति को जिनमूर्ति कहते हैं। और अरिहंत तीर्थंकर की वाणी की आकृति को जिनागम कहते हैं । अज्ञानी-मूढ़ के लिए ये दोनों जड है । ज्ञानी- श्रद्धावंत के लिए ये दोनों उपास्य-पूजनीय है ।
जिस प्रकार शास्त्र जड़ होते हुए भी ज्ञानदायक है, पर किस को ? अज्ञानी को नहीं, श्रद्धावान् ज्ञानी को ।
ठीक उसी प्रकार जिनमूर्ति जड़ होते हुए भी ज्ञानदायक-उपास्य है, पर किसको ? अज्ञानी-मूर्ख को नहीं, किन्तु ज्ञानी-सम्यगदृष्टि को ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा स्थानकवासी संत आदि कहते हैं कि - शास्त्र जड़ होते हुए भी उनसे ज्ञान प्राप्त होता है, किन्तु जिनमूर्ति से नहीं । पर उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है। अनपढ-गँवार के लिए तो शास्त्र से भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। उसे तो शास्त्र के अक्षर काली लकीरें ही दिखेंगी। उसके लिए काला, अक्षर भैंस बराबर ही सिद्ध होंगे। ठीक उसी प्रकार अज्ञानी, द्वेषी, मिथ्यात्वी व्यक्ति को जिनमूर्ति जड़-पत्थर ही नज़र आएगी, पर ज्ञानी श्रद्धावान, सम्यग्दृष्टि के लिए यह जिन भगवान-अरिहंत ही प्रतीत होंगे कि- यह उपास्य, वंदनीय, पूजनीय है।
एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति में साक्षात् गुरु दिखाई दिये थे, जिससे उसने बाणविद्या का ज्ञान प्राप्त किया था ।
याद रखें कि - जिनमूर्ति कीमती पत्थर, हीरा, माणिक से बनी है या मूल्यवान् सोना-चांदी जैसी धातु से बनी है इसलिए उपास्य नहीं है, किन्तु यह जिनमूर्ति मूर्तिमान तीर्थंकर का प्रतीक है, इसलिए पूजनीयउपासनीय है। जैसे भक्त बेटे के लिए अपने पिता की फोटो तस्वीर ।
क्या पत्थर की गाय कभी दूध देती है ? स्थानकवासी संतों द्वारा बारबार व्याख्यान में पूछा जाता है और किताबो में लिखा जाता है कि
क्या पत्थर की गाय कभी दूध देती है ?
उसका उत्तर यह है कि - वैसे तो गाय के नाम का जाप करने से भी दूध नहीं मिलता है। तो क्या वे अरिहंत - महावीर का (जड) नाम लेना भी बंद कर देंगे ?
जिस प्रकार अरिहंत का नाम-शुभ भावों मे लाभदायी है, उसी प्रकार अरिहंत की स्थापना-आकृति भी शुभभावों में लाभदायी है।
अरिहंत - अरिहंत ऐसा नाम भी जड़ है, फिर भी नाम लेने से शुभभावों की उत्पत्ति हम मानते हैं, इसी प्रकार अरिहंत की मूर्ति की भी उपासना करने से शुभभावों की उत्पत्ति होती है। परमात्मा तीर्थंकर की मानी
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा गई चैतन्यहीन (जड) मूति यदि शुभ ध्यान एवं शुभ भाव में सहायक नहीं मानी जाए तो फिर परमात्मा-तीर्थंकर का जड़ नाम भी शुभ अध्यवसाय में सहायक कैसे माना जा सकता है ?
स्थानकवासी परंपरा को जिनमंदिर और जिनमूर्ति से ही विरोध है । क्योंकि स्थानकवासी संत स्वयं के फोटो-तस्वीर बड़े चाव से छपवाते, बांटते हैं । अपनी किताबों में स्वयं की व दानदाता गृहस्थ की फोटो भी छपवाते
मूर्तिपूजा व जिनमंदिर के समर्थन में सब से बड़ा - प्रबल प्रत्यक्ष प्रमाण है- स्थानकवासी संत व लोग अपने गुरुओं मूर्ति समाधि मंदिर, पगल्या, चौतरा, छत्री आदि स्मारक का निर्माण करवाते है । जैसे - जैतारण (जि. पाली) में मरुधर केशरी श्री मिश्रीमलजी म.
का समाधिमंदिर है। __- लुधियाना में श्री रुपचंदजी म. का समाधिमंदिर है । .. - गोगुंदा- में श्री पुष्कर मुनि का टावर पुष्कर धाम व पगल्या
है। जिसका निर्माण आ. देवेन्द्रमुनिजी ने कराया है। - जगरांव में श्री फूलचंदजी म. की समाधि है। . - चिंचण (गुजरात) में श्री संतबालजी की समाधि है ।
अहमदनगर में आचार्यश्री आनंद ऋषिजी म. का चबूतरा
स्मारक बना हुआ है। ___ - राजगृह-वीरायतन में मुनि अमरचंदजी (कवि) का
समाधिमंदिर बना है। - मेरठ में भी बगीचे के बीच मे स्थानकवासी संत की मूर्ति
व छत्री है। __- औरंगाबाद में आ. श्री गणेशमलजी म. की ६ फुट बडी मूर्ति
और मंदिर बना है। - निमाज (तहसील-जैतारण) (जि. पाली) में आ. श्री
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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हस्तीमलजी म. का समाधिमंदिर बना है । - सांडेराव (राजस्थान) में श्री कन्हैयालालजी कमल का
अस्थिकुंभ है। - आगरा में श्री रतनचंद्रजी तथा श्री पृथ्वीचंद्रजी म. की समाधि
___ - नई दिल्ली में श्री सुशीलमुनिजी का समाधि स्थल. - इन सभी स्थानों मे उनके दर्शन-वंदनार्थ हज़ारों भविक जाते है । छद्मस्थ - जिनमंदिर-जिनमूर्ति विरोधी इन स्थानकवासी संतों के समाधिमंदिरमूर्तियां बनती हैं तो फिर जिन-वीतराग-तीर्थकर के मंदिर व मूर्ति का ही विरोध क्यों ?
कुतर्क : जिनमंदिर व जिनमूर्ति में हिंसा है इसलिए विरोध है ।
उत्तर : क्या इन समाधिमंदिर, मूर्ति, पगल्या, चबूतरा, छत्री निर्माण में हिंसा नहीं है ? ___यदि "जहाँ हिंसा वहाँ जिनाज्ञा नहीं है, वहाँ धर्म नहीं है" ऐसा आप कहेंगेतो फिर (१) ये समाधि मंदिर क्यों निर्माण करवाये ? (२) अपनी फोटो-तस्वीर-लोकेट छपवाते-बँटवाते हो- इसमें
भी अग्निकाय, अप्काय व त्रसकाय की हिंसा है । (३) किताब-पुस्तक क्यों छपवाते हो ? उसमें भी हिंसा है। (४) बस आदि द्वारा गुरुवंदन को क्यों जाते हो ? उसमें भी
हिंसा है। (५) साधर्मिक भोजन - गौतमप्रसादी-दया-चौमासा में
चौका-रसोडा क्यों करवाते हो ? उसमें भी आरंभ
समारंभ व हिंसा है। (६) गुरु को गरम-गरम पानी-चाय-दूध व भोजन क्यों बहेराते
हो ? इसमें भी अप्काय आदि जीवों की विराधना है ।
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(७) स्थानकवासी संत-सतियाँ आलू-प्याज- मूली- गाजर - लहसुन जैसे अनंतकाय क्यों खाते हैं ? क्या इसमें हिंसा नहीं है ?
(८) संघसम्मेलन क्यों करवाते हैं ? वहाँ भी भोजन बनाना, निवास देना आदि में आरंभ - समारंभ व हिंसा है । चद्दर महोत्सव करना भी तो हिंसा है ।
(९) स्थानक क्यों निर्माण करवाते हैं ? उसमें भी आरंभ-समारंभहिंसा है। खुदाई आदि में चींटी -मकोडा - सांप आदि की विराधना - होती है ।
-
हम स्थानकमार्गी संतो को प्रश्न पूछते हैं कि
स्थानक बनवाना
धर्म है. या अधर्म ?
स्थानक बनवाना
स्थानक बनवाना
यदि आप कहेंगे कि ‘“स्थानक बनवाना पाप है हिंसा है, अधर्म है, आश्रव है, ऐसा कहेंगे कि - स्थानक निर्माण करने वाला, पापी - हिंसक - अधर्मी है और हिंसामय ऐसे पाप करनेवाला नरकादि दुर्गतियों में भटकता है, इसलिए स्थानक निर्माण करना पाप है और इसमें धन देनेवाला हिंसक है ।"
पाप है या पुण्य ?
आश्रव है या संवर ?
तो फिर धन देकर पाप व दुर्गति कौन मोल लेगा ?
यदि आप कहेंगे कि - स्थानक बनवाना हिंसा- पाप नहीं है, तो फिर - जिनमंदिर- जिनमूर्ति का ही विरोध क्यों ?
स्थानकवासी व तेरापंथी की परस्पर विचारणा
हिंसा-हिंसा का पुकारकर स्थानकवासी संप्रदाय ने जिनमंदिर- जिनमूर्ति का विरोध किया । और इससे आगे बढकर तेरहपंथी संप्रदाय ने जीवों की दया करना भी हिंसा है, जैसे कबूतर को जवारका चुगा नहीं डालना चाहिए क्योंकि इसमें एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय सजीव जवार के जीवों की हिंसा है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा गाय को घास नहीं खिलाना या पानी नहीं पिलाना चाहिए क्योंकि इसमें भी हिंसा है।
तेरहपंथी-स्थानकपंथी को प्रश्न पूछते हैं कि- "आप क्यों जिनमंदिरजिनमूर्ति व मूर्तिपूजा का विरोध करते हो ?"
स्थानकवासी उत्तर देते हैं कि - मूर्तिपूजा में फूल, पानी अग्नि आदि की हिंसा होती है, इसलिए हम मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं।
तब तेरहपंथी प्रश्न करते हैं कि- हे स्थानकवासी ! आपको गाय को घास भी नहीं डालती चाहिए, पानी भी नहीं देना चाहिए और पक्षी को दाना भी नहीं खिलाना चाहिए । क्योंकि ये भी सजीव है, इसमें भी हिंसा है । गरीब को भोजन भी नहीं करना चाहिए, इसमें भी जीव हिंसा है.। इस प्रश्न का स्थानकवासियों के पास क्या उत्तर है ?
गौतमस्वामी और अष्टापदतीर्थ स्थानकवासी संप्रदाय में अनंत लब्धिनिधान श्री गौतमस्वामी का एक श्लोक बारंबार गाया जाता है- यथा
अंगूठे अमृत बसे, लब्धितणा भंडार । श्री गुरु गौतम समरिये वांछित फल दातार ॥
इस गाथा का अर्थ : (१) गौतमस्वामी ने श्री आदिनाथ भगवान का निर्वाणस्थल अष्टापदगिरि पर श्री आदिनाथजी के दर्शन हेतु जा रहे १५०० तापस संन्यासियों को अक्षीणमहानस नाम की लब्धि से पात्र में अंगुठा रखकर पारणा करवाया था, इसलिए कहते हैं- "अंगूठे अमृत बसे."
(२) तथा स्वलब्धि-विद्याबल से सूर्य की किरणों को पकडकर वे श्री अष्टापदगिरि की यात्रा करने गये थे- जहाँ श्री ऋषभदेव-आदिनाथ के निर्वाणस्थल पर उनके पुत्र भरतचक्रवर्तीने जिनमंदिर बनवाया था, वहाँ वे दर्शन करने गये थे। इस प्रकार उन्होंने लब्धि का उपयोग अष्टापदगिरि तीर्थ यात्रा में किया था, इसलिए कहते हैं- "लब्धि तणा भंडार"
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(३) और श्री गौतमस्वामीने १५०० तापस-संन्यासियों को दीक्षा देकर-केवलज्ञान रुप अक्षयलक्ष्मी की प्राप्ति करवायी थी, इसलिए कहते हैं - वांछित फल दातार.
(४) ऐसे श्री गौतमस्वामी का हम सदैव स्मरण करते हैं ।
पर स्थानकवासी संत ये सभी बातें या तो जानते नहीं है, और जानते हैं तो - तीर्थ, तीर्थयात्रा, जिनालय की बात आयी इसलिए वे इसे छिपाते हैं। फिर भी श्लोक बोलते हैं, पर परमार्थ-रहस्य बताते नहीं है। यह उनकी अप्रामाणिकता है।
यानि स्थानकवासी परंपरा बेबुनियाद व अनागमिक है । उनका कार्य सिर्फ जिनमंदिर और जिनमूर्ति का विरोध करने के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है।
और स्थानकवासी लोग भी जिनभक्ति-अरिहंत की पूजा-चैत्यवंदनस्तुति-स्तवन जैसे पवित्र आचार-विचारों को छोडकर साईबाबा, गणपति, जलाराम, रामदेवपीर, संतोषी मां, अंबा-भवानी, वैष्णोदेवी, आदि मिथ्यात्व में चढ़कर, सन्मार्ग से भटक गये हैं । उनके संत - उनके गुरु उनको उन्मार्ग पर भटका रहे हैं।
परमकृपालु परमात्मा श्री अरिहंतदेव को प्रार्थना है कि - उन सभी को सन्मति-सन्मार्ग-अरिहंतभक्ति मिले ।
इस पूरे लेख में जिनाज्ञा से विपरीत कुछ भी लिखा गया हों तो त्रिकरण-त्रियोग से क्षमाचाहता हूँ ।
. लि. हेरतभाई प्रमोदभाई
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 3. स्थानकवासी पंथ स्थानकवासी परंपरा के आधे व्यक्ति लोकाशाह की भांति अज्ञानी थे, जिन्होंने मूर्ति-मूर्तिपूजा व जिनमंदिर का विरोध किया था। श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ से यह नयी परंपरा निकली है, जिसे करीब ५०० वर्ष हुए ।
इन्होने हिंसा के नाम पर यह बेबुनियाद नयी परंपरा चलायी थी। उनका मत है कि - जिनेश्वर भगवान की मूर्तिपूजा में दीपक से अग्निकाय की, धूप से वायुकाय की, जल से अप्काय की, और फूल से वनस्पतिकाय जीवों की हिंसा होती है ।
दूसरा उनका कहना है – जिनेश्वर की मूर्ति जड है, उसमें चेतना नहीं है, जब कि - हमें गुणपूजक बनना चाहिए, न कि जडपूजक।
इन दो बातों से स्थानकवासी संत जिनमंदिर, जिनेश्वर की मूर्ति व मूर्तिपूजा का विरोध करते है।
जहां तक हिंसा का प्रश्न है : सो वे स्थानकवासी संत भी अपने भवन, अपने गुरु के गुरुमंदिर-गुरुमूर्तियों का निर्माण आदि करवाते हैं, तो क्या इसमें हिंसा नहीं है ? यह कितना आश्चर्य कि छद्मस्थ गुरु के मंदिर निर्माण में व प्रतिमा निर्माण में उन्हें हिंसा नहीं दिखती है और वीतराग - सर्वज्ञ - तीर्थंकर के जिनालय व मूर्ति में ही उनको हिंसा दिखाई देती
स्थानक निर्माण में भी हिंसा है, फिर क्यों वे स्थानक निर्माण करवाते हैं ? किताब छपवाने में भी हिंसा है, फिर क्यों वे किताब छपवाते हैं ? सार्मिक भोजन में भी हिंसा है, फिर क्यों वे सार्मिक भोजन करवाते हैं ? गरमागरम पानी-दूध बोहराने में भी हिंसा है, फिर क्यों वे गरमागरम पानी-दूध बोहराते हैं ?
कहने का तात्पर्य यह है कि - स्थानकवासी संत जिनमूर्ति व जिनमूर्तिपूजा में विरोध करते है, यह तथ्यपूर्ण नहीं है। आलू-प्याज-मूली
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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गाजर-लहसुन- आदि अनंतकाय जीवों को खानेवाले स्थानकवासी संतो को अहिंसा धर्म पर प्रेम है ऐसा कौन कहेगा ?
रही बात जड़ की । अरे भाई ! सूत्र की किताब भी जड़ है, पर ज्ञान देती है, इसलिए ज्ञानगुण के कारण हम इनका आदर करते है । हाँ ! सूत्र की किताब का कोई अज्ञानी आदर नहीं करेगा या उनसे उसको ज्ञानगुण प्राप्त नहीं होगा, क्या इससे शास्त्र का इन्कार करना या विरोध करना उचित है ?
तीर्थंकर की मूर्ति श्रद्धावन्त के लिए तो साक्षात् तीर्थंकर है, वे उनका आदर करेंगे । जब कि अज्ञानी, मिथ्यात्वी को यह जिनमूर्ति ज्ञानादि गुणदायक नहीं दिखे, इसमें जिनमूर्ति का क्या दोष है ?
जैसे सूत्र-शास्त्र जड़ होते हुए भी आदरणीय है, वैसे जिनमूर्ति भी आदरणीय है । जिस प्रकार जड होते हुए भी गुरु की फोटो व गुरु की मूर्ति स्थानकवासी संत आदरणीय मानते हैं, इसी प्रकार ।
1
स्थानकवासी संतो ने अज्ञान व मोहनीय कर्म के वश होकर ही आगम सूत्रों के अमुक शब्दों के अर्थ बदलकर या मूलशब्द बदलकर या कल्पितअसत्य अर्थ कर अपनी मूर्तिपूजा विरोध की मान्यता पुष्ट की है......
हम मूर्तिपूजक जैन मूर्तिपूजा की मान्यता का इसलिए स्वीकार करते हैं क्योंकि श्री जैनागमों में सिद्धायतन, जिणघर, चैत्यवंदन, चैत्य, आदि शब्दों से इनका उल्लेख हैं । आज हमारे सामने साक्षात् तीर्थंकर भगवान विद्यमान नहीं है, अत: इनकी अनुपस्थिति में इनकी प्रतिकृति अर्थात् प्रतिमा के सामने गुणगान, पूजा, भक्ति, बहुमान, आदर आदि कर अपनी भावनाओं की पूर्ति करते हैं । जिसका एक मात्र उद्देश्य है - तीर्थंकर भगवान में श्रद्धा, आस्था, गुणानुराग बढे, जो कि सम्यग्दर्शन की पुष्टि व निर्मलता का कारण
है ।
हम मूर्तिपूजक जैन - हिंसा करते ही नहीं है । अपार दयालु है I पर जिनभगवान की पूजा हेतु हिंसा न चाहते हुए भी हो जाती है, जिसे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा स्वरूपी हिंसा बताया गया है । जैसे आप कबूतर को दाना चुगाते हो, तब न चाहते हुए भी हिंसा हो जाती है इसी प्रकार ।
भगवान तीर्थंकरो के समवसरण में भी देवों द्वारा पुष्पों की वर्षा होती है । यदि इसमें हिंसा का पाप होता तो भगवान देवों को जरुर मना करते, जैसे काम-भोग की मना ही करते हैं इसी प्रकार । पर भगवान मना ही नहीं करते है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि इस प्रकार का भक्तिभाव उचित है। ____ भगवानश्री तीर्थंकर देव के जन्म के समय, समकिती सौधर्मेन्द्र भगवान् को मेरुपर्वत पर ले जाता है, और अच्युतेन्द्र, ईशानेन्द्र आदि सभी इन्द्र हजारों घड़ो पानी से अभिषेक करते हैं । इन्द्रों द्वारा हर्षोल्लास पूर्वक ठाठ बाठ से किया जाता जन्म अभिषेक क्या पाप है ? क्या हिंसा है ? क्या अनुचित है ? क्या यह मिथ्यात्व की करणी है ?
ऐसे अभिषेक का वर्णन श्री जैनागमों में गणधर भगवंतो ने किया है, क्या यह मिथ्यात्व है ? यदि यह हिंसा होती तो क्या गणधर भगवंत इसका वर्णन करते ? स्थानकवासी संत स्वयं की आलू-प्याज-मूली-गाजरलहसून जैसे अनंतकाय जीव को खाने की अशुभ करणी के लिए तो कुछ बोलते नहीं है और जिन अभिषेक जैसी निर्मल-पवित्र-निष्पाप आगमिक करणी को मिथ्यात्व - हिंसा कहना यह उलटी गंगा बहाने जैसी मूर्खता
सूर्याभ आदि देव सम्यग्द्दष्टि देव है, वे कभी जिनेश्वर देव को छोडकर रागी-द्वेषी कामदेव की पूजा नहीं करते । सूर्याभ देव द्वारा देवलोक स्थित शाश्वत जिनचैत्य-सिद्धायतन में विराजमान जिनप्रतिमाओं की पूजा का वर्णन श्री रायपसेणी आगम सूत्र में आता है।
जैनागमों मे जगह-जगह जिनचैत्य, शाश्वत जिनपडिमा, जिनघर, चैत्यायतन, सिद्धायतन, चैत्यवंदन आदि शब्दों का प्रयोग जिनमंदिर व जिनपूजा के लिए प्रयुक्त हुआ दिखाई देता है ।
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फोटो, प्रतिमा, पगल्या का भी अपार महिमा है, तभी तो स्थानकवासी संत भी अपने गुरु की छत्री, पगल्या, गुरुमंदिर, मूर्ति का निर्माण करने लगे हैं । एवं अब तो कतिपय ने जिनमन्दिर बनवाना भी प्रारंभ किया है ।
इन सभी बातों से आशा है कि स्थानकवासी संत आदि सभी जिनमूर्ति-जिनमंदिर-जिनपूजा में विश्वास करें, श्रद्धा करें व जिनमूर्ति के लिए यद्वा तद्वा बोलकर घोर महापापों से बचें...
पूरे लेख में जिनाज्ञाविरुद्ध कुछ भी लिखा गया हों तो उसका मिच्छा मिदुक्कडम्....
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- आकाश (अंकित जैन)
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ४. हृदय की बात भारतीय संस्कृति धर्ममय संस्कृति है। धर्म की संस्कृति बाल, आबाल, वृद्ध सभी के लिए महाकल्याण करनेवाली है। उसमें भी जिनधर्म को प्राप्त हुए भव्य मानव विशेष कल्याण को शीघ्र प्राप्त करते हैं। इस पुस्तक में प. पू. ज्ञानसुन्दरजी म. आदि सुसाधुओं का जिनशासन के प्रति सच्चा समर्पणभाव फलित होता है उन्होंने 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' नाम से जो पुस्तक लिखी थी उसमें पठन सामग्री सत्य सहज प्रमाणों के साथ दी गई है। परन्तु इस पुस्तक की सामग्री का विरोध बिना प्रमाण के केवल मनघडंत स्वमति से व्यक्तिगत एकान्तिक विचारों के साथ श्री रतनलालजी डोशी द्वारा किया गया हैं । "जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' शीर्षक देकर 'श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ' जोधपुर-शाखा नेहरुगेट बाहर ब्यावर' द्वारा कथित रूप से वह पुस्तक प्रकाशित कर जैन संस्कृति के सत्य रुप का भक्षण किया है । इस पुस्तक में भगवान महावीर के अनेकान्तवाद सिद्धान्तों का पूरी तरह लोप करते हुए सिर्फ मिथ्या मंडन का प्रकाशन किया गया है। कोई भी समकितधारी व्यक्ति श्रावक या साधु ऐसे प्रकाशन से स्वाध्याय करते हुए कष्ट और विभावदशा का ही अनुभव करता
सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक साहित्य रत्नमाला का ११० वा रत्न 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' पुस्तक का तटस्थता पूर्वक अध्ययन करने पर अनुभव होता है कि आपके विचार तलस्पर्शी सत्य अन्वेषक और सत्य तथ्यपूर्ण नही हैं । मूर्तिपूजा के विरोध में तमाम तरह की दलीलें पुस्तक की शुरूआत से ही मिथ्या मार्ग प्रतिपादना का ही स्वरूप प्रगट करती है । डोशीजीने स्वयं भी मूर्तिपूजा नही की । उनका हृदय भावशून्य प्रकट होता है। एक व्यक्ति मात्र की स्वतंत्र विचारशैली को पुस्तक प्रकाशन का माध्यम बनाकर जैनधर्म की मूर्तिपूजा विरुद्ध संस्कृति विषयक बात को जनमानस पर थोपा नहीं जा सकता है । अनेकान्त शैली के बिना लिखी गई मूर्तिपूजा विरोधी बातें एकान्तिक भाव में होने से शास्त्र सम्मत नही हो सकती है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
महामोहनीय कर्मोदय हो तब ही कोई जीव जिनशासन को नुकसान पहुँचानेवाली बातों को जन मानस पर थोपता है । कल्पना कीजिए एक व्यक्ति पिता का परम भक्त है यदि कोई उसके ही सामने उसके पिता के चित्र पर कालिख पोत दे तो क्या होगा ? हृदय को कितना अपार दुःख अनुभव होगा । कहने की आवश्यकता नही है कि चित्र भले जड हो परन्तु मन के भावों को हृदय में से अवश्य प्रकट करता ही है एक चित्र हजार शब्दों से ज्यादा प्रभावशाली है।
जिस मूर्तिपूजा विरोधी रत्नमाला ग्रंथ के प्रकाशन ने लोगों की भावनाओं को बिगाडने का काम किया है वह मूर्ति की तरह पुद्गल जड़ शब्द है । डोशीजी ने पुस्तक में शब्द आधार आदि को भी विरूद्ध रूप से अपनाए हुए है। जैसे श्रेष्ठ शब्दों के संयोजन पढने से अच्छे भाव आते है वैसे ही अरिहंत या तीर्थंकर की मूर्ति में उनके गुणों को देखना ही चाहिए जिससे सम्यग्दर्शन निर्मल बनता है ।
डोशीजीने व्यक्तिगत रूप से जो कुछ भी मंथनपूर्वक लिखा है उसमें विचारों को पूरी तरह से एकान्तिक रखकर मूर्तिपूजा के विरोध में अपनी बात सिद्ध करने का मात्र मिथ्या प्रयास किया गया है। जिनाज्ञा विरूद्ध कुतर्क को विचार में लाने से आत्मा को कितना नुकसान उठाना पडता है। जो भवभीरू है, वही भवभ्रमण से भय खाता है अतः आत्मज्ञान हो तो मिथ्याभाषण से बचना चाहिए।
इस पुस्तक में जो. जो मुख्य बातें है उनके ही मात्र सुसंगत जिज्ञासा समाधान के लिए हमने जो प्रयास किया है उसे पाठक चिन्तन मननपूर्वक पढ़ेंगे तो अवश्य ही सत्य का अन्वेषक पथ पायेगें ।
इस प्रकाशन में निमित्त है - 'अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर' से प्रकाशित 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' का पुनर्मुद्रण उसमें भी विशेष तौर से नेमिचंदजी बांठिया लिखित 'निवेदन' कारणभूत है।
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 'निवेदन' में उन्होंने बहुत-सारी विरूद्ध-असत्य बातें लिखी हैं। जिनका जवाब देना उचित था, जिससे जनता सत्य वस्तु को समझें । इस पुस्तक में उसकी समीक्षा की गई है। निवेदन में उन्होंने कई जगह वस्तुस्थिति का शीर्षासन करती हुई बिलकुल असत्य बातें लिखी है - जैसे पृ. १० "मूर्तिपूजक समाज एवं स्थानकवासी समाज के आचार्यों के बीच चर्चा होती रहती थी और चर्चा में हमेशा मूर्तिपूजक, समाज को मात खानी पडती । क्योंकि वे इसे जैनागम सम्मत सिद्ध करने में हमेशा विफल रहे ।' हा... हा... हा... इस बात में जरा भी सत्यता नहीं है। वस्तुस्थिति जो कहा है उससे विपरीत है। जिसका खुलासा पाठक गण को पुस्तक के पठन से हो जाएगा ।
_ 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' और 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' दोनों पुस्तकों को सामने रखकर इस पुस्तक का पठन करने से तटस्थ व्यक्ति अवश्य ही सत्यता को परख लेंगे। अगर शक्य न हो तो 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' को मिलान करके पढना पूर्णबोध के लिए आवश्यक है, चूंकि इस पुस्तिका में उस पुस्तक के उद्धरण देकर क्रमशः उसकी समीक्षा की गई है।
इसलिये पाठकगण को विशेष निवेदन है कि दोनों पुस्तकों का मिलान करके इसे पढ़ें ।
कड़वा सच यदि कहा जाए तो आज स्थानकवासी जो कुछ भी है या संगठित है वह सिर्फ और सिर्फ अनादि काल से चली आ रही जैनधर्म में मूर्तिपूजा संस्कृति की बदौलत ही है मात्र ४००-५०० सालों से बने इस संगठन को अनादिकालीन पंथ स्वप्न में भी नही कहा जा सकता है । बिना आधार नेतृत्व के परन्तु मूर्तिपूजा के बदौलत चले इस मार्ग में अब व्यक्तिवाद की बोलबाला है । बस मूर्ति के विरोध में जिस किसीने विषय प्रतिपादन किया वही सत्य बाकी सब मिथ्या। जैन शासन मे आपमति, बहुमति या तर्कमति का विचार नहीं चल सकता यहां मात्र शास्त्रमति एवं आज्ञामति चलती है । ऐसा मार्ग मोह मिथ्यात्व की विडम्बना के कारण ही बना है ।
जैनधर्म में जितनी भी आराधना, साधना, तप, त्याग प्रचलित
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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आत्मशुद्धि के उद्देश्य से जो भी किया जाता है वह मात्र आलम्बन लेकर विशेष जिनाज्ञापूर्वक ही किया जाता है । स्वच्छंदता मनमर्जी को इस जिनशासन में कोई स्थान नहीं है बिना आलम्बन व्यर्थ की क्रियाएँ ही है वे आत्मा का अभ्युत्थान नही कर सकती है । जिनाज्ञा विरूद्ध लिखा हो तो मिच्छामि दुक्कडं ।
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.. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥ ५. 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' के निवेदन की समीक्षा
निवेदन पृष्ठ ५ → "हाँ तो हिंसा चाहे किसी भी नाम पर क्यों न की जाए वह हिंसा अधर्म है, संसार परम्परा को बढाने वाली है,
और यदि वह हिंसा धर्म के नाम पर अथवा उसमें धर्म मानकर की जाए तब तो वह बहुत ही ज्यादा अहितकर है ।" ..
समीक्षा → यह बात गलत है । जयणा पूर्वक की स्वरुपहिंसा में दोष नहीं है, जो आगम और व्यवहार से सिद्ध है, उसमें दोष मानना आगम
और व्यवहार विरुद्ध है । स्थानकवासी संप्रदाय में भी एक भी धर्मक्रिया ऐसी नहीं है जिसमें संपूर्णतया अहिंसा संभव हो अतः आपके हिसाब से तो स्थानकवासी पंथ भी अधर्म बन जाएगा? जैसे स्थानक में प्रवचनसामायिकादि के लिए जाना, गुरुवंदन-प्रतिक्रमणादि करना, यह सब क्रियाएँ बिना वायुकाय हिंसा अशक्य है । और वनस्पति-त्रसकाय आदि की हिंसा भी संभव है।
आगमशास्त्र में लिखा है कि"सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्वेजीवा सव्वे सत्ता न हन्तव्वा
अर्थ : सभी प्राणियों, सभी भूतों कों, सभी जीवों को, सर्व सत्वों को हणना नहीं, - नाश नहीं करना-मारना नहीं ।
जब कि- श्री कल्पसूत्र शास्त्र में नदी उतरने का विधान भी है - यथा “एगं पायं जले किच्चा...'' इत्यादि । नदी उतरने में हिंसा होते हुए भी आगमशास्त्र में ऐसा विधान क्यों किया ?
इसका स्पष्ट अर्थ है कि- धर्मसाधना में हिंसा हो ही जाती है, जिसका निषेध शास्त्रों ने नहीं किया है जैसे स्थानकवासी स्थानक का निर्माण करते हैं, और किताब छपवाते हैं गुरुमंदिर बनवाते है होस्पीटल बनवाते है स्कूल बनवाते है। स्थानकवासी संत इसकी प्रेरणा भी देते हैं, फंड भी जमा करवाते
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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है । जिनपूजा आदि कार्यों में जो हिंसा दिखती है, शास्त्रकार भगवंत उसे स्वरुप हिंसा कहते हैं जो मात्र बाह्य स्वरुप से हिंसा दिखती है किंतु वास्तविक परिणामों में हिंसा नहीं होती । हरिभद्रसूरिजी यशोविजयजी आदि ने स्पष्ट जिसका उल्लेख किया है ।
पृष्ठ ६ → “जब तक किसी भी व्यक्ति में गुण विद्यमान है तब तक वह वंदनीय-पूजनीय माना जाता है । यह बात सामान्य साधुसाध्वी तक ही सीमित नहीं बल्कि तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर भगवंतों पर भी लागू होती है । जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों के द्वारा किये गए जन्मोत्सव से मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया वे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी भव में मोक्ष पधारेंगे"
समीक्षा → यह बात बराबर नही है, इसमें एकान्त नहीं है क्योंकि गुण नही होते हुए भी २४वें तीर्थंकर बनने वाले मरीचि को भरत महाराजा ने वंदना की थी, और केवलज्ञान नहीं होते हुए भी परमविवेकी सम्यग्दृष्टि इन्द्रादि देव जन्मादि कल्याणक में शक्रस्तव द्वारा प्रभु की वंदना करते हैं तथा जन्मोत्सव द्वारा प्रभु की पूजा भक्ति भी करते हैं, अतः गुण की अविद्यमानता में भी द्रव्यनिक्षेप से व्यक्ति पूजनीय वंदनीय बन सकता है ।
इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया... इसमें प्रश्न उठता है
सम्यग्दृष्टि और महाविवेकी ऐसे इन्द्र भी इतने विशालकाय - हजारों कलशों द्वारा इतनी भयंकर विराधना करके प्रभु का जन्मोत्सव क्यों मनाते हैं ? इतनी विराधना तो समग्र भारत के सभी मंदिरो में सभी श्रावक मिलकर सैंकड़ो साल तक अभिषेकादि करे तो भी नही होंगी, ऐसी विराधना इन्द्रों द्वारा एक जन्मोत्सव में होती है । आपकी दृष्टि में हिंसा में एकान्त पाप है, अधर्म है तो महाविवेकी इन्द्र ऐसे भयंकर पापकृत्य क्यों करते ? क्या स्थानकवासी वर्ग इस बात पर विचार करेंगे ? और हाँ क्षीरसमुद्र के जल को अचित नहीं कह सकते, मेरु के ऊपर से गिरनेवाला अभिषेक जल जो महानदी के प्रवाह तुल्य है जिससे षट्काय की हिंसा भी दुर्वार है ? ...
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है, तब देह रुप शरीर के रहते हुए भी तीर्थंकर प्रभु का विरह हो जाता है, उनके शब को देव अग्नि संस्कारित कर देते हैं । क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुण आत्मा थी वह तो गमन कर गई ।
समीक्षा → ग्रंन्थो की आधी बात लेनी आधी छोड देनी..... प्रामाणिकता आद्भुत है !!! प्रभु के देह के अग्नि संस्कार की जो बात है, साथ में वहाँ पर स्तूप की भी बात है, उसे जान बुझकर छोड दिया गया है। अगर जड का गुणहीन होने से कोई प्रभाव नहीं, तीर्थों का कोई महत्व नहीं तो प्रभु के अग्नि संस्कार स्थल में स्तुप क्यों बनाते हैं ? उस क्षेत्र (जडभूमि) की कोई आशातना न करे इसीलिए स्तूप बनाया जाता है, यह तो एकदम स्पष्ट है कि प्रभु के जड देह के अग्निसंस्कार से पवित्र भूमि तीर्थस्वरुप बनती है। उसकी आशातना सर्वथा वर्ण्य है इसीलिए बुद्धिमान देव स्तूप बनाते हैं । इससे आगमादि शास्त्रों में विशिष्ट भाव का कारण होने से मूर्ति अवशेषों आदि की पूजा मान्य है।
आप जडदेह को समान रूप से गुणहीन मानते है फिर तो तीर्थकर देव की जडदेह, अन्य साधुओं की जडदेह की चिता अलग-२ बनाकर अग्निसंस्कार जो किया जाता है तब स्पष्ट सिद्ध होता है कि शरीर जड होने पर भी प्रभु और अन्य मुनियों के द्रव्य निक्षेप में अन्तर है अतः इनके पूज्यता में भी अन्तर पडेगा । यहाँ आपकी एकान्तिक गुण की बात गायब हो जाती है । आशातना से बचने के लिए विबुध देव उचित विवेक से यह काम करते हैं। ____ पृष्ठ ६ → “संपूर्ण जैन समाज के सर्वमान्य नमस्कार सूत्र में पाँचो पद गुण निष्पन्न है, कोई भी ऐसा पद नहीं जिसमें गुण नहीं हो और उस पद को वंदन किया गया हो..."
समीक्षा → पद क्या वस्तु है ? पद को तीनों काल के अरिहंतादि मानो तो अशक्य है, वे इकट्ठे नही हो सकते है । कल्पना से मानसपटल पर उभरे चित्र स्वरुप में मानो तो जड चित्र स्वरुप जो आपके लिए पूज्य
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा नहीं होगा। इसे आप भाव निक्षेप में ले जाओ तो वह गलत है, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी । दूसरी बात अतीत-भावि तीर्थंकर जो द्रव्य जिन है, वे गुणहीन होने से आपके हिसाब से अपूज्य बनने चाहिये । अतीत जिन सिद्ध बने इसलिए पूज्य मानो तो भी अरिहंत रुप से तो वे अपूज्य ही होंगे न ? इसीलिए आपके हिसाब से पद की व्याख्या अशक्य होगी । पद को नमस्कार कैसे करेंगे ?
दूसरी बात यह है वर्तमान २४ तीर्थंकर भी हाल मोक्ष में है वे द्रव्य तीर्थंकर है, अरिहंत के १२ गुणों से युक्त नही हैं, उनको अरिहंतरुप में मानना आपके हिसाब से अयुक्त होगा, सभी-स्थानकवासी लोगस्स सूत्र द्वारा अरिहंत रुप से उनकी स्तुति करते है वह कैसे उचित होगा ? आपकी मान्यता से तो जिनके जो गुण हो उन गुणों से युक्त ही उस पद के योग्य है ।
पृष्ठ ७ → "हाँ तो जैनधर्म में किसी का लिहाज़ नही है, यहाँ तो गुणों के पीछे पूजा है । यदि जड पूजा का महत्व होता तो तीर्थंकर प्रभु के शव को मसालादि भरकर मंदिर में सुरक्षित रखा जा सकता था, जैसा कि अन्य देशों में शवों में मसाला भरकर रखा जाता है । क्योंकि पाषाण मूर्ति से शव ठीक ही था, जिसमें अब चाहे गुण न रहे हों, पर पूर्व में तो उनमें गुण थे ही । जबकि पाषाण मूर्ति में न कोई पहले और न ही बाद में कोई गुण है ? वस्तुतः गुणों की आराधना एवं गुणी की सेवा भक्ति करने से ही उनके गुण आत्मा में प्रकट होते हैं । जड पूजा, मूर्ति पूजा में ऐसे कोई गुण दृष्टि गोचर नही होते, जिनकी पूजा अर्चना करने से जीव के अन्दर आध्यात्मिक गुणों का कुछ विकास होता हो । अतएव जडपूजा, मूर्तिपूजा गुणों की अपेक्षा से भी जिनागम विपरीत है ।
समीक्षा -→ प्रभु के शरीर को मसाले भरकर रखने की बात कुतर्क है । चाहे कोई भी उत्तम पुरुष क्यों न हो ६ मास बाद उनके औदारिक शरीर की स्थिति क्या होती है, यह सब शास्त्र को जानने वाले जानते ही है । प्रभु के शरीर में मसाले भरने की कल्पना कितनी द्वेषपूर्ण एवं बेढंगी
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है । परम उपकारी प्रभु के शरीर के ऐसे हाल परमविवेकी इंद्रादि देव कर सकते है क्या ? अग्निसंस्कार से पूर्व प्रभु के जड शरीर को चंदन विलेपन वगैरह से उसकी पूजा क्यों करते हैं ? अगर जडपूजा में मिथ्यात्व है, पाप है तो इंद्रादि देव क्यों करते हैं ?
दूसरी बात आप गुणों की सेवा भक्ति-पूजा वगैरह की बात लिखते है वह कैसे संभव है ? गुण तो अरुपी हैं। पूजा दो प्रकार से होती है द्रव्य और भाव । द्रव्यपूजा अरुपी गुणों की असंभव हैं, और हिंसा के कारण आपको अनिष्ट भी है । भाव पूजा भी आपके हिसाब से असंभव है आप प्रभु की आज्ञा पालन को भाव पूजा मानते है । गुण अलग वस्तु है प्रभु आज्ञा पालन अलग है | अगर आप कहो धर्म - धर्मी अभेद द्वारा गुणवान् व्यक्ति की पूजा से गुणों की द्रव्य पूजा हो जाएगी तो आत्मा अरुपी है, अत: जड शरीर को माध्यम बनाए बिना आप द्रव्य भाव कोई भी गुणपूजा कर ही नहीं सकते है, अतः जड़पूजा को व्यर्थ मानना उचित नहीं है ।
आप लिखते है "मूर्ति पूजा में ऐसे कोई गुण दृष्टि गोचर नही होते हैं ।" आग्रहमुक्त होकर सोचने पर गुण दृष्टिगोचर होंगे। आगम एवं प्रत्यक्ष अनुभवों द्वारा अनेक जीवों के जीवन में बदलाव चारित्र - केवलज्ञान तक की प्राप्ति दृष्टिगोचर होती ही है। डोशीजी मात्र जिनपूजा के द्रव्यत्व में अटक जाते हैं। किन्तु शास्त्रकार मनीषियों ने जो जिनपूजा का रहस्य उद्घाटित किया है, वह निश्चित ही आत्मलक्षी व आत्मस्पर्शी है ।
जिसे डोशीजी पाषाण कहते हैं, सम्यक्त्वी लोग उन्हें भगवान् कहते हैं । जड़पूजा - मूर्तिपूजा जिनागम विपरीत लिखते है तो आपको मान्य ३२ सूत्रो में कहाँ-कहाँ पर मूर्तिपूजा का नामोल्लेखपूर्वक निषेध किया है ? बतावो रायपसेणी (राजप्रश्नीय) वगेरे सूत्रो में मूर्तिपूजा बताई है, उससे तो उसका विधान ही स्पष्ट रीति से समझ में आता है ।
पृ. ९ मूर्तिपूजक समाज जिन-जिन मुद्दों के आधार से मूर्तिपूजा को जिनाज्ञानुसार बतलाते है, उनमें कितनी सत्यता है, आगम पाठों को किस प्रकार तोड़ मरोड़ कर उनका अर्थ किया है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा .
४१ समीक्षा → आगम के अर्थों का तोडमरोडकर अर्थ स्थानकवासी ही करते है, मूर्तिपूजक नही ! ज्ञानसुंदरजी की "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास'' पुस्तक में उसे बताया है। अभी-अभी देखने मे आई "लौकागच्छ
और स्थानकवासी' किताब में पं. श्री. कल्याण विजयजी म. ने भी इसे सप्रमाण सिद्ध किया है । डोशीजी की पुस्तक पढ़ने पर पाठक अच्छी तरह से समझ सकेंगे तोड-मरोड़कर अर्थ कौन करते है। स्थानकवासी पंथ का शंखनाद करने वाले लोंकाशाह स्वयं ही संस्कृत-प्राकृत के ज्ञाता नहीं थे, तो अर्थ कैसे समझते ? वही अधूरा ज्ञान उनकी परम्परा में चलता आया
उसके लिए दूसरा भी प्रमाण है "संपूर्ण मूर्तिपूजक समाज में सभी हजारो सालों से चली आ रही प्राचीन नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-टीका के आधार पर अर्थ करते आये हैं - सभी उसको मान्य रखते हैं. एक वाक्यता है, जब की स्थानकवासी अलग-अलग संप्रदायों के जितने भी आगम छपे है, मूर्तिपूजा के पाठों के अर्थ में कहीं पर भी एकवाक्यता नहीं है, प्रायः अपनीअपनी बुद्धि से किये काल्पनिक अर्थ ही दृष्टिगोचर होते है । स्थानकवासी परम्परा के पास स्वयं का कोई भी ऐतिहासिक-प्रामाणिक साहित्य नहीं है, अतः ज्ञान का आदित्य (सूर्य) भी नहीं है। दिगंबर विद्वान पंडित टोडरमलजी ने 'ढुंढक समीक्षा' में स्थानकवासी आगमों के पाठों को तोड़-मरोड़कर अर्थ करते हैं, यह बात अत्यंत स्पष्टतापूर्वक कही है।
पृ. ९ → श्री ज्ञानसुन्दरजी म. (जो मरुधर केसरी कहलाते) पहले स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित हुए, स्थानकवासी समाज से वे बहिष्कृत किए जाने पर वे मूर्तिपूजक समाज मे जा मिले और वहां जाकर आपने वहाँ "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक लिखी, जिसमें आपने आगम के कुछ खोटे उद्धरण देकर मूर्तिपूजा को जिनागम सम्मत बताने का प्रयास किया । आपके दिए गए उद्धरण कितने बेबुनियादी अयथार्थ एवं आगम विरुद्ध है,
समीक्षा → ज्ञानसुंदरजी का विस्तृत जीवन वृत्तांत 'आदर्श जीवन'
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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भाग-१-२ में छपा हुआ है, तटस्थ जिज्ञासु वह पढ़कर निर्णय कर सकते है कि स्थानकवासी समाज से वे बहिष्कृत हुए या जिनाज्ञा विरुद्ध समझकर उन्होने उस पंथ का त्याग किया ।
'कापरडाजी तीर्थ का संक्षिप्त इतिहास' पुस्तिका में भी ज्ञानसुंदरजी म. का संक्षिप्त जीवन चरित्र दिया है उसमें पृ. १७ पर “स्थानकवासी समाज में घेवर मुनिजी (यह ज्ञानसुंदरजी म. स्थानकवासी. के नाम है) का अच्छा सम्मान था वे उच्च कोटि के साधु माने जाते थे इसलिये उधर से निकल जाने से उन लोगों को पश्चाताप होना स्वाभाविक था किन्तु कोई मार्ग नहीं दिख पडता था उधर रहने के लिये जितने प्रयत्न करने चाहिए वे सब किए गये किन्तु सफलता नहीं मिली और एक वीरात्मा के समान. अतिस्पष्ट उल्लेख है इससे तटस्थ व्यक्ति सत्यता समझ सकते हैं ।
यह
बांठियाजी लिखते है " आपके दिए गए उद्धरण बेबुनियादी अयथार्थ एवं आगमविरुद्ध हैं, ज्ञानसुंदरजी के उद्धरण ऐसे है या डोशीजी का अर्थ घटन अयथार्थ आगम विरुद्ध है, उसका निर्णय दोनों किताबों को पास मे रखकर पढ़ने से पाठक खुद ही करेंगे ।
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पृ. १० पेरा २ चर्चा में हमेशा मूर्तिपूजक समाज को मात खानी पड़ती । क्योंकि वे इसे जिनागम सम्मत सिद्ध करने में हमेशा विफल रहे ।
समीक्षा → हा, हा हा... यह बात बिलकुल असत्य है । 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' पुस्तक पृ. ४१२ से ४१५ में दिये हुए नाभानरेश का फैसला, जिसे नाभानरेश की आज्ञा लेकर छपाया है, लौंकागच्छ और स्थानकवासी पुस्तक में जेठमलजी और पं. वीर विजयजी का वाद जिसका उत्तम विजयजीने रास लिखा है उससे भी सिद्ध होता है स्थानकवासी ही हमेशा मात खाते रहे । ऐसे दूसरे भी अनेक दृष्टांत है । मेघजीऋषि वगैरह की बातों से वास्तविकता प्रकट होती है । तटस्थ व्यक्ति प्रामाणिक निर्णय खुद ही करें । कच्छ मे स्था. छोटालालजी म. व आ. यशोदेवसूरिजी के
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा वाद में स्था. छोटालालजी को पाट पर खडे होकर माफी मांगनी पडी ।
दूसरा ठोस प्रमाण यह भी है ज्ञानसुंदरजीने अपनी पुस्तक में सत्य समझने पर जो अनेक-अनेक स्थानकवासी संतों का उल्लेख किया है जो सनातन मूर्तिपूजक में दीक्षित हुए । सत्य की हमेशा विजय होती है। मध्यस्थ संत सही समझने पर मोक्षाभिलाषी होने से सही मार्ग पर आए वह उचित है । यथा, विजयान्दसूरीश्वरजी(आत्मारामजी) म.सा., ज्ञानसुन्दरजी इत्यादि । ऐसा उदाहरण एक भी सुनने में नही आया कि मूर्तिपूजक साधु पंथ छोडकर स्थानकवासी में दीक्षित हुए। यह क्या बता रहा है, तटस्थ खुद ही निर्णय करें ।
"तब से स्थानकवासी समाज ने निर्णय किया है कि मूर्ति व मुंहपत्ति संबंधित वाद किसीसे नहीं करना क्योंकि इसमें स्थानक मत कमजोर सिद्ध होता है ।" ( देखिए पंजाबी साध्वी भानुमति की टिप्पणी)
- हीमांशुभाई जैन __चन्द्रोदय परिवार
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ६. भूमिका की समीक्षा पृ. १४ → चैतन्यने शांति चैतन्य पासेथी ज मली शके पण जड पासेथी आध्यात्मिक शान्ति न ज मली शके ए सहेजे समजी शकाय तेम छे आंबानी गोटलीमांथी ज आंबो मेलवी शकाय, सबीज जुवारमांथी ज जुवार प्राप्त करी शकाय, पण पत्थरनी आंबानी गोटली बनावीने के पत्थरना जुवारना दाणा बनावीने सारामां सारी कराल जमीनमां वाववामां आवे अने उपर वरसाद वगेरे मनमानता पूरता प्रमाणना साधनोनो उपयोग थाय तो पण एमांथी-आंबाना नाममात्र बीजमांथी आंबो के जुवार वगेरे कांई पण न ज मेलवी शकाय, एटलु ज नहि पण ए जड बीज सामे गमे तेवी प्रबल प्रार्थना के भावना पण सफल थती नथी कारण के ए आंबानी गोटली के जुवार ने मात्र नाम आपेल छे, अथवा ते तेनी मिथ्या स्थापना करेल छे, जेथी ते फलदायक बनती नथी कारण के ते वस्तुमां तेनो मूल गुण होतो नथी एटले उद्यम करनारनो वर्षोनो उद्यम होय तो पण ते शून्य परिणाम ज निवड़े छे, ए सनातन सत्य छ ।
समीक्षा → केवी अज्ञानता !!! भाव निक्षेपाना बीजना कार्यनी अपेक्षा स्थापना बीज पासे राखवी, ते कार्य ते केवी रीते करी शके ? बीजनी ओलखाण वगेरे स्थापना निक्षेपाना कार्यो स्थापना बीजथी थाय ज छे.
पृ. १५ → श्रमणोपासक-श्रावकनी ज्या-ज्यां दिनचर्या सिद्धान्तोमां बतावेल छे त्या देशविरती चारित्र अने नानाविध तपनी ज विधि बतावेल छे कोई पण ठेकाणे प्रतिमाजीनु पूजन-अर्चन के ते सम्बन्धी विधि विधान क्या बतावेल नथी.
समीक्षा आनंदादि श्रावको सम्यक्त्व उच्चरे तेना आलावा मां स्पष्ट रीते "नन्नत्थ अरिहंत चेइयाइं" अरिहंत सिवाय बीजी प्रतिमाओने नही मानवानु विधान छ ज ।
पृ. १६ → श्री ठाणांगजी सूत्रना चोथे ठाणे श्रमणोपासक ने माटे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
चार विसामा बतावेल छे तेमा सामान्य व्रत, पच्चक्खाण, सामायिक, पौषधादि अने संयम वगेरे करेल छे पण क्यांय प्रतिमा वंदन - पूजन विश्रान्तिनुं स्थान कहेल नथी तेम ज त्रीजे ठाणे त्रण कारणे करी देवने पश्चाताप-खेद थवानुं कहेल तेमा ( १ ) छती अनुकूलताए ज्ञानाभ्यास न कर्यो (२) श्रावक पणु शुद्ध न पाल्यु अने ( ३ ) संयमीपणु शुद्ध न पाल्युं, एत्रण कारणे देवने खेद थवानुं कहेल छे पण क्यांय पहाड़ पर्वतनी यात्रा न करी के प्रतिमादिनुं पूजन न कर्यु तेना माटे खेद थवानुं श्री वीतराग देवे कहेल नथी ।
समीक्षा श्रावकपणु शुद्ध पालवाना माटे सम्यक्त्व शुद्ध जरुरी छे, सम्यक्त्व आलावामा जिन प्रतिमा सिवाय बीजीने न मानवी एटले जिनप्रतिमाने ज मानवी - पूजवी वगेरे । तेथी श्रावकपणाना शुद्ध पालनमां प्रतिमा-पूजनादि अंतर्गत ज छे तेथी जुदा कहेवानी आवश्यकता नथी ।
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पृ. १७" धम्मेसुणं चरमाणस्स पंच निस्साट्ठाणा पण्णत्ता तं जहा १ छ: काय २. गणो ३. राया ४. गाहावई ५. सरीरं अर्थात् छः काय, गण, राजा, गाथापति, अने शरीर ए पांच अवलम्बन कह्या, पण धर्म के जे आत्मानो गुण अथवा आत्म मल दूर करवानुं पवित्र साधन ए धर्मना आधार रुपे प्रतिमाजी के कोई पण स्थावर तीर्थ बतावेल नथी, ए उपरथी पण सिद्ध थाय छे के धर्मकार्य- आत्मकल्याण माटे मूर्तिपूजानी मूर्तिनी क्यांय पण जरुरियात श्री जिनेश्वर देवे स्वीकारेल नथी ।
समीक्षा : ठाणांगमा पांच निश्रास्थान = · अबलंबन कह्या छकायगण,-राजा, गाथापति, शरीर मूर्ति न कही एम कहो छो तो तेमा तो, गुरु पण क्या बताव्या छे ? तो शुं गुरुनी आत्मकल्याण माटे जरुरीयात नथी एम मानशो ?
पृ. १७ शाश्वती प्रतिमा अने ते पण श्री जिनेश्वरदेवनी प्रतिमा शाश्वत होई शके ज केवी रीते ? जे वस्तु अनादि अनंत होय ते ज शाश्वत, तो जिनेश्वर देवनी प्रतिमा होय तो कोई पण काले ते जिनेश्वर देव थया
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा होवा जोइए, एटले एमनी आदि थई अने ए जिनेश्वरदेवना शरीरनो अन्त पण होय ज, एटले ए अनादि अनंत न ज कहेवाय । अने अनादि अनन्त ज होय ते जिनेश्वर देवनी प्रतिमा न होय, ए सर्व मान्य सत्य छ ।
समीक्षा → आ बधा अज्ञानताभर्या तर्को छ । भाव जिनेश्वर शाश्वत नथी माटे स्थापना जिन शाश्वत नथी अम केवी रीते कही शकीए ? बनेना उपादान जुदा छे - एकनु पंचेंद्रिय शरीर छे ज्यारे बीजानु उपादान एकेन्द्रिय शरीर छे । परिकरवाली यक्ष-भूतादिनी प्रतिमा तमे शाश्वत मानोज छो ने ? तो जिन प्रतिमाथीज केम द्वेष राखो छो? ते प्रतिमाओ द्रव्यथी शाश्वत पर्यायथी अशाश्वत छे, जेम मेरु पर्वत-देवलोकना विमानो बधा द्रव्यथी शाश्वत पर्यायथी अशाश्वत छे, तेमज जिन प्रतिमाओ पण समजवी, जिनप्रतिमारुपे शाश्वत, अंदर पुद्गलो बदलाया करे तेथी पर्यायथी अशाश्वत । ए चार नामवाला जिनेश्वर त्रणकालमा गमे त्यारे होय ज छे, तेथी नामथी शाश्वत होवाथी तेमनी शाश्वती प्रतिमाओ छे एमा विरोध जेवू छे ज नही ।,
बीजु, तेने जिनप्रतिमा न मानी बीजा देवनी प्रतिमा तमे मानो तेमा एवा क्या देव होय ते शाश्वत होय ए तमारे आपत्ति उभी ज छे। जो बीजा देवोनी शाश्वत प्रतिमा तमे मानी शको तो जिनप्रतिमा शाश्वत मानवामा तमारे शुं वाधो ? जिनप्रतिमा साथे ज द्वेष केम ?
भगवतीनो पाठ अत्रे जिनप्रतिमा मा लागु पडतो नथी समुच्चय बंधनो संख्यातो काळ बताव्यो छे, ज्यारे प्रतिमा मा कोई प्रकारनो बंध छ ज नही, मकान-वावडी वगेरे जे इंट-चुना वगैरेथी जोडाण करी बनावे ते समुच्चबंध कहेवाय छे. प्रतिमा अखंड जोडाण वगरनी ज होय छे. तेथी ए वात प्रतिमामा लागु न थाय ।
पृ. १९ → कनक एटले सोनु-सुवर्ण खरं अने कनक एटले धतुरो पण खरो, कनक नामे धतुरो लेवाथी कांई तेना आभूषणों थोडाक ज बनी शके छे ? नामनी साथे तेनामा ते गुण होवा जोइये, गुण पूजनीय छे नाम नहि, घणीए गंगा, सरस्वती, गोदावरी नामे बहेनो गंधाती अने गोबरी होय छे, ए जन समाजथी क्यां अजाण्यु छ ? एटले वर्धमानादि
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म
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न मान
आगमोमा जवान प्रयोजन
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
४७ नाम उपरथी ते प्रतिमा जिनेश्वरनी होवानु मानी लेवू ए मतमोहनुं परिणाम होय तेम केम न मानी शकाय ।
समीक्षा → जिन आगमोमा बीजा मिथ्यात्वी देवोनी प्रतिमा बताववानु तेनु विस्तृत वर्णन-महिमा बताववानु प्रयोजन शुं? तेने वांची बीजा ते तरफ आकर्षाय तेथी तमारा हिसाबे मिथ्यात्व, पोषण छे, तेवू गणधर भगवंतो केम करे ? विचारशो ? तेवु बतावीने तेवा प्रतिमापूजन वगेरे मिथ्यात्वनी करणीथी सूर्याभदेव दुर्गतिमा जाय. संसारमा भटके एवु फल बताववाने बदले "हियाए... निस्सेसयाए'' वगेरेथी कल्याणकारी मोक्षप्रापक तेने केम कही?
आगममा आपेल प्रतिमाना वर्णन प्रमाणे ते प्रतिमाओ अरिहंतनी ज छे ते सिद्ध थाय छे ।
पृ. २० → “अने ते सूर्याभ-दरेक सूर्याभदेव सम्यक्त्वी-जैनधर्मी होय छे - होय ज एवो कोई चोक्कस सिद्धान्त नथी, तेथी सूर्याभदेव मिथ्यात्वी पण होय अने ए मिथ्यात्वी देव पण परम्परागत रुढ़िने अनुसरी प्रतिमा-पूजन जरूर करे ज, त्यारे पण शुं ते मिथ्यात्वी देव जिनेश्वर देवनी प्रतिमा मानीने जिनेश्वरदेव प्रत्येना भक्तिभाव श्रद्धाथी पूजा करता हशे ? अने नमोत्थुणंनो पाठ पण कहेता हशे ? अने कदाच नमोत्थुणं नो पाठ पण रुढ़ि अनुसार बोलवानो नियम होय तो ते पाठ बोलती वखते ते श्रद्धा सम्यक्त्व पूर्वक ते बोलता हशे ? ना, ना तेम कदी पण बनवा संभव नथी, न ज बने, एटले ए सिद्ध थाय छे के सूर्याभदेवे जे प्रतिमा पूजन करेल छे ते धर्म के आत्मकल्याणनी भावनाथी नहि पण रूढ़िगत प्रणालिकाना बन्धनथी ।
समीक्षा → कोई पण प्रमाण वगरनी आवी खोटी पाया वगरनी कल्पना करवाना बदले नमुत्थुणंनो पाठ अने प्रतिमाजीनुं वर्णन-मुद्रा वगेरे द्वारा अरिहंतनीज ते मानवु उचित गणाय छे । तेनी पूजा वगेरे सम्यक्त्वी श्रद्धाथी, मिथ्यात्वी प्रणालिका एमना व्यवहार प्रमाणे करे ते अविरुद्ध छे जेम अत्रे पण एवु जोवा मले बाप श्रद्धाथी पूजा वगेरे करे बेटो बापनी
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मर्यादा - धाक कुल क्रमागत रीते करे छे ।
पृ. २२ अर्थात् सूर्याभ देवे पूजेल प्रतिमा जिनेश्वर देवनी ज प्रतिमा हती एवं छे नहीं, तेम ज एणे धर्म भावना थी के आत्म कल्याणनी भावनाथी प्रतिमा पूजन कर्यु नथी पण रूढि अनुसार करवी जोईती क्रिया तरीके ए क्रिया करी छे । समीक्षा
वर्तमान सूर्याभ देव तो सम्यक्त्वी ज छे ते निर्विवाद छे तेथी ते जिन प्रतिमानु ज पूजन करे अने ते पण धर्मभावनाथी ज करे श्रद्धाथी ज करे तेमा कोई शंका नथी ।
पृ. २४/२→ दाढ़ानी पूजा कुलाचार वंश परम्परागत रिवाज मुजब पण कराय छे। कारण के जे देव सम्यक्त्वी न होय ते पण दादानु पूजन प्रणालिका ने वशवर्ति पण करे छे, एटले मिथ्यात्वी देव पण ए दाढ़ानुं पूजन करे छे, एटले ते जिनेश्वर देव प्रत्येना भक्तिभाव के श्रद्धाथी नहि पण व्यवहार साचववा अर्थे ज सिवाय कांई नहि ।
समीक्षा → दाढ़ाना जल छंटकावथी झगडा मटे वगेरे फलो देखाय तेथी मिथ्यात्वी पण भक्तिभावथी ज पूजा करे ते स्वाभाविक छे ।
पृ. २४ श्री भगवतीजी सूत्रमां श्री जमालिना अधिकारे पाठ
छे के
" जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरङ्गुल वज्जे निक्खमणपयोगे अग्गकेसे कप्पड़ तएणं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ अग्गकेसे पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ सुरभिणा गंधोदणं पक्खालित्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहिं अच्चेति २ सुद्धवत्थेणं बंधत्ता रयणकरंडसि पक्खिवति हारवारिधारा-सिंदुवार - छिन्नमुत्तावलिप्पगासाइं सुयवियोग दूसहाइं अंसुइ विणिमुयमाणि २ एवं वयासी ।"
"एसणं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहुसु तिहिसुय
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पव्वाणीसुय उस्सवेसुय जनेसुय छणेसुय अप्पच्छिमे दरिसणे भविस्सति त्तिकट्ट ओसिसगमूले ठवेति ।"
____ अर्थ : जमालि क्षत्रिय कुमारना निष्क्रमण योग्य अग्र केशो चार आंगल मुकीने कापे छे, त्यारपछी जमालि क्षत्रिय कुमारनी माता हंसना जेवा श्वेत पट-साटक थी ते अग्रकेशोने ग्रहण करे छे, ग्रहण करीने ते केशोने सुगंधी गंधोदकथी धुए छे धोइने उत्तम अने प्रधानगंध तथा माला वडे पूजे छे, पूजीने शुद्ध वस्त्र वडे बांधे छे, बांधीने रत्नना करंडियामां मूके छे, त्यार पछी जमालि क्षत्रिय कुमारनी माता हीर पाणीनी धारा सिंदुवार ना पुष्पो अने तुटी गयेली मोतीनी माला जेवा पुत्रना वियोगथी आंसु पाडती आ प्रमाणे बोली के "आ केशो अमारा माटे घणी तिथिओ, उत्सवो, यज्ञो, अने महोत्सवोमां जमाली कुमारना वारंवार दर्शन रुप थशे एम धारीने तेने ओशिकाना मूलमां मूके
छे।
समीक्षा → अहीं छोटालालजी मुनि कहे छे "रागवश थई माता पुत्रना केशोनुं पूजन करे" तो ते राग प्रशस्त उपादेय के अप्रशस्त हेय? आगममा तेनुं वर्णन करायु छे, अने व्यवहारथी पण ते राग प्रशस्त उपादेय ज स्पष्ट पणे देखाय छे । जेम कोई शिष्य पोताना कालधर्म पामेल गुरुर्नु रजोहरण राखी तेनुं वंदन वगेरे करे ते प्रशस्त राग छे, हेय नथी उपादेय छे ते रीते अत्रे पण समजवू । तेथी आ उदाहरण द्वारा तो दाढ़ा पूजन प्रशस्त - उपादेय अने भक्तिपूर्वकनुं सिद्ध थाय छ ।
पृ. २८ → परन्तु ते स्तुति ते गुणानुवाद देहना नामना के जड़ वस्तुना नहिं पण चैतन्यना कारण के अनन्त ज्ञान दर्शननो धारक सिद्ध स्वरुपी अने शाश्वत गुणनो धारक आत्मा छे, नहि के देह अथवा जड मूर्ति । जड़ एतो नाशवंत अने त्याज्य वस्तु छे. तेनी उपयोगिता तो तेमा अनन्त गुण धारक आत्मा होय त्या सुधी ज पछी जराए नहि ।
समीक्षा → आ एकांत जैन दर्शनने मान्य नथी । केमके गुरुना गुणगान तेमना नामथी तेमज आ भवमा जे पर्यायरुपे शरीर मळ्यु छे तेनाज थाय छे । एकलो आत्मा अरुपी-अनामी छे तेना गुणगान शुं करे ? वली
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बीजा भवमां तेज आत्मा देव पण बने त्यारे पूजनीक नथी । एटले जड शरीर अने नामनी अपेक्षाथी ज गुणगान शक्य छे.
जैन शास्त्रो देह-आत्मा, नाम-आत्मा वगेरेमां भेदाभेद माने छे एकांत भेद नथी तेथी नाम अने शरीर ए जड होवा छता तेमनुं गुणगान अभेद पक्षे थाय ज छे.
स्थानकवासी संत कालधर्म (मृत्यु) पामे छे त्यारे ओमनो ठाठथी अग्निसंस्कार आदि विधि केम करो छे ? मृतशरीर Dead Body तो जड छे जडनो आटलो मान-सन्मान केम ?
पृ. २८ जो जड वस्तु पूजनीय वंदनीय होय तो श्री तीर्थंकर देवना स्थूल उदारिक देहमांथी आत्मा परम पदे पहोंच्या पछी ते शरीरने देवो पोतानी शक्ति वडे तेने हजारो वरस सुधी जालवी राखत अने तेनी पूजा अर्चना करत पण जड वस्तु पूजनीय न होवाथी ज श्री जिनेश्वर देवना शरीरने अग्निने आधीन करे छे, अथवा अग्नि संस्कार करी तेनी राखने क्षीर समुद्रमां पधरावी दे छे ।
समीक्षा पूजनीय छे माटेज दाढ़ाओ अस्थि देवलोकमा पूजाय छे। औदारिकदेह तथा स्वभावे वधारे कालसुधी टकतो नथी. बगडी जाय छे ते स्पष्ट छे माटे राखता नथी । जड राखने क्षीरसमुद्रमां केम पधरावे ? तेनी कोई आशातना न करे माटे ज-ते स्पष्ट छे. तेथी देवो कलेवरना राखने पण पूज्य माने छे सिद्ध थाय छे । माटे जड अपूजनीय ए तमारी वात शास्त्रथी ज असिद्ध थाय छे ।
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पृ. २९ → अने वंदनीय पूजनीय छे ते पण चैतन्य जड़ नहीं, एटले तीर्थंकर नामकर्मनी उपार्जना तीर्थंकर देव तरीके रहेला आत्माना नहिं के तेना शरीरना के तेनी मूर्तिना, गुणग्राम करवाना व्यवहारमां पण 'अमुक घर घणुं खानदान छे" एम जे वखाणाय छे ते घर एटले पत्थर ईंट के चूना माटीथी बनेलुं ते नहि पण ए घरमा रहेनार मनुष्यो सचारित्रवान् - उत्तम नीतिवाला होय तेथी ज ए घर वखाणाय छे,
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मनुष्यथी घरनी महत्ता छे कांई घरथी मनुष्यनी कीमत नथी, अर्थात् तीर्थंकर नामकर्मनुं निमित्त तीर्थंकर देवना गुणग्राम छे, नहि के तीर्थंकर देवनी बनावटी मूर्ति |
समीक्षा → अत्रे मुनिश्री पोताना पक्षने सिद्ध करवा एकांत मार्ग अपनावी जैनदर्शनना अनेकांतमार्गने तिलांजली आपे छे. केवी रीते ? ते विचारीये “अमुक घर घणु खानदान छे आ प्रयोग मुनिश्रीए अपनाव्यो छे, आ प्रयोग स्पष्टपणे जडपूजानी सिद्धि करे छे. आ प्रयोग लोकमा प्रचलित छे प्रामाणिक गणाय छे, आधार आधेयभाव संबंधथी मकान अने व्यक्तिनो अभेद मानी उपचारथी आवो प्रयोग थाय अन्यथा आवो प्रयोग थात ज नही कारण के घर तो जड छे. जड खानदान नथी होतु ! परंतु ए घरमा रहेनार माणसो खानदान छे आवो ज प्रयोग थात !
एवीज रीते आत्मा अने शरीरनो भेदाभेद संबंध छे, तेमांथी अभेदनी विवक्षा करी शरीरने पण तीर्थंकर कहीए छीए, मूर्तिमां पण भेदाभेद छे अभेद पक्षने लई ते-ते देवनो उल्लेख थाय छे आ वात लोकथी अने शास्त्रथी प्रमाणित छे । आ अभेद पक्षने लईने ज साक्षात् तीर्थंकरनुं शरीर वंदनीक पूजनीक छे तेवी ज रीते अभेदनी विवक्षाथी ज तीर्थंकरनी मूर्ति पण वंदनीक पूजनीक छे ज ।
पृ. ३० श्री ज्ञाताजी सूत्रना प्रथम अध्ययनमां पाठ छे के " तत्तेणं सुमिणपाठगा सेणियस्सरन्नो कोडंबिय पुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्ठा तुट्ठा जाव हियया पहाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता ।" अर्थात् त्यार पछी ते स्वप्नपाठको श्रेणिक राजाना कौटुम्बिकना बोलाव्याथी हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हृदयवाला थया, न्हाया बलिकर्म कर्यु यावत् कौतुक मङ्गल प्रायश्चित कर्यु अर्थात् पाछली अवस्था टाली ।
एज अध्ययनमां मेघकुमार दीक्षा लेवा तैयार थया त्यारे हजामने बोलावे छे, ते हजाम पण स्नान बलिकर्म करीने आवे छे एम दरेक ठेकाने स्नाननी साथे बलिकर्म कहेल छे. एटले स्नान होय त्यां बलिकर्म होय ज, अने ते बलिकर्म पाठनी पाछल " पायच्छित्ता" पाठ पण होय ज,.
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा एथी बलिकर्म एटले स्नाननी विशेष शुद्धिनी क्रिया-शरीरना प्रत्येक अङ्गोपांगनी कालजी पूर्वकनी शुद्धि केटलाक स्नान करे छे त्यारे मात्र शरीर पर पाणी ढोले, पण प्रत्येक अङ्गोपांगनी शुद्धि तरफ बेदरकार रहे तो भविष्यमा स्नान करवा छतां रहेली अशुद्धिना कारणे घणा रोगो उत्पन्न थाय छे, अने जो विधिपूर्वक स्नान थाय तो घणा रोगो उत्पन्न थता अटकी जाय छे ए अशुद्धि टालवा माटेनी खास कालजी एज बलिकर्म, कारण के एना पछीनो जे पाठ "पायच्छित्ता"छे ते सूचवे छे के स्नान अने बलिकर्म करीने पाछली एटले स्नान कर्या पहेलानी जे जे शारीरिक अशुद्धि-दोष हता ते सर्व ने दूर कर्या ।
समीक्षा → अत्रे बलिकर्म अने प्रायश्चित्तना जे स्नानपछीनी विशेष शुद्धि अर्थ को छे तेना माटे कपोलकल्पना सिवाय कोई प्रमाण खरु ? बलिकर्मनो एवो अर्थ व्याकरण लोकव्यवहार वगेरे कोई पण द्वारा सिद्ध थतो नथी । कपोलकल्पित आगमोना अर्थाने समजु प्राज्ञलोको प्रमाण नथी मानता । प्रायश्चित्तनो अर्थ पापनो नाश, शरीरना मेलनो नाश अर्थ क्यांथी लाव्यो ? एटले टीकाकारोए करेल पूर्वपरंपराथी आवेल शुद्ध अर्थने ज प्रामाणिक मानवो जाईये ।
आगममा सम्यक्त्वी के मिथ्यात्वी संबंधी प्रकरणोमां बधे बलिकर्मनी वात स्नान पछी आवे छे ते सुचवे छे के स्नान पछी पूर्वकाले पोतपोताना इष्टदेवनी संक्षिप्त के विस्तारथी पूजाविधिनी सार्वत्रिक प्रचलना हती. जेम हालमा पण घणा श्रद्धालु कुलोमा कोई सूर्यनी सामे पाणी अर्पण करे, कोई पीपले पाणी रेडे कोई घरमा राखेल मूर्तिने धूप-दीप वगेरे करे एवा अलगअलग स्व-स्वपरंपरागत विधानो देखाय छे. तेने ज शास्त्रोमां बलिकर्म" शब्दथी सूचव्या छे. सम्यकत्वीना इष्टदेव अरिहंत परमात्मा ज छे तेथी बलीकर्म शब्दथी अरिहंतपरमात्माना मूर्तिपूजानी स्पष्ट रीते सिद्धि थाय ज
* कहीं कहीं स्थानकमार्गी संत कयबलिकम्मा का अर्थ कुल्ला किया(कोगलाकर्या) ऐसा असत्य लिखते हैं।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
पृ. ३३ → आवो परम पवित्र पश्चात्ताप ए परमात्मा-अनन्तज्ञानी परमात्मानी साक्षीए होई शके, के जेओ पश्चात्तापना शुद्ध स्वरूपने यथार्थ रुपे समजी शके एवा-सर्वज्ञ प्रभुनी हाजरीना अभावे कदाच कोई वर्तमान काले जेओ शास्त्रज्ञ होय, हृदयना उदार अने सरल होय, जेओ शास्त्रानुसार वर्तन करनार होय तेवानी साक्षीए आलोयणा करवानी होय, अने तेमना अभावे कोई समभावी उदारचित्त संघनी साक्षीए आलोयणा थई शके । परन्तु जे जड़ पदार्थ छे, जेने मन संकल्प विकल्प जेवी वस्तु पण नथी जेने ज्ञान दर्शन पण नथी तेनी साक्षी होइज शु शके ? साक्षीने पोताने पोतानुं ज्ञान भान नथी तेवा खरेखर जड़ पदार्थनी साक्षीए आलोयणा न ज होई शके।
समीक्षा → पक्ष राग केवो छ ? सूत्रकार तो "सम्मभावियचेइय''ना अभावमां पूर्व के उत्तर दिशाभिमुख आलोचना करवानुं बतावे छे त्या कोई पण आलंबन नथी डोशीजी पोते पण कोईपण आलंबन सिवाय ईशान खुणामा मोढुं राखी आलोचनानुं सूचवे छे (जो के ए पोताना मनथी कहे छे सूत्रमा तो पूर्व के उत्तर दिशा ज बतावी छे) तो मूर्तिना आलंबने आलोचनामा शुं वांधो आवे ? टीकाकार ते वातने कहे ज छे. एकलव्ये जडमूर्ति समक्ष ज साधना करी धनुर्विद्यामा अद्वितीय प्रवीणता मेलवी ते प्रसिद्ध छे । तेमज जैनेतरो मूर्ति आगल सोगंध वगेरे करे ते पोते पण स्वीकार्यु ज छे ।
कोर्ट (न्यायालय) मां जड किताब गीताजी पर हाथ राखी सोगंध खाए छे. ते तो तमारा ध्यानमां हशे ज?
पृ. ३४ → प्रतिमानी प्राचीनता कही बतावीने ते पूजनीय छे एम कहेवू ए तो भोला बालकोने भरमावी उन्मार्ग गामी बनावा जेवू छे कारण के प्रतिमाजीनी प्राचीनता ए कोई महत्वनी बाबत नथी, कारण के घणी त्याज्य वस्तु पण प्रतिमाजीथी ए अनन्त काल प्राचीन छ । पाप आश्रव बन्ध वगेरे घणा प्राचीन छे सोमलादि विष-झेर-ए पण बहुकालना जुना छे, एवी अनेक वस्तुओ अनादि कालनी प्राचीन छे, पण तेथी ते ग्राह्य छे, वन्दनीय-पूजनीय छे, एम कोई डाह्यो मनुष्य न ज कहे।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
समीक्षा → आ प्रकरणमा मुनिश्री प्राचीनतानी कोई किंमत नथी ते सिद्ध करवा मांगे छे ते तेमना पोताना माटे उचित ज छे. स्थानकवासी पंथ प्राचीन नथी भगवान महावीर साथे तेने संबंध नथी तो पण तेओ माने ज छे ने ? सुज्ञ विवेकी तेवु न करे मूर्तिपूजक समाजने जे मान्य नथी तेवी आपत्ति आपे छे बधी प्राचीन वस्तुओने तेओ पूजनीय मानता ज नथी । जे पूजनीय-वंदनीय छे तेवी ज वस्तुओ मूर्ति, शास्त्र वगेरे ने तेओ पूजनीय - वंदनीय माने छे ।
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आगम शास्त्र प्राचीन छे, प्राचीननुं कोई मूल्य नहीं होय तो तमे आगमशास्त्र केम मानो छो ?
मुनिश्री लखे छे " अनेक तीर्थोमां प्रतिमाजी ध्यानपूर्वक जोयेल १२मा सैका पहेलानी प्रतिमा क्यांय जोवामां आवेल नथी." ते दृष्टिराग रुपी नेत्रोथी जोवाथी तेमना माटे योग्य ज छे. महान् विद्वान् संशोधको जेनी प्राचीनता गाता होय ते दृष्टिरागीने गले क्याथी उतरे ? लेख वगरनी ढगलाबंध प्रतिमाओ मले छे तेनो निर्णय शिल्पना ज्ञान विनाना मूर्ति प्रत्ये अनास्थावाला केवी
ते करी शके ? ज्ञानसुंदरजीए पोताना पुस्तकमा ढगलाबंध सप्रमाण प्राचीन मूर्तिओना इतिहास बताव्या छे । खारवेल लेख, बौद्ध ग्रंथो वगेरेमांथी ज जिज्ञासुओ जोई शके अने वास्तविकता समजी शके छे । (जुओ परिशिष्ट)
पृ. ३७ → शास्त्रमा जेनी पूजा अर्चनानो उल्लेख सरखो ए न होय तेवी जड मूर्ति- प्रतिमाजीनी पराणे पूजा करावी अने ते निमित्त रागद्वेष वधारीने आत्मकल्याण कराववानो धखारो करवो ते केटलो सत्वहीन छे ? ते वाचक वर्ग ने समजाववुं पडे तेम नथी ।
समीक्षा → मताग्रहने कारणे एवं लखाण थाय छे. बाकी शास्त्रमां द्रौपदी-सूर्याभदेव वगेरे अनेक दाखलाओ मूर्तिपूजाना आवे ज छे, मताग्रहीने स्पष्ट - चोक्खा अर्थने बदलवानुं मन थाय छे. बीजा असंबंध अर्थने करवानुं मन थाय छे.
तमारा मतानुसार शास्त्रमां समाधिमंदिर बनाववानु नथी लख्यु तो बनावीने रागद्वेष केम करो छो ?
आ. हस्तीमलजी समाधिमंदिर बिलावास (पाली-राज.) मा बनाववानो
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा मतभेद कोर्ट (न्यायालय) सुधी पहोंच्यो छ । स्थानकमार्गी गुरुओंना फोटो राखवाना विषयमां अनेक गामोमां लडाई-झगडा राग-द्वेष थाय छे तो फोटो केम लगाडे छे ?
पृ. ३७ → पोतानी समजण शक्ति मुजब पोताने जे कल्याण कारक लागतुं होय तेने प्रामाणिक पणे ते स्वीकारे के सत्कारे तेमा बीजा कोईने वांधो होई शके ज नही, पण पोतानी मान्यता अन्य सर्व कोई ए स्वीकारवी ज जोइए एवो दुराग्रह करनारने माटे एटलुं ज कही शकाय के ते श्री वीतरागना मार्गने वीतरागदेवना धर्मने थोड़े अंशे पण समज्या नथी अने एथी ए वधु खराब तो ए छे के पोतानी मान्यताथी इतर मान्यता वालाने द्वेष बुद्धिथी निंदवा, तेना सद्गुणने पण दुर्गुणना रुपमा चितरवा, अनेक प्रकारना अवर्णवादो बोलवा, ए तो हरकोईने माटे खरेखर पामरंता ज छे, एटलुं ज नहीं पण सामाने कषायादि उत्पन्न करावी पोते अनंत संसारी बनवानी साथे अन्यने पण ए चक्रावामां घसडे छे । वस्तु स्वरुपे एम होवू जोइए के पोतानी मान्यताथी विरुद्ध मान्यता वालाने शान्ति थी समजाववा उपदेशवा अने एम करीने पोताना सहधर्मी बनाववा, ए प्रयत्न अवगणना करवा लायक नथी, परन्तु पोतानी मान्यता सामी व्यक्ति न स्वीकारे तो तेनी उपेक्षा करवी, पण तेनी अवगणना के तेना पर क्रोधादि करीने आत्मघात तो न ज करवो जोइए।
समीक्षा → आ आखा फकरामा लखेल वातो डोशीजीने लागु पडे ज छे. पृष्ठ ३८ उपर मुनिश्री लखे छे "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" नामनी पुस्तिका मुनिजीए लखी पण ते जो मंडनात्मक लखी होत तो स्थानकवासीना कोईने पण ए पुस्तक संबंधी कांई कहेवार्नु होय ज नही।" आवा प्रकारनो उपदेश तेओ डोशीजीने आपी शक्या नही ? शुंडोशीजीए मूर्ति, मूर्तिपूजक, मूर्तिपूजक साधुओ बधाने भांडवानुं पोतानी पुस्तकमां बाकी राख्युं छे ? बंने पुस्तको जोडे राखी कोई वांचे तो स्पष्ट थशे ज्ञान-सुंदरजी करता वधारे कटु शब्दो-आक्षेपो-कटाक्षो डोशीजीना पुस्तकमां मळशे, भूमिका लखता पहेला छोटालालजी मुनि तेमनु ते. तरफ ध्यान दोरवी न शक्या ?
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॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥
७. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रवेश की समीक्षा
पृ. ४. → शास्त्रों में उपकरणों का जो विधान किया गया है वह आवश्यक और अनिवार्य होने से ही उपादेय है तथा इन उपकरणों की गणना भी की गई है । किन्तु ऐसे धार्मिक उपकरणों में सर्वज्ञ महर्षियोंने मूर्ति का तो नाम भी निर्देश नहीं किया । इन उपकरणों को उचित साधन समझकर ही ग्रहण करते है । इनमें ममत्व बुद्धि नहीं रहती, किन्तु मूर्ति तो साध्य की तरह मानी जाती है और इसके द्वारा आसक्ति अधिक बढ़ती है । उपकरणों को कम करने तथा समय पर त्यागने की भावना रहती है, परन्तु मूर्ति को तो अपनाये रखने की ही बुद्धि रहती है उपकरणों के उपयोग में हिंसा नहीं होती, परन्तु मूर्ति की पूजा में त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा होती है ।
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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समीक्षा → ग्रंथ का देह बढ़ाने हेतु कुतर्क पेश किया गया है । क्योंकि शास्त्रो में उपकरणों की बात सांधुओं के लिए है, उनको मूर्ति का परिग्रह होता ही नहीं है । उनके लिए प्रभु दर्शन - भावपूजा का विधान है । गृहस्थ तो परिग्रहधारी ही होते है, वह मूर्ति रखे उसमें कोई आपत्ति है ही नहीं एवं मूर्ति भी साधन ही है, आलंबन ही है । सूत्रालम्बन अर्थालम्बन मानने वालों को प्रतिमालंबन भी स्वीकार करना चाहिए। चूँकि सूत्र - अर्थ भी जड ही है। स्वरुप हिंसा का विवेचन भी पूर्व में किया है । अतः डोशीजी की कुकल्पनाएं व्यर्थ हैं ।
पृ. ५किन्तु मूर्ति पूजा आप्त आज्ञा रहित और हिंसा युक्त होने प्रभु आज्ञा की विरोधिनी है । उपकरणों के लिए किसी प्रकार की लडाई नहीं होती, किन्तु मूर्ति के लिए ऐसे-ऐसे झगड़े हुए, जिसमें समाज छिन्नभिन्न हो गये । लाखों करोड़ों का पानी हुआ, और हो रहा है । यहाँ कि केशरिया तीर्थ में तो पूजक, महानुभावों ने अपने ही भाईयों के प्राण
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हरण कर लिये ।
समीक्षा → मूर्तिपूजा आज्ञा विरोधी कहना मताग्रह है, शास्त्रों में कहीं पर भी मूर्तिपूजा का विरोध नहीं है । झगड़ों की बात लिखी है वह तो अपनी अपनी श्रद्धा होती है वहाँ प्रशस्त राग या दृष्टिराग के कारण झगड़े होते ही है कोई मुहपत्ती का डोरा तोड़े, रजोहरण फेंक देवे तो स्थानकवासी झगड़ा नही करेंगे ? स्थानकवासी वर्ग में भी आपस में अनेक झगडे सुनायी देते ही है । प्राणहरण की धमकियाँ तक सुनायी देती है ।
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बिलावास (पाली) में स्थानकवासी संत आचार्य श्री हस्तीमलजी म. के समाधिस्थल का विवाद कोर्ट (न्यायालय) तक पहुंचा है। राजकोट में मुख्य स्थानक के लिए धीरज मुनि के द्वारा ६-७ साल पूर्व बडी बडी लडाई हुई थी । ऐसे तो अनेक दृष्टांत हैं ।
स्थानकवासी तेरापंथियों के साथ मकान - जमीन के लिए लडाई-झगडे करते देखे गये हैं ।
पृ. ५उपकरणों के उपयोग से इन्द्रियों का विषय पोषण नहीं होता, किन्तु मूर्ति पूजा से पांचों इन्द्रियों का स्पष्ट विषय पोषण होता है । गान, तान, वाजिंत्र, दीपराशि, नृत्य, सुगन्धित पुष्प, फल, इत्र, केशर, नैवेद्य, स्नान, मर्दन आदि कार्यों में पांचो इन्द्रियों का विषय पोषण खुल्लम-खुल्ला होता है । यदि स्पष्ट कहा जाए तो जिस जैनधर्म का सिद्धान्त पुद्गल त्याग है, मूर्ति-पूजा से उल्टा पुद्गलासक्त - पुद्गलों में मस्तरहना प्रतीत होता है । जो श्रृंगार सामग्री विलास भवनों तथा नाट्यशालाओं में होती है, प्रायः उसी प्रकार की सामग्री मूर्ति के महालयों-मंदिरो में पाई जाती है। ऐसे स्थानों में गया हुआ मनुष्य पुद्गलों में मस्त होकर ही लौटता है । कोई-कोई तो काम वासना में गोते लगाते पाये जाते हैं ।
समीक्षा → “जे आसवा ते परिसवा" इस आचारांगजी के सूत्र से डोशीजी परिचित होंगे ही जो आश्रव का कारण है - वही संवर का कारण
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा है और जो संवर का कारण है वही आश्रव का कारण बनता है स्पष्टरुप से जो कर्मबंध के कारण है वे व्यक्ति भाव वगैरह बदलने से कर्मनिर्जरा के कारण बन सकते हैं । मंदिरजी में इंद्रिय पोषण की सामग्री में उसके उपयोग में श्रद्धावान भक्त को अध्यवसाय की संक्लिष्टता का अनुभव होता ही नही है, प्रत्युत शुभभाव की वृद्धि प्रत्यक्ष-अनुभवसिद्ध है । मूर्ति को इंद्रियपोषण कहते है, उनको गौतम प्रसादी व्याख्यान बाद लड्डु बाँटना, चातुर्मासों के रसोडें में इंद्रिय पोषण नही परंतु भक्ति दिखाई देती है, यह सब मिथ्यात्व के काले चश्मे का प्रभाव है । बडे बडे स्थानक रंग-बिरंगी रंगो से सजाया जाता है, वहाँ इन्द्रिय पोषण क्यों नहीं दिखता? गुरु भगवंतो के फोटे. बेचना, यंत्र आदि देना, नम्रमुनि नाम के स्थानकवासी संत आज कल ३१ दिसम्बर क्रीश्चन पर्व भी आयोजित करते है इसमें केक आदि अभक्ष्य चीज भी दी जाती है ।
पृ. ५-६ → जैन मन्दिरों में भी काम वर्द्धक सामग्री तथा रसीले गान, तान नृत्यादि क्रियाओं के प्रभाव से और स्त्री पुरूषों, युवक, युवतियों के सम्पर्क से विकार वर्धक भावनाओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
समीक्षा → ये सब बातें स्थानकों में स्पष्टरुप से दिखाई देती है। अनेक स्थलों में स्थानकों का शादी वगैरह में उपयोग करते है वहाँ स्पष्ट रुप से संसार वर्धक इंद्रियपोषण होता है। मंदिर मे शुभ भावलहरी उमड़ती अनुभव गम्य है, भक्त के मन निसीहि बोलने पर उन वस्तुओं की कीमत नहीं होती है । भगवान ने जिस प्रकार 'सल्लंकामा-विसंकामा' ऐसा कहकरकामभोग का निषेध किया, इसी प्रकार सूर्याभ देव द्वारा रचित ३२ नाटकों का निषेध नहीं किया है। ऐसा क्यों ? साक्षात् तीर्थंकरों की हाजरी में समवसरण में देवों के नाटक वगैरह हुए उसमें साधुओं को विक्षेप इन्द्रियपोषण स्पष्ट होते हुए भी खुद पररमात्मा ने निषेध क्यों नही किया ? उनकी आज्ञा मांगने पर भगवान मौन रहे, इन्कार नही किया, क्यों? एकांत से इंद्रियपोषण मिथ्यात्व पाप ही होता तो निषेध ही करते । मूर्तिपूजा का मर्म समझने वाला सामान्य व्यक्ति भी समझता है कि मूर्तिपूजा का उद्देश्य निर्विकारी बनाता है।
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५९ जिस कार्य में एकांत से नुकसान है उसका प्रभु निषेध करते ही है । जैसे गोशाले के आने पर मुनियों को गोशाले के सामने बोलने का प्रभुने निषेध किया, इससे स्पष्ट है मंदिर में नाट्यादि गृहस्थों के लिए विशिष्ट पुण्यबंध के कारण हैं । भक्तिभाव से करते नाट्यादि निषेध करने पर देवों को जो विशिष्ट पुण्यबंध होता है, उसमें विघ्न आएगा इसीलिए परमात्मा निषेध नही करते है यह अत्यंत स्पष्ट है। आगे डोशीजी मूर्तिपूजा पर द्वेष उगलते हुए विषय को बदलते एक कर्मवश साधु का दृष्टांत दे रहे है। इसमें मूर्तिपूजा का क्या दोष ? यह विषयान्तर हैं । कदाग्रहपूर्ण द्वेषबुद्धि के कारण डोशीजीने आगे भी ऐसे दृष्टांत दिये है। स्थानकवासी वर्ग में भी ऐसे दृष्टांत सुनने में आते है इसलिए स्थानकवासी पंथ को उसमें निमित्त मानेंगे? हम उन दृष्टांतो को यहाँ देना उचित नहीं समझते हैं ।
पृ.६ → जैन धर्म लोकोत्तर धर्म है। इस में व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुण पूजा को अधिक महत्व दिया गया है । गुणों के अस्तित्व से गुणी की पूजा होती है । निगुर्णी या दुर्गुणी तथा द्रव्यलिंगी को वन्दन करने का विधान जैन धर्म का नहीं है । जो भी व्यक्ति पूजा बाह्य दृष्टि से दिखती देती है, उसके लिए समझदारों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह व्यक्ति पूजा नहीं, किन्तु व्यक्ति के भीतर विद्यमान महान् व्यक्तित्व - अर्थात् गुणों-की ही पूजा है । क्योंकि जब तक पूजा पानेवाले व्यक्ति में उत्तमगुणों का होना पाया जाता है तब तक ही वह पूजनीय होता है । किन्तु जब उपासक को यह मालूम हो जाए कि जिसे हम अपना आदर्श गुरू मानकर वन्दना नमस्कारादि करते हैं, उन में गुरुत्व के गुण तो है ही नहीं, केवल, वेषभूषा से ही वे हमे धोखा दे रहे हैं । तो शीघ्र ही उनका बहिष्कार और निरादर कर दिया जाता है । जैनागमों के अभ्यासी यह जानते है कि जब तक जमालि-गोशाला आदि में शुद्ध श्रद्धा थी, तब तक ही वे जैनियों के लिए वन्दनीय पूजनीय थे । किन्तु जब वे श्रद्धा भ्रष्ट हुए और इसकी खबर जैनियों को लगी तब शीघ्र ही वन्दना नमस्कार बंद कर, बहिष्कार बोल दिया । यह गुण-पूजकता
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
का ज्वलन्त उदाहरण है । समीक्षा
एकान्त से किया गया निरूपण जैनधर्म को मान्य नही
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है । आप लिखते है, गुणों के अस्तित्व से गुणी की पूजा होती है। अस्तित्व न होते हुए भी संबंध होने पर भी गुणी की पूजा होती है, द्रव्यनिक्षेप में भूत-भविष्यकालीन गुणवत्व संबंध से पूजनीकता आएंगी, अतः गुण न होते हुए भी देव, प्रभुके निर्जीव शरीर की पूजा वगैरह करते हैं, श्रावक गुरु के निर्जीव शरीर का सत्कार - पूजनादि करते हैं । अहमदनगर (महाराष्ट्र) में स्थानकवासी आचार्य आनंद ऋषिजी का देहावसान हो गया तब बाहर गांव से सैंकडो बसों में भरकर स्थानकवासी आए और धूमधाम से अग्नि संस्कार किया गया ऐसे ही आ. तुलसी व. आ. महाप्रज्ञ जो आपके ही भाई है उनका भी अग्निसंस्कार हुआ । महाप्रज्ञ के जडदेह को दो दिन तक अभक्ष्य बर्फ के बीच रखा गया था । क्यों ? कहिए - देह तो जड हैं ? आत्मा कहां है ? यहाँ आत्मा तो परलोक में चली गई थी, अब जड़ शरीर ही था, तो उसके लिए बस - कार आदि की हिंसा करके इतने स्थानकवासी लोग क्यों वहाँ गये ? क्यों इतनी बर्फ आदि की हिंसा की ? और उस वक्त स्थानकवासी संतो ने घोषणा करवायी, गौरव किया और अनुमोदना की कि बाहरगांव से ५०० बसें आयी थी इत्यादि ।
अब बोलो शरीर के लिए इतना आरंभ-समारंभ हिंसा क्यों ? और संतो द्वारा इसकी अनुमोदना क्यों ?
आप ही सोचे ।
फिर उनकी अग्निसंस्कार की भूमि पर स्मारक निर्माण क्यों करवाया ? तब वहाँ जड़ स्मारक के लिए या जड़ के लिए हिंसा का विरोध किसी भी स्थानकवासी ने क्यों नहीं किया । स्थापना निक्षेप में गुणवान् शक्तिशाली प्रतिष्ठाचार्य द्वारा आरोपित गुणवत्व होता है अत: पूजनीयता आएगी । विज्ञान ने भी 'आईडीअल रीएलीटी' द्वारा प्रयोगों के माध्यम से सिद्ध करके बताया है की कल्पना से भी वास्तविकता की प्राप्ति होती है । मृत्युदंड के गुनाहित को 'तुम्हे कोब्रा नाग से डसवाकर मारेंगे' इस प्रकार अनेक दिन टोर्चर करके
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आँख को पट्टी बांधकर चूहे से डसवाया । टेस्ट किया तो कोब्रा का जहर पाया। Experiment (प्रयोग) एवं Experiena (अनुभव) से सिद्ध मूर्तिपूजा में यही प्रक्रिया है ।
गुण अरुपी है, बाह्यलिंग से व्यक्ति में गुणों की कल्पना - अनुमान से की जाती है । अत: व्यक्ति में भी व्यवहारनय से गुणों की कल्पना द्वारा ही उसे पूजनीय माना जाता है ।
छद्मस्थ के परिणाम-भाव अवस्थित नहीं रहते हैं, जब मलिन - अशुभ परिणाम है, तब प्रसन्नचंद्र की तरह आत्मा विषय- कषाय परिणति वगैरह से दुर्गतिगामी बनती है, ऐसे परिणाम जब कर्मवश आपके माने हुए सद्गुरु को आ जावे, वे छद्मस्थगम्य नहीं हैं । तब भी गुणरहित होने पर भी आप उनको पूज्य मानते ही हैं । अतः एकांत से गुण ही पूजनीय है यह बराबर नही है, जैसे अन्य भव में गई हुई गुरु की आत्मा संयमादि गुणहीन होने से आप पूजनीय नहीं मानते वैसे ही अशुभ अध्यवसाय में चढे हुए गुरु भी - पूजनीय आपके हिसाब से नहीं ठहरेंगे, परंतु आप उनको पूजनीय ही मानते है। अत: एकांत से गुण ही पूजनीय है यह नही ठहरता। अत: अनुमानकल्पना से गुण मानकर ही व्यवहार से जडशरीरधारी गुरु को ही पूजनीय माना जाता है ।
पृ. ७ → जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों से किये गये जन्मोत्सव से यह मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया ऐसे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी जन्म में मोक्ष पधारेंगे । इतना जानते हुए भी जब तक तीर्थंकर महाराज गृहस्थावस्था में रहते हैं तब तक कोई भी व्रती श्रावक या साधु उन्हें तीर्थंकर रूप से वन्दना नमस्कार तथा सेवा - भक्ति नहीं करता और जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है तब देह - शरीर के यहाँ रहते हुए भी जैसे संसार में तीर्थंकर विरह का महान् शोक छा जाता हैं, और उनके शव को जलाकर नष्ट कर दिया जाता है। क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुणी आत्मा थी, वह तो गमन कर गयी । इससे स्पष्ट है कि जैन
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा समाज जड पूजक या व्यक्ति पूजकं नहीं, वरन् गुण पूजक ही है ।
समीक्षा → समझदार इंद्रादि देव जन्मोत्सव करके इंद्रियविषय पोषण व जलादि की भयंकर हिंसा क्यों करते ? आपके हिसाब से तो मिथ्यात्व करणी है । इन्द्र जैसे सम्यग्दृष्टि, परमविवेकी आत्मा निष्फल मिथ्यात्व के कार्य तो करेंगे ही नहीं, जन्मोत्सव की कहां आवश्यकता थी ? इन्द्र घोषित कर देते की "जो तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी जन्म में मोक्ष पधारेंगे उनका जन्म हुआ है'' सामर्थ्यशाली इन्द्र आकाशवाणी से यह कर सकते थे, इससे बिना हिंसा आपका माना कार्य हो जाता । परमविवेकी इंद्रादिदेव च्यवन में नमुत्थुणं से वंदन क्यों करते हैं ? जन्म में भी सेवाभक्ति-वंदनादि क्यों ? गुण ही पूजनीय है न ? उसी प्रकार निर्वाण के बाद शरीर का विलेपनादि पूजन क्यों ? वहाँ तो स्पष्टरुप से जड शरीर ही है। कदाग्रह त्यागकर इन सब बातों पर शांति से विचार करे तो मध्यस्थ तत्त्वपिपासु को सही शास्त्रीय मार्ग पर श्रद्धा अवश्य होगी । इस विषय में
अग्रिम पृष्ठों में भी चर्चा की जाएगी। ' __पृ. ७. → यदि व्यक्ति पूजा या जड़ शरीर की पूजा ही मुख्य होती, तो तीर्थंकर के गृहस्थावस्था में रहते हुए या निर्वाण के पश्चात् उनका शव भी वन्दनीय, पूजनीय माना जाता और मूर्ति के स्थान में वह शव ही मन्दिरो में सुरक्षित रखा जाता । जैसे की कई देशों मे मसाले भरकर शव रखे जाते हैं । आज भी संसार में अनेक धर्मों के धर्म गुरुओंनेताओं के देहोत्सर्ग पश्चात् उनके शरीर को अपनी अपनी मान्यतानुसार जला दिया जाता, अथवा भूमि में गाड़ दिया जाता, या पानी में बहा दिया जाता है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि यदि व्यक्ति की मूर्ति (आकृति) पूजना ही धर्म होता तो उनके शरीर को जिसमें कि रहकर वह पूज्य हुए थे, क्यों नष्ट किया जाता ? पाषाण की मूर्ति से तो शव ठीक ही है । क्योंकि पहले उसमें गुण विद्यमान थे ।
समीक्षा → ऐसे इसका उत्तर निवेदन के समाधान में पीछे दे दिया है। विशेष इस प्रकार -
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
६३ तीर्थंकर एवं अन्य धर्मगुरुओं के औदारिक शरीर स्वभाव से ज्यादा काल टिकते नही, दुर्गंध हो जाती है अत: उनकी मूर्तियों का प्रचलन अनादिकाल से था और आज भी है । भगवान के निर्वाण स्थान पर स्तूप बनाते हैं क्यों ? अगर कहो, आशातना निवारण हेतु तो आपके हिसाब से जड़ स्थान का क्या प्रभाव ? उसकी आशातना करें उसमें क्या दोष ? जैसे स्थानकवासी प्रभु प्रतिमाओं की आशातना में दोष नही मानते हैं, स्थान में भी क्या दोष ? तो वहाँ पर स्तूप क्यों ? ।
धर्ममार्ग (पृ. १० से १६) → समीक्षा → इसमें डोशीजीने आगमपाठों का केवल शाब्दिक अर्थ किया है। आगम के तात्पर्यार्थ को पकड़े बिना आगम के अर्थ कहने से उत्सूत्र प्ररूपणा होती है। दूसरे आगमों के साथ विरोध भी आएगा जैसे यहाँ पर आचारांग के पाठ का भगवतीजी और दशवैकालिक के पाठ से विरोध आएगा इस प्रकार-आगम वगैरह पाठों का केवल शाब्दिक अर्थ करना. और उससे भोले लोगों को भटकाना महापाप है । आगमों को पढ़ने से अधिक महत्त्वपूर्ण है उसके आशय को समझना । पाठों के तात्पर्यार्थ तक पहुंचना जरुरी है तात्पर्यार्थ इस प्रकार - कोई भी शरीरधारी चाहे व साधु हों या श्रावक हो, अथवा गृहस्थ हो वह बिना हिंसा जी सकता है? कदापि नहीं, क्योंकि भगवतीजी में स्पष्ट उल्लेख है जो एयइ जो चलइ.. इत्यादि उससे स्पष्ट रुप से हलन-चलन श्वासोश्वास लेनाछोडना कोई भी क्रिया में हिंसा रही हुई है तो फिर आप कहेंगे आचारांग के पाठ की संगति कैसे ?
वह इस प्रकार -- दशवैकालिक सूत्र में साधु के लिए स्पष्ट उल्लेख है 'जयं चरे... जयं भुंजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई' जयणापूर्वक व्यवहार करे तो हिंसा होने पर भी पाप कर्म का बंध नही होता, मतलब संसार में बिना हिंसा कोई जी नहीं सकता, वहाँ पर लाभालाभ का विचार करके जितनी बन सके उतनी हिंसा का त्याग करना चाहिये वही जयणा है । गृहस्थ का धंधा बिना मुडी लगाये चल ही नही सकता, आय-व्यय - का विचार करके आय-लाभ ज्यादा होता हो तो व्यापार-धंधा में नुकसान नही समझा जाता,
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यही नीति धर्ममार्ग मे भी अपनानी चाहिये । इसीलिए 'जयंचरे...' इत्यादि पाठ समझना ।
इसी न्याय को शास्त्रकारों ने मूर्तिपूजा में लगाया है और 'कूपदृष्टांत विशदीकरण' जैसे प्रकरण ग्रंथ भी लिखे गये है जिनका मध्यस्थता पूर्वक जो कोई अध्ययन करेगा, उसके सभी भ्रम अवश्य मिट जाएँगे ।
पृ. १५ हमारे कितने ही मूर्ति पूजक बन्धु मूर्ति-पूजा को जिनाज्ञा के अनुसार कहते हैं और इसके लिए आगम प्रमाण की दुहाई देते हैं । श्रीमान् ज्ञानसुंदरजी ने भी अपने "मूर्ति पूजा के प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक में ऐसा प्रयत्न किया है, किन्तु यह एक भ्रमजाल ही है । श्रीमान सुंदरजी ने अपने सारे पोथे में एक भी प्रमाण ऐसा नही दिया जो मूर्तिपूजा में धार्मिक श्रद्धा को पुष्ट करे । हाथ कंगन को आरसी क्यां ? पाठक स्वयं उस पुस्तक से निर्णय कर सकते हैं, सुंदरजी ने इस विषय में जहाँ-जहाँ शास्त्रों के नाम से भ्रम फैलाया है, उस पर विचार हम इसी ग्रंथ में कर रहे है, किन्तु मैं संक्षिप्त मे दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूं कि
"जिनागमो में मूर्ति-पूजा करने की किसी भी जगह आज्ञा नहीं है, न सुन्दरजी भी ऐसा सिद्ध कर सके हैं।" जब मूल में ही यह वस्तु नहीं है तो फिर सुंदर मित्र लावें कहाँ से ? हाँ व्यर्थ के कुतर्क खडे करके भद्र जनता को वे भ्रम मे अवश्य डाल सकते है ।
एक साधारण पढ़ा लिखा और समझदार मनुष्य मूर्ति-पूजक विद्वान से यह प्रश्न करले कि- महानुभाव । जरा यह तो बतलाइये कि जहां आचार धर्म की विधि बतलाने वाले सूत्र भरे पड़े हैं। जिनमे छोटी छोटी बातों के लिए स्पष्टता पूर्वक आज्ञा दी गई है, उनमें किसी एक भी जगह मूर्ति या मन्दिर बनवाने अथवा दर्शन, पूजन, करने की आज्ञा दी है ? साधु साध्वियों के समूह के साथ संघ निकालकर आरम्भ समारम्भ करते हुए तीर्थ यात्रा जाने और इस प्रकार मौज उड़ाने की
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६५ वीतराग प्रभुने आज्ञा दी है क्या? ऐसे प्रश्न का उत्तर प्रश्नकार को या तो मौन से मिलेगा या क्रोध से ? अगर उत्तरदाता ने कुतर्को का रास्ता पकड लिया तो वह इतनी बड़ी-बड़ी छलांगे मारेगा कि जिससे सत्यरुपी सुंदर मार्ग से हटकर मिथ्यारूपी गहरी खाड़ी में जा गिरेगा ।
समीक्षा → पृ. १५ पर डोशीजी कहते है "मूर्तिपूजा मे धर्म मानने की श्रद्धा का किसी भी सूत्र में किसी भी तरह उल्लेख नहीं है । बिलकुल नहीं है, बिंदु विसर्ग तक नहीं है ।.... मैं संक्षिप्तमें दृढतापूर्वक कह सकता हूँ कि- जिनागमों में मूर्तिपूजा करने की किसी भी जगह आज्ञा नहीं है..."
इन डोशीजी की बातों में कुछ तथ्य होता-सत्यता होती तो उनको अपना 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' पोथा लिखने की आवश्यकता ही नही थी। उस किताब में उन्होंने अनेक मूर्ति-मूर्तिपूजा के आगम पाठों को कुतर्को द्वारा अर्थ पलटकर भोले लोगों को भ्रमित करने का प्रयत्न किया है, जिसे तटस्थ व्यक्ति प्रस्तुत पुस्तक को डोशीजी की पुस्तक से मिलान करके पढ़ने से समझ सकते हैं । आगे डोशीजी लीखते है "आचार धर्म की विधि बतलानेवाले सूत्र भरे पडे है... एक भी जगह मूर्ति या मंदिर बनवाने आज्ञा दी है ? तीर्थयात्रा जाने की आज्ञा दी है क्या ?" जिसने दृष्टिराग के काले चश्मे पहने है उसे तो कहीं पर यह दिखेगा नहीं ! सम्यग्दृष्टि को अनेक सूत्रों में मूर्ति की बाते, रायपसेणी-ज्ञातासूत्रादि में मूर्तिपूजा की बात, भगवती-समवायांग आदि में चारणऋषिओं के तीर्थयात्रादि की बातें स्पष्ट दिखाई देती ही हैं।
डोशीजी की चोर कोतवाल को डांटे वाली नीति देखिये - खुद के पुस्तक का जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा नाम दिया है। पूरे पुस्तक में आगम में अरिहंत प्रतिमा पूजन के निषेध का, उसमें मिथ्यात्वादि दोष बतानेवाला एक भी पाठ दे नही सके । जब मूल में ही यह वस्तु नहीं है तो डोशीजी लावे कहा से ? हा, व्यर्थ के कुतर्क करके भद्रजनता को भ्रम में अवश्य डाल सकते हैं।
करीब-करीब सभी आगमो में मूर्ति-मूर्तिपूजा संबंधित पाठ होते हुए
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा भी उन्हें छुपाना और आगमों में मूर्तिपूजा का विरोध न होते हुए भी वहाँ पर विरोध बताना, इस चोर कोटवाल को डांटे वाली नीति का धर्म में उपयोग करने का मन महामिथ्यात्व से ही होता है ।
प्रारम्भ में ही पथभ्रष्ट → समीक्षा पथभ्रष्ट कौन है बराबर टटोल कर देखिये.....
पृ. १७ → (१) सुन्दर मित्र ने जिस मूर्त द्रव्य को अनादि बताया है यह वही इस पुस्तक के प्रारम्भ में प्रशंसित हुआ "पुद्गल" द्रव्य है । यदि पुद्गल पूजा में ही धर्म है तब तो संसारी जीव पुद्गल पूजक ही है। धन, धान्य, कुटुम्ब, परिवार, आदि पुद्गल की उपासना सभी करते हैं । इसलिए सुन्दर हिसाब से तो सभी धर्मी होंगे ? और जो महात्मा (सर्वज्ञ से लेकर साधु पर्यंत ) तथा आगम शास्त्र पुद्गल से विमुख होने का उपदेश करते हैं, वे अधर्मी तथा अधर्म प्रचारक ठहरेंगे ।
समीक्षा → यहाँ पर मूर्ति की पूजनीयता की बात चल रही है, वहाँ संपूर्ण पुद्गल द्रव्य को पूजनीयता की आपत्ति देना द्वेषपूर्ण अज्ञानता है । दीक्षा के समय रजोहरण-मुँहपत्ती देते है वह पूज्य है वह पौद्गलिक है अतः समग्र पुद्गल द्रव्य के पूज्य होने की आपत्ति बुद्धिशाली (?) ही देगा । दशवैकालिक में गुरु के आसन को पूज्य बताया है । वह पुद्गल है अत: समग्र पुद्गल द्रव्य की पूज्यता मानेंगे? जरा सोचिये पथभ्रष्ट कौन है ? ज्ञानसुंदरजीने तो मूर्तद्रव्य के अनादिपने में मूर्तिपूजा के अनादिपने को सिद्ध किया है । मूर्तमात्र की पूजा नहीं। उनके नाम पर उसे थोपना कदाग्रह है। __शरीर भी तो पुद्गल है, स्थानकवासी संतो की मृत्यु पर पुद्गल के लिए इतनी धूमधाम क्यों करते हो ?
फोटो-लोकेट-नवकारमंत्र छपा कार्ड आदि भी पुद्गल है, स्थानकवासी संत आदि उन्हें क्यों छपवाते-बटवाते हैं ? इसका उत्तर देवें ।
(२) पुद्गल के अनादि होने से मूर्तिपूजा भी अनादि मान ली जाय तो फिर सुंदरजी को क्या अधिकार है कि वे जैनियों की मूर्ति
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६७ पूजा को ही अनादि मानकर अन्य शिव, कृष्ण, राम, बुद्ध आदि की मूर्ति-पूजा की सादि कहें ? और जैनियों की मूर्ति-पूजा में धर्म और अन्य की सात्विक मूर्ति-पूजा में अधर्म कहें ? क्योंकि पुद्गल द्रव्य तो सबके लिये समान है।
समीक्षा → ज्ञानसुंदरजी अपने घर की बात नहीं कर रहे, शास्त्र ही कह रहे है शास्त्रों में बतायी शाश्वत जिनप्रतिमा से मूर्तिपूजा अनादि सिद्ध होती ही है। जैसे जैन दर्शन अनादि है वैसे जैनेतर दर्शन भी अनादि ही है क्योंकि मिथ्यात्व अनादि है ही, उनकी मूर्तिपूजा भी अनादि ही है। उसमें आपत्ति है ही नहीं, केवल धर्म किसमें है वह परीक्षा का विषय है। __ (३-४) कर्म बन्ध भी पुद्गल द्रव्य ही है, जो कि जैन दृष्टि से हेय वस्तु है, सुंदरजी के सिद्धांत से यह भी उपादेय होकर पूजनीय होना चाहिए ? धन, धान्य स्त्री, परिवार, वस्त्र आभूषण, जूते, तलवार बन्दूक आदि पुद्गलों को भी पूजना चाहिए ?
समीक्षा -> पुद्गल द्रव्य की समानता से सब समान नहीं होता, एक जीव केवलज्ञानी है तो जीवत्व समान होने पर भी दूसरे सब जीव केवलज्ञानी नही हो सकते, एक जीव सम्यक्त्वी होने से सभी सम्यक्त्वी नही हो सकते, एक जीव गुरु है तो सभी गुरु नही होते यह तो छोटा बालक भी जानता ही है। भले चाहे धन-धान्य-स्त्री-परिवार आदि पुद्गल पूजनीय न हों, फिर भी उत्तम समझदार के लिए ज्ञान के पुस्तक वंदनीय - पूजनीय है ही । और माता-पिता-गुरु के फोटो भी वंदनीय है ही।
(५) पुद्गल के अनादि होने से ही मूर्ति-पूजा भी अनादि और उपादेय है तो फिर पुद्गलों से ही पुद्गल की पूजा करना कैसे उचित कहा जा सकता है ? पूजने योग्य मूर्ति भी पुद्गल और उसकी पूजा की सामग्री अर्थात् पुष्प, फल, धूप, चावल, केशर, चन्दन और पैसा आदि भी पुद्गल, तो पुद्गलों से पुद्गलों की पूजा करना क्या बुद्धिमत्ता का कार्य है ? पौद्गलिकपन तो सब में है, फिर एक पूज्य और दूसरे उसकी पूजा की सामग्री । यह कल्पना क्यों ?
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा समीक्षा → ये सब कुतर्क है । चूकि जैसे शरीर पुद्गल, आहार पुद्गल, वस्त्रादि भी पुद्गल ही है साधुओं को सुपात्रदान से साधु- शरीरस्वरुप पुद्गल का उपकार एवं संयम साधना में उपयोगी बनते हैं, दान देनेवाले को लाभ होता है । उसी प्रकार मूर्ति पुद्गल पूजा सामग्री भी पौद्गलिक उसके द्वारा परमात्मा के प्रति भक्तिभाव से शुभ-भाव वृद्धि-पुण्यवृद्धि होती ही है । परंपरा से मोक्षप्राप्ति शास्त्र में बतायी ही है।
___ स्थानकवासी संतों के शरीर भी पुद्गल, उन की फोटो-तस्वीर भी पुद्गल है, और कागज आदि भी पुद्गल है, फिर फोटो - जो कि पुद्गल है, उसको क्यों छपवाते बटवाते हो ? क्यों किताबे छपवाते है ?
आपकी व्याख्यान वाणी भी जड़ पुद्गल है और उसे जड पुद्गल में छपवाते-बांटते क्यों हो? क्यों फेसबुक (इंटरनेट) आदि पर प्रवचन देते हो ?
पृ. १७ → विश्वव्यापकता की मिथ्यायुक्ति
समीक्षा → इसमें डोशीजी ने तरंग में आकर खंडन किया ऐसा लगता है । चूँकि खुद ही मिथ्यात्व, अव्रत आदि को विश्वव्यापक बता रहे है, असंख्यात सम्यग्दृष्टि जीव, सैंकड़ो साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएँ विद्यमान है, जिनमें मिथ्यात्व अव्रत आदि नहीं हैं, तो विश्वव्यापक कैसे ?
अगर बहुलतासे उसे विश्व व्यापक कह सकते है तो मूर्तिपूजा ने क्या गुनाह किया? वह भी उसी प्रकार विश्वव्यापक है ही। किसी न किसी प्रकार से सभी मूर्ति पूजा मानते ही हैं । जिसे ज्ञानसुंदरजी ने अपनी किताब में पृष्ट १८ एवं १६५ आदि में सचोट सिद्ध किया है । दूसरा सारा खंडन भाव पकडे बिना केवल शब्दों को पकडकर ही किया है ।
पृ. २२ → क्या सदाचार आदि के लिये मूर्ति पूजा आवश्यक
समीक्षा → आगम में "जिणपडिमादसणेण......" वगैरे से जिनप्रतिमा दर्शन से प्रतिबोध पाकर चारित्र लेकर शय्यंभवसूरि युगप्रधान बने, आर्द्रकुमार इत्यादि अनेक दृष्टांत हैं जो जिन प्रतिमा दर्शनादि से प्रतिबोध
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६९ पाकर चारित्र तक पहुंचे । वर्तमान में भी प्रभु प्रतिमा दर्शन-पूजन से कई जीव सदाचार-सुख शांति को प्राप्त हुए संयम तक पहुंचे इसके अनेक दृष्टांत है । अपने कदाग्रह से आंखे मूंदकर अन्य का दोष अन्य पर थोपकर येनकेन प्रकारेण मूर्ति-मूर्तिपूजा-मूर्तिपूजकों को भाँडकर अपनी वृत्ति का परिचय डोशीजी ने दिया है।
कोई लोभवश मूर्ति की मालिकी तीर्थ की मालिकी के कारण झगड़े वगैरे करें उसमें मूर्तिपूजा का क्या दोष ? कोई साधु कर्मवश कोई कार्य कर बैठे उसमें मूर्तिपूजा का क्या गुना? वैसे तो स्थानकवासी साधुओं के किस्से भी सुनने में और समाचार पत्रो में आते ही है जैसे वर्तमान में गोंडल वाले जनकमुनि एवं मनोहरमुनि का दृष्टांत ??? यह तो केवल पक्षराग तथा मूर्तिद्वेष के कारण सभी मूर्तिपूजा पर थोप दिया है । खुद ही पीछे पृष्ठ २० पर खुद के बचाव हेतु लिख रहे है "यद्यपि समय के प्रभाव से विकृति प्रायः सबमें आ गई है'' ऐसे लिखकर इक्के-दुक्के मूर्तिपूजक समाज के दृष्टांत लेकर उन्हे बदनाम करते है और ऐसे दोष अपने में दिखते है, तब समय का प्रभाव कहकर बचाव करना !!! ऐसी प्रवृत्ति मध्यस्थ-ज्ञानी तो नहीं कर सकते ।
शत्रुजयप्रभाव के वर्तमान में भी कई अनुभूत दृष्टांत है । तीर्थ के स्मरण-स्पर्शन से पापबुद्धि दूर होकर तथा पश्चाताप आदि से निर्मलता आती ही है । उसमे जरा भी शंका नही है । पक्षराग में अंध बनकर महापुरूषों के ग्रंथो की निंदा करना सज्जनता नही है ।
इतिहासकार फरमाते है अधिकतर युद्ध विश्व में धर्म के नाम पर हुए है । ईसाई-मुस्लिम धर्म इस बारे मे प्रसिद्ध है । अतः युद्धों के लिये धर्म को कारण मानकर धर्म को छोड़ना आपको मंजूर है न ? जो नहीं, तो जिसमें मूर्तिपूजा कारण ही नहीं । ऐसे खोखले कारण बताकर लोगों को धोखे में डालने का प्रयास क्यों हो रहा है? कहीं पर उपरीदृष्टि से निमित्त मूर्तितीर्थ दिखाई देते है वहाँ पर भी वास्तविकता में व्यक्तियों के ममत्वादि दोष ही उसमें कारण हैं।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पृ. २६ → साक्षात् और मूर्ति में अन्तर की समीक्षा ..
इसमें डोशीजी सुंदर मित्र को अज्ञानी बनाकर खुद ज्ञानी होने का दावा करने जा रहे है, परंतु खुद ही खुद के विचारो में फंस गए है । जैसे मकड़ी अपने ही जाल मे फंस जाए !! यह उन्होंने सोचा भी नही होगा। मिट्टी, पाषाण आदि से बनाई स्थापना और कल्पना-विचार या भावना से मन में चित्रित भाव निक्षेप, अतः मन में जो अष्ट प्रातिहार्यादियुक्त तीर्थंकर की कल्पना वह अरिहंत का भाव निक्षेप है, ऐसा उनका मानना है।
अब उनको प्रश्न है - कोई शत्रुजय आदिनाथ, शंखेश्वर पार्श्वनाथ वगैरे मूर्ति देखकर उनका मनमें ध्यान करे तो उसमें आप कौन सा निक्षेप मानेंगे ? तीर्थंकर का भावनिक्षेप या मूर्ति का भाव निक्षेप? (मूर्ति तीर्थंकर का स्थापना निक्षेप है) अगर आप कहे तीर्थंकर का भाव निक्षेप तो आपको ही आपत्ति है, साक्षात् मूर्ति को वंदनादि में आपको पाप महसूस होता है, उसी मूर्ति की मन में कल्पना कर उसे वंदनादि में पुण्यबंध !! इस उलझन में आप उसे मूर्ति का भाव निक्षेप कहेंगे। मूर्ति का भाव निक्षेप तो आपके हिसाब से अपूज्य है । अब देखिए
जैसे किसी ने मूर्ति देखकर उसकी कल्पना की वह मूर्ति का भावनिक्षेप, वैसे ही तीर्थंकर को साक्षात् देखकर उसकी कल्पना करना तो शक्य नहीं है । अतः या तो उनकी मूर्ति की मन में कल्पना करनी पड़ेगी अथवा खुद की बद्धि से मनमें कल्पना चित्र बनाकर उसे मानस पटल पर उपस्थित करना पडेगा तब भी वह कल्पना चित्र का भावनिक्षेप होगा, तीर्थंकर का नहीं । जैसे मूर्ति की कल्पना मूर्ति का भाव निक्षेप वैसे ही कल्पना चित्र की कल्पना, कल्पनाचित्र का भाव निक्षेप होगा, तीर्थंकर का नहीं ।
मूर्ति से छूटने के लिये असत् कल्पनाएँ करने पर भी अंत में तो आपको ज्ञानसुंदरजी के विचारों से सहमत होना ही पड़ेगा ।
डोशीजी लिखते है "तीर्थंकर का देह... वर्णन जानकर उसका चिंतन किया जा सकता है'' यह अशक्य है चूंकि... थियरिटिकल (Thearetial) ज्ञान के बाद प्रेक्टीकल (Practical) की आवश्यकता होती है । अतः शास्त्रों से
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७१ वर्णन जानकर जब तक उसका आकार बनाया नहीं जाता, वह, मृतिस्वरूप हो या कल्पनास्वरूप उसका चिंतन अशक्य है।
मूर्तियों में तो जीवितस्वामी की मूर्ति जो प्रभुवीर के संसारी भाई नंदीवर्धन ने बनवाई है। आज दीयाणा नांदीयाजी में है। जो परमात्मा की विद्यमानता में बनी है । अनादि काल से मूर्तियाँ-मूर्तिपूजा चली आती है अतः निश्चित आकार, नाप आदि शिल्पशास्त्रों में प्रसिद्ध हैं, उनके आधार पर बनाई जाती है, अकेली कल्पना नहीं होती है।
इन सब बातों से ज्ञानसुंदरजीने जो कहा है "तुम कल्पना करते हो, हम मूर्ति बनाकर पूजते है' बिलकुल सही बात है । प्रतिष्ठा, संघ इत्यादि प्रभु भक्ति का ही प्रकार है।
पृ. ३० → मिथ्याप्रशंसा की समीक्षा
इस प्रकरण में पिटी-पिटाई बाते वापस दोहरायी हैं । मूर्ति, मूर्तिपूजकों की भरपेट निंदा की है, जिनका जवाब पीछे दे दिया है। विशेष में मूर्तिपूजकों के धनदौलत मंदिर-तीर्थ संघयात्रादि धार्मिक कार्यों में लगते है, वे शुभ भावहेतु, सम्यग्दर्शन, शासनप्रभावना के कारण बनने से सफल है । आबू, राणकपुर जैसे तीर्थों में सालों तक हजारों मजूरों को रोजी-रोटी मिलती थी, वर्तमान में भी तीर्थों पर अनेकों का निभाव होता है, उससे उनकी धनदौलत सफल है । स्थानकवासियों को सब जगह हिंसा ही दिखती है, कहीं पर धन लगावे उस निमित्त से हिंसा होगी । उनकी मान्यता से पाप का कारण बनेगा। अतः दो रास्ते धन के होंगे ममत्व भाव से संग्रह-परिग्रह करके दुर्गतिगामी होंगे अथवा शादी वगैरह सांसारिक पापकृत्यों में करोड़ों का खर्च करके पापवृद्धि संसार वृद्धि करेंगे।
खासतौर से पाठक ध्यान देवे दोनों पुस्तको का मध्यस्थभाव से पठन करेंगे तो स्पष्ट रुप में डोशीजी की चालाकी दिखाई देंगी। ज्ञानसुंदरजीने प्रमाणों के साथ, अनेक विद्वानों के अभिप्राय के साथ लौकाशाह की जीवन झलक बताई है, उस विषय को डोशीजीने जान बूझकर छोड़ दिया है । उसके अलावा आप कर ही क्या सकते थे? लौकाशाह जीवन वृतांत के .
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा लिये - स्थानकवासी समाज के पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण ही नही है, अपनी-अपनी कल्पनाओं से नवलकथा की तरह संतबालजी, शाह आदिने लौंकाशाह का चरित्र लिख डाला है । लोंकाशाह का जीवन अंधकारमय हैं। प्रत्येक लेखक ने उनका जीवन अपनी कल्पना के आधार से ही लिखा है जो परस्पर विरोधी सिद्ध होता है । पाठक विशेष जानकारी के लिए ज्ञानसुंदरजी की ही लिखी "श्रीमान लौं काशाह'' नामक प्रामाणिक पुस्तक का अवलोकन कर सकते हैं । जिसका जवाब स्थानकवासी आज दिन तक दे नहीं पाये । ऐतिहासिक प्रमाणों से युक्त पुस्तक का जवाब बिना प्रमाण देंगे भी कैसे ? इसका विस्तृत प्रतिपादन आगे किया जाएगा।
पृ. ३२ → शाश्वती प्रतिमाएँ और सूर्याभदेव की समीक्षा
पृ. ३३ → किन्तु जो लोग समझदार है, जिन्होंने गुरुओं के समीप सूत्रों का स्वाध्याय कर उनकी वास्तविकता को समझ लिया है ? इनके चक्कर में नहीं आते ।
समीक्षा → इनके हिसाब से जो व्यक्ति कितने भी आगम पाठ, युक्तियों को देने पर भी मूर्तिपूजा न माने, कदाग्रह न छोड़े उसी ने वास्तविकता को समझा है । तथ्य की खोज करनेवाले समझ सकते है की - पूर्वकाल में प्रभु वीर से गुरुपरंपरा से सूत्रार्थ आते थें । लिखने का, पुस्तकों का उपयोग नहीं था, विस्मृति-बुद्धिबल क्षीणतादि कारणों से वीर निर्वाण ९८० वर्ष बाद देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमणजीने आगम लिखवायें, उसमें परंपरा से आती नियुक्तियाँ-भाष्य-टीकादि का समावेश था, जिसे अर्थागम कहा जाता है । स्थानकवासी पंथ लौंकाशाह से सिर्फ ५०० साल पूर्व चालू हुआ जो गृहस्थ थे उनको आगम पढ़ने का अधिकार ही नही था, तो किस गुरु के पास उन्होंने आगम स्वाध्याय किया? सत्य का अन्वेषण करनेवाले तटस्थ व्यक्ति अवश्य समझ पाएंगे - जिस पंथ के आद्यपुरूष के पास भी गुरूपरंपरागत वास्तविक अर्थ नहीं है, तो उनसे चली मनमानी परंपरा में गुरुगम से ज्ञान आएगा ही कैसे?
दूसरी बात हुक्मीचंदजी वगैरे भवभीरु स्थानकवासी मुनिओं ने टीका
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा से संगत अर्थ किया है वे डोशीजी के हिसाब से गुरुओं के पास अध्ययन नहीं करनेवाले समझने ?
पृ. ३३ (१) देवलोक की प्रतिमाए तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है।
समीक्षा → इसके पुष्टि में डोशीजी ने शब्दकोशों के पाठ दिये हैं उन सबमें सबसे पहले रागद्वेष निराकरण करने वाले, अरिहंत आदि अर्थ ही दीए है, उस अतिप्रसिद्ध अर्थ को जो टीकाओं में मिलता है, छोड़कर दूसरे असंगत अर्थ को लेने की डोशीजी की इच्छा क्यों हुई ? खुद ही लिखते है "किसी भी शब्द का अर्थ प्रकरण के भावों के अनुकूल किया जाए तो अनर्थ नही होता, नही तो महान अनर्थ हो जाता है ।" और खुद ही उससे विपरीत प्रवृत्ति करके प्रकरण के प्रतिकूल अर्थ करके महान् अनर्थ पैदा कर रहे है । शाश्वती प्रतिमाएँ तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है इसकी पुष्टि में डोशीजीने सात युक्तियाँ दी है उन पर विचार करेंगे ।
(अ) वे शाश्वत है - समीक्षा → तीर्थंकर नाम-रुप से शाश्वत नहीं है, अतः उनकी प्रतिमाएँ शाश्वत नहीं हो सकती ऐसा डोशीजी का कहना है । वह बराबर नही है चूँकि आगम खुद ही ४ नाम शाश्वत बता रहे हैं,
और वर्तमान-भूत-भविष्य चौवीसी आदि में ये ४ नामवाले तीर्थंकर दिखाई देते है, अतः नाम से ये ४ तीर्थंकर शाश्वत है, हरेक काल में इन ४ नामवाले तीर्थंकर अवश्य होंगे । नाम के शाश्वतपने में खुद आगम ही प्रमाण है । प्रतिमाओं का वर्णन तीर्थंकर से ही मिलता है अतः वे मूर्तियाँ तीर्थंकरो की ही हैं । इतर मिथ्यात्वी देवों की मूर्तियों का इस प्रकार वर्णन प्रभु के आगम में करना किसी भी तटस्थ व्यक्ति को मानने में नहीं आएगा । इन नामवाले कोई मिथ्यात्वी देव भी प्रसिद्ध नहीं हैं, और कोई अप्रसिद्ध देव हो भी जाएँ तो वे देव कहाँ शाश्वत हैं ? उनकी शाश्वत मूर्तियाँ भी कैसे संभव है ? इसका विचार तो डोशीजी ने किया ही नही । अतः वे शाश्वत प्रतिमाएँ अवश्य तीर्थंकरों की ही है, ऐसा हमारा नहीं, आगमों का कथन है ।
(आ) अरुणनेत्र - समीक्षा - डोशीजी लोगों को उल्टे रस्ते ले जाने की चालाकी कर रहे है । आँखे तो अंकरत्नमय है "अंकामयाणि
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा अच्छीणि अंतो लोहियक्खपडिसेगाओ" यह पाठ स्पष्ट रुप से, अंकरत्न श्वेत होता है, अतः आँखे श्वेत बता रहा हैं । अकेले श्वेत में विशिष्ट शोभा के लिये 'लोहिताक्ष' की स्वल्प मात्रा में रेखाएँ होती हैं । उत्तम पुरूषों के अंग भी उत्तम होते हैं, लक्षण युक्त ही होते हैं । लक्षण शास्त्र में भी ३२ लक्षण के विवरण मे आँखो के अंत भाग लाल बताए है तभी आँखो की शोभा में विशिष्टता आती है।
सफेद आँख की सिद्धि में डोशीजी "कोयासिय धवलपत्तलच्छे'' पाठ दे रहे हैं । भोले लोगों को फंसाने हेतु उसका अर्थ-"विकसित श्वेत कमल के समान श्वेत और पतली आँखे अर्थ कर रहे हैं । टीका में अर्थ
"कोकासियत्ति पद्मवद्विकसिते धवले च क्वचिद्देशे पत्रले च पक्ष्मवत्यौ अक्षिणी - लोचने यस्य स तथा" इसका अर्थ कोयासिय पद्म (=लाल कमल अथवा कमल) की तरह विकसित, अमुक देश में श्वेत पतली आँखे जिनकी ऐसे परमात्मा । इससे स्पष्ट है अमुक भाग में श्वेत आँखो का होना ही सूत्र में बताया है जो टीकाकार कहते है, संपूर्ण श्वेत नहीं, संपूर्ण श्वेत आँखे शोभास्पद नहीं होती है । टीकाकार ज्ञानी भगवंत के वचन विश्वसनीय है अथवा डोशीजी के ? पाठक स्वयं विचार करें । प्रतिमाओं की आँखे सूत्र में वर्णन है उसी प्रकार की हैं । अतः कोई अनुपपत्ति (विरोधाभास) नही आती है। अतः प्रतिमाओं की आँखो का सामान्य लाल अंत भाग युक्त ही है, उससे सरागता सिद्ध नहीं होती है । आँखो की शोभा बढ़ती है ।
दूसरी बात 'कोयासिय धवल पत्रलच्छे' से अगर आप संपूर्ण श्वेत नेत्र को सिद्ध करके उसके द्वारा - निर्विकारता-वीतरागता सिद्ध करना चाहो तो वह अशक्य है । चूंकी युगलिक पुरूष के वर्णन में भी इसी प्रकार से नेत्र का विशेषण है, क्या युगलिक भी वीतराग होंगे? इसलिये वर्णन शैली में आया हुआ यह विशेषण निर्विकारता के लिए प्रयुक्त नहीं है। ऊपर बताये मुजब टीकाकारने किया हुआ उसका अर्थ ही उचित प्रतीत होता है ।
निर्विकारता के लिये तो शास्त्रकारों ने 'वियट्टछउमे जिणे' विशेषण परमात्मा के दिये ही हैं । शरीर वर्णन शैली में बताए उस सहज-सामान्य
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विशेषण को खींचकर उसके विपरीत अर्थघटन का प्रयत्न यह बता रहा है कि येन-केन प्रकारेण शास्त्रकारोने बतायी ये जिनप्रतिमाएं अन्य देवों की सिद्ध हो जावे तो डोशीजी को उसमें अपार खुशी है । जैन कहलाते हुए भी जिनप्रतिमा से कैसा वैर ! हा.हा.हा......
(इ) वस्त्र परिधान - समीक्षा साक्षात् तीर्थंकर और स्थापना तीर्थंकर के कल्प अलग-अलग है। दीक्षा के बाद तीर्थंकर स्नान नही करते प्रतिमाओं को अभिषेक का वर्णन सर्वत्र आता है, इसलिए वे प्रतिमाएँ तीर्थंकर की नहीं ऐसा कौन कह सकता है ? वर्तमान में भी जैन मंदिरो में अभिषेक आंगी में वस्त्रपरिधान इत्यादि होते ही है, तो क्या आप कहेंगे ये प्रतिमाएँ तीर्थंकर की नहीं ? सभी उन्हें जिनप्रतिमा ही मानते हैं । अत: सिद्ध होता है प्रतिमा पूजा का कल्प अलग है, अतः वस्त्र परिधान में कोई विरोध नहीं है ।
"
आगे वस्त्र परिधान करना या अर्पण करना की व्यर्थ लंबी चर्चा चलायी है । परिधान करावें या अर्पण करे दोनों ही प्रकार से तीर्थंकर की भक्ति ही मानी गई है ।
(ई) पूजन विधि - समीक्षा → उपर बताये मुजब साक्षात् तीर्थंकर पूजन और स्थापना तीर्थंकर पूजन का कल्प अलग होता है । दोनो निक्षेपों में फरक है एक भाव निक्षेप, दूसरा स्थापना निक्षेप है । अत: उनके पूजनविधि वगैरे में फरक है ही । वर्तमान में भी जिनप्रतिमाओं में यह विधि प्रचलित है, वह कथानक का अनुकरण नहीं अपितु अनादि काल से इस प्रकार का स्थापना कल्प प्रचलित है, इसीलिये जैनेतर देव-देवी, बौद्ध आदि में भी ऐसी ही विधियां प्रचलित है। इससे यही सिद्ध होता है वे तीर्थंकर की मूर्तियां
है ।
( उ ) शरीर वर्णन में भिन्नता - समाधान यह भी कपोल कल्पना है । “विचित्रा सूत्राणां गतयः " सूत्र रचना में विभिन्नता हो सकती है । उससे तीर्थंकरों की प्रतिमा न होना सिद्ध नहीं होता है। तीर्थंकरो का शिखनख और अन्य मनुष्यों का नख-शिख शरीर वर्णन होता है यह डोशीजी
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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा और उनके पक्षधरों की पक्षांधता से की गई कुकल्पना है। इसमें प्रमाण कोई पेश नहीं किया है । औपपातिकसूत्र में ही आगे असुरकुमार वर्णन में उन देवों का शरीर वर्णन ऊपर से ही किया है । प्रथम नयन का वर्णन फिर नासिका, होंट - जीभ - केश का वर्णन है, जिससे यह सिद्ध होता हे कि शास्त्रकार किसी भी नियत क्रम से वर्णन नहीं करते हैं । इस असुरकुमार वर्णन से सिद्ध होता है की डोशीजी ने जानबूझकर भोले लोगो को फंसाने हेतु यह वर्णन भिन्नता की कुकल्पना रची है।
(ऊ) प्रतिमा परिवार - समीक्षा → कल्पना के गपगोले लगाए है । प्रभु प्रतिमा के परिकर में इस प्रकार प्रतिमाएँ वर्तमान में भी दिखाई देती हैं । जघन्य से १ करोड देवता हमेशा सेवा में होते है इनमें से ये हैं । इंद्र आदि हमेशा सेवा में हाजिर नहीं होते प्रसंग-प्रसंग पर आते है। इससे सिद्ध है वे तीर्थंकर प्रतिमाएँ है।
(ए) नाम निश्चित्तता-समीक्षा → इसका समाधान पीछे "वे शाश्वत है' में आ ही गया है । विशेष किसी भी काल में भरत-ऐरावत महाविदेह मिलाकर इन ४ नामवाले तीर्थंकर होते ही हैं । यहाँ आगम खुद नाम के शाश्वतता में प्रमाण है । इंद्रादि प्रभावशाली सम्यग्दृष्टि देव दूसरे मिथ्यात्वी अपने सेवक की पूजा करे वह कैसे कोई भी सुज्ञ स्वीकारेगा?
और डोशीजी के हिसाब से ये मिथ्यात्वी शाश्वत देव कौन? कौन से देवलोक में ? उनकी पूजा से क्या लाभ ? आदि आगम प्रमाण तो डोशीजी दे ही नहीं सकते है ? जिससे सिद्ध है वे प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की हैं ।
(२) सूर्याभ साक्षी की अनुपादेयता - समीक्षा → डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के खंडन में खुद ही खुद की युक्तियों में फंस गए है। चक्रवर्ती, राजा, व्यापारी वगैरह क्रमशः चक्ररत्नादि-बंदूक तोपादि-कलम बही आदि का पूजन परम्परानुसार करते हैं, धर्मबुद्धि से नहीं । परंतु वे चक्रवर्ती आदि सुज्ञजन अपने अपने इष्ट देवों की प्रतिमाओं का पूजन धर्मबुद्धि से ही करते हैं, व्यवहार से नहीं । वह धर्म खुद का माना हुआ होता है वह बात अलग है यह तो वर्तमान में भी प्रत्यक्ष सिद्ध है । इससे तो स्पष्ट रुप से सिद्ध
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा होता है सूर्याभदेव ने भी विवेकमय धर्मबुद्धि से ही प्रतिमा पूजन किया और अन्यवस्तुओं का पूजन परंपरानुसार किया। जिस सम्यग्दृष्टि के हृदय में हमेशा के लिए अरिहंत परमात्मा स्थापित है वे अपनी स्मृति-तृषा बुझाने हेतुभक्तिहेतु मनुष्यलोक में भी मूर्ति-तस्वीरे वगेरे साधनों का सहारा लेते है, देवलोक में उनके लिए कोई भी साधन क्या नहीं होगा ? अवश्य होगा ही । इसीलिए शाश्वती प्रतिमाएँ देवलोक में हैं । सम्यग्दृष्टि देव देवलोक से मनुष्य जन्मउत्तमकुलादि सामग्री कैसे पा सकते है ? देवलोक में हमेशा विषयोपभोगपंचेंद्रियपोषण-उसी में आसक्तता होने से आपके हिसाब से दान-शील-तप
और भाव की सामग्री पुण्यबंध के लिये नहीं है। तीर्थंकरों के जन्माभिषेक में अभिषेकादि के कारण अगणित जीवों की हिंसा से उसमें भी आपके हिसाब से पुण्यबंध नहीं तो पुण्यबंध के सिवाय विशिष्ट कुलोत्पत्ति द्वारा मनुष्यजन्म में आकर मोक्ष की साधना कैसे करेंगे? शायद आप कहो साक्षात् तीर्थंकर भक्ति वगैरह से । वह तो उनको कदाचित् होता है विषयासक्त होने से वहाँ पर भी मूल शरीर से नहीं जाते है । अन्यथा - अनुपपत्ति से विशिष्ट पुण्यबंध के साधन स्वरुप शाश्वती जिन प्रतिमाएं स्वीकारनी पडेगी ही ।
पृ. ४६ में डोशीजी ज्ञानसुंदरजी की दी हुई युक्तियों का खंडन करने जा रहे है, उसमें कितनी तथ्यता है वह देखेंगे ???
१. वे प्रतिमाएँ पद्मासन से ध्यानस्थ है इसलिये तीर्थंकर प्रतिमाएँ
मनुष्यलोक में पद्मासन में तीर्थंकरो की ध्यानस्थ मूर्तियाँ है ही, उसी प्रकार देवलोक में लिखा है उसमें क्या दोष ? प्रायः लोक में पद्मासन का उपयोग ध्यानादि साधना में करते दिखाई देते है उस हिसाब से भी वे प्रतिमाएँ ध्यानस्थ होना युक्त ही है। खुद डोशीजी भी बुद्ध प्रतिमा पर्यंकासन में है उसे कायोत्सर्ग (ध्यान) मुद्रा में स्वीकार कर ही रहे है, तो जो पद्मासन में है वह ध्यान में होना युक्तियुक्त ही है। नमुत्थुणं के पाठ से वह अरिहंत प्रतिमा सिद्ध ही है।
२. सूर्याभ ने 'नमुत्थुणं' के पाठ से उनकी स्तुति की अत एव ये
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मूर्तियाँ तीर्थंकर की हैं।
समीक्षा → दीपक जैसे स्पष्ट पाठ से अत्यंत स्पष्ट रूप से अरिहंत प्रतिमा की सिद्धि हो रही है । मतमोह से डोशीजी अर्थ बदलने की बालचेष्टा कर रहे है, परंतु उसमें असफल हुए है । देखिए - डोशीजीने चालाकी करके जानबुझकर मूल पाठ को छिपाया है " धुवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहि अत्त्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहि संधुणइ संधुणित्ता सत्तट्ठपयाइं पच्चोसक्कइ पच्चोसक्कित्ता" इसमें रेखांकित पाठ को छिपाया है । जिसमें आगम स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं जिनेश्वर परमात्मा (जिनेश्वर परमात्मा और जिनप्रतिमा में अभेद मानकर यह कहा गया है) को धूप देकर उनकी १०८ अर्थयुक्तादि विशुद्ध स्तुतियाँ की ।
दूसरी बात कामदेवादि प्रतिमाओं की सम्यग्दृष्टि सूर्याभ देव १०८ स्तुतियाँ क्यों करे? वहाँ से ७-८ कदम पीछे हटकर 'नमुत्थुणं' कहा इसका जिनेश्वर परमात्मा की पूजाविधि की अनभिज्ञता से मताग्रह से उलटा अर्थ कर रहे है । वर्तमान में परंपरा से यह अतिप्रसिद्ध है जैन मंदिर मे जाकर प्रथम गंभारे के बाहर स्तुतियाँ बोलकर पीछे जाकर चैत्यवंदन (नमुत्थुणं) विधि की जाती है । इससे जिनप्रतिमाओं को ही स्तुति और नमुत्थुणं किया उसकी सिद्धि होती है
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कदाग्रह से नमुत्थुणं को सिद्धों की स्तुति सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है वह भी अयुक्त है। नमुत्थुणं सूत्र में अरिहंताणं विशेष्य है उसी के सभी विशेषण है जो भाव तीर्थंकर के विशेषण हैं और "सिद्धिगइ नामधेयं " से द्रव्य अरिहंत के विशेषण है । मोक्ष में जाने पर अरिहंत द्रव्य तीर्थंकर कहलाते है । अत: नमुत्थुणं द्रव्य-भाव अरिहंत की वंदना है, अकेले भाव तीर्थंकर की नहीं कापडियाजी का उद्धरण दिया उससे भी इसी की सिद्धि होती है । स्थापना और द्रव्य - भाव तीर्थंकरों में कथंचित् अभेद मानकर स्थापना के सामने नमुत्थुणं का पाठ किया, जो धूवं दाऊण जिणवराणं से सिद्ध होता है। आगमसूत्र खुद ही इसके साक्षी है । स्थापना का आलंबन लेकर आराधना तो द्रव्य - भाव जिनकी ही होती है। सूत्र में स्पष्ट अक्षरों
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७९ में बताया है "...संथुणइ संथुणित्ता सत्तट्ठपयाइं पच्चोसक्कइ पच्चोसक्कित्ता वामं जाणुं अंचेइ... जाव संपत्ताणं । "इसमें सभी जगह संबंधभूत कृदंत का उपयोग करके क्रियान्तर का पूर्व क्रिया के साथ संबंध बताया है, इसलिये स्तुतियाँ मूर्ति के सामने की और नमुत्थुणं सिद्धों के सामने यह कल्पना उचित नही है। मताग्रह से की हुई उत्सूत्र मालूम होती है। जिनप्रतिमाओं के सामने सभी क्रियाएं हो रही है यह मध्यस्थ व्यक्ति के लिये एकदम स्पष्ट बात है । डोशीजी के अर्थ बदलने के, छुपाने के ये स्पष्ट उदाहरण है ।
३. सूर्याभ की मूर्तिपूजा को शास्त्रकार ने हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी और मोक्षकारी होना बताई है।
समीक्षा → इसमें डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के ऊपर अपशब्दों की वृष्टि कर रहे है । परंतु वह अपराधी व्यक्ति अपराध छीपाने के लिये निरपराध को डाँटे, उस कोटि में आता है । देखिये
सूर्याभ के प्रश्नों के उत्तर शास्त्रकार देते हैं कहकर ज्ञानसुंदरजी ने सूत्रपाठ पेश किया है, उसमें कहाँ भोले भाईयों के आँखो में धूल डाली ? डोशीजीने दिये हुए कोष्टक में तीर्थंकर वंदनफल संयम पालनफल, धन रक्षाफल, और मूर्तिपूजा फल ये सब शास्त्र में बताए है इसलिये, उन्हें शास्त्रकार बता रहे है । कहने में दोष क्या है ? हां, धनरक्षा फल द्रव्यासक्त व्यक्ति के मुख से और मूर्तिपूजा फल सामानिक देवों के मुख से शास्त्रकार फरमा रहे है, यह जरूर है । ___ डोशीजी की चतुराई देखिये-सूर्याभ के सामानिक देव = सूर्याभ की गैरहाजरी में सूर्याभ का काम-काज संभालने वाले सूर्याभ के समान-समकक्ष समृद्धिवाले महत्वपूर्ण देव । इसको ढंककर, डोशीजी उसको सामान्य परिषद देव बता रहे है। ऐसा कहने से उनके मुख से निकले शब्द महत्वपूर्ण नहीं इस प्रकार भोले लोगों की आँखों मे धूल फेंकने का प्रयत्न खुद ही कर रहे है। ____ डोशीजी कहते है सूर्याभ ने आधीनता में रहे देव, देवी विमान आदि पर निष्कण्टक अधिकार बनाये रखने के लिए व जीवन लीला को सुखपूर्वक .
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा चलाने के लिये प्रतिमापूजा की । ये कल्पनाएँ पक्षपात के कारण सीधे-सरल आगम पाठ को अर्थ बदलकर अपनी मान्यता मे घसीटने हेतु है इसका ख्याल सुज्ञ कर सकेंगे।
अपने इस पर विचार करें- सूर्याभ देव-इंद्र आदि के विशिष्ट स्थान देवलोक में शाश्वत हैं अपने-अपने विशिष्ट पुण्य से जीव वहाँ पर उत्पन्न होते हैं और उसी विशिष्ट पुण्य से मिले हुए अपने-अपने विमानादि पर आजन्म निष्कंटक अधिकार पुण्य से ही बनाये रखते हैं । सूर्याभदेव-इंद्र इत्यादि का स्थान कोई अन्य देव-जीतकर कब्जे में करें ऐसी स्थिति देवलोक में होती ही नहीं है । और अपनी जीवन लीला भी विशिष्ट पुण्य से सुखपूर्वक अपने भव तक चलती ही है । तो उसके लिये अन्य देवदेवी की मूर्तिपूजा की उन समझदार देवों को आवश्यकता ही क्या ? दूसरी बात डोशीजी के हिसाब से वे प्रतिमाएं अरिहंत की नहीं अपित किसी देव की है। (कौन से देव की इस प्रश्न का उत्तर तो डोशीजी के पास है ही नहीं !!!) ऐसा कौन देव है जो वैमानिक विमानाधिपति-इंद्र वगैरे से भी ऊँचा हो ? जिसकी पूजा से इंद्रादि की इच्छाएं पूर्ण हो ! ___एक और बात-परंपरागत आचार के अनुसार सूर्याभ देवादि पूजा करते हैं, ऐसा मान भी लो तो दूसरे स्थान-द्वार, तोरण, नागदन्ता, वावडी वगैरेह में भी पूजा वगैरेह है । मूर्ति और दाढा की पूजा में ही "हियाए सुहाए..." बुद्धिशाली सामानिक देव क्यों कहते हैं । दूसरी पूजा में यह पाठ क्यों नही बोलते ? आपके हिसाब से तो सभी समान ही है न ?
एक में पेच्च दुसरे में पच्छा इत्यादि तो डोशीजी की भोले जीवों को फसाने हेतु कल्पना जाल है । पच्छा का अर्थ अगले जन्म में होता ही है । यह तो सूत्र शैली है । अन्यथा संयम पालन के फल में न तो पेच्च है, न तो पच्छा है, तो डोशीजी उसका अर्थ कैसे करेंगे? कल्पना से ही करेंगे न? सूत्र प्रमाण क्या मिल सकेगा? प्रभु वीर से चली आती परंपरागत व्याख्या-टीकाओं को अपनाए बिना प्रामाणिक अर्थ, कल्पना से - संभव ही नहीं है । टीकाकार अर्थ अपनी विशाल गुणग्राही बुद्धि से ही नहीं करते
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८१ पूर्वतन टीका-गुरु परंपराओं के आधार पर करते हैं । जिसका जिक्र ज्ञानसुंदरजी ने दूसरे प्रकरण "जैनागमों की प्रामाणिकता'' में किया है । उत्तराध्ययन मूलसूत्र में 'पच्छा कडुअविवागं' में अगले जन्म के अर्थ में 'पच्छा' शब्द आया ही है । अतः आगमप्रमाण से भी पच्छा = अगले जन्म में सिद्ध है।
पृ. ५२ पर → डोशीजी लिखते है "सुंदर मित्र ने मूर्तिपूजा और चारित्र का फल बिलकुल समान ही बताया है'' यह ज्ञानसुंदरजी पर गलत आक्षेप है क्योंकि खुद शास्त्रकार ही समान बता रहे है, उसको ज्ञानसुंदरजी ने पेश किया है। बाकी सभी कारण, कार्यसिद्धि में समानरीति से उपयोगी नहीं बनते है, कोई अनंतर कोई परंपरा कारण होता है। मूर्तिपूजा परंपरा कारण संयम अनंतर कारण इसको तो सब (ज्ञानसुंदरजी भी) मानते ही है ।
ज्ञानसुंदरजी पर आक्षेप करते खुदने भी वही नीति अपनायी है इसका डोशीजी ने विचार ही नहीं किया । आपने कोष्टक में तीर्थंकर वंदन फल
और संयमफल दोनों को समान बताएं हैं वह आपको मान्य है ? वहाँ आपको एक परंपर दूसरा अनंतर कारण समाधान करना ही पडेगा । वही समाधान मूर्तिपूजा - संयम में है । उसका पक्षराग के कारण डोशीजी को विचार ही नही आया ।
__ मूर्तिपूजक ग्रंथ के तीन उद्धरण दिये हैं उसमें प्रथम आवश्यक हारिभद्रीय में साधुओं को द्रव्यस्तव-मूर्तिपूजा इत्यादि नही करनी चाहिए साधुओं के संयम के साथ उसका विरोध है। उसमें गृहस्थों के लिये उसे हेय नही माना है। दूसरे सागरानंदसूरिजी के उद्धरण में भी यही बात है। डोशीजीने किसी इरादे से उस उद्धरण को अधूरा दिया है, छिपाया है । महानिशीथ के उद्धरण से पाठकों को अधूरी बात बताकर भ्रमित करने की चालाकी की है । उसके संदर्भ देखने से वह बात चैत्यवासियों के अविधि चैत्य में साधुओं को नहीं जाना चाहिये यह बताती है, साधुओं को मंदिर में - विधिचैत्य में जाने का निषेध है ही नही । इस प्रकार अलग संदर्भ में दिये उद्धरणों को अलग संदर्भ में लगाकर लोगों के आंखों में धूल डालना
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सज्जनता नहीं है।
आगे टीका का अधूरा पाठ देकर यह ही काम कर रहे है । देखिये"इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वः भूयानपि च पुस्तकेषु वाचनाभेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थित वाचनाक्रम प्रदर्शनार्थ लिखितः ।" इतना पाठ दिया है इसके आगे का टीका पाठ "इत ऊर्ध्वं तु प्रायः सुगमः प्राग्व्याख्यातस्वरुपश्च न च वाचनाभेदोऽप्यतिबादर इति स्वयं परिभावनीयः, विषमपदव्याख्यातु विधास्यते इति ।" इसको जान बूझकर छोड दिया है।
इस संपूर्ण पाठ से टीकाकार कह रहे है - प्राक्तन ग्रंथ = सूर्याभविमान वर्णन तक के ग्रंथ से लगाकर यहाँ तक अनेक पुस्तकों में वाचना भेदअलग-अलग वाचनाओं में अलग-अलग पाठ है । इसलिए सम्मोह (टीका कौन-सी वाचना को लेकर की है यह सम्मोह) निवारण हेतु जिस वाचना को आगे करके हमने टीका की है उसके सुगम-सरल शब्दों को भी टीका में लिखा है- विवेचन किया है । इसके आगे सरल है और वाचनाभेद भी ज्यादा नहीं है अतः जैसे पूर्व में पद पद की व्याख्या की है वैसे आगे नहीं करेंगे, परंतु विषमपद की व्याख्या ही करेंगे ।
इस टीका पाठ को घुमाकर डोशीजीने "हियाए सुहाए..." के साथ ही जोड़ दिया है, टीकाकार उस बारे में कहते ही नहीं है । वह तो टीका अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है की विमान वर्णन से लगाकर प्रायः पद पद की व्याख्या है और आगे नही है ।
आगे डोशीजी कहते है "जिस पाठ को आपके टीकाकार महाराज संदेहजन्य बता रहे है'' डोशीजी यह अज्ञानवश लिख रहे है या जान बूझकर लोगो को भ्रम में डाल रहे है । टीकाकार ने कहाँ पर उस पाठ को संदेहजन्य बताया है ? संदेहजन्य कहना टीकाकार को इष्ट नहीं है । टीकाकार तो वाचनाभेद लिखते है, उसका मतलब टीकाकार को उसमे संदेह है यह नहीं होता है। प्रज्ञापना सूत्र की टीका में मलयगिरिजी म. ने वाचनाभेद का खुलासा किया है । गणधरों के वक्त में भी वाचना भेद थे । इससे एक प्रामाणिक
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दूसरा अप्रामाणिक निर्णय उसमें नहीं दे सकते । एक ही काल में वल्लभी
और माथुरी वाचनाएँ हुई । १२ साल के दुष्काल के कारण विस्मृत ग्रंथ लिखाये गए, उस समय गुरू परंपरा में पाठ में फेरफार की शक्यता रहती है। इससे दूसरी वाचना संदेहजन्य नहीं होती है । इसीलिये टीकाकार ने भी "गौतम स्वामीजी प्रश्न करते है सूर्याभदेव की ऋद्धि कहाँ गई ?" उस स्थान पर वाचना भेद बताकर उस वाचना भेद की टीका की है । उससे सिद्ध होता है वाचना भेद को संदेहजन्य टीकाकार मानते नहीं है ।
४. जीताचार की करणी में भगवान ने आज्ञा दी है।
समीक्षा → इसके खंडन में डोशीजीने जीताचार के दो भेद किए है, । धार्मिक और सांसारिक-व्यावहारिक जीताचार । वह तो ठीक है लेकिन जिनेश्वर परमात्मा की मूर्तिपूजा-दाढ़ापूजन धार्मिक जीताचार में ही आएँगा
चूंकि इनके साथ ही "हियाए-सुहाए...'' पाठ है, वहीं पर नमुत्थुणं से स्तवना हैं इसका डोशीजी को ख्याल नहीं रहा है। नाग-भूत प्रतिमा, बावड़ी आदि पूजन व्यावहारिक जीताचार में आएगा चूंकी इसके साथ "हियाए सुहाए"... पाठ नहीं है, नमुत्थुणं से स्तवना नही है ।
५. सूर्याभ सम्यग्दृष्टि और भव्य है, अत एव उसकी मूर्तिपूजा उपादेय
आनंद-अंबड श्रावक के अधिकार में सम्यक्त्व के आलापक में इतर देवों को देवबुद्धि से मानना नहीं, उनके मूर्तियों की पूजा आदि नहीं करना बताया है उससे सिद्ध होता है की सूर्याभ ने जिनप्रतिमाओं की पूजा की डोशीजी हेमचंद्रसूरि इत्यादि पूर्वमहापुरूषों को कलंकित करने हेतु उनके प्रसंगो में से अमुक वस्तु ग्रहण करके लोगो की आँखो मे धूल डालते है । हेमचंद्रसूरिजी सिद्धराज के साथ शिवमंदिर में गये । सिद्धराज को जैन धर्म के सन्मुख बनाने हेतु महादेव स्तोत्र की रचना की और बोले, उसमें शिव की स्तुतियाँ नहीं थी अपितु तीर्थंकरों की स्तुतियाँ हैं । महादेव तो तीर्थंकर ही हो सकते हैं, गीतार्थ महान् आचार्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानकर अपवाद मार्ग का विशेष लाभ हेतु अवलंबन करते है, वह तो जो फल मिलता
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा है, उससे स्वयंसिद्ध होता ही है । साधु-साध्वी प्रतिक्रमण में, संयम साधना में सहायक देवों का स्मरण करते हैं, जैसे अविरति गृहस्थ को कार्य हेतु स्थानकवासी साधु-साध्वी याद करते ही है । सूर्याभ जैसे प्रभावशाली देवइंद्र वगैरे व्यवहार-संसार हेतु मिथ्यात्वी देवों का पूजन वगैरह करे इस डोशीजी के तर्क का उत्तर पीछे ((३) सूर्याभ की मूर्तिपूजा ... में दे दिया है ।
डोशीजी कह रहे है देवलोक में सभी देव सम्यक्त्वी नहीं होते । प्रतिमा केवल चार है, जिसे सभी देव पूजते होंगे, इससे सिद्ध है प्रतिमापूजन धार्मिक दृष्टि से नहीं होता है, अन्यथा मिथ्यात्वी देव उन्हे क्यों पूजे ? यह कल्पना तथ्यहीन है, फिर भी डोशीजी के ऊपर के शब्दों से स्पष्ट ध्वनित हो रहा है, खुद के मन मे पड़ा है की वे जिनप्रतिमाएँ है । धार्मिक दृष्टि से हो तो फिर मिथ्यादृष्टि देव उन्हें क्यों पूजने लगे ? ये शब्द उस बात को स्पष्ट कर रहे है ।
सभी पाठक डोशीजी के पुस्तक पृ. नं. ५६ प्रथम परिछेद को ध्यान से पढ़े तो डोशीजी के विचित्र मानसिकता का ख्याल आएगा । "सुंदरमित्र ने सम्यक्त्व को क्या बाधा है ?" इससे डोशीजी ने शाश्वत प्रतिमाएँ मिथ्यात्वी देवों की है ऐसा सिद्ध करने की कोशिश की है। आगे " और देवलोक में भी... मिथ्यादृष्टि देव उन्हे क्यों पूजने लगे ?" इसमें डोशीजीने शाश्वती प्रतिमा जिनेश्वर परमात्मा की मानकर आपत्ति दी है । ये प्रतिमाएँ किनकी हैं ? इसमें डोशीजी स्वयं ही शंकित ही है ।
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शुद्ध गुरूपरंपरा-गुरूगमविहीन लोग आगम के अर्थ करने में असफलसंदिग्ध ही रहते हैं । सूर्याभ देव के पूरे प्रकरण में अनेक स्थल पर डोशीजी की डावाँडोल मानसिक स्थिति का ध्यान से पढने वाले पाठकों को ख्याल आएगा, टीका को माने तो मूर्तिपूजा सिद्ध होने से अपने मत का त्याग होता है और अपने मत को पकड़े रखे तो आगम पाठ का सही अर्थ ही नहीं कर सकते !! डोशीजी की बडी दयनीय स्थिति मालूम होती है !! देवलोक में भी सभी देव सम्यक्त्वी है ही नहीं, धार्मिक दृष्टि से पूजन
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हो तो मिथ्यादृष्टिदेव उन्हें क्यों पूजने लगे ? डोशीजी यह तर्क देकर प्रतिमा पूजन को लौकिकता में लेना चाहते है वह बराबर नहीं है । क्योंकि उसका उत्तर प्रभु के जन्माभिषेक महोत्सव से शास्त्र द्वारा मिलता ही है ।
जैसे जन्माभिषेक में कोई भक्ति से, कोई मित्र के आग्रह से, कोई देवी के कहने से, कोई अपना आचार समझकर इस प्रकार अलग-अलग आशयों से देव जाते हैं, इसी प्रकार अलग-अलग आशयों से देव जिनपूजा भी करेंगे सम्यग्दृष्टि देव भक्ति से धर्मश्रद्धा से करेंगे उसमें कोई विरोधाभास है ही नहीं !
पृ.५७ पर → डोशीजी लिखते है "मूर्तिपूजा धर्म व आत्मकल्याण का अंग नहीं है, न इसके लिए प्रामाणिक सूत्रों में प्रभु आज्ञा है" पाठक समझ सकते हैं डोशीजी की श्रद्धा कैसी है ? सूत्रों के प्रति भी श्रद्धा नहीं है इसलिए सूत्रों को भी प्रामाणिक-अप्रामाणिक रुप से विभाजित करते हैं । परंतु ऐसे तो इनके लिये करीब-करीब सभी सूत्रों में मूर्तिपूजा की बात आती ही है । इसके लिये पाठक ज्ञानसुंदरजी की ही लिखी "३२ सूत्रों में मूर्तिपूजा'' पुस्तक देख सकते हैं ।
अंत मे पृ. ५८ → "अहा ! अहा !! नरभव में प्रदेशी... मिथ्या ओट लेने मे लाभ ही क्या हैं ?" इसमें तो डोशीजीने उत्सूत्र प्ररूपणा की हद की कर डाली है। पहले ये बात सिद्ध कर दी गई है की मूर्तिपूजादाढ़ापूजा में ही "हियाए, सुहाए" पाठ और नमुत्थुणं का पाठ होने से वह धार्मिक जीत. व्यवहार है । जब धार्मिक जीत व्यवहार है तो सूर्याभ की भावनाएँ धर्मपरिणाम ही है, यह सिद्ध होता ही है। और देवभव में सबसे प्रथम धर्मकरणी मूर्तिपूजा सिद्ध होती है तो अर्थापत्ति प्रमाण से पूर्व भव में ठाठबाठ से जिनपूजा आदि द्वारा सम्यक्त्व निर्मल बनाया था, यह सिद्ध होता ही है, ऐसे भी सम्यक्त्व के आलापक में जिनपूजा की बात आती ही है । अतिप्रसिद्ध वस्तु का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं होती है, उस वक्त में मूर्तिद्वेषी मत था ही नही और मूर्तिपूजा अतिप्रसिद्ध अतिमान्य होने से उसका बार-बार उल्लेख नहीं करते हैं । दूसरी बात जैसे आप समकित
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा के स्वरूप समझाने में "मूर्तिपूजा-जडपूजा करना मिथ्यात्व है" ऐसा उपदेश देते हैं तो ऐसा समकित का स्वरुप आपको मान्य किस आगम में है ? आप क्या आपके अनेक विद्वान् आचार्य भी उसे आगम में नहीं बता सकते हैं । क्योंकि मूल में है ही नहीं, तो लावे कहाँ से ? मूर्तिपूजा की बातें तो आगमों में पत्ते भर-भर के पड़ी हुई हैं । इससे समझना चाहिए जो आप मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं वह शास्त्र विरुद्ध है।
(३) मूर्तिपूजा और जिनाज्ञा - समीक्षा → इसमें डोशीजी लिखते है "सुंदरमित्र के कथनानुसार देवलोक स्थित प्रतिमाओ को तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी मान ले" परंतु उपर्युक्त प्रकार से डोशीजी के युक्ति व तर्कों पर विचार करने के पश्चात् देवलोक स्थित प्रतिमाओं को वास्तविकता से तीर्थंकर प्रतिमाए स्वीकारनी ही पड़ेगी।
डोशीजी के तथ्यहीन तर्कों से एक बाजू सांधे दूसरी बाजू टूटे जैसी स्थिति होती है, उसका उनको ख्याल ही नहीं रहा । उनका कहना है “प्रभु के रागी देवेन्द्र जैसे होने से रागभाव में आकर मूर्ति बनवा लें तो भी वह और उसकी पूजा, धर्म के शुमार नही हो सकती ।" परंतु खुद शास्त्र जगहजगह पर उन प्रतिमाओं को शाश्वत बता रहे है तो देवेन्द्र उसे बनवाएँ यह बात शास्त्रविरुद्ध सिद्ध होती है। अत: डोशीजी द्वारा स्वीकारी हुई जिनप्रतिमा, उनकी पूजापद्धति सभी शाश्वत है और "हियाए-सुहाए..." और नमुत्थुणं पाठ से धर्मकोटि में ही उसका समावेश है।
डोशीजी "कथाओं के प्रमाण उपादेय नही होते है" ऐसा जगहजगह पर लिखते विचार नहीं करते है की खुद सूत्र-आगम को ही अप्रामाणिक कर रहे है । क्या आप रायपसेणी इत्यादि सूत्रों को प्रमाण मानते हैं या नहीं ? जो मानते हैं तो ऊपर की बात बारंबार दोहराना श्रद्धा में संदेह व्यक्त कर रहा है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
८. दाढ़ा - पूजन - समीक्षा
इसमें डोशीजी की उत्सूत्र - प्ररूपणा पराकाष्ठा पर पहुंची है। वे लिखते है- ‘“जो इन्द्रादि देव तीर्थंकर की दाढ़ा लेते है तथा वंदनादि करते है वे आत्म-कल्याणार्थ नहीं न उनके इस कृत्य को शास्त्रकार ने आत्मकल्याणकारी माना है ।'' शास्त्र में सामानिक देवों के मुख से शास्त्रकार स्पष्ट रुप में फरमा रहे हैं " एयणं देवाणुप्पियाणं पुव्वि सेयं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पुव्वि पच्छावि हियाए सुहाए निस्सेसाए अणुगमित्ताए भविस्संति" इसमें स्पष्टरुप में दाढ़ापूजन को हितकारी, कल्याणकारी, मोक्षकारक माना है फिर भी डोशीजी ऐसे लिखने की हिम्मत करते है, आश्चर्य है !!
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"केई जिणभत्तीए केई जीयमेयं, केई धम्मत्ति कट्टु गेण्हंति" इस में भी डोशीजी ने चालाकी की है। इसमें वे एक हिस्से को ही धर्मकोटी मे ले जाना चाहते हैं, परंतु जिणभत्ती से दाढ़ा - ग्रहण करते हैं वह भी धर्म भावना ही है । अत: दो हिस्से धर्मभावना से ग्रहण करते हैं ऐसा शास्त्रकार स्पष्ट लिख रहे हैं और शास्त्रकारों ने उनकी वह भावना गलत है, मिथ्यात्व के घर की है, ऐसा कहीं पर भी नहीं बताया है । फिर शास्त्रवचनों का शास्त्रकारों के आशय से विरुद्ध अर्थ करके डोशीजी महाअनर्थ क्यों कर रहे है ?
ऊपर के पाठ में जहाँ शास्त्रकारोंने दाढ़ा पूजन को धर्म कोटी में गिना है, वहाँ डोशीजी कहते है " वास्तव में दाढ़ापूजन से धर्म का कोई संबंध नही है" क्या इस प्ररूपणा के लिये डोशीजी के पास कोई सूत्र प्रमाण है ? कहाँ से लावे ? उत्सूत्र कल्पनाओं में शास्त्रप्रमाण कहाँ से मिलेगा ?
जहाँ शास्त्रकार खुद दाढ़ापूजा बता रहे हैं वहाँ डोशीजी कहते है "अस्थिपूजा जैन समाज कों मान्य ही नहीं है" शास्त्रवचन को मिथ्या, अपनी मान्यता को सही करना चाहते है । इंद्रादि परमविवेकी देव धर्मबुद्धि से दाढ़ा लेते हैं, पूजते हैं वहाँ डोशीजी कहते है " जो धर्म मानकर ग्रहण करते
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हैं, पूजते हैं, उनकी मान्यता ठीक नहीं पाई जाती, वास्तव में यह भी राग का ही अविवेक हैं,"मानों की शास्त्र-शास्त्रकारों की आलोचना करके उनमें भूल निकालने का अधिकार किसी ने डोशीजी को सौंपा हों । खुद को परमविवेकी (?) मानकर इंद्रादि जो परमविवेकी हैं उनको अविवेकी मानने की बालचेष्टा भी वे कर रहे है । .. प्रभु की पवित्र अस्थियों को इंद्रादि देव रत्नडाभलों में रखते हैं, पूजते हैं उसको आप मिथ्यात्व क्रिया, जीताचार, रागभाव से की जानेवाली क्रिया बता रहे हैं । शास्त्र-शास्त्रकारों की भूलें निकालने का आपका स्वभाव ही हो गया है । अगर वह मिथ्यात्व क्रिया अप्रशस्त रागभाव प्रयुक्त क्रिया होती तो शास्त्रकार उसका फल संसारभ्रमण, दुर्गतिगमन इत्यादि बताते ! किन्तु उन्होंने हितकारी-कल्याणकारी, अंत में मोक्षकारक फल क्यों बताया ? __स्थानकवासी वर्ग वर्तमान में गुरू की अस्थियों के कुंभ उनकी बोलियाँ लगाते हैं । सांडेराव में "कमलविहारधाम" में कन्हैयालालजी-कमल का अस्थिकुंभ हैं । मेवाड-गोगुंदा में पुष्कर धाम में उपाध्याय श्री पुष्करजी की अस्थियों का कुंभ है, स्थानकवासी सतियाँ तिक्खुत्तो के पाठ से उन्हें वंदन भी करती है। और परमात्मा के दाढ़ा पूजन से द्वेष करते हैं । पक्षांधता की कोई सीमा है ?
प्रभु के शव को स्नान कराना, चंदन से चर्चित करना, वस्त्र अलंकार पहिनाना यह सब बेशक धर्मकरणी है । तीर्थंकर के स्थापना निक्षेप की तरह द्रव्य निक्षेप भी पूजनीय है । जो वस्त्राभूषण आदि भावनिक्षेप में नही थे वे द्रव्य-स्थापना निक्षेप में हो सकते हैं। सबके कल्प अलग-अलग हैं । यह बातें पहले कर चुके है। यह तो प्रत्यक्षसिद्ध भी है। स्थानकवासी आचार्यमुनि वगैरे मुनि अवस्था में स्नानादि नही करते, बेंड बाजे के साथ जुलूस उनके नही निकलते,उनके मृत्यु के बाद शव में यह होते ही है । श्री चंपालालजी महाराज को भी खींचन से पालखी मंगवाई उसमें बिठाकर २-४ बेंड के जुलूस के साथ ले जाया गया ऐसा सुनने में आया है । अहमदनगर में आचार्य आनंदऋषिजी की अंतिम क्रिया जुलूस के साथ बडे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ठाठ से हुई थी। निर्वाण महिमा करना इंद्रो का जीताचार है, यह जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में कहा है "वह क्रिया लौकिक जीताचार है' यह जो लिखते हैं वह किस सूत्र के आधार से ? वायुकाय आदि की विराधना करके प्रभु के पास जाकर वंदन वगैरह करके नाम-गोत्र कहते है, उसे आप धार्मिक जीताचार कहते है और इसे व्यावहारिक जीताचार इसके लिये शास्त्राधार क्या ? प्रभु के दीक्षा-केवलज्ञानादि कल्याणकों की महिमा भी क्या सांसारिक जीताचार होगा? उसे तो आप धार्मिक जीताचार ही कहेंगे, तो निर्वाणमहिमा सांसारिक जीताचार क्यों ? मध्यस्थ व्यक्ति को स्पष्ट रीति से समझ में आएगा कि डोशीजी मताग्रह से काल्पनिक अर्थ कर के सूत्रों को अपने तरफ खींचने की कोशिश करते है परंतु उसमें सफल नही हो पाते । आगे देखिये
सूत्र में "धम्मत्ति कटु" स्पष्ट पाठ है उसके प्रसिद्ध सर्वमान्य अर्थ को मताग्रह से बदलने की कोशिश करते है परंतु उसमें भी असफल है । ग्राम धर्म-देश धर्म मनुष्यों में होते है देवों से उसका संबंध नही है कुलधर्म तो जीताचार में ही आएगा । वह भी धार्मिक जीताचार ही मानना पड़ेगा । ___ सद्गुरु के समीप सूत्राशय समझने की डींगे लगाने वाले डोशीजी को किसी सद्गुरु ने "धम्मत्तिक?" में धर्म का अर्थ क्या है ? वह समझाया ही नहीं है यह बात मध्यस्थ सज्जन व्यक्ति के समझ अवश्य आएगी क्योंकि इस प्रकरण मे विशेषतः पृष्ठ ६४ पर सूत्र में आए धर्म शब्द का क्या अर्थ करना उस दुविधा में संदेहजन्य ही उस शब्द को अंत मे छोड़ दिया है । सही अर्थ करे, तो मूर्तिपूजा की सिद्धि होती है, उस जाल में से छूटने के लिये कल्याणकारी धर्म मानकर दाढ़ाओं की पूजा करनेवाले परमात्मा के भक्त ऐसे इंद्रादि सभी देवों को मिथ्यादृष्टि बना दिया है । मूर्तिद्वेष के दुराग्रह की कोई सीमा ?
आगे डोशीजीने चक्रवर्तियों की अस्थि, परमात्मा के शरीर की राख आदि को लेकर अनिष्ट आपत्ति दी है । वह समझे बिना, या तो जानबूझकर पाठ छिपाकर आपत्ति देते है । टीकाकार श्री स्पष्ट कर रहे हैं "योगभृत्तचक्रवर्ति" यानि चारित्रधारी चक्रवर्ती की अस्थियाँ देव ले जाते
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा है। उसमें दोष ही क्या है ? आपके गुरू की अस्थियाँ कलशों में रखकर पूजते हो उनसे तो चक्रवर्तियों का चारित्र कई गुणा अधिक होगा, यह तो आप भी मानेंगे ही न ?
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
९. भरतेश्वर के मूर्ति निर्माण की असत्यता
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समीक्षा
इसमें डोशीजी के तस्करवृत्ति का दर्शन होता है । मूलसूत्र की बाँगे लगानेवाले डोशीजी और इनके अनुयायी मूलसूत्र में नहीं हैं, ऐसी सैंकड़ों चरित्र कथाएँ इत्यादि सभी पूर्वाचार्यों के रचे हुए " त्रिषष्ठिशलाकापुरूष चरित्र" इत्यादि अनेक ग्रंथो से लेते हैं उनके आधार पर ही साहित्यरचना करते हैं और उन्ही में जब मूर्तिपूजा तीर्थ आदि का जिक्र आता है तो खुद
पकडे हुए कुमताग्रह से उन्हीं को " केवल औपन्यासिक ढ़ंग के कहानी ग्रंथ”, “पौराणिक-गपोडा" जैसे शब्दों का प्रयोग कर बदनाम करते हैं
1
इसके लिये इन्हीं के पूर्वाचार्य जवाहरलालजी महाराज के शब्द हम यहाँ पर उद्धृत करते हैं। वे भी ऐसी वृत्ति को क्या मानते हैं वह मध्यस्थ व्यक्ति समझ सकेंगे- ‘“चूर्णि (ग्रंथो) की आधी बात को मानना और आधी बात को नहीं मानना यह दुराग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है" सद्धर्ममंडन पृष्ठ ३६८
आगम में भी उत्तराध्ययनं - १०वां अध्ययन निर्युक्ति में गौतमस्वामीजी के अष्टापदयात्रा की बात की है "पडिमाओं वंदइ जिणाण" ||२९१॥ स्पष्ट है वह भी वहाँ पर मंदिर है तभी संभव है । भगवतीसूत्र शतक १४ उद्देशा ७ में गौतमस्वामी को प्रभु महावीर "चिरसंसिट्टोऽसिगोयमा चिरसंधुओऽसि गोयमा !. ." से जो आश्वासन देते है, वह बात और उसी प्रकार के शब्द उत्तराध्ययन निर्युक्ति में है । भगवतीसूत्र के उस सूत्र का संबंध और सही अर्थ उत्तराध्ययनिर्युक्ति- टीका को माने बिना बैठेगा ही नही ! उत्तराध्ययन टीका में स्पष्ट कहा है अष्टापद यात्रा के पश्चात् तापसों की दीक्षा के बाद समवसरण में प्रभु के पास आने पर, तापसों को केवलज्ञान हुआ है, यह जानकारी गौतमस्वामीजी को हुई । तब मुझे कब केवलज्ञान होगा यह बड़ी चिंता गौतमस्वामीजी को हुई । उनको आश्वासन के लिये प्रभु ने यह बात कही । पाठक समझ सकते है कि भरतेश्वर के अष्टापद मूर्ति-निर्माणादि माने बिना मूलसूत्र का संबंध अर्थ ही नहीं बैठ सकता । पूर्वचार्यों के ग्रंथो को 'पौराणिक गपोडे' आदि अभद्र शब्दों से बदनाम करके परमात्मा के आगम की आशातना का महापाप बाँध रहे है ।
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १०. श्रेणिक और मूर्तिपूजा → समीक्षा
इस प्रकरण में ज्ञानसुंदरजी ने बताए खंडगिरि-उदयगिरि शिलालेख की बातों को तो डोशीजी खा गए है। जिस लेख का विदेश और भारतीय विद्वान् पुरातत्वज्ञो ने १०० साल तक पूर्ण परिश्रम करके सर्वमान्य निर्णय करके निष्कर्ष निकाला जिसको देखकर विद्वान पुरातत्वज्ञ बडे प्रसन्न हुए, उस लेख की बाते जिस हिमवंत पट्टावली में है, अन्यत्र अनुपलब्ध दूसरी भी चंद्रगुप्त-सेल्युकस इत्यादि की बातें जो इतिहास ने प्रमाणित की हैं, ऐसी बातें जिस पट्टावली में हैं उस विद्वत्सभा में आदरपात्र प्रामाणिक पट्रावली के लिए डोशीजी लिखते है- "मूर्तिपूजकों में ही आदरपात्र और प्राचीन मानी जाती होगी ?" मताग्रह से खुद को भान ही नही कि विद्वानों को अप्रमाण करने जाते खुद का मत ही अप्रमाण काल्पनिक सिद्ध होता है । ___ जैसे सूत्र प्रमाण हैं वैसे सूत्रसंवादि दूसरे ग्रंथ-पट्टावलियाँ भी प्रमाण ही हैं । नंदिसूत्र में जिनका नाम है उन्हीं हिमवदाचार्य की पट्टावली अप्रमाण करने जाते तो आप सूत्र को ही अप्रमाण करते हो। ऐसे भी सूत्र के प्रामाणिकता की केवल बाते ही आप करते हैं जगह-जगह पर सूत्रों में मूर्तिपूजा की बाते आती हैं उनको अप्रमाण करके - अर्थ बदलने की चेष्टा करके वस्तुतः सूत्र को ही आप अप्रमाण कोटी में ले जा रहे हो । सूत्र में सभी वस्तु नहीं बताई जाती 'सूचनात् सूत्रम्' अनेक जगह पर केवल सूचन ही करते हैं । जैसे "सुवर्णगुलिका" प्रश्नव्याकरण में । उसका संदर्भ दूसरी जगह से ही प्राप्त होता है, उसको भी प्रामाणिक ही मानना चाहिए । नहीं मानो तो आप के मत में सूत्र का भी वास्तविक अर्थ-ज्ञान का अभावअधूरा ज्ञान ही सिद्ध होगा। क्योंकि स्थानकवासी पंथ ४००-५०० वर्ष से निकला हैं, अतः विशुद्ध परंपरा तो उनके पास हैं ही नही । मूर्तिपूजक के ग्रंथ-नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-टीका को ही आधारभूत गिनकर अर्थ करते हैं। उसी को मूर्ति की बात आने पर भांडते हैं । “निंदामि पिबामि च" न्याय का अनुसरण करते हैं, जो मध्यस्थ पर्षदा में हास्यास्पद है ।
श्रेणिक नरकगामी है, मूर्तिपूजा का फल स्वर्ग बताते है इत्यादि निरर्थक
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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आपत्ति देकर कागज काले किए हैं। सूत्र को संयम का फल सद्गति अंत में मोक्ष ही बताते हैं तो भी प्रसन्नचंद्र ऋषिने नरक के योग्य कर्म बांधे ही थे, और कुरुट- उत्कुरुट मुनि नरक में गये हैं। तो इसका जो समाधान हैं वही श्रेणिक में है । जिनपूजा आदि में पुण्यबंध होता ही है उस वक्त आयुष्य कर्म का बंध हो जाए तो सद्गति में ही जाएँगा, परंतु जब आयुष्य का बंध किया तब श्रेणिक अशुभ- अध्यवसाय शिकार में तल्लीन थे इसलिये नरकायु का बंध हुआ । सम्यग्दर्शन प्राप्ति के पूर्व ही श्रेणिक ने आयुष्य बंध किया था ।
पृ. ६९ पर डोशीजी मेतार्य मुनि की कथा के बारे मे लिखते है "यह कथा मूर्तिपूजक ग्रंथकारों की ही बनाई हुई हैं" यह मानते हुए भी मूर्तिपूजको को मान्य “राजा श्रेणिक ने स्वर्ण के जव मूर्तिपूजा के लिये सोनी के पास बनवाये थे'' इस बात को बदलकर कुयुक्ति लगाकर उसे आभूषणों के लिये बनवाने की कल्पना करते हैं। उन्हें आ. जवाहरलालजी द्वारा कही बात "ग्रंथ की आधी बात मानना आधी बात नहीं मानना दुराग्रह के सिवाय कुछ नहीं है" लागू पड़ती है । आगे डोशीजी कहते है " हमारे साधुमार्गी महात्मा भी शायद इसी को लेकर कुछ कथा करते हों" । इसमें संभावना बताई हैं वह गलत हैं उसी को लेकर ही कथा - चौपाइयां बनाते हैं ।
क्योंकि जिस पंथ के पास खुद का मौलिक साहित्य - आगमादि कुछ भी नही हैं, होंगे भी कैसे ? जिसकी उत्पत्ति ४००-५०० साल से हुई हैं, उनको मूर्तिपूजकों का ही साहित्य लेकर उसके ऊपर से कथा चौपाइयाँ बनानी पड़ेंगी । परंतु खेद की बात हैं उन मूर्तिपूजकों के मौलिक साहित्य में तस्करवृत्ति से मूर्तिविषयक पाठों को बदलकर ये लोग रचना करते हैं ।
जैसे आर्द्रकुमार को अभयकुमार ने जिनप्रतिमा (मूर्ति) भेंट भेजी थी जिससे उसको जातिस्मरणज्ञान व बोधिलाभ हुआ था सूयगडांग सूत्र २ श्रुतस्कंध, छट्ठा अध्ययन में कही है
यह बात श्री
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* पीत्तीय दोहदुओ, पुच्छणमभयस्स पत्थवेसोउ । तेणावि सम्मदिद्वित्ति होज्ज पडिमारहमि गया ।
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यथा
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दटुं सम्बुद्धो रकिखओ य................ *
इसका अर्थ सभी स्थानकवासी संत जिन मूर्ति की बात आयी इसलिए असत्य-गलत करते हैं - वे ऐसा लिखते हैं कि - "अभयकुमार ने अनार्य देशस्थ अपने पिता के मित्र अनार्य नरेश के राजकुमार आर्द्रक को धर्मप्रेमी बनाने के लिए धर्मोपकरण की भेंट भेजी ।" । आ० हस्तीमलजी जैनधर्म का मौलिक इतिहास-खंड-१,
- पृ.३० पृ. ७१ पर डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के "भगवान् महावीर ने श्रेणिक के मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया इसलिये भगवान् मूर्तिपूजा से सहमत थे" इस तर्क का खंडन करते कहते हैं "जब श्रेणिक मर्तिपूजक नहीं. तो फिर भगवान् मूर्तिपूजा से उसे रोके किस प्रकार ?' खारवेल शिलालेख से निकली कलिंग जिनप्रतिमा से भारतीय और विदेशी सभी विद्वानों को इसकी तसल्ली हो गई है कि श्रेणिक मूर्तिपूजक था दूसरी बात, सूर्याभदेव-विजयदेव इत्यादि देव और अनेक इंद्र जो परमात्मा के भक्त हैं और मूर्तिपूजक हैं - उसे सूत्र बता रहे हैं, उनको परमात्माने क्यों नही रोका, उनके आगे मूर्तिपूजा के पाप का उपदेश क्यों नही दिया ? इस बारे में डोशीजी ने विचार ही नही किया ?
संस्कृत के अनभिज्ञ लोगों को डोशीजी प्रतिमाशतक का श्लोक देकर भ्रमित कर रहे है । उनमें उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी म. ने स्पष्ट कहा है 'प्रतिमार्चनादि गुणकृत् मौनेन संमन्यते' इस श्लोक का अर्थ प्रभु सावद्य होने से साक्षात् आदेश नही देते हैं कितु मौन से उसकी सम्मति देते हैसमर्थन करते है। तो ज्ञानसुंदरजी म. ने जो बात कही, वही बात उपाध्यायजी म.ने कही है । विरोध कहाँ पर है ?
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ११. चंपानवारी और अरिहंत चैत्य → समीक्षा
इसमें डोशीजी पाठांतर शब्द के सही अर्थ से खुद अज्ञान हैं अथवा भोले लोगों को जानबूझकर भ्रम में डाल रहे है । 'अन्यः पाठः पाठान्तरम्' यह पाठांतर का अर्थ व्याकरण के जानकार सुज्ञ लोग अच्छी तरह से जानते हैं । डोशीजी इसका अर्थ जनमानस पर, 'प्रक्षिप्त किया हुआ घालमेल किया हुआ पाठ' ऐसा थोपना चाहते है वह बराबर नहीं है । पाठांतर के बारे में पूर्व में हमने बताया ही है। स्थानकवासी पंथ के जन्म के पर्व की बहुत सारी हस्तप्रतियों में अलग-अलग पाठ मिलते हैं, टीकाकारों के सामने भी ऐसे अनेक पाठ थे, टीकाकारों ने भी पाठांतरो की टीका की हुई है, इससे सिद्ध है मूर्तिविषयक पाठों का किसीने घालमेल नही किया है । स्थानकवासी मत की उत्पत्ति ही नहीं थी, तो ऐसे पाठों को कोई जोड़े ही क्यों ? यह तो "चोर कोतवाल को डंडे' जैसी बात है अनेक स्थलों पर स्थानकवासी संतोने पाठ निकाल दिए - बदल दिए (देखिये - 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास', 'लौं कागछ और स्थानकवासी', 'उन्मार्ग छोड़िए, सन्मार्ग भजिए') उसका आरोप मूर्तिपूजकों पर थोप रहे है ।
. कदाग्रह से डोशीजी चैत्य का अर्थ नाट्यभूमि-टाउन हॉल इत्यादि कर रहे है जो अप्रमाणिक अर्थ है ।
चंपानगरी का वर्णन सूत्रकार कर रहे है उसमें यह जरूरी नहीं की पूर्वपद का उत्तर पद के साथ संबंध होना ही चाहिये ।
“आचारवंत चेइयजुवइविविहसंनिविट्ठबहुल" इसमें लाघव से बहुल शब्द का दो बार उपयोग न हो इसलिए सामासिक एक पद दिया है। चैत्य भी अनेक हैं, पण्यतरुणीयों के सन्निवेश भी अनेक हैं यह भाव है, इसमें चैत्य का संबंध पण्यतरुणीयों के साथ जोडना छलना है। अगर सभी जगह संबंध ही हो तो पहले दिए "गोमहिस-गवेलगप्पभूती का चैत्य अथवा पण्यतरुणी के साथ क्या संबंध?
पाठांतर भी पाठ ही है। यह मध्यस्थ मनीषी समझ सकते हैं इसलिये
१. इसके लिये देखिये (२०) द्रौपदी और मूर्तिपूजा-समीक्षा में उदंगसुत्ताणि खंडी सम्पादकीय का पाठ ।
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खुद टीकाकार भी " अरिहंतचेईयजणवयविसण्णिविट्ठ बहुल" इस अन्य प्रति में प्राप्त पाठ को प्रमाण गिनते हुए आज से १००० वर्ष पूर्व इसकी व्याख्या करते हैं, जब स्थानकवासी मत निकला ही नहीं था, मूर्ति का विरोध ही नहीं था ।
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टीकाकार आगे दूसरा भी पाठांतर देते हैं 'सुयागचित्तचेईय-जूयसंणिविट्ठ बहुल" उसका भी अर्थ करते हैं, उससे डोशीजी को कोई संबंध नहीं है उसमें मूर्तिपूजा की बात नहीं इसलिए उसकी स्पर्शना नही की है, परंतु उसको देखने से स्पष्ट होता है निष्पक्ष रीति से जो जो पाठ १००० साल पटले टीकाकारों को मिले उन पर उन्होंने टीका की है। ऐसे अनेकानेक पाठ टीका में हैं, जिनका मूर्तिपूजा से कोई संबंध नहीं, उनकी भी टीका टीकाकारों ने की हैं। उससे स्पष्ट होता है कि कोई भी अलग आशय से पाठों में पूर्वकाल में घालमेल नहीं करते थे, जैसे वर्तमान में स्थानकवासी संतो ने आगमों में की है ।
दर्शनविजयजी ने कोई आगम छपवाकर उसके पाठ में फेरफार किया ही नही है । ऐसे भी "अरिहंतचेइय" वाले पाठ में युवती शब्द है ही नहीं, जो टीका से स्पष्ट है । अतः दर्शनविजयजी पर कलंक
लगाना सज्जन का काम नही है ।
अमोलक ऋषिजीने अमृतचंद्रसूरि के टब्बे के आधार पर टब्बा लिखा और मूर्ति की बात को टीप्पण में डाली उसके लिए ज्ञानसुंदरजी का उल्लेख उचित ही है । जिसका आधार लेते है उससे अपनी मान्यता को बाधा पहुंचने पर पाठ को निकालना, स्थानांतर करना सज्जनता नहीं कहलाती है ।
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११. पूयणवत्तियं → समीक्षा इसमें अर्थ में ज्ञानसुंदरजी की स्खलना हुई हो ऐसा लगता है। परंतु, विजयानंदसूरिजी ने सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ. १०३ में जो लिखा है वह बिलकुल सही है। भाव तीर्थंकर की उचित भक्ति होती है, स्थापना तीर्थंकर की सत्रह प्रकार पूजा आदि होती है ।
समवसरण में पुष्पवृष्टि को डोशीजी जो अचित्त सिद्ध करने की कोशिश कर रहे है वह केवल मताग्रह है, इसलिए सूत्रों के अर्थों को पलटने की चेष्टा कर रहे है । रायपसेणी सूत्र में जलज-स्थलज शब्द हैं उनको उपमा वाचक किस आधार से कहते है ? पुरिससीहाणं आदि पदो में उपमानोत्तरपद कर्मधारय समास है जिससे स्पष्ट ही है वे उपमाएँ हैं । जलज-स्थलज में तत्पुरूष समास हैं ये शब्द उपमा वाचक कैसे बन सकते हैं ? "पुप्फवद्दलए" सूत्र में शब्द हैं उसका अर्थ टीका में पुष्पवृष्टियोग्यानिवार्दलकानि = पुष्पवृष्टि योग्य बादल-इसका अर्थ होता हैं - पुष्पों की वृष्टि कर सके ऐसे बादलों की विकुर्वणा की पुष्प तो जलज-स्थलज सचित्त औदारिक ही थें । पुष्पों की विकुवर्णा की ऐसा मान भी लो तो भी जलज-स्थलज शब्द बता रहे हैं सचित्त पुष्पों की विकुवर्णा की । देव अपनी शक्ति से सचित्त बना सकते हैं जैसे श्रेणिक महाराज को सर्व-ऋतु में फल लगे, ऐसा बगीचा बनाकर दिया था ।
जीवाभिगम-३, प्रति-२, उद्देश सू. २१७ में - "एगत्तं विउव्वेमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिंदियरुवं वा, पुहुत्तं विउव्वेमाणे, एगिदियरुवाणि वा जाव पंचिदियरुवाणि वा" पाठ से भी सचित्त पुष्पों की विकुर्वणा सिद्ध
समवायांग-३४, समवाय में-"जलथलयभासुर पभूतेणं बिटट्ठाइणा दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहधमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ ।" स्पष्ट पाठ है यहाँ पर विकुर्वणा की बात नहीं है और सचित्त फूल ही बताए हैं । समवायांग भाषांतर युवाचार्य मिश्रीमलजी म.एवं कन्हैयालालजी (कमल)
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श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री का है उसमें "जल और स्थल में खिलने वाले पांच वर्णों के फूल'' ऐसा स्पष्ट लिखा हैं, वहाँ पर अचित्त शब्द का प्रयोग नहीं किया है ।
" समवसरण के फूलों की सचित्तता के विषय में तो स्वयं मूर्तिपूजक विद्वान् ही अभी तक एक मत नहीं हैं" यह डोशीजी की बात सत्य से परे है । मूर्तिपूजक सभी सचित्त मानते ही । प्रवचन सारोद्धार की बात अधूरी और गलतरीति से डोशीजी ने पेश की है। प्रवचन सारोद्धार में कोई मत बताया नही है किंतु केवल शंका और उसके अलग-अलग समाधान देकर अंत में सकलगीतार्थसम्मत उत्तर दिया है । डोशीजीने जानबूझकर इसका उल्लेख नहीं किया है । प्रवचन सारोद्धार में वहाँ पर कहा है " समवसरण में सचित्त पुष्प होने पर भी तीर्थंकर के अचिन्त्य प्रभाव से पुष्प के जीवों को कोई पीड़ा नही हो पाती है, परंतु मानो अमृतरसका सिंचन हो रहा हो ऐसा आनंद उनको होता है ।" सेन प्रश्न में सचित्त-अचित्त दोनों प्रकार के पुष्प माने हैं तो उसमें सचित्त तो बताए ही हैं। अमुक पुष्पजीवों का आयुष्य पूर्ण होने से अचित्त भी हो सकते हैं । वैसे शास्त्र में 'बिटम्मि मिलाणम्मि' वगैरह अचित्त फूल के लक्षण बतायें हैं । ऐसे अचित्त पुष्प भी शामिल हो सकते हैं । अत: उस अपेक्षा से सचित्त - अचित्त दो प्रकार के फूल बताये हैं, वे सभी सम्मिलित ही होते हैं ।
समवसरण में बरसाए जाने वाले फूल सचित्त ही थे फिर भी एक
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बार मान लिया जाए - तुष्यतु दुर्जन न्याय से कि - भगवान के समवसरण में जो फूल देवों द्वारा बरसाए जाते थे, वे अचित्त थे । फिर भी - फूलों का आकाश से गिरने से वायु के जीवों की विराधना हुई या नहीं ? इसे भगवान ने क्यों बंद नहीं करवाया ? इसी प्रकार चंवर ( चामर) दुलाने पर भी वायुकाय जीवों की हिंसा हुई या नहीं ? यदि हिंसा हुई तो फिर भगवान ने क्यों नहीं रुकवाया ?
सत्य यह है कि- भगवान स्वयं जानते हैं कि ये तीर्थंकर की भक्ति का विषय है, इसमें भक्तिभाव - शुभभाव ही महत्वपूर्ण है । और भक्त देव
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या गुरु की कुछ भी भक्ति करेगा उसमे अनिच्छा होने पर भी हिंसा हो ही जाती है, जैसे- गुरु को वोहराना, गुरु की फोटो बनवाना, गुरु को बस
के द्वारा वंदन करने जाना
इत्यादि.
-
"सम्यक्त्व शल्योद्धार" में विजयानंदसूरिजी ने हिंसा को जीवदया का जामा नही पहनाया हैं परंतु सत्य बात बताई है । अति स्पष्ट है की वेश्या शय्या में फूल बिछावें, व्यसनी गजरे हार बनावे, धनी स्त्रियों के सिर गूंथे जाटा, इत्र में विडंबना हिंसा हो, इन सबकी अपेक्षा प्रभु प्रतिमा के ऊपर उसको अभयदान ही मिलता है, भक्ति भी होती है । डोशीजी माली से फूल खरीद करवा कर अधिक हिंसा बता रहे हैं, उस कुतर्क का उत्तर इस प्रकार लिखते है – ‘“माली का धंधा अधिक चलेगा वो अधिक फूल पैदा करेगा "
आप
-
यह बात बराबर नही है फूलो के पौंधो से भरे बगीचे में अधिक पौधे कैसे बो सकता है ? और फूल कृत्रिम पेदाइश नहीं है जिससे अधिक पैदा कर सके? माली के खुद के बगीचे में जितने फूल आते हैं उतने ही आएँगे । माली की ताकत नही है, वह ज्यादा फूल पैदा करे, फूलों का उगना माली के हाथ की बात नहीं है । उसके पुण्य के हिसाब से ही उसे फूलों की प्राप्ति होगी ।
रक्षक सो भक्षक, कहावत तो डोशीजी को ही लागू होती है मूर्ति पर फूलों की रक्षा के बदले मूर्तिपूजा का विरोध कर उन बेचारे फूलों का भोग में विनाश एक गति ही रहेगी जो दोष डोशीजी को लगेगा ।
-
पृ. ९० पर पत्रबेल, रचना, कदलीघरादि महापूजा इत्यादि बताएँ हैं ये सब भक्ति के प्रकार हैं । कूपदृष्टांत से जयणापूर्वक करते भी जो हिंसा होती हैं उसका शोधन भक्ति भाव से प्रगट विशिष्ट भावनादि के पुण्य से हो जाता है । जैसे चातुर्मास में वाहनों में बैठकर गुरुवंदनार्थ जाते स्थानकवासी भाईयों के मन में 'पाप कर रहा हूं' ऐसे भाव नहीं होते है, न उनको गुरू रोकते हैं क्योंकि जो हिंसा हुई उसकी अपेक्षा गुरूवंदन-प्रवचनश्रवण आदि से विशेष लाभ होना आप मानते है, बस, यह प्रकार प्रभु भक्ति में समझना ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा इसी प्रकार - गुरु के उपदेश से स्थानकवासी लोग स्थानक बनवाते ही है, उसमें मिट्टी खुदाई, पानी आदि का बड़ा आरंभ-समारंभ होता ही है, तो भी स्थानकवासी संत इसे करवाते ही हैं।
____ फूलों की हिंसा की तुलना डोशीजी पंचेन्द्रिय यज्ञ हिंसा से करते है। पक्षांघता की चरम सीमा है । यज्ञ की आग में पशु ज्यादा पीड़ा पाकर मरेगा ही और न वह स्वर्ग में भी जाएगा यह तो डोशीजी खुद भी मानते है तो भी व्यर्थ का कुतर्क दे रहे है ।
जैन तत्त्वादर्श के "जीवअदत्त" का पाठ अस्थान में हैं, जीव अदत्त वगैरह दोष साधु के लिए हैं वे उसका त्याग करते ही हैं, गृहस्थ त्याग नहीं कर पाते हैं । जिनपूजा का विधान गृहस्थ के लिये ही है। इसलिए डोशीजी का उठाया विरोध भी अस्थान में है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १३. चमरेद्र और मूर्तिपूजा का शरण → समीक्षा
इसमें डोशीजी ने उत्सूत्र प्ररूपणा की हद कर दी है। मध्यस्थ व्यक्ति ज्ञानसुंदरजी और डोशीजी दोनों का मिलान करके पढ़े तो उसे स्पष्टतया पता चलेगा की डोशीजी ने सूत्रों को तोड़-मरोड़कर गलत अर्थ किये हैं, डोशीजीने इसमें (पृ. ९३ पर) अनेक करतूते की हैं सूत्र में पहले दिए पाठ को बाद में देते है, बाद के पाठ को पहले बताते है । पहले दिए पाठ के आधार पर आगे का संबंध जोड़ा जाता है। बाद के सूत्र के आधार पर प्रथम के सूत्र के अर्थ को बदलने की चेष्टा डोशीजी कर रहे है। और कोई भी प्रमाण बिना गणधर प्रणीत सूत्रों पर प्रक्षेप होने के आक्षेप लगाते है । ज्ञानसुंदरजी के अर्थ युक्तियुक्त है।
देखिए पृ. ९३ पर - "तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराणय अच्चासायणाए ।" यह सत्र का एक अंश लिया जिसको पूर्व से संबंधित सूत्र, से तोडकर उसका अर्थ कर रहे है और पूर्व के पाठ को तोडकर अलग रीति से पेश करते है । जब की - णण्णत्थ अरिहंते वा, अरिहंत चेइयाणि, वा अणगारे वा भाविअप्पणो णीसाए, उड्ढे उप्पयइ, जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारुवाणं अरहंताणं भगवंताणं, अणगाराण य अच्चासायणाए.....। यह पूर्ण पाठ पूर्व सूत्रांश से संबंधित है । इसमें तं महादुक्खं... की संस्कृत छाया तत् (=तस्मात्) महादुक्खं' इस प्रकार होगी, तत् शब्द कारण अर्थ में है उसका अर्थ 'उस कारण से' होला है। इसमें पूर्व में अरिहंत-अरिहंत चैत्य (मूर्ति) - भावित अणगार तीन की निश्रा से ऊपर स्वर्ग में जाना शक्य बताया है, निगमन में अरिहंत-अणगार दो ही बताएँ इसका समाधान सन्मति से तो यह ही शक्य है, अरिहंत और अरिहंत चैत्य (प्रतिमा) को एक सा मानकर यह निगमन किया है इसमें और आगम भी प्रमाण हैं । रायपसेणी सूत्र में जिनप्रतिमा को जिनेश्वर देव के समान गिनकर 'धूवं दाऊणं जिणवराणं' पाठ दिया है । वहाँ पर बात जिनप्रतिमा पूजन की चल रही है । इससे स्पष्ट होता है कि निगमन वाक्य में अरिहंत-अरिहंत प्रतिमा दोनों को एक से माने हैं । तभी
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___ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सूत्र घट पाता है, अन्यथा प्रथम विचार में तीन के शरण का विचार, बाद में दो की ही आशातना क्यों बताई ? तीन की क्यों नहीं बताई ? 'यथोद्देशेन निर्देशः' उद्देश के समान ही निर्देश होना चाहिए, फर्क कैसे? इसका समाधान मिल नहीं पाता है।
इसके खंडन में डोशीजी द्वारा दिये कुतर्क पर विचार करे तो पहले भारतवर्ष में भाव तीर्थंकर नहीं थे अतः यहाँ पर द्रव्य तीर्थंकर भगवान् महावीर के शरण में आये यह बात गलत हैं चूंकि भरत में नहीं तो महाविदेह में तो भाव तीर्थंकर थे । ही उनकी शरण क्यों नहीं ली ? चमरेंद्र को भरतक्षेत्र में होकर सौधर्म देवलोक में जावे या महाविदेह में होकर जावे कोई अन्तर (फर्क) नही पडता । तो फिर वह भाव जिन को छोड़कर द्रव्यजिन की शरण में क्यों आया? इसका कारण-चमरेंद्र नया उत्पन्न हुआ है थोड़ी ही देर पूर्व वह भरतक्षेत्र में था वहीं पर उसने साधना की थी अत: पूर्वभव की जन्मभूमि के ममत्वभाव से - पूर्व भव के संस्कारों के कारण उसने भरतक्षेत्र का अवधिज्ञान से निरीक्षण किया? और वहाँ पर भगवान् महावीर को देख उनकी शरण स्वीकार ली । डोशीजी के हिसाब से भरतक्षेत्र में भाव तीर्थंकर न होने से द्रव्य तीर्थंकर (प्रभु महावीर) की शरण ली। उसका मतलब उनके हिसाब से अपवाद रुप में उनकी शरण ली यह बात सूत्र विरुद्ध है। देखिये - शरण लेकर चमरेंद्र आया है, सौधर्मेंद्र को पता भी नही यह किनकी शरण लेकर आया है, और तीन की शरण से ही आ सकता हैं यह विचार सौधर्मेंद्र का है चमरेंद्र का नही । तो डोशीजी के हिसाब से आपवादिक रुप से जो चमरेंद्र भगवान् महावीर का शरण स्वीकार कर यहाँ आया उसका विचार सौधर्मेंद्र को कैसे आ सकता है ? सौधर्मेंद्र के विचार तो औत्सर्गिक शरण को ही बता रहे है । यह औत्सर्गिक शरण का पाठ भगवती सूत्र, शतक ३, उद्देश २, मे इस प्रकार है "एवामेव असुरकुमारा वि देवा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाणि वा अणगारे वा भाविअप्पणो निस्साए उड़े उप्पयंति ।" इसमें गणधर भगवंतो के प्रश्न के उत्तर में साक्षात् परमात्मा महावीर असुरकुमारों की शाश्वत स्थिति को बताते है कि, अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के बाद ऐसा आश्चर्य होता है असुरकुमार देव सौधर्मकल्प तक जाते हैं, वह
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भी अरिहंत-अरिहंत प्रतिमा- भावित अणगार की निश्रा (शरण) लेकर ही जा सकता है। यह सूत्र का भाव है । अब विचार कीजिए यह शाश्वत स्थिति सूत्र में बताई है अनंत - अनंत काल के बाद जब-जब ऐसा आश्चर्य होता है तब-तब वे तीन का शरण लेकर ही जा सकते हैं । इस शाश्वत स्थिति का ही सौधर्मेंद्र ने विचार किया है, अत: औत्सर्गिक शरण का ही, मतलब कि अरिहंत, अरिहंत प्रतिमा सुसाधु के शरण का ही विचार किया है, यह सिद्ध होता है ।
इससे सिद्ध होता है कि जो लाभ भावजिन से हो सकता है वह द्रव्यजिन और स्थापनाजिन से भी हो सकता है। इसमें सूत्र खुद ही साक्षी है । 'अरिहंत चेइयाणि' का अर्थ जिनप्रतिमा ही होगा ।
अब 'अरिहंत चेइयाणि' का वे छद्मस्थ अरिहंत अर्थ करते है जो शास्त्र व्याकरण आदि से विरुद्ध है । " चैत्य" शब्द का अर्थ छद्मस्थ किसी भी व्याकरण कोश - शास्त्र आदि से सिद्ध नही हो सकता, तो यह मनमाना शास्त्रपाठों का अर्थ डोशीजी किस आधार पर करते है ? केवल कल्पना से ही यह अर्थ किया गया है, वह भी अपनी मिथ्या मान्यता कि पुष्टि के लिए ।
जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति मूलसूत्र में परमात्मा के जन्माभिषेक के वर्णन में जगह-जगह पर द्रव्य तीर्थंकर के लिए तित्थयरा तित्थयरं, तित्थंयरस्स, तित्थयरमायाए, धूवं दाऊण जिणवराणं इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है, एक भी स्थान पर छद्मस्थ तीर्थंकर के लिए अरिहंत चेइयं - अरिहंत चेइयस्स आदि शब्द प्रयोग नहीं हुआ है, तो अपनी शास्त्र विरुद्ध मान्यता की पुष्टि के लिए शास्त्रपाठों के जानबूझकर अर्थ बदलकर उत्सूत्र प्ररूपणा से आत्मा को पापों से भारी क्यों बनाते हैं ?
डोशीजी के एक और कुतर्क पर विचार करेंगे - "मूर्ति की शरण ही चमरेंद्र को इष्ट होती तो वह उसी निकट में रहे सौधर्म देवलोक की शाश्वती प्रतिमा छोडकर अत्यंत दूर प्रभु महावीर के आश्रय में क्यों जाता ? इसका उत्तर - चमरेंद्र पूर्व भव में पूरण नाम का तापस था, कठिन ऐसे बालतप के प्रभाव से चमरेंद्र रुप में उत्पन्न हुआ अभी तक सम्यक्त्व से रहित है ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा शकेंद्र से लडाई का सोचता है- फिर शरण का सोचता है अवधिज्ञान से भगवान् महावीर को काउस्सग ध्यान में देखता है । उस वक्त तक भी यह भगवान् महावीर को साधारण महात्मा जैसा ही समझता हैं, न तो वह तीर्थंकर प्रभु के बारे में कुछ जानता है न उसको तीर्थंकरत्व के प्रति कोई श्रद्धा या भक्ति है । तीर्थंकर के प्रति कोई जानकारी न होने से उनके सिद्धांत के बारे में तीर्थंकर प्रभु की प्रतिमा के प्रभाव के बारे में सर्वथा अनजान है । तो वह सौधर्म देवलोक की शाश्वत प्रतिमा के शरण में कैसे जा सकता है ? ___आगे डोशीजी ने अंतर में भरे द्वेष के विषोद्धार स्वरुप 'मूर्ति स्वयं अपना ही रक्षण नही कर सकती, बेचारी को ताले में बंद रहना पडता है आदि पिटी-पिटाई बातों का पुनरावर्तन किया है । उसका जवाब-चमरेंद्र ने जिनका शरण स्वीकार किया उन तीर्थंकर प्रभु को कानों में कीले ठोकने, पावों में खीर पकाना वगैरे अनेकानेक उपसर्ग छद्मस्थ अवस्था में हुए तो क्या वे शरणयोग्य नही बने ? उनके शरण में चमरेंद्र गया वह तो सूत्र ही बता रहे हैं । तो ऐसे कुतर्क देकर भोले लोगों को क्यों भ्रमित किया जाता है ? अत: यह सिद्ध होता है कि छद्मस्थ जिन खुद की रक्षा भले न करे फिर भी उनके अचिन्त्य प्रभाव से शरण स्वीकारने वालों को शरण प्राप्त होती ही है, वैसे ही जिनप्रतिमाओं में समझना । जैसे आगम का पुस्तक, स्वयं अशरण है, ताले आदि में रखा जाता है, फिर भी प्रबुद्ध-सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को सच्चा ज्ञान देता ही है।
डोशीजी कुतर्क खुद करते है और "चोर कोटवाल को डांटे' की नीति अपनाकर ज्ञानसुंदरजी के ऊपर दोषारोपण कर रहे है । ३३ आशातना में अरिहंत प्रतिमा अरिहंत में ही आएगी यह उत्तर खुद ने पीछे दे दिया है
और खुद ही प्रश्न पूछ रहे है ? पीछे अरिहंत शब्द में ही मूर्ति मानने को जो पक्ष व्यामोह कह रहे है वह अनुचित है वास्तव में खुद ही पक्ष व्यामोह में हैं, चूंकि पीछे हमने "धूवं दाऊण जिणवराणं" रायपसेणी के पाठ से सिद्ध किया है कि स्थापना का कथंचित् अभेद मानकर जिनप्रतिमा को जिन के समान मानकर ही यह प्रयोग हुआ है । अतः 'अरिहंत' में 'अरिहंत
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रतिमा' का समावेश आगम मान्य है। आगे 'चत्तारि शरणं पवज्जामि... में भी यही समाधान समझें ।
डोशीजी को खुद को भी खुद के काल्पनिक अर्थ से मन में शंका तो है ही अतः "उक्त शब्द का मूर्ति अर्थ मान भी ले तो भी' कहते हैं "इसमें आत्मिक कल्याण मानना तो सचमुच विचार शून्यता हैं ।" ऐसा कहना नितान्त विचार शून्यता है चूँकि जिस के प्रभाव से देवेन्द्र जैसे भौतिक विश्व में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को हतप्रभ होना पड़े, जिनके दाढाओं के प्रभाव से भी देवलोक में शान्ति व्याप्त हो जाती है, जिनकी पूजा को शास्त्र निःश्रेयस - परंपरा से मोक्ष का कारणभूत बता रहे हैं, उनको आत्मीय कल्याण का कारण न मानना विचार शून्यता ही है ।
नीचे टिप्पण में डोशीजीने "चोर कोतवाल को डांटे" नीति अपनाकर पाठ प्रक्षेप के आक्षेप, तीन स्थलो की चालाकियाँ पकडी गई आदि प्रमाणहीन-तथ्यहीन बातें लिखी हैं, उनके प्रमाण दिये होते तो उस पर विचार कर सकते थे। उपासक दशा उववाई-अंबड अधिकार की कौनसी प्राचीनतम प्रति के आधार से आप ये बात लिख रहे है ? वे कौन से ज्ञान भंडार की, कौन से नंबर की हैं ? उल्लेख किये बिना आप जैसों की बातों पर कोई भी विचारशील सुज्ञ विश्वास नही रखेगा। हाँ आपके दृष्टिरागी भाईबंधु विश्वास रख सकते हैं। __देखिये - आप के प्रामाणिक संत विजयमुनिशास्त्री अमर भारती (दिसंबर १९७१ पृ. १४) में लिखते हैं - "पूज्य श्री घासीलालजी म. ने अनेक आगमों के पाठों में परिवर्तन किया हैं, तथा अनेक स्थलों पर नये पाठ बनाकर जोड दिये हैं । इसी प्रकार पुष्प भिक्षुजी म. ने अपने द्वारा संपादित सुत्तागमे में अनेक स्थलों से पाठ निकाल कर नए पाठ जोड दिये हैं । बहुत पहले उदयचंद्रजी महाराज पंजाबी के शिष्य रत्नमुनिजी ने भी दशवैकालिकादि में सांप्रदायिक अभिनिवेष के कारण पाठ बदले हैं।" अभी कोई संदेह हैं इस विषय में ? पुष्प भिक्षु के तस्करवृत्ति के लिये देखिये"लोंकागच्छ और स्थानकवासी" पुस्तक में पृष्ट-६३ से पृ. ७१ (लेखक
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पं. श्री कल्याणविजयजी) और हिण्डौनसीटी कपूरचंद-जैन द्वारा प्रकाशित "उन्मार्ग छोड़िये सन्मार्ग भजिये' पुस्तिका ।
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- चन्द्रकिरणे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१४. देवाणं आसायणाए → समीक्षा इसमें यद्यपि देवताओं का अस्तित्व अस्वीकार, अवर्णवाद देवो की आशातना है, तथापि उपलक्षण से देव-देवी प्रतिमा की आशातना का भी इसी में समावेश होगा, स्थापना सत्य के हिसाब से देव की मूर्ति की आशातना भी देव की आशातना ही गिनी जाएगी । तुम्हारे पिता के चित्र को वंदन करो, अगर नमस्कार न करो तो "पैरों तले रोंदो" यह कुतर्क नहीं है । क्योंकि आपके हिसाब से पिता का चित्र पूजनीय नहीं है । पिता से उसका किसी प्रकार का संबंध नहीं है, वह जड़ है । तो जड़ पत्थर को पैरों तले रोंदने में आप हिचकिचाते नही है तो चित्र भी उसके समान है उसमें हिचकिचाहट क्यों ? और उसके बचाव में चेतन का दृष्टांत देकर लोगों को क्यों भ्रम में डालते हो ? दृष्टांत दार्टीतिक दोनो में समानता नहीं है, चित्र जड़ है, विपरीत श्रद्धान्वाला पुरूष चेतन है । इसलिए खंडन में दिया हुआ दृष्टांत कुतर्क है, भ्रम में डालने के आशय से दिया है ।
जड़ की समानता जड़ से है । चित्र को जड़ मानो अथवा जड़ पत्थर के समान मानो तो दृष्टांत इस प्रकार होगा - "यह पत्थर है इसे नमस्कार करो अथवा पैरों तले रोंदो सामनेवाला पैरो तले रोंदने में किसी भी प्रकार से हिचकिचाहट नहीं करेगा? अब सोचिए कुतर्क कौन सा, मूर्तिपूजकों का ऊपर दिया हुआ या आपने खंडन मे दिया हुआ ? उस तर्क का उत्तर स्थानकवासी दे ही नहीं पाएंगे । क्योंकि स्थापना निक्षेप की किसी न किसी रूप से श्रद्धा सबके दिल में है, स्थानकवासी संत आगमदिवाकर श्रीचौथमलजी म.के ग्रुप की फोटो पत्रिका में घोषणा कर के बाटी गई थी। आज भी स्थानकवासी संत अपनी फोटो-फोटो वाले लोकेट अपने भक्तों में चाव से बाँटते हैं । विरोध सिर्फ जिन भगवान की फोटो-आकृति-मूर्ति से ही है, ऐसा क्यों ? भले वह मुंह से ना बोले परंतु उनका हृदय इन्कार नहीं कर सकता ।
उदयपुर से चिंतित मुद्रावाले स्थानकवासी मुनि के चित्र वाली कोई पुस्तिका बाहर पड़ी, जिससे स्थानकवासी समाज में खलबली मच गई ऐसा सुना है । उसमें चित्र पूज्यं नही है, जड की कोई असर नही होती है इत्यादि
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
रटन करनेवाले स्थानकवासी समाज की असलीयत बाहर आ गई " निंदामि च पिबामि च'' कहावत का अनुसरण स्पष्ट दिखाई दिया। श्री दशवैकालिक सूत्र में स्त्री की प्रतिकृति भी देखने की साधु को मनाई कर स्थापना निक्षेप के शुभाशुभ प्रभाव को स्पष्ट रुप से प्रतिपादित किया गया है ।
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आगे डोशीजी कहते है “हम भी मूर्ति को वंदन नमस्कार नहीं करते हैं, उसी प्रकार अपमान भी नहीं करते हैं ।" यह कथन सत्य से परे है जिस प्रतिमा को अनेक भक्तहृदय परमात्मस्वरूप मानते हैं, पूज्य मानते हैं उसके लिये पृ. ९५ पर आप लिखते हैं " जिससे बेचारी मूर्ति को ताले मे बन्द रहना पडता है" यह शब्द अपमानजनक द्वेष जनक है या नहीं ? इस प्रकार आपकी पुस्तक में अनेक जगह पर मूर्ति - मूर्तिपूजकों पर अपमान जनक द्वेष जनक प्रयोग हुए हैं । डोशीजी ने अपनी पुस्तक में तर्कों की खोज कम और मात्र मूर्ति एवं मूर्तिपूजकों की निंदा से पन्ने भरे हैं । जिससे आपकी कथनी एवं करणी का अंतर स्पष्ट दिखाई देता है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१०९ १५. आनन्द श्रमणोपासक →समीक्षा
उपासक दशांग के प्राचीन प्रतिओं में "(१) अण्ण-उत्थियपरिग्गहियाणि (२) अण्ण उत्थिय परिग्गाहियाणि चेइयाइं (३) अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंत चेइयाई" ये तीन प्रकार के पाठ मिलते हैं । इसमें से २-३ नंबर के पाठ को होर्नल साहेब ने प्रक्षिप्त माना है, ऐसा आप लिखते है और आप उनकी आधी बात लेते है आधी छोड़ते है ये कौन सा न्याय ? आप लिखते है और "हम... प्राचीन प्रति के आधार से शुद्ध पाठ देते है" और आगे चेईयाइं वाला पाठ दिया । यह आपका कदाग्रह मात्र है क्योंकि तीन में से यह पाठ ही शुद्ध इसलिये आपके पास क्या प्रमाण ? आपको मत मोह से अरिहंत शब्द खटक रहा है। होर्नल साहब की तरह दोनो २-३ प्रक्षिप्त माने तो-तो ठीक था, परंतु प्रथम पाठ से अर्थ बराबर घट नही पाता, और तीसरे पाठ से अरिहंत प्रतिमा की आपत्ति आती है जो आपको अनिष्ट है, इसलिये यह चालाकी की । परंतु दूसरे-तीसरे पाठ का भाव समान ही है। 'चेइय' शब्द अरिहंत प्रतिमा अर्थ में रुढ़ बताया है, अतः चेइयाई, अरिहंत
चेइयाइं दोनो का अर्थ एक ही होगा। तीसरे पाठ में अरिहंत शब्द स्वरूप विशेषण है जैसे तेजस्वी सूर्य में ।
दूसरी बात आपके पूर्वाचार्य हुकमीचंदजी, वीरचंदजी, घासीलालजी सभी ने अरिहंत चेइयाइं पाठ ही प्रमाण माना है। क्या आप उनसे भी ज्यादा बुद्धिशाली है ? तेरापंथी अंगसुत्ताणि में भी प्रामाणिकता से अरिहंत चेइयाई पाठ ही स्वीकृत किया है । दूसरे पाठों को पाठांतर में दिया है।
महत्व की बात तो यह है कि इसी आगम से सिद्ध मूर्ति-मूर्तिपूजा के पाठ को कुतर्कों से उड़ाने की, असिद्ध करने की कितनी भी कुचेष्टा करने पर भी वह असिद्ध नहीं हो पाएगा । उसको असिद्ध करने के लिए आप प्राचीन प्रति का कुतर्क दे रहे है । वह भी उड जाता है । वह इस प्रकार आ. श्री, अभयदेव सूरिजी की टीका को हज़ार वर्ष ऊपर हुए, उनके सामने 'अरिहंतचेईयाणि' पाठ ही था, जो टीका से स्पष्ट सिद्ध है "अन्ययूथिक परिगृहीतानि वा 'अर्हच्चैत्यानि' अर्हत्प्रतिमा लक्षणानि" इस टीका पाठ में
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा मूल से प्रतीक 'अर्हच्चैत्यानि' लिया है जो अरिहंतचेईयाणि का संस्कृत रूप
वर्तमान में मिलती प्राचीन से प्राचीन ताडपत्री प्रतियाँ करीब १००० सालों की मिलती हैं, उनको अभयदेवसूरिजी के वक्त लिखी मानो तो भी उन नई प्रतियों का सूरिजी ने उपयोग नही किया होगा। प्राचीन स्कंदिलाचार्यनागार्जुन वाचना की प्रतियों का उनकी टीका में उपयोग हुआ होगा, इसीलिए इतने पाठ भेद भी मिलते हैं । आगम संशोधक पूं जंबूविजयजी म.का भी यह मन्तव्य है । (देखो आचारांग प्रस्तावना) यह स्पष्ट ही है, की कोई भी टीकाकार उस समय प्राप्त प्राचीन और शुद्ध प्रति का ही उपयोग करेगा । एवं सभी मनीषियों ने इसे एकमत से स्वीकार किया है। इससे सिद्ध होता है कि वर्तमान में मिल रही सभी प्राचीन प्रतियों से भी ज्यादा प्राचीन प्रतियों में 'अरिहंत चेईयाणि' पाठ था ।
डोशीजी ने मूर्तिपूजकों द्वारा अरिहंत' पाठ बढ़ाया आदि गलत आक्षेप दिये हैं, उसके उत्तर तो मध्यस्थ व्यक्ति को ज्ञानसुंदरजी की पुस्तक में से ही मिल जाएंगे । उन्होंने लिखा ही है- "आचार्य अभयदेवसूरि की टीका हमारे स्थानकवासी विद्वान् भी प्रामाणिक मानते हैं और न उस समय मूर्तिविषयक ऐसी चर्चा भी थी, की जिसको कोई पक्षपात कह सके अतएव उन्होंने स्पष्ट लिखा हैं कि "अर्हत् प्रतिमा, अन्य तीर्थियों ने ग्रहण कर ली है यदि श्रावक उन प्रतिमा को वंदन करे तो उसको मिथ्यात्व स्थिरीकरण दोष लगता है...'' जगन्नाथपुरी मे शांतिनाथजी की प्रतिमा, बद्रीजी में पार्श्वनाथजी, कांगड़ा मे ऋषभदेवजी की प्रतिमा, अन्यमतियों ने ग्रहण कर ली और अपनी विधि से पूजते है यह प्रत्यक्ष है वहाँ जाकर श्रावक को वंदनपूजन करना कल्पता नहीं है । इससे सिद्ध है टीकाकार ने किया हुआ अर्थ ही प्रमाणयुक्त है।
आपके स्थानकवासी संत हुक्मीचंदजी, पीरचंदजी वगैरेने 'अरिहंत चेईयाई' पाठ प्रमाण मानकर "जिनप्रतिमा अन्य तीर्थिकों ने ग्रहण कर ली हो" अर्थ किया हैं वे भी क्या आपके हिसाब से अप्रामाणिक हैं ? तो आपके
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हिसाब से तो केवल आपकी खुद की कल्पना ही प्रमाणभूत है, उसकी सुज्ञजनों में कोई कीमत नही है।
"जो साधु जैन पथ से भ्रष्ट होकर अन्यतीर्थी बन गया है वह तो अन्यतीर्थी में गिना जा चुका है फिर उसे पृथक् बताने की क्या आवश्यकता है ?'' इस ज्ञानसुंदरजी के तर्क को जो आप कुतर्क बता रहे है, वह उचित नहीं है, उनका तर्क सुतर्क और उचित ही है, आपकी कल्पना ही कुतर्क है । चूंकि- अन्यतीर्थी में गये हुए तथा वेश बदलने पर उनको समझदार समकिती ने न तो वंदन किया, न वंदन करते हैं, उसको अपना नही समझते हैं यह प्रसिद्ध है, तो उसे सूत्र में बताने की आवश्यकता ही क्या है ? आपके हिसाब से साधु अर्थ करने पर तो सूत्र का संदर्भ ही नहीं घट पाएगा । ___दूसरी बात 'चैत्य' का साधु अर्थ आप किस आधार पर करते है ? जयमलजी म. ने ११२ अर्थ बताए यही आधार हैं न ? जयमलजी म.सा.ने वे कल्पना से लिखे या किसी आधार से ? यह भी विचारणीय है, चूंकि उन्होने बताया अलंकरण दीर्घब्रह्माण्ड ग्रंथ तलाश करने परभी कहींपर देखने में नहीं आता । विद्वान् जन विचारे कि चूर्णि, टीका आदि में शास्त्रकारों ने प्रभु वीर की अक्षुण्ण परम्परा से प्राप्त जो "चैत्य' शब्द की विवेचना है, वह सही है अथवा जो स्थानकवासी बंधुओं ने अपनी कल्पना के आधार पर लिखा है वही सही है ? मान भी लो उस ग्रंथ में साधु अर्थ किया हुआ है, तो भी आगम साहित्य में वह प्रमाण नही गिना जाएगा। क्योंकि ४५ आगम या ३२ आगम में एक भी स्थल आप बता नहीं सकते जहा साधु के अर्थ में चैत्य शब्द का प्रयोग हुआ हो । आगम शैली में 'निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा', 'साहु वा साहुणीवा "भिक्खु वा भिक्खुणी वा' इस प्रकार साधु-साध्वी के लिये प्रयोग आते हैं। 'चैत्यं वा चैत्यानि वा' ऐसा एक भी स्थल पर प्रयोग मिलता नहीं हैं । और चैत्य शब्द स्त्रीलिंग मे नहीं बोला जाता है तो साध्वी के लिये क्या प्रयोग करेंगे? यह भी बड़ी आपत्ति है चैत्य का अर्थ साधु करने में है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रस्तुत सूत्र - प्रस्तुत प्रकरण में भी आगे “कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं ... पडिलाभे माणस्स विहरित्तए" ऐसा बताकर साधु के लिये श्रमण - निग्रंथ शब्द का प्रयोग किया है। जिन शब्दों से उद्देश कीया उन्ही शब्दों से निर्देश होना चाहीये था । अगर साधु अर्थ में चैत्य शब्द का प्रयोग आगम में होता तो यहाँ पर "कप्पइ मे अरिहंत चेईयाणि फासुएसणिज्जेणं ...." ऐसा प्रयोग होता। ऐसा प्रयोग नही हुआ है यही बताता है कि आगमकारों को चैत्य शब्द का साधु अर्थ में प्रयोग मान्य नही है।
___ डोशीजीने अपने पक्ष की सिद्धि में एक कुतर्क और बताया है "जिनमूर्ति किसी के ग्रहण कर लेने मात्र से अपूज्य अवंदनीय नही हो जाती'' इसका जवाब अभयदेव सूरिजी की टीका में मिल जाता हैं, "मिथ्यात्वस्थिरीकरणादि दोषप्रसङ्गात्" मिथ्यात्वी के अधिकार में प्रतिमा जाने पर प्रायः वे उसका स्वरूप बदल देते हैं, नाम बदल देते हैं जैसे बद्री में बद्रीनाथजी, पैठण मे नेमिनाथजी विट्ठल नाम तिरूपति वगैरह अनेक उदाहरण हैं । जहाँ स्वरूप और नाम बदलकर सरागी रूप देते हैं उसी प्रकार से पूजन विधि भी बदली जाती है, वहाँ पर जाए तो स्पष्ट रूप से मिथ्यात्व स्थिरीकरण का दोष लगता ही है।
क्वचित् स्वरूप नहीं बदले तो भी उनके अधिकार में रही प्रतिमा वे अरिहंत समझकर नहीं पूजते-मिथ्यात्वी देव की समझकर पूजते हैं, सरागी देव मानकर पूजते हैं, वह मंदिर भी मिथ्यात्वियों का हुआ, तो, जैन वहाँ जावे तो स्पष्ट रीति से मिथ्यात्व का पोषण है ही । वे लोग कहेंगे देखो हमारे देव कितने प्रभावशाली हैं, जैन लोग भी दर्शनादि के लिए आते हैं।
यहाँ पर डोशीजी ने मूर्तिपूजकों के एक तर्क का उसके तात्पर्य को समझे बिना ही खंडन किया है, वास्तव में वह तर्क योग्य है सुतर्क है । "जिस प्रकार सम सूत्र मिथ्यादृष्टि के हाथ में जाने से विषम हो जाते हैं उसी प्रकार जिन मूर्ति भी अन्य के अधिकार में जाने से अवंदनीय हो जाती हैं।" यह तर्क है । इसके खंडन में मूर्तिपूजकों पर उनको अनभिमत पक्ष उठाकर आरोप लगाया है। हम भी यही मानते हैं, सूत्र स्वयं जड है मिथ्यादृष्टि के हाथ में आने से विपरीत अर्थ करने से वह विषम कहलाते हैं, सम्यग्दृष्टि
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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परिगृहित वह सम कहलाते हैं। इससे जो विस्तार किया है मुद्रण लेखन से मिथ्यात्वी द्वारा सभी सूत्र अमान्य - विषम बनेंगे वे कुतर्क सभी हवा में उड़ गए | औषध के दृष्टांत में भी यही समझना ।
मूर्ति भी स्वयं जड है, मिथ्यादृष्टि उसकी मालिकी करेगा तो विपरीत बुद्धि से उसे मानेगा मिथ्यात्वी - सरागी देवरुप से मानेगा - उपासना करेगा, इसीलिए वह प्रतिमा मिथ्यात्व स्थिरीकरण दोष से अवंदनीय हो जाती है । इसलिये ऊपर बताया हुआ तर्क सुतर्क है, डोशीजी के सभी कुतर्कों का समाधान हो जाता है। मक्षीजी- केसरीयाजी की दलील भी निकम्मी अयोग्य है । जहाँ श्वेतांबरों का भी अधिकार हैं वहाँ वे अपने ढंग से पूजनादि विधि कर सकते है वहाँ मिथ्यात्व स्थिरीकरणादि दोष नही लगते हैं, उसी प्रकार इतर लोग पूजते होने पर भी तीर्थ की मालिकी जैनों की है, कोर्ट में भी यही फैसला दिया है, अतः उसमें कोई दोष नहीं है, उसमें तो जैन धर्म का गौरव बढ़ता है । जिनप्रतिमा का इतना प्रभाव है ।
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जिनप्रतिमा देव पद में है, अन्ययूथिक देव अवंदनीय हुए तो उसके साथ उनकी मान्य मूर्ति भी अवंदनीय हुई तो " अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाइं" यह कहने की क्या आवश्यकता ? इसलिए इस पद का अर्थ अन्ययूथिक परिगृहित साधु अर्थ करना" डोशीजी की इस दलील का भी समाधान पीछे के विवरण से हो जाता है अन्ययूथिक प्रतिमा ग्रहण करके उसका स्वरुप बदल देवे वह तो अन्ययूथिक दैवत में आएगी स्वरुप न बदलकर सरागी मानकर पूजे वह 'अन्ययूथिक परिगृहित चेइयाई' में आएगी । इससे यह भी सिद्ध होता है की सूत्र में 'चेइयाई', 'अरिहंत चेइयाइं' दोनो पाठ मिलते है उसमें ‘“अरिहंत - चेइयाइं" पाठ ज्यादा बलवान् हैं । ऐसे तो चेईयाई का अर्थ अरिहंत प्रतिमा होता ही है । तथापि अरिहंत चेइयाइं कहने से अन्ययूथिकों ने वह प्रतिमा अरिहंत स्वरूप में ही रखी है, उसका स्वरूप नहीं बदला है इसका द्योतक यह पद है ।
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आगे डोशीजीने 'सुन्दरजी की योग्यता' में किया हुआ खंडन पक्षपातपूर्ण है तर्क संगत नहीं है । ज्ञानसुंदरजी के लिये अभद्र शब्दों का
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रयोग भी विवेकहीन है । ज्ञानसुंदरजी की पुस्तक और डोशीजी की पुस्तक का मिलानकर मध्यस्थ व्यक्ति पढ़े तो उन्हें यह पता चलेगा। 'अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि चेइयाइं" इस सूत्र पाठ में जैन और भ्रष्ट शब्द नहीं है यह तो डोशीजी भी मानते ही है, सर्वसिद्ध है। वे कहते हैं यह विशेषण अच्छी तरह से लग सकते है अब विचार कीजिए - विशेषण लगाना मतलब सूत्रो में कल्पित शब्दों को जोड़ना। उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने कुतर्क किए वे भी व्यर्थ हैं । चूकि हम तो काल्पनिक शब्द जोड़े बिना टीका के आधार से अर्थ करते हैं, उस यथार्थ अर्थ को नहीं मानने की जिद से ही आपको शब्द जोडने पड़ते हैं। इस प्रकार कल्पित शब्दों को जोड़कर सूत्रों को अपनी मान्यता की तरफ खींचना-उत्सूत्र प्ररूपणा है । मिथ्यात्व है !
आगे, "अक्कलमंद सुंदरजी । मूर्खता का प्रदर्शन तो स्वयं कर रहे हैं" इत्यादि से भाव को समझे बिना ही टूट पडे है। प्रकरण से आगे पीछे के संदर्भ से "अरिहंत और जैन एक" का मतलब अरिहंत के साधु कहो या जैन साधु, दोनों एक ही हैं, भिन्न भिन्न नहीं हैं । भाव समझे बिना शब्दों को पकड़कर टूट पड़ना खुद की ही मूर्खता गिनी जाती है ।
डोशीजी खुद की पुस्तक के पृ. १०४ पर बताते है "आनंद श्रावक की प्रतिज्ञा मनुष्य से संबंध रखने वाली है । आलाप-संलाप मनुष्य से ही होता है, आहारादि भी मनुष्य को दिया जाता हैं । मूर्ति का तो इन बातों से संबंध ही नहीं है ।" यह उनकी शास्त्र की अज्ञता है । केवल अज्ञता ही नहीं परंतु जान बूझकर लोगों को भ्रम में डालते है चूंकि सूत्र में तो अन्यतीर्थिक देव भी बताएँ हैं, वे तो मनुष्य नहीं हैं । देव से उनकी मूर्तियाँ ही लेनी पडेगी उनसे आलाप-संलाप कैसे संभव है ? जिस प्रकार से अन्य तीर्थिक देव में पाठ का समन्वय करेंगे उसी प्रकार से अन्यतीर्थिक परिगृहीत जिनप्रतिमा में भी समन्वय होगा, वह इस प्रकार-शास्त्र में अनेक स्थलों में ऐसे स्थल आते हैं अनेक विधान होते हैं अनेक विधेय होते हैं । उसमें विधेय का संबंध जिसके साथ लगे उसी के साथ लगाते हैं । अतः मूर्ति के साथ वंदन-नमस्कार का साधु के साथ आलाप-संलाप, अशनादि दान
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा का अन्वय सुगमता से शक्य है । आगे उपासकदशांग में आनंद अधिकार में जिनप्रतिमा के सिवाय अन्यदेवों को वंदन नमस्कार नहीं करने का स्पष्ट पाठ होते हुए भी यह कहना कि "आनंदाधिकार और सारे उपासक दशांग में भी मूर्तिपूजा का नाम निशान तक नहीं है'' मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का दोष है । समवायांग में आनंदादि श्रावकों के खुद के जिनमंदिरादि बताये हैं तो वे मूर्तिपूजा करते थे यह अतिस्पष्ट है । और दूसरे रायप्पसेणी वगैरह आगमों मे शाश्वत प्रतिमा इत्यादि अधिकारों में वंदनादि के साथ "पूयणिज्जपज्जुवासणिज्ज'' (पूजनीय-पर्युपासनीय) आदि बताया ही है यहाँ पर भी उपलक्षण से वह समझना चाहिए, क्या जो वंदनीय होते हैं वे पूजनीय नहीं होते ? इसलिये यहाँ पर "मूर्तिपूजा का नाम निशान नहीं है" कहना भोले लोगों की आँखो में धूल डालना है।
आगे भोले लोगों को भ्रमित करने के लिये 'विजयानंदसूरि ने यह तो स्वीकार कर लिया है कि उपासकदशांग सूत्र में मूर्तिपूजा का पाठ नही है' ऐसा कहना धोखेबाजी है ! विजयानंदसूरिजी ने इतना ही कहा हैं 'यद्यपि उपासकदशांग में यह पाठ नहीं हैं । इसका मतलब समवायांग में जो बताया हैं की उपासकदशांग में श्रावकों के जिनमंदिर इत्यादि की बात है वह श्रावकों के जिनमंदिर का पाठ वर्तमान में उपासकदशांग मे नहीं है। इस भाव को छिपाकर विजयानंदसूरिजी के नाम से गप्पे लगाना सज्जनता नहीं है ।
आनंद श्रावक की प्रतिज्ञा में जिन प्रतिमा नहीं थी ! 'समणेणिग्गंथे...पडिलाभेमाणे विहरित्तए' इतना ही कहा, इससे कोई आपत्ति नही है । 'विचित्रा सूत्राणां गति' सूत्रकार सभी जगह एक शैली से नहीं चलते हैं । ऐसे आगम में अनेक उदाहरण आते हैं।
सूत्र संक्षेप-खंडन की डोशीजी की बात में सबसे पहला विरोध खुद ही लिखते है "सूत्र संक्षेप होने की बात ठीक है'' और खुद ही उसको कुयुक्ति कहते है, अतः खुद के वचन में विरोध है।
आगे जो संक्षिप्त का मतलब 'किसी वस्तु को उडा देना नहीं... वस्तु का सद्भाव अवश्य होता है...' इत्यादि बातें युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होती है। .
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दस-बीस शब्दों से कहीं वस्तु को मात्र दो-चार शब्दों में करने स्वरूप संक्षेप को सूत्रों में नहीं मान सकते क्योंकि - उपासकदशांग की पद संख्या - ११,५२००० और एक पद में ५१,०८,८४,६२१।। श्लोक होते हैं । अतः उपासकदशांग ५८,८५,३९,०८,३९,६८,००० इतने श्लोक प्रमाण का था, वर्तमान में केवल ८१२ श्लोक प्रमाण मिल रहा है अतः स्पष्ट है जैसे किसी तालाब का १ घडे मे समावेश शक्य नहीं वैसे ही उपासकदशांग के सभी पदार्थों का वर्तमान में मिल रहे उपासकदशांग में होना शक्य(संभव) नहीं है। यह तटस्थ व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। कदाग्रही नहीं समझ सकेंगे।
समवायांग में उपासकदशांग की नोंध में आये 'चेइयाई' का अर्थ व्यंतरायतन होना संभव है। टीकाकार को भी अभिप्रेत है ऐसा प्रतीत होता है । यह डोशीजी की बात उचित मालूम होती है। परंतु उसके सिद्धि में दिये कुतर्क विचारणीय है । उस समय जिनमंदिर होते तो तीर्थंकर उनमें ही ठहरते यह अज्ञान विप्रलपित है । जैनमंदिर में उतरा नहीं जाता वहाँ पर शयन करना इत्यादि ८४ आशातना में आता है। इससे सुसाधु भी उसमें उतरते नहीं है, यह प्रतीत है। .
....चैत्यं तच्चेह व्यंतरायतनम् नतु भगवतामर्हतामायतनम्...' यह दूसरे स्थान की टीका पाठ उठाकर प्रस्तुत सूत्र के साथ जोड़ने की चालाकी डोशीजी करते है और उसका अर्थ भी गलत कर रहे है कि टीकाकार चैत्य शब्द का अर्हत् मंदिर होने का निषेध ही करते है । वस्तुतः रायपसेणी उपांग के सूत्र नं. २ ('अंबसालवणे नामं चेइए होत्था ।...') के मलयगिरिजीकृत टीका का यह पाठ है । उसी स्थान में उसका व्यंतरायतन अर्थ करना है, अर्हत् मंदिर नही । यह अर्थ टीकाकार को अभिप्रेत है और उससे यह स्पष्ट होता है कि दूसरे स्थानों में चैत्य का अर्थ अर्हत् मंदिर होता है। यह बात अतिप्रसिद्ध है, सर्वमान्य है जिससे पाठक वह अर्थ यहाँ पर करने की भूल न करें। इसलिये टीकाकार को यह स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता महसूस हुई है। यह अर्थ तच्चेह इस शब्द से स्पष्ट होता है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १६. अंबड परिव्राजक और मूर्तिपूजा → समीक्षा
इसमें प्रथम भूमिका में प्रमाणहीन - कपोल कल्पित लोंकाशाह तक की बातों का मिथ्याभाषण किया है। इन बातों के लिए अगर कोई ऐतिहासिक या आगमिक प्रमाण दिया होता तो - तो तटस्थ व्यक्तिओं के गले आपकी बात उतरती, परंतु आपकी स्थानकवासी परंपरा का लोंकाशाह के पूर्व अंश मात्र भी नामोनिशान नहीं दिखता है, न तो उस समय मूर्तिपूजा का विरोध भी था । तो भला आगमों में हेर-फेर क्यों करें ! वास्तविकता तो यह है कि आपके संप्रदाय द्वारा आगमों के कांट-छांट आदि प्रचुर मात्रा में हुई है, होती है जिसके किस्से पकडे गये हैं, जो पं. कल्याणविजयजीने अपनी पुस्तक में बताया है जिसे आपके संतो ने स्वीकारा है । जिसको छिपाने के लिये 'चोर-कोतवाल को डांटे' की नीति आप अपना रहे हैं ।
__आगे आनंदाधिकार में जो 'अरिहंत' शब्द अनेक प्राचीन प्रतिओं में मिलता है, इनके पूर्वजों ने भी जिसे अपनाया है उस गणधर प्रणीत सूत्र पर प्रक्षेप का आक्षेप करके, फिर अंबड अधिकार के सूत्र में भी गोलमाल के आक्षेप लगाकर भयंकर उत्सूत्र का पापबंधन डोशीजी कर रहे है । ___ परंतु किसी भी प्रति में अंबड अधिकार में अरिहंत शब्द सिवाय का पाठ न मिलने से "हार्यो जुगारी बमणु रमे" इस गुजराती कहावत के अनुसार अरिहंत चेइयाई का अर्थ ही साधु कर डाला । अगर आपको यह अर्थ वास्तविक मन से रूचता है, तो आप अरिहंत शब्द को उड़ाने की चेष्टा क्यों कर रहे थे ? और आनंदाधिकार में भी प्रक्षेप-प्रक्षेप का झूठा शोर क्यों मचा रहे हो जिससे सिद्ध है कि आपका खुद का मन इस अर्थ में सम्मत नहीं है । केवल स्वमतसिद्धि के लिए तोड-मरोड कर यह अर्थ किया गया है । भोले लोगों को कुछ बताना तो पडता ही है न ! ___डोशीजी के "क्या गौतमादि गणधर आदि साधु-साध्वी पूजनीयवंदनीय नहीं थे ?" इस कुतर्क का उत्तर इस प्रकार → निषेध प्रतिज्ञा में तीन वस्तु बताई हैं तो विधान में भी तीन ही बतानी चाहिए थी? परंतु 'विचित्रा सूत्राणां गति' न्याय से विधान में दो ही बताई हैं । अब निषेध
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा के समकक्ष में देखें तो अन्ययूथिक देव के विरोध में स्वयूथिक परिगृहितचैत्य=अरिहंतचैत्य ही आयेगा । यह एकदम स्पष्ट मध्यस्थ व्यक्ति के लिये युक्तियुक्त है। जिससे अरिहंत चैत्य का अर्थ जिन प्रतिमा ही होगा । शेष रहा स्वयूथिक अर्थ जो अन्ययूथिक का विरोध है वह अर्थापत्ति से लेना पड़ेगा । अन्ययूथिक को वंदन नहीं करना। मतलब स्वयूथिक को करना यह सिद्ध है। सूत्र शैली से उसे सूत्र में साक्षात् ग्रहण नही किया है। अर्थापत्ति से उसका ग्रहण हो जाता है । अतः कोई आपत्ति नही रहेगी ।
आगे डोशीजी ने बालक जैसे दो प्रश्न पूछे हैं जिनके उत्तर
(१) कल्पनाएँ-करना अपने मत के मताबिक अर्थ मानना ये सब आप में चलता है। शुद्ध परंपरा में तो परंपरागत अर्थ नियुक्ति-भाष्य-टीकाओं द्वारा मिलते हैं । उनको ही मानते हैं, जिनकी सभी जगह एकवाक्यता है । वे ही युक्तियुक्त हैं। _ (२) कोश-प्रत्यक्षादि अनुभव से सिद्ध हैं, दोनों शब्दों का अर्थ जिनमूर्ति होता है । कहीं पर अकेले विशेष्य का प्रयोग होता है, वहीं पर विशेषण युक्त विशेष्य का अरिहंत विशेषण है, चैत्य प्रतिमा विशेष्य है । जैसे सूर्य कह सकते है, विशेषता बतानी हो तो तेजस्वी सूर्य कहते है। वैसे ही विशेषता बताने हेतु अरिहंत शब्द के साथ भी प्रयोग होता है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१७. तुंगिका के श्रमणोपासक
समीक्षा
इसका जवाब प. पू. लब्धिसूरिजी म. ने दिया हैं, वह उन्हीं के शब्दों मे- “तुंगिया नगरी के श्रावकों का अधिकार भगवतीजी सूत्र के दूसरे शतक में आता है ।
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इसमें ‘“कयबलि कम्मा" शब्द का अर्थ किया है पूजना जिन्होंने, इससे प्रभु की मूर्तिओं की पूजा करने वाले सिद्ध होते हैं यह बात रतनलालजी को ठीक नही लगती, क्योंकि उनके लिये 'पूजा' शब्द दिल दुःखानेवाला हो जाता है। पूजा शब्द देखा कि ढूंढियों का दिल धूजा, यह बात अक्षरश: रतनलालजी सिद्ध करते हैं । हमारे परम गुरुदेव श्रीमद् विजयान्दसूरीश्वरजी महाराज ने तुंगीया नगरी के श्रावकों की बड़ी मजबूती बताकर लिखा की उन्होंने अपने-अपने गृहों में रही हुई जिनमूर्तिओं का पूजन किया हैं, तब रतनलालजी गोत्रदेव आदि की पूजा की ऐसे ठहराते हैं, हमको बडा अफसोस हैं कि ये लोग ऐसी नीच दशा पर क्यों जाते हैं ! गोत्रदेव की पूजा कर ले तो इनको खुशी होती है और तीन लोक के नाथ जिनराज की पूजा से नाराजगी होती है । बस, इस सारे ही प्रकरण से इसी बात पर वजन दिया है । अन्य देवताओं की पूजा सिद्ध हो और जिनराज की पूजा की असिद्धि हो... हाय ! हाय ! जिनके शासन में रहना उन्हीं की मूर्तिपूजा का द्रोह? कैसा जुल । नूरी जमालीये पामर की पूजा करो, हरकत नही, खबरदार ! जिनराज का नाम नहीं लेना । आह भले मनुष्यों ! तब तो तुम को भी कहा जाता है की, नरक तिर्यग् गति सिवाय और गति में जाने का नाम मत लेना और लेना हो तो प्रभु पूजा में दिल देना । भरतचक्रवर्ती आदि चक्री, वासुदेव और रावण आदि प्रतिवासुदेव का हिसाब अलग था और तुंगीया नगरी के श्रावक का हिसाब अलग था । कोई भी हमारा साधु कुत्सित देवी देवताओ को नही मानता नाहक गप्प मत लगावो ।" ( मूर्तिमंडन पृ. १३२)
वर्तमान में भी स्नान से पवित्र होने के बाद ब्राह्मण वगैरह अनेक कुलों में, घर में अंदर देवस्थान, स्थापना, फोटो आदि होते हैं उनका यथा शक्य प्रक्षाल - पूजा, धूप-दीप आदि करते हैं, कहीं पर सूर्य के सामने जलधारा
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा आदि अलग-अलग प्रकार से भक्ति प्रगट करते हैं वह 'कयबलिकम्मा' का अर्थ है । टीकाकार भगवंतो ने गृहदेवपूजा से यथार्थ अर्थ बताया है । ___ अब यह अतिस्पष्ट है कि दृढ़सम्यक्त्वी किसी भी हालत में मिथ्यात्वी देवों को अपने घर में स्थान नहीं देगा। उसके हृदय में तो नित्य अरिहंत परमात्मा का ही वास होता है तो घर में वह कुलदेवता इत्यादि इतर देवों को भी स्थान नहीं ही देता है। अगर सत्व कम हो, उनके उपद्रव से रक्षा के लिये रखता है परंतु श्रद्धा तो परमात्मा के प्रति ही होती है ऐसे श्रावक के लिये समकित के आलावे में देवाभिओगेणं आगार बताया है । कुमारपाल महाराजा जैसे सत्वशालियों को कुलदेवी द्वारा मरणांत उपसर्ग होने पर भी बलि नहीं चढ़ाई उनके जैसे सत्वशाली आगार का सेवन नहीं करते थे। वे घर में भी देवस्थान में अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा अथवा अन्य स्थापना रखकर ही उनकी पूजा करते वही 'बलिकर्म' शब्द से लेना है। तुंगीया नगर के श्रावक भी दृढ़ श्रद्धावाले थे इसलिये वहाँ पर भी बलिकर्म शब्द से ज्ञानसुंदरजीने अर्थ किया है वह उचित ही है । श्री कल्पसूत्र की टीका में भी राजा सिद्धार्थ के वर्णन में "हाया बलिकम्मा" आया है । स्थानकवासी मित्र वहाँ भी 'यज्ञ' अथवा 'कुलदेवता की पूजा' अर्थ कहते हैं, किन्तु कोई भी दृढ़ सम्यक्त्वी जीव ऐसा नहीं करता। 'बलिकर्म' का अर्थ सर्वत्र 'जिनपूजा' ही सार्थक होगा।
ज्ञाता सूत्र में मल्लिनाथ भगवान की गृहस्थावस्था में जो बलिकर्म शब्द बताया है वह पाठ अखंड रखने के लिये बताया हो ऐसा समझना। आगम के लेखन में बार-बार समान पाठ को दोहराते नहीं है, जाव कहकर संक्षेप करते हैं । उसमें से अनावश्यक शब्दों को निकालना शक्य नहीं बनता है एक-आध स्थान में वह अनावश्यक रहता है, दूसरे स्थान में उपयुक्त उस शब्द की आवश्यकता रहती है, तब पाठ को अखंड ही रखते हैं । टीकाकार कई स्थानों पर उसका उल्लेख करते हैं । कई स्थानों पर नहीं भी करते ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१२१ १८. चारणमुनि और मूर्तिपूजा समीक्षा
इसमें सर्व प्रथम डोशीजी का यह कुतर्क "यह बात ही मिथ्या है कि कोई चारण मुनि यात्रार्थ गये हों सूत्र में तो केवल शक्ति का परिचय बताया है..." सूत्र पाठ से स्वयं ही खंडित हो जाता है। सूत्र में स्पष्ट लिखा हैं 'तहिं चेइआई वंदई' वहां चैत्यों को वंदन करते हैं। अगर शक्ति की ही बात होती तो ऐसा न लिखते । परंतु यह केवल शक्ति मात्र है, ऐसा स्पष्ट निर्देश करते और इस प्रकरण में भी जा सके, आ सके, प्रभु वंदन कर सके ऐसा निर्देश करते ।
आगे डोशीजी लिखते हैं 'चेइयाइं वंदइ' का भावार्थ भगवद् स्तुति से है, मूर्ति वंदन से नही चैत्यवंदन भी स्तुति का दूसरा अर्थ है । यह बात भी गलत है । डोशीजी की व्याकरण की अनभिज्ञता का सूचन होता है । 'चेइयाइं वंदइ' दोनों शब्द स्तुत्यर्थ हो ही नहीं सकते क्योंकि एक कर्म और दूसरी क्रिया है। इसमें चेइयाई-अरिहंतो की प्रतिमाओं को यह कर्म है और वंदइ यह स्तवनात्मक क्रिया है। इससे साफ-साफ साबित होता है जंघाविद्याचारण महामुनियों ने भी प्रभु प्रतिमाओं के दर्शन-वंदन स्तवन किये हैं । जो बडे ही हीनभाग्य भारेकर्मी जीव होते हैं, वे ही प्रभुमूर्ति की निंदागर्हणा करते हैं।
मूर्तिपूजक साधुओं का प्रतिक्रमण में चैत्यवंदन परोक्ष वंदन नहीं परंतु पंचपरमेष्ठी की स्थापना जिसमें होती है ऐसे स्थापना के सामने होता है ।
दीव-सागर पन्नत्ति में मानुषोत्तर और रुचक पर्वत पर भी जिन-मंदिर बताये हैं । और भगवतीजी में चारणों का वहाँ गमन, चैत्यों के वंदन के लिये बताया है । इससे दीवसागर पन्नत्ति सूत्र की प्रामाणिकता पर भी मोहरछाप लग जाती है । ऐसे तो ठाणांग आदि में भी नाम लेकर उसकी प्रामाणिकता बताईं ही है। कोई अपनी कुमान्यता सिद्ध न हो इसलिये सूत्रों को अप्रमाणिक माने उससे वे सूत्र अप्रमाणिक नहीं बन जाते । ऐसे तो दिगंबरों के हिसाब से सभी आगमों का विच्छेद हुआ है जो है वे मूल आगम नही
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हैं, तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे? डोशीजी कहते है - "दीवसागर प्रज्ञप्ति में अनिष्ट फेरफार हुए हैं । यह वह ही कह सकता है जिसने उस ग्रंथ को शुरू में देखा हों और अब देख रहा हो अथवा विशिष्ट ज्ञान से ही बता सकते हैं अथवा उनकी प्राचीन हस्तप्रतें और अभी की प्रतों में फेर हो तभी यह संभव है, वैसा तो कुछ हैं ही नहीं, तो किस आधार पर कह सकते
वास्तविकता तो यह है उसमें जिनभवन वगैरह मूर्तिपूजा को सिद्ध करने वाले शब्द आते हैं, जिन प्रतिमाओं की बातें आती हैं, जिसके कल्पनाओं द्वारा भी अर्थ परिवर्तन वगैरे शक्य नहीं है इसलिये शास्त्र को ही अप्रमाणिक कर दिया ।
इस सूत्र में अनिष्ट परिवर्तन तभी सिद्ध होगा जब मूर्तिपूजा आगम विरुद्ध सिद्ध होगी और मूर्तिपूजा आगम विरुद्ध तभी सिद्ध होगी जब इस सूत्र में अनिष्ट परिवर्तन सिद्ध होंगे । इस प्रकार अन्योन्याश्रयदोष आपकी कुकल्पना में आता है। दोनों में से एक भी बात की सिद्धि आपके सैंकड़ो आचार्य इकट्ठे हो जाए तो भी संभव नहीं हैं ।।
__ आगे ज्ञानसुंदरजी का खंडन करते है "लोंकागच्छीयमूर्तिपूजक यतियों के अर्थों को प्रमाण में देते हैं, उन्हें हमारे पूर्वज बनाते हैं... वह अनुचित है।" ज्ञानसुंदरजी ने उचित ही कहा हैं । अगर आप उनको आपके पूर्वज न मानो तो आपकी परंपरा लोंकाशाह से कैसे मिलेगी ? उन यतियों में से आप में साधु प्रगट हुए।
आगे आप लिखते हैं "स्था० समाज के सुसाधुओं की.....आपके समाज के साधु भी नहीं कर सकते..." यह मिथ्या स्वप्रशंसा है और ऐसे तो बराबर भी हैं चूंकि उनके लोकविरूद्ध - लोकनिंदित आचारों की तुलना हमारे समाज के साधु कैसे करेंगे ? नही ही करेंगे । पृ. १४१ पर डोशीजी "वहाँ जाने का मुख्य कारण नंदनवनादि की सैर करने का ही हो सकता है...'' ऐसे उद्गार महाज्ञानी चारण मुनिओं के लिये निकालते हैं। जिनमंदिर दर्शन-वंदन-हेतु नंदनवनादि जाने को सैर सपाटा की संज्ञा देते हैं। जिन
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१२३ मंदिर-मूति से कितना द्वेष-वैर है इसका यह स्पष्ट नमूना है ।
आगे 'तस्स ठाणस्स अणालोइय' कहा हैं उसका अर्थ डोशीजी ने बताया नहीं है । उस स्थान की याने किस स्थान की ? ऐसे प्रयोग अनेक स्थल पर भगवतीजी मे आये हैं । उदाहरण के तौर पर शतक ३ उद्देशा ४ मे "मायीणं तस्स ठाणस्स अणालोइय" इसी प्रकार ५ वें उद्देशे में भी प्रयोग हैं । टीका मे वहाँ पर प्रकरणोचित 'विकुर्वणालक्षण-स्थानात्' अर्थ किया है । यहाँ पर प्रकरण पर से लब्धि का उपयोग करना प्रमाद है अतः चारणलब्धि का उपयोग करने से चारणमुनियों ने जो प्रमाद का सेवन किया, उसका प्रायश्चित करना जरूरी है, प्रायश्चित किए बिना मृत्यु होने पर अनाराधक बताये हैं । तीर्थ यात्रा के कारण अनाराधक नहीं बताये हैं ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १९. द्रौपदी और मूर्तिपूजा → समीक्षा
इसमें डोशीजी ने तीन पोईंट-"द्रौपदी श्राविका थी - उसने तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा की थी - नमुत्थुणं से स्तुति, की थी'' का खंडन करने की कोशिश की हैं । उसमे कितनी सत्यता है वह हम देखेंगे - प्रथम पोईंट मे उन्होंने "निदान वाले जीव का जब तक निदान पूर्ण न हो तब तक सम्यक्त्व से वंचित रहता है, मंद रस निदान हो तो वह कालप्राप्ति बाद धर्मसम्मुख होता है ।" ऐसा तर्क दिया है वह उनकी मनगढंत कल्पना मात्र है, इसमें प्रमाण कुछ भी नहीं है । युक्तियुक्त तो यह है मंदरस नियाणा में सम्यक्त्व प्राप्ति हो सकती है। जैसे द्रौपदी कृष्ण वासुदेव, उनके पिता वसुदेव इत्यादि । गाढरस नियाणा में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के समान सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता
है।
'जैन कथामाला' में उपा. श्री मधुकर मुनिजीने स्पष्ट बताया हैं कि रावण नियाणा करके आया था और दिग्विजय के पूर्व ही वह सम्यक्त्वधारी था । देखिये (पृ. ५९) "रावण ने कहा- मित्र ! आज से तुम मेरे भाई हों, क्योंकि सार्मिक भाई होता है । अब तक हम तीन भाई थे और आज तुम्हारे मिलन से चार हो गए । तुम निर्विघ्न राज्य करो । सहस्रांशु चित्त में बहुत दुःखी था । उससे अर्हन्तभक्त की आशातना हो गई थी।" पृ. (४७०) "मुनि प्रभास ने उसे देखकर निदान किया - इस तप के फलस्वरुप में मैं भी ऐसा ही समृद्धिवान् बनूँ । वह मरकर तीसरे देवलोक में देव बना
और वहा से च्यवन कर राक्षसपति दशमुख हुआ।" इसी प्रकार खुद डोशीजी भी 'तीर्थंकर चरित्र भाग २ में पृ. २९ पर - बलि के साथ रावण के युद्ध - में "उन्होंने युद्ध बंद करके रावण के पास संदेश भेजा- आप भी सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं । व्यर्थ की हिंसा से आपको भी बचना चाहिये । यदि युद्ध आवश्यक ही है, तो आपके मेरे बीच ही युद्ध हो जाए।"
इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में नियाणा करके आये रावण को दिग्विजय के पूर्व ही सम्यक्त्वधारी बता रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कुतर्क करके येनकेन प्रकारेण मूर्तिपूजा का विरोध करने की धुन में शास्त्रों के अर्थों को बदलने
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की चेष्टा करने पर भी चालाकी पकड़ी ही जाती है। डोशीजी का खुद का खुद में ही विरोध स्पष्ट है ।
आगे डोशीजी ने जेठमलजी के समकितसार का हवाला देकर ‘ओघनिर्युक्ति' की गंधहस्ति टीका में द्रौपदी को एक संतान के बाद सम्यक्त्व प्राप्ति बताई है' ऐसा बताया है, वह जेठमलजी द्वारा लगाये गप्पे को जाँचे बिना ही अपने कुतर्क की सिद्धि में पेश कीया है। ओघनिर्युक्ति की गंधहस्ति टीका नही तो देखने में आयी है न ही सुनने में आयी है । डोशीजी तो अभी नहीं है परंतु उनके कुपक्षधर - टट्टू आज भी हैं । उन्हें चेलेंज हैं कि या तो वे उस टीका को प्रस्तुत करें अथवा शास्त्रों के नाम ऐसी चोरियाँ करनी छोड देवे ।
'विवाह के पूर्व द्रौपदी की मानसिक स्थिति' - में डोशीजी ने सब कल्पना के घोड़े दौड़ाये हैं। यौवन में आते विपुल सुख भोग की अभिलाषा हुई, भोग लालसा से पाँच पतियों का वरना इत्यादि अनेक बातें सूत्राशय विरुद्ध हैं- सूत्र में ऐसी बातें बतायी ही नहीं हैं। मान भी लो तो भी सत्यकी विद्याधर विपुल भोग का अभिलाषी होते हुए भी क्षयिक समकित था, उसी प्रकार द्रौपदी में सम्यग्दर्शन का विरोध नहीं है। पांच पतियों का वरण तो सूत्र में स्पष्ट बता रहे हैं, पूर्व नियाणा के कारण किया । डोशीजी उस बात को कुतर्क से सूत्राशय विरुद्ध दूसरी ओर खींच ले जा रहे हैं ।
आगे डोशीजी सूत्र में 'जिणपडिमा ' शब्द है उसका कदाग्रह से 'कामदेव की मूर्ति' अर्थ करना चाहते हैं । परंतु आगम शैली को देखते किसी भी आगम में कामदेव के लिए "जिन" शब्द का प्रयोग हुआ दिखाई नहीं देता है, न तो आगमों में कहीं पर भी कामदेव के मूर्ति का पाठ भी है ।
दूसरी बात यह है कि हमारे मान्य आगमों में जहाँ शाश्वती जिनेश्वर भगवान की प्रतिमाओं का उल्लेख है, वहाँ पर भी 'जिणपडिमा ' का पाठ है जिनकी सूर्याभदेव, विजयदेव आदि ने पूजा की है और उनके आगे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 'नमुत्थुणं' का आलापक बोला है । जीवाभिगम सूत्र १४२ का आलापक 'जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाणं आलोए पमाणं करेइरत्ता लोमहत्थगं गेण्हति २ त्ता तं चेव सव्वं जं जिणपडिमाणं जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं वंदति नमंसति ।' इससे तो यह निश्चय होता है कि आगमो में जहा-जहा पर "जिण पडिमा" लिखा हैं वहा वहा पर उसका अर्थ जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा होना चाहिये, अगर आगमों के कर्ता को ज्ञातासूत्र में कामदेव प्रतिमा इष्ट होता, तो वहाँ पर स्पष्टतासे उसका उल्लेख अलग ढंग से करते । क्योंकि अन्य स्थलों पर "जिणपडिमा" का अर्थ जिनेश्वर प्रतिमा किया है तो सिर्फ ज्ञाता सूत्र में उसका ‘कामदेव प्रतिमा' अर्थ कैसे हो सकता है ?
दूसरी बात सूत्र में वाचनान्तर में 'जहा सूरियाभे जिण पडिमाओ अच्चेत्ति'' पाठ है, इससे तो एकदम स्पष्ट है सूर्याभने जैसे जिन प्रतिमा पूजी वैसे ही द्रौपदी ने पूजी । सूर्याभने कामदेव की पूजा नहीं की यह तो सबको मान्य है तो द्रौपदी ने कैसे कामदेव पूजे ?
इसमें डोशीजी द्रौपदी की कामदेव पूजा की सिद्धि में प्राचीन प्रमाण ढालसागर ग्रंथ का दे रहे हैं। यह अविश्वसनीय है। यह ग्रंथ प्रायः स्थानकवासी भंडारों में विपुलता से उपलब्ध होता है। हमारे देखने में जो यह ग्रंथ आया। वह भी स्थानकवासी साधु देवजीस्वामी के शिष्य दीपचंदजी स्वामी के उपदेश से लींबडी-काठियावाड़ से छपा हुआ है । उसमें विज्ञप्ति में स्पष्ट उल्लेख हैं जूदे जूदे ठेकाणेथी प्रतो मेलवी प्रसंग प्रसंगे नवी ढालो वधारी आ ग्रंथ पंडितराज पूज्य श्री ७ देवजीस्वामीना शिष्य सर्वगुणालंकृत मुनिराज श्री दीपचंदजी स्वामी आश्रय तले सुधारी आ ग्रंथ प्रसिद्ध कीधो छे.''
इससे स्पष्ट होता है कि मूल कर्ता के ग्रंथ में अपनी पाठ बदलने की नये पाठ प्रक्षेप की परंपरा के अनुसार मुनिश्री ने घालमेल करके कामदेव पूजा के पाठ का प्रक्षेप किया है। ऊपर के पाठ के रेखांकित पाठ से यह संभावना दृढ़ हो जाती है । अन्यथा उसी मूर्तिपूजकों द्वारा निर्मित ग्रंथ को छपवाने अनेक भंडारों में यत्न करने का कार्य स्थानकवासी क्यों करते ?
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१२७ लग्न प्रसंग में मूर्तिपूजा का कारण - इसमें डोशीजी द्वारा बताई बातें अज्ञानी-अथवा मिथ्यादृष्टि जीवो में लागू होती है। सम्यग्दृष्टि तो व्यवहार में भी मिथ्यात्वी देवों को नही मानेगा, नहीं पूजेगा। सम्यक्त्व आलावे में 'अन्नउत्थियदेवयाणि' से यह बात सूत्र सिद्ध है। और द्रौपदी तो सम्यग्दृष्टि थी नारद को नमस्कार नहीं किया, नमुत्थुणं का पाठ आदि से यह अच्छी तरह सिद्ध होता है । ऊपर भी सिद्ध कर ही दिया है। अतः शादी के वक्त द्रौपदी ने जिनप्रतिमाओं की ही पूजा की थी यह भी सिद्ध है।
क्या द्रौपदी ने नमुत्थुणं से स्तुति की थी ? इसमें डोशीजी को नमुत्थुणं को असिद्ध करने का कोई भी कुतर्क नही मिलने पर संप्रदायअभिनिवेश से यतियों पर सूत्रपाठ परिवर्तन का आक्षेप कोई भी प्रमाण दिये बिना लगा रहे हैं । उसे कौन सुज्ञ मानेंगे ? मेझरनामा ढाल २२ में अजितशांति - वंदितु इत्यादि में गाथा जोडने की बात की है, वह उस स्तोत्र की महिमा बढ़ाने हेतु किसीने जोडी है । उससे स्तोत्रादि में विरोध नहीं आता है । प्राचीन हस्तप्रतें देखने से उसका ख्याल भी आ जाता है। परंतु मूल आगम में काँट-छाँट तो स्थानकवासी संतो को छोडकर किसीने की हो उसका कोई प्रमाण नहीं है । लोंकाशाह के पूर्व तो मूर्तिपूजा का विरोध ही नहीं था समग्र जैन समाज एकरुपता से मूर्तिपूजा करता था, तो आगम में परिवर्तन का प्रश्न ही कहाँ रहता है ? ज्ञातासूत्र में नमुत्थुणं की बात करीब-करीब प्राचीन सभी प्रतियों में आती हैं देखिए
(१) खंभात-ताडपत्रीय लेखन संवत् ११८४ (२) संभात ले.सं. १३०७ (३) खंभात ले.सं. १२९५ (४) जैसलमेर-ताडपत्रीय जिनभद्रसूरि भंडार । १३वीं शताब्दी (५) जैसलमेर - ले.सं. १५मी शताब्दी (६) जेसलमेर ले.सं. १२०१ . (७) लींबडी ताडपत्रीय
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (८) जेसलमेर लोंकागच्छीय भंडार ले.सं. १३०७ (९) पाटण संघवी पाडा ले.सं. १३९६ (१०) पाटण संघवी पोल ताडपत्री
(११) पाटण संघवी पोल ताड़पत्री इन प्राचीन ११ प्रतिओं में नमुत्थुणं की बात आती हैं, इतनी प्राचीन प्रतिओं में आते पाठ को आप किस आधार पर प्रक्षेप कह सकेंगे ?
__डोशीजी लिखते हैं "हमने पाठ निकाला नहीं पर मूर्तिपूजकों ने ही मूल में बढ़ा दिया हैं ।" ऊपर के प्राचीन प्रतिओं से मध्यस्थ व्यक्ति वास्तविकता खुद जान सकता है।
डोशीजी तो 'चोर कोतवाल को डांटे' की नीति अपना रहे हैं । उसका उदाहरण देखिये - "उन्मार्ग छोड़िये सन्मार्ग भजिए" पुस्तिका (कपूरचंद जैन हिण्डौन सिटी) में पृ. २ पर "लोहामंडी आगरा से 'मंगलवाणी' नाम के स्वाध्याय की किताब छपी है । जिसका संकलन स्थानकमार्गी अखिलेश मुनिजी ने किया हैं । आज तक में ११ संस्करण द्वारा जिसकी ६० हजार से भी ज्यादा प्रतियाँ मुद्रित हो चुकी हैं । इसमें वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी कृत 'बृहत् शान्ति' नामक नौंवे स्मरण को संक्षिप्त करके छपवाया गया हैं । यानि शास्त्र पाठों को उडाने की चोरी की गई हैं । मूर्ति समर्थक शास्त्र पाठों को आगे पीछे से हटाकर बेईमानी करनेवाले ये स्थानकमार्गी आगे चलकर साहूकार भी बनकर कह सकतें हैं कि मूर्तिपूजक जैनियों ने बृहत् शान्ति में आगे पीछे के पाठ जोड दिये हैं ।"
इसी प्रकार इस किताब में और भी अनेक पाठ बदलने के उदाहरण दिये हैं, वाचक वहाँ से देख ले. पं. कल्याणविजयजी म.ने अपनी ‘पट्टावली पराग संग्रह' में गृहस्थों का गच्छ प्रवर्तन प्रकरण में पुप्फभिक्षु की पट्टावली में विस्तारपूर्वक जैन आगम में कांट छांट बतायी है । पाठक वहाँ देख ले । स्थानकवासी संत विजय मुनिशास्त्री अमरभारती में नाम देकर बताते हैं "स्थानकवासी संतो ने आगम में पाठ बदलें।" जिसका पाठ हमने इसी
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पुस्तिका में पूर्व में दिया हैं । अब डोशीजी के कथन में कितनी सत्यता है उसका निर्णय पाठक खुद ही कर सकते हैं । ___आगे टीका के 'वाचनान्तर' शब्द को लेकर डोशीजी भोले लोगों को ठग रहे हैं । 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' (आ. श्री हस्तीमलजी)में जिनशासन में अनेक वाचनाएं हुई यह बताया हैं टीकाकार अभयदेव सूरिजी म. टीका में स्पष्ट कहते हैं कि "इह ग्रंथे वाचनाद्वयमस्ति, तत्रैकां बृहत्तरां व्याख्यास्यामो द्वितीयातु प्रायः सुगमैव, यच्च तत्र दुःखगमं तदितर व्याख्यानतोऽवबोद्धव्यम्" इसका अर्थ- इस ग्रंथ में दो वाचनाएँ हैं, उसमें से बड़ी वाचना की हम व्याख्या करेंगे, दूसरी वाचना प्रायः सुगम है, जो दुर्गम है उसे दूसरी (बड़ीवाचना की) व्याख्या से समझ लें ।
अब सुज्ञजन समझ सकते हैं कि अभयदेवसूरिजी ने दोनों वाचनाओं को प्रमाण माना है, इसलिये दोनों की टीका उनको इष्ट है । कल्पसूत्र में भी संक्षिप्त वाचना, बृहद्वाचना दो वाचनाएँ हैं । वैसे ज्ञाताधर्मकथा में भी दो वाचनाएँ हैं । अगर आगमो की वांचनाओं को नहीं मानो तो जैसे दिगंबर श्रुत निन्हव हुए वैसे आप भी उसी कोटी में ही आयेंगे ।
समकितसार का पाठ - इसमें बहुत स्थान में अप्रामाणिक कल्पनाएँ हैं। अमुक स्थान में हलाहल मृषावाद भी हैं। देखिये वे लिखते हैं- "श्रीमान् लोकाशाह ने जब मूर्तिपूजकों को वीरधर्म रहित घोषित किया तब आगमों में भी मूर्तिपूजकों को फेरफार करने की आवश्यकता दिखाई दी और परिवर्तन भी कर डाला.।'' लोकाशाह के समकालीन-समीपकालीनप्रमाणों को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि लोंकाशाह ने द्वेष से जिनशासन विरुद्ध मत चलाया, जो वीरधर्मरहित है जिसका, तत्कालीन संविग्न साधुओं ने खूब विरोध किया, लुंपक-लुंपाक इत्यादि उनके नामों से भी स्पष्ट होता है की उन्हें शासन के चोर माना, अनेक लोंकागच्छ स्थानकवासी मध्यस्थ साधु सत्य समझ में आने पर पुनः दीक्षित बनकर सन्मार्ग पर आयें । आगमों में तो हमने पीछे अनेक हस्तप्रते बतायी हैं, जो लोंकाशाह के पूर्व की हैं। जिनमें नमुत्थुणं पाठ हैं वैसे, दूसरे आगमो में भी लोंकाशाह के पूर्वकालीन हस्तप्रतों में मूर्ति
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मूर्तिपूजा के पाठ हैं तो लोंकाशाह के बाद में पाठ फेरफार करने पड़े (पृ. १५५) यह डोशीजी की काल्पनिक बात नितान्त असत्य ठहरती है, और इसी से आगे कल्पना के घोडे दौड़ाये हैं, कागज काले किये हैं, जो व्यर्थ है । आगम संशोधन गीतार्थ गुरुओं का विषय है । प्रमाणों से स्पष्ट है कि लोंकाशाह को तो प्राकृत आदि का ज्ञान भी नहीं था, तो किस आधार पर लोंकाशाह ने आगमों में परिवर्तन किया ?
अमुक प्रतियों में 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेई' इतना ही पाठ हैं, उसमें तो हमारा विरोध हैं ही नही । पू. अभयदेवसूरिजी म. सा. ने दो वाचना की बात टीका में की ही है । जिससे दो प्रकार के पाठ प्राचीन प्रतिओं में मिलते ही है । पू. अभयदेवसूरिजी म. को करीब हजार साल हुए । उनके सामने जो भी प्रतियाँ थी वे भी हजार साल पूर्व की थी । वर्तमान में प्राप्त सभी प्रतियाँ अभयदेव सूरिजी के बाद की हैं । अतः यह निश्चित होता है कि प्राचीन प्रतियों में बृहत् - वाचना में हजार साल पूर्व अभयदेवसूरिजीने नमुत्थुणं पाठ देखा, वे प्रतियाँ अतिप्राचीन थी उनकी प्रामाणिकता में अंशमात्र भी शंका का स्थान नहीं है अत: दूसरी वाचना के पाठ को गलत कहना - प्रक्षेप कहना यह शास्त्र की चोरी हैं- उत्सूत्र प्ररूपणा है इतना ही हमारा कहना हैं
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अभी अपने वास्तविकता विचार करे तो कई सालों से स्थानकवासी परंपरा ज्ञाताधर्मकथांग टीका के वाचनान्तरेतु पाठ को लेकर लोगों को भ्रमित कर रही है, टीका का उटपटांग अर्थ करके सबकी आंखो में धूल डाल रही है ।
टीका का सूक्ष्म अवलोकन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि (१) डोसीजीने जो पृ. १५४-५५ पर " टीकाकार महाशय केवल बारह अक्षरवाले (जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ त्ति) पाठ को ही मूल में स्थान देकर बाकी के लिए वाचनान्तर में होना लिखकर टीका ही में रखते है, मूल में नहीं........." ऐसा कहा है वह सफेद झूठ है। टीकाकार को जो पाठ मूल
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१३१ में रखना इष्ट हो उसी की टीका तो वे करते ही है, क्वचित् वाचनान्तर के पाठ की भी टीका करते है । टीकाकार दोनों वाचनाओं का परस्पर विरोध मानते ही नहीं है – दोनो वाचनाओं के अविरोधरुप से ही वे टीका करते है (देखिये समवायांग, नौंवा 'समवाय टीका में - 'इदं च व्याख्यानं वाचनाद्वयानुसारेण कृतं, प्रत्येक वाचनयोरेवंविधसूत्रभावादिति')
दूसरी बात एक संक्षिप्त और दूसरी बृहद्वाचना हो तो वे बृहद्वाचना को मूल में स्थान देकर उसकी अवश्य टीका करते है। (देखिये – समवायांग१ "कस्यांचिद् वाचनायामपरमपि सम्बन्धसूत्र-मुपलभ्यते । यथा 'इह खलु समणेणं भगवया', इत्यादि तामेव च वाचनां बृहतरत्वाद्वयाख्यास्यामः") समवायांग में वाचना भेद के दूसरे भी अनेक पाठ हैं । कहीं पर भी टीकाकारश्री ने विरोध बताया नहीं है। पोषण-समाधान ही किया है ।
प्रकृत ज्ञातासूत्र में भी पूज्य टीकाकार श्रीने इसी प्रकार से बृहद्वाचना को ही मूल में लेकर उसकी व्याख्या की है, इसी कारण से उपलब्ध प्राचीन अनेक प्रतियों में बृहद्वाचनाका विस्तृत पाठ ही मूल में मिलता है। डोशीजी अपने स्वभावानुसार वस्तुस्थिति को विपरीत पेश करके लोगों को भ्रमित कर रहे हैं।
बृहद्वाचना की टीका करते टीकाकार श्री संक्षिप्त वाचना का निर्देश भी करते है, उस काल में प्राप्त सभी वाचनाओं के पर्यालोचन बिना टीका विद्वद्भोग्य-महत्वपूर्ण नहीं गिनी जाती, अधूरी कहलाएगी । इसलिए संक्षेपरुचिवाले जीवों के उपयोगी 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेइत्ति एकस्यां वाचनायां एतावदेव दृश्यते' यह संक्षिप्त वाचना बताकर बाद में टीका में वाचनान्तर का पाठ दिया है 'पहाया जाव.. तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहई' जो ऊपर के मूलपाठ से सामान्य शब्दभेद से प्रायः मिलता है। इसमें 'तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ' यह जाव से बताया हुआ 'धूवं डहइ' तक का विस्तृत वर्णन का पाठ संक्षिप्त वाचना में नहीं है ऐसा टीकाकार का आशय स्पष्ट प्रतीत होता है । वाचनान्तर में इतना ही फरक है । बाद में बताया हुआ वामं जाणुं अञ्चेति -नमोत्थुणं.. इत्यादि पाठ दोनों वाचना में है ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा यह टीकावलोकन से प्रतीत होता है । उसमें टीकाकारने वाचनाभेद की चर्चा नही की है।
संक्षिप्त वाचना में नमोत्थुणं नहीं है, ऐसा गलत प्रचार डोसीजी आदि स्थानकवासी संप्रदाय कर रहा है वह गलत है । ऊपर बताये अनुसार संक्षिप्त वाचना में भी 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ' से जिनप्रतिमा पूजन बताया है आगे 'वामं जाणुं अञ्चेति' से लगाकर 'नमोत्थुणं' तक का पाठ भी उसमें है। इसी कारण से पीछे बताये अनुसार प्राचीनतम जैसलमेर - खंभात आदि की ताडपत्री आदि हस्तपत्रों में नमोत्थुणं का पाठ मिलता ही है । इसलिये डोशीजीने नमोत्थुणं के पाठ बिना की हस्तप्रत की लिखी बात कोरी गप्प लगती है । दोनो वाचनाओं में जब नमोत्थुणं का पाठ मिलता है तो हस्तप्रतों में उसके बिना का पाठ कैसे मिलेगा? और कहीं पर स्थानकवासी के अधिकार में रही हस्तप्रतों में पाठ मिल भी जाए तो उसे अपनी झूठी बात को सिद्ध करने के लिये पाठ निकालने की तस्करवृत्ति माननी पडेगी ।
अपने संपादन में मध्यस्थता का दावा करनेवाली तेरापंथी परंपरा भी पक्षपात से अछूत नही रह सकी, ऐसा महसूस होता है। अंग सुत्ताणि भाग३ (जैन विश्व भारती लाडनूं) में पृ. ३०५ पर.. जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ के बाद वामं जाणुं अञ्चेइ.. नमोत्थुणं वगैरह पाठ होना चाहिए । टीका के पाठ का सही अर्थ न करने से यह भूल हुई हो तो आगे.... 'करेत्ता जिणघराओ पडिनिक्खमति' पाठ को कैसे जोडा? टीका में तो 'एकस्यां वाचनायां एतावदेव दृश्यते' - एक वाचना में (संक्षिप्त वाचना में) एतावदेव - जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ तक ही पाठ है । वाचनांतर भी वाचना है यह मूलसूत्र से प्रमाणित होता है ।
उवंगसुत्ताणि खंड १, सम्पादकीय (आ.महाप्रज्ञ)पृ.१३. जैन विश्वभारती लाडनुं
"यह सूत्र वर्णन कोश है । इसलीए अन्य आगमों में भी स्थान स्थान पर 'जहा ओववाइए' इस प्रकार का समर्पण वचन मिलता है। उन आगमों
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के व्याख्याकारों द्वारा अपने व्याख्या ग्रन्थो में अवतरित पाठ तथा कहीं कहीं समर्पण सूत्रो के पाठ औपपातिक के स्वीकृत पाठ में नहीं मिलते हैं । वे पाठ वाचनान्तर में प्राप्त हैं ।"
मूल आगमों में बताये समर्पणसूत्रों के पाठ औपपातिक मूल में न मिलकर औपपातिक के वाचनान्तर में मिलते हैं । यह उपर स्पष्ट बताया
। इससे सिद्ध होता है कि वाचनान्तर को भी मूल सूत्र के समान ही प्रमाण करना होगा । अगर ऐसा नहीं करो तो आपको मूल सूत्र को ही अप्रमाण मानने की आपत्ती आएगी ।
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SNILEY
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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा २०. कथाओं के उदाहरण → समीक्षा :
आभिनिवेशिक डोशीजी जब आगम द्वारा मूर्ति-मूर्तिपूजा की सिद्धि होती हो तब अपनी मान्यता को बाधा पहुँचती जानकर चरितानुवाद-कथा आदि विधिवाद नहीं हो सकती वगैरह बताकर ऐसा भ्रम खड़ा कर देते हैं मानों वे सब अप्रमाण हो । उसमें आती मूर्तिपूजा संबंधी बातों को अप्रमाण दूसरों के लिये अकरणीय बताते हैं । इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है डोशीजी के मन में यही बैठा है कि जिन प्रतिमा की पूजा द्रौपदी ने की
और नमुत्थुणं बोला, तभी तो उन्हें चरित्तानुवाद की ओट लेकर मूर्ति-मूर्तिपूजा का खंडन करना पडता है। अगर कामदेव मूर्ति, नमुत्थुणं प्रक्षेप का खुद के मन से विश्वास होता तो मान्य आगमों को चरितानुवाद (केवल कथानक) मानने तक नही पहुँचते । कितने भी कुतर्क करने पर भी, खुद को तो पता ही होता है कि मैं कुतर्क कर रहा हूँ, वस्तुस्थिति और ही है। और किसी भी हालत में अपने पक्ष की सिद्धि तो करनी है अतः चरित्तानुवाद तक पहुंचना पड़ता है।
अब डोशीजी में ठूस-ठूसकर भरा हुआ दृष्टिराग बहार निकल रहा है, इसे देखिये इनकी पुस्तक के प्रकरण ३३ में 'मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं हैं' प्रकरण में मूर्ति-मूर्तिपूजक-मूर्तिपूजक साधुओं को बदनाम करने के इरादे से ५ उदाहरण दिये हैं, उसमें से प्रथम तीन उदाहरण चरितानुवाद कोटी में आयेंगे या नहीं ? आयेंगे ही क्योंकि ऐसे धतींग अगर कोई कर ले उससे वे सार्वत्रिक-सभी ऐसे करते हैं, करेंगे, ऐसा नहीं माना जाता । स्थानकवासी समाज में भी धतींग के किस्से होते हैं उससे स्थानकवासी संत सभी उस कोटी में नही गिने जाते यहाँ खुद भी अपनी सिद्धि के लिये चरितानुवाद के उदाहरण देते हैं, तब ये उनके शब्द "मतभेद और आचार विचार के मामलों में कथाओं की ओट लेनेवाले जनता को उन्मार्ग की ओर धकेलने और द्वेष फैलाने वाले भयङ्कर जन्तु हैं ।'' उनको खुद को ही लागू पडेंगे ।
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१३५ दूसरी बात यह है कि अभयदेवसूरिजी म.ने जो कहा है वह अलग संदर्भ में, उसे डोशीजी अलग संदर्भ में ले रहे हैं देखिये पूरा टीका पाठ इस प्रकार है
* “न च द्रौपद्याः प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमात्रप्रामाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवादरूपत्वादश्य न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति" *
इसमें द्रौपदी ने केवल नमुत्थुणं बोलकर चैत्यवंदन किया ऐसा सूत्र में बताया है, इसलिये दूसरे श्रावकों को भी ऐसा ही करना, संपूर्ण चैत्यवंदनविधि करने की जरूर नही ? ऐसा पूर्वपक्ष बताकर इसके समाधान में बताते हैं सूत्र में अकेले नमुत्थुणं से चैत्यवंदन की जो बात की है वह चरितानुवाद स्वरूप है । चरितानुवाद वचन विधि-निषेध साधक नहीं होते हैं । इससे पाठक समझ सकेंगे अभयदेवसूरिजी को चरितानुवाद से अकेले नमुत्थुणं सूत्र से जो चैत्यवंदन किया वह अभिप्रेत है । दूसरे श्रावकों को पूर्ण चैत्यवंदन विधि करनी चाहिये, सूत्र में जो अकेला नमुत्थुणं बताया है वह चरितानुवाद स्वरूप समझना चाहिए, ऐसा उनका कहना है । इस बात को डोशीजी किस तरफ खींच ले गए ? सच यह है कि - स्थानकवासी संत और श्री डोशीजी आदि श्री जैनागम और जैनागमों की वृत्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि के सहारे ही अपना साहित्य आदि लिखते हैं । क्योंकि इस बेबुनियाद परंपरा के पास अपना स्वयं का तो कुछ है ही नहीं ।
पर जब जिन मंदिर और जिनमूर्ति की आगम शास्त्रों में बात आती है, तो तुरन्त ही कुतर्क करने बैठ जाते हैं । और अन्य स्थल पर कुतर्क नहीं करके सभी बाते मान लेते हैं । पर इस अनागमिक परंपरा ने जिनमंदिर और जिनमूर्ति का ही विरोध-अपलाप-इन्कार किया है, जिससे इस विषय में आगमशास्त्रों को भी झुठलाते हैं । और प्राचीन शास्त्रकारों को भी अमान्य कर देते हैं।
रामायण, महाभारत आगमशास्त्रों में नहीं है, तो भी इनका स्वीकार
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा करते हैं, और उसमें भी जिनमंदिर और जिनमूर्ति की बात को अमान्य करते
हैं।
ऐसी स्थिति में पंचमहाव्रतधारी संतों का दूसरा महाव्रत कैसे रहता है ?
दूसरी बात द्रौपदी की पूजाविधि अधिकार में मूलसूत्र में लिखा है कि 'द्रौपदीने सूर्याभदेव की भांति जिनप्रतिमा का पूजन किया अर्थात् जिस विधि से सिद्धायतन गत जिनप्रतिमाओं का पूजन सूर्याभदेव ने किया, उसी भांति उसी विधि से यहाँ पर द्रौपदी ने जिनप्रतिमा की पूजा की । इस उल्लेख से प्रतिमा का पूजनमात्र चरितानुवाद रूप न रहकर विधेयरूप बन जाता हैं । चरित्रगत जिस कर्तव्य का दूसरों के लिये उदाहरण रूप से निर्देश किया जाय वह चरित्रमात्र नहीं किन्तु विधेय-कर्तव्यरूप हो जाता है. सूर्याभदेव का अधिकार राजप्रश्नीयगत सूर्याभदेव की पूजाविधि को दृष्टान्तरूप से उपस्थित करने का अर्थ ही मूर्तिवाद को,विधेय-विधिनिष्पन्न प्रमाणित करना है।
अपनी कल्पना से जो सिद्धांत गढा हो, वह सिद्धांत कोई शास्त्रीय दृष्टांत में बाधित होता हों (खोटा साबित होता हो) तो वह कल्पित सिद्धांतखोटा है, ऐसा मानकर बदलना चाहिए । आगमिक दृष्टांत से आगमिक सिद्धांत निश्चित होता है, इसीलिए द्रौपदी, सूर्याभदेव, आदि के दृष्टांत से मूर्तिपूजा का सिद्धांत निश्चित (यह सच्चा है ऐसा निर्णय) होता है ।
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१३७ २१. लोकागच्छीय यति → समीक्षा इसमें डोशीजी ने लोंकाशाह के विषय में प्रशंसा के पहाड़ खड़े किये हैं, उपमाओं के सागर सुखा दिये हैं.. पर इसमें कोई ऐतिहासिक प्रमाण व सच्चाई का सबूत वे नहीं दे सके हैं । साधुओं की निंदा तथा लोंकाशाह की प्रशंसा आगे भी बहुत की हैं । परंतु मान्यताएँ सभी प्रमाण नहीं होती है । चार्वाक आदि भी अपनी मान्यता से चलते हैं । वे मध्यस्थजनों के लिये प्रमाण नहीं हैं । मान्यताओं को आगम इतिहास-तर्क के कसौटी पर कसने पर ही उसी में से सच्चाई प्रगट होती है । लोंकाशाह के काल में संविग्न साधु थे। उनके द्वारा क्रियोद्धार भी हुआ था जो इतिहास के द्वारा स्पष्ट पाया जाता है, जिससे लोंकाशाह के बारे में जो विचार रखे हैं उसमें कोई प्रमाण नहीं है । कल्पना के घोड़े दौडाये हैं । इस विषय की जानकारी के लिये पू. ज्ञानसुंदरजी की 'श्रीमान् लोकाशाह' पुस्तक, पं श्री कल्याण विजयजी की 'पट्टावली पराग संग्रह' अंतर्गत 'लोंकागच्छ और स्थानकवासी' प्रकरण पढ़ने पर लोंकाशाह के काल की स्थिति, लोकाशाह के सही इतिहास का बोध होगा, तब तटस्थ व्यक्ति समझ सकेंगे डोशीजी की मान्यताओं में कितनी असत्यता, कितना कदाग्रह भरा हुआ है।
दूसरी बात लोंकाशाह गृहस्थ थे, साधु नही थे। बाद में कलीकाल के प्रभाव से - हुंडा अवसर्पिणी काल में भस्म ग्रह के प्रभाव से उस नगुरे पंथ में भी यति बने । उनमें से बहुत सारे यतियोने सत्य तत्त्व समझने पर संवेगी-मूर्तिपूजकों में चारित्र ग्रहण किया । वर्तमान स्थानकवासी वेशधारी साधु तो लोंकशाह के पंथ में करीब २०० वर्ष बाद(सं. १७०८) में हुए, लोकाशाह के यतिओं द्वारा गच्छ से बहार निकाले धर्मसिंहजी उनमें सर्वप्रथम हुए । अब पाठक साफ समझ सकते हैं कि वर्तमान स्थानकवासी मुनियों के पूर्वज तो लोंकागच्छीय यति ही थे । तो पू. ज्ञानसुंदरजी म. ने अनेकस्थलों में लोकगच्छ के यतियोने किये हुए अर्थ बताकर उनको प्रमाण मानने की आपको सिफारिश की है वह बराबर ही है ।
डोशीजी ने जो सद्गुणी सेठ का दृष्टांत दिया है, वह बराबर नहीं
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है । दृष्टांत इस प्रकार होना चाहिए - एक सद्गुणी सेठ का एक पुत्र पिता के आदर्श को ठुकराकर उनके नाम को कलंकित करनेवाला, उसके दो पुत्र जिसमें से प्रथम पुत्र ने पिता के आदर्शों को भवभ्रमण का कारण समक्षकर दादा के आदर्शों को अपनाया । दूसरे पुत्र ने पिता के दोषयुक्त आदर्शों को ही अपनाया उसमें और भी नये असभ्य रीति रिवाजों को बढ़ाया । अब आप बताइये इन दो में कौन सुपुत्र कहलाने योग्य हैं ? कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रथम सुपुत्र, दूसरा कुपुत्र । इसमें सद्गुणी सेठ = तीर्थंकर परमात्मा, उनके पुत्र के स्थान पर लोंकाशाह, प्रथम पुत्र- लोंकागच्छ के यति, दूसरा पुत्र स्थानकवासी साधु ।
डोशीजी ! तर्क और दृष्टांत जैसे घटाने वैसे घट सकते हैं । सनातन सत्य तो एक ही रहता है, उसमें फेरफार नहीं होता है, जो प्रभु द्वारा स्थापना निक्षेप की पूज्यता आगमों में प्ररूपित है वही सनातन सत्य है ।
पानी पर बनी पड़ी
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१३९ २२. स्थापनाचार्य का मिथ्या अइंगा → समीक्षा
इसमें ज्ञानसुंदरजी ने पाठ बताया है वह योग्य ही है, टब्बाकार ने उसके अर्थ में स्पष्ट लिखा है "बे वेला मस्तक नमाडवा गुरूनी स्थापना कीजे'' यह अर्थ टब्बाकारने ही किया है ज्ञानसुंदरजी का खुद का अर्थ नही है। आगे टब्बाकार 'गुरूने पगे वंदना कीजे... बे वेला गुरूने पगे मस्तक नमाइए" इसमें भी गुरू पगे का अर्थ गुरू स्थापना लेना है क्योंकि ऊपर स्पष्ट दो बार मस्तक नमाने के लिये गुरू स्थापना का कहा है । इस टब्बाकार के भाव को छिपाकर डोशीजी टब्बाकार के आशय विरूद्ध अर्थ कर के, भोले लोगों को फसाते हैं । अंत मे टब्बाकार ने स्पष्ट शब्दों में 'एह समवायांगवृत्तिनो भाव' कह करके भगवान महावीर से, प्राचीन परंपरा से, जो क्रियाविधि आती है उसे ही टीका के भाव स्वरूप में बताया है। अगर टब्बा में बताये मुजब भाव न माने तो अनेक आपत्तियां आती है, सब (अनेक) साधु साथ में मांडली में प्रतिक्रमण करते, तब गुरू के पैरों में वांदणा एक ही साधु दे सकता हैं, दूसरे साधु क्या करे ? क्रमशः वांदणा देवे तो सैंकड़ों साधु की भगवान के वक्त संख्या थी तब क्या करे ? पूरे दिन वांदणा आवश्यक ही पूरा न हो सकेगा ? श्रावक घर में प्रतिक्रमण में क्या करेंगे ? इसलिये टब्बाकार का भाव उचित ही है। .
आगे डोशीजी अप्रस्तुत चरितानुवाद के उदाहरण देकर कुतर्क कर रहे हैं । खुद ही पीछे (२१) वे प्रकरण में चरितानुवाद का निषेध करते हैं, यहां पर खुद ही उसी का सहारा लेते हैं, है न; कथनी करणी में विरोध ? उनके कुतर्क पर भी हम विचार करेंगे । पहले उदाहरण में 'जन्म आदि कल्याण' न लिखकर 'केवल आदि कल्याण' लिखते हैं, यद्यपि मूलसूत्र जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति इत्यादि में जन्म कल्याणक में भी नमुत्थुणं विधि बतायी हैं परंतु स्थानकवासियों के हृदय में वह सूची की तरह चुभती हैं क्योंकि उस वक्त तीर्थंकर का द्रव्य निक्षेप है उसे वे पूज्य नहीं मानते भाव निक्षेप को ही पूज्य मानते हैं । इसलिये डोशीजी ने यह कपट किया है।
इंद्र को स्थापनाचार्य की आवश्यकता ही क्या है ? जिनके कल्याणक
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा से सिंहासन चलित हुआ अवधिज्ञान द्वारा देख रहे हैं तो उनके सामने ही तो वे नमुत्थुणं करेंगे स्थापना के सामने क्यों करेंगे? यह तो छोटा बच्चा भी समझ सकता है। आगे जिसका कोई संबंध ही नहीं बैठता वैसा मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष निकालते हैं । "मूर्तियों और उनकी पूजा से धर्म का कुछ भी संबंध नहीं है" सारे विश्व में बहुसंख्यजन मूर्तिपूजा को धर्मरूप में मान रहे हैं उससे विरूद्ध लोक-विरूद्ध शास्त्रविरूद्ध प्ररूपणा डोशीजी कर रहे हैं । उपासकदशांग आदि सूत्रों में सब उपकरणों का उल्लेख होना ही चाहिये. यह आवश्यक नहीं हैं। चरवला-पुंजणी का नाम नही हैं तो क्या वह भी नहीं थी? संक्षिप्त सत्रों में कितना बताया जाए ? अनसन में बाहर जाकर करे उसमें प्रायः स्थापना की उनको जरुरत नहीं रहती है सर्वत्याग-वोसिराते है। हजारों साल पहले के चूर्णि-टीका वगैरे में स्थापनाजी का उल्लेख है। हज़ार साल पूर्व की गुरू मूर्तियाँ साँडेराव-सेवाड़ी-ओसियाजी आदि अनेक स्थलों पर मिलती है, जिनके आगे स्थापनाजी, उसके आगे साधु-श्रावक क्रिया करते बताये हैं यही प्रबल प्रमाण अविछिन्न परंपरा में हैं। उनके हाथ में मुहपत्ती हैं, परंतु मुँह पर नहीं है। स्थानकवासी संत जो मुंह पर चौबीसों घंटा मुहपत्ति बांधते रहते हैं, वह भी अनागमिक और कुलिंग है ।
___ठाणांग में स्थापना सत्य बताया है । अनुयोग द्वार मूलसूत्र में स्पष्ट शब्दों मे "कट्ठकम्मे अक्खे वराडए वा एगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा असब्भावठवणाए आवस्सए त्ति ठवणा ठविज्जति" इसमें अक्ष वराटककाष्टकर्म में एक - या अनेक की सद्भाव स्थापना (काष्ट कर्मादि में) या असद्भावस्थापना द्वारा आवश्यक की (आवश्यक करते साधु की) स्थापना करना वह स्थापना आवश्यक कहलाता है। इसमें जो अक्ष दिए हैं वह परंपरा से जिसमें स्थापना होती है वे ही समझना । यह मूर्तिपूजक जैन संघ में अति-प्रचलित हैं। इसमें गुरू आदि की असद्भाव स्थापना की जाती है, जो ऊपर सूत्र में बताया
__ आगे डोशीजीने "हमें इसमें कोई आग्रह नही है जैसी जिसकी मान्यता हों करे" यह कहकर गोलमाल किया है। जिनके पास भगवान से जुड़नेवाली
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा कोई परंपरा ही नहीं है, नहीं कोई शास्त्रविधान, उसे अपनी-अपनी बुद्धि से भिन्न-भिन्न विभागों में बांटकर अपने कल्पित मत में कल्पित होने से ही एकवाक्यता नही है उसका विश्व को पता कराते हैं । क्रिया-आदेश आदि गुरू के समक्ष होने चाहिये उनको भगवान के पास मांग रहे हैं । उसमें भी कोई सीमंधर स्वामी के पास, कोई अन्य किसी के पास, मर्जी मुताबिक मांगने का कह रहे हैं । बेबुनियाद और अनागमिक पंथ का तमाशा देखिए । आगे डोशीजी अनभिमत दोषों का आरोपण कर रहे हैं, उसके उत्तर में मालूम हो कि मूर्तिपूजक मूर्ति स्थापना आदि में गुणों की ही कल्पना करते हैं। केवल जड़ मूर्तियाँ स्थापना मानकर उपासना करते ही नहीं है किन्तु इसमें साक्षात् जिन भगवान मानते हैं । साकार से निराकार की साधना करते हैं । आपको दोनों की (आकृति और गुणो की) कल्पना करनी पडती हैं, हमको केवल गुणों की ही कल्पना करनी पडती हैं । जो जिनमूर्ति में आस्था नहीं रखते उन्हें जिनमूर्ति से कोई भी शुभ भाव आने की शक्यता ही नहीं है । भारतीय राष्ट्रध्वज है तो निर्जीव-कपड़े का टुकडा, फिर भी राष्ट्रप्रेमी भारतीय को उसे देखकर खुशी होगी । कोई पाकिस्तानी को नहीं । इसी प्रकार द्वेषीअज्ञानी को जिनमंदिर-जिनमूर्ति को देखकर शुभभाव होगा ही नहीं ।
विधायरीन
TV
CHKADI
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'जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 23. व्यवहारसूत्र का समभावित चैत्य → समीक्षा ____ इस प्रकरण में डोशीजी एकदम निम्नस्तर पर पहुंचे हैं । ज्ञानसुंदरजी को तो अनेक स्थलों पर भांडे हैं, उत्सूत्र प्ररूपक इत्यादि मिथ्या आरोप भी लगाये हैं । परंतु अत्यन्त-भवभीरू कहीं पर उत्सूत्र प्ररूपणा हो न जावे उसका डर जिनके रोम-रोम में है, टीका के अवलोकन से ज्ञात होता हैं पूर्वटीका के आधारपर खुद ने रचना की हैं, पूर्व अविच्छिन्न गुरूपरंपरा जिनको प्राप्त हैं ऐसे महान् टीकाकार महापुरूष के लिये भी उत्सूत्र प्ररूपणा का आरोप लगाते तिलमात्र भी हिचकिचाते नहीं । महाभिनिवेश युक्त इस व्यक्ति को जगह-जगह पर खुद की उत्सूत्र प्ररूपणा का तो भान भी नहीं है । महामिथ्यात्व में फंसे व्यक्ति को उसका भान न होवे उसमें आश्चर्य ही क्या है ?
इतना ध्यान रहे टीकाकार ने टीका अपनी बुद्धि से ही नहीं बनायी हैं, पूर्व टीका, चूर्णि आदि के आधार से ही चले हैं । पूर्व टीकाकारने अपनी परमात्मा से चली आती परंपरा के आधार पर ही टीका आदि रची है तो उत्सूत्र प्ररूपक टीकाकार या डोशीजी? पाठक विचार करें । आगे जैसे अभव्य भारेकर्मी जीवों को साक्षात् परमात्मा से द्वेष होता है वैसे ही भारेकर्मी डोशीजी के दिल में ठूस-ठूसकर जो जिनप्रतिमा के प्रति द्वेष भरा हुआ है वह विषोद्गार रूप से बहार निकल रहा है उसके जवाब पूर्व में दे दिये हैं ।
चूर्णि-टीका आदि नियुक्ति-मूलसूत्र के भाव को खोलते हैं । वह पूर्व टीका-परंपरादि के आधार पर ही बनाते हैं । जिनके पास प्राचीन परंपरा का बिंदु तक नही हैं, जो सम्मूर्छिम जैसे टपक पड़े हैं ऐसे स्थानकवासी संत खुद की कल्पना से मूलसूत्र के अर्थभाव को बतावे उसे सुज्ञ-तटस्थ बुद्धिशाली व्यक्ति प्रमाण मान ही नहीं सकता मूल सूत्र-नियुक्ति में संक्षेप में बहुत कुछ बताते हैं । उसका भाव चूणि टीका के बिना पकड़ ही नहीं सकते । स्थानकवासियों ने भी उसके आधार पर ही अर्थ-अनुवाद किये हैं। मूर्ति की बात आने पर खुद अर्थ बदलकर टीका आदि पर झूठा कलंक लगाते हैं जैसे कोई कुपुत्र अपने ही पिता का विरोध-निंदा करे देखियें
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वृत्ति प्रमुख जोई करी भाषे आगम आप । तेहज मूढा ओलवे, जेम कुपुत्र निज बाप ॥४॥१६५।।
सीमंधर स्वामी स्तवन ३५० गाथा (कर्ता-सरस्वतीवरप्राप्त महोपाध्याय प पू. यशोविजयजी म.सा.)
दूसरी बात सम्मभावित चैत्य के अभाव में पूर्व अथवा उत्तर दिशा सन्मुख आलोचना करना स्पष्ट बताया है । जिसमें कोई भी आलंबन नहीं फिर भी पूर्व-उत्तर दिशा सन्मुख आलोचना करना क्यों बताया? वे दिशाए पूज्य-पवित्र गिनी जाती हैं यही कारण मालूम पड़ता है। अगर पवित्रता के कारण किसी भी आलंबन बिना उन दिशा सन्मुख आलोचना करना सूत्रकारों को इष्ट है तो परमपवित्र जिनप्रतिमा के सन्मुख आलोचना करना सूत्र नियुक्तिकार को अनभिमत होगा क्या? कदापि नहीं । अतः टीकाकारश्रीने पूर्ववर्ती-चूर्णि-टीकादि के आधार पर सूत्र और नियुक्ति के भावों का ही उद्घाटन किया है।
डोशीजी की मायाचारीता देखिये जहाँ सूत्रकार पूर्व अथवा उत्तर दिशा बता रहे हैं वहा डोशीजी ईशान दिशा बता रहे हैं । सूत्रकारों ने बिना ही आलंबन आलोचना लेना बताया है, जो इनको आपत्तिस्वरूप है । अतः जानबूझकर सूत्र के अर्थ का परिवर्तन करके ईशान दिशा (सीमंधर स्वामी) बता रहे हैं । यह चालकी पाठक खुद समझ सकेंगे। उत्सूत्र प्ररूपणा टीकाकार करते है या डोशीजी उसका निर्णय भी करेंगे।
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२४. पट्टावली के नाम से प्रपंच → समीक्षा
वस्तुतः पट्टावली ही अप्रामाणिक कपोलकल्पित है। उसमें कोई प्रमाण ही नही है । उसी कारण से उसमें परस्पर विरोधी बाते दिखायी देती हैं । देखिये पहले पट्टावली की बातों का विरोध - मणिलालजी लिख रहे हैं “वली सिद्धांतोमां पण स्थापना निक्षेप कहेल छे, तो श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमाने स्थापना करवामा कोई जातनो प्रतिबंध नडतो नथी." इस वाक्य को स्थानकवासी समाज खुद डोशीजी प्रमाण मानेंगे ? कदापि नहीं मान सकते, उनमें मूर्तिद्वेष पूर्णरुप से भरा हुआ है । आगे मणिलालजी लिखते हैं "सुविहित आचार्योए श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमार्नु अवलम्बन बताव्यु..." यहाँ पर विचार कीजिएसुविहित का मतलब आपके हिसाब से तो स्थानकवासी साधु-आचार्य ही होगा तो क्या लोकाशाह पूर्व उनकी सत्ता थी? अगर थी तो लोकाशाह को क्रांति की क्या जरूरत पड़ी ? क्या वे आचार्य क्रांति में असमर्थ थे ? अगर आपके हिसाब से उनके अप्रामाणिक अस्तित्व को माना जाए तो भी प्रश्न रहता है क्या सुविहित (स्थानकवासी) आचार्यों ने जिनप्रतिमाओं की स्थापना-उनकी प्रतिष्ठा की ? यह बात न तो आपको मान्य है नहीं हमे मान्य । इससे और ऐसी ही दूसरी बातें भी इसमें है जिससे सिद्ध होता है मणिलालजी की प्रभुवीर पट्टावली प्रमाणहीन-कपोल कल्पित है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२५. स्वर्णगुलिका → समीक्षा इसमें डोशीजी को कोई व्यवस्थित कुतर्क नहीं मिलने पर आतंकवादी के समान बनकर अतिस्पष्ट खुल्लम-खुला ऋषिजी की तस्कर वृत्ति को ज्ञानसुंदरजी पर अपशब्दों का कीचड़ उडाकर ढकना चाहा है। परंतु मध्यस्थ व्यक्ति से यह छुपा नहीं रह सकता । जिस किसी टीका का सहारा लेकर अमोलकऋषिजी कथानक बता रहे हैं उसमें आयी मति की बात को उडा देना तस्करवृत्ति नहीं तो क्या ? आपने पीछे के प्रकरण में प्रभुवीर पट्टावली के बारे में आक्रोश किया वह ऋषिजी और उनके समर्थक आपको लागू नही होता है ? सभी जगह अन्य कुयुक्ति नहीं मिलने पर मूल के अर्थ से विपरीत की डींग लगानेवाले आप और आपके माने पूर्वज मूल में सुवर्णगुलिका का वृत्तांत बता सकेंगे ? जो नहीं, तो जिनके पास प्रामाणिक परंपरा हैं ऐसे भवभीरू टीकाकारों के दृष्टांत को मानना और मूर्ति की बाते आए उसे छुपाना, बदल देना-निंदा करना इसमें सज्जनता नहीं है । आप ही के आचार्य जवाहरलालजी कहते हैं "चूर्णि की आधी बात मानना, आधी न मानना यह दुराग्रह के सिवाय कुछ नही'' इस आपके पूर्वजों के उपदेश को गले उतारा होता तो चोरी का पक्षपात करके ऐसे अपशब्द ज्ञानसुंदरजी के प्रति नहीं निकलते ।
नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका का आधार लेना उनकी प्रायः सभी बातें मानना केवल मूर्तिसंबंधी बात आए उसको न मानना यह मत दुराग्रह के सिवाय क्या हैं ? मध्यस्थ जन समझ सकते हैं । सूत्र में भी मूर्ति की बात आये तो अर्थों को बदलना, तोड़-मरोड़कर मनमाने अर्थ करना, पाठों को बदलना, निकालना यह सब कुमताग्रहवाले जिसे परभव का डर नहीं वे ही कर सकते हैं । (इन बातों के प्रमाण के लिये देखिये - "उन्मार्ग छोड़िये सन्मार्ग भजिये", कपूरचंद जैन-हिण्डौनसिटी, लोंकागच्छ और स्थानकवासी पृ. ६५ जैन आगमों में कांट छांट) और इतना करने पर भी 'चोर कोतवाल को डांटे' कहावतानुसार गलत आक्षेप पूर्व महापुरूषों पर लगाकर अपनी चोरी उन पर थोपना महासंसार भ्रमण का कारण है । पीछे २४वें व्यवहार
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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सूत्र के प्रकरण में टीका आदि की प्रामाणिकता बता ही दी है।
प्रश्नव्याकरण में अब्रह्मचर्य प्रकरण में 'सुवर्णगुलिका' का नाम है, टीका में जो कथानक बताया है उससे मूलाशय को कहाँ बाधा आती है ? मूलाशय विरूद्ध वह हैं ही नही । इस कथा में कामी चंड प्रद्योत सुवर्णगुलिका को उठा ले गया उसके लिये संग्राम हुआ बताया हैं वह सूत्राशय के अनुसार ही है । इसके आगे पीछे का संबंध टीकाकारों ने अपनी कल्पना से नही परंतु हजारों सालों से चली आती प्राचीन टीका चूर्णि-सुविशुद्ध परंपरा के आधार से दिया है । मूर्तिद्वेष के दुराग्रह से उसके लिये अभद्र शब्दों का प्रयोग करना सज्जनता नहीं है। सूत्र में मूर्ति-विरोध बताया हो और टीकाकार मूर्ति की बाते लाए तो ही सूत्रविरूद्ध या मूलाशय विरूद्ध कह सकते हैं। जब की इस सूत्र में तो क्या, पर स्थानकवासी मान्य ३२ आगमों में एक शब्द से भी मूर्ति या मूर्तिपूजा का विरोध या उसमें मिथ्यात्व कोई बता नहीं सकता है । इससे तो उल्टा ये सिद्ध होता है आप जो जोरशोर से मूर्तिपूजा का विरोध करते है, वह ही मूलागम आशयविरूद्ध है। एक भी पाठ आगम में मूर्तिपूजा के विरोध का है ही नहीं, केवल भोले लोगों को हिंसा-हिंसा करके आप फंसाते हैं । दूसरी बात प्रश्नव्याकरण में सुवर्णगुलिका के साथ दूसरे सीता, द्रौपदी, रूक्मिणी, पद्मावती, तारा, कंचणा, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, किन्नरी, सुरुपविद्युन्मती रोहिणी इतने नाम हैं, जिनके लिये युद्ध हुए, अब इन सबके चरित्र भी टीका या अन्य मूर्तिपूजकों के साहित्य से लेंगे उसमें से जिसमे मूर्ति की बात नहीं होंगी उसको संपूर्ण मान्य रखेंगे और जिसमें मूर्ति की बात होगी उसे निकालकर ही अपनी बात को प्रस्तुत करेंगे । इस प्रवृत्ति को मध्यस्थ व्यक्ति क्या समझेंगे ?
भगवतीजी सूत्र के श. १३ उ. ६ में उदायी राजा-प्रभावती का चरित्र तो संक्षिप्त है। क्या आप मानेंगे भगवती में उदायीराजा पौषध-दीक्षाविचारप्रभु पधारे - भाणेज केशी को राज्य देकर चारित्र-इतनी ही बातें है तो इसके अलावा इनके जीवन में कोई भी घटना नहीं घटी ? मानना ही पड़ेगा यहाँ पर अतिसंक्षेप में केवल चारित्र संबंधी ही बात है तो दूसरी बाते हजारों
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साल से चली आ रही चूर्णि - टीकाओं के आधार पर ही माननी पडेगी । उसमें से दूसरी बातें मानना, मूर्ति की नहीं मानना-छुपा देना यह चोरीदुराग्रह ही है ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा २६. स्थापनासत्य में समझाफेर → समीक्षा
इसमें डोशीजी का ही समझफेर है। देखिये - जनपद सम्मत-ठवणा - नाम - रूप - प्रतीत्य-व्यवहार-भाव-योग-उपमा ये दस सत्य ठाणांग और पन्नवणा सूत्र में बताये हैं । ___इनमें सभी स्थान में अनुपपत्ति खडी होती है, उसका समाधान तत्तत् सत्य मानने से ही होता है । इसीलिये ये १० ही सत्य बताये हैं । वह इस प्रकार
__ (१) कोंकण मे पानी को पिच्च कहते हैं । पानी को पयः कहते हैं पिच्च कैसे ? जनपद सत्य से कहा जाता है । उस देश में ऐसा प्रयोग सत्य है।
(२) कुमुद-कुवलय-उत्पल सभी पंक कीचड़ में उत्पन्न होने पर भी अरविंद को ही पंकज कहते हैं ऐसा क्यों ? सकल लोकसम्मत होने से उसे ही पंकज कहना दूसरों को नहीं कहना सम्मत सत्य है।
(३) १०० अंक १००० अंक आदि को १०० या १००० की संख्या कैसे कहते हो वह तो अंक है ? वैसे ही कागज के टुकड़े पर छाप लगने पर वह नोट कैसे कही जाती है ? कागज का टुकडा ही तो है ? दोनो स्थापना सत्य के हिसाब से क्रमशः संख्या और नोट कहे जाते हैं।
(४) कुल का वर्धन (वृद्धि) नहीं करने पर भी कुलवर्धन नाम से उस व्यक्ति को क्यों बुलाया जाता है ? नामसत्य के कारण उस प्रकार से बुलाने में दोष नहीं है।
(५) दंभ से जिसने प्रवज्या ली है, वह प्रव्रजित कैसे कहलाता है ? रूप सत्य से वैसे कहने में दोष नहीं हैं ।
(६) अनामिका में कनिष्ठा की अपेक्षा दीर्घत्व मध्यमा की अपेक्षा से हुस्वत्व कैसे ? एक में इस्वत्व-दीर्घत्व दोनों परस्पर विरुद्ध गुण कैसे ? प्रतीत्य सत्य की अपेक्षा उसे हुस्व-दीर्घ कहने में दोष नहीं है । अलग
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१४९ अलग अपेक्षा से है इसलिये दोष नहीं है ।
(७) पर्वत पर के घास आदि के जलने पर पर्वत जलता है और भाजन(पात्र) में से पानी टपकने पर भाजन टपकता है, कैसे कह सकते हैं ? व्यवहार में ऐसा प्रयोग होता है अतः व्यवहार सत्य होने से ऐसा प्रयोग अविरूद्ध है।
(८) पांच वर्ण भ्रमर में होते हैं, तो उसे काला कैसे कह सकते हैं ? उसमें कालावर्ण उत्कट है अतः काला भ्रमर कहा जाता है, वह भावसत्य
(९) हमेशा जिसके पास दंड है उसे दंडी, छत्र है उसे छत्री कहे यह तो बराबर परंतु क्वचित् दंड-छत्र न होने पर भी उस वक्त उसे दंडी, छत्री कहना बराबर नहीं है ? योगसत्य होने से वैसा प्रयोग होता है, अतः विरूद्ध नहीं कहलाता । जैसे मुंहपति डोरी पर सूखती हो तभी भी मुंहपति ही कही जाएगी, न कि कपड़े का टुकड़ा।
(१०) कहाँ समुद्र और कहाँ तालाब उसे समुद्र के समान कैसे कह सकते हैं ? उपमासत्य के हिसाब से समुद्रवत् तडागः प्रयोग अविरूद्ध है ।
उपरोक्त सभी उदाहरणो में अनुपपत्ति का समाधान उन-उन सत्यों को मानने पर होता है, मुख्य बात तो यह है कि विरूद्ध जैसे लगने पर भी वैसे प्रयोग लोक में होते है वे असत्य नहीं कहलाते हैं । टीका देखने से यह ज्ञात होता हैं । स्थापना को स्थापना मानना, मूर्ति को मूर्ति, चित्र को चित्र, जंबूद्वीप के नक्शे को नक्शा मानना इसमें कोई भी विसंगति हैं ही नहीं, इसलिये यह स्थापना सत्य में आ ही नहीं सकता, तो उसे किस सत्य मे गिनेंगे? जनपद सत्य में उसे गिन सकते हैं । उस-उस देश में आकारवाली वस्तु को मूर्ति, चित्र आदि कहते हैं, इसलिये वह प्रयोग उस देश में प्रमाणभूत हैं दूसरे देश में उसके लिये दूसरा शब्दप्रयोग होता है ।
डोशीजीने जानबूझकर टीका के दूसरे-उदाहरणों को दिया है, स्थापना सत्य को छोड दिया है इस डोशीजी की वृत्ति को आपने पीछे अनेक स्थलों
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१५०
- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पर देखा है, उसी रीति का वापिस पुनरावर्तन हो रहा है । अभी डोशीजी द्वारा छोड़े टीका पाठ को देखिये
"यल्लेप्यादिकार्हदादि विकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापना सत्यं यथा अजिनोऽपि जिनोऽयमनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति" ठाणांग सूत्र १० स्थानक टीका इसमें स्पष्ट शब्दों में लेपादि से मूर्ति बनाये उसकी अरिहंत बुद्धि से स्थापना करे, उसे अरिहंत कहे वह स्थापना सत्य है । जिन नहीं है (मूर्ति ही है), तो भी उसे जिन कहें, आचार्य नहीं हैं (मूर्ति है) तो भी उसे आचार्य कहें वह स्थापना सत्य है । इतनी स्पष्ट व्याख्या है । इसलिये डोशीजी ने उसे छोड दीया है । इसी प्रकार से प्रज्ञापनासूत्र में भी अंक को संख्या और मुद्राविन्यास से माष-कार्षापण कहना कहा है। इन दोनों व्याख्या से डोशीजी का अर्थ स्पष्ट रीति से कूट-कल्पित प्रतीत होता है । आगम में मूल सूत्र में भी टीकाकार की व्याख्या के हिसाब से स्थापना निक्षेप का स्वीकार किया है । रायपसेणी सूत्र में 'धून दाऊण जिणवराणं' पाठ में जिनप्रतिमा को 'जिन' कहकर धूप विधान बताया है। इससे स्पष्ट है डोशीजी अज्ञानता अथवा जानबूझकर लोगों को भ्रमित करते हैं।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२७ डॉ. हर्मन जेकोबी का अटल अभिप्राय
इसमें डोशीजी ने बहुत ही दगाबाजी की हैं। इसमें मूर्तिपूजक समुदाय का अपमान होना, अभिप्राय बदलने का निवेदन किया, आदर सत्कार से खुश किया इत्यादि अंटसंट प्रमाणहीन बातें लिखी हैं। गुजराती में कहावत हैं, 'हार्यो जुगारी बमणु रमे" इस प्रकार से स्थानकवासी समाज ने कोशिश की और 'जैन हितेच्छु वर्ष १६ में लेख गुजराती में दिया तो उसे डॉ. साहेब का आखिरी निर्णय कैसे कह सकेंगे ? डॉ. खुद जो निर्णय उनके शब्दों में देते हैं वही उनका आखिरी निर्णय कहलाता है वह तो जोधपुर धर्मसूरिजी को ही दिया हुआ है। तो मिथ्या डींगे लगाना सज्जनता नहीं है
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मूर्तिपूजा की करणी चोथे पाँचवे गुणस्थानक के श्रावकों की है । छट्ठे गुणस्थानक वाले साधु की नहीं और सभी आगमों में आचार सूत्र साधु के उद्देश्य से बताये हैं उसमें मूर्तिपूजा का न होना स्वाभाविक है । इतनी सरल वस्तु को न समझकर " मूर्तिपूजा आचार विधान के सूत्रों में नहीं तो क्या अनाचार के सूत्रों में हैं ? " ऐसी-ऐसी असत् दलीलें की है, वे सभी बेकार हैं। आगे जाकर जिनको पक्षपात से कोई प्रयोजन नहीं, ऐसे मध्यस्थ डा० हर्मन जेकोबी पर भी आरोप लगाने में शरम आती नहीं हैं, चूँकि (आखिरी निर्णय उनकी मान्यता से विरूद्ध दिया ।) देखिये उनके शब्द "डॉ. साहब एक तो आभार में दबे हुए थे और फिर वातावरण ही सारा मूर्तिपूजा के पक्ष का था, तीसरा उन्हे अप्रसन्न भला वे क्यों करने लगे ?" आगे जाकर डोशीजी की बेईमानी देखिये - ये लिखते हैं "हिन्द के बाहर जर्मन से भी ऐसा अभिप्राय दिया है" आगे जर्मन से दिया हुआ ता. २९-८१९११ का अभिप्राय इंग्लिश में बताते हैं । अपनी अजमेर जोधपुर की बात सन् १९१४ की हैं । लोगों को भ्रम में डालने धोखा देने हेतु डोशीजीने 'अभिप्राय दिया है' लिखा है, पुरानी बात थी उसके लिये दिया था लिखना चाहिये था । तब प्रामाणिकता गिनी जाती । इससे तो उल्टा यही स्पष्ट होता है कि डॉ. जेकोबी की पहले गलत मान्यता थी, अजमेर में अज्ञानता होने से उसी मान्यता के हिसाब से अभिप्राय दिया था, उसके बाद आ. श्री
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समीक्षा
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· जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा धर्मसूरिजी से सद्बोध प्राप्त करने पर अज्ञान दूर हुआ और आखिरी सत्य अभिप्राय दिया। सम्यक ज्ञान के प्रकाश से अनेक विभूतियों ने मूर्ति-विरोधी मिथ्यात्व को तिलांजलि देकर प्रभु वीर की अक्षुण्ण सत्यनिष्ठ परम्परा को ग्रहण किया है, कर रहे हैं जिसकी सभी को अनुमोदना करनी चाहिए ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१५३ २८. स्तूप निर्माण का कारण → समीक्षा
इसमें डोशीजी मूल सूत्र जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में स्तूप का पाठ होने से उसे अप्रामाणिक तो कह ही नहीं सके, उससे मूर्तिपूजा की सिद्धि तो होती है अतः कदाग्रह से कहते है चैत्यों और स्तूपों से आत्मकल्याणकारी धर्म का कोई संबंध नही है।
इस पर विचार करें तो यह निस्सार वचन है ऐसा प्रतीत होता है । मूल सूत्र और डोशीजी के खुद के शब्द ही उन्हे पूजनीय घोषित करते है देखिये - डोशीजी चैत्यस्तूप निर्माण कारण बताते है “एक तो महापुरूषों की हज़ारों वर्षों तक याद रहती है, दूसरा उन माननीय पूजनीय महात्माओं की दाह भूमि पर कोई पैर आदि नही लगा सके या मलमूत्रादि न कर सके।" सुज्ञजन विचार करें जडपूजा का एकांत से विरोध-निषेध करनेवाले उसमें मिथ्यात्व मानने वाले स्थानकवासी समाज के हिसाब से प्रभु के नश्वर देह के अग्नि संस्कार पश्चात् उनकी राख, हड्डियाँ भी पूजनीय नहीं होती हैं तो उस जड़ स्थान की क्या कीमत ? उस स्थान पर कोई पैर रखे या मलमूत्र करे तो उससे क्या दोष लगना-आशातना होनी आपको मंजूर है ? अगर दोष लगनाआशातना मानो तो वह भूमि पवित्र-पूजनीय बन जाती है। उस पर बनाया गया स्तूप पवित्र-पूजनीय हो ही जाता है । आशातना-दोष नहीं है तो पैर लगना-मल-मूत्र त्यागादि से उस भूमि को बचाने की क्या आवश्यकता ?
__ आगे डोशीजी कहते हैं "चैत्य स्तूप श्रद्धावान् भक्तों की तरफ से बने हैं, यह प्रथा लाखों वर्षों से चली आ रही है" इसमें भी श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्वक स्तूप बनाते हैं, वह धर्म समझकर ही बनाते हैं, अधर्म-पाप समझकर नहीं बनाते यह स्वतः सिद्ध हो जाता है।
मूलसूत्र में भी स्पष्ट कहा है "सव्वरयणामए महए महालए तउ चेइय भूमे करेइ'' इससे सिद्ध हैं विशिष्ट भक्तिभाव से धर्म समझकर ही स्तूप बनाया था । अन्यथा उत्तम सर्व रत्नमय स्तूप बनाने की जरूरत नहीं थी, मिट्टी ईंट आदि का स्तूप-बनाते, पत्थर रख देते तो भी चलता।
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• जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा उत्तमद्रव्य-रत्नों से बनाया स्तूप ही विशिष्ट भक्ति-धर्म भावना को घोषित करता है । "स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे फिर पूज्य हो गये" यह कहना प्रमाणहीन कल्पना मात्र है । आगमविरूद्ध भी है । तीर्थंकर गणधर अवशेष साधु इस प्रकार तीन स्तूप अलग अलग बनाने की क्या आवश्यकता थी सबका मिलाकर एक ही स्तुप बनाते? इसका कारण तीनों की पूज्यता में तारतम्यता हैं, भले सभी सिद्ध बने तो भी भूत पर्याय द्रव्यनिक्षेप के हिसाब से पूज्यता में भेद है । इसीलिए तीन अलग-अलग स्तूप बनाए । इससे स्तूप की पूजनीयता आगम में ही स्वतः सिद्ध हो जाती है ।
गुरू के आसन-वस्त्रादि पूज्य मानते हो पैर लगे तो आशातना मानते हो तो परमात्मा से ही इतना द्वेष क्यों रखते हों ? क्यों उनके स्तूप को अपूज्य मानते हों ?
आगे जो चिता पर बनाये स्मारक को चैत्य कहते है इत्यादि बातें हैं, उसका समाधान आगे आएगा...
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२९. भक्ति या अपमान → समीक्षा इसमें डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के असभ्य-अपशब्दों का उल्लेख करते हैं इसके लिये इतना ही समझे "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' में जो असभ्य अपशब्दों का प्रयोग है वह सूई के समान हैं "जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा" में ऐसे अपशब्दों का प्रयोग तलवार के समान है, यह तटस्थ व्यक्ति दोनों पुस्तको का अवलोकन कर निर्णय कर सकते हैं । ___ आगे ज्ञानसुंदरजी का तर्क “विशिष्ट परोपकारी पुरूष घर पर आवे तो अपनी शक्ति अनुसार कोई उसका स्वागत-पुष्पादि से सम्मान करेगा ही । तो प्रभु विषय में हिंसा की शंकाएँ क्यों?" लेकिन उसका खंडन "ऋषभदेव प्रभु आहारार्थी थें, उनके सामने हीरे, जवाहरात, हाथी, घोड़े आदि प्रतिकूल वस्तुएं धरना, राजपूत किसी जैन ब्राह्मण का मद्य-मांस से आतिथ्य कैसे करेगा ? आदि दलीले दी हैं जो निस्सार हैं सामनेवाले का उनके प्रायोग्य सत्कारादि जैसे उचित होता है, वैसे ही प्रभु प्रतिमा का स्नानादि-पुष्पादि से पूजना लोक प्रसिद्ध हैं - लोकविरूद्ध नहीं है, साक्षात् तीर्थंकर और तीर्थंकर प्रतिमा दोनों के कल्प में फर्क होता ही हैं, यह सर्वविदित है । मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में जिनप्रतिमा को जिन ही माना जाता है। प्रत्येक स्तुति, प्रत्येक क्रिया भक्ति जनित है । इसे अपमान कहना मूर्खता है । अनेक स्थानों पर स्थानकवासी साधुओं के पगले-मूर्तियों-अस्थिकुंभ के पूजनादि होते हैं वैसे साक्षात् स्थानकवासी संतों के नहीं होते हैं, यह तो आप में भी प्रसिद्ध है तो ऐसे कुतर्कों से लोगों को भ्रमित करना उचित नहीं हैं । वह अपमान नही भक्ति ही है, लोक प्रसिद्ध है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 30. साधुमार्गी जैन मूर्तिपूजक नहीं हैं → समीक्षा
3१. विकृति का सहारा → समीक्षा ___ इन दो प्रकरणो में ज्ञानसुंदरजी की दलीलों से बचाव करने की पूरी कोशिश की है तटस्थ व्यक्ति उसे समझ सकते हैं । मूर्तिपूजकेतर समाजों में उनके पूज्य पुरूषों की मूर्तियाँ, फोटो, समाधि, पगले आदि की स्थापनादर्शन-पूजन आदि विशाल रूप से दिखाई देता है वह विकृति नहीं परंतु प्रकृति है । चूंकि केवल साधारण - अबूझ व्यक्तियों में ही नहीं किन्तु कट्टरतावाले - चुस्त व्यक्तिओं में भी यह प्रवृत्ति अनेक स्थलों पर दिखाई देती हैं। जिस प्रकार इक्षुरस की मधुरता का कोई अपलाप करे, उससे उसमें से मधुरता जाती नही हैं, ठीक उसी तरह मूर्तिपूजा का कितना भी विरोध करने पर भी केवली भगवंतो द्वारा प्रमाणीभूत स्थापना-निक्षेप की वंदनीयतापूजनीयता कभी भी मिट नही सकती। कितना भी प्रयत्न करने पर असद् उपदेशों से मूर्तिपूजा के भावों को मिटाने की कोशिश करने पर भी हृदय में रही श्रद्धा की असलीयत प्रगट हुए बिना रहती नही हैं।
सुनने मे आया हैं कि वर्तमान में ज्ञानगच्छाधिपति तपस्वी चंपालालजी म. जोधपुर में देहांत के बाद उनके जड़ शरीर की सोने के वरख से अंगरचना आदि खूब ठाठ किया उनके कट्टरपंथी भक्त उनके जड़ शरीर के दर्शनवंदन तो ठीक, परंतु अग्निसंस्कार के लिये जिन चंदन काष्टों पर उनके देह को रखा उन चंदन के काष्टों को उछल-उछल कर वंदन करते थे। जो संप्रदाय अपनी कट्टरता में विख्यात हैं, उनके कट्टर श्रावकों की भी यह स्थिति हैं, तो औरों की तो बात ही क्या ? हृदय से स्थापना निक्षेप का बहुमान प्राकृतिक रीति से प्रगट होता ही है। उसे प्रगट करना नहीं पड़ता है सर्वज्ञ परमात्माने अपने केवलज्ञान में अनादि स्वभावसिद्ध सत्य स्थापना निक्षेप, उसके बहुमान पूजन आदि से भाववृद्धि द्वारा जीवों को पुण्यबंध निर्जरादि देखे हैं । जीवों की उसके बहुमानादि की प्रवृत्ति भी स्वभावसिद्ध है वह भी देखा है। इसी कारण से जीवों की स्वाभाविक प्रवृत्ति उसमें होती है । जो शास्त्रविरोधी
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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असद् उपदेशों से उस सच्ची श्रद्धा को तोड़ते हैं वे महामिथ्यात्व मोहनीय का बंध करते हैं ।
डोशीजी जैनधर्म में भी मूर्तिपूजा को विकृति बता रहे हैं। मूल आगमों में गणधर भगवंत मूर्ति और मूर्तिपूजा को स्थान दे रहे हैं वह विकृति हैं या प्रकृति, उसका निर्णय तटस्थ व्यक्ति ही करेंगे
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मन में धन की आसक्ति
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 32. मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध → समीक्षा
(१) मूर्ति निर्माण का कारण - इसका प्रत्युत्तर 'स्तूप निर्माण और उसका कारण' प्रकरण के उत्तर में आ गया है । विशेष में डोशीजी के विचार प्रायः आगम प्रमाणहीन कपोल कल्पित हैं । जैसे, इस प्रकरण में लिखते हैं "चित्रों का या मूर्तियों का अनादित्व हो सकता है" उसी परिच्छेद में आगे खुद ही लिखते हैं "हाँ स्मारक रखने की रीति पुरानी अवश्य है और उसी के चलते समय के फेर से मूर्तियाँ बनी।" इसमें स्पष्ट है प्रथम मन्तव्य में मूर्तियों के अनादित्व की संभावना बाद में स्मारक और मूर्तियाँ दोनों को सादि माना । इस प्रकार डोशीजी के विचारों की डावाँडोल स्थिति में कोई भी मध्यस्थ उनके विचारों को प्रमाणहीन-कल्पना मात्र ही मानेगा । आगे भी ऐसी प्रमाणहीन कपोल कल्पना देखिये - "जिनमूर्तियों से भी प्राचीन मूर्तियाँ यक्षों की सुनी जाती हैं" ऐसा कहकर प्रमाण में आगे "मथुरा में कामदेव की भी एक मूर्ति पुरानी निकली है" कहते हैं । सुज्ञजन जान सकेंगे मथुरा में कामदेव की मूर्ति निकली, अनेक जैन मूर्तियाँ भी तो मिली तो इससे यक्ष मूर्ति ज्यादा प्राचीन कैसे हो सकती हैं ? यह केवल वीतराग परमात्मा के मूर्ति का द्वेष बुलवा रहा है । जैनागम स्वतः शाश्वत जिन प्रतिमाएं बता रहे हैं (जिनकी सिद्धि पीछे सूर्याभ प्रकरणादि में की गयी हैं) प्रतिमा पूजन भी बता रहे हैं, तो ये अपनी शूद्र फुटपट्टी से उनकी प्राचीनता नापने जा रहे हैं, उसका मूल्य ही क्या है ?
अनेक आगम प्रमाणों के सामने चन्द्रधर शर्मा, बेचरदासजी आदि का कोई मूल्य नही है।
(२) मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं है → समीक्षा - पूरे प्रकरण में लेखकश्री ने मूर्तिद्वेष से बिना कोई प्रमाण, कल्पना के घोड़े दौड़ाये है । प्रकरण के विषयों को छोडकर विषयांतर करके मूर्तिपूजकों की निंदा को ही इसमें प्रधानता दी है। प्रतिमा लेख के जाली होने में पूरे १० पेज के लेख में केवल एक "जैन सत्य प्रकाश' के लेख का अपूर्ण अंश दिया
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है । इसमें आगे पीछे की बातों को जानबूझकर छिपाया है । आगे पीछे संदर्भ से ही इसके हार्द को जान सकते है । दिये हुए लेखांश पर विचार करे तो भी मुनि श्री कल्याणविजयजी म.ने लेख जाली होने की कल्पना मात्र बतायी है। मुनि श्री कल्याणविजयजी इतिहासवेत्ता विद्वान थें । जैसेजैसे प्रमाण मिलते गये उनके विचार बदलते गये । वसंतगढ (पिण्डवाड़ा) भव्य धातु प्रतिमाओं के मिलने पर लिखे ब्राह्मी लिपि के विक्रम की ८वीं सदी के लेख को देखकर उन्होंने स्वीकार किया की पंद्रहवी सदी से पूर्व भी लेख की परंपरा थी ।
इसमें आप ‘“चैत्यवाद और चैत्यवास के जमाने में स्वार्थी लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए कई प्रकार की चालाकियां करते थे, अनेक कल्पित ग्रंथ गढ़ डाले जाते थे... वहाँ मूर्तियों पर मनमाना संवत् लगाया जाय, तो कौन रोक सकता है ?" इस प्रकार चैत्यवासियों पर झूठा कलंक, आपके पक्षवालों की सूत्र के पाठ बदलना, अर्थ बदलना इत्यादि झूठी करतूते छिपाने के लिये लगा रहे हैं ऐसा प्रतीत होता हैं । चैत्यवासी चारित्र में शिथिल होने पर भी उन्होंने स्थानकवासियों की तरह सूत्रार्थ बदलने के महापाप कभी नहीं किए हैं। तो मूर्ति के गलत संवत् लगाने की निन्दक प्रवृत्ति वे कैसे कर सकते हैं ? जैनागमों में केवल एक मात्रा भी न्यूनाधिक कहने में अर्थात् उत्सूत्र बोलने में वे वज्रपाप और अनंत संसार बढ़ने का बड़ा भारी भय रखते थें । तो अनेक कल्पित ग्रंथ गढ़ने की बात कैसे संगत है ?
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उत्सूत्र प्ररूपणा का उनको डर था, इसका उदाहरण देखिये- द्रोणाचार्य आचारांग और सूयगडांग के टीकाकार हैं, उन्होंने ओघनियुक्ति पर टीका रची हैं जिसमें अशिवादि कारण से अकेले रहने पर वसति दुर्लभता क्रम में संविग्न-असंविग्न अंत में वसति नहीं मिले तो ही चैत्यवासी के साथ उतरना लिखा है। इससे पता चलता है द्रोणाचार्य खुद चैत्यवासी थे, तो भी कितनी भवभीरूता थी, चैत्यवासी के साथ उतरना चारित्र शिथिलता का कारण बन सकता है अत: स्वपक्ष मोह छोडकर वे शुद्ध प्ररूपणा करते हैं । इसीलिये पू. अभयदेवसूरिजी म. ने नवांगी टीका का संशोधन चैत्यवासी होते हुए भी
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा द्रोणाचार्यजी के पास करवाया था ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सूत्रार्थ और मूर्तिलेख बदलने की गोलमोले उस वक्त में नहीं हुई है।
दूसरी बात-मूर्तियों पर मनमाना संवत् लगाने की कुकल्पना तथ्यहीन असिद्ध है। चूंकि जब मूर्तियों की अंजनश्लाका विधिविधान होता है, उसके पूर्व ही लेख खुदे जाते हैं, अंजनशलाका विधि के बाद सेंकडो लोग उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं, लेख पढ़ते हैं तो गलत संवत् पकड़े नहीं जाएंगे क्यां ? गलत संवत लगाने का कोई प्रयोजन भी नहीं था । स्थानकवासी पंथ ५०० साल से उत्पन्न हुआ हैं उसके पूर्व की हज़ारों मूर्तियाँ मिलती हैं । संप्रतिकालीन भी अनेक प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं । वाद विवाद ही नहीं था तो गलत संवत क्यों लगावे? अनेक साल पूजने के बाद कोई आकस्मिक कारण भूकंपादि होने पर प्रतिमाएँ जमीन में दब जाती हैं, जैसे मोहनजोदड़ोहड़प्पा । मूर्तिभंजन के भय से श्रावक प्रतिमाओं को बचाने हेतु जमीन में छिपा देते थे । वे सभी प्रतिमाएँ बहुत काल तक पूजी हुई होती थी, तो उनके लेख जाली होना कैसे संभव है ? एक बात यह हैं कि सैंकड़ो लेख बिना की प्राचीन प्रतिमाएँ मिलती हैं, अगर जानबूझकर प्राचीनता बताने का इरादा होता तो लेखरहित प्रतिमा क्यों रखते ? उन पर प्राचीन लेख लिख नही सकते थे क्या? आज के विज्ञानयुग में अनेक प्रकार की वैज्ञानिक खोजें हुई हैं विशिष्ट परीक्षण करके वैज्ञानिक तथ्य को जाहिर करते हैं, उनकी जाँच में नाम रहित अनेक मूर्तियां अतिप्राचीन घोषित हुई हैं, जो संक्षेप से 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' मे बतायी हैं । (देखिये-परिशिष्ट) अपनी असत्य मान्यता को सिद्ध करने के लिये सत्य को कलंकित करना सज्जनता नहीं है। __संघपट्टक की बात भी भोले लोगों को भ्रम में डालने हेतु पेश की है । संघपट्टक गाथा २१ जिनपतिसूरिजी की टीका में "आपके पूर्वजों ने इस प्रतिमा का निर्माण करवाया वे हमेशा पूजते थे, आपको भी पूजना चाहिये' इस प्रकार चैत्यवासी लोग गृहस्थों को अपने भक्त बने रहे इस उद्देश्य से प्रेरित करते थे । यह गलत था, चूँकि साधु उपदेश द्वारा उनको
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१६१ कह सकता है, उसमें उसकी आशयशुद्धि जरूरी है अपने भक्त बने रहे यह आशय अशुभ है, अतः टीकाकार ने उसे शिथिलाचार में गिना है। जब की डोशीजी इस बात को अलग ढंग से पेश करते हैं "देखो यह मूर्ति प्राचीन है, तुम्हारे पूर्वज उन्हें पूजते थे, तुम भी इनकी पूजा करो ।'' मूल टीका में प्राचीनता का कोई उल्लेख नहीं है । तो भी प्राचीनता को चैत्यवासियों पर गलत कलंक लगाने हेतु यहां पर उठा लाये हैं ।
आचार्य हरिभद्रसूरिजी अपने संबोध प्रकरणादि ग्रंथो में चैत्यवासियों की अनुचित प्रवृत्ति की घोषणा कर चुके थे, पर ऐसा कहीं नहीं लिखा कि चैत्यवासी अपनी प्रवृत्ति की पुष्टि के लिये अमुक ग्रंथ बनाते-बताते थे, मूर्तियों पर संवत् गलत लिखते थे, बदलते थे। यह सब डोशीजी के स्वकुमतसिद्धि के कुतर्क हैं सब तथ्यहीन कल्पनाएँ हैं ।
चौथे उदाहरण में डोशीजी अपने स्वभावानुसार प्रत्यक्ष वस्तु में कुतर्क लडा रहे हैं । अजमेर (वडली) का वीर सं. ८४ का शिलालेख तो सबके लिए प्रमाण हैं । वह शिला मूर्ति का खंड (नीचे का) हो सकता है अथवा जिनमंदिर की वह शिला हो सकती है । मूर्ति मंदिर के द्वेष से बिना किसी प्रमाण उसे किसी घर का शिलालेख बताने में विद्वानों में हंसी पात्र ही बना जाएगा । भूगर्भ से प्रकट होते शिलालेखादि प्राय: मूर्ति-मंदिरों के होते हैं, मकानों के नहीं । वर्तमान में भी प्रायः मकानों पर लेख दिखने में नहीं आते । वीर संवत् धार्मिकता से संबंध रखता है। व्यवहार में तो व्यवहारिक संवत् का उपयोग है। जैसे वर्तमान में भी व्यवहार में वीर संवत् होते हुए भी विक्रम संवत् की प्रचलना हैं। अगर मकान का लेख होने की कुकल्पना भी करो तो उस वक्त प्रचलित व्यवहारिक कनिष्क, गुप्त संवत् उससे भी प्राचीन जो संवत् प्रचलित थे उनका उल्लेख होता ।
स्थानकवासी विद्वान संत संतबालजी ने भी, जो पहले अशोक के समय से मूर्तिपूजा मानते थे, लेख को प्रामाणिक मानकर ही वीर सं० ८४ से मूर्तिपूजा मानी है। डोशीजी क्या उनसे भी ज्यादा विद्वान् है ? जो अप्रामाणिक कुतर्क करते है।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ___आगे नं ५ का प्रमाण भी थोथला हैं, ज्ञानसुंदरजी के मथुरा के कंकाली टीलों की तीन प्रतिमाओं के परिचय में भगवान् महावीर की आमलकी क्रीड़ा बतायी है। साराभाई नवाब ने उसका खंडन किया उसमें प्रतिमाओं के लेख का संबंध ही क्या है ? साराभाई नवाब के हिसाब से उस स्थापत्य की अलग कल्पना हुई होगी तो भी वह जिनमंदिर-मूर्ति संबंधी स्थापत्य ही है उसी को सिद्ध किया है।
(३) प्राचीन होने मात्र से उपादेय नहीं → समीक्षा - इस प्रकरण में डोशीजी ने अनेक निष्फल कुतर्क किये हैं । दूसरा कोई तर्क नहीं मिला इसलिए मिथ्यात्व हिंसादि दोष प्राचीन अनादि हैं, जिससे उपादेय नहीं हो सकते, यह कुतर्क दिया, यह तो सामान्य पुरूष भी जानता है । दोष तो प्राचीन-अर्वाचीन तीनों काल में हेय ही हैं, उपादेय होते ही नहीं हैं । स्वरूप से ही हेय वस्तु उपादेय कैसे हो सकेगी ? आगे कह रहे हैं "विवेकी और सुज्ञ जनता केवल हेय-उपादेय को ही देखती हैं नये पुराने को नहीं ।" यह बात ठीक हैं, परंतु अनेक वस्तुओं की प्राचीनता वस्तु की उपादेयता में कारण बनती हैं । इतिहास, मूर्तियाँ, धर्म, धर्मशास्त्र ये सब प्राचीन ही उपादेय बनते हैं, उनकी विशेष कीमत होती है । वह सुज्ञ-विद्वद्-वर्ग में प्रसिद्ध हैं । इसीलिये खुद डोशीजी भी पाठ की परीक्षा के लिये प्राचीन प्रतियों को ही ढूंढते है, उन्हीं का उदाहरण देते है, जैसे औपपातिक-आनंद श्रावक में अगर प्राचीनता की कोई कीमत न होती तो प्राचीन प्रति की तलाश क्यों करते ? उपरोक्त मूर्तियाँ-शास्त्र इत्यादि जितने प्राचीन होंगे उतने परमात्मागणधरों के निकट कालीन होने से उनकी उपादेयता बढ़ जाती है। यह सर्वसुज्ञजनों को मान्य है। इसको भी डोशीजी छुपाना चाहते है। आगे लिखते है "हमारी दृष्टि से यह समाज (स्थानकवासी) अधिक प्राचीन नहीं दिखाई दे किन्तु इसकी मान्यता, श्रद्धा, उपदेश आदि भगवान् महावीर की आज्ञानुसार है । अतः यह प्राचीन है।" इसमें प्रथम तो परमात्मा के शास्त्र भगवती सूत्र में प्रभु शासन २१००० वर्ष अविच्छिन्न चलेगा, ऐसा बताया है । तो नये-नये निकले पंथ में प्रभु आज्ञा कैसे संभव है ? मान्यता-श्रद्धा-उपदेशादि
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को भी खुद अपनी कल्पना से प्रभु आज्ञानुसार माने उससे प्रभु आज्ञानुसार होते नहीं हैं । विद्वान् तटस्थ संविग्नों की दृष्टि से तो वह सब अनेक स्थानों में आज्ञाविरूद्ध दिखाई देता है ।
आगे डोशीजी और डंफास लगाते हैं "ये स्वयं जानते हैं कि जैसा उपदेश, आदेश और आचार, व्यवहार, विचार आदि साधुमार्गी समाज के साधुओं का है वैसा ही भूतकाल के मुनियों का था" संविग्न मार्गानुसारी साधु शास्त्रों द्वारा जानते हैं कि स्थानकवासी साधुओं का लिङ्ग (वेश), आचारविचार सभी प्रभु-आज्ञा निरपेक्ष - भूतकालीन मुनियों से विपरीत हैं। मुंहपति को डोरे से मुंह पर बांधना आदि विचित्र वेश, मूर्तिपूजा विरोधी विचार, इत्यादि प्रभु वीर की मूल व शुद्ध परम्परा के विपरीत ही है, सभी जानते हैं । उनके नाम से “वे स्वयं जानते हैं" ऐसे विरूद्ध वचन कहना कितना उचित है ?
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आगे लोंकाशाह के धर्म क्रांति - क्रियोद्धार की बात की है वह प्रमाण रहित - कल्पना मात्र है । लोकाशाह के प्रामाणिक इतिहास के लिये " श्रीमान् लोंकाशाह' पुस्तक देखें । जो गृहस्थ थे, जिसने पूरे जीवन में साधुपने का अनुभव ही नहीं किया है, वे क्या क्रियोद्धार करे ? पं. सत्यविजयजी ने
गुरु आज्ञा पूर्वक क्रियोद्धार किया था, परंपरा में घुसी शिथिलता को हटाया, परंपरा तो प्रभु महावीर से चली आती ही थी । इसीलिये कुतर्क निरर्थक है | अत: सिद्ध होता है कि शास्त्र - मूर्ति-धर्म आदि प्राचीनता के कारण ही विशेष रीति से उपादेय बनते हैं ।
(४) आगमों के सामने इसका कोई मूल्य नही → समीक्षा - अभिनिवेश के कारण इस प्रकरण में अज्ञानता दृष्टिगोचर होती हैं । "दुषम काले जिनबिंब जिनागम भवियणकु आधारा" " तेहनु झेर निवारण मणि सम तुज आगम तुज बिंबजी" ये पूर्व महापुरूषों के वचन बता रहे हैं कि जिनप्रतिमा और जिनागम समान रूप से प्रमाण हैं । केवलज्ञानी - पूर्वधरादि के विरह में वर्तमान में आत्मोन्नति में जिनप्रतिमा का योगदान जिनागम से जरा भी कम नही है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
प्राचीन प्रतिमाओं के द्वारा जैन धर्म की प्राचीनता और जैनागमों की भी प्राचीनता - उसका तीर्थंकर - गणधरों से संबंध सिद्ध होता है । जैनागमो में अनेक स्थान पर शाश्वत-अशाश्वत जिनप्रतिमाओं की बातें, मूर्तिपूजा की बातें आती हैं, उसकी सिद्धि भी प्राचीन प्रतिमाओं से होती हैं । उससे भी आगमों की प्रामाणिकता, उपादेयता की श्रद्धा बढ़ती है । इतना बड़ा महत्व प्राचीन प्रतिमाओं का होने पर भी जैसे कोई सामने दिख रहे सूर्य का अपलाप करता है, वैसे डोशीजी " इसका कोई मूल्य नही" कहकर प्रत्यक्ष अपलाप करते हैं
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वर्तमान में स्थानकवासी मान रहे ३२ सूत्रों में श्रावकों के आचार का विधानात्मक निरूपण जिसमें है, ऐसा एक भी आगम नही हैं । तो " आचारविधान को बताने वाले सूत्र के सूत्र मौजूद है" ऐसा डोशीजी का कथन कितना सत्य है ? ‘मूर्तिपूजा' श्रावक का कर्तव्य है उसके आचार निरूपक एक भी आगम नहीं है, ऐसा कहना बराबर नहीं है चूँकि १२ व्रतों का विस्तार से निरूपण भी उनके हिसाब से तो चरितानुवाद ग्रंथो में ही मिलता हैं उसका विधि-सूत्र तो है ही नही, तो भी उसे विधानरूप में मानना, आचरण में लाना और मूर्तिपूजा की बात आए तब चरितानुवाद कहकर उसे अप्रमाण कोटी में गिनना यह अभिनिवेशग्रस्त मतमोह ही है न ?
१४ पूर्वी भद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित ओघनियुक्ति शास्त्र में साधु को चैत्यवंदन बताया ही है। भगवतीजी मे चारण मुनियों की यात्रा भी बतायी है । साधु का अधिकार दर्शन - वंदन तक ही है । अत: साधु साध्वीजी के लिये इतनी ही बात आती है ।
आगे डोशीजी कहते है "अनेक श्रमणोपासकों के जीवन इतिहास लिखे हुए हैं उन सब में से किसी एक में भी मूर्तिपूजक ने, मंदिर बनाने ... बिंदु विसर्ग तक नही है" पक्षपात का काला चश्मा लगाने पर होते हुए भी वह दिखनेवाला नही हैं। श्रावकों के जीवन इतिहास की बात मूलसूत्रों की अपेक्षा से करते हो तो आनंद आदि श्रावक, अंबड आदि सबमें जिनप्रतिमा के सिवाय अन्य का दर्शन-पूजन नहीं करना स्पष्ट ही है, जिससे जिनप्रतिमा
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वस्तुतः आप जिसे मिथ्यात्व का अंग मानते हो, जोर-शोर से जिसका विरोध करते हों उस मूर्तिपूजा का बिंदु-विसर्ग तक भी निषेध बत्तीस सूत्रों में दृष्टिगोचर नहीं होता हैं । अगर बड़ा पाप हो, मिथ्यात्व का महत्व का अंग हो तो शास्त्र में कहीं पर भी उसका निषेध-देखने में न आए यह कैसे संभव है ? आगमों में मिथ्यात्वादि पापों को हेय माना है- परमात्मा ने उसका निषेध भी किया है । तो मूर्तिपूजा का निषेध क्यों नहीं किया? इससे सिद्ध होता है कि इसे आगम सम्मत कहने वाले नहीं, परंतु आगम विरूद्ध कहनेवाले ही उत्सूत्रभाषी हैं । ___ मंदिर-मूर्तियों के कला कौशल की प्रवृत्ति को सांसारिक रीति तो आप और आपके पक्षधर ही मानेंगे, मार्गस्थ-तटस्थ व्यक्ति उसे स्वीकार नहीं करेंगे। बनाने वाले उसे धार्मिक भावना से ही बनाते हैं। ___आगे जिनविजयजी के "प्राचीन जैन लेख संग्रह" उपोद्घात का अधूरा पाठ लेकर तस्कर वृत्ति कर के गलत आशय पेश करते हैं। लेख से मूर्तिपूजा नहीं थी ऐसा सिद्ध होता तो लेख का पूरा पाठ क्यों नहीं दिया ? उससे उलट सिद्ध होता हैं कि लेख से तो मूर्तिपूजा की सिद्धि ही होती थी । जिनविजयजी ने भी "मूर्तिपूजा अमुक समय पूर्व थी के नहीं - इस प्रश्न का निराकरण इस लेख से होता है। इतना ही कहा हैं । इन शब्दों से "मूर्तिपूजा आगम आज्ञा नहीं थी यह जिनविजयजी ने भी स्वीकार किया है'' ऐसा उनके नाम पर असत्य बताना तस्कर वृत्ति है । बेचरदासजी आदि के अभिप्राय प्रमाण भूत नहीं माने जाते हैं । वे उत्सूत्रभाषी होने से संघ से बहिष्कृत हुए थे। उनके बाद के विद्वानों ने उनके अभिप्राय का खंडन किया है । पं. कल्याणविजयजी, हंसराज शास्त्री लुधियाना हीरालाल दुग्गड़ आदि
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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा अनेकानेक पंडितो के अभिप्राय बेचरदासजी से विपरीत हैं । उनको क्यों नहीं बताते ?
__ जैनागमों में मूर्तिपूजा को पाप कहीं पर भी नहीं बताया उसे जिनाज्ञा विरूद्ध बताना ही उत्सूत्र प्ररूपणा रूप महापाप हैं । इस भयंकर पाप से दूर रहकर आगमानुसार आत्मकल्याण साधना में और इसी का प्रचार करने में जीवन बिताना ही सच्चे साधक का कार्य है । '
धन लक्ष्मी
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33. क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं ? → समीक्षा
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इस प्रकरण में डोशीजी ने मूर्तिपूजक साधुओं की भरपेट निंदा की । सुज्ञ जन जानते हैं परमात्मा महावीर का शासन २१ हजार वर्ष अविच्छिन्न चलेगा, उसमें चढ़ाव उतार आते रहते हैं । काल के प्रभाव से श्रमणों में शिथिलता आती है, क्रियोद्धार करके शिथिलता दूर की जाती हैं । वापिस शिथिलाचार, वापिस क्रियोद्धार, इस प्रकार से ही शासन चलेगा । कोई कहे हम चतुर्थ आरे के समान भगवान महावीर के कालवर्ती साधुओं के समान चारित्र पालते हैं, तो या तो वह अज्ञानता है या दंभ है । जब-जब क्रियोद्धार होते हैं तब शिथिलाचार को हटाकर पट्टक - नियमपत्रादि द्वारा आचारों को मजबूत बनाये जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में पुरानी विकृति - वर्तमान की अमुक विकृतियों को लेकर निंदा करना सज्जनता नहीं । पीछे पृ. २० में लिखे "समय के प्रभाव से विकृति प्रायः सब में आ गई हैं... यदि आप पीछे से घुसी हुई विकृति को देखकर प्रसन्न होते हों तो यह आपकी भूल है ।" ये शब्द अंगर हृदय से लिखे होते तो यह निंदा से भरपूर प्रकरण ही नहीं लिखते । जो बाद में चली विकृतियाँ वे सिद्धान्त नहीं है, वे हेय हैं, उपादेय नहीं हैं । उनको निकालने के प्रयत्न होते रहते हैं । महापुरूष आवाज भी उठाते हैं, उनकी उठायी आवाज का सहारा लेकर समाज की शिथिलता को पेश करना भयंकर द्वेष का प्रतीक है ।
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पूर्वकालीन भवभीरू - ज्ञानी - महापुरूषों द्वारा उपदेश कैसे देना - किसे देना वगैरह टीका, चूर्णि आदि में, दूसरे भी अनेक ग्रंथों में विस्तार से बताया
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है । मूर्ति को नहीं मानने के सूत्र विरूद्ध कदाग्रह के कारण उन ग्रंथों को अप्रमाण करने की बालचेष्टा करते हैं, उनका सहारा लिये बिना सूत्राशय को ये भी समझ नहीं पाते । उस उपदेश पद्धति में स्पष्ट रूप से श्रावकों को उनके कर्तव्य, मंदिर आदि की प्रेरणा उपदेश द्वारा करने में साधुओं को दोष नहीं लगता है, मार्ग की प्रवृत्ति ही होती है, आदेश द्वारा साधु वे कार्य नहीं
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा करा सकते, ऐसा बताया गया है। वस्तुतः उसी को मानना उसी का खंडन करना यह आपकी पद्धति आपके पूर्वजों से चली आई है । क्या आपके साधु जीवदया का उपदेश नहीं देते ? उस उपदेश से प्रवृत्त श्रावक गायों को घास डालते हैं, कबूतर आदि को धान्य डालते हैं, उसमें हिंसा नहीं होती? इससे सिद्ध हैं उस उपदेश पद्धति का सहारा लेते हुए भी उसी का आप खंडन करते हैं । कितनी कृतघ्नता !
शिथिलाचार की बात तो स्थानकवासी पंथ में भी समानरूप से लागू होती है यह विचार डोशीजी को नहीं आया ? आपके पंथ के अधिकांश साधुवर्ग की शिथिलता आप वाले ही 'सम्यग्दर्शन' मासिक पत्र में बारबार प्रकट करते रहते हैं, जिस का विस्तार निंदास्वरूप होने से यहाँ करने की आवश्यकता नहीं है । वाचक गण 'सम्यग्दर्शन' मासिक पत्र से उसे जान लें।
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चारित्र
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
38. चैत्य शब्द के अर्थ → समीक्षा इस प्रकरण का उत्तर पू. लब्धिसूरिजी म. ने मूर्तिमंडन परिशिष्ट में दिया है उन्ही के शब्दो में
.....चैत्य शब्द के अर्थ की मगजमारी की है सार कुछ नही निकाल सके। भले ही चैत्य शब्द के अनेक अर्थ हों परंतु सूत्र के पाठों में प्रभुमूर्ति का ही विशेष अधिकार आता है, चैत्य शब्द केवल ही हो, तो मूर्ति और व्यन्तर-यक्ष आदि शब्द आदि में रखे हुए हों तो उनकी मूर्तियों को भी ले सकते हैं । बाग बगीचे का नाम चैत्य तो जिस बाग में यक्षादि का मंदिर हो उसी बाग को चैत्य कह सकते हैं अन्य को नहीं । इससे कोई अर्थ बढ़ा नहीं, व्याकरण शास्त्र शिरोमणि न्यायविशारद हेमचंद्राचार्य महाराज के कोश के अनुसार ही हमारे पूज्य गुरूदेव श्री विजयानंदसूरीश्वर म. ने अर्थ लिखा है और इन तीन अर्थ के योग से ही अनेक अर्थ बन जाए तो भी मुख्य इन तीनों अर्थ का प्रभाव है. इसलिए पूज्य गुरूदेवजी का लिखना बराबर है। सूत्रों में अमुक भगवान् के इतने अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी ऐसा पाठ है मगर इतने अवधिचैत्यी, मनःपर्यवचैत्यी नहीं आता ऐसे ही केवल साधुपद के लिये कहीं भी चैत्य शब्द का उपयोग नही किया, इससे सिद्ध होता है की चैत्य शब्द का अर्थ साधु और ज्ञान करके स्थानकवासी लोग प्रभुमूर्ति से विरोध करने के व्यसन को पुष्ट कर रहे हैं और अभिनिवेशिक मिथ्यात्व को सिद्ध कर रहे हैं, अन्यथा अनेक अर्थों में चैत्य शब्द का अर्थ प्रभुमूर्ति भी हो सकता है उसको क्यों नही मानते, कहना ही होगा की अभिनिवेश मिथ्यात्व नहीं मानने देता, प्यारे बंधुओं ! अभिनिवेश को छोड़िए और प्रभु की आज्ञा में प्रीति को जोडिए । नाहक मे इधर ऊधर कुतर्क के मार्ग में मत दोड़िए."
इस प्रकरण में डोशीजीने चैत्य का साधु अर्थ बताने हेतु दो पाठ दिये हैं वे अपूर्ण पाठ देकर भोले जनों की आँखो में धूल डाल रहे हैं । प्रथम पूर्ण पाठ इस प्रकार
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ठाणांग सूत्र तृतीय स्थानक-शुभदीर्घायुष्य प्रकरण में
'कल्याणं' समृद्धि तद्धेतुत्वात् साधुरपि कल्याणमेवं 'मंगलं' विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गलं दैवतवि दैवतं चैत्यमिव-जिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमणं पर्युपास्य...' इसका भावार्थ-कल्याण यानि समृद्धि का हेतु होने से साधु भी कल्याण कहा जाता हैं, मंगल=विघ्नक्षय का हेतु होने से साधु भी मंगल कहलाएगा, देवता जैसा होने से दैवत और चैत्य-जिन प्रतिमा उसके समान होने से साधु भी चैत्य कहलाएगा। ___इस पाठ का सुज्ञ विचार करें - कल्याण - मङ्गल - दैवत - चैत्य साधु को कहा हैं ये शब्द साधु के पर्यायवाची शब्दों में आते नहीं हैं परंतु कहीं कार्य - कारणभाव को लेकर कहीं पर उपमा के द्वारा ऐसा प्रयोग बताया है। जैसे "अग्निर्मनुष्यः" मनुष्य खूब क्रोधी होने से उसे आग कहा, उससे मनुष्य का अग्नि नाम है, पर्यायवाची शब्द है ऐसा नहीं कहा जाता। परमात्मा तेज में सूर्य के समान होने से कोई उपमा से उन्हे सूर्य कहे इससे उनका पर्यायवाची शब्द सूर्य नही कहा जाता है । वैसे ही प्रस्तुत पाठ में
चैत्य-जिनप्रतिमा के समान होने से साधु को चैत्य कहा इससे चैत्य शब्द साधु का वाचक नहीं कहलाता है । यहाँ पर जैसे जिन प्रतिमा पूज्य है वैसे साधु भी पूज्य है इसलिये साधु को उपमा से चैत्य कहा है। व्यवहार प्रचलन में साधु को चैत्य नहीं कहा जाता ।
बृहत्कल्प छट्ठा भाग-गा. ६३७५ टीका में चैत्य शब्द का नाम निशान ही नहीं हैं पाठ ही झूठा दिया हैं । सत्य पाठ यह है - "आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नम् आत्मकर्म चेति औद्देशिकस्य साधूनुद्दिश्य कृतस्य भक्तादेश्चत्वारि नामानि । इसमें रेखांकित पाठ का डोशीजीने चैत्योद्देशिकस्य बना डाला । संस्कृत के हिसाब से संधि करने पर भी पूर्वोक्त पाठ का चेत्योदेशिकस्य बनता हैं किन्तु इस में चैत्य शब्द है ही नहीं।
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आगे दिगंबर-कुदकुंदाचार्य रचित अष्टपाहुड (डोशीजीने षट्पाहुड लिखा वह अशुद्ध है) का पाठ चैत्य का ज्ञान अर्थ बताने हेतु दिया वह भी अयोग्य हैं । वहाँ पर उस ग्रंथ में चेदिहरं शब्द का अर्थ चैत्यगृह=जिन मंदिर किया है और निश्चय नय से निर्मल आत्मा का वास साधु में होने से साधु चैत्यगृह है, ऐसा कहा है । व्यवहार से पाषाणादि का चैत्यगृह होता है । इसलिये न तो उसमें ज्ञान अर्थ में चैत्य शब्द है, और न व्यवहारोपयोगी साधु का चैत्यगृह अर्थ है ।
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ये तीनों पाठ संक्षेप में देकर लोगों को गुमराह किया हैं। आगे बताते है जैसे बौद्ध साहित्य में चैत्य बौद्ध भिक्षु है वैसे जैन साहित्य में जैन साधु, चैत्य का अर्थ हो सकता है । सुज्ञ विचार करें अगर चैत्य का अर्थ जैन साधु होता तो उस अजैन 'शब्दार्थ परिजात' कोष में बौद्धसाधु अर्थ ही क्यों दिया जैन साधु अर्थ क्यों नहीं दिया ? इससे स्पष्ट है चैत्य का जैन साधु अर्थ नहीं होता है। दूसरी बात संपूर्ण ३२ सूत्रों में, ४५ आगमो में भी साधु का पर्यायवाची चैत्य शब्द कहीं पर भी दिखाई नही देता है ।
समवायांग में ‘“चेइयरुक्खे" ति बद्धपीठवृक्ष' ऐसा टीकाकारों ने अर्थ किया है इसलिये स्वेष्ट सिद्ध नहीं होने से डोशीजी को लोक प्रकाश ग्रंथ तक दौड़ना पड़ा । परंतु उससे भी डोशीजी की इष्ट सिद्धि शक्य नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञानोत्पत्ति वृक्ष के लिये 'चैत्यवृक्ष' शब्द रूढ़ जैसा है । चैत्यवृक्ष शब्द का अर्थ तो समवायांग टीका में दिया है, वही है । उत्तराध्ययन, अध्ययन ९, श्लोक ९ की टीका में भी " अधोबद्धपीठिके उपरि चोच्छ्रितपताके वृक्षे" ऐसा ही अर्थ किया है । जो समवायांग के अर्थ के समान ही है इस अर्थ को लाडनू (तेरापंथी) वालो ने लिया है (देखिये उत्तरज्झयणाणि पृ. १७२) इससे सिद्ध होता है कि चैत्यवृक्ष- बद्धपीठ वृक्ष ऐसे वृक्ष के नीचे तीर्थंकर परमात्मा को केवलज्ञान की प्राप्ति होने से व्यवहार भाषा में केवलज्ञानोत्पत्ति वृक्ष को चैत्यवृक्ष कहा जाता है । इसलिये पू. विनयविजयजी म. ने लोकप्रकाश ग्रंथ में चैत्यवृक्ष का अर्थ ज्ञानोत्पत्तिवृक्ष किया है उससे चैत्यशब्द का ज्ञान अर्थ सिद्ध नहीं हो सकता हैं आगमों में ज्ञान के लिये तो नाण, नाणी ऐसे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रयोग ही आते हैं। जिसके सैंकड़ों उदाहरण हैं । जिससे चेइय का अर्थ ज्ञान करना असंगत है, उसमें अभिनिवेश मालूम होता है । ____ अतः, चैत्य शब्द का अर्थ – 'साधु, ज्ञान, इत्यादि' करना पूर्ण रुप से निराधार अनागमिक एवं अप्रामाणिक हैं चैत्य शब्द का संगत अर्थ मात्र 'जिनमन्दिर जिनप्रतिमा' ही है ।
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..आरास में तहमा त्रिशंकु
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१७३ 3५. बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प → समीक्षा
प्रकरण में ज्ञानसुंदरजी के चौथे प्रकरण पृ. ११० में ३२ आगमों में मूर्तिपूजा के पाठ दिये हैं उनकी सत्यता को ढंकने हेतु डोशीजीने कटु शब्दों का प्रयोग किया है।
इसमें डोशीजी बता रहे हैं "बत्तीस सूत्रों के पाठ से मूर्तिपूजा सिद्ध करने का इकरार करते हैं, किन्तु पाठक जब इस प्रतिज्ञा के बाद के जितने भी पाठ देखेंगे, वे सब उल्टे ही नजर आयेंगे" यह बात सत्य नहीं हैं । चूँकि तटस्थ पाठक अवलोकन करें तो ३२ में से २६ पाठ तो सूत्र के ही है। आचारांग-दशवैकालिक दो पाठ नियुक्ति के हैं। नियुक्ति की प्रामाणिकता मूल सूत्रों से सिद्ध हैं - "सुत्तत्थो खलु पढमो बीओनिज्जुत्ति मिस्सिओ'' यह अनुयोग-सूत्रों की व्याख्या के संदर्भ में नंदिसूत्र एवं भगवती २५ शतक तृतीय उद्देश में मूलसूत्र का पाठ है, वैसे ही नंदिसूत्र आदि में 'संखित्ताओ निज्जुत्तिओ' अनुयोगद्वार सूत्र में अणुगम अनुयोग द्वार में 'सुत्ताणुगमे य णिज्जुत्तिअणुगमे य ये सब मूलसूत्र के पाठ स्पष्ट बता रहे हैं कि नियुक्ति भी प्रमाण है । इसलिये उपरोक्त दोनों पाठ भी प्रमाणभूत हैं। उत्तराध्ययन टीका पाठ भी नियुक्ति के भाव को लेकर ही हैं । आगे बृहत्कल्पभाष्य और निशीथचूर्णि के दो पाठ भी - तटस्थ व्यक्तिओं के लिये प्रमाणभूत हैं । तटस्थ स्थानकवासी विद्वान संत भी अमरमुनिजी निशीथपीठिका-संपादकीय पृ. ३ में स्पष्ट बता रहे हैं “यदि कोई भाष्य
और चूर्णि का अवलोकन किए बिना छेद सूत्रगत मूल रहस्यों को जान लेने का दावा करता है तो मैं कहूँगा, या तो वह भ्रान्ति में है या दंभ में है।"
सूयगडांग में शीलांकाचार्य टीका पूर्व टीकानुसारी है । उसका पाठ भी सूत्रानुसारी ही हैं चूंकि मूलसूत्र आर्द्रकीय अध्ययन सूत्र संक्षिप्त ही है, विस्तृत आर्द्रकुमार का चरित्र तो पूर्वपरंपरानुसारी टीका के बिना कहाँ से लाएँगे ? खुद की कल्पना से बनाया चरित्र प्रमाण नही होता है । इसलिये वि.सं. २१४ में रचित गन्धहस्ती टीकानुसारी चरित्र ही प्रमाणभूत है, पूर्वधर.
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कालीन है । मतमोह से उसे न मानना अभिनिवेश का ही फल है ।
ठाणांग-समवायांग में शाश्वती प्रतिमा बतायी हैं, वे तीर्थंकरों की है जिसकी सूर्याभप्रकरण में सिद्धि की गई हैं । प्रतिमाएँ हैं, तो मूर्तिपूजा भी सिद्ध ही हैं । उपपातादि में, देवलोक में वह शास्त्रसिद्ध हैं ।
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भगवती-ज्ञाता-धर्मकथा उपासकदशांग के पाठों से मूर्तिपूजासिद्धि क्रमशः तुंगिका श्रावक- - द्रौपदी-आनंद श्रावक के प्रकरण में पीछे की गई हैं ।
अंतकृद्दशा-प्रथमवर्ग प्रथम अध्ययन और अष्टमवर्ग प्रथम अध्ययन में चंपानगरी की बात आयी उसका वर्णन औपपातिक में हैं उसमे 'बहुला अरिहंत चेइया' पाठ है । प्रभु वीर के काल में भी अनेक अरिहंत चैत्य (जिनमंदिर) विद्यमान थे ये सुस्पष्ट है । वह यहाँ आ ही जाता है। गौरवभय विस्तार - भय से बार-बार वर्णन शास्त्र में नहीं देते हैं कहीं पर 'वण्णओ' कहकर पूर्व की भलावण करते हैं । कहीं पर नहीं भी करते तो भी वह समझी ही जाती हैं । इसी सूत्र में तृतीय वर्ग प्रथम अध्ययन में भद्दिलपुर नगर में 'वण्णओ' कहकर औपपातिक के चंपानगरी के वर्णन का अनुसंधान (बहुला अरिहंत चेइया) किया है । (देखिये - अंगसुत्ताणि भाग - ३ लाडनूँ )
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अनुत्तरोपपातिकदशा में प्रथम वर्ग प्रथम अध्ययन जातिपद में " रायगिहे नयरे रिद्धत्थिमियसमिद्धे" द्वारा औपपातिक, चंपानगरी के वर्णन (बहुलाअरिहंत चेइया) की भांति है, वैसे ही तृतीय वर्ग प्रथम अध्ययन में "काकंदीनामं नयरी होत्था रिद्धत्थिमियसमिद्धा ।" से भी चंपा के वर्णन की भांति है जिससे भी 'बहुला अरिहंत चेइया' आ ही जाता है। (देखियेअंगसुत्ताणि भा- ३ लाडनूं)
प्रश्नव्याकरण 'चेइयट्ठे' से सिद्ध है चैत्य की आशातना निवारण करे । इसमें डोशीजी कुतर्क करते हैं - क्या मूर्ति मंदिर की सेवा आहारादि से करें ? मूर्ति जड़ है वह आहारादि कैसे ग्रहण करेगी इत्यादि सब निरर्थक हैं। पू. टीकाकार श्री ने चैत्य - जिनप्रतिमा उनके प्रयोजन में कर्मनिर्जरा की
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१७५ अपेक्षा वाला वैयावच्च करें यह स्पष्ट लिखा हैं । आशातना निवारण भी वैयावच्च हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में 'जक्खा वेयावडीयं कुव्वंति' यक्ष हरिकेशी मुनि की वैयावच्च (आशातना निवारण) करते थे, उसमें कोई विरोध नही
विपाकसूत्र में द्वितीय श्रुतस्कंध के दसों अध्ययनों में सुबाहु आदि जमाली की तरह चारित्र ग्रहण करते हैं जिससे जिनपूजा 'कयबलिकम्मा' शब्दों से सिद्ध होती है।
उववाई-रायपसेणी-जीवाभिगम की चर्चा पीछे अंबड-श्रावक-सूर्याभदेव प्रकरण में आ गयी है।
पन्नवणा 'स्थापना सत्य' का स्पष्टीकरण भी पीछे आ गया है। जंबुद्वीप-सूर्य-चंद्रप्रज्ञप्ति में पाठ स्पष्ट है ।
निरयावलिका-कप्पवडंसिया-पुष्पिका-पुष्पचूलिका-वह्निदसा इन पांचों में अनेक जगह पर चंपा आदि नगरी वर्णन में औपपातिक की भलावण रिद्धस्थिमियसमिद्धे से है उसमें 'बहुला अरिहंत चेइया' से "जिनमंदिर"
और "हाया कयबलिकम्मा" द्वारा जिनपूजा बताई गयी है। देखियेउवंगसुत्ताणि खंड २ लाडनूं ।। _अनुयोग द्वार में 'अक्खे वराडए...' से आवश्यकादि की स्थापना बतायी है वह उपलक्षण से है । सभी वस्तुओं की स्थापना हो सकती है, तो तीर्थंकर-आचार्य की स्थापना भी उपलक्षण से आ ही जाती है।
व्यवहार की बात पीछे आ गयी हैं । दशाश्रुतस्कंध मे राजगृही वर्णन में औपपातिक की भांति समझना। 'बहुला अरिहंतचेइया' से जिनमंदिर आते ही है, ण्हाया कयबलिकम्मा से जिनपूजा भी आती है। _आवश्यक में 'अरिहंतचेइयाणि' पाठ चूर्णि और हारिभद्रीय टीका में भी हैं जिसको करीब १३००-१४०० साल हुए, उन्होंने भी पूर्व सूत्र-अर्थ परंपरा से ही आया पाठ दिया है । जंब की स्थानकवासी पंथ ४००-५००
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१७६
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा साल का उत्पन्न हुआ है जिसकी नही तो सूत्रपरंपरा नही अर्थ परंपरा है इसलिये अपने-अपने बुद्धि से अर्थ करते हैं । काउसग्ग भी अपनी कल्पना से कम करते हैं । जिससे स्पष्ट होता हैं कि अजीब ढंग का बिना कोई परंपरा का आवश्यक स्थानकवासियों का है, मूर्तिपूजकों का तो एक समान परंपरानुसारी है । खुद मूल के पाठ को भी उडा के सूत्रलोप का महापाप करते हैं और 'चोर कोतवाल को डांटे' नीति से निर्दोषों पर टूट पडते हैं ।
पं. बेचरदासजी की शास्त्रविरूद्ध विचारधारा को कोई भी मूर्तिपूजक विद्वान्-आचार्यादि महत्त्व नहीं देते हैं, उसका खंडन भी हुआ है । अपनी अप्रामाणिक सिद्धि के लिये अप्रमाणिक हवाला देना बुद्धिमत्ता नहीं है ।
SAX पंव सागा :
फरे हुए पड़े में पानी नहीं रिक्ता
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१७७ 3६. क्या दीका आदि भी मूल की तरह माननीय
है → समीक्षा जैसे कोई कृतघ्नी व्यक्ति अपने परमोपकारी वडिल का उपकार भूलकर उसी का अपकार करता है, वैसे ही डोशीजी अर्थ-गंभीर आगमों के अर्थ जिनकी टीकाओं के बिना अशक्य है । अतः उन्हीं टीकाओं का सहारा लेकर स्थानकवासी मुनियों द्वारा भाषांतर किये होने पर भी खुद की कल्पित मान्यता का विरोध आने पर उसी को अप्रमाण करने जा रहे हैं । खुद की सिद्धि के लिये मूर्तिपूजक समाज के द्वारा उत्सूत्र-प्ररूपणा के कारण संघ से बहिष्कृत ऐसे पंडित बेचरदासजी की विचारधारा का हवाला दे रहे हैं, जिसकी कोई कीमत नही है।
डोशीजी "टीका मानने में पहले मतभेद था ही नहीं, न किसीने टीका आदि के विरूद्ध एक शब्द भी उच्चारा..." इत्यादि ज्ञानसुंदरजी की बात का खंडन करते है, वह अज्ञानता है। उसमें प्रभावक चरित्र का हवाला "दुष्ट रक्तदोष लागू पड़ने से ईर्ष्यालु लोगों ने उत्सूत्र प्ररूपणा के कारण शासनदेव ने कोढ़ उत्पन्न किया" इस प्रकार दिया है, वह लोगों को भ्रमित करने हेतु अधूरा दिया है । प्रत्येक शुभकार्य में ईर्ष्यालु तो ऐसा कुछ न कुछ कहते ही हैं । समझदार विद्वानों का विरोध हो तो ही वस्तु में तथ्य होता है ।
और बाद में देव के प्रभाव से कोढ़ चला जाने पर इर्ष्यालुओं के भी मुंह बंद हो गये तो विरोध किसका रहा? यह बात डोशीजी ने जानबुझकर छिपाई
आगे अभयदेवसूरिजी म. के ठाणांग वृत्ति के अंत का पाठ "सत्सम्प्रदायहीनत्वात्.......'' इत्यादि से टीकाकारश्री ने जो कहा है ‘स्खलना होना संभव है' अतः सिद्धांतानुगत अर्थ को विवेकी ग्रहण करे, उससे टीकाकारश्री की लघुता-भवभीरूता ही प्रतीत होती है। इस आशय के उल्लेख टीकाकारश्रीने अनेक स्थलों पर किये है । उत्सूत्र प्ररूपणा के भयबोधक ही वे उद्धार है। इसे स्थानकवासी विद्वान् आचार्य भी स्वीकारते हैं - देखिये - "जैन धर्म
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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा का मौलिक इतिहास" भाग-४ पृ. १६२ "साररूप में कहा जाय तो अनंतकाल तक भयावह भवाटवी मे भटकाने वाले उत्सूत्र व्याख्यान अथवा प्ररूपण के भय से भीरू बने अभयदेवसूरि ने अति विनम्र शब्दों में स्वयं द्वारा अनेक प्रकार की त्रुटियाँ होने की सम्भावना व्यक्त करते हुए क्षमायाचनापूर्वक जिनभक्त विद्वज्जनों से उन त्रुटियों को शुद्ध कर लेने की प्रार्थना की है।"
जिन टीकाकारश्री में इतनी उच्च कोटी की शास्त्रसापेक्षता-भवभीरूता हो उनके द्वारा छद्मस्थता के कारण भूल हो तो क्वचित् ही संभव है । वैसे तो गौतमस्वामीजी की भी छद्मस्थता के कारण भूल हुई थी वे आपके हिसाब से अप्रमाण होंगे क्या? ऐसे टीकाकार जगह-जगह पर मूर्ति-मूर्तिपूजा की बातें टीका में जोड़ शास्त्र के अर्थों में गोलमाल करे यह बात तटस्थसमझदार अभिनिवेश रहित पुरूषों के गले कदापि नहीं उतरेगी । कदाग्रही अभिनिवेशी व्यक्ति मताग्रह से ऐसा माने उसका कोई इलाज नही हैं । दूसरी बात इन टीकाओं का संशोधन तत्कालीन आगम विशेषज्ञ द्रोणाचार्यजी और अन्य महाश्रुतधरों ने किया है। देखिये 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' भाग४ लेखक आ. श्री हस्तीमलजी पृ. १५२
"महाश्रुतधरैः शोधितासु तासुचिरन्तनैः । ऊरीचक्रे तदा श्राद्धैः पुस्तकानां च लेखनम् ॥११४||
इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट रूपेण यह प्रकट किया है कि ज्ञानवयोवृद्ध श्रुतधर आचार्यों ने अभयदेवसूरि द्वारा रचित नवांगी वृत्तियों का संशोधन किया ।"
उपरोक्त मौलिक इतिहास के पाठ से सिद्ध है कि तत्कालीन विशिष्ट ज्ञान वृद्धोंने उनके टीका का संशोधन किया था, यह स्थानकवासी भी मानते हैं । उसमें आगम विरूद्ध - आगम के आशयविरूद्ध कुछ होता तो उसे वह कैसे रहने देते ? प्रमाणित कैसे करतें ? ___वर्तमान में तो पू. अभयदेवसूरिजी म. के काल में जो सम्प्रदाय
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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(परंपरा) इत्यादि सामग्री थी वह तो है ही नहीं । स्थानकवासी साधु आदि मताग्रह से खुद की कल्पना से जो जिसके मन में आया आगमों का अर्थ करते हैं । ना ही विशिष्ट श्रुतधरों के पास संशोधन, उसको डोशीजी प्रमाण मानेंगे और अपनी लघुता बतानेवाले भयभीरू उत्सूत्रप्ररूपणा से डरनेवाले टीकाकार के टीकाओं को अप्रमाण मानेंगे ? महा मिथ्यात्व का ही यह दोष है । मिथ्यात्व ही व्यक्ति को सत्यासत्य का भान होने नही देता है ।
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जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ४ पृ. १७६ " विक्रम की ११वीं १२वीं शताब्दी के आगम मर्मज्ञ, वृत्तिकार, विपुल साहित्य के सृष्टा आचार्य अभयदेव जैन जगत् में नवाङ्गी वृत्तिकार के रूप में विख्यात हैं । आगमों के गहन - गूढ़ार्थ का सुगम सरल शैली में बोध करा देनेवाली आपकी नवाङ्गी वृत्तियाँ विगत ९ शताब्दियों से आगमों के अध्येताओं को मार्गदर्शन करती आ रही हैं और भविष्य में भी सहस्त्राद्वयों तक मुक्ति पथ के पथिकों को दुरूह मुक्तिपथ के परमप्रमुख पाथेय आगमिक ज्ञान के अर्जन में सहायकता प्रदान करती रहेंगी । इसी कारण आचार्य अभयदेव सूरि का प्रातःस्मरणीय पवित्र नाम जैन जगत् के इतिहास में सदा -सदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा ।" ऐसे टीकाकार श्री की प्रशंसा शास्त्रसापेक्षता - उत्सूत्रप्ररूपणा भीरूता आदि प्रगट करते और भी अनेक उल्लेख उपरोक्त इतिहास में स्थानकवासी परंपरा के विद्वान् - मान्यता प्राप्त आचार्य श्री हस्तीमलजी ने किये हैं । जिससे तटस्थ व्यक्ति अवश्य निर्णय करें टीकाकार श्री की टीकाएं प्रमाणभूत है या नहीं ?
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निशीथ सूत्र की पीठिका में स्थानकवासी उपाध्याय अमरमुनिजी कहते है "छेदसूत्रों का अपना स्वयं का मूलग्रंथ भी भाष्य और चूर्णि के बिना यथार्थत: समझ में नहीं आ सकता । यदि कोई भाष्य और चूर्णि का अवलोकन किए बिना छेदसूत्र गत मूल रहस्यों को जान लेने का दावा करता हैं, तो मैं कहूँगा या तो वह भ्रान्ति में है, या दंभ में है ।"
जयध्वज पृ. ६७० पर जयमलजी म. जिन्होंने आवश्यकादि की टीकाएँ
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा लिखी है ऐसे याकिनी महत्तरा सुनू हरिभद्रसूरिजी म. के लिये बताते हैं । "वे सत्य और शुद्ध संयमी जीवन के पक्ष में थे ।" क्या ये स्थानकवासी विद्वानों के वचन भाष्य-चूर्णि टीकादि की प्रामाणिकता नहीं बताते हैं ?
___ आगे डोशीजी जो लिखते हैं "मूर्तिपूजक विद्वान् ही टीका भाष्यादि के हवाले को प्रमाणरूप नहीं मानते हैं" वह भोले लोगों को भ्रमित करने का तरीका है । जितने भी उदाहरण दिये हैं किसी में टीका भाष्यादि के अप्रमाणता की बात नहीं की है। प्रथम उदाहरण में वृत्ति-चूर्णि-भाष्यनियुक्ति-सूत्र उत्तरोत्तर बलवान् प्रमाण गिने हैं, उससे पीछे-पीछे के अप्रमाण यह अर्थ नहीं निकलता है। पूर्वधरों में १-९ यावत् १४ पूर्वी - अवधिमनःपर्यव-यावत् केवलज्ञान तक में उत्तरोत्तर बलवान् प्रमाण गिना जाता है, उससे पूर्व-पूर्व के अप्रमाण कोई नहीं कहेंगे । यही बात आगे सभी उदाहरणों में समझनी।
___ अंतिम उदाहरण में पू. नेमिसूरिजी ने भाषांतर की अपेक्षा मूल को प्रमाण माना है। स्थानकवासी पंथ में गृहस्थ प्रायः संस्कृत-प्राकृत के अनभिज्ञ होने से आगमों के भाषांतर छपवाकर उनमें उत्सूत्र अर्थ करते हैं । वे इस पाठ से बाधित हो जाते हैं । जो व्याकरण को व्याधिकरण मानते हैं, वे स्थानकवासी विद्वान (?) शुद्ध अर्थ ग्रहण करेंगे भी कैसे ?
आगे टीका के बारे में उसको अप्रामाणिक बनाने में जो कुकल्पनाएँ की हैं वे ऊपर बताये मौलिक इतिहास के पाठ से बाधित हो जाती हैं । उत्सूत्र प्ररूपणा भीरू-भवभीरू टीकाकार अपनी परिस्थिति के अनुकूलमनमानी टीका बना ही नहीं सकते ।
उत्सूत्र प्ररूपक होने से जिन्हें संघबाह्य किया गया ऐसे पंडित के प्रमाणों की कोई विश्वसनीयता नही है ।
आगे डोशीजी कहते हैं "विवादग्रस्त विषयों की चर्चा हो, वहाँ इन टीकाओं का (मूलाशय रहित की गई व्याख्याओं का) प्रमाण कुछ भी महत्व नहीं रखता..." सुज्ञ लोग मूलस्पर्शी टीकाओं या नियुक्तिआदि को अवश्य मानते हैं...।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१८१ वस्तुतः टीकाओं को मूलाशयरहित-विरूद्ध मानना यह आभिनिवेशिक, बुद्धि से हो रही आगमों की आशातना है । स्थानकवासी संप्रदाय के विद्वान् मूर्धन्य आचार्य श्री क्या फरमाते हैं, देखिये - "आ. अभयदेव-सूरि द्वारा ९ अंगों पर रचित ये वृत्तियाँ इन (नवों ही) अंगो के गूढार्थपूर्ण सूत्रों और शब्दों पर स्पष्ट प्रकाश डालनेवाली हैं । न तो वे अतिसंक्षिप्त हैं और न ही अति विस्तारपूर्ण । सूत्रार्थ स्पर्शिनी एवं शब्दार्थ विवेचन प्रधान शैली को अपनाकर भी अभयदेवसरिने इन वृत्तियों में जहाँ-जहाँ उन्हें आवश्यकता प्रतीत हुई, शब्दों और सूत्र के अर्थ का सुबोध शैली में सुंदर ढंग से विवेचन किया है आगमों के अध्ययन में रूचि रखनेवाला जिज्ञासु सूत्रों एवं शब्दों के गहन-गूढ रहस्य को भलीभांति हृदयंगम करने में सक्षम हो सकता है... अतः इन वृत्तियों के अध्ययन निदिध्यासन से अध्येता को सहज ही यह अनुभव होने लगता है कि अभयदेवसूरिने इन ९ वृत्तियों के रूप में वस्तुतः उसे आगमों के निगूढ़ रहस्य को उद्घाटित कर देने वाली ९ कुंजियाँ ही प्रदान कर दी है।'' जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ४ पृ. १६८ (आ. श्री. हस्तीमलजी म.) अब तटस्थ व्यक्ति विचारे टीकाओं को मूलाशयविरूद्ध मानना आगमों की आशातना हैं या नहीं ?
स्थानकवासी आचार्य देवेन्द्र मुनि जी ने भी टीकाओं की प्रामाणिकता अनिवार्यता एवं विश्वसनीयता को स्वीकार किया हैं । (देखें - जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा) डोशीजी के अलावा किसी भी विद्वान संत की इस विषय में दो राय नहीं है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
३७. मूर्तिपूजा विषयक ग्रंथों की अप्रामाणिकता → समीक्षा
इस प्रकरण में डोशीजी ने मूर्तिपूजक आचार्य एवं उनके ग्रंथादि की भरपेट निंदा की हैं, अनेक कटाक्ष- अभद्र शब्दों का प्रयोग किया हैं । जिसका विशेष उत्तर देने की आवश्यकता नही है । उनको प्रत्युत्तर उन्हीं की भाषा में प. पू. लब्धिसूरीश्वरजी म. ने मूर्तिमंडन में 'लोकाशाह मत समर्थन का पर्यालोचन' में दिया है । जिसकी तृतीय आवृत्ति 'श्री लब्धिसूरि ग्रंथमाला, छाणी' से हाल में ही प्रकाशित हुई है ।
निगम शास्त्रों के लिये किसी अनामी व्यक्ति ने संघपट्टक की प्रस्तावना में लिख दिया, दूसरा कोई प्राचीन प्रमाण न होने से उसी को डोशीजी प्रमाणरूप में पेश कर रहे है । ऐसे इक्के दुक्के व्यक्ति कल्पना से निराधार बातें करें वह प्रमाण नहीं होता है ।
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मूर्तिपूजा - निरूपक ग्रंथो को आगमविरोधी कह देने से वे आगमविरोधी नही बनते हैं । स्थानकवासी मान्य ३२ आगमों में जैसे हिंसादि पापों का निषेध है, वैसे मूर्तिपूजा का एक वाक्य में भी कहीं पर भी निषेध नहीं हैं तो उसमें मिथ्यात्वादि दोष कैसे लग सकते हैं ? आगमविरोधी कैसे ? उल्टा अनेक आगमों में मूर्तिपूजा बतायी है। इससे तो कल्पित स्थानकवासी पंथ ही आगमविरोधी सिद्ध होता है ।
आगे ढ़ेर सारे उदाहरण दिये हैं । उन सब के उत्तर पू. लब्धिसूरिजी म. ने दे दिये हैं । इसमें डोशीजी श्राद्धविधि पृ. १५७ का पाठ देकर घोड़े को अग्नि में होमकर पुण्य मानने की मान्यता मूर्तिपूजकों की होने की संभावना व्यक्त करते है । इसमें डोशीजी जान बूझकर पाठ को छिपाकर उसका गलत अर्थ करके अपना मूर्तिपूजकों के प्रति उग्रद्वेष को प्रदर्शित करते हैं । श्राद्धविधि ग्रंथ के हिंदी भाषांतर में यह पाठ है "लोक में भी कहा है कि भक्तिमान् पुरूष देव के सन्मुख कर्पूर का दीप प्रज्वलित करके अश्वमेघ का पुण्य पाता है ।" गुजराती भाषांतर में "लौकिक शास्त्रमा कहेल छे के
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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“परमेश्वरनी पासे कपूरथी दीवो करे तो अश्वमेघ यज्ञनुं फल पामे" यह पाठ
है ।
श्राद्धविधिकार को यह उदाहरण देकर इतना ही बताना है कि लौकिक में अश्वमेघ का विशिष्ट कोटि का पुण्य मानते हैं, उतना पुण्य कर्पूर के दीप पूजा का होना वे बताते हैं । दीपक पूजा के महत्त्व की पुष्टि के लिये ही ग्रंथकारने यह बात बतायी है । इसमें कोई घोड़े होमने की बात ही नहीं है ।
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इसमें डोशीजी की अनीति देखिये - लौकिक शास्त्र में यह बात कही है, इस बात को ढँककर घोडे को होमने की बात जो लौकिक मिथ्यादृष्टियों की मान्यता है, उसे मूर्तिपूजकों के नाम पर थोप देते है । मिथ्याभाषण के मार्ग से स्वमत का समर्थन कर रहे स्थानकवासी साधु-साध्वी - श्रावकश्राविकाओं को मूर्तिपूजा का प्रतिपादन कर रहे अनेकानेक जैनाचार्यों द्वारा रचित अनेकविध सुंदरतम शास्त्रों-ग्रंथों से वंचित रहना पड़ता है, इसका हमें आत्मीय खेद है ।
आगरा में तह जि
पूर्व भ
पूर्व भ
वर्तमान पर
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
३८. मूर्तिपूजा के विरूद्ध प्रमाण संग्रह → समीक्षा
इसमें डोशीजी ने लिखा है "इस प्रकार मन से मोदक बनाने वाले चाहे सो मान लें, उन्हें प्रमाणित तो करना ही नहीं है, वहाँ तो हाथी के दांत सिर्फ दिखाने के ही हैं।" वह उनको खुद को लागू होता है। चूँकि आगे ‘“भगवान् महावीर के समय मूर्तिपूजा में धर्म मानने की श्रद्धा जैन समाज में थी ही नही ।" यह तो उन्होंने कहा है वह कल्पनामात्र - प्रमाणहीन हैं । वस्तुत: उस वक्त मूर्तिपूजा में अधर्म मानने वाले थे ही नहीं इसीलिये उसका खंडन नही हुआ है । और आगमों में भी उसे मतांतरो में लिया नहीं है ।
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मूर्तिपूजा की बातें तो शास्त्रों में अनेक जगह पर आयी हैं। रायपसेणी, ज्ञाताधर्मकथा आदि अनेक सूत्रों के प्रमाण पीछे सिद्ध किए हैं । तो कैसे कह सकते हैं कि “चतुर्थ काल में मूर्तिपूजा में धर्म माननेवाला जैन समाज था ही नहीं ?"
अभी डोशीजी के असंबद्ध प्रलाप देखिये । पृ. २८० पर (चतुर्थकाल में) अजैन समुदाय में भी मूर्तिपूजा में धर्म मानने की रीति नहीं थी' और आगे पृ. २८२ में (१) ‘अजैनो में तीर्थयात्रा करने का रिवाज भगवान् महावीर के समय का था' 'ऐसा लिख रहे हैं । तीर्थयात्रा सांसारिक हेतु से नहीं की जाती है, उसमें धर्मभावना ही होती है । असत्य की सिद्धि करने की कोशिश छिप नहीं सकती ।
आगे डोशीजी लिखते है "मंडन नहीं होते हुए भी खंडन नहीं मिलने मात्र से ही किसी रीति को स्वीकार्य समझा...." यह बात भी बराबर नहीं हैं । चूँकि पाठक इस ग्रंथ में पीछे आगमों में मूर्तिपूजा का मंडन स्पष्ट रूप से है, उससे अवगत हैं ही, तो मंडन नही ऐसा कहना वस्तुतत्व को छिपाना है । परमात्मा ने - गणधरों ने मूर्तिपूजा का खंडन नहीं किया है, इसमें भी तथ्य ही है, उपादेय का खंडन कभी होता नहीं है । अगर मिथ्यात्व हिंसादि
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जैनागमसिद्ध मूर्तिपूजा
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कारणों से मूर्तिपूजा को भगवान् हेय मानते पर दूसरे पापों की तरह इसका कहीं पर भी खंडन नही किया यह तथ्य सुज्ञलोगों को अवश्य परमात्मा मूर्तिपूजा को हेय नहीं परंतु उपादेय मानते थें इस वस्तुस्थिति का बोध कराएगा ।
→>
( १ ) जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा समीक्षा - इस संपूर्ण प्रकरण में एक स्थान पर भी डोशीजी आगम के द्वारा मूर्ति विरोध नही बता सके हैं । भोले लोगों को फंसाने हेतु वाग्जाल रची है
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शुरू में जो आप बताते हैं तीर्थंकर प्रभु को गृहस्थावस्था में साधु समान मानकर कोई वंदनादि नहीं करते । उसका जवाब यह हैं - चारित्र नहीं लिया तो साधु जैसे मानकर वंदनादि भला कौन करेगा ? परंतु इंद्रादि परम सम्यग्दृष्टि देव नमुत्थुणं से उस अवस्था में भी उनकी वंदना - स्तवना करते हैं और मेरु पर्वत पर जन्माभिषेक बड़े ठाठ से करते हैं । यह इस बात को सूचित करता है कि उस अवस्था में तीर्थंकर प्रभु द्रव्य निक्षेप से पूजनीय थे । इससे गुणों के अभाव में गुणों की प्रकृष्ट योग्यता को लेकर उस वक्त व्यक्ति-पूजा भी अपेक्षा से जैनदर्शन मान्य करता है । जैन दर्शन एकांतवादी नहीं हैं, अनेकांतवादी है ।
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आगे डोशीजी ‘“जैन समाज गुणपूजक हैं, आकृति या शरीर का पूजक नहीं ।'' इसके लिये तर्क देते हैं । वे भी बराबर नहीं हैं । गुणपूजक है इसीलिये आकृति शरीर-मूर्ति-पूजक भी है। गुण आकाश में नहीं रहते हैं आत्मा में रहते हैं आत्मा भी शरीर बिना रहती नहीं हैं अतः भेदाभेद होने से शरीर भी पूजनीय है । शरीर पूजेंगे, उस जड शरीर के माध्यम से ही आत्मा में रहे गुणों की पूजा होगी । जिस प्रकार सुगंध के लिए फूल को अपनाया जाता है । उस शरीर के आकार - मूर्ति से भी उन गुणों की ही पूजा करते हैं । जैसे जड़ शरीर के माध्यम से गुणों की पूजा वैसे ही जड़ मूर्ति के माध्यम से गुणों की ही पूजा करते हैं । जो बीच में माध्यम शरीर - आकारमूर्ति वगैरह उसका भेदाभेद संबंध होने से वे भी पूजनीय हैं । आकारमूर्ति स्थापना निक्षेप हैं उसका जिसकी स्थापना है उसके साथ भेदा-भेद संबंध होता है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
संयम से गिरे व्यक्ति में निश्चय से संयम गुण नहीं है । अत: वह पूजनीय नहीं हैं । संतो का जीवरहित शरीर जड होने पर भी पूर्व में गुणसंपन्न होने से उसका द्रव्यनिक्षेप भी पूजनीय होने से मृत्यु के पश्चात् जड़ शरीर की पूजा (जड़-पूजा का विरोध करनेवाले) स्थानकवासी पंथ में भी बड़े ठाठ से करते है । जिससे मूर्तिपूजा की सिद्धि निर्विवाद होती है । और उन संतों की याद में समाधिस्थल भी रचते हैं, बनवाते है ।
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द्रव्यनिक्षेप गुणों (भाव) की योग्यता को लेकर और स्थापनानिक्षेप गुणों के आलंबन से पूजनीय हैं यह आगमसम्मत सत्य है । अत: एकांत से गुण 'ही' पूजनीय हैं । यह बात जैन शास्त्रों से विरूद्ध है ।
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अब आगे डोशीजी की चालाकी देखिये - खुद ने प्रतिज्ञा तो कर ली हैं आगमों में मूर्तिपूजा का विरोध बताना किन्तु आगमों में कहीं पर भी एक शब्द से भी विरोध मिलता नहीं है । अत: भोले लोगों को फँसाने हेतु खंडन विरोध "प्रतिकार" से भी होता है और 'उपेक्षा' से भी । यहाँ हम अंतिम शैली से मूर्तिपूजा का खंडन करने का प्रयत्न करते है ।" इस प्रकार पलटी खाते है। अगर प्रभु के आगमों में हेय-संसार में भटकानेवाले ऐसे मिथ्यात्व-हिंसादि की कहीं पर भी उपेक्षा की हो ऐसा एक भी प्रमाण बताते तो ही मध्यस्थ व्यक्ति आपकी बातों पर विश्वास करते । अन्यथा कपोल कल्पित मनगढंत विरोध के उपेक्षा अर्थ में कौन बुद्धिशाली विश्वास करेगा
?
मूर्तिपूजा का खंडन करने में जो सूत्रादि के तर्क दिये उनमें भी कोई तथ्य नहीं है । प्रश्नव्याकरण में ऊपर से मिथ्यात्व की बात चल रही है, इसलिये मिथ्यात्वियों के मंदिर की बात है । आचारांग में प्रतिष्ठा-पूजादि में हिंसा का विधान दिया ही नही है। ठाणांग में समुद्र में उतरने के स्थान को तीर्थ कहा है, उनका उल्लेख है। बाकी दूसरे उदाहरण संपूर्ण रुप से नि:सार हैं । १८ नंबर में कहा हैं 'हजारो मुनियों के चरित्र', ३२ सूत्र में हज़ारों मुनियों के चरित्र आते ही नहीं हैं, कोरी गप्प लगायी है । शास्त्रों के असंगत अर्थ एवं स्वबुद्धि से कुतर्क करके डोसीजीने मूर्ति का विरोध करने का
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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असफल प्रयत्न किया है, जिनका खंडन हम पूर्व में भी कर आए हैं एवं तटस्थ पाठक भी विचार कर सकते हैं ।
(२) मूर्तिपूजक मान्य प्रमाणों से मूर्तिपूजा का विरोध समीक्षा → इस प्रकरण में स्थानकवासी परंपरा में आती तस्करवृत्ति का अनुभव कराया है। करीब-करीब सभी स्थानों में कही पर आगे-पीछे संदर्भ को छोडकर - कही पर अर्थ में घोटाला करके अर्थ किये हैं। जिससे सभी समझ सकते हैं कि डोशीजी ने गीतार्थ गुरुदेवों से अध्ययन नहीं किया है ।
विजयानंदसूरिजी के ग्रंथ का पाठ भी दिया है। क्या जिन्होंने कुमार्ग समझकर मुंहपत्ति का डोर तोडकर बेबुनियाद स्थानकवासी परंपरा को छोड़कर १७ साधुओं के साथ सत्यमार्ग पर आये वे यहाँ आकर मूर्तिपूजा का विरोध करेंगे ? कभी नहीं कर सकते ।
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केवल भोले लोगों को फँसाने हेतु - पुस्तक का कलेवर बढ़ाने हेतु यह प्रकरण रचा है जो तथ्यहीन है । तो भी सामान्य लोग फँसे नहीं इसलिये सामान्य से तथ्य बताते हैं ....
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प्रथम महानिशीथ में द्रव्यस्तव से भावस्तव की महत्ता बतायी है वह योग्य ही है, साधु के लिये द्रव्यस्तव निषिद्ध ही है, उसे वह करे तो भ्रष्ट श्रमण कहलाएगा वह बराबर ही है, परंतु श्रावक के लिये उसमें कहाँ निषेध किया है ? श्रावक की तो वह करणी है । पंचम अध्ययन के नाम से की बात कपोल कल्पित है, उसमें है ही नहीं ।
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विवाह चूलिका की कोई प्राचीन हस्तप्रत नहीं मिलती है वह स्थानकवासियों ने अपनी सिद्धि के लिये बनावटी बनाया हुआ है ऐसा प्रतीत होता है | ठाणांग १० स्थानक उद्देशा ३ में दस दशाएँ बतायी हैं । जिसमें संक्षेपिक दशा एक है, उसके दस अध्ययन में विवाहचूलिका का नाम है । टीकाकार टीका में कहते हैं यह संक्षेपिक - दशा हमें प्राप्त नही है । मतलब हजार साल पूर्व टीकाकार के समय में भी जो विवाहचूलिया मिलती नही थी, वह अब कहां से मिलेगी ? इससे सिद्ध है वह बनावटी कृति है । फिर
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा भी पृ. २८९ पर दिये हुए पाठ से भी श्रावक की करणी में मूर्तिपूजा सिद्ध होती ही है । देखिये श्री डोशीजीने लिखा पाठ इस प्रकार है
* "जइणं भंते जिणपडिमाणं वंदमाणे अच्चमाणे, सूयधमं चरित धम्म लभेज्जा ? गोयमा ! णो इणढे समठे। से केणढेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! पुढवीकायं हिंसइ जाव तसकायं हिंसई" * - अर्थ : श्री गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं कि - (डोशीजीने "जइणं साधुको'' इतना अर्थ करना टाला है ।)
हे भगवंत् ! साधु को जिनप्रतिमा की वंदना अर्चना (पूजा) करने से क्या श्रुतधर्म और चारित्र धर्म होता है ? भगवान् कहते हैं - हे गौतम ! नहीं होता है।
पुनः गौतमस्वामी प्रश्न करते हैं कि - हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं ?
भगवानने उत्तर दिया कि - हे गौतम ! इसमें साधु को पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय की हिंसा होती है ।
समीक्षा : विवाहचूलिया - सूत्र का यह पाठ पंचमहाव्रत साधुओं के लिए है और जिसमें पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा हो, ऐसी जिनअर्चाजिनपूजा आदि का साधु को निषेध है, साधु को भावपूजा संयमपालन व चैत्यवंदन आदि होता है। साधु को संयमपालन जैनागमों का शास्त्र-स्वाध्याय करना होता है । मूर्तिपूजक श्रावक जब पौषधव्रत लेता है - जब भी उसको जिनपूजा का निषेध होता है, उनको पौषध में भावपूजा का अधिकार है ।
इसलिए - साधु को द्रव्यपूजा निषिद्ध होते हुए भी व्रती-अव्रती जैनश्रावकों को जिनपूजा-द्रव्यपूजा का निषेध नहीं हैं - ऐसा विवाहचूलिका सूत्र के पाठ से भी सिद्ध होता है । ____ व्यवहार चूलिका की भी यही बात है। आधारहीन सूत्रपाठ, फिर शब्दों का हेर-फेर, फिर असंगत-अप्रामाणिक अर्थ, फिर कुकल्पित कुतर्क !
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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मूर्तिपूजा के विरोध के व्यामोह में डोशीजी सामान्य जनमानस को असत्य का पाठ सिखा रहे हैं ।
संबोध प्रकरण, संदेह दोलावली - संघपट्टक इनकी बाते चैत्यवासीओं को उद्देशकर हैं । गृहस्थों के लिये नही । आवश्यक हारिभद्री में संयमीओं के लिये द्रव्यस्तव में दोष बताया है, गृहस्थों के लिये नहीं ।
आवश्यक ११०६ गाथा के बारे में पूर्ण तस्करवृत्ति की है । उसमें सुसमाहित संयत वंदनीय बताया है । नाम - स्थापना - द्रव्य निक्षेप की बात ही नही है ।
श्राद्धविधि में वहाँ पर भाव श्रावक का अधिकार है इतनी ही बात है, नाम-स्थापना- द्रव्य, भाव का कार्य नहीं कर सकते इसलिये उसका वहाँ पर प्रयोजन नही हैं इतना ही बताया है । ये तीनों खुद का कार्य तो करते ही है । इससे निकम्मे नही हैं ।
आवश्यक गा. ११३८ के संदर्भ को भी विपरीत पेश कीया है वहाँ पर द्रव्य भाव के संयोग से ही वंदनीय बताये हैं । मुनिवेश और मुनिभाव दोनो चाहिये । स्थापना और भावनिक्षेपे में उसको ले जाना अस्थान निरूपण है । ग्रंथकार के आशय से विरूद्ध है ।
'दीक्षानु संदर स्वरूप' में सागरानंदसूरिजीने चारित्र की महत्ता मात्र बतायी है । पूजा आदि हेय नहीं बताये हैं ।
हुकुममुनिजीका ग्रंथ देखने में नहीं आया संदर्भ में निश्चित गड़बड़ लगती है ।
पं. लालन को भी पं. बेचरदास की तरह संघबहिष्कृत किया है । वह प्रमाणभूत नही है । इससे आगेवाला बेचरदासजी का पाठ भी अप्रमाण है । प्रतिमाशतक के पाठ से तो मूर्तिपूजा का ही समर्थन होता है ।
पृ. २९७ पर श्री डोशीजीने महोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. लिखित 'प्रतिमाशतक' ग्रंथ का पाठ लिखा है- यथा ...
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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: सावद्यं व्यवहारतोपि भगवन् साक्षात् किल्- अनादिशत् । बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत मौनेन संमन्यते
अर्थात् बलिविधान और प्रतिमापूजन आदि क्रिया व्यवहार से सावद्य ( निंदनीय ) होने के कारण भगवान् अपने मुँह से इसका उपदेश नहीं करते । किन्तु गुणकारी होने से मौन से इसका समर्थन करते है ।
फिर टिप्पणी में डोशीजी कटाक्ष में लिखते हैं कि
यही तो उपाध्यायजी की मूर्तिपूजकता है । शायद भगवान के मन के भाव उपाध्यायजी ने जान लिये हों ।
-
समीक्षा : काम-भोग का या मांसखाने का भगवान स्पष्ट निषेध करते हैं, क्योंकि ये नरक के आश्रव है ।
जबकि बलिविधान और प्रतिमापूजा - एक बाजू स्थावरादि जीवों की हिंसा के कारण सावद्य है - दूसरी ओर सम्यग्दर्शन-विनय-धर्म में उत्साह कराने वाली है, इसलिए कामभोग का सर्वथा निषेध का उपदेश देते हैं, इस प्रकार बलिविधान और प्रतिमापूजा में भगवान् का न समर्थन है न सर्वथा निषेध है । इसलिए भगवान मौन रहते हैं ।
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-
कोई संयम लेने आएगा तब भगवान कहेंगे- देर मत करो, शीघ्र संयम प्राप्त करो । काम-भोग के लिए भगवान मना ही करेंगे। जब कि सूर्याभदेव - विजयदेव आदि का नाटक, प्रतिमापूजा आदि में भगवान मौन रहते हैं, यह ही उनकी अनुमति का द्योतक है ।
-
विजयदेव - सूर्याभदेव के नाटक करने का पूछने पर भगवान न हाँ कहते है, न ना ही बोलते हैं, मौन रहते हैं - तब ये सम्यग्दृष्टि देव मौन का अर्थ हाँ समझकर ३२ नाटक करते ही है ।
प्रश्न - तीर्थंकर भगवान मौन क्यों रहते है ?
उत्तर नाटक में एक बाजू श्री गौतम आदि मुनियों के स्वाध्याय
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१९१ का व्याघात हैं, दूसरी बाजू सूर्याभदेव आदि की भक्ति-शुभभाव आदि गुणकारी सत्कार्य है । ऐसी अवस्था में भगवान मौन रहते हैं जिसे सम्मति मानी जाती है।
इसी प्रकार जिनमूर्तिपूजा में भी समझना चाहिए ।
पृ. २७ पर डोशीजी - पं. बेचरदासजी दोशी के नाम पर मूर्तिपूजा का निषेध लिखते है
पर यह अनुचित है -
क्योंकि (१) जैनागमों में जगह-जगह जिणपडिमा-अच्चणं, चैत्यवंदन, चैत्यद्रव्य, जिनघर, सिद्धायतन, शाश्वतजिन- इत्यादि शब्द आये हैं । श्री भद्रबाहुस्वामी जैसे चौदपूर्वधरोंने तथा श्री उमास्वाति जैसे १० पूवधरों ने - जिनमंदिर व जिनपूजा का समर्थन किया है।
(२) जैनधर्म में मूर्तिपूजा का निषेध ५०० वर्ष पूर्व लोकाशाह ने किया ।
(३) मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त प्राचीन जैनमूर्तियों के अवशेष भी जिनमूर्तिपूजा की सिद्धि करते हैं। ___ (४) आ. श्री. हरिभद्रसूरि जी म. आदि प्राचीन जैनाचार्यों ने चैत्यवास का विरोध किया था, जब कि चैत्य (जिनमंदिर व जिनपूजा) का समर्थन किया है।
(५) साक्षात् तीर्थंकर के आगे चामर ढुलाना या पुष्पों की वृष्टि करना - यह सब पूजा-भक्ति आदि के ही प्रकार है । जिसका प्रभु ने मौन समर्थन किया है।
(६) देवलोक आदि में रहे - शाश्वत चैत्यों के पाठ भी मूर्तिपूजा को आगमिक सिद्ध करते हैं । बाकी, जिनको सत्य का सहारा नहीं लेना हैं, उनको क्या कहें । स्वतन्त्र विचारक बेचरदासजी की बात माननी है और १४ पूर्वधर की नहीं, यह भी दृष्टिराग ही हैं ।
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पृ. २९९ पर श्री रतनलालजी डोशीजी दिगम्बर समाज के 'पात्रकेशरी' स्तोत्र - ३७ वें श्लोक का उद्धरण कर लिखते हैं कि ( पन्नालालजी बाकलीवाल द्वारा प्र. पृ. ३९)
-
+ मोक्ष सुख से रहित करनेवाली "चैत्यवंदना - दान पूजा" आदि स्वरूप में सभी क्रियाएँ नाना प्रकार से प्राणियों के मरण और पीड़ा करने की कारण है । जिनेन्द्र ! जाज्वल्यमान केवलज्ञान से युक्त होकर आपने दान-पूजादि क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया है । केवल तुम्हारी भक्ति करनेवाले श्रावकों ने उन क्रियाओं को स्वयमेव कर लिया है ।"
समीक्षा : (१) यहाँ चैत्यवंदन और जिनपूजा के साथ दान का भी निषेध किया है, तो श्री रतनलालजी डोशी आदि कट्टर स्थानकवासियों को इस बात को स्वीकार कर संत-सतियों को बोहराना भी नहीं चाहिए क्योंकि इसमें भी अग्नि, वायुकाय आदि की हिंसा भी है । न कबूतर को चुगा जुवारी का दान देना चाहिए | क्या स्थानकमार्गीयों को ये सब कबूल है ?
(२) सच यह है कि श्री आगमशास्त्र कथित मार्ग को छोडकर - ऐसे अप्रामाणिक स्वतंत्र विचारक पन्नालालजी, बेचरदासजी, लालनजी, हुकुममुनिजी, काका कालेलकर, पंडित चतुरसेन, स्वामी दयानंद सरस्वती आदि के कमजोर वचनों का सहारा लेना यही डोशीजी की मूर्खता है ।
अरे भाई ! सहारा लेना हों तो - पंचमहाव्रत धारी, शुद्ध संयमी आ० शीलांकाचार्य आ० अभयदेव सूरि, आ. मलयगिरिजी इत्यादि ज्ञानियों का लेना चाहिए ।
(३) अजैन विद्वान और मूर्तिपूजा
इसमें तीसरे नंबर का उदाहरण जैन पं. बेचरदास (जो संघ बहिष्कृत है) का है । वह प्रमाणभूत नहीं है । प्रतिज्ञा अनेक अजैन विद्वानों के अभिप्राय की करते हैं और दूसरे विशेष प्रमाण न मिलने से पुन: जैन विद्वान् का अभिप्राय देते है | देखिये कैसी चालाकी ?
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
चौथे नंबर में दयानंद सरस्वती ने जैनियों से मूर्तिपूजा मानी है। जैनियों में युगांतरो से मूर्तिपूजा आती है। जिसके आगम साक्षी है इससे तो मूर्तिपूजा जैन धर्म में अनादिकालीन सिद्ध होती है, डोशीजी को खुद को ही आपत्ति
है।
(१) प्रथम प्रमाण में काका कालेलकर कहते हैं - निष्प्राण मूर्ति तो गलामां पत्थर बनीने डुबाडे छे'' यह उनकी अनुभव हीन वाणी हैं, जिसने घेवर नहीं चखा हो उसे उसके स्वाद का क्या पता ? मूर्तिपूजा भक्ति से शुभभावों के स्रोतों का अनुभव जिसने किया है, उनके लिये वे वचन अज्ञानतापूर्ण हैं।
(२) दूसरे नंबर का उदाहरण भी कल्पनामात्र है । कोई प्रमाण नही है। ऐसे स्वतंत्र विचारकों के निराधार वचनों के कारण ही मूर्तिविरोधी पंथ निकले हैं।
पू. ज्ञानसुंदरजी म. ने 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' में शुरू में अंग्रेजी विद्वान् और दूसरे अनुभवी विद्वानों के अभिप्राय दिये हैं जिज्ञासु उन्हें देखकर निर्णय करें।
मेची अधि
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 3९. उपसंहार का संहार → समीक्षा इसमें डोशीजीने ज्ञानसुंदरजी म.सा. द्वारा पृ. ११५ पर दिये उपसंहार का खंडन किया है जो बराबर नहीं है ।
(१) इसमें ज्ञानसुंदरजीने तीर्थयात्रा के लाभ आरंभादि त्यागब्रह्मचर्यपालन पुण्यकार्य में द्रव्य व्यय बताये, वे योग्य ही है। डोशीजी कहते हैं हमारे पूर्वज आनंदादि श्रावक मंदिर - यात्रा बिना ही धर्मसाधना करते थे इसके उत्तर में उपासकदशांगसूत्र में पीछे भली भांति सिद्ध किया है आनंदादि ने जिनप्रतिमा के सिवाय अन्य को वंदन नही करने की प्रतिज्ञा की थी इससे तो वे आपके पूर्वज सिद्ध नहीं हुए, हमारे पूर्वज सिद्ध होते है । यह तो स्पष्ट बात है कि तीर्थयात्रा में नहीं जाए घर बैठा रहे तो पूरे दिन सामायिकादि नहीं करेगा- संसार खाते में धन खरचेगा-तीर्थयात्रा में उनसे निवृत्तिरुप स्पष्ट लाभ है।
तीर्थयात्रा करनेवालों का खुद का अनुभव भी है । की वहाँ पर आत्मशांति विशिष्ट अनुभूति एवं धर्म में धन व्यय से आत्मीय आनंद होता है । उसमें पापारंभ और फिजूल के द्रव्य व्यय का अनुभव किसी को भी नहीं होता है । पीछे प्रकरणो में चारणमुनि की तीर्थयात्रा, अष्टापद पर प्रभु के स्तूप आचारांग नियुक्ति में १४ पूर्वी भद्रबाहुस्वामीजी ने अष्टापदादि तीर्थवंदना की है इन प्रमाणों से तीर्थयात्रा की सिद्धि होती है।
(२) इसमें ज्ञानसुंदरजी म. ने द्रव्य पूजा नहीं करनेवाले भी मंदिर में माला नमुत्थुणं आदि द्वारा पुण्योपार्जन - कर्मनिर्जरा करते थें वह बराबर ही है । आलंबन होता है तो उससे धर्मप्रवृत्ति के भाव होते हैं । मूर्तिपूजकों के लिये तो उपाश्रय में प्रतिक्रमणादि में नमुत्थुणं सामायिकादि में माला इत्यादि होते ही हैं । मंदिरजी की क्रिया में चैत्यवंदनादि नमुत्थुणं का लाभ विशेष होता है । स्थानकवासियों के स्थानक में प्रतिक्रमणादि में ही वह होता है । अतः स्थानकवासियों की अपेक्षा विशेष लाभ होता ही है ।
पृ. ३०४ पर डोशीजी लिखते हैं कि
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
* स्तुति, स्वाध्याय या जाप हम धर्म स्थानों में कर सकते हैं।
समीक्षा : (१) अरे डोशीजी ! यह आपने क्या लिख डाला? स्तुति, स्वाध्याय या जाप के लिए-जिस प्रकार मूर्तिपूजकों को जिनमंदिर व जिनप्रतिमा की आवश्यकता नहीं है- ऐसा आप कहते हों ।
तो फिर - स्तुति, स्वाध्याय, या जाप के लिए धर्मस्थानों की भी क्या आवश्यकता है ? क्योंकि धर्मस्थानक (स्थानक उपाश्रय) निर्माण में भी तो हिंसा होगी ? उसकी सफाई-धोने आदि में भी हिंसा होगी । घर में भी जाप-ध्यान, स्तुति-स्वाध्याय कैसे होगा ? वह भी हिंसा से बना हुआ है । __यानि स्तुति स्वाध्याय, या जाप आपको हिंसा से बनाये गये स्थानक में नहीं, किन्तु पेड़ के नीचे ही करने चाहिए !
डोशीजी की अज्ञानता है कि स्थापना, तीर्थंकरों की नहीं होती है आचार्य की ही होती है ऐसा बता रहे हैं। स्थापना पंच परमेष्ठी की होती है । स्थापनाजी की प्रतिष्ठा विधि में अरिहंतादि पांचो की स्थापना के मंत्र बोले जाते हैं । इससे डोशीजी के कुतर्क स्वयं ही खंडित हो जाते हैं ।
मंदिर मूर्तियों में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के बंधन आपको मतमोह के काले चश्मे पहनने से दिख रहे हैं । ऐसा होता तो परमात्मा आगमों मे सूर्याभादि देवाधिकार में उसका उल्लेख नही करते वहाँ पर कहते की यह सावद्य कार्य हेय है । इंद्रियादि पोषण के बात का भी इसी से खंडन हो जाता है, पीछे भी प्रकरणों में उसका उत्तर दे दिया है। जिसने प्रभु प्रतिमा को परमात्मा माना है, उसकी आत्मा का विकास ही हुआ है । जिसने प्रभु प्रतिमा को पत्थर माना है, उसकी आत्मा का हास ही हुआ है ।
(३) मूर्ति नहीं मानने से मंदिरादि जायदाद के हक से वंचित रहने की बात भी बराबर ही है । डोशीजी कहते हैं 'जिसकी हमे आवश्यकता नही, उस पर हक जमाकर हम उपाधि क्यों बढ़ावे ? अधिकारवाद से धर्म का कोई संबंध नहीं है।' यह कहना सरल है । आचरण में उतरे तब सफल कहलाता है। मेवाड़ादि अनेक स्थानों में मंदिरमार्गी के घर न्यून है - नहीं
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हैं - वहाँ पर स्थानकवासी तेरापंथी खुद सेवा-भक्ति नहीं करते और हक
अधिकार भी नहीं छोड़ते हैं उसके लिये कोर्ट में भी जाते हैं, यह क्या बता रहा है, ज्ञानसुंदरजीने कहा जो बराबर ही है । यहाँ कहने का आशय यही हैं कि सम्राट सम्प्रति महाराजा कुमारपाल, धरणाशाह पोरवाल, इत्यादि पूर्वजों ने जो प्रभु भक्ति निमित्त सुंदरतम जिनमंदिर बनाए, उनसे स्थानकमागियों को वंचित रहना पड़ा है।
(४) मूर्ति नहीं मानने से ३२ सूत्रों के सिवाय अन्यसूत्र-ग्रंथों से दूर भटकने लगे । यह बात भी बराबर ही है। पूर्व में उनकी प्रामाणिकता सिद्ध की ही है । डोशीजी जो उनके लिये कहते हैं - वीतराग वचन पर दूषण लगाने वाले मतमोह में सने हुए इसलिये प्रामाणिक नहीं हैं। वह डोशीजी को मतमोह की आभिनिवेशिकता बुलवा रही है। उन ग्रंथों में से चरित्रादि अन्य भी सभी वस्तुएँ लेनी परन्तु मूर्ति-मंदिर की बात को उड़ा देना यह कदाग्रह ही है । सम्प्रदाय के रुप में स्थानकवासियों के उद्भव होने से उन्हें अपनी नई परम्परा का सृजन करना पड़ा तथा पूर्व परम्परा के अति विद्वान्, महामनीषी संयम विभूति आचार्यों को नकारना पड़ा। व्याकरण, प्रतिष्ठा आदि अनेक सुन्दर विषयों के ग्रंथों से भी वंचित रहना पड़ा । यही है शासन द्रोह का परिणाम !!
टीका-निर्युक्त्यादि का खुलासा पूर्व-प्रकरणों में किया है। लोकप्रकाश में मदिरा को पान शब्द में गिनाया तो वह उचित ही है। अशनादि ४ में भक्ष्य-अभक्ष्य तो होते ही है । वह विवेक तो करना ही पड़ता हैं । इसलिये मदिरादि पान में आनेपर भी अभक्ष्य है। जैसे मांसादि अशन में गिनने पर भी अभक्ष्य होते हैं । ऐसा नही मानो तो मदिरादि को ४ में से किस भेद में मानोगे ? बताईये । व्याख्या विपरीत नही । आपकी बुद्धि विपरीत है !
चरित्रग्रंथो की रचना खुद की बुद्धि से काल्पनिक रीति से करने का उपदेश डोशीजी दे रहे हैं। वाचक इनकी स्वछंद बुद्धि के प्रदर्शन को देखें। बिना किसी प्रमाण के चरित्ररचना-उपन्यास जैसी बनेगी, जनोपकारी कैसे हो सकती हैं । लोग तो पूर्व में यह घटित घटना है, इसलिये अपने भी ऐसे आदर्श
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा को लेकर जीवन में ऐसे गुण ला सके, इसी भावना से जीवन सुधारते हैं । रामायण, महाभारत की कथाएँ प्रत्येक घर-घर में चलती है। हिंदुओं में उसे सत्य ही समझते है। जो असर सत्य घटना की होती है। वह काल्पनिक की नहीं होती । पूर्व-भवभीरू-महर्षिओने परंपरा से आती घटनाएं, उसमें बहुत सारी प्रथमानुयोग (दृष्टिवाद) की परंपरा से आती हुई ली हैं । जो काल्पनिक हैं, वहाँ उन्होंने वैसा बताया ही है।
जैन रामायण २००० साल पूर्व रचित 'पउमचरियं' ग्रंथ में है। विमलसूरि जिसके कर्ता हैं । वह काल पूर्वधरों का था, वज्रस्वामी १०पूर्वी उस काल में थे। तो वह जैनेत्तर रामायण के ऊपर से बनी कैसे हो सकता है ? किसी भी ग्रंथ को अप्रामाणिक बनाने के लिये मनगढंत कल्पनाएँ करना सज्जनों को शोभा नहीं देता है ।.
मूर्ति नहीं मानने से अनेक ग्रंथों की चोरी करनी-उनमें से पाठ निकालके बदल देने, यह पद्धति स्थानकवासी वर्ग में पूर्व से चली आती हैं, आज भी चालू है, मानो उसमें कोई दोष ही नहीं ऐसा ही वे लोग मानते हैं । जिनके उदाहरण पीछे प्रकरणों में हमने बता दिये हैं, स्थानकवासी संतो ने भी व्यथा व्यक्त की है वह भी पीछे बता दिया है। विशेष जानकारी के लिए देखिये
"उन्मार्ग छोडिए सन्मार्ग भजिए" पुस्तिका
अंत में आप खुद ही लिखते हैं "वास्तव में मूर्तिपूजा करने व न करने का इतना झगडा नहीं है जितना स्वार्थ अभिमान या पक्ष मोह का झगडा है ।" फिर आगे मंदिर-मूर्ति को झगडे का कारण मानते है । यह उनकी कलुषित भावना का ही फल हैं । पीछे प्रकरणों में इनके जवाब भी दे दिये हैं।
मूर्ति नहीं मानने के कारण संघ मे न्याति जाति कुसंप की ज्ञानसुंदरजी की बात भी योग्य ही है। घर-घर में मूर्तिपूजक मान्यता-मूर्तिविरूद्ध मान्यता
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• जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दोनों का विरोध होने से कुसंप चालू हुआ वैसे ही न्याति-संघ में भी कुसंप चालू हुआ। स्थानकवासी पंथ नही निकला था तब तक इस कारण से झगड़े नही होते थे । ___डोशीजी ने अपनी पुस्तक में प्रायः असत्य पक्षपात और निंदकपने से ही काम लिया है । तटस्थता से नहीं । सत्य के पीछे तो मानो बुरी तरह से लठ्ठ लेकर ही पड़े है और कल्पना तरंग में ही गोते लगाते गये, वह भी पक्ष मोह में मस्त होकर, फिर वहाँ सत्य के लिये अवकाश हीं कहाँ रहता
है!
"जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा' नामक पुस्तक को पूर्ण करते हुए पाठकों से अनुरोध करते है कि वे निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें । पुस्तक के प्रमाणों को देखें, युक्तियों को परखें । यदि पाठकों ने इस निवेदन पर ध्यान दिया तो यह स्पष्ट ज्ञान होगा कि डोशीजी के ग्रंथ की असत्यता तथा मूर्तिपूजा के सिद्धांत की उपादेयता सहज ही बुद्धिगम्य ,है । ___अंत में इस पुस्तक में कुछ भी जिनाज्ञा-विरूद्ध लिखा हो उसके लिए मिच्छामि दुक्कड़म् । ख्याल रखते हुए भी महापुरूषों के प्रति डोशीजी के अभद्र शब्दप्रयोगों को देखकर इस पुस्तक में क्वचित कठोर शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। उसके लिए और इस पुस्तक के प्रकाशन से किसी को दुःख हुआ उसके लिये मिच्छामि दुक्कडम् ।
निष्कर्ष इस किताब को लिखने का सारांश-रहस्यांश-निष्कर्ष यह है कि
(१) जिनेश्वर देव की तरह जिनेश्वर की मूर्ति-प्रतिमा की भी पूजासेवा-भक्ति भी जिनेश्वर की ही सेवा-भक्ति है, सम्यग्दर्शन की पोषक है। इसलिए जिनेश्वर की मूर्ति का प्रतिदिन वंदन-पूजन-अर्चन करना चाहिए ।
(२) जैनागमों से मूर्तिपूजा की सिद्धि होती है । (३) नियुक्ति-चूर्णि-टीका-भाष्य भी सभी जैनियों के लिए आगमशास्त्रों
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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की तरह मान्य होना चाहिए क्योंकि ये सभी प्राचीन पंचमहाव्रतधारी परमसत्यवादी पूर्वाचार्यों ने लिखे हैं ।
(४) जैनधर्म में उदयगिरि- खंडगिरि की गुफा, मोहनजोदड़ो के अवशेष, कंकाली टीला से प्राप्त जिनमूर्तियों से भी मूर्तिपूजा का समर्थन मिलता है । इसके अलावा भी खुदाई से अनेकानेक प्रतिमाएँ प्राप्त हुई है एवं हो रही हैं जो हज़ारों वर्ष प्राचीन हैं, ऐसा वैज्ञानिक परीक्षणों में सिद्ध हैं, जो मूर्तिपूजा की अनादि परम्परा का बोध कराती है ।
(५) जिस प्रकार स्थानकवासी संत अपने उपकारी गुरुओं के समाधिमंदिर, पगल्या की स्थापना आदि करते हैं, इसी प्रकार स्थानकवासी संतों को परम उपकारी तीर्थंकरों के भी जिनालय, समाधिमंदिर, पगल्या आदि की स्थापना करनी चाहिए ।
(६) स्थानकवासी संतो को मूर्तिपूजा में हिंसा दिखती है तो आलूप्याज- मूली- गाजर-लहसून आदि कंदमूल भी अनंतकाय जीवों की हिंसा के कारण नहीं खाने चाहिए ।
(७) चंपानगरी आदि में लाखों जैनधर्मियों के रहने पर भी वहाँ जिनमंदिर न मानना और यक्ष के मंदिर को मानना यह भी मिथ्यात्व की उलटी चाल है । प्रतिमा पूजन श्रावक का एक आगमिक सुकृत्य है 1
(८) "इन्द्र तथा महर्द्धिक वैमानिकदेव देवलोक में शाश्वत जिनप्रतिमा की पूजा नहीं करते थे, अथवा द्रौपदी ने भी जिनप्रतिमा नहीं, पर कामदेव की पूजा कि थी" ऐसा मानना महामिथ्यात्व है। क्या स्थानकमार्गियों को जिनेश्वर पर प्रेम-भक्ति नहीं है और कामदेव पर स्नेहभक्ति है ? कि - जिनेश्वरदेव की मूर्ति का इन्कार करते हो और कामदेव की मूर्ति का स्वीकार करते हो ?
-
(९) जिनमंदिर और जिनमूर्ति को नहीं मानकर - स्थानकपंथी लोग सांईबाबा, गणपति, जलाराम, रामदेवपीर, सुरधन, अंबा - भवानी आदि मिथ्यात्व को मानने लगे हैं, इसे बंद करना चाहिए ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (१०) शत्रुजय, गिरनारजी, सम्मेतशिखर, पावापुरी, आबूजी, राणकपुरजी शंखेश्वरजी, तारंगाजी आदि भव्य तीर्थों की यात्रा को छोडकर स्थानकवासी लोग शिरडी, वैष्णोदेवी, केदारनाथ आदि में भटकते हैं, इसे बंद करना चाहिए ।
(११) स्थानकवासी संतो ने मूर्तिपूजा न मानने के लिए • आगमों को अमान्य किया, • सूत्रों को उड़ाया। • सूत्रों के पाठ बदल दिये। • सूत्रों के अर्थ उससे असंगत किए । • इतिहास को विकृत किया । • पूर्वाचार्यों को अमान्य किया ।
और मोक्षमार्ग के बजाए उन्मार्ग की ओर कहीं भटक गये ।
(१२) "जैनागमों में मूर्तिपूजा कहीं नहीं है" ऐसे अपने मनमाने अभिप्राय को सिद्ध करने के लिए - इतनी सारी गडबडी करनी पडती है, इससे ही यह सिद्ध होता है कि - स्थानकवासियों की मान्यता बिलकुल असत्य है । स्थानकवासियों का ऐसा अभिप्राय सच्चा नहीं है ।
(१३) आप्त-मान्य-पूजनीय पुरूष के रूप में
श्री भद्रबाहुस्वामी, श्री उमास्वाति महाराज, श्री हरिभद्रसूरि म, श्रीसिद्धसेनसूरि, श्री मानतुंगसूरि म., श्री अभयदेवसूरि म. श्री मलयगिरि म., श्री शांतिसूरिजी आदि धुरंधर संयमी, अगाध ज्ञानियों को छोडकर अन्यधर्मी से भावित, असंयमी लोकाशाह को धर्मप्राण मानना, अपना मत प्रवर्तक मानना यह भी स्थानकवासियों का महान् अज्ञान है, इसे छोडना चाहिए । इति. __ इस पूरे लेखन में मुझसे जिनाज्ञा-जिनागमों के विरूद्ध कुछ भी लिखा गया हों तो तीन योग-तीन करण से क्षमा चाहता हूँ।
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२०१
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
और जिनमंदिर व जिनमूर्तिपूजा श्री जैनागम सम्मत है - इस सिद्धांत की स्थापना करते- यदि किसी के विषय में कटुशब्द लिखा हो या किसी की भावना को ठेस पहुँचायी हो तो इसका मिच्छामि दुक्कडं
सुज्ञैः मयि उपकृत्य शोध्यम् जैनं शासनं जयतु ।
पिचकता
सगीत कता
Tin
सम्पत्ति
SAID00
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (४०) सत्रों में जिन प्रतिमा का अधिकार ०१ श्री आचारांग सूत्र की नियुक्ति में उल्लेख है कि
अष्टापद, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा से समकित निर्मल होता है एवं आत्मा का विकास होता है । श्रीसूत्रकृतांग सूत्र में आर्दकुमार द्वारा जिन प्रतिमा पूजी जाने का वर्णन
है। ०३ श्री स्थानांग सूत्र में ऋषभ, वर्धमान, चन्द्रानन, वारिषेण इन चार शाश्वत
प्रतिमाओं का उल्लेख है।
श्री समवायांग सूत्र में ५२ जिनालय मंदिर का उल्लेख है। ०५ श्री भगवती सूत्र में पाठ है कि रूचक द्वीप एवं नंदीश्वर द्वीप आदि की
यात्रा करते हुए जंघाचारण, विद्याचारण मुनि जिन प्रतिमाओं को वंदन करते हैं। श्री ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में द्रौपदी द्वारा जिनप्रतिमा पूजा का विस्तार से वर्णन है। श्री उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक के अभिग्रह का वर्णन है जिसमें वह अभिग्रह लेता है कि अन्यतीर्थियों द्वारा ग्रहित जिन प्रतिमाओं को वह वंदना नहीं करेगा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि अपने संघ द्वारा संचालित विधि चैत्यों की वंदना करेगा । श्री अनुत्तररोपपातिक दशांग सूत्र में नगर के वर्णन में जिन मंदिर का
उल्लेख है। ०९ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र में मुनिराज द्वारा जिन मंदिर की आशातना को
दूर करने का पाठ है। १०. श्री औपपातिक सूत्र में अंबड संन्यासी द्वारा जिन प्रतिमा को वंदन करने
का उल्लेख है। ११. श्री राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभ देव द्वारा जिनप्रतिमा पूजा करने का उल्लेख
उपलब्ध होता है। १२. श्री जीवाभिगम सूत्र में विजय देव द्वारा जिन प्रतिमा की पूजा करने
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२०३ का वर्णन है। १३. श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में देवों द्वारा परमात्मा की दाढा को सुरक्षित रख
कर पूजने का उल्लेख है ।
श्री प्रज्ञापना सूत्र में स्थापना सत्य का वर्णन है। १५. श्री सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य विमान में जिन प्रतिमा बताई गई है। १६. श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र विमान में जिन प्रतिमा बताई गई है । १७. श्री उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में प्रभावती रानी द्वारा जिन प्रतिमा पूजी
जाने का उल्लेख है। १८. श्री अनुयोगद्वार सूत्र में चार निक्षेपों का वर्णन है । १९. श्री व्यवहार सूत्र में जिन प्रतिमा के सम्मुख आलोचना लेने का पाठ
है।
२०. श्री आवश्यक सूत्र में 'अरिहंत चेइयाणि' एवं 'महिया' आदि पाठ द्वारा
जिन मंदिर व प्रतिमा पूजा का उल्लेख है । इन सूत्रों के अलावा आगम, टीका, भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि, टब्बा एवं प्रकरण आदि में जिन प्रतिमा वंदन पूजन का स्पष्ट अधिकार उपलब्ध होता है।
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(४१) आगमिक एवं मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में द्रव्यपूजा एवं भावपूजा का समन्वयः
विज्ञप्ति नामक तेरापंथी साप्ताहिक मुख्य पत्र के वर्ष १८, अंक ४६ (२३ फरवरी २०१३ ) में आचार्य श्री महाश्रमणजी का भावपूजा पर पावन संबोध दिया गया था । तेरापंथी आचार्य द्वारा जाहिर में मूर्तिपूजा के विषय में अपने विचार विस्तार से प्रगट किये गये हो ऐसा पहली बार देखने में आया । अपने संबोधन में उन्होंने परम्परागत और अपनी व्यक्तिगत अमूर्तिपूजा की मान्यता का दृढता से प्रतिपादन किया और साथ में मूर्तिपूजा के तर्कों एवं आचारों को जानने का प्रयास करने पर भार भी दिया है ।
उनकी उदारता को ध्यान में लेकर के कुछ विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनसे मूर्तिपूजा को सही रूप में समझा जा सकेगा ।
जैन धर्म ने इस दुनियां को स्वाद्वाद दृष्टि की एक अद्भुत भेंट दी है । स्याद्वाद वस्तु को अपेक्षा दृष्टि से देखना सीखाता है। जैसे कि एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र और भाई भी हो सकता है पर अलग-अलग अपेक्षा से । जिनशासन का हार्द उस अपेक्षा को समझने में है वस्तु किस अपेक्षा से बताई गई है ।
इसी संदर्भ में श्री आचारांग सूत्र का सूत्र याद आता है। "जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा''
अर्थात् एक ही क्रिया से कर्मबंध या निर्जरा भी हो सकती है पर अपेक्षा से । इसके हार्द में पहुंचेंगे तो पता चलेगा कि बाह्य क्रिया कुछ भी हो, मन के परिणाम के अनुसार वह आश्रव या संवर रूप बनेगी । अत: जैन धर्म में मन का महत्व अत्यधिक बताया गया है और मन की भूमिका को लेकर ही विविध अनुष्ठान भी बताये गये है ।
मानव मन की एक विशेषता है वह चित्रमय जगत् से अत्यंत जुड़ा हुआ है । बालक झुले में होता है, तब भी उसके मनोजगत् पर झूले पर लटकाये
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२०५ हुए खिलौनों का साम्राज्य होता है। थोड़ा बड़ा होता है तो खिलौने, वीडियो गेम्स, टी.वी. कार्टून आदि उसके मन को प्रभावित करते है । युवानी में सिनेमा आदि की अत्यधिक असर होती है जो उसे गुमराह भी करती है। अत: ऐसे आलम्बन की जरूरत है जो हमेशा उसे सच्चे राह पर चलने की प्रेरणा करे । व्यक्ति अपने प्रियजन के विरह में उसका चित्र आदि अपने पास रखकर उसके वियोग के दुःख को कुछ कम करता है, वह चित्र भी उसे प्रियजन की तरह अत्यंत प्रिय होता है । यह मानव मन का सहज स्वभाव है ।
स्वामी विवेकानन्दजी के प्रसंग से भी इसी बात की पुष्टि होती हैं । "स्वामी विवेकानन्दजी का अलवरके राजा के साथ मूर्तिपूजा के विषय में वार्तालाप हुआ । राजा को मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं था और वह अपनी मान्यता में दृढ था । स्वामी जी ने राजा के पिता की तस्वीर का अपमान किया तो वह क्रोधित हो गया । तब स्वामी ने समझाया वस्तु जड़ हो फिर
भी मानव मन का स्वभाव है कि वह स्थापना रूप चित्र या मूर्ति में आस्था रखता ही हैं । इसलिए तो राष्ट्रध्वज जड़ है फिर भी प्रत्येक राष्ट्रभक्त की आस्था उसके साथ जुड़ी हुई है, उसका अपमान करना तो कानूनी अपराध भी माना गया है ।"
श्री दशवैकालिक सूर्य की गाथा "चित्तभित्तिं न निज्झाए' भी यह सूचित करती है कि स्त्री आदि के चित्रों को साधु न देखें । क्योंकि उन चित्रों से राग के संस्कार प्रगट हो सकते हैं ।
चित्रजगत् से मानव मन पर होने वाली असर को देखने के बाद हम देखते है कि धार्मिक जगत में इसका क्या योगदान है। जैसे प्रिय व्यक्ति के विरह में व्यक्ति उसका चित्र आदि रखता है, उसी तरह तीर्थंकरों के विरह में अपनी कृतज्ञता एवं भक्ति प्रदर्शित करने के लिए आलम्बन जिनप्रतिमा है । भक्त अपनी भक्ति के भावों को जिनप्रतिमा के आगे प्रगट करता है
और साक्षात् तीर्थंकर की भक्ति का फल प्राप्त करता है । यह बात निराधार नहीं परंतु योगग्रंथो के सर्जक, सूरिपुरंदर, १४४४ ग्रंथों के रचयिता एवं अपनी
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माध्यस्थ दृष्टि के लिए आधुनिक विद्वानों में भी अत्यंत लोकप्रिय ऐसे हरिभद्रसूरि जी ने अपने संबोध प्रकरण में कहा है कि :
" तम्हा जिणसारिच्छा जिणपडिमा सुद्धजोयकारणया तब्भत्तीए लब्भइ जिणिंदपूयाफलं भव्वो" ।। (१८) अर्थात् मनवचनकाय के योगों की शुद्धि का कारण होने से जिन प्रतिमा साक्षात् जिन जैसी है और उसकी भक्ति से भव्य जीव जिनेन्द्र की पूजा का फल प्राप्त करता है । क्योंकि आकृति की असर मन पर होती है और मन ही कर्मबंध आदि में मुख्य कारण है ।
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आचार्यश्रीने संबोध में कहा कि
" जैसे अहिंसा को समझने के लिए हिंसा समझनी जरूरी हैं, उसी तरह भावपूजा के पहले द्रव्यपूजा समझनी जरूरी है ।" ऐसा कहकर के द्रव्यपूजा को भावपूजा का प्रतिपक्ष बताया है । परंतु हकीकत यह है कि द्रव्यपूजा भावपूजा का प्रतिपक्ष नहीं है, किन्तु उपष्टंभक है । जैसे बाह्य तप अभ्यंतर तप का पूरक होता है, उसी तरह द्रव्यपूजाभावपूजा की पूरक है परंतु प्रतिपक्ष नहीं है ।
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द्रव्यों की दुनियां में जीने वाले और द्रव्य के द्वारा जिनके भावों पर अत्यधिक असर होती हैं ऐसे गृहस्थ जो द्रव्य का संचय करते है, उनके द्रव्य की मूर्च्छा त्याग करवाने में कारण होने से एवं भक्ति के भावों में विशेष वृद्धि का कारण होने से द्रव्यपूजा श्रावक की भूमिका तक विशेष आदरणीय है ।
आचार्य श्री के संबोध के सार रूप निम्न बातें ध्यान में आयी जिन पर विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
१. द्रव्य निक्षेप पूजनीय नहीं जैसे गृहस्थावस्था में विमलनाथ भगवान अपूजनीय थे ।
२. प्रतिमा चेतना शून्य होने से पूजनीय नहीं है ।
३. द्रव्य पूजा में धूपदीप आदि का निषेध क्यों नहीं हैं ?
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १ "नामजिणा जिणनामा ठवणजिणा पुण जिणिदपडिमाओ
दव्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥" (१६)
इस श्लोक द्वारा आचार्य श्री ने द्रव्य विमलनाथ का अर्थ गृहस्थ अवस्था में रहे विमलनाथ किया और उन्हें अपूजनीय बताया है परंतु यह श्लोक जिस ग्रंथ का हैं उसके ठीक आगे का ही श्लोक यह है :
"जेसिं निक्खेवो खलु सच्चो भावेण तेसिं चउरो वि ।
दव्वाइया सुद्धा हुंति, ण सुद्धा असुद्धस्स ॥" (१७)
यह श्लोक १४४४ ग्रंथ के रचयिता सूरिपुरंदर हरिभद्रसूरि भगवंत रचित संबोध प्रकरण का है, जिसका अर्थ यह होता है कि जिसका भाव निक्षेप शुद्ध है, उसके द्रव्यादि चारों निक्षेप शुद्ध होतेहै यानि विमलनाथ भगवान का भाव पूज्य एवं पवित्र है तो उनका नाम, स्थापना, द्रव्य निक्षेप भी पूज्य एवं पवित्र होगा अर्थात् गृहस्थावस्था में भी विमलनाथ भगवान पूज्य होते
-- आचार्यश्रीने गृहस्थावस्था में विमलनाथ भगवान को अपूजनीय बताया
परंतु शायद उन्होंने जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के पाठ पर ध्यान नहीं दिया है ऐसा लगता है, क्योंकि जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के पंचम वक्षस्कार में बताया है कि ऋषभदेव भगवान का जन्म होने पर इन्द्र ने भक्ति भाव से शक्रस्तव द्वारा स्तवना की एवं मेरू पर्वत पर हजारों कलशों द्वारा जन्माभिषेक किया। उसके बाद भी विविध पूजाएं एवं स्तवना की । इससे तीर्थंकर के द्रव्य निक्षेप की पूजनीयता सिद्ध होती है। उसी तरह जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के द्वितीय वक्षस्कार में बताया कि आदिनाथ भगवान के निर्वाण पश्चात् इन्द्र महाराजा आदि उनके शरीर को प्रदक्षिणा करते है तथा क्षीरोदक से स्नान, गोशीर्ष चन्दन से लेप,वस्त्र अलंकार आदि से विभूषित करते हैं एवं अग्नि संस्कार के पश्चात् शेष रही हुई दाढाएँ एवं अस्थियों को देव यथायोग्य लेकर उनकी अर्चना आदि करते है। इस प्रकार आगम से हम जान सकेंगे कि चैतन्य शून्य शरीर एवं अस्थियां भी पूजनीय होती है ।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा वर्तमान में भी मूर्तिपूजक हो या अमूर्तिपूजक, किसी भी संप्रदाय के आचार्य के देवलोक होने पर भक्तों की भीड़ उनकी अंतिम यात्रा में आ जाती है एवं उनके अंतिम दर्शन के लिए लालायित होती है। हालांकि वहां तो केवल मृत शरीर है फिर भी उसका बहुमान आदि सभी करते है । अगर देवलोक होने वाले आचार्य बहुत बड़े हो तो उनकी अंतिम यात्रा में तो हजारों लोग देश के कोने-कोने से आते है एवं उनकी खानेपीने की व्यवस्था भी स्थानिक लोग करते हैं। उसमें स्थावर काय की एवं अयतना के कारण त्रस जीवों की भी बहुत हिंसा होती है, लेकिन वह गौण मानी जाती है। राजकीय स्तर के पदाधिकारी भी आकर के पुष्पांजलि अर्पित करके शरीर की अर्चना करते है एवं भक्तजन उसे देखकर अपने गुरू का बहुमान हो रहा है, ऐसा महसूस करते है । यह कोई गलत बात भी नहीं क्योंकि ये मानव मन का स्वभाव है कि नाम, स्थापना एवं द्रव्य द्वारा भाव के साथ जुड़ जाता है । वस्तु जड़ होते हुए भी पूज्य के संबंधित होने पर पूज्य बनती है। इसी तरह जिन प्रतिमा को चेतना शून्य होने से अपूजनीय मानने की बात भी नही रहती है। आचार्य श्री ने पत्थर की गाय का. उदाहरण देकर मूर्तिपूजा से कल्याण होने का निषेध किया । उदाहरण में गाय की मूर्ति से बालक ने दूध की अपेक्षा की । परंतु गाय की मूर्ति कभी दूध के लिए बनाई नही जाती हैं । चित्र एवं मूर्ति का संबंध मन से हैं, वे मन के परिणामों को ध्यान में लेकर ही बनाये जाते है । घर में गुरू आदि की तस्वीरें भी बातें करने या उपदेश सुनने के लिए नहीं रखी जाती परंतु वे स्मरण आदि के द्वारा उच्च आदर्श देती है। यह तो सर्वविदित ही है। टी.वी. आदि के दृश्य भी जड़ होते हुए भी मन के परिणामों पर भारी असर करते है। इसी तरह भगवान की मूर्ति के दर्शन एवं पूजन से मन में श्रद्धा-समर्पण आदि के शुभ भाव उत्पन्न होते है। जिनसे सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि होती है। वह आत्म कल्याण में अत्यंत सहायक है। अतः भगवान की
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मूति से आत्म कल्याण होता है । यह समझ सकते है। क्योंकि आत्म कल्याण मुख्यतया मन के परिणामों पर निर्भर है। अतः पत्थर की गाय के दृष्टांत से गलत धारणा कर लेना उचित नहीं है। विशेष में रायप्पसेणीय सूत्र में सूर्याभदेव द्वारा की गयी जिनप्रतिमा की पूजा आदि का वर्णन आता है। उसकी पूजा को कल्याणकारी भी बताया गया है। इस तरह आगम से भी जिनप्रतिमा की पूजनीयता स्पष्ट होती
द्रव्य लेश्याओं की असर भाव लेश्याओं पर पड़ती है और द्रव्य लेश्या पुद्गल रूप है। भगवान की मूर्ति शांत रसमय परमाणुओं से बनी होने से उसके आभा मण्डल में भी शांतरस के परमाणु होते है। अत: उसकी निश्रा में जाकर व्यक्ति की लेश्या शुभ हो जाती है। यह मूर्ति का स्वभाव
है कि वह शुभ लेश्या उत्पन्न करने में परमनिमित कारण बनती है । ३. आचार्यश्री का प्रश्न था कि द्रव्य पूजा में धूप दीप आदि का निषेध
क्यों नहीं ? पहले हमें देखना है कि आगमों में भी देवों द्वारा जिन जन्म आदि अनेक प्रसंगों पर तीर्थंकरों के अभिषेक आदि किये जाते है एवं प्रसंग पर शाश्वत प्रतिमाओं की पूजा भी की जाती है। उन सब में भी हिंसा होती है। स्वयं करूणासागर तीर्थंकर उसका निषेध क्यों नहीं करते ? ' सम्यग् दृष्टि देव ऐसा क्यों करते हैं ?
इनके उत्तर के लिए हमें पहले थोड़ी बात समझनी पड़ता है कि- पंच महाव्रत धारी, षट्काय रक्षक साधु भगवंत सर्व पापों से विरत है
एवं उन्होंने सर्व द्रव्यों का त्याग कर दिया है और उन्हें द्रव्य की मूर्छा भी नहीं होती है। अत: उन्हें द्रव्य पूजा की भी आवश्यकता नहीं है। श्रमण जीवन निवृत्ति प्रधान होता है। श्रावक जीवन प्रवृत्ति प्रधान होता है। श्रावक का मन निवृत्ति के लिए इतना परिपक्व नहीं होता है, जबकि मन का प्रवृत्ति मार्ग में अनादि काल से अभ्यास है, इसलिए वह बहुधा अशुभ प्रवृत्तिओं में जुड़ जाता है । उन अशुभ प्रवृत्तिओं के रस को तोड़ने के लिए शुभ प्रवृत्तियों की जाती हैं, जैसे वाहन द्वारा चातुर्मास
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा आदि में गुरू भगवंतों को वंदन के लिए जाना, पुस्तकें छपवाना, साधर्मिक भक्ति करना, शिविरों का आयोजन करना, जीवदया के लिए गाय को घास देना, कबूतर को चुग्गा देना, गौशाला चलाना, आराधना के लिए स्थानक, भवन आदि का निर्माण करना इत्यादि । इन सभी में अध्यवसाय शुभ होते है परंतु साथ में आनुषंगिक रूप से त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा भी होती है, फिर भी इन प्रवृत्तियों का निषेध नहीं किया जाता है, क्योंकि किसी प्रवृत्ति में हिंसा का आनुषंगिक रूप से होने मात्र से उस प्रवृत्ति का निषेध नहीं किया जाता, व्यक्ति की भूमिका के अनुसार प्रवृत्ति हेय अथवा उपादेय बनती है। श्रावक की भूमिका में ये प्रवृत्तियां बाधक नहीं होती है। उसी तरह से द्रव्यों की मूर्छा का त्याग एवं भक्ति के भावों की विशेष वृद्धि का कारण होने से अविरति की भूमिका में श्रावक के लिए द्रव्य पूजा का निषेध नहीं हैं । अगर श्रावक सामायिकपौषध में हैं तो उसके लिए वाहन द्वारा गुरूवंदन के लिए जाना, घास डालना आदि एवं द्रव्यपूजा का भी निषेध है, क्योंकि उसकी भूमिका बदल गई हैं। इसलिए एकांत नहीं है परंतु द्रव्य पूजा भूमिकानुसार की जाने वाली भक्ति रूप है । यह समझने पर ही हम आगमों में आते जन्माभिषेक आदि अनेक प्रसंगों पर सम्यग्दृष्टि देवों आदि की भक्ति को समझ सकेंगे, और उस भक्ति में स्थूल हिंसा व अबाधकता भी जान सकेंगे। यह समझने पर ही जैन दर्शन के अनेकांतवाद को सही रूप से समझ सकेंगे । सार रूप इतना ही समझना है कि मन के आधार के कर्मबंध आदि है और उसको लक्ष्य में लेकर अगर जिनशासन के हर अनुष्ठानों को समझने की कोशिश करेंगे तो उन्हें सही न्याय दे सकेंगे ।
ध्यान रहे कि द्रव्य पूजा अपने पूज्य के बहुमान दिखाने का एक तरीका है । जैसे घर में जमाई आता है तो उसके प्रति बहुमान को बताने के लिए उसकी उत्कृष्ट द्रव्यों से भक्ति, शक्ति अनुसार की जाती है। उसी तरह श्रावक उत्कृष्ट द्रव्यों से भक्ति करके अपनी प्रीति प्रदर्शित करता है ।
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२११ अंत में आचार्य श्री ने बताया कि "अपने आराध्य की पूजा के लिए स्मृति की जाती है......स्मृति करने के दो साधन होते हैं - नाम और रूप.......म-हा-वी-र शब्द में तो कोई गुण नहीं है, वह तो केवल चार अक्षर का अचेतन नाम है, पर महावीर का नाम मस्तिष्क में आते ही उनकी स्मृति हो जाती है.....जैसे नाम के द्वारा स्मृति होती है, वैसे ही रूप के द्वारा भी स्मृति हो जाती है । आकार-प्रकार को देखने से ज्यादा सरल तरीके से प्रभु की स्मृति हो सकती है" इस प्रकार आचार्य श्री नाम को भी मूर्ति की तरह जड़ मानते है और मूर्ति को नाम से भी स्मृति का विशेष साधन मानते है, परंतु उपसंहार में कहा कि - "मेरा मानना है, कोई व्यक्ति प्रतिमा की पूजा भले ही न करे, तन्मयता से नाम स्मरण के द्वारा प्रभु की भक्ति करें तो कल्याण निश्चित है ।" इस प्रकार केवल नाम को ही महत्व देते
नाम और रूप से बात चालु की और उपसंहार में केवल नाम-स्मरण की प्रेरणा की । इसमें रूप की शक्ति नाम से उचित न्याय मानते हुए भी प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि नाम भी जड़ है तो भी नाम स्मरण की प्रेरणा की जाती है, उसी प्रकार कम से कम प्रभु दर्शन की प्रेरणा भी की जा सकती ही है। __अंत में सभी से अनुरोध है कि इस लेख को तटस्थता से पढ़कर स्याद्वाद दृष्टि, मनोवैज्ञानिक दृष्टि, आगमिक दृष्टि एवं तर्क दृष्टि से द्रव्यपूजा एवं भावपूजा का समन्वय समझकर मूर्तिपूजा को सही रूप से समझने का प्रयास करें । जिनाज्ञा के विरूद्ध कुछ लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्
-भूषण शाह
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
| (४२) मूर्तिपूजानुं महत्त्व |
प्रश्न : साक्षात् भगवान तो मोक्षमा छे. भगवाननी मूर्ति तो पथ्थर रुप छे. आथी भगवाननी मूर्तिनी पूजाथी शो लाभ ?
उत्तर : आना समाधान माटे पहेला आपणे ए विचार जोईए के साक्षात् भगवाननी पूजा शा माटे करवानी छ ? साक्षात् भगवाननी पूजा शा माटे करवानी छे ए समजाई जाय तो भगवाननी मूर्तिनी पूजाथी शुं लाभ ए प्रश्न ज न रहे.
(१) भगवाननी पूजामां एक हेतु छे के भगवान उपकारी होवाथी तेमना प्रत्ये कृतज्ञता प्रदर्शित करवी जोईए अने बहुमानभाव व्यक्त करवो जोईए. तो जेम साक्षात् भगवाननी पूजाथी कृतज्ञता प्रदर्शित थाय छे अने बहुमान व्यक्त थाय छे, तेम भगवाननी मूर्तिनी पण पूजाथी कृतज्ञता प्रदर्शित थाय छे अने बहुमान व्यक्त थाय छे. जेम माणसना पेटमां खोराक जाय अने पाचन थईने तेनुं लोही थाय ए माटे मुख द्वारा पेटमा खोराक नाखे छे. पण केन्सरनां दर्दीनुं गळं बंध थाय छे तो पेटमां काणुं पाडीने ए काणा द्वारा पेटमा खोराक नाखीने पण ए कार्य सिद्ध कराय छे. जेने विटामिनवाळो खोराक मळतो नथी, ते विटामिननी टीकडीओ वापरीने पण विटामिनोनी पूरती करीने शक्ति मेळवी शके छे. तेवी रीते साक्षात् भगवान न होय त्यारे भगवाननी मूर्तिनी पूजाथी पण कृतज्ञता प्रदर्शित करी शकाय छे, अने बहुमान भाव व्यक्त करी शकाय
आथी ज देशनेता वगेरेना फोटाओ उपर लोको फुलमाळा वगेरे पहेरावे छे. स्वर्गस्थ माता-पिता वगेरेनी मृत्युतिथिए माता-पिता वगेरेना फोटाओ उपर फूलमाळा पहेरावीने धूप वगेरे करे छे. छापामां फोटो छापीने श्रद्धांजलि आपे छे. वडाप्रधान राजीवगांधी तेमनी माताना मृत्युना दिवसे तेमनी समाधिना स्थाने फूलो मूकतां हतां.
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२१३ द्रोणाचार्य एकलव्यने धनुर्विद्या शिखवाडवानी ना पाडी तो एकलव्य द्रोणाचार्यनी मूर्ति बनावीने तेनी पूजा द्वारा गुरुउपर बहुमान व्यक्त करीने धनुर्विद्या शीखी गया. जे कार्य साक्षात् गुरुथी थाय ते ज कार्य तेणे गुरुनी मूर्तिथी सिद्ध करी लीधुं.
(२) भगवाननी पूजानो बीजो हेतु ए छे के भगवाननी ओळखाण थाय. जेम कोईना छोकरो गुम थाय तो छापामां तेनो फोटो आपे छे. पोलीसोने खबर आपीने पोलीसोने पण फोटाओ आपे छे. कारण के आनाथी बीजाओ तेने ओळखी शके. तेवी रीते सरकारनो गुनो करीने नाशता-भागताओने पकडवा सरकार छापाओमां तेमना फोटा आपीने लोकोने ए माणसो देखाय तो खबर आपवायूँ कहे छे. एटले जेम फोटाओ असल वस्तुने ओळखवानु साधन छे. तेम मूर्ति पण भगवानने ओळखवा--जाणवानुं साधन छे. भगवाननी मूर्ति द्वारा भगवाननी ओळखाण थाय छे.
___ (३) भगवाननी मूर्तिथी भगवान बनवानी प्रेरणा मळे छे. जेमने भगवानना स्वरुपर्नु सामान्य पण साचुं ज्ञान छे तेमने श्री जिनमूर्तिना दर्शनथी भगवान याद आव्या विना रहेता नथी. आथी मूर्ति भगवानने याद करवानुं एक आलंबन छे. भगवान याद आवे एटले एमना गुणो याद आवे. भगवाननी मूर्ति जोईने "सवि जीव करुं शासन रसी' ए भावना, विषयसुखो प्रत्ये अनासक्तभाव, उपसर्गोमां धीरता, वीतरागता, केवलज्ञान, धर्मतीर्थनी स्थापना, दररोज बे पहोर सुधी धर्मदेशना वगेरे गुणो याद आवे. मूर्तिने जोईने भगवानना गुणो याद आवतां मारे पण तेवा बनवू जोईए एम योग्य जीवोने विचार आवे. पछी तेवा केवी रीते बनीं शकाय ते जाणीने तेवा बनवा माटे शक्य प्रयत्न करे. ए प्रयत्नथी समय जतां ते पण खरेखर भगवान बनी जाय.
जेम अहीं सेंडोने पहेलवान पूतळाना दर्शनथी पहेलवान बनवानो विचार आव्यो अने प्रयत्न करीने ते पहेलवान बन्यो; तेम लघुकर्मी योग्य जीवोने भगवाननी मूर्तिनां दर्शनथी भगवान जेवा बनवानुं मन थाय छे. पछी भगवान जेवा केवी रीते बनी शकाय ते जाणीने अने शक्य प्रयत्न करीने भगवान जेवा बनी जाय छे. आथी आध्यात्मिक साधना माटे मूर्ति अनिवार्य छे.
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
(४) भगवाननी मूर्तिने जोतां भगवाननुं स्मरण थाय छे. भगवाननुं स्मरण थतां तेमनुं जीवन याद आवे छे. तेमनुं जीवन याद आवतां तेमना उपकारनी स्मृति थाय छे. लोको तेमना उपकारीनो के स्नेहीनो फोटो जुओ छे त्यारे तेमनो उपकार याद आवे छे ए आजे पण प्रत्यक्ष अनुभव थाय छे. घणीवार तो स्नेहीनो फोटो जोईने रडवुं आवी जाय इंदिरागांधी सर्व प्रथम प्रधान पदे निमाया त्यारे तेमना पितानी समाधिना स्थाने अने फूलो चढाव्या त्यारे तेमने रडवुं आवी गयुं हतुं. एकवार एक श्रावके पोतानी पत्निना फोटा बतावतां मने कह्युं के साहेब ! हुं जे धर्म पाम्यो छु ते आ मारा धर्मपत्नीनो प्रताप छे. आम बोलता तेनी आंखना झळझळियां आवी गयां.
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मूर्ति पण पूजनीय छे ए विषे भावनगरना राजकुमारनो प्रसंग जाणवा जेवो छे. ए राजकुमारनी उंमर सातवर्षनी हती त्यारे तेना पितानो स्वर्गवास थयो. आथी राजकुमारने, अन्य राजपरिवारने अने भगवानना राज्यने संभाळवानी जवाबदारी प्रभाशंकर पट्टणीना शिरे आवी., प्रभाशंकर पट्टणी भावनगरना राजाना अतिशय प्रीतिपात्र हता अने मुख्य सलाहकार हता. राजकुमारने विविध विषयोनुं संगीन शिक्षण मळे ए माटे प्रभाशंकर भाईए राजमहलमां भणाववा आववा माटे ते ते विषयना निष्णात शिक्षकोनी निमणुक करी. राजकुमार तेमनी पासे अभ्यास करवा लाग्यो. एकवार एक अंग्रेज शिक्षक मूर्तिपूजथी विरुद्ध वातो कुमारने कही रह्यो हतो. प्रभाशंकरभाईए आ जाण्युं. तेओ तुरत त्यां गया. मूर्तिपूजा सत्य छे ए वात राजकुमारना मगजमां ठसाववा राजकुमारने कह्युं : आपनी पाटीमां मारुं नाम लखो. राजकुमारे तेम कर्यु. पछी आप मारा मुरब्बी छो. प्रभाशंकरभाईए कह्युं : पण आप मारा उपर क्यां थुंकी रह्या छो ! मात्र पथ्थरनी पाटी उपर लखायेला सामान्य अक्षरो पर थुंकवानुं छे. अक्षर तो जड छे. राजकुमारे कह्युं : आ अक्षरो कांई सामान्य अक्षरो नथी. मारा पूजनीय नामना सूचक अक्षरो छे. आ अक्षरो उपर थूकवुं एटले आपना नाम उपर थूकवुं. पूजनीयना नाम उपर थूकवुं ए तो महापाप
गणाय.
कुमारना मगजमां मूर्तिपूजानी पूजनीयताने अधिक ठसाववा प्रभाशंकर भाईए
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२१५
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा फरी कुमारने कह्यु : सामे दिवाल उपर टींगाता महाराजा साहेबना फोटाने नीचे उतारी एना उपर बूटनो प्रहार करो. कुमारे का : अररर ! एवं ते करातुं हशे. प्रभाशंकर भाईए पूछ्युं : शा माटे न कराय? ए महाराजा पोते तो छ नहि. केनवासना कपडा उपर चीतरेखें सामान्य चित्र ज छे.
कुमारे का : हा, ए चित्र खरं. पण ते चित्र कोर्नु छ ? मारा पिताजीनुं छे. मारा पिताजीना चित्रने बूट मारवी ए मारा पिताजीने ज बुट मारवा बराबर छे. आथी हुं एने बूट न मारी शकुं. हवे प्रभाशंकरभाईए मूळ वात उपर आवतां कह्युः आQ ज मूर्तिपूजानुं छे. मूर्तिनी पूजा ए खरेखर तो मूळ व्यक्तिनी ज पूजा छे. एटले भगवाननी मूर्तिनी पूजा ए भगवाननी ज पूजा छे.
मूर्तिपूजा कोईए नवी उपजावेली नथी. अनादिकाळथी छे. ज्यारे भगवान साक्षात् विद्यमान होय छे त्यारे पण मूर्तिपूजा होय छे. कारण के भगवान साक्षात् होय त्यारे पण कोई एक ज क्षेत्रमा होय. एटले ते सिवायना क्षेत्रमा भक्तो भगवाननी मूर्ति बनावीने तेनी पूजा करता हता.
मूर्तिपूजानो विरोध करनार पण एकया बीजी रीते मूर्तिपूजा करे छे. ... (१) मुसलमानो मस्जिदमां पीरनी आकृतिने पुष्प-धूप वगेरेथी पूजे छे. ताजिया बनावी एनी सामे नृत्य वगेरे करे छे. मक्का-मदीना जईने त्यां रहेल एक गोळ काळा पथ्थरने चुंबन करीने पोतानां पापोनो नाश थयो एम माने छे.
(२) इसाइओ (क्रिश्चियनो) पण देवळमां ईशुनी शूळी उपर लटकती मूर्ति (क्रोस) राखे छे. ते मूर्तिने पूज्यभावथी जुए छे. तेनी समक्ष प्रार्थना करे छे. शिर उपरथी टोपी उतारी नमस्कार करे छे. पुष्पहार चढावे छे.
(३) कबीर, नानक, रामचरण आदि संतोना अनुयायीओए पोतपोताना पूज्योनी समाधि बनावी छे. ए समाधिनी पुष्पादिथी श्रद्धांजलि आपवा द्वारा पूजा करे छे. लोको दूर दूरथी ए समाधिनां दर्शन करवा आवे छे.
(४) पारसीओ पोताना इष्ट अग्निदेवनी पूजा करे छे, तेनी सामे वाजा
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा वगाडे छे, पुष्प, घी आदिथी होम करे छे. सूर्यने पण पूजे छे.
मूर्ति पण उपकारक प्रश्न : मूर्ति जड छे. आथी जेम माटीनी गायने दोहवाथी दूध न मळे तेम जड मूतिनी पूजाथी चेतनने कशो लाभ न थाय.
उत्तर : माटीनी गायने दोहवाथी दूध भले न मळे, पण तेने जोवाथी साची गायनी ओळख थाय छे. कोई जंगलीने गाय केवी होय तेनी खबर न होय तो माटीना आकारनी गाय बनावीने साची गायनी ओळख करावी शकाय छे. तेम जिनमूर्तिथी भाव अरिहंतनी ओळखाण थाय छे. आथी मूर्तिनां दर्शन-करवां जोईए.
प्रश्न : मूर्तिनां दर्शनथी भाव अरिहंतनी ओळखाण थाय छे. आथी तेनां दर्शन करवां जोईए. पण तेनी पूजा शा माटे ?
उत्तर : मूर्ति भावअरिहंतनी ओळखाण करावे छे, माटे उपकारक छे. मानी लो के तेमने महेनत करवा छतां नोकरी मळती नथी. एवामां कोई तमने जेने नोकरनी जरुर होय एवा शेठनी ओळखाण करावी आपे अने नोकरी मळी जाय तो शेठनी ओळखाण करावी आपनार उपकारी खरो के नहि ? खरो. बस तेम जिनप्रतिमा भाव जिननी ओळखाण करावी आपे छे माटे उपकारक छे. आथी तेनी पूजा पण करवी जोईए.
आम अनेक रीते भगवाननी मूर्तिपूजाथी लाभ ज छे. भगवाननी मूर्तिनी पूजा भगवाननी ज पूजा छे.
परमार्थथी तो मूर्तिनी पूजा ए भगवाननी ज पूजा छे. आ विषयने अकबर-बिरबलना एक प्रसंगथी विचारीए.
एकवार अकबर बादशाहे राजदरबारमां मोटी सभा भरी. ए सभामां जुदा जुदा देशना एकबीजाथी चढियाता पंडितो हता, कुशळ मंत्रीओ हता, सामंत राजाओ हता. मोटा मोटा शेठियाओ हता. राजाना सिंहासन पासे बिरबल बेठा हतां. आ वखते धर्मनी चर्चा नीकळतां अकबर बिरबलने पूछ्य : केम
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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बिरबलजी ! तमे पथ्थर पूजक छो ने ? बिरबल: हा, नामवर ! हुं पथ्थरपूजक छं. अकबर : शुं पथ्थर पूजवाथी खुदा प्रसन्न थाय ? बिरबल : हा. अकबर : पथ्थरमां क्यां खुदा होय छे, जेथी ते प्रसन्न थाय. बिरबल : नामवर ! चर्चाथी आ वात समजाववामां घणो समय जशे छतां कदाच आपना मगजमां आ
.
वात न पण बेसे. आथी अनुभवथी आ वात आपने पछी समजावीश. अकबर: सारुं, अनुभवथी समजावजे. आ प्रमाणे नक्की थया पछी बिरबले राज्यना महान कलाकार पासे अकबरना राज दरबारे जवाना रस्तामां एक ओटला उपर आ चित्रनी सामे धूप-दीप आदि तथा बादशाहनी स्तुति करजे. आ स्त्रीए दररोज ते प्रमाणे करवा मांड्य एक वखत राजानी दृष्टि तेना उपर पडी. अकबरे तेने पुछ्यु : अरे बाई ! तुं मारी पूजा अने स्तुति केम करे छे ? खुदानी करीश तो तुं मोतथी मुक्त बनीश. बाईए कह्युं : नामवर ! अन्य राजाओ करतां आप घणां सारां छो आथी आपने मळीने आपनी समक्ष आपनी स्तुति पूजा करवानुं मन थाय छे. पण हुं सामान्य नारी आपने शी रीते मळी शकुं ? आथी मारा भावने व्यक्त करवा आपनुं चित्र बनावीने तेनी भक्तिस्तुति करूं छं. अकबर : हुं तारा उपर खुश छं. आवती काले तने ईनाम आपीश. बीजा दिवसे समय थता सभा मळी. अकबर बिरबलने कह्युं : आजे एक युवतीने ईनाम आपवानुं छे. बिरबल केम ? अकबर : ए रोज मारी भक्ति - स्तुति करे छे. बिरबल : ए बाई आपनी भक्ति - स्तुति नथी करती किंतु कागळनी करे छे. शुं आप अने कागळ एक ज छो ? आ सांभळी अकबर विचारमां पडी गयो. जेम लोढुं गरम होय त्यारे टीपवाथी बरोबर घाट घडी शकाय, तेम पोप्तानी वातने ठसाववानो मोको जोईने बीरबले कह्युं : नामवर ! आप ते दिवसे राजदरबारमा पथ्थरपूजानो निषेध करी रह्या हता. ते ज पथ्थरपूजानो अत्यारे स्वीकार नथी करी रह्या ? हिंदुओना धर्मनी ए ज खूबी छे. सर्व धर्मक्रियाओमां मनना भाव ज मुख्य भाग भजवे छे. पथ्थर आदिनी मूर्तिमां भक्तना भावथी ज भगवान आवी जाय छे. मूर्ति द्वारा भगवाननी ज पूजा करे छे. जो पथ्थरनी पूजा कराती होय तो हे भगवान ! मारुं कल्याण करो वगेरे न बोले, किन्तु हे पथ्थरदेव ! मारुं कल्याण करो वगेरे बोले. आप जेम आपना चित्रनी पूजाथी प्रसन्न थया तेम मूर्तिपूजाथी भगवान (भगवानना
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... जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सेवक देवो) भक्त उपर प्रसन्न थाय छे. माटे भगवाननी मूर्तिनी पूजा ए पथ्थरनी पूजा नथी, किंतु भगवाननी पूजा छे. मूर्तिनी अभिषेक आदिथी भक्ति करतां, वंदन-नमस्कार करतां, स्तुति आदि करतां भक्तना मनमां तो एमज होय छे के हुं भगवाननी भक्ति, वंदन-नमस्कार के स्तुति करुं छु. एटले मूर्तिनी भक्ति, वंदन-नमस्कार के स्तुतिथी भगवाननी ज भक्ति, वंदन के स्तुति थाय छे.
पथ्थरनी मूर्तिमां मंत्रोच्चार आदि शास्त्रोक्त विधि कर्या बाद ए मूर्ति भगवान बनी जाय छे. आ विषयने आपणे एक व्यावहारिक दृष्टांतथी समजीए. युवति लग्न पहेलां कन्या कहेवाय छे. लग्नविधि थया पछी ए युवति वधु बनी जाय छे. लग्न पहेलां जे युवति कन्या कहेवाती हती अने बधा जेने कन्या रुपे ज जोता हता ते ज युवति लग्निविधि बाद कोईनी वधू बनी जाय छे अने बधा तेने वध रुपे जुए छे. तेम अहीं पथ्थरनी मूर्ति पण मंत्रोच्चार आदिथी अधिवासना थतां भगवान बनी जवाथी पूजनीय बनी जाय छे. कागळना टुकडा उपर रुपियानी छाप लाग्या पछी ते कागळनो टुकडो रहेतो नथी. तेने कोई बाळकना हाथमां न आपे. कारण के बाळक तेने कागळ समजे. तेम अज्ञान लोको मूर्तिने पथ्थरनो टुकडो समजे. कापडनो टुकडो कहेवातुं वस्त्र देशनो त्रिरंगी झंडो बने छे त्यारे कापडनो टुकडो मटीने जनवंदनीय ध्वज बनी जाय छे. रजपूत तलवारने लोढानो टुकडो न माने. कारण के तेनी किंमत समजे छे. एने मन अमूल्य वस्तु छे. ते बधुं जतुं करशे, पण तलवार नहि जवा दे. कारण के रक्षण करनार छे. तेम अज्ञान लोको मूर्तिने पथ्थरनो टुकडो माने. पण समजु लोको पथ्थरनो टुकडो न माने, किंतु देव माने.
भगवाननी पूजा एटले एमना गुणी आत्मानी पुजा
भगवान गुणोना समूह रुप छे. एटले भगवाननी पूजा एटले एमना शरीरनी नहि, किंतु एमना गुणी आत्मानी पूजा. ज्यारे भगवान साक्षात् विद्यमान होय त्यारे पण एमना गुणीआत्मानी पूजा थाय छे. पण एमनो आत्मा देखातो नथी एटले बाह्य शरीरना माध्यम द्वारा एमना आत्मानी पूजा थाय छे. तेवी रीते शरीर सहित भगवान विद्यमान न होय त्यारे तेमनी मूर्तिना
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
माध्यमथी तेमना गुणी आत्मानी पूजा थाय छे. एटले मूर्तिपूजा ए खुद
भगवाननी पूजा
छे.
प्रश्न : मूर्ति जड छे. आथी जेम माटीनी गायने दोहवाथी दूध न मळे तेम जडमूर्तिनी पूजाथी चेतनने कशो लाभ न थाय.
उत्तर : जेम पथ्थरनी गाय दूध न आपे तेम गायनुं नाम पण दूध न आपे. आथी भगवाननुं नाम पण न लेवुं जोईए. मूर्तिना विरोधीओ लोगस्स वगेरे सूत्रमां भगवानना नामनुं कीर्तन करे छे. जेओ मूर्तिसमक्ष क्रिया करता नथी, पण ईशान खूणा तरफ क्रिया करे छे तेमणे आ विचारवानी जरुर छे. ईशानकूणा तरफ क्रिया करता भगवान देखाता नथी, किंतु ईशान खूणो देखाय छे. आम छतां मनमां एम रहे छे के श्रीसीमंधरस्वामी ईशान खूणा तरफ छे माटे हुं श्री सीमंधरस्वामीनी समक्ष क्रिया करूं छं. तेम मूर्ति समक्ष पण क्रिया करतां हुं भगवाननी समक्ष क्रिया करुं छं एम मनमां रहे छे. तथा मूर्ति प्रत्यक्ष देखाती होवाथी मूर्तिनी समक्ष क्रिया करवामां वधारे सारो भाव आवे छे. ईशानखूणा तरफ क्रिया करवामां भगवान घणा दूर छे एम मनमां थाय छे. ज्यारे मूर्तिनी समक्ष क्रिया करवामां भगवान सामे ज बिराजमान छे एम ज थाय छे. आधी मूर्तिनी समक्ष क्रिया करवामां वधारे लाभ थाय छे.
मूर्तिपूजामां हिंसानुं पाप अल्प अने धर्म अधिक
आजे केटलाको हिँसाना नामे मूर्तिपूजानो विरोध करे छे ए योग्य नथी. जो सूक्ष्मदृष्टिथी हिंसा अने अहिंसाने समजवामां आवे तो स्पष्ट ख्यालमां आवी जाय के मूर्तिपूजामां वास्तविक हिंसा नथी. अहिंसाना अने हिंसाना हेतु, स्वरुप अने अनुबंध एम त्रण प्रकार छे.
हिं :- जयणा राखवी, एटले के जीवो न मरे तेनी काळजी राखवी (=उपयोग राखवो), ए हेतु अहिंसा छे.
हेतु हिंसा :- जयणा न राखवी, एटले के जीवो मरे तेनी काळजी न राखवी (=उपयोग न राखवो ) ए हेतु हिंसा छे. हेतु एटले कारण, हिंसानुं मुख्य कारण अजयणा छे. जीवो न मरे तेनी काळजी न राखवी ए अजयणा छे.
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा स्वरुप अहिंसा : जीवो न मरे के जीवोने दुःख न थाय ते स्वरुप अहिंसा.
स्वरुप हिंसा :- जीवो मरे के जीवोने दुःख थाय ते स्वरुप हिंसा.
अनुबंध अहिंसा :- अनुबंध एटले परिणाम. जे प्रवृत्तिथी परिणामे अहिंसा थाय ते अनुबंध अहिंसा.
अनुबंध हिंसा :- जे प्रवृत्तिथी परिणामे हिंसा होय, जेनुं फळ हिंसा होय, ते अनुबंध हिंसा, हेतु हिंसा अने हेतु अहिंसामां माराथी जीवहिंसा न थई जाय तेनी काळजी (=तेनो उपयोग) छे के नहि तेनी मुख्यता छे. स्वरुप हिंसा अने स्वरुप अहिंसामां जीवो मर्या छे के नहि तेनी मुख्यता छे. अनुबंध हिंसा अने अनुबंध अहिंसामां ध्येयनी मुख्यता छे. एटले अहिंसानुं पालन करवामां ध्येय शुं छे अने थई रहेली हिंसामां ध्येय शुं छे तेनी मुख्यता छे.
आ त्रण प्रकारनी हिंसामां हेतु हिंसा अने अनुबंध हिंसा पारमार्थिक हिंसा छे तेमां पण अनुबंधहिंसा मुख्य हिंसा छे. हवे त्रण प्रकारनी हिंसा अने अहिंसामां कोने केटली अने केवी रीते हिंसा अने अहिंसा होय ते विचारीए.
(१) जेना अंतरमा अहिंसाना भाव नथी, तेवो जीव उपयोग विना चाले अने जीव मरी जाय तो तेने त्रणे प्रकारनी हिंसा लागे. अंतरमा अहिंसाना भाव न होवाथी अनुबंध हिंसा लागे. उपयोग विना चालवाथी हेतु हिंसा लागे. जीव मर्यो होवाथी स्वरुपहिंसा पण लागे. (२) जो अहींजीव न मरे तो स्वरुपहिंसा सिवाय बे प्रकारनी हिंसा लागे. संसारमा रहेला लगभग बधा ज जीवोने क्यारेक त्रणे प्रकारनी तो क्यारेक बे प्रकारनी हिंसा लाग्या करे छे. (३) हवे जो ते जीव (जेना अंतरमा अहिंसाना भाव नथी ते) उपयोग पूर्वक चाले अने जीवो न मरे तो तेने एक ज अनुबंध हिंसा लागे.
प्रश्न : अंतरमा अहिंसाना भाव न होय छतां माराथी जीवो न मरे तेवा उपयोग पूर्वक चाले ए शी रीते बने ? माराथी जीवो न मरे तेवो उपयोग ज सूचवे छे के अंतरमा अहिंसाना भाव छे.
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२२१ उत्तर : आ विषयने बहु सूक्ष्मदृष्टिथी समजवानी जरुर छे. माराथी जीवो न मरे एवा उपयोग मात्रथी अहिंसाना परिणाम छे ए नक्की न थाय. अहिंसाना परिणाम छे के नहि ते जाणवा अहिंसा- पालन शा माटे करे छे ते जाणवू जोईए. जेना अंतरमां अहिंसाना पालनमां मोक्षनो के स्वकर्तव्यपालननो आशय होय तेना ज अंतरमां अहिंसाना परिणाम होय. जेना अंतरमा अहिंसाना पालनमां उक्त आशय न होय, किन्तु अन्य कोई भौतिक आशय होय, तो जीव उपयोग पूर्वक चालतो होय छतां तेनामां अहिंसाना परिणाम न होय. बगलो पाणीमां अने पारधि जमीन उपर जराय अवाज न थाय तेवा उपयोग पूर्वक चाले छे. पण तेना अंतरमा अहिंसाना परिणाम नथी. अभव्य जीवो चारित्रनुं पालन सुंदर करे छे. माराथी कोई जीव मरी न जाय तेनी बहु काळजी राखे छे. दरेक प्रवृत्ति उपयोग पूर्वक करे छे. छतां तेमां अहिंसाना परिणाम नथी. कारणके तेनुं ध्येय खोटुं छे. चारित्रना पालनथी (=अहिंसाना पालनथी) तेने संसारनां सुखो जोईए छे. संसारसुख माटे जे जीवो अहिंसा, पालन करे तेने संसारनां सुखो मळे अने परिणामे ते जीवो वधारे पाप करनारा बने एथी परिणामे हिसा वधे. __आथी संसारसुखनी प्राप्ति वगेरे दुन्यवी आशयथी अहिंसा- पालन करनार जीवो उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करे अने कोई जीव न मरे एथी तेमने हेतु अहिंसा अने स्वरुप अहिंसा होय, पण अनुबंध अहिंसा न होय. आवी हेतु अहिंसाथी हिंसा वधवा द्वारा दुःख वधे.
(४) जेना अंतरमा अहिंसाना परिणाम थया छे ते मुनि वगेरे जीवो उपयोग पूर्वक चाले अने जीवो न मरे तो तेमने त्रणे प्रकारनी अहिंसा होय छे. त्रणमांथी एक पण प्रकारनी हिंसा न होय. (५) हवे जो (जेना अंतरमां अहिंसाना परिणाम छे) ते होय. पण स्वरुप अहिंसा न होय. अंतरमा अहिंसाना परिणाम छे माटे अनुबंध अहिंसा छे. उपयोग पूर्वक चाले छे माटे हेतु अहिंसा छे. जीव मरी जवाथी स्वरुपथी = बाह्यथी हिंसा थई होवाथी स्वरुप अहिंसा नथी. (६) हवे जो ते जीव प्रमादना कारण उपयोग पूर्वक न चाले. छता जीव न मरे तो अनुबंध अने स्वरुप ए बे अहिंसा होय. पण हेतु अहिंसा
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
न होय. कारण के हिंसानो हेतु (=कारण) प्रमाद रहेलो छे. आ जीवमां अप्रमाद नथी. प्रमाद छे. (७) हवे जो ते जीव उपयोगपूर्वक न चाले अने जीव मरी जाय तो तेने स्वरुप अने हेतु ए बे अहिंसा न होय, पण अनुबंध अहिंसा होय. कारण के प्रमाद थई जवा छतां अने जीव मरी जवा छतां अंतरमां परिणाम तो अहिंसाना ज छे.
प्रश्न : उपयोगपूर्वक चाले छतां जीवो मरी जाय ए केवी रीते बने ?
उत्तर : उडता पतंगिया वगेरे जीवो सहसा पगनीचे आवी जाय त्यारे अथवा साधु नदी उतरता होय वगेरे प्रसंगे आवु बने. अहीं अनुबंध अहिंसा होय.
जे जीव जिनवचन प्रत्ये श्रद्धाळु बनीने मोक्षना आशयथी यतना पूर्वक जिनपूजा करे तेने मात्र स्वरुप हिंसा लागे, हेतु के अनुबंध हिंसा न लागे. हवे जो यतना विना जिनपूजा करे तो हेतु अने स्वरुप ए बने हिंसा लागे. पण अनुबंध हिंसा न ज लागे. कारण के हिंसाना भाव नथी. भाव तो जिनपूजाना ज छे. पुष्पादिथी जिनपूजा करती वखते जीवोने सामान्य किलामणा वगेरे हिंसा थवा छतां पूजकने पुष्पादिकना जीवो प्रत्ये हिंसक भाव न होय, किंतु दयाभाव होय.
यतनाथी जिनपूजा करनारने हिंसानो अनुबंध थतो नथी, अहिंसानो अनुबंध थाय छे. आ विषे अध्यात्सारमां कह्युं छे के
सतामस्यास्कस्याश्चिद् यतना भक्तिशालिनाम् । अनुबन्धो हाहिंसाया जिनपूजादिकर्मणि ॥
"यतनापूर्वक कराती जिनभक्तिथी शोभता सत्पुरुषोना जिनपूजादि कार्यो मां थती हिंसाथी अहिंसानो अनुबंध थाय छे - हिंसाथी पण अहिंसानुं फळ मळे छे. "
साधूनामप्रमत्ताना सा चाहिँसानुबन्धिनी । हिसानुबन्धविच्छेदाद् गुणोत्कर्षो यतस्ततः ॥
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"अप्रमतमुनिओनी नदी उतरवा वगेरेनी क्रियामां थती हिंसा अहिंसानो अनुबंध करावे छे. तेवी हिंसाथी हिंसानो अनुबंधनो विच्छेद थई जतो होवाथी ( अप्रतिबद्धविहार वगेरे) गुणोनी वृद्धि थाय छे."
जो आ प्रमाणे हिंसा-अहिंसाना प्रकारो न समजे अने केवळ बाह्य अहिंसाज जोवामां आवे तो मुनि पण अहिंसक न बनी शके. कारण सूक्ष्म हिंसा तो मुनिने पण लागे छे. जीव वीतराग बने छे (= सर्वज्ञ बने छे) त्यार पछी पण मोक्षमां न जाय त्यां सुधी सूक्ष्म हिंसा चालु होय. जो बाह्यथी कोई पण जातनी हिंसा न थाय तो अहिंसक भाव आवे एम मानवामां आवे तो एकेन्द्रिय जीवो बाह्यथी कोई हिंसा करता नथी. तेथी ते जीवो अहिंसक बनवा जोईए. पण तेम नथी.
माटे हिंसा-अहिंसामां भावनी ( = ध्येयनी अने परिणामनी) प्रधानता छे. जिनपूजामा सामान्य हिंसा थवा छतां तेनाथी परिणामे लाभ थाय छे. आ विषयने शास्त्रमां कूवाना दृष्टांथी समजाववामां आव्यो छे. अहीं नुकशान करतां लाभ वधारे थाय छे. कूवो खोदवामां शरीर कादवथी खरडाय छे. कपडां मेलां थाय छे, श्रम-क्षुधा-तृषा वगेरेनुं दु:ख वेठवुं पडे छे. पण कूवो खोदाया पछी तेमांथी पाणी नीकळतां तृषा आदि दूर थवाथी कूवो खोदवानी प्रवृत्ति लाभकारी बने छे. ते प्रमाणे जिनपूजा माटे स्नानादि करवामां प्रारंभमां अल्प हिंसा रुप सामान्य दोष लागवा छता पछी पूजाथी थयेला शुभभावो द्वारा विशिष्ट अशुभ कर्मोनी निर्जरा अने पुण्यानुबंधी पुण्यनो बंध थतो होवाथी परिणामे लाभ थवाथी स्नानादिनी प्रवृत्ति लाभकारी छे. व्यवहारमां पण जे प्रवृत्तिमां थोडुं नुकशान होवा छतां अधिक लाभ होय तो ते प्रवृत्ति करवा जेवी मनाय छे. लोको करे पण छे. लोको ज्यारे वेपार करे छे त्यारे पहेलां व्यय करवो पडे छे. छतां लोको पैसा गुमावी दीधा एम मानता नथी. कारण के जेटलो व्यय थाय तेनाथी अधिक लाभ भविष्यमां थवानो छे. तेम जिनपूजाथी पण परिणामे सर्वथा हिंसाथी निवृत्ति थाय छे.
प.पू. आ. राजशेखर सूरिजी म.सा.
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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा चैत्य शब्दनो अर्थ मूर्तिपूजानो निषेध करनाराओ पौषधशाळा वगेरे बनावे छे, बीजा गाम आदिमा रहेला मुनिओने वंदन करवा वाहननो उपयोग करे छे, सार्मिक भक्ति माटे रसोडुं वगेरे करे छे. आमां पण हिंसा तो थाय छे. मूर्तिपूजाना निषेधको शास्त्रमा जिनमूर्ति के जिनमंदिरना अर्थमां आवता चैत्य शब्दनो ज्ञान के साधु अर्थ करे छे ते बरोबर नथी. चैत्यशब्दनो अर्थ जिनमंदिर के जिनमूर्ति थाय छे. अथवा भगवान जे (अशोक) वृक्ष नीचे बेसीने देशना आपें छे ते वृक्षने चैत्य कहेवामां आवे छे. आथीज आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि महाराजे स्वरचित शब्दकोषमां कर्तुं छे के - "चैत्यो जिनौकस्तबिम्ब, चैत्यो जिनसभातरुः" चैत्य शब्द जिनमंदिर के जिनमूर्ति अर्थमां छे. जे वृक्षनी नीचे बेशीने भगवान धर्मदेशना आपे छे. ते (अशोक) वृक्षने पण चैत्य कहेवामां आवे छे.
जिनपूजाथी थता लामो (१) जेटलो समय जिनपूजा थाय तेटलो समय पापोथी बची जवाय छे.
आत्मामां सुंदर भावो जागे छे. एथी अशुभ कर्मोनी निर्जरा थवा साथे पुण्यानुबंधी पुण्यनो बंध थाय छे. अशुभ कर्मोनी निर्जराथी सम्यग्दर्शनादि गुणोनी प्राप्ति थाय छे अने पुण्यानुबंधी पुण्यना उदयथी विशिष्ट भौतिक
सुखोनी प्राप्ति थाय छे. (३) भविष्यमां चारित्रनी प्राप्तिथी सर्वथा संसारना आरंभोथी निवृत्ति थाय छे. (४) बीजा जीवोने धर्म पमाडी शकाय छे.
सौ कोई जिनमूर्तिना आलंबनथी सम्यग्दर्शनादि गुणो मेळवीने मुक्तिपदने शीघ्र पामो ए ज एक मंगल कामना.
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____ २२५
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (४३) "मूर्तिपूजा के जैनागमों में पाठ'
(१) श्री महाकल्पसूत्रांनो पाठ ‘से भयव तहारूवे समणे वा माहणे वा चेइय घरे गच्छेज्जा ? ता ! गोयमा ! दिणे दिणे गच्छेज्जा । से भयवं जत्थ दिणे न गच्छेज्जातओ किं पायच्छित्तं हवेज्जा गोयमा ! पमायं पडुच्च तहारुवे समणे वा माहणे वा जो जिणधर न गच्छेज्जा तओ छठ्ठ अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेज्जा । से भयवं समणोवासगस्स पोसहसालाए पोसहिए पोसद्दबंभयारी किं जिणहरं गच्छेज्जा? हंता ! गोयमा ! गच्छेज्जा । से भयवं केणठेणं गच्छेज्जा ! गोयमा ! णाणदंसणचरण छाप गच्छेज्जा । जे केइ पोषहं बंभयारी जओ जिणहरे न गच्छेज्जा तओ पायच्छित्तं हवेज्जा ? गोयमा ! जहा साहू तहा भाणियव्वछठे अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेज्जा ।"
भावार्थ : श्री गौतम स्वामी पूछे छे- "हे भगवन् ! तथारुप श्रमण अथवा माहण तपस्वी चैत्यघर अर्थात् जिनमंदिर जाय?" भगवान कहे छे. "हा, गौतम ! हमेशां नित्य प्रति जाय.' गौतम- "हे भगवन् ! जो नित्यप्रति नहि जाय तो प्रायश्चित आवे ?" भगवंत- "हा गौतम ! प्रायश्चित्त आवे." गौ. "हे भगवन् ! शुं प्रायश्चित्त आवे?" भगवंत- "हा गौतम ! प्रायश्चित्त आवे.' गौ. "हे भगवन् ! शुं प्रायश्चित्त आवे?" भ "हे गौतम ! प्रमादने वशे करी तथारुप श्रमण अथवा माहण जो जिनमंदिरे न जाय तो छठ (बे उपवास)- प्रायश्चित आवे. अथवा पांच उपवास, प्रायश्चित हाय." गौ. "हे भगवन् ! शा वास्ते जिन मंदिर जाय ?" भ. “है गौतम ! ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी रक्षा वास्ते जाय.' गौ. "हे भगवन् ! जे कोई श्रमणोपासक श्रावक पौषधशाळामां रह्यो थको पौषध ब्रह्मचारी जो जिनमंदिरे न जाय तो प्रायश्चित आवे?" भ. "हा गौतम ! प्रायश्चित आवे ! हे गौतम ! जेम साधुने प्रायश्चित्त, तेम श्रावकने प्रायश्चित जाणवं. ते प्रायश्चित छठ अथवा पांच उपवास- होय.
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२२६
(२)
श्री महाकल्पसूत्रमांनो पाठ
"तेण कालेणं तेणं समपणं जावं तुंगीयाए नयरीए बहवे समणोवासगा परिवसंति, संखे, सयगे, सिलप्पवाले, रिसिदत्ते, दमगे, पुक्खली, निबद्धे, सुपट्टे, भाणुदत्ते सोमिले, नरवम्मे, आणंदकामदेवा इणो जे अन्नत्थ गामे परिवसंति इट्ढा दित्ता विच्छिन्नविपुलवाहणाजाव लद्धठ्ठा गहियठ्ठा चाउदसठ्ठमुदिठ्ठपुण्यमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं पालेमाणा निग्गंथाण यि निण्गंथथीण फासुएणं पसणिज्जेणं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव पडिला भेमाणा चेइयालपसु तिसंज्झं चंदण पुप्फधूववत्थाइहिं अच्चणं कुणमाणा जाव विहरंति से तेणठ्ठेणं गोयमा ? जो जिणपडिमं न पूपइ सो मिच्छदिट्ठी जाणियव्वो, मिच्छदिठ्ठिस्स नाणं न हवइ, चरणं न हवइ, मुक्खं न हवइ; सम्मदिठ्ठिस्स नाणं, चरणं मुक्खं च हवइ, से तेणठ्ठेण गोयमा ? सम्मदिठ्ठिसइढेहि जिणपडिमाणं सुगंध पुप्फचं दणविलेवणेहिं पूया कायव्वा । '
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
भावार्थ : ते काळे ते समये तुंगीया नगरीमां घणा श्रावको वसे छे. १ शंख, २ शतक, ३ सिलप्पवाल ४. ऋषिदत्त, ५. द्रमक. ६. पुष्कली ७. निबद्ध ८. भानुदत्त ९. सुप्रतिष्ठित, १०. सोमिल, ११ नरवर्म १२. आणंद अने १३. कामदेव प्रमुख जेओ बीजा गाममां रहे छे. धनवान तेजवान, विस्तीर्ण बलवान छे : घणा प्राप्त कर्या छे सूत्रनां अर्थ तथा ग्रहण कीधा छे सूत्रना अर्थ जेमणे एवा तेओ चौदश, आठम, अमावास, पूनमनी तिथिओनां दिवसे प्रतिपूर्ण पोसह पालता थका साधु साध्वीने प्रासुक अने एषणीय, अशन, पान खादिम, स्वादिम यावत प्रतिलाभतां थका विचरे छे. जिनमंदिरोने विषे जिनप्रतिमाने त्रिकाल चंदन, पुष्प वस्त्रादिके करीने पूजा करतां थकां यावत् विचरे. हे गौतम ! जिनप्रतिमाने पूजे ते सम्यग् दृष्टि, न पूजे ते मिथ्यादृष्टि. मिथ्यादृष्टिने ज्ञान न होय. चारित्र तथा मोक्ष न होय. सम्यग् दृष्टिने ज्ञान, चारित्र तथा मोक्ष होय छे. ते कारणथी हे गौतम! सम्यग्दृष्टिए जिनमंदिरमां जिनप्रतिमानी चंदन, पुष्प, वस्त्रादिए करी पूजा करवी जोईए (श्री नंदीसूत्रमां आ महाकल्प सूत्रनी नोंध आपेली होवाथी मानवा लायक छे.
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२७
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
(३) श्री भगवतीसूत्रमा तुंगीया नगरीना अधिकारे का छे के'हाया कय बलिकम्मा ।' अर्थ : स्नान करी, देव पूजा करी.'
(४) श्री उपवाइ सूत्रमां चंपानगरीना वर्णनमां कडं छे के - "बहुलाई अरिहंतचेइयाइ ।" अर्थ : "घणां अरिहंतना जिनमंदिरो छे."
तथा बाकीनी नगरीओना वर्णनमां, श्री जिनमंदिर संबंधी चंपानगरीनी भलामण करी छे. तेथी साबित थाय छे के, आगळना वखतमां चंपानगरीनी जेम बीजा शहेरोमां पण गलीए गलीए दहेरासरो हतां.
(५) श्री भगवतीसूत्रमा जंघाचारण अने विद्याचारण मुनिओए श्री जिनप्रतिमा वाद्यानो अधिकार वीशमा शतकने नवमे उद्देशे कह्यो छे :
'नंदीसरदीये समोसरणं करेइ, करेत्ता तहिं चेइयाइ वंदइ, वंदइत्ता इहमागच्छइ, इहमागच्छइत्ता, इह चेइयाई वंदइ ।
भावार्थ : (जंघाचारण विद्याचारण मुनिओ) श्री नंदीश्वर द्वीपमा समवसरण करे छे. करीने त्यांना शाश्वतां चैत्यो (जिनमंदिरो)ने वांदे छे, वांदीने अहीं भरतक्षेत्रमा आवे छे अने आवीने अहींना चैत्यो (अशाश्चती प्रतिमाओ) ने वांदे छे.
(६) श्री भगवती सूत्रमा चमरेंद्रने अधिकारे त्रण शरणां कह्यां छे ते नीचे प्रमाणे -
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૨૨૮
- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा अरिहंते वा अरिहंतचेझ्याणि वां भाविअप्पणो अणगारस्स ।
भावार्थ : (१) श्री अरिहंत देव (२) श्री अरिहंतदेवनां चैत्य (प्रतिमा) अने (३) भावित छे. आत्मा जेनो एवा साधु- - ए त्रण शरणां जाणवा.
(७) श्री आचारांगना प्रथम उपांग श्री उववाई सूत्रमा अंबड श्रावके तथा तेमना सातसो शिष्योए अन्य देव-गुरुने वंदननो निषेध करी श्री जिनप्रतिमा तथा शुद्ध गुरुने नमस्कार करवानो नियम कर्यो छे. ते सूत्रपाठ नीचे प्रमाणे छे.
अंबडस्स परिवायगस्स नो कप्पइ अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाई वा अन्नउत्थिपरिग्गहिआई अरिहंत चेइयाइं वा वंदित्तए वा नमंसित्तण वा नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइआई वा ।"
भावार्थ : अंबड संन्यासीने न कल्पे. अन्य तीर्थी प्रत्ये अथवा अन्य तीर्थोना देव प्रत्ये अथवा अन्य तीर्थीए ग्रहण कर्या होय एवा अरिहंतना चैत्य (प्रतिमा) प्रत्ये (श्री जिनप्रतिमाने अन्य दर्शनीए पोताना देव तरीके मानी होय, ते अत्रे समजवी) वंदना, स्तवना, नमस्कार करवा न कल्पे. परंतु अरिहंत अथवा अरिहंतनी प्रतिमाने नमस्कार करंवा कल्पे.
(८) छठ्ठा अंग श्री ज्ञातासूत्रमा द्रौपदी श्राविकाए सत्तर भेदे द्रव्य तथा भावपूजामां "नमोत्थुणं अरिहंताण" कह्यानो पाठ आ रीते छे : ___ तएणं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेवमज्जणघरे तेणेव उवागच्छई मज्जणघरं अणुप्पविसइ ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई वत्थाइ परिहिया मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, जेणेय जिणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जिणघरं अणुप्पविसइ अणुप्पविसइत्ता आलोए जिणपडिमाण पणामं करेइ लोमहत्थयं परामुसइ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेवं भाणिअव्व जाव धूवं डहइ धूवं डहइत्ता वामं जाणु अंचेइ, अंचेइत्ता दाहिणं जाणु घरतिणलंसि निवेसेइ तिखुत्तो मुद्धाणं घरतिलंसि ईसीं पच्चुण्ण मइ पच्चुण्णइत्ता करयल जाव कट्ट एवं वयासी नमोत्थुणं अरिहंताणं
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
भगवंताणं जावसंपत्ताणं वंदइ णमइ जाव जिणघराओ पडिणिक्खमइ"
भावार्थ : त्यारपछी ते द्रौपदी नामनी राजकन्या, ज्यां स्नान मज्जन करवानुं घर छे. त्यां आवे आवीने मज्जन घरमा प्रवेश करे. प्रवेश करीने प्रथम नाही पछी बलीकर्म अर्थात् घर दहेरासरनी पूजा करीने मननी शुद्धि माटे जेणीए कौतुकमंगल कर्या छे एवी राजवर कन्या द्रौपदी शुद्ध, दोषरहित, मज्जन घरमांथी नीकळे. नीकळीने ज्यां जिनमंदिर छे. त्यां आवे. आवीने जिन घरमा प्रवेश करे. प्रवेश करीने मोरपींछी वडे प्रमार्जन करे पछी सर्व विधि जेम सूर्याभ देवे प्रतिमापूजी ते प्रमाणे सत्तर भेदे पूजा करे. धूप उवेखे. धूप करीने डाबो ढींचण ऊंचो राखे. जमणो ढींचण जमीन पर स्थापन करे. त्रणवार मस्तक पृथ्वी पर नमावे पछी थोडे नीचे नमीने हाथ जोडी दश नख भेगा करी, मस्तक पर अंजलि करी एम कहे 'नमस्कार थाओ अरिहंत भगवान प्रत्ये यावत सिद्धिगतिने पाम्या छे. त्यां सुधी अर्थात् संपुर्ण शकस्तव बोले. वंदन - नमस्कार कर्या पछी दहेरासरमांथी बहार नीकळे.
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(प्रथममां द्रौपदीए घर दहेरासरनी पुजा करी छे. त्यार पछी उमदा वस्त्रो पहेरी दहेरासर गई छे. जेम हालमां पण घणा श्रावको करे छे.)
श्री उपासक दशांग सुत्रमां आनंद श्रावके जिनप्रतिमा वांद्यानो पाठ छे, ते नीचे प्रमाणे
नो खलु में भंते ! कज्पइ अज्जप्पभिई अन्नउत्थिए वा, अन्न उत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थिय परिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तएं वा"
भावार्थ : हे भगवन् ! मारे आजथी लईने अन्यतीर्थी (चरकादि), अन्यतीर्थीना देव (हरिहरादि) तथा अन्यतीर्थीए ग्रहण करेलां अरिहंतनां चैत्य जिन - प्रतिमा तेमने वंदन नमस्कार करवा न कल्पे.
अन्य देव तथा गुरुनो निषेध थतां जैन धर्मना देव- गुरु स्वयमेव वंदनीय ठरे छे, छतां कोई कुतर्क करे तो तेने पूछवानुं के 'आनंद श्रावके अन्य देवने चारे निक्षेपे वंदना त्यागी के मात्र भाव निक्षेपे ?'
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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जो कहेशो के, अन्य देवना चार निक्षेपोनो निषेध कर्यो छे, त्यारे तो स्वत: सिद्ध थयुं के अरिहंतदेवना चारे निक्षेपा तेने वंदनीय छे. जो अन्य देवना भाव निक्षेपानो ज निषेध कर्यानुं कहेशो, तो ते देवना बाकीना त्रणे निक्षेपा आनंदने वंदनीय रहेशे अने ते प्रमाणे करवाथी व्रतधारी श्रावकने दूषण लागे
ज.
अन्य देव हरिहरादि आनंदना वखतमां साक्षात् विद्यमान हता नहि तेमनी मूर्तिओ हती. तो बतावो के तेणे कोनो निषेध कर्यो ? जो 'अन्यदेवनी मूर्तिनो कहेशो तो अरिहंतनी मूर्ति स्वत: सिद्ध थई.
आ पाठमां “चैत्य'' शब्दनो अर्थ "साधु करी, केटलाक लोको उल्टो अर्थ करे छे. तेमने पूछवानुं के, साधुने अन्य तीर्थ ग्रहण शी रीते करे छे ?' जो जैनसाधुने अन्य दर्शनीए ग्रहण कर्या होय अर्थात् गुरु करी मान्या होय अने तेमणे वेष पण बदली नाख्यो होय तो पछी ते साधु अन्य दर्शनी थई गया. पछी ते कोई प्रकारे जैन साधु न गणाम.
( ९ )
सिद्धार्थ राजाए द्रव्यपूजा कर्यानुं वर्णन श्री कल्पसुत्रमां आ प्रमाणे छे
"तए णं सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए, सइए अ, साहस्सिए अ, सयसाहस्सिए अ, जाए अ, x x x x लंभे पडिच्छमाणे अ, पडिच्छावेमाणे अ एवं वा विहरइ || "
भावार्थ : त्यार बाद सिद्धार्थ राजा 'दस दिवस सुधी महोत्सव रुप कुल मर्यादा प्रवर्ते छते जेमां सो द्रव्य लागे, हजार द्रव्य लागे अने लाख द्रव्य लागे तेवा याग- अरिहंत भगवंतनी प्रतिमानी पूजाने करतां, बीजा पासे करावतां तथा वधामणाने पोते ग्रहण करतां अने सेवको पासे ग्रहण करावतां विहरे छे.
शंका- सिद्धार्थ राजाए यज्ञ कर्यो हतो, पण पूजा क्यां करी हती ? समाधान- सिद्धार्थ राजा श्री पार्श्वनाथ स्वामीना बार व्रतधारी श्रावक
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
२३१ हता, एम श्री आचारांग सूत्रमा कां छे. तो विचार करो के- घोडा, बकरा आदि पशुवधनो यज्ञ तेओ कदी करे-करावे खरा ?
व्याकरणना आधारे 'यज्ञ' शब्द देवं पूजयामीति वचनात्, देवपूजवाची छे.
श्रावक तो जिनयज्ञ-पूजाकरे. परम सम्यक्त्वधारी श्रावक सिद्धार्थ राजा, जो हिंसक यज्ञ करनार होत तो नक्की नरकमां जवा जोईए. परंत सिद्धार्थ राजा तो मोक्षगामी जीव होवानुं स्वयं श्री महावीर परमात्मो फरमाव्युं छे. वळी चोवीस तीर्थंकरोना माता-पिता नक्की मोक्षगामी जीवो ज होय छे.
श्री सिद्धार्थ राजा श्री महावीरस्वामी परमात्माना पिता हता. ए दृष्टिए जोतां-विचारतां पण स्वीकारवू पडे के तेओ श्री जिनयज्ञ एटले श्री जिनपूजा करनारा हता.
(१०) श्री व्यवहार सूत्रमा का छे के-साधु श्री जिनप्रतिमानी सन्मुख आलोयणा ले छे. ___श्री महानिशीथ सूत्रना चोथा अध्ययनमां श्रीजिनमंदिर करावनारने बारमो देवलोक अर्थात् दान, शील, तप अने भावना आराधनथी जे फळ मळे, ते फळ प्राप्त थाय छे. एम फरमाव्युं छे.
'वाउंपि जिणायणेति संहियं मध्यमेदणीयदं
(दान, शील, तप अने भाव) करीने श्रावक अच्युत-बारमा देवलोक .. सुधी जाय छे, ते उपर नहि.
वळी ते ज सूत्रमा अष्ट प्रकारी पूजा वगेरेनुं विस्तारथी वर्णन छे. तेने जाणवा इच्छनारा पुरुषोए त्यांथी जोई लेवू.
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
(१२) श्री आवश्यक सूत्रमा भरत चक्रवर्तीए श्री जिनप्रासाद कराव्यानो अधिकार छे.
"थूभसयभाउगाणं, चउवीसं चेव जिणहरेकासी । सव्वजिणाणंपडिमा, वण्णपमाणेहिं निअएहि ॥
अर्थ :- श्री अष्टापद पर्वत उपर एक सो भाईना सो स्थंभ तथा जिनमंदिरो कराव्यां, तमाम तीर्थंकरोनी प्रतिमा, तेमना वर्ण तथा शरीरना प्रमाणवाळी भरत राजाए स्थापित करी.
(१३) श्री आवश्यक सूत्रमा का छे के
"अंतेहरे चेइयहरं कारियं पभावती पहाता, तिसंज्झे अच्चेइ, अन्नया देवी णच्चेइ, राया वीणं वाएइ ।"
भावार्थ :- प्रभावती राणीए अंत:पुरमां चैत्यधर (जिनभुवन) बनाव्युं. ते दहेरासरमां, राणी स्नान करीने प्रातःकाळ, मध्याहनकाळ अने सायंकाल एम त्रिकाण पूजन करे छे. कोई एक समये राणी नृत्य करे छे अने राजा पोते वीणा वगाडे छे.
(१४) श्री शालिभद्र चरित्र के जेने प्राय: तमाम जेनो माने छे, तेमां का छे के
"शालिभद्रना घरमां तेमना पिताए जिनमंदिर कराव्यु हतुं तथा रत्नोनी प्रतिमा करावी हती.
सूत्रोमां श्रावकोना वर्णनमां'न्हाया कयबलिकम्मा' अर्थात् स्नान करी, देवपूजा करी एवा उल्लेखो
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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श्री भगवतीजीमां तुंगीया नगरीना श्रावकना अधिकारे कह्युं छे के'श्रावक यक्ष नाग वगेरे अन्य देवने पूजे नहि. "
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श्री सूयगडांग सूत्रमां पण कह्युं छे के 'नागभूतयक्षादि' तेर जातना अन्य देवनी प्रतिमाने पूजवाथी मिध्यात्वीपणुं प्राप्त थाय छे। अने बोधि-बीजनो नाश थाय छे.
आथी सिद्ध थयुं के-श्री अरिहंत देवनी प्रतिमा पूजवाथी समकितनी प्राप्ति थाय छे अने बोधि - बीजनी रक्षा थाय छे. आ कारणे 'कयबलिकम्मां' पाठथी श्रावकोए श्री जिन प्रतिमानी पूजा करवी, एवो तेनो अर्थ थयो. केटलाक “न्हाया कयबलिकम्मा "नो "स्नान करीने पाणीना कोगळा कर्या" एवा शास्त्रथी तद्दन विपरीत अर्थ करे छे, जे असत्य छे.
भावनिक्षेपे साक्षात् तीर्थंकर परमात्माने वंदन पूजन करवानुं जे फळ छे, तेमज सम्यक्त्व अने ज्ञान सहित चारित्र पाळवानुं जे फळ सूत्रमां छे, ते ज फळ श्री जिन प्रतिमाना वंदन - पूजनथी कह्युं छे. यावत् मोक्ष पर्यंतनुं फळ फरमायुं छे.
(१५)
श्री दशाश्रुतस्कंधना दशमा अध्ययने कह्युं छे के
श्री महावीर स्वामी राजगृही नगरीमां समोसर्या त्यारे श्रेणिकराजा वांदवा जवानी सर्वे तैयारीओ करी चेल्लणा राणी पासे आवी, जे कहेवा लाग्या, ते पाठ नीचें प्रमाणे छे..
“चिल्लणादेवी एवं वयासीतं महाफलं देवाणुप्पिये ? समणं भगवं महावीरं वंदामो, णमंसामो सक्कमोरेमो, सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं चेइयं पज्जुवासेमो तेणं इह भवे य पर भवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ।"
भावार्थ : निश्चे करी, हे चिल्लणादेवी ! तेनुं महाफल छे. कोनुं ? ते कहे छे - हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामिने वंदना करवानुं,
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा नमस्कार करवानु, सत्कार करवानुं सन्मान करवा, कल्याणकारी मंगलकारी देव संबंधी चैत्य (जिन प्रतिमा)नी पेठे पर्युपासना करवाथी आ भव तथा परभवमां हितने वास्ते, सुखने वास्ते, क्षेमने वास्ते निःश्रेयस जे मोक्ष तेने वास्ते थाय छे. तथा भवोवमा साथे आवनार थाय छे.
उववाई आदि सूत्रमा आवोज पाठ चंपानगरीना कोणीक राजाने अधिकारे छे. बीजा पण आवा पाठो छे.
(१६) श्री रायपसेणी सूत्रमा सूर्याभदेवना अधिकारे आ प्रमाणे पाठ छे.
"तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था किं । मे पुव्वि करणिज्जं ? किं मे पच्छा करणिज्जं । किं मे पुव्वं सेयं ? किं मे पच्छा सेयं ? किं मे पुट्विपि पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ?"
"तएण तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयारुव अज्झत्थियं जाव संकप्पं समुप्पण्णं समभिजाणित्ता जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छन्ति । उवागच्छित्ता सूरियाभं देव करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेन्ति वद्धावित्ता एव वयासी- एव खलु देवाणुप्पिया सूरियामे विमाणे जिणपडिमाणं जिणस्सेह-पमाणमेत्ताणं अट्ठसयं सण्णिक्खित्तं चिट्ठइ । सभाए णं सुहम्माए णं माणवा चेइय वेमाणियाणं देवाणं य देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ णमंसणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणिज्जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाओ । तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुव्वं करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छाकरणिज्जं एवं णं देवणुप्पियाणं पुव्वि सेयं, एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं, एयं णं देवाणुप्पियाणं पुव्वं पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुंगामियत्ताए भविस्सइ"
भावार्थ : त्यारे ते सूर्याभ देव पांच प्रकारनी पर्याप्तिए पर्याप्तिभाव
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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पाम्या. ते सूर्याभ देवना मनने विषे आवा प्रकारनो विचार थयो के - " मारे पहेलां शुं करवुं जोईए तथा पछी शुं करवुं जोईए ? वळी मारे प्रथम कल्याणकारी शुं छे ? ने पछी कल्याणकारी शुं छे ? प्रथम तथा पाछळथी श्रेय:कारी शुं छे ? वळी आत्माने हित भणी, सुख भणी, क्षेम भणी, मोक्ष भणी एटले सर्वथा दुःखती मुक्त थवा भणी अने परंपराए शुभानुबंधी शुं छे ? ते वारे सूर्याभदेवनी सामानिक समाना अन्य देवताओ सूर्याभदेवताना उपर मुजबना विचारोने जाणी, ज्यां सूर्याभदेवता छे त्यां आवे आवीने सूर्याभदेव प्रत्ये करसंपुट एकठाकरी, मस्तकमां आवर्त करी अंजली जोडीने, जय अने विजयवडे वधावे, वधावीने तेने एम कहे के- 'हे देवानुप्रिय ! आपना सूर्याभ विमानने विषे सिद्धायतना (जिनमंदिर) छे. ते जिनमंदिरने विषे एकसो आठ जिनप्रतिमा छे. ते जिनराजनी अवगाहना प्रमाणे उंचाईमां छे. तथा सुधर्मा सभाने विषे माणवक नामे चैत्यस्तंभ छे. ते स्तंभ विषे वज्रमय गोळवट दाभडाओ छे. तेमां घणा जिनेश्वर भगवानना दाढा वगेरे अस्थिओ रुडी रीते स्थापन कर्या छे. ते जिनप्रतिमाओ तथा दाढाओ, हे देवानुं प्रिय ! आपने तथा बीजापण सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव-देवीओने अर्चन करवा योग्य, वंदन करवा योग्य, नमस्कार करवा योग्य, पूजन करवा योग्य अने सन्मान करवा योग्य छे. वळी कल्याणकारी-मंगळकारी छे. माटे आपने प्रथम करवा योग्य एही ज छे तथा पछी करवा योग्य पण एही ज छे. ने वळी ए ज.
श्री रायपसेणीय सूत्रमांनो पाठ
"हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ " अर्थ श्रीजिनप्रतिमा पूजवानुं फळ पूजकने हितने वास्ते, सुखने वास्ते, मोक्षने वास्ते तथा जन्मांतरमां पण साथे आवनारुं छे.
श्री जीवाभिगम सूत्रमां विजयपोलीए तथा बीजा अनेक सम्यग्दृष्टि देवोए सत्तर भेदे पूजा करी छे. तेनुं फळ यावत् मोक्ष सुधीनुं कह्युं छे.
( १७ )
श्री ज्ञाता सूत्रमां तीर्थंकर गोत्र बांधवानां वीस स्थानको कह्यां छे. तेमां " सिद्धपद आराधवु" एम फरमाव्युं छे. ते अरुपी सिद्ध भगवाननुं ध्यान
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा आराधन, तेमनी मूर्ति सिवाय बनी शके ज नहि.
(१८) श्री व्यवहार सूत्रमा का छे के - "सिद्धवेयावच्चेणं महानिज्जरा महापज्जवसाणं चेयत्ति ।"
अर्थ :- श्री सिद्ध परमात्मानी वैयावच्च करवाथी महा निर्जरा थाय याने मोक्ष मळे.
तर्क - श्री सिद्ध परमात्मानी वैयावच्च तो नाम स्मरणथी थई शके छे, तो पछी मूर्ति शुं प्रयोजन ?
समाधान - नाम-स्मरण करवू तेने तो गुणगान, कीर्तन, भजन, स्वाध्याय वगेरे कहे छे, पण वैयावच्च नहि. जो वैयावच्चनो अर्थ एवो करशो तो श्री प्रश्न व्याकरणमां बाळकनी, वृद्धनी, रोगीनी अने कुलगणादिनी दश प्रकारे वैयावच्च साधुए करवानी कही छे, तो शुं नाम याद करवाथी ज वैयावच्च थई जशे ? के आहार, पाणी, औषधि, अंगमर्दन, शय्या, संथारा वगेरे करवाथी थशे ?
नामादि करवाथी वैयावच्च थई नहि गणाय, पण पूर्वोक्त प्रकारे सेवाचाकरी करवाथी ज गणाशे.
श्री सिद्ध परमात्मानी वैयावच्च तो तेमनुं मंदिर बंधावी. तेमां तेमनी मूर्ति स्थापनाकरी, वस्त्राभूषण, गंध, धूप, पुष्प, दीपे करी अष्ट प्रकारी, सत्तर प्रकारी आदि पूजा करवी, तेने ज कही शकाय.
(१९) श्री प्रश्न व्याकरणमा फरमान छे के निर्जरना अर्थी साधु 'चेइयढे अर्थात् जिनप्रतिमानी, हीलना, तेना अवर्णवाद तथा तेनी बीजी पण आशातनाओनुं उपदेश द्वारा निवारण करे छे.
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
(२०)
श्री आवश्यक मूळ सूत्र पाठमां
'अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं ।"
एम कही, साधु अने श्रावक सर्व लोकमां रहेली श्री अरिहंतनी प्रतिमानो काउस्सग्ग बोधि बीजना लाभ माटे करे
एम कह्युं छे.
44
(२१)
-
'थयथुइ मंगलं ।'
स्थापनानी स्तुति करवाथी जीव सुलभ बोधि थाय छे, उतराध्ययन सूत्रमां लख्युं छे.
२३७
(२२)
श्री अनुयोग द्वार तथा श्री ठांणाग सूत्रमां चारे निक्षेपा तथा दस प्रकारना सत्योनुं वर्णन करेलुं छे, तेमां स्थापना निक्षेप तथा स्थापना - सत्य पण आवी जाय छे. तेनाथी पण स्थापना एटले मूर्ति मानवानुं सिद्ध थई जाय छे.
एम श्री
कदाग्रह रहित बुद्धिमान पुरुषोने मात्र ईशारो ज बस छे सूत्रना सेंकडो पाठोमांथी मात्र आटलाज पाठो आपवा अहीं उचित जणाय छे. विस्तार भयथी वधु पाठो नथी आप्या, छतां बीजा पण केटलांक प्रमाणो प्रसंगोपात विचारी शुं ते उपरथी विवेकी वाचक वर्ग यथार्थ निर्णय करी शकशे. जैनोमां मूर्ति पूजा परंपराथी न होत, तो ते मूळ सूत्रोमां आवी क्यांथी ?
दुनियामां दरेक नामवाळी वस्तु पोतपोताना अमुक गुणो करीने संयुक्त होय छे, तेम "मूर्ति" नाम धरावनारी वस्तु पण कोई रीते निरर्थक नथी 'मूर्ति' शब्द पण तेमां रहेल वस्तुनो यथार्थ बोध करावे छे.
'पत्थर' शब्द बोलवानी साथे तेमां रहेला काठिन्यनो बोध थाय छे. तेम 'मूर्ति' शब्द मूर्तिमंत परमात्म-स्वरुपनो बोध करावे छे तेमज मूर्तिनो जे आकार होय छे, ते पण मूर्तिमंत परमात्म सदृश होय छे. एटले श्री जिनेश्वरदेवना बाकीना त्रण निक्षेपा जेटलो ज उपकारक आ चोथो निक्षेपो
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
पण छे ज, बलके चढीयतो छे, एम बाळ जीवोनी अपेक्षाए कही शकाय . आथी नक्की थाय छे के ज्यां सुधी मूर्तिमंत विश्वनुं अस्तित्व छे, त्यां सुधी मूर्तिनुं अस्तित्व छे ज ते पछी कोई कदाग्रहने वश थईने के मतना एकान्त ममताने वश थईने तेनो अपलाप करवा प्रेराय तेम छतां तेवा मानवोने पण आत्मोकर्ष काजे कोई कोईने आलंबन तो लेवुं ज पडे ते सर्व विदित छे.
(२३)
श्री जीवानुशासन नी टीका मा. पू. आ. देव. सूम. जगावे छे. xx यः किल लौकिकैर्निजदेवकुले वास्तुविद्योक्तप्रासादादिः कार्यते सोऽस्माकमपि देवसदने विधीयते, न तत्र मिथ्यात्वम् x x
लौकिक पोताना देवालयोमां वास्तुविद्यामां कह्या मुजब जे मंदिर वगेरे करावे छे, ते आपणा पण देवमंदिरोमां (दहेरासरोमां) कराय छे, तेमां मिथ्यात्व लागतुं नथी.
(२४)
श्री स्तवपरिज्ञामां जणाव्युं छे.के
णिप्फन्नस्स य सम्मं तस्स पइट्ठावणे विहि एसो । सठ्ठाणे सुहजोगे अहिवासणमुचियपूयाए ॥२३॥ चिइवंदण थुडवुड्डी उस्सग्गो साहु सासणसुरीए । थयसरणपुयकाले ठवणा मंगलपुव्वा तु ||२४||
सम्यग् रीते तैयार थयेला (बिंब) नी प्रतिष्ठा करवामां विधि आ प्रमाणे छे के - योग्यस्थानमां, शुभयोगमां, उचितपूजा - पूर्वक अधिवासना करवी. ॥२३॥ चैत्यवंदन, वधती जती स्तुति, शासनदेवीने उद्देशीने योग्य रीते कायोत्सर्ग, स्तवपाठ, नामस्मरण, पूजा अने योग्य समये मंगल (करवा) पूर्वक स्थापना करवी.
(२५)
श्री प्रतिष्ठा कल्पमां ग्रंथकार श्रीए जणाव्युं छे के
x x सर्वाङ्गीणतदुपकरणमीलन- नानास्थान श्रीसङ्घगुर्वाकारण - प्रौढप्रवेश
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा महादितत्स्वागतकरण-भोजनवसनप्रदानादि-सर्वाङ्गीणसत्कारण -बन्दिमोक्षकारण-मारिनिवारणावारितसत्रवितरण-सूत्रधारासत्कारस्फीतसङ्गीताद्यभिनवादभुतोत्सवावतारणादिरष्टादशस्नात्रकरणादिश्चxx
संपूर्ण रीते ते (प्रतिष्ठा) ने योग्य उपकरणो एकठा करवा, विविधस्थानना श्री संघो अने गुरुभगवंतोने आमंत्रण पाठववा, प्रभावक प्रवेश महोत्सव वगेरे पूर्वक तेमनुं स्वागत करवू. भोजन-वस्त्रप्रदान वगेरे. सर्वविधसत्कार, केदीओने छोडाववा. शिल्पी (मंदिर) आदिनानुं बहुमान करवू. आकर्षक आहलादायक सुंदर संगीत वगेरे अद्भुत महोत्सव आयोजवा वगेरे अने अढार प्रकारना स्नात्र (अभिषेक) करवा वगेरे.
(२६) श्री जिनबिंब प्रतिष्ठा विधि षोडशकमां ग्रंथकारश्री पू. हरिभद्रसूरीश्वरजीए जणाव्युं छे के
निष्पन्नस्यैवं खलु जिनबिम्बस्योदिता प्रतिष्ठाशु दशदिवसाभ्यन्तरतः सा च त्रिविधा समासेन ॥८॥१॥ भवति च खलु प्रतिष्ठा निजभावस्यैव देवतोद्देशात् स्वात्मन्येव परं यत्स्थापनमिह वचननीत्योच्चैः ॥८।४।। बीजमिदं परमं यत्परमाया: एव समरसापत्तेः स्थाप्येन तदपि मुख्या हन्तैषैवेति विज्ञेया ॥८।५।। मुक्त्यादौ तत्त्वेन प्रतिष्ठिताया न देवतायास्तु स्थाप्ये न च मुख्येयं तदथिष्ठानाद्यभावेन ॥८६॥ बीजन्यास:सोयं मुक्तौ भावनिवेशतः परमः सकलावञ्चकयोगप्राप्तिफलोभ्युदयसचिवश्च ॥८।१३।। अष्टौ दिवसान् यावत् पूजाविच्छेदतोस्य कर्तव्या
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दानं च यथाबिभवं दातव्यं सर्वसत्त्वेभ्य ॥८।१६।।
आ रीते तैयार थयेल जिनबिंबनी प्रतिष्ठा झडपथी दश दिवसनी अंदर करवी जोईए एम पूर्वाचार्यो द्वारा कहेवायेल छे. ।।८।१।।
देवताना उद्देशथी पोताना आत्मामां ज आगमोक्त रीते पोताना ज भावनुं जे अत्यंत श्रेष्ठ स्थापन थाय ते ज अहीं प्रतिष्ठा थाय छे. ॥८।४।।
जे कारणे परम समरसप्राप्तिनुं आ (=स्वात्म-स्थापना) परम कारण छे. स्थाप्यनी साथे पण ते समापत्ति बीज छे, ते कारणे आ (स्वात्म प्रतिष्ठा) ज मुख्य जाणवी ॥८॥५॥
परमार्थथी मुक्ति वगेरेमा प्रतिष्ठित देवतानी (पोताना आत्मामां प्रतिष्ठा)न ज थाय. प्रतिमामां प्रतिष्ठा मुक्य नथी ज, कारणके तेमां मुक्तात्मानुं अधिष्ठान वगेरे नथी होतुं. ॥८६॥
न्यास समये सम्यग् रीते सिद्धस्मरणपूर्वक, मुक्तिमां वीतरागना स्थापननी जेम मनथी (प्रतिमानुं) संग विना स्थापन करवं. ॥८।१३।।
प्रतिष्ठित बिंबनी आठ दिवस सुधी खाडो पाड्या विना पूजा करवी अने सर्वजीवोने संपत्ति अनुसार दान आपq जोईए. ॥८।१६।।
श्री शिल्परत्नाकरमां जणाव्युं छे के प्रतिष्ठा वीतरागस्य जिनशासनमार्गतः । नमस्कारैः सूरिमन्त्रैः सिद्धकेवलिभाषितैः ॥१३/८७
जैनशासननी रीति प्रमाणे वीतरागप्रभुनी प्रतिष्ठा नमस्कार (वगेरे मंत्रो) द्वारा अने सिद्धकेवली भगवंतोए कहेला सूरिमंत्र द्वारा थाय छे.
(२८) श्री शत्रुजय माहात्म्यमां ग्रंथकार श्री धनेश्वरसूरीश्वरजी म.सा. ए जणाव्युं छे के
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
यत्र यत्र प्रतिष्ठा स्यात् देशेऽथ नगरेऽर्हताम् ।
तत्र तत्र न रोगाः स्युं न दुर्भिक्षं न वैरिता ।। ५/५०४
जे-जे देश अने नगरोमां अरिहंत परमात्मानी प्रतिष्ठा थाय छे, ते-ते देश नगरमां रोगो पेदा थता नथी, दुकाळ पडतो नथी अने दुश्मनावट थती नथी.
२४१
(२९)
श्री धर्मरत्नकरंडकमां जणाव्युं छे के
विधाप्य विधिना श्राद्ध:, सुन्दरं जिनमन्दिरम् ।
तत्र बिम्बं प्रतिष्ठाप्य पूजयेत् प्रतिवासरम् ॥४७
श्रावक विधिपूर्वक सुंदर जिनमंदिर बंधावीने तेमां प्रतिमानी प्रतिष्ठा करावीने दररोज पूजा करे.
(३०)
श्री श्राद्धविधिवृत्तिमां ग्रंथकार श्री रत्नशेखरसूरीश्वरजी म.सा. ए जणाव्युं छे के
xx प्रतिष्ठानन्तरं च द्वादश मासान् विशिष्टि च प्रतिष्ठादिने स्नात्रादि कृत्या सम्पूर्णे वर्षे अष्टाह्निकादिविशेपूजापूर्वमायुर्ग्रन्थिबन्धनीयः उत्तरोत्तरविशेषपूजा च कार्याx x
प्रतिष्ठा पछी बार महिना सुधी अने विशेषे करीने (वार्षिक) प्रतिष्ठा दिवसे = सालगिरि वखते वर्ष पूरु थये छते अष्टाह्निका महोत्सव वगेरे विशेषपूजा पूर्वक वर्षगांठ उजववी अने उत्तरोत्तर विशेषपूजा करवी.
(३१)
श्री उपदेश तरंगिणीमां ग्रंथकार श्रीरत्नमंदिर गणिवर श्रीए जणाव्युं छे के ये कारयन्ति जिनमन्दिरमादरेण, बिम्बानि तत्र विविधानि विधापयन्ति । सम्पूजयन्ति विधिना सततं जयन्ति, ते पुण्यभाजनजनाः जनितप्रमोदा: ।।
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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा जे व्यक्तिओ आदरपूर्वक प्रभुजीना जिनालयो बंधावे छे तथा विविध बिंबो करावे छे, विधिपूर्वक ते बिंबोनी पूजा करे छे, ते जगतने आनंद पमाडनारा लोको पोते पण जय पामे छे.
श्री भक्ति बत्रीशीमां ग्रंथकार श्री महोपाध्याय यशोविजयजी महाराजाए जणाव्युं छे के
इत्थं निष्पन्नबिम्नस्य प्रतिष्ठाप्तैस्त्रिधोदिता । दिनेभ्योर्वाग्दशभ्यस्तु व्यक्तिक्षेत्रमहाह्वया ॥
आ रीते तैयार थयेला बिंबनी प्रतिष्ठा वधुमां वधु दश दिवस पूर्वे शास्त्रकारोए करवानी जणावी छे अने ते प्रतिष्ठा व्यक्ति = (कोई एक भगवान) क्षेत्र = (चोवीश जिन) अने महा (=१७० जिन) आम त्रण प्रकारे छे.
जिनमन्दिर जाने का अपूर्व फल संपत्तो जिणभवणे पावइ, छम्मासिग्रं फलं पुरिसो। संवच्छरिग्रं तु फलं, दारदेसट्ठियो लहइ ॥
अर्थ-श्री जिनभवन को प्राप्त हुअा पुरुष छह मास के उपवास का फल प्राप्त करता है और द्वारदेश अर्थात् गभारा के पास में पहुँचा हुआ पुरुष एक वर्ष के उपवास का फल प्राप्त करता है ।
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तएणसा दोवई रायवरकन्ना जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छड़ता जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ (जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ ... २ ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पविसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ २ जेणेव
जिणघरे तेणेव उवागच्छइ २ जिणघरं अणुपविसइ २ जिगपडिमाणं आलोए पणामं करेइ २ लोमहत्थयं परामुसइ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ२ तहेव भाणियध्वं जाव धूवं डहइ) २ वामं जाणुं अञ्चति दाहिणं जाणुं धरणियलंसि णिवेसेति २ तिक्खुत्तो मुद्धाणं घरणियलंसि नमेइ २ ईसिं पच्चुण्णमति करयल जाव कट्ट एवं वयासी-नमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं वंदइ नमसइ २ जिणघराओ पडिनिक्खमति २ जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ ।। सूत्रं १२५ ॥
'जिणपडिमाणं अच्चणं करेइत्ति एकस्यां वाचनायामेतावदेव दृश्यते, वाचनान्तरे तु ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मज्जणधराओ } पडिनिक्खमइ २ जेणामेव जिणघरे तेणामेव उवागच्छति २ जिणघरं अणुपविसइ २ जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेड २ लामहत्यय परामुसइ • २ एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेति तहेव भाणियब्वं जाव धूवं डहइत्ति इह यावत्करणात् अर्थत इदं दृश्य-लोमहस्तकेन जिनप्रतिमा: प्रमाष्टि . सुरभिणा गन्धोदकेन स्नपयति गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति वस्त्राणि निवासयति, तत: पुष्पाणां माल्यानां-ग्रथितानामित्यर्थ: गन्धानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां
चारोपणं करोति स्म, मालाकलापावलम्बनं पुष्पप्रकरं तन्दुलैर्दर्पणाद्यष्टमङ्गलालेखनं च करोति, 'वामं जाणुं अछेड़त्ति उत्क्षिपतीत्यर्थ; दाहिणं जाणुं धरणीतलंति निहट्ट-निहत्य स्थापयित्वेत्यर्थ; तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणीतलंसि निवेसेइ-निवेशयतीत्यर्थ; 'ईसिं पच्चुन्नमति २ करतलपरिग्गहियं अंजलिं मत्थए कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहताणं जाव संपत्ताणं वंदति नमंसति २ जिणघराओ पडिनिक्खमइत्ति तत्र वन्दते चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन नमस्यति पश्चात् प्रणिधानादियोगेनेति वृद्धाः।।
न च द्रौपद्या: प्रणिपातदण्डकमात्रं चैत्यवन्दनमभिहितं सूत्रे इति सूत्रमात्रप्रमाण्यादन्यस्यापि श्रावकादेस्तावदेव तदिति मन्तव्यं, चरितानुवाटरूपत्वादस्य, न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भवन्ति, अन्यथा सूरिकाभादिदेववक्तव्यतायां बहूनां शस्त्रादिवस्तूनामर्चनं श्रूयते इति तदपि विधेयं स्यात्, किञ्च-अविरतानां प्रणिपात-दण्डकमात्रमपि चैत्यवन्दनं सम्भाव्यते, यतो वन्दते नमस्यतीति पदद्वयस्य वृद्धान्तरव्याख्यानमेवमुपदर्शितं जीवाभिगमवृत्तिकृता-“विरतिमतामेव प्रसिद्धचैत्यवन्दनविधिर्भवति, अन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकायोत्सर्गासिद्धेः ततो वन्दते सामान्येन नमस्कोति आशयवृद्धः प्रीत्युत्थानरूपनमस्कारेणे' ति किञ्च- “समणेण सावरण य अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा । अंतो अहो निसिम्स य तम्हा आवस्मयं नाम ॥ १ ॥" तथा जण्णं समणो वा समणी वा सावओवा साविया वा तच्चित्ते तल्लेसे तम्मणे उभओ कालं आवस्सए चिट्ठति तत्रं लोउत्तरिए भावावस्तर अमन श्रावक चावश्यं कर्तव्यं भवति यस्मात् । अन्तरहो निशायाच तस्मादावश्यकं नाम ॥१॥ यत् श्रमणो वा श्रमणी वा श्रावको वा श्राविका वा तच्चित्त: तन्मना: तल्लेश्य: उभयस्मिन् काले आवश्यकाय तिष्ठति तत् लोकोत्तरिकं भावावश्यकं] इत्यादेरनुयोगद्वारवचनात् तथा 'सम्यग्दर्शनसम्पन्नः प्रवचनभक्तिमान् षड्विधावश्यकनिरत: षट्स्थानयुक्तश्च श्रावको भवती' त्युमास्वातिवाचकवचनाच्च श्रावकस्य षड्विधावश्यकस्य सिद्धावावश्यकान्तर्गतं प्रसिद्ध चैत्यवन्दनं सिद्धमेव भवतीति ॥ सूत्रं १२५ ॥
(४४) ज्ञाता धर्मकथा जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-१
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टीका
का पाठ
२४३
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२४४
परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
(४५) प. पू. आत्मारामजी महाराज का
हस्तलिखित पत्र
सन्मार्ग संस्थापक आ. विजयानंदसूरिजी महाराजा (स्थानकवासी नाम आत्मारामजी म.) द्वारा स्वहस्ताक्षरो में लीखित सूत्रों के मूलपाठ में न होते हुए भी स्थानकवासी मान्य अनेक बातें।
RExaminaeemerole
umpihroom-
NREMEMA70*22:
11:Mitr
पारस्तगवतक९२) गुल करत
ma
-
-
.
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.
RANAEL दिन
andinew
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.
जनस्व स्वामी के जीवन यापला सामना के जवान मुनियों को। चालक दान दिया कहलव ) सूके मूलपाईने कहा ?
किल्लवस्त्वानोकोजावनापूर्वजनमे नेलीको आहरका अतराय १. सहायान्सवात ताबकरके न्यायवधतक नखे रहें कहते सो
लोकमलदेवस्वामान बंधादनका तय करके कारले १०८)के तुरसेके
पीये करते से २)सन के मूलयामें कहर ... या अपनदेनस्वामीकारसमें पारणा कराने वाली नकस
हमारका पूर्वजकका सबध कस्तो माँ बर) स्त्र के भूलपाठमें करू? मालापनदवास्वामीकादिक्षावाद मरुदेवी माताको रोते रोते आरयो
ने पडल लागये!' कहतक से सत्रके पूलपाने को है न निरुदेवा नाताने (६३००) वाहायोदेखी करते सौ)
साय.'
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ- २
८
बैंवेही
मे
श्रीरुषदेव स्वामी जी की माता मरुदेवीजी हाथी हो पर माह गये.
श्री
कहते हो सो (३२) सूत्र के मूह में कहाँ है? श्रीरुष-नदेव स्वामी की पुत्री ब्राह्मी
सो (३२) सूत्र के मूल पाठ में कहाँ है ?" श्रीरुषनदेव स्वामी के पुत्रन्तरता जी को जीव ने पूर्व नवमे (१००) मुनियों को चाहारला कर दिया कहते हो सो (२) सूत्र के मूलपाठ में कहाँ है ?११ श्री रूपनदेव स्वामी कापुत्र बाऊबलजी का जाना पूर्वभव में (५०४) "मुनियों की वैय्याक्च करी कहते हो स) (३५) सूत्र के मूल कड में कहा है? जीमोर १२ -जीरुषस्तदे व स्वामी के पुत्र भरत व ऊचलजी युद्ध ऊना' कहते हो सो (३२) सूत्र के मूलफ5 में, कहाँ है ? -
श्री
का
बा अब ल जी
च स्वामी के पुत्र (९) वर्षतक का उस्सग्गमें बी रहे। ऐसा
२
.१०.
२४५
कुमारी रही' यह कहते ह
श्रीरु,
कहते हो स), (३२) सूत्रके मूलपाठ में कहा है
श्छ काउ रसगगमें रखतेइये बाऊबल को ब्राह्मी सुंद्री नेटवीरा मेरो
1124
'गज थकी उतरौ?” कहा' एसा कहते हो सो(३२) सूत्र के मूल पाठ में कहा है श्रीभरत चक्रवती के रसोडे में दश लाखमो ऐसा कहते हो तो (५२) सूत्र के मूल पाठ मे कहो है?
नित्यलगताथा.
१६. श्रीनरतेजी की आरी साजवन में अंगठी गिरी- ऐसा कहते हो सो बत्तीस सूत्र के मूलवाहमें कहो
'केवल ज्ञान होने के बाद
१७ श्रीजश्राजी के देवताने साधुका भेषदिया' कहते हो सौ (३२) सूत्र के मूलपाठ में कहा है?
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परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
चरतजीका
साधुपलेको नेपदेखके उनकी राणीयांसी कस्तोमा पासूनके मूलपाहमें कह है?--
M
ARA-..
पाव
.... पूनम यातनजसनेसोलोभिशातिनाथजीकाजीव मेघरयराजाची दूपरेवडाकबूतर) बचाया करते सो)मूलमत्रके कहर नियम करके भाइजानेवाले बलदेव रामजी और बासुदेव मुनिसुन्नतजाके वासनः
EिRE बलिदमलजीकृये है उनका विस्तार सहित आध्वर्यजनक
अधिकार कस्तो मोसूत्र के मूलगामें कहे? शालक्ष्मण जी की प्राताका नामा सुमित्रा कहते हेमा कोमलयामें कहा सनरावलको सोने कोल कोकहोमोशनके मूलपामें कहा है? नारद रावणकलाईयांकानामा कुलकणे और बिनीषण या ऐमा कहते
काही सो ) मनके मूलपा कहते ............. रिष्ठ राजलकी बहिनकानाम सूर्यनारसा कहतहोम इस्लकेमूलपाठमें कहा है
२प रावलका बहनोई खरदूषण कहते है सो)सत्रकेमूलपाळमें का? नारमा रावलकीरालीका नाममदोदरी कहतेस ३१)मलके मूलपामें कहा? अरावल के पुत्र का नामझात कहतेशे सत्र के मूलपाठ में कहे।
रामनंजीकी राती सीता सतीकु रावण हरकें लेगया कहते । सो. ३) मंत्र के पूलपाठ में कहा ........
लासा ३२) सूत्रके फूल पाहमें कहा?
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-२
२४७
लना,फापति
कहतहासौन्ली
के मूलपाठ,
केवता
रावण मरके चोपानरक गया कहतेरेसादासत्रकेमूलपाने कहा र राव नाई कुलकर्ण और पुत्र रंजीत परके मोक्षगये कहते हो मोर --(२) सूत्र के मूल पाहमें कहा है?--- श ननंजय और मातीअंजनासुंदरीका चरित्र और उनकापुत्र रुनुमान का चरित्रा शमा मात्र में कहा है
शता के वरात्रीसभातीर्थकर श्रीनेमिनाथजी और राजामतिमा
और नवलवका संबंध के सानका सविस्तर शिसूत्रक मूलपाठ का है? र राजामता का नाम उग्रसेन कहते हे सागसत्रके मूलपामें कहा? विपरिहतेचीने पस्त्रीयोकु त्यागी कस्तो गाररशमत्रके नलया में कहा? पिनमा सलवासुदेवकेषिती नासुदेवजी का जीव पूर्वलवमें नंदिरेणनामा
या और तिसने साधुलीकी देश्यानकरी' ऐसा कहते सोना (अ) सूत्रके मूलपान में कहा है ?
....... वसुदेवजीको ७२०० बाय हाईकहते हो साइ) सत्र के मूलपावों को है?
नमाना या प्रजुकी वखतमे (प)कोड यादव कहते हो सो ३२) सूत्रके मूलपाठ में कहा है .... ... श्री कृष्णा जीको वसाई की प्रारिका नगरीके अंदर (७२) कोइघरा कहते हो सार) सूत्रके मूल पाठ में करु
वारिका नगरी के नाहिर(६) कोघर कस्तो मा(३२)सूत्रके मूल पामेक है? पर जरासंध प्रति वासुदेन की बेटी जीवया कहते हे सौ ३१) सूत्रके
मूलपाठ में कहे .........
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२४८
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परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
नेमिनायाप्रनुके चरणजलसेंजरा विद्या भागाईसा कहतेको सो
३) सूत्रके मूलपाठमें कहा है?------ र जरासंघके कालीकुमारादिप)बेटे यादोंके नागजाने पर लीचीछे आये कहतेसा) सूत्रके मूलपाठमें कहा?... यादोंकी कुलदेवीने कालीकुमारकुंबला' एसा कहते
सागसूत्रके मूलपाठ करते? छप श्रीकृष्णजीकापुत्र प्रद्युम्नकुमार हरगया कहते हो मो:३२)
सूत्रके मूलपाठ का है। ध६ श्रीकृष्णजीका पुशबकुमारका सविस्तर)मत्रके मूलया
चरित्र कस्तो सोनी विमें कहां है?
कोरवालाको युमाविककी सविस्तर कथा कहतेहो सो३२) नसूनकमूलयाकत सपा में नही तो तुमको किसने बत
लाई और बतलाने वाले की सत्यवादमानही कि नहीं। Pायाचनाणस्वामीजी के दशलवकहते हो तो पहिलनवमें
लिके नवजवतक का मासुकृत किया, और तीर्थकरपद कैसे
मिलायाइनकासविस्तराधिकार सूत्रकेमूलपाहमें कहा? यएनीकाञ्चनायजीने कम तापस का जलताका कारलकड़)
में से निकालके नागनागिनी बचाया करते हो सो ३२) सूत्रको
मूलपाहमें कहते पण- श्री पार्श्वनाथजी की स्त्री का नाम प्रजावती करते हो मो (३२)
सूत्र का मूलपाने का ? जब यह बात तुमे रे मा.न्य सूत्रों में... हैन हा तो पितुरा मत ही क्या कुवा अति कुलजीनही ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-२
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पादिक्षा लिये बाद कायोत्सगो रवानीपार्श्वनाथजीकुं
कमवतापसकाजीव प्रेमनालीदेवकेलवैसें आयके जलवों दिक उपसर्गकिये कहतेोमोस)सूत्रके मूलपाठ में कहा है
2ीर..
-
-
पर श्रीवीर जावंतकी माता त्रिशलाराली डामराजाकीबहि
नयोऐसा करते हो सोशस्त्रके फूलपाठ करूं ...... परमीमहावीर स्वामीकेलवकल्तेरोसो)नके पूलपाउमें कहा?
नामवीर स्वामी का जन्मोत्सवा६)शेने मेरुपर्वत पर किया. तबअंगुठे सेंदबाकर मेरुपर्वतकं कंपाया करतेतो सो). के मूलपाहमें कोहर ..
....... मा-श्रीमहावीर स्वामिका जमाली जाणजोकहतेसेसोस)सत्रक मूलपाठमेकहा है पनमालीकुंवारप्रनुकाजमा कस्तेहसागसत्रकेतूलपाने की पण मीश्रीमहावीरस्वामीजीकीबेटीको ढंकनामानावकने समजाई को
करतेफोसो (३)मनके मूलया में कहे------ पवारलगवाने को दीक्षालाये नाद'संप्रदेवताने घोर उपसर्ग किला
कहतेहो मो३) सूत्रके मूलपाठमें कहा है पर श्रीमहावीर स्वानाके कानने गोवालीयेने खीले के ऐसा कहते
ही सो, ३२) सूत्रके मूल पाठ कहाधि
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‘परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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विचकोशिकनामका सप्पजनवारलवावंत को इसने लगा तब दालनीस्वामताका दृष्टिविम नाशिमा सवा
जगवूतने बुजबुज क्र पनि प्रतिबोधकिया कहतकोसोव) सूत्रके मूलपाठमें कहा है सादर झीमहावीर को चतुमासमतपका पारणेनं पूरणसे ने उनके
बाकलेदीने करते सोशास्त्रकेमूलपाने कांदा रात्रीचारप्रजुनेरहाचोमासेनालंदेयाने किकस्तो सीमास्त्रक
मुलपाटने कहा --------------- रिचरलबालादधिचाहत राजाकी बेटी कस्तो सो)सूत्रके मूला
पातिकहाले यिनिंदानबालाघलासेके घरमें रती कहतेसमोर नत्रके मूलया पनि कता है। দত্ৰৰংললাললাললালালাবালছাসনকাকাকোলা’ই।
कले लोशन के मूलपाठ में कहा मौलानहावीरस्वामी केवलज्ञातम्यवादसमवसरण आयकें
बादकीया करतेहो सो ३२) सूत्रके चूलपाठ में कहा है। श्रीमहावीर स्वामी ने दोकादिनसें लगाके केवलज्ञानका प्राप्तित करें
मामाचारभास दोभासादामी तपाका सवतिप स्नेहोसार सूत्रके मूल पाठमें कहा
दीवाली के दिनदेशके राजाने घोषधकिया कहते सिके मूलपाने की आज्ञापायका
नागौतम स्वामीजी देवशक्कुिंप्रतिबाध्ने को गये? क " র কীংহহ হসপুষদ"ছ"-~
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ - २
पावापुरीका
'के गवन्
७० हस्तिपाल राजा वीरगवंत कु वीनती करी चरम चोमा सा यहां करो??
ਧਰ
ऐसा कहते हो सो(३२) सूत्र के मूल पाठ में कहा है ?
निर्वाण के समय पर
श्री वीर भगवान् की जन्म राशि उपर दो हजार वर्षका नस्मग्रह बें
'ग' कहतेहो सो (३२) सूत्र के मूलपाठ में कहा है ?
२५१
श्री वीर भगवंत के निर्वालसे दीवाली चाली' ऐसा कहते हो सो (३२) सूत्र के मूल पाठनें कहां है?
ऐसा
रवती अधिकाने श्रीनवी जगवेंत के वास्ते को लापाक वाया कहते हो सो (३२) सूत्र के सूला 16 में कहा नामी का तथा अन्यगलबरों का परिवार मूलपाठ में कहाहे ?
'झाधु'
* जोजो व्यवधान होता गया लोकों चोवीशमा ७प श्री रुषशदेवप्रभु से लेके श्री महावीर पर्यंत { को सुनाते हो सो चोवी ना
तीर्थ
ष्ट्र के प्रांत रे (३२) सूत्र के मूलपाठ में कहाँ है ?
(३२) सूत्र के कहते हो सो
७६ श्री वीरप्रत्तुका नक्त श्रेणिकराजा चेडा महाराजा की पुत्री चेलला राली
सही छल करके व्याही कहते हो सौ (३२) सूत्र के मूलपाठ में कहां है ? ते हो, सौ. (३२) सूत्र के.
या था ऐसा.
७७ श्री बेडा महाराजाकी सातों बेटीयां
मूल या हमें कहा है?
७८ श्री बेडामहाराजा की पुत्री बेलगातें जोगियोंकुं जुत्तिये करके खि लाई कहते हो सो (३५) सूत्र के मूलपाठ में कह है ?
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२५२
७ ०
वीरगवान का श्रावक श्री
कहते हो सो
श्रश्रेलिक राजाका पुत्र, अजय कुमार की कथा (३२) सूत्र के मूल पायें कहां हो? श्रीलिक अर्थात पलीमाताका) श्री अजय कुमारने राजा की रालीयों का महल जला था, कहते हो सो (३२) सूत्र के मूलकक्ष में कहाँ है?
Yएक मुनिने,
श्रेणिकराजा क स मजा ने कु झगडबंब बजा या? ऐसा कहते हो सो (32) सूत्र के मूल पाठ में कहा है?
श्रेणिकराज, कपिला दोसी से दान दिवावे (ए) कालक कसाई से पांच से) भैंसे का मारएणअघकरावे। कारमीका पंचकण करे(३) और पुनिया आ बकसे सामायिकका फल प्राप्त करे (४) यहवार बो [सावीर प्रभु ने फुर माया, परंतु लि कुवानहिं तिससे तरक में जा नाही पए" ऐसा करू ते हो सो मूत्रपात्रले
परिशिष्ठ - २ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
॥मीजी का पूर्व नवमे जवदेवनाम और उनकी स्त्री नाम ना मिला। कहते हो सो (३२) सूत्रके मूलक में कहा है ? ८४ जंबु स्वामी की मात्रा का नाम धारणी और
नाम कुषा
कहते मोर) सूत्र के मूलया हमें कहाँ है? अबूस्वामीजीको आठ स्त्रीया ऊईऐसा कहते हो सो (३२) सूत्र के
हमें कहा है
अनुस्व
न्यांश
०का नाम, कहते हो सो (३२) सूनचे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-२
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जबूकुमारकीयाहस्त्रीयांने आकयाकही ऐसा करतेोमो मलके मूलपाठने कहा
-- स्त्रीयोंकीकणाओके उत्तरमें जंबूकुमारने पीछी लाठकणाकही।
रिसाकरतेहोसा)सत्रकेमूलपाठ कहा पए लीज कुतारके दायजेमिएएफ सोनेयेलाये कहतेश सोस सलके मूलपाव कला र
चोरupe) एमालोजन स्वाधीके घर चोरी करनेको प्रननालारनवाएं चोरोमा ...
चाहताया और जनमानीसें प्रतिबोधसमारहोकर सनि ।
साहित्य एकरी कहते सारासूनके मनपाठमें कहा जाएगानेनुस्वामासहितपरणकाएकर कहतहो सो भासा
मालक मल्लपावने कहा कि साएरलीजबूरचानी का साथ कास्क मूलपाध्में कहा गरिएताशीजबूस्वामीकानिनीयोछ (परमावधि(रामनःपर्यनार)
किवता)यहतीनज्ञानापुलाक)महारकरपायरुदोलब्धिा जीतपको उपशायदो श्रेणिक जिनकल्परको तीनप्रका रिक संयमरा मुक्ति यस्दश बोल व्यवछेदये कहते सोहि सौ(३२) सूत्रके मूलपाछमें कहा
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शालिलपका जीवने पूर्वज मे तपश्वा मुनिकों को खीर का दाहिया कहतेत मोरया मनवा पूलमाह में कहा
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परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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रएनीमल लिलया जानने पूर्वनियों का काम किया
और जीका नाश्वर्यजनकचरित्र लोकों को सुना। को कार faadके अनी काम नवाजा उहानिक इनका रचरिमानासूत्रके मूलपान তাশায়নিককালাঘলহাটীমান্তে
सलमान में कहा पहवाली शालिन के पिता का नाम-गोलश्करते हो मो(शमत्रके नू
मात्रावालिलपकी चाहत मुलधानानकीरा ऐसा कहतेोसो অহেতসকদহেদাছপাষ্ট। पालीवालिएका बताईन्सलाजीकहतेत भोसत्रके
मलाम कहते अरण्डीलावणालनएकी स्त्रीया करते है सो को मानवविवाद नशीशालिलाजा राजारोजएकएक स्त्री छोडतेथे कहते
साखरासन के पूरनपा ने कहाएपलाजीकोनाइ स्त्रीया ऊई करतेस से मासूत्रके मूलपाठकहते अरघान्लाजाने एकही दिन आठस्त्रीयोकुं त्यागी कहतहोमो ।
सत्रके मूलपाने का धन्ला ओरालिलपरकटीय संघारा कीया करते हो
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ- २
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श्रीधून
स्वप श्रीक
संथाराकी जगह पर शासिनकी माता गई?
णणा
माताजी ने के वास्ते
एवम काई सो मोक्ष नहीं गया' ऐसा कहते हो
aru:
गलिने
सों (32) १) सूत्र के मूल्याह में कहा है?
माताजी को देखने के वास्ते
धनाजी ने रख नही रम काई सो मोक्षगया ऐसा कहते हो सों (३२) सूत्र के मूल पाठ में कहां है?
प्रधिका हते हो सोनी
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शासन मे ॐ वा. जो
कहा है?
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ते ही सो (पूर) सूत्र के मूल
पाठ में कहा
पाठ में कहा है?
अच जायुमान हो के
सिंहगुफा वासी साधु वैश्या के चार स्ते नेपालदेश से रल कंबल कहते हो सो(इ) सूत्र के मूलपाठ में कहां है?
श्री वीर प्रभु के निर्वालवीछे ए८० वर्षे सूत्र लिखा था ऐसा क हते हो सो. (३२) सूत्र के मूल कठ में कहां है?
१०८ नारावर्षी कालयमा' ऐसा कहते हो सोद्र) सूत्रके मूलपाठ में कहा है ?
कहते हो सोनी कथा (३२) सूत्र के मूल मे
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परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
की
वही सातहजार शासगरचक्रवर्ती के दि )बेरेथे ऐसा कहते हो सो (३२सू
के मूलपा क र ----------------------- रागीर गंगालाया कहतेहभो(३)सत्र के मूलपाठ में कहा? सामने कमाना चोथा-नक्रती सनत्कुमार का पदेवने देवता मागे कहते सो(३२)सत्र के मूलपात्र में कहा है ? आठवां सुनूमचक्रवर्ति सातवां खरु साधने कोंगया कहते है।
मी (३२) सूत्रके मूलयामें कहा है? ---- ......! एमाबारनां ब्रह्मदत्तन्जक्रवत्ति को मारकर शाम के नूला
माह में कहा? १५ सिलवसालार)चक्रवति हुवे है जिसमें में रोचक जीवनी मोक्ष में गयकस्तो भाग ३२) स्कूल के मूलपाने कहा है?
मी अन्नशामलीकर) चक्रवतीयों को रिलतिकशास्त्र के पूर सालमाठ में कहा नजारा चक्रवतीयों की छावणाहनादशसूत्रके मूलपाठ
कहते हो सोना । का
NA
दER
POSदेवाजलदेवकी स्कितिकनिकर
रमीसा-जी.
र नववासुदेवबलदेवो की नगगरना शसत्रके मूलपा में कहा है।
का वनिकरते सोजी पारण तीनवप्रतिवासुदेव कोचिंतिम) सूत्रके मूलपाठ में कहा है? नव्र प्रतिवासुदेवेंका अवगाहना शस्त्र
लगाना) सूत्र के मूलपाठ का है? पर नाब नारदके नाम तणावनोकाचरित्रीश सूत्रके मूलपाठ में। की है
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PLEASE
AMI
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...AMAbi.
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ- २
छन् । एकादश रुद्रा
कहते हो सोनी
लिपाठ में कहां है?
बारह चक्रवर्ती, नव बलदेन, जव वासुदेव, नव प्रति वासुदेव, बल्सपुर में किस किस प्रभु के वक्त में और किस किस मनु के अंत रेमें जये इन का खुलासा (32) सूत्र के मूल पाठ में कहां है ? महाजीरगिष्य
ये ऐसा कहते हो सो भी
प्रसन्न चंद्र राजा, राज्य खोडकर राजबि
तंत्र के मूलपाठ में कहां है?
कह
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सूत्र के मूलपा6 में कल है ?
निमिराजन्का वृत्तीत,मुनरेवाका चरित्र, और जुगबाऊ का है सांगोपांग चरित्र (३२) सूत्रके मूलका में कहाहै? नैमि तापता
श्रीदढलमुनिको जन्म से लेके दीक्षा तथा मोक्षपर्यतका सर्व
त्रि (३२) सूत्र के मू
कहते हो सोनी
अधिकार (३२) मूत्र के मूलपाठ में कहा है ?
महावीर,
९२ए श्रीने तारजमुनि जातिके कौन थे और बुनियल कैसे प्राप्त कि
या यह सर्व अधिकार (३२) सूत्रके मूलपाठ में कहां है?
१२८ निरमोही राजा का अधिकार(३)सूत्रके मूलपाघ में कहा है? पुरोहितादिकके पूर्वजन्मका वृत्तांत (३२) मूत्र के मूलपाठ में
१३२
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कहते हो सो (३३)
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२५८
१२ भृगुपुरोदितनें अपने बेटे को बहकाया ऐसा कहते हो सो (३२) सूत्र के मूल पाठ में कहाहै?
१२३ कर्मयोगसें वेश्या के घर में रह करनी दिनप्रति देश देश जनकों प्रति वी.रू.. बोधुकरने वालों नंदिषेलका सविस्तर अधिकार (३२) सूत्र के
मूलया हमें कहा है?
१३४ स्वधक मुनि की खाल उतार
कहतेहो सो (३२) सूत्र के मू
लिपाठ में कराहे? 57
परिशिष्ठ - २ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
कमुनिके(४०९)चेले घाली में पीले' ऐसा कहते हो. सो(३२) सूत्र के मूलपाठ में कट
१३६ श्ररणकमुनिका अधिकार(३२) सूत्र के मूलपाठ में कहां है? १२७ आषादन्नु तिमुनिकाअधिकार (३२)सूत्रके मूलका घमें कहां है? ८ नटलीवाला आषाढभूति का अधिकार (३२) सूत्रके पूज पाहते कहाँ है ? तुए श्री सुदर्शन सेठ तथा अनयारालीका अधिकार (३२) सूत्र के मुलया में कहाँ है?
१४० एक नवमे (१८) नाते ऊये तिसकी कथा कहते हो सो (३२) सू त्रकेमूलपाठ में कहाहै?
जीर
एमर हरकेशी मुनिके पूर्वज वादक का अधिकार (३२) सूत्र के मूल
पाइमेक
क है?
दृढपणे शीलमानने वाले विजयशेठ विजया से डाली का वि
स्तारकाला चस्त्रि (३२) सूत्रके मूल पाठ में कहाँ है?
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-२
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रघरीचंद गुप्त राजाकुंआयेऊयेसोला स्वन्न,और उनके फल का अधिक
कार(३२) सूत्रके मूलयामें कहा है ------.. वनसाती सुलशजी किसकी बेटी और कह किसके साथ व्याही,
निया में सतीपाकीतसिक्कुिंकैसें प्राप्तनई यह सर्वअधिका गौर (३२० सून के मूलगामें कराए---------------- रपायला कल्याणकेवास्हे-हमेशां प्रातःकाल में स्मरण करते हो
उससोले सतीय के नाम ओरजनों का आश्चर्यजनक
सपूर्णचरित्र(३)सूत्रके मूलपाठ काट छह विष्णुकुमारकाचरित्र(सूत्रके मूलपाहमें कहा? trug एकनायरिसाध्वी महाविदेहसें मुरुपतिलेआ ऐसा करते
सो (२) सूत्रके मूलपाने कहां दिगंबर मत किसतसे कलनिकला संकाननिकिस तुमे
रामान्य शास्त्रमेहेबोध पाच आरेका जोजवा जैसालाकार कहतेफोमा(रासूत्र
कि पूलवामें कहा है११५० पांचवें भारे में सोसो वा महिलेका मायुष्यघटे ऐसा
करतेहो सो (३२)सूलाके मूलगामें कही ? सरमा पानवे नारे लगातेर वर्षका आयुष्या कहतेो सो इस
नके मूलपाठने कहा है पर पात्र मारेके डे सह साध रहगो ऐमा कहते हो मी रसूत्रकेन्मूलकाचोकहारे एक
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परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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पशपांचने आरके लेहडे एकही फलानी सामरहमी ऐसा करते
साइर) सूत्रके मूलपाठमें कहे? रिपपांचवे मारेके छेहडे एकही नागिलनामा श्रावकरहेगा' ऐ मा.
करतोसोरशसूत्रके मूलपाठने कहा है? सय पांचवें सारे के छेडे एकही ससनीनामा शानिकारहेगी ऐसा
कहते सो(३)सूत्रके मूलपाठ में कहा ?----
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परवदे गुलाएकाधार'जे हमेशपदते विचारतेको सो (३२)मत्र
कि फूलपाठने कहाने बधि हुयेक जीतको उदय में आते है सो उद्याधिकार(१२२)
प्रकृतिको करलेले मोर सनके भूलपाउने कार--- पजीन की के साथ धाक साकारसें करे सो बंधाधिकार' (३२)
र सत्रका मूलयाहरु कहिट - -- रमजान कका बंध करके कितनेक कालतक कायम पणे रस्के.
सासत्ताधिकार प्रकृतिका ३२ स्लिकेपूलयामें कर? जिसके योग में जीव पाणा काजाताले सोजीत्रके दशप्राण
सस्तके सूतया में कहा दरजीवके सीपहालेदकीय तागती(३०मूत्रकेमूलपाठने कहा है?
नासहिये का घोडा रचनेकी रीति(३२)सत्रके मूलपाछमें कहा सर्वलोकारनामा करते हो मो(३२)सनके मूलपाहमें कहा है?
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शापहेलीतरकरारज्जुकीकहतेहोसासूत्रकेमूलपाठमें कहा है? २६ नसरीनर कसेंएक एकरनुकीरहिकारती एसा कहते सार)
सत्रके मूलपाळमें कहा कहो?--- पासपूर्तपदवीधार" (३२) सूत्रके मूलपाहमें कहा है ?........... पर मिरगातार असंरत्यातादिक गिणती करम विनारसमजानेके वास्ते
कल्पना रूपसदिखायाऊवा-सलाका प्रतिसलाकामा सलाका अगस्तित(४)श्नचार प्यालकाअधिकार(३)
सलके मूल पाठ में कहर-------- जसर्वनारकीयांके पॉश, अंतरे, लालगाएंना स्विति, आदि का
लाधिकार रामनके मूलपाने का है रासीझनाधार वकालरासनके मूलयाऽमें कहा?
निरकका)परतलाशतररसूत्रके मूलपा करहेका और दिनलोककी पडतला उसलके मूलपाछमें कहा
.
१७२ जो पाचनविदेहविचरते हैं, और आपलोगनिनों की आज्ञाको मुख्यपररवके प्रतिक्रमणादिसक्रियाकर हो उनवीस
रमानों का सविस्तर अधिकार व स्त्र के मूलपाने काही "१७३ तीर्थकरोंकीपैंतीसवाणीजदीदी करतेो सोर) सूत्रके ,
मूलगामें कहा है ? ডালপালকগু’কটক্যংহাসপদক
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ও ওযwয়সৎসকৰে৭কিনেৰেসিল্ক সুবহাচট? - ११७६अचेलकउद्देशकादि साधुकादशप्रकारका कल्प' (३२) सत्र के
मूलपाठ करूं------ तपके प्रस्तान मुनियों को उसलतिईहावीसलब्धियों ,
का नाम तयागुणशसूत्रके मूलपाहमें कहा है ?... ------- १७ जेनरूपीकमरतका मूलसमान सर्वसुरेखाकुं प्राप्त करानेवाला
सम्पत्तके बोल सूत्रके शूलपाइमें कहा है ?--------- जए आवकप के शगुण'कस्तो सो(३२)मनके मूलपाठ करूं निवप्रा सामायिक इतकेरइशदोष' कहतेहोसो(३२) सूत्रके मूलपान कहालेर
.... र क उम्सगके(४)दोष करतेसो (३२)सत्रके मूलपाठमें कहा है?
असतायोका कालप्रमाण (२)सत्रकेमूलपाठमें कहा है?
..
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दीक्षादेतां चोरी उरवाड तेले सो (३२) सत्र के मूलपाइका कही?
माधुकुंछ महिन जोनकरणकहतेहमोसत्रके पलवा को मलाच करायके सर्वसाधुलोको वंदना करनी कहते
सारसासनके मूलपाहमें कहा है --------............. एपलधिकमासहवेतो पाचमहीने का नउमासा करना' का
ते मो(शासन के मूल कहले ?
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जलाइवा महिनामा दिनके पक्षिा करने ऐसा करते हो
सो) सत्रकालपाछमें कहा है?---------- एजाजपत्रिकमले में चार लोगरसका काठमग करना कहते
और करतेमारासत्रके मूलपाहमें कहा है एपरिकके पडिकलोमलालोगस्सकर काउसगाकरना कहते
और करते सो सोसलके मूलपाठने की एलोमासी पडिक्कमोनेलालोगस्तका काउस्मागकरना कहते है।
और करतेहोस शसत्रके मूलपाइने कहाकोट एएसवछरीपरिक्कमकलोगस्मका काठस्सगकरना करते
और करतेश मोइसूत्रके मूलपातकह कहते एरपरकीके पेवेक नेला करतेही माउरसत्र के मूलपाइमें कहा पासवळरीके ठकातेला करतोमा सत्रके मूलपाठने कहा था रएर साधुको लाहार करने के पातरे कालोलालघोले रंगने का
स्नेहसो (३२) सत्रके मूल पाठ करू काहे
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२६४
परिशिष्ठ-२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
मामूलनाडोयरसेला प्रश्नो।-----... कयबमाकुमारकोकधारासूत्रके मूलपाइने कहा है ? ....
वंतिसुकुमालका चरित्र (३२) सूत्रके मूलपाठ करूं? ।।ौली बलजमुनिने रेणकारसेंदान लिया, और भगक प्रतियोग
किया' कहतेतो.सोशमनके मूलपाठने कहा है ? ---- कामुराजाकीस्ता कतिका बेग की ऊना कस्तोमो (३२)सन के मूलपामें कहा है। युधिछिरदियांचयांकनोऽधनके साथजूएने सतिशेपदीयूलरी करते हे सारासूत्र के मूलपाव करे?
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गुजरांवाला (पंजाब) के ज्ञानभंडार से
प्राप्त हस्तप्रत की कोपी।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३
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स्थानकवासी भाई दिनेशकुमार जैन द्वारा प्रकाशित
___(मूर्ति पूजा विरुद्ध) (४६) जड पूजा या गुण पूजा का स्पष्टीकरण
- श्रीमान हजारिमलजी आपका पत्र दिनांक २७/८ को मिला है। मैं उसके पहले ही राजस्थान चला गया था सो अभी आयाहूंअतः अब जवाब दे रहा हूँ।
आपने शुरुआत में ही लिखा कि आपकी पुस्तक किसी सम्प्रदाय के प्रति रोष उंडेलने के लिये नहीं, परन्तु यह सत्य से परे है। आपने अपनी पुस्तक में मूर्ति पूजा मानने वालों को कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जगह-जगह जड़ पूजक, हिंसक, मिथ्यात्व आदि विशेषणों से पेट भर कर रोष उंडेला गया है।
जैसा कि आपने प्रकाश मुनिजी से सम्पर्क करने के बारे में लिखा। मेरा उन से परिचय है खींचन चौमासे में, जोधपुर चौमासे में मैं गया हूँ काफी विषयों पर चर्चा हुई भी है वे जानते भी है कि मैं मूर्ति पूजा की आस्था वाला हूँ और कई श्रावक भाईयों ने मुनि महाराज के कान भी भरे थे परन्तु इन मुनिराज ने न तो कभी मुझे हिंसक कहा न कभी मिथ्यात्वीकहा। शायद प्रकाश मुनि महाराज आप जैसे विद्वान नहीं है । ठीक इसी तरह स्थानकवासी आचार्य श्री हस्तीमलजी ने जैन धर्म का मौलिक इतिहास जो कि चार भागों में लिखा गया है इन्होंने मूर्ति पूजा संबंधी इतिहास भी इसमें काफी लिखा है साथ में मूर्ति पूजा को नकारा भी है परन्तु मूर्ति पूजा मानने वालों के लिए मिथ्यात्व आदि के विशेषणों से नवाजने का पढने में नहीं आया। शायद वे भी आपजैसी भाषा के ज्ञान से अनभिज्ञ थे। धन्य है आपकी बुद्धिमत्ता को। अब अपनी मूल बात पर आते है:1. भगवती सत्र के चमरेन्द्र के प्रकरण में आने वाले तीन शरण अरहंत वा अरहंत चेइयाणीवा, अणागारेवा, इनमें आपका और हमारा दूसरे शरण में ही मतभेद है। आपने चेइय का अर्थज्ञान करके चार ज्ञान वाले अरहंत करके अपनी मान्यता की पुष्टि की है यदि ऐसा होता तो शास्त्रकार छद्मस्थ अरहंत और केवली अरहंत लिख सकते थे परन्तु यह नहीं लिखा और अरहंत चेइयाणिवां लिखा जो कि अरहंत प्रभू की अनुपस्थिति में अरहंत प्रभू की प्रतिमा भी शरण का कारण है। चेइय शब्द का अर्थ जगह-जगह पर जैसे कि प्राकृत शब्द कोष, संस्कृत शब्द
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा कोष, में प्रतिमा मंदिर, समाधि स्थल ही लिखा है। ज्ञान कही भी नहीं । आपने भी अपनी इसी पुस्तक में पेज नम्बर ३ मे ठाणांग सूत्र का हवाला देकर अवधि ज्ञानी मनः पर्यवज्ञानी, केवल ज्ञानी लिखा है परन्तु यह नहीं लिखा कि अवधिचेइय, मन पर्यव चेइय या केवल चेइय नहीं लिखा। ठीक इसी तरह पेज नं. १४, २३, २४,२६, ४० आदि में जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र लिखा है न कि दर्शन, चेइय, चारित्र एवं ओहीणाण पेज नं. ८ (ज्ञान) न कि शास्त्र चेइय इन सभी जगह आपने ज्ञान को ज्ञान ही लिखा है। यहां आपने कहीं भी ज्ञान के लिये चैत्य शब्द का प्रयोग नहीं किया। आपने ठाणांग सूत्र के हवाले से भी ओहीणाण आदि का उदाहरण भी दिया। अतः अपके प्रमाणो से भी आप द्वारा दिए गए आगम प्रमाणों से भी ज्ञान को णाण (ज्ञान) ही कहा गया है। ज्ञान के लिए चैत्य शब्द नहीं है सिर्फ यहां ही अरहंत चेइयाणिवा की जगह ही आपको चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान समझ में आता है और इसी से आप अरहंत प्रतिमा के अर्थ को नकारते हुए अपनी मरजी का अर्थ कर मन पर्यवज्ञानी अरहंत ऐसा करते हैं क्योंकि यह अर्थ आपकी मान्यता के विरुद्ध जाता
करीबन पांच-छह वर्ष पूर्व जब पहली बार श्री प्रकाशमूनि महाराज से मिलना हुआ तो महाराज ने रात को प्रतिक्रमण के बाद बातचीत करने को कहा। हम समय पर गए बातचीत शुरु हुई शुरुआत में हमारी बात अरहंत या अरिहंत के शब्द से शुरु हई जो कि 10-15 मिनट में ही खत्म हो गई। इसके बाद सम्यक्त्व के भेद (समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय आदि) के बारे में चली जो कि करीबन डेढ घंटे तक चली। इसका क्या परिणाम आया इसके लिए आप कभी उन मुनि महाराज से मिलकर ही मालूम कर सकते है क्योकि मेरा लिखना आपके गले में उतरना असंभव है। रात को करीबन दस बजे गए थे। इस सभी चर्चा के अंत में उस समय चार-पांच श्रावक भाई जो प्रतिक्रमण करने आए थे उपस्थित थे। उनमें से एक माईजो कि शायद वकील थे.मुझसे पूछा गया कि आप इतना जानते हो तो मूर्ति पूजा क्यों करते हो ? मैंने उनसे इस विषय में चर्चा न करने को कहा फिर भी इन्होने बात को चालू की, जिसमें इन्होंने एक प्रश्न यह भी किया कि आगम सूत्रों में प्रतिमा का उल्लेख कहां है मैंने वहीं पर श्री प्रकाश मुनिराज आदि मुनि महाराज एवं चार-पांच श्रावक भाई और मैं और मेरा पुत्र सभी एकदम पासपास ही बैठे हुए थे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३
२६७ कहा कि आगमों में प्रतिमा का उल्लेख है या नहीं मुनि महाराज से ही पूछ लिजिए। यह कहकर मैं चुप रहा तब श्री प्रकाश मुनि महाराज ने जवाब दिया कि आगम सूत्रों में प्रतिमा का उल्लेख तो है, परन्तु प्रतिमा पूजा का उल्लेख नहीं है। मैंने जवाब दिया कि रात काफी हो गई है अतः आप प्रतिमा के अस्तित्व तक आ जाइये। पूजा के बारे में फिर कभी सोचेंगे।
श्री प्रकाश मुनि महाराज अभी जीवित है और वे श्रावक भाई भी जीवित है आप चाहे तो चित्तौड़जाकर या मुनि महाराज से पूछ कर तसल्ली कर सकते है।
श्री प्रकाश मुनि महाराज का यह उत्तर भी आपके लिए विचारणीय है परन्तु आपके लिए यह भी शायद निरर्थक ही होगा। क्योंकि आपकी पुस्तक और पत्र देखकर लगता है कि अरहंत भगवंत की प्रतिमा के विरोध की भावनायें आपके रगरग में घुस गई है, जिसका निकलना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है - आगे आपने मूर्ति को चोर उठाकर ले जाने, तोड़ देने संबंधी लिखकर प्रतिमा का प्रभाव नहीं शरण नहीं करके लिखा, जिसके उत्तर में मालूम हो कि स्वयं तीर्थकर प्रभू महावीर जब छद्मस्थ अवस्था में है, जिनका शरण स्वीकार्य कहा गया है। इन्हीं तीर्थंकर प्रभूमहावीर को अनार्य आदि कई लोगों ने क्या कम सताया है। क्या इनको मारा पीटा नहीं, क्या इनको कानों में कीले ठोककर कष्ट नहीं दिया गया ? क्या इनको चंड कौशीक ने डसा नहीं? क्या इनको देवता ने कष्ट दिया नहीं? इतनाहोने से क्या इनका प्रभाव खत्म हो गया ? नहीं, कदापि नहीं, भक्ति करने वाले भक्ति करते हैं और कष्ट देने वाले कष्ट देते है। अब आपके दूसरे पत्र का जवाब1. दशवैकालिंक सूत्र को हमने माना है मानते है और इसी कारण से मात्र अरहंत प्रभू की प्रतिमा पूजा को हीधर्मनहीं मानकर आगे बढ़ते ही है। अन्यथा आज भी जैन मूर्तिपूजा मानने वाले घर छोड़कर हजारों साधु साध्वी नहीं बनते।
मूर्ति पूजा मूर्ति अस्तित्व तो इसलिए है कि आज प्रत्यक्ष, साक्षात् तीर्थकर प्रभू नहीं है अतः इनकी अनुपस्थिति के कारण इनकी प्रतिकृति अर्थात् प्रतिमा के सामने गुणमान पूजा, भक्ति आदिकर आपकी भावनाओं की पूर्ति करते हैं। जिसका एक मात्र उद्देश्य तीर्थकर प्रभू के प्रति आस्था, अनुबंध, श्रद्धा उत्पन्न हो जो कि समकित की पुष्टि का कारण है।
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा श्रेणिक राजा का भगवान के पास जाने में जो भी जीवों की विराधना हुई है उसका पाप जो उसको भी लगा ही है, परन्तु उसके प्रतिफल में समकित की इतनी पुष्टि हो गई कि विराधना गौण हो गई। इसी तरह प्रतिमा पूजन में जो भी जीवों की विराधना तो होती है, उसका पापतो लगेगा ही, परन्तु सम्यक् दर्शन की पुष्टि इतनी हो जाए कि मिथ्यात्व का अंश भी न रहे और समकित क्षायिक हो जाए तो यह क्षायिक समकित विरति धर्म को लाने में देर नहीं करेगा और विरति धर्म आने पर इसके पूर्व किए हुए पापों को खुशी-खुशी सहर्ष तप आदि द्वारा उदीरणा कर अंत कर देगा। जिस तरह आप अपने पत्र में लिखते है कि चातुर्मास में मुनिराजों को वंदन करने जाने से जो पाप लगता है वहां सामायिक पचक्खाण आदि का लाभ भी होता
है।
ठीक इसी प्रकार मूर्ति पूजा में जो पाप लगता है वहां तीर्थंकर प्रभू की भक्ति पूजा आदि से सम्यक्त्व की पुष्टि इतनी होती है कि मिथ्यात्व का पाप दूर-दूर भाग जाता है। याद रखिये प्रतिमा, प्रतिमा पूजन (जो कि भगवान की अनुपस्थितिके कारण है) दर्शन शुद्धि का कारण है सामयिक पचक्खाण आदि चारित्र शुद्धि का कारण है। दोनों की शुद्धि से ही आगे बढा जा सकता है और आगे समवायांग सूत्र के बारे में रायपसेणी सूत्र के बारे में अचित फूलों के बारे में लिखा परन्तु आपके ही समाज द्वारा प्रकाशित समवायांग सूत्र में कहीं पर अचित शब्द नहीं है, जबकि आपने अचित शब्द बढाया है। प्रत्यक्ष प्रमाण है समवायांग सूत्र में तो स्पष्ट उल्लेख है कि जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि और थल में उत्पन्न होने वाले चंपा आदि फूल, इतना स्पष्ट होने पर भी अपनी मान्यता के विपरित प्रमाण आने से अचित शब्द जोड़कर लोगों को भ्रमित करना कैसान्याय?
क्या जल में उत्पन्न होने वाले फूल अचित होते है ?
इस प्रश्न को ही आपने उड़ा दिया। यदि ये फूल अचित वैक्रिय होते तो ये • शब्द वैक्रिय या अचित नहीं लिखकर और जल-थल-शब्द लिखकर आगम सूत्रों
की रचना करने वालों ने क्या भूल की है, जिसको आप जैसे विद्वान सुधार रहे है। धन्य है आपकी विद्वता को।
आगे आपने भगवान महावीर के बारे में लिखा कि दीक्षा लेने तक प्रवर्तियों में
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३ स्नान, फूल, जुलूस आदि धर्म से कोई संबंध नहीं और दीक्षा लेने के पहले वंदनीय पूजनीय नहीं होते। यहां आपने पूरा विषय ही बदल दिया है। ____ आपने प्रतिमा पूजन के पहले स्नान करना, स्नान हिंसा का कारण और ऐसा हिंसा का कार्य धर्म के लिए करना मिथ्यात्व है कर आपने लिखा है जिस तरह भगवान महावीर गृहस्थ अवस्था में ये सब करते है जिनको मिथ्यात्व नहीं कहा जा सकता, ठीक इसी तरह गृहस्थ भी पूजा करने के पहले स्नान आदि करता है तो उसे , मिथ्यात्व कैसे कहा जाए?
मूर्ति पूजा मानने वालों में भी साधु साध्वी जो है स्नान करते नहीं ? स्नान करना यह गृहस्थजीवन का प्रसंग है। जिस तरह भगवान ने दीक्षा लेने के बाद स्नान आदि त्याग दिया। ठीक इसी तरह मूर्ति पूजा मानने वाले समाज के साधु-साध्वी भी स्नान आदिकात्याग करतेही है।
और कोई भी मूर्ति पूजा मानने वालों में स्नान को धर्म मानकर नहीं परन्तु गृहस्थ का एक आचार मानकर और शरीर शुद्धि आदि मानकर ही करते है। जैसा कि भगवान महावीर ने भी दीक्षा लेने जाते वक्त गृहस्थ का आचार समझकर ही स्नान आदि किया है यदि यह आचार नहीं होता तो वे ऐसा करने का मना कर सकते थे। उनको जबरदस्ती तो कोई स्नान नहीं करा सकता था। पहाड़ों पर चढने त आपको जीवों का कचर घाण दिखता है परन्तु चौमासे में गुरुवंदन जाते वक्त कचः घाण नहीं दिखता धन्य है आपकी न्याय दृष्टि को ? और रात को 4-5 बजे यात्रा करना बैंडबाजों के साथ नगर प्रवेश करना यह सब अतिशयोक्ति पूर्ण ही है और शास्त्र विरुद्ध भी है। मूर्ति पूजक समाज में भी ऐसी कई प्रवर्तियाँ रुढ हो गई है जो शास्त्र विरुद्ध ही है। जिसका समय-समय पर विरोध होता रहा है हो रहा है, जिसके लिए कुछ पत्र - पत्रिकाए भेज रहा हूँ । अब बहुत लिखा जा चुका है अतः थोड़ा सा....और . .
याद रखिये ध्यान दीजिये कि जैन दर्शन का कोई भी समुदाय चाहे दिगम्बर हो, श्वेताम्बर हो, स्थानकवासी हो, मूर्ति पूजक हो, मौलिक सिद्धांत, लक्ष्य एक ही है मूलभूत सिद्धांत जैसे नवतत्व, निगोद, मोक्ष देवलोक, नरक आदि में कोई फर्क नहीं लक्ष्य में भी कोई फर्क नहीं, हेतू में भी कोई फर्क नहीं, सिर्फ लक्ष्क्षा पाने
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा की क्रिया विधि में फर्क है। यह सब विषमकाल की विडंबना है। अतः किसी भी समुदाय के ऊपर अनावश्यक दोषारोपण नहीं करते हुए अपने छोटे-बड़े भाई की तरह ही व्यवहार करना हम सबके लिए उचित है।
हम सभी तीर्थंकर प्रभू के ही अनुयायी है और हम सभी का लक्ष्य भी एक ही है। अतः यदि किसी विषय का विरोध करना पड़े तो उस विषय के हद तक ही रहना उचित है।
___ कुछ समय पूर्व मूर्ति पूजक समाज के कुछ भाईयों ने उदयपुर से एक पुस्तिका प्रकाशित कर स्थानकवासी मान्यता का विरोध आप की तरह ही किया था, जिसमें आने वाले शब्दों को लेकर हमने भी विरोध किया था। हमारा एक पक्षिय विरोध नहीं है और कुछ बाते हमारे कुछ पत्र-पत्रिकाओं से मालूम होगी।
भगवती सूत्र शतक पन्द्रह में गोशालक द्वारा भगवान महावीर के ऊपर तेजोलेश्या का डालना भगवान को तकलीफ होना, जिसके लिए सिंह अणगार द्वारा रेवती श्राविका के घर से औषध लाने के प्रकरण में - "मज्जार कडएकुक्कुड़मंसए"का उल्लेख है जिसका साधारण व्यक्ति के लिए अर्थ होगा कि मुर्गे का मांस ऐसे ही उल्लेख से आज से करीबन चालीस वर्ष पूर्व बौद्ध विद्वान धर्मानन्द कोशंबीने भगवान महावीरको मांस भक्षी करार दिया था, जिसका काफी विरोध हुआ था । इसी के संदर्भ में पन्यासजी श्री कल्याण विजयजी ने मानव भोज मीमांसा लिखी है। जिसमें प्राकृत शब्दों को आयुर्वेद शब्द कोष निघंटु आदि के प्रमाणों से समझाया गया है क्या ऐसे शब्द होने से भगवान महावीर को मांस भक्षण करने की हिमायत करेंगे? वास्तविक अर्थ यह है कि कुक्कुड़याने एक फल जिसे आयुर्वेद में बिजोरा कहते है उसके अन्दर का गाढ़ा पदार्थ, जिसको आयुर्वेद में प्राकृत भाषा में मंसं कहा जाता है, होता है।
___ भगवान महावीर को उस समय तेजोलेश्या की गर्मी से टट्टीयों (शौच) में रक्त आ रहा था, जिसके लिए मुर्गे का मांस उपयुक्त नहीं होता क्योंकि यह तो और भी गर्मी पैदा करता है, जबकि बिजोरा का फल ठंडक पैदा करता है। स्थानकवासी समाज के मुनिराज श्री सुशिलकुमारजी ने भी ततसंबंधी, छोटीसी पुस्तिका प्रकाशित की थी ! अतः द्रोपदी के घर में मांस संबंधी जो उल्लेख है उसका
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३ स्पष्टिकरण मानव भोजन मीमांसा में मिल जाएगा।
उदयपुर से जो पुस्तक प्रकाशित हुई थी उसमें स्थानकवासी मुनिराज का चिंतित अवस्था का एक चित्र छपा हुआ था, जिसे देखकर स्थानकवासी समाज ने विरोध किया था, हमने भी विरोध किया था, मुनिराज का चित्र देखकर स्थानकवासी समाज के लोगों की भावनाएं भड़की थी, जिसका विरोध हुआ। अतः चित्र देखकर लोगों की भावनाएं बदलती है चित्र भी जड़ है परन्तु चित्र अनुसार अच्छी या बुरी भावनाएं बदलने में कुछ हद तक कार्य करता है यह प्रत्यक्ष प्रमाण है।
आपने अपने पत्र में रायपसेणी सूत्र का उदाहरण देकर अचित शब्द की पुष्टि करने की कोशिश की है जबकि पुस्तक में आपने समवायांग सूत्र का हवाला दिया है, जिस तरह समवायांग सूत्र में अचित शब्द नहीं होते हुए भी अचित शब्द को जोड़ कर अर्थ निकाल रहे है । आप शब्द जोड़ने में अर्थ इच्छानुसार करने में प्रवीण हे, अन्यथा जिसतरह समवायांग सूत्र में जल में उत्पन्न होने वाले, थल में उत्पन्न होने वाले ऐसा स्पष्ट उल्लेख है ठीक इसी तरह रायपसेणी सूत्र में भी जलय, थलय ऐसा स्पष्ट उल्लेख होने पर भी ऐसे शब्दों को तिलांजली देकर अचित शब्द का प्रयोग करते है, यह आपकी अपनी मरजी है। क्याजल, थल में अचित फूल उत्पमहोते है?
समवसरण में सचित वस्तु के त्याग को लेकर सचित फूल बिखरे हुए ही है तो सचित वस्तु का क्या एतराज है ?
__ समवसरण में जो फूलों की वृष्टि होती है वह देवों द्वारा होती है उसको इस ढंग से सजाया जाता है कि किसी के पैर के नीचे आने का कारण ही नहीं, बनता, देवता लोग भी इतने तो विवेकवान होते ही है आज के जमाने में भी यह विवेक स्पष्ट नजर आता है किसी पब्लिक पार्क में जाकर देखिये कि किस तरह से सजाया जाता है जाने आने वाले को क्या कोई अड़चन या संकट होता है, क्या देवताओं को इतना भी विवेक नहीं होता किज्यां-ज्यों फूल बिखेर देते है - भगवान हिंसा का विधान करते नहीं।
पाली जिले के जेतारण में बने हुए समाधिस्थल से आपको कोई संबंध नहीं। तो शायद आपके अन्दर भी मतभेद है। एक बात और ध्यान में लिजिए
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा कि जैन समाज का कोई भी समुदाय चाहे मंदिर में हो, घर में ही चातुर्मास के रसोड़े में हो त्रस जीवों की हिंसा जानबुझकर या इच्छापूर्वक करता नहीं, कहीं पर भी मात्र स्थावरकाय का ही उपयोग होता है। अनजाने में या प्रमाद से हो जाये तो उस के लिये हर किसी के दिल में पश्चाताप जैसा होता ही है फिर भी आप हर बात में छह काय की हिंसा का ही राग आलापते हैं । यह आपकी मरजी है न तो मंदिर, न किसी के घर में, न किसी चातुर्मास के रसोई घर में त्रस काय की हिंसा करने की प्रथा है जो मांसाहारी है वे ही यह कार्य करते हैं। आपने अपने पत्र में श्रेणीक राजा ने दीक्षा नहीं ली थी, इसे अविरति कहा है तो मूर्ति पूजा करने वाले भी अविरति अवस्था वाले ही करते है। विरती वाले नहीं और मूर्ति पूजा करने वाले अविरती से विरती. बनने की भावना रखते ही है, रखना ही चाहिए, इसी भावना से मूर्ति पूजक समाज में हजारों साधु साध्वी विद्यमान है। यह बात भी निश्चित है कि मूर्ति पूजा समाज में विधी कार्य में कई बाते अजैनों के देखा-देखी घुसकर रुढ़ हो गई है, जिसका सुधारना जरुरी है। लिखी हजारीमल का जय जिनेद्र। '
*** श्रीमान् दिनेशकुमारजीजैन, . 'जय जिनेन्द्र' मेरठ
आपके पत्र का जवाब दिया है आशा है मिल गया होगा। कुछ स्पष्टीकरण करने की इच्छा से यह पत्र और लिख रहा हूँ।
___ भगवती सूत्र के शतक तीन उद्देशक दो में चमरेन्द्र का ही पूरा वर्णन है 'चमरेन्द्र' का प्रकरण तो भगवान महावीर की छद्मस्थ अवस्था में हुआ है 'चमरेन्द्र' जो पूर्व में पूरण नाम से तापस था अपने कठिन तप आराधना से असुरकुमारों के देवलोक में चमरेन्द्र के रुप में उत्पन्न हुआ है। अपने बाल तप या अज्ञान तप होने के कारण अभी तक सम्यक्त्व से रहित है चमरेन्द्र में उत्पन्न होने के बाद जब सौधर्म देव लोक में जाने की वहां शकेन्द्र से लड़ाई करने की सोचता है तब
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ - ३
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मन में विचार आता है कि किसी महात्मा की शरण लेकर जाना उचित है। इस विचार से अपने अवधि ज्ञान (विभंग ज्ञान) से देखना शुरु करता है, तो भगवान महावीर, काउस्सग ध्यान में दिखाई देते है। उस वक्त तक भी यह भगवान महावीर को साधारण महात्मा जैसा ही समझता है, न तो वह तीर्थकर प्रभु के बारे में कुछ जानता है उसके तीर्थंकर पणे के प्रति कोई श्रद्धा या भक्ति है। तीर्थंकर के प्रति
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कोई जानकारी नहीं होने से उनके सिद्धान्त के बारे में भी प्रतिमा का क्या प्रभाव है, • तीर्थकर प्रभु की प्रतिमा का क्या प्रभाव है तीर्थकर प्रभु की प्रतिमायें कहा है आदि के बारे में सर्वथा अनजान है। अतः आपका अपने पत्र में यह लिखना कि देवलोक में अरहंत प्रभु की प्रतिमाये है तो वहां शरण ले सकता है यहां शरण लेने की क्या जरुरत है ? यह प्रश्न ही यहां अनावश्यक अप्रासंगिक हो जाता है।
जब चमरेन्द्र हताश होकर मारके भय से भगवान के शरण में छिप जाता है और भगवान के शरण में आने के कारण शक्रेन्द्र चमरेन्द्र को क्षमा कर देता है एवं शक्रेन्द्र स्वयं भगवान को वंदन भक्ति करता है, यह सब देख कर चमरेन्द्र का भगवान के प्रति पूज्यभाव अनुराग उत्पन्न होता है। इसी के कारण भगवान महावीर को केवल ज्ञान होने के बाद जहां गणधर गौतम स्वामी आदि मुनि महाराज भी विराजमान है चमरेन्द्र अपने परिवार के ६४००० देवताओं के साथ भगवान को वंदन करने आता है। यही से भगवती सूत्र में इसका प्रारम्भ होता है
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भगवती सूत्र के इस प्रकरण के प्रारम्भ में ही चमरेन्द्र का आना भगवान को वंदन करना अपनी देवऋद्धि से इशान इन्द्र की तरह भगवान महावीर और गणधर गौतम स्वामी आदि श्रमण भगवंतो की नाट्य विधी दिखाकर वापस लौट जाता है । चमरेन्द्र के इस आगमन से इसके दिव्य ऋद्धि आदि पर प्रश्नों का सिलसिला प्रारंभ होता है।
इन्ही प्रश्नोत्तरो के प्रसंग में प्रश्न नम्बर १२ मे गौतम स्वामी के समाधान में भगवान महावीर ने चमरेन्द्र की उर्ध्व गति की शक्ति सौधर्म देवलोक तक जाने की बताई है। आग भी ये देवता (चमरेन्द्र) यहां तक गए है और आगे भी यहीं तक जाएंगे ऐसा समाधान है। परन्तु शायद गौतम स्वामी को संपूर्ण समाधान नहीं होने से प्रश्न नं. १५ में फिर भगवान से गौतम स्वामी पूछते है कि किसका आश्रय लेकर
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा असुरकुमार देव उर्ध्व गमन करते है अर्थात् सौधर्म देवलोक तक जाते है ? .
इसी प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर तीन आश्रय बताते है "अरहंत वा अरहंत चेइयाणिवा अणागारेवा भविअप्पणों, यहां पर स्पष्ट है कि अरहंत या अरहंत चेझ्याणिवा एवं अणगारेवा यहां परअणगारे वा के साथ अणगारचेइयाणिवा का उल्लेख नहीं है यह भी ध्यान दिजीये कि अरहंत प्रभु काज्ञान चाहे मनपर्यव हो या केवल ज्ञान; अरहंत प्रभूसे भिन्न (अलग) नहीं होता। ज्ञान और ज्ञानी जुदा नहीं होते अतः आपकी तरह यदि चैत्यका अर्थ ज्ञान करें तो अरहंत प्रभु का ज्ञानजुदा कैसे हो सकता है ?
ज्ञानी से ज्ञान जब जुदा (अलग) नहीं होता तो दूसरा विकल्प अरहंत चेइयाणी वा लिखने की जरुरत ही क्या ? (यदिज्ञान अर्थ होता तो) एवं जिस तरह अरहंत प्रभूछद्मस्थ अवस्था में मनः पर्यवज्ञानी है और केवल होने के बाद केवल ज्ञानी है। ऐसी दो अवस्थाएं तो अणगार अर्थात साधु भगवंत में भी है कई अणगार साधु भगवंत अवधि ज्ञानी है तो कोई मनः पर्यवज्ञानी भी हो सकता है और कोई केवल ज्ञानी भी होते है अर्थात छद्मस्थ और केवली का भेद तो साधु भगवंत (अणगार) में भी है ही फिर यहां पर अणगारे वा के साथ अणगार चेइयाणिवा का उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? कृपया इन दोनों प्रसंगों पर शांतिपूर्वक तटस्थता से विचार किजीयेगा
हमारे विचार से तो अरहंत प्रभू के साथ अरहंत चेइयाणिवा लिखने का कारण अरहंत प्रभू की अनुपस्थिति में या अरहंत प्रभू के अतिरिक्त अर्थात् स्वयं अरहंत प्रभूसे भिन्न अलगअरहंत प्रभूकी प्रतिमा भी शरण भूत है आश्रय का कारण है परन्तु अणगारेवा के साथ मात्र भविअप्पणों ही है अणगार चेइयाणि वा का उल्लेख नहीं है कारण यदि आपकी मान्यतानुसार माना जाए तो जिस तरह अरहंत प्रभू की छमस्थ अवस्था और केवली अवस्था है। इसी तरह यह भेद तो साधु भगवंत में भी है जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। अतः इसका कारण समझने के लिए मैने आपको जो पत्र पत्रिकाएं भेजी है उसमें से एक पत्रिका जैन दर्शन में 'गुरु मंदिर गुरु प्रतिमा' क्या अनुकरणीय है ? सोचिये। शांति से पढ़िये उसमें आने वाले तीर्थंकर नामकर्म की विशेषता तीर्थंकर प्रभू की छद्मस्थ अवस्था का भी निर्दोष
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ - ३
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जीवन आदि पर विचार किजीयेगा। अब आगे इसी भगवती सूत्र में चमरेन्द्र की पूर्वभव की स्थिति आदि का विस्तृत वर्णन है। इसी के वर्णन में भगवान महावीर स्वामी गौतमस्वामी को अपनी छद्मस्थ अवस्था में चमरेन्द्र की घटना का वर्णन करते है। इस वर्णन में भी आप देख सकते है कि जब शक्रेन्द्र ने वज्र फेंका और चमरेन्द्र भागा तब शकेन्द्र विचार करते है कि असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) इतना समर्थ नहीं है एवं नहीं चमरेन्द्र का इतना विषय है कि वह अरहंत भगवंत का, या अरहंत भगवंत के चैत्यों का या अणगारेवा का आश्रय लिये बिना स्वयं अपने आश्रय से इतना ऊंचा आ सके। जहां पर सौधर्म के शक्रेन्द्र को तीर्थंकर प्रभू का अनुयायी. होने से यहां ज्ञान है अर्थात समकितभी है। अतः यह ध्यान में आ जाता है यह आते
भगवान महावीर का शरण लेकर आया है ऐसा मालूम होते ही शक्रेन्द्र भी भागता है और वज्र को पकड़ लेता है भगवान को वंदन करता है क्षमा मांगता है - अब एक प्रसंग पर विचार किजीयेगा कि :
इस प्रकरण के प्रारम्भ में ही चमरेन्द्र द्वारा नाटक विधी दिखाना, इसी तरह इस भगवती सूत्र के शतक तीन उद्देशक एक में तामली तापसका ईशान इन्द्र के रुप में उत्पन्न होना और अपनी दिव्य शक्ति द्वारा भगवान के सामने 32 प्रकार के नाटक बताने का वर्णन है जिसमें वाद्ययंत्रों का प्रयोग आदि का वर्णन भी है। इसमें विशेष वर्णन के लिए रायपसेणि नाम के उपांग सूत्र का हवाला भी दिया है। अब आप देखिये कि चमरेन्द्र जो कि यह भी सम्यग दृष्टि हो गया है एवं ईशान इन्द्र जो कि यह भी सम्यग दृष्टि हो चुका है एवं सूर्याभदेव (रायपसेणी सूत्रानुसार) जो कि पहले ही समकिती था और अब भी है इन तीनों द्वारा भगवान महावीर के पास आकर गौतम स्वामी आदि श्रमणों के समक्ष नाटकविधि, वाजंत्र आदि द्वारा गीतगान करने के प्रसंगों का उल्लेख है । परन्तु यहां पर कहीं पर भी न तो भगवती सूत्र के दोनों प्रकरणों में और रायपसेणी सूत्र के सूर्याभ देव के प्रकरण में साहित्यकारों ने इस कार्य को हिंसा कहा है और न ही कहीं मिथ्यात्व कहा है, जबकि आप अपनी पुस्तक पेज नं. ३१ आदि में वायुकाय की हिंसा और आज्ञा भंग, छकाय की हिंसा, मिथ्यात्व बढ़ना आदि लिखते है ।
शायद इन आगम सूत्रों की रचना करने वाले गणधर भगवंत आदि पूर्वधरों के ज्ञान से भी आपको विशिष्ट ज्ञान हो गया है। यदि ऐसा हुआ है तो कृपया हमें भी
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
बताइयेगा -
यहां पर मैं यह भी सूचित कर देता हूँ कि मंदिर, वाजंत्र आदि का कार्य अविरति असंयमी ही करते है सामायिक धारी नहीं। यदि कोई विरतीधर करता है। तो शास्त्र विरुद्ध ही है ऐसी मान्यता मूर्ति पूजक समाज की है ही ।
एक और स्पष्टिकरण सूर्याभदेव इशान इन्द्र आदि के इन प्रकरणों में भगवान आज्ञा भी मांगी जाती है परन्तु भगवान आज्ञा देते नहीं और निषेध भी करते नहीं । ऐसा क्यों ? यह क्रिया नाटक विधि आदि की सावद्य क्रिया है और सावंद्य क्रिया की अनुमति देना श्रमणाचार के विरद्ध है और निषेध नहीं करने का कारण अविरति आत्माओं के लिए सम्यग दृष्टि की पुष्टि होने के कारण है अतः मौन ही रहते है। यदि आपको कोई दूसरा कारण मालूम होता हो तो मालूम किजीयेगा । एवं यदि यह एकांतिक हिंसा, मिथ्यात्व का ही कारण होता हो तो भगवान महावीर ईशान इन्द्र सूर्याभदेव आदि को मना क्यों नहीं करते ? गौतम स्वामी भी मना क्यों नही करते ? इनको किसी को शर्म या डर है क्या ? रायपसेणी सूत्र में सूर्याभदेव जब उत्पन्न होता है तो वह इससे पहले ही समकिती हो जाता है अतः जब यहां उत्पन्न होने पर समकिती ही है। इतना होने पर भी वहां पर देवलोक में रही हुई जिन प्रतिमाओं की (जिसे आप कामदेव आदि की मूर्ति मानते है) पूजा पानी फूल आदि से करता है। तो प्रश्न यह होता है कि सूर्याभदेव जो समकिती है वहां उसे जबरदस्ती कौन पूजा कराता है क्या उसे यहां मालूम नहीं होता कि ये काम देव की मूर्तियों की पूजा करने से मेरा समकित भ्रष्ट हो जाएगा। क्या उस समय उसे इसका बिल्कुल ज्ञान नहीं है ?
मनुष्य लोक में तो जैन गृहस्थों को देवाभियोग, गणाभियोग, राजाभियोग, आद कई तरह के डर लगते है इतना होने पर भी कई दृढ़ समकिती सहन भी करते है परन्तु यहां अर्थात् सूर्याभदेव को किस बात का डर है ? जीत व्यवहार का बहाना बना कर क्या कोई अपने समकित को कलंक, दोष लगायेगा ? क्या सूर्याभदेव समकित में इतना कमजोर है ? यदि इतना कमजोर होता तो यहां उत्पन्न होने का कारण इसका पूर्व प्रसंग देखेंगे तो मालूम हो जाएगा परन्तु आप यह सब नहीं देखेंगे। सूर्याभदेव ने जीत व्यवहार का बहाना बनाकर नहीं परन्तु वीतराग प्रभू की
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३
२७७ प्रतिमा समझकर पूजा भक्ति करता है। जीत व्यवहार का बहाना तो आप अपनी मान्यता के विरुद्ध होने से निकालते है। इसी तरह एक और प्रसंग पर विचार किजीये कि भगवान महावीर को वंदन करने सूर्याभदेव आता है जो कि समकिती ही है और चमरेन्द्र सौधर्म देव लोक में जाने का प्रसंग आने पर भगवान महावीर के संपर्क में आने से भगवान का भक्त बन जाने से भगवान को केवल ज्ञान के बाद वंदन करने आता है परन्तु ईशान इन्द्र जो कि पूर्व में तामली तापस था। ईशान देवलोक में उत्पन्न होने के बाद वहां पर रही हुई जिन प्रतिमाओं की जिसे आप कामदेव की प्रतिमाएं मानते है यदि ऐसा होता है तो ईशान इन्द्र (तामली तापस का जीव) जो कि समकित से रहित तीर्थंकर प्रभू के परिचय से रहित है तो यह ईशान इन्द्र भगवान महावीर को वंदन करने क्यों आता है? इस ईशान इन्द्र को भगवान महावीर के पास आने की प्रेरणा या प्रसंग या कोई निमित्त क्या बनता है ? कृपया इस पूरे प्रकरण को शांति से पढ़ियेगा और विचार किजीयेगा।
वास्तविकता यह है कि तामलीतापस का जीव जो ईशान इन्द्र बनता है वहां रहे हुए दूसरे देवों के कहने से वहां रही हुई जिन प्रतिमाओं को जो कि केवली जिन वीतराग की जिनप्रतिमाएं है इनकी पूजा भक्ति करता है इनकी जानकारी मालूम करता है। अतः इन जिन प्रतिमाओं की पूजा भक्ति के निमित्त से ही इसे तीर्थंकर प्रभु के प्रति पूज्य भाव पैदा होता है। अतः भगवान महावीर के समवसरण में वंदन करने आता है यह वास्तविकता है यदि कोई और निमित्त मिला हो तो कृपया ढुंढकर बताइयेगा। .
दृढ़ समकिती की एक गाथा:- भान उदय जो पश्चिमें पंकज पत्त्थर थाय रे - तो भी न मानु रागी ईश रे माया तोरी लागी हो जिणंदजी।सूर्याभदेव को किस गिनती में गिनना है यह विचार आपको करना है। इसके पूर्व भव के प्रसंग को ध्यान में रखकर विचार किजिएगा, रायपसेणीसूत्र का एक और प्रसंग देखियेगा। यहां मेरे पास स्थानकवासी समाज के लिंबडी संप्रदाय द्वारा प्रकाशित गुजराती भाषांतर का उपलब्ध है। मूर्ति पूजक समाज के मुनिराज द्वारा प्रकाशित प्राकृत गुजराती दोनों भाषाओं का भी उपलब्ध है।
पेज नं. ८९ में सूर्याभदेव को यहां के अन्य देव हाथ जोड़कर कहते है कि विमान मां एक मोटु सिद्धायतन छे (वगैर-वगैरह) इसमें रही हुई जिन प्रतिमाओं
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा एवं गोठवी राखेला जिननां संकिथओं छः आपने बधाने अनी अर्चा वंदना पर्युपासना आपनु कर्तव्य छः
यहां पर कोई भी देव सूर्याभदेव को जबरदस्ती नहीं करता, नहीं कोई डर बताते है, एवं इस बात पर भी विचार किजीये कि यदि ये प्रतिमायें (जिन प्रतिमाये) जिसे आप केवली जिन की नहीं मानते हुए अवधि जिन कामदेव आदि की मानते है तो प्रश्न यह होता है कि भगवती सूत्र आदि अंग सूत्र जिन की रचना गणधर भगवंत करते है और रायपसेणी जंबुद्वीप, पन्नति आदि उपांग सूत्र जिनकी रचना शायद गणधर नहीं तो दस पूर्वी आदि स्थविरकल्पी करते है। तो जहां-जहां भी देवलोक में एवं नंदीश्वर आदि द्वीपों में शाश्वत प्रतिमाओं जिनको जिन प्रतिमाएं कहीं गई है। जिनकी पूजा सौधर्म इद्र से लेकर अच्युत्त इन्द्र आदि जहां भी जो भी करते है तो इन जिन प्रतिमाओं की यदि केवली जिन की प्रतिमाएं नहीं है तो इन्द्र आदि देवताओं द्वारा विभिन्न प्रकार की पूजा का विस्तृत वर्णन, पूजा का पाठ आदि लिखने की आवश्यकता क्यों हुई। ऐसे वर्णनों के विस्तृत पूजा का वर्णन बताकर भव्य जीवों को अवधि जिन आप कामदेव आदि की प्रतिमाएं बताते है तो ऐसा करके क्या भव्य जीवों को कामदेव आदि असंयमी अविरति देवों के प्रति आकर्षण लगाकर उनके भक्त बनाने का उद्देश्य है ? क्या गणधर भगवंत ऐसा कर सकते है?
क्या दसपूर्वी आदि स्थविर भगवंत कर सकते है ?
इन महापुरुषों को असंयमी अविरति आदिदेवताओं की प्रतिमाओं के पूजन का वर्णन लिखने की आवश्यकता क्यों हुई?.क्या लोगों को केवली जिन छोड़कर अवधि जिन की तरफ लेकर जाने का प्रयास गणधर भगवंतों ने किया है ? अवधि जिन जिसे आप कामदेव कहें या अविरति असंयमी कहें इनकी पूजा भक्ति का वर्णन लिखकर आगमसूत्रों में जगह रोक कर एवं समय का भोग किस उद्देश्य से दिया?
यदि ये वीतराग जिन की प्रतिमायें नहीं है तो नाहक यह प्रयास जो कि गणधर भगवंतो ने किया है व्यर्थ ही किया है ? यदि ऐसा ही होता तो साथ में यह भी लिख देते की ये प्रतिमायें पूजनीय नहीं । इन्द्र आदि देवता पूजा करने वाले अज्ञानी है मिथ्यात्वी है, परन्तु ऐसा नहीं करके इन्द्र आदिसम्यग दृष्टि देवता जो काम भोग में मस्त रहते है उनके लिए उनका सम्यगदर्शन टिका रहे इस हेतु से ये
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३ प्रतिमाएं है, अतः इसी कारण से गणधर भगवंतो ने जान बुझकर इनका वर्णन किया है परन्तु कैसा समझना यह अपनी-अपनी मरजी पर है।
यदि ये जिन प्रतिमाएं जो कि अवधिजिन अर्थात् अविरति असंयमी की है तो इनकी पूजा भक्ति का लंबा-चौड़ा वर्णन कर गणधर भगवंतों ने भल की हैयह मानना होगा। अन्यथा ये जिन प्रतिमाएं केवली भगवंत (तीर्थकर प्रभूकी केवली अवस्था की प्रतिकृति) मानना होगा। इन दों में से एक निर्णय करना ही होगा अन्यथा आगम सूत्रों की महत्वता कैसे रहेगी। विचार किजीयेगा। यह भी सोचियेगा कि इनको सिद्धायतन कहने का कारण क्या?
"सिद्धायतन'' शब्द का अर्थ क्या समझा जाय ?
रायपसेणी सूत्र (लिबंडी समुदाय द्वारा प्रकाशित) पेज नं. ४८ में स्पष्ट लिखा है कि सूर्याभदेव अपने देवताओं को आज्ञा देता है कि जमीन ऊपर सुगंधी पानी नो छंटकाव ओवी रीते करो, उड़ती धूल बेसीजाय पण किचड़ न थाय अने ओवी जमीन पर जलज अने थलज अवा पांच प्रकार ना पुष्पों नो वरसाद ओवी रीते वरसावो कि बधा फूलों जिताज पड़े।
यदि ये फूल वैक्रिय होते तो जलज, थलज ये शब्द क्यों लिखे गये? क्या जलज और थलज पुष्प अचित या वैक्रिय हो सकते है ?
इसी तरह समवायांग सूत्र में भी जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि एवं थल में उत्पन्न होने वाले चंपा आदि स्पष्ट उल्लेख होने पर भी अचित शब्द को जोड़कर विवाद उत्पन्न करना कैसान्याय? आगम सूत्रों के शब्दों को बदलना नहीं तो क्या है ? इसी के पेज नं. २८, २१में देवताओं द्वारा आज्ञापालन का उल्लेख है कि जेमकोई कुशल छंटनारों पाणी भरेला मोटा घड़ा द्वारा बगीचा ने छांटे अने शांत रज शीतल करें तेम देवोओ पाणी भरेला बादला द्वारा सुगंधी पाणी बरसावी छांटी धुलने बेसाडी दीधी- .
- इसी तरह आगे भी लिखते है कि कुशल युवान फूल भरेली चंगेरिओ द्वारा राज सभा ने पुष्पों ने मधमधती करी दे तेवी रीते देवताओं फूल भरेला वादलनी रचनाकारी अने पुष्पों ने वरसाव्या विगैरे बिगेरे यहां पर ही आपका भ्रम मालूम होता
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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा है, बादलनी रचना संबंधी, यहां पर बादल की रचना का उल्लेख है। फूलों का नहीं, कारण इसके पूर्व जलज और थलज शब्द आ गए है एवं इसके बाद फूलों की चंगेरिओ (टोकरियों) का उल्लेख है। अतः जिस तरह माली फूलों को टोकरीओं में भरे हुए फूलों द्वारा....
. इसी तरह फूलों को जो कि जलज थलज है बादलों में भरकर बरसाने का उल्लेख है अतः जरा शांति से विचार किजीयेगा और आगे पिछे के शब्दों को मिलाकर ही अर्थ निकालियेगा। मूल सूत्र में जलय थलय है जिसका जलज थलज होता है, प्राकृत शब्द कोष में देख लिजियेगा कि जलय, थलय का अर्थ क्या होता है। जल याने पानी य (य-ज) याने उत्पन्न होना, जलय याने जल में उत्पन्न, थलय थाने थल (जमीन) में उत्पन्न होना। इतना स्पष्ट उल्लेख है परंतु शब्द को बढ़ाना, बदलना मनचाहा अर्थ करना यह अपनी मरजी है। इस सत्र में तो इसके आगे कहां कहां से फूल लाने संबंधी भी उल्लेख है। समवायांग सूत्र की एक जेरोक्ष कोपी भेज रहा हूं। मूल प्राकृतभाषा का एवं हिन्दी भाषांतर की भी साथ में है जिसमें आप देख सकते है कि इन दानों में स्पष्ट उल्लेख है कि जल औरस्थल में विलनेवाले पांच वर्णो के फूल हिन्दी भाषांतरकर्ता श्री स्थानक वासी जैन श्रमण संध के युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज एवं कन्हैयालालजी कमल, श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्रि है इन्होने कहीं कहीं पर भी, भाषांतर में भी, जल और थल में खिलने वाले पांच वणों के फूल लिखा है परन्तु अचित या वैक्रिय शब्द का उल्लेख नहीं किया है शायद ये भी आपजैसे ज्ञानी नहीं हुए।
प्रभु की पूजा का पुण्यफल सयं पमज्जणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे । सय साहस्सिा माला, अरणंतं गीप्रवाईए ।
अर्थ-श्री जिनेश्वर भगवान की मनि-प्रतिमा का प्रमार्जन करते हुए सौ गुना पुण्य, विलेपन करते हुए हजार गुना पुण्य, पुष्प-फूल की माला चढ़ाते हुए लाख गना पुण्य और गीत गाते तथा वाजिन्त्र बजाते हए अनंतगुना पुण्य उपार्जन होता है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-४
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(४७) भगवती सूत्र में "ज्ञान" शब्द के प्रयोग की सूची शतक | उद्देशक
अप्पडिहय वरनाणे दंसणधरे चउनाणो वगये भविअ भंते नाणे पर भविओ नाणे तदु भविअ नाणे गोयमाः - तेहिं नाणे तेहिं दसणतरेहिं उपन्न नाणदंसणधरा उपन्न नाणदसणधरा अरहा जिण लेसा दिट्टि नाणे जोगुवओगेय दस ठाणा नाणी अन्नाण नाणाइं अनाणइंअभिनिबोहिय नाणे उपन्न नाणदंसणधरे विनय सपन्नं, नाण संपन्न सेणं भते नाणे कि फले, विनाणेफले सवणे नाणेय विनाणे माणियव्वोजाब नाणाई केवली अनंत नाणे अनंत दंसणे अनंत नाणे परित्ते नाणजोगेय
ओहि नाणे मण पञ्जव नाणे, केवल नाणे अन्नणे ४ । मई अनाणे सुय अनाणे
उपन्न नाणदंसणधरे अरहाज़िणे केवली. उपन्न नाणदंसणधरे अरहाजिणे केवली उपन्न नाण नाणे पन्नते सूय नाणे ओहि नाणे मन पञ्जव नाणे, केवल नाणे अभिनिबोहिय नाणे
२
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परिशिष्ठ-४ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १ भंते किं नाणी अनाणी गोयमाजीव नाणी अगाणि
जे नाणी ते अत्थे गतिया दु नाणी, तिष्ठाणी चउनाणी आभिनिबोधी नाणीसुय नाणी सुय अाण मन पज्जव अपाणीजे चउनाणी ते मतिनाणी सुयनाणी ओहि नाणी, मनपज्जव नाणी इस उद्देशक और भी
कई बार है। ८ नाण पडिणीए दंसण पडिणीय चरित्त पडिणिए ३२ केवली अनंत नाणे निव्वुडे नाणे ३३ जयजय नंदा (जमाली प्रकरण) नाणदंसण चरित्ते
। उप्पन्न नाणदसणधरे अरहा जिणे केवली नाणे वा ९ विभंग नाणदंसणधरे १२ विभंग नाम णाणे समुप्पन्ने - नाणेणं नाणदंसणे ९ उपन्न नाणदंसणधरा उपन्न नाण दंसणधरा अरहा १० भंते नाणे अण्ण नाणे गोयमा सिय नाणे सिय अमाणे
आभिनिबोहिय नाणी सुयनाणी ओहिनाणी मई नाणी विभंग नाणी उपन्न नाणदंसणधरे उपन्न नाणदंसणधरे नाणीना तवस्सीना, उपननाण
दसणधरे ० सुमंगल नाम अणगारे जाई संपन्ने....तिनाणो वगये ६ केवल वरनाणदंसणे संपुन्ने ३ नाण संपन्नया, दंसण संपन्नया, गोयमा सागारे
से नाणे
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-४
२८३ १८ १० सोमिला दवट्याए एगे अहं नाणदंसण झये १९८ नाणावरणीय- तंजहा अभिणि बोहिय नाण
१ दो नाणदो अलाण चत्तारी नाणातिण्णे अमाण १ लेसादिहि नाणे, अनाणे, दिट्टि विहावि तिनि नाणा
अन्नाणा २४ १२ दो नाणा, दे अनाणा सम्मामिच्छा दिट्वि दो अण्णाणा
नियमा १२ नाणा सठिय पन्नत्ता......तिन्नि नाणा, अनाण्णा
२० तिनि नाणा, निन्नि अनाणा २४ २० नाणी विअन्नाणी दोनाणी दो अनाणीदो अनाणी
६ तंजहाः - नाण पुलाये दंसण पुलाये, नाण पडिसेवणा
. नाणदंसणघरे २५ ७ जाति संपन्न कुल संपन्न विनय संपण्णे, नाण संपण्णे २६. १. जीवाय ले सपक्खिय दिट्ठि अनाण नाण सण्णाओं
उपरोक्त सूची में भगवती सूत्र के अंदर से एकसो से भी अधिक प्रमाण उदाहरण दिये है जिसमें आप देख सकते है कि जगह जगह पर जहा भी "ज्ञान' का विषय आया है वहां "ज्ञान शब्द का ही उपयोग हुआ है ज्ञान के लिये (चेइय) चैत्य शब्द का उपयोग हुआ नहीं जैसे कि अप्पडिहय वरनाणदंसणधरे परंतु चेइय दंसणधर नहीं है इसी तरह नाणी अन्नाणी है परंतु चेइय अचेइय नहीं है ऐसे ही
ओहीनाणी है परंतु ओही चेइय नहीं है केवल नाणी है परंतु केवली चेइयाणी नहीं है यदि चेइय शब्द का अर्थ ज्ञान भी होता तो इन एक सौ से अधिक प्रसंगो में दस बीस प्रसंगो में तो चेइय शब्द का प्रयोग अवश्य होता जोकि नहीं है एक बार भी नहीं है पूरे सूत्र में नहीं है अपनी मान्य परंपरा से कुछ समय के लिय तटस्थ होकर आगम प्रमाणों पर ध्यान देकर विचार किजीयेगा।
चैत्य शब्द के प्रयोग की सूची भी साथ में है देख लिजीयेगा।
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परिशिष्ठ-५ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (४८) भगवती सूत्र में "चैत्य" शब्द के प्रयोग की सूची शतक उद्देशक १ १ गुणसिलए नाम "चेइए"होत्था, चेइयेतेणेवउराग च्छई
१ गुण सिलाओ चेइआओछत्तपलाआओ चेइयाओ ५ - गुण सिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ देवय चेइयं ५ तुंगी दाओनयरीओ पुफ वत्तियाओ चेइयाओ १ मोया नामनयरी नंदणे नामं चेइए मंगल देवयं चेइयं
अरहंतेवा अरहंत चेइयाणिवा जावसोहमो कप्पो नान्न स्थअअ
चेइया ५ १ चंपाए नयरीये पुण्ण भवेनामं चेइये होत्था ७ १० गुणसिलए चेइये गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति ८ ७ गुणसिलए चेइये ३२, ३३ वाणियग्गामे दुतिपलासये चेइये बहुसालए चेइयेवण्णाडने
वाणियग्गामे दुतिपलासये चेइय ९ ३३ सावत्थी नामं नयरी केहुए चेइये १० ५ गुणसिलए चेइये दुति पलास चेइये
११ १०, १२ दुतिपलास चेइये। आलंभियानयरी संखाणे चेइये चेइयाउं ___ १२ १, २ सावत्थिनयरी कोट्ठए चेइये। चंदोतरणे चेइये १३५ गुणसिलाओं चेइयाओ
कोट्ठण नाम चेइयं, कोट्ठए चेइये जेणवसमणे भगवं . महावीरे . सावत्थि नयरी कोट्टयाओ चेइयाओ
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-५
२५
१६ ३, ५ गुणसिलाओ चेइयाओं। उल्लतीरेनगरेण जंबुए चेइये १८ २, ७ विसाहना नगरी बहुपुत्तिए नेइये। गुणसिलए चेइये १८ ८, १० गुणसिलए चेइये गुणसिलाओ चेइयाओ
भगवती सूत्र में आया शब्द चैत्य जिसकी सूची ऊपर दी गई है, किस जगह कैसे उपयोग में आया है विचार किजीयेगा कि क्या यहां कही पर भी चैत्य शब्दका अर्थ "ज्ञान'' घटित हो सकता है ? एवं चैत्यशब्द के विशेष स्पष्टिकरण के लिये कृपया रायपसेणी सूत्र देखियेगा, जिस में आमल कप्पा नगरी में अंबसालवण चैत्य का काफी वर्णन है। जिस में चैत्य की सुंदरता पवित्रता, स्वछता का, विभिन्न प्रकार के वृक्षों से छत्र ध्वजा आदि पताकाओं से शोभायमान का वर्णन देख सकते है। चैत्य शब्द का उपयोग वस्तु विशेष के लिये ही हुआ है जो कि पुद्गल से ही संबंधित है जब कि ज्ञानजीव से संबंधित है सोचियेगा।
जिनदर्शन तथा गुरुवन्दन का अनुपम प्रभाव दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च । न तिष्ठति चिरं पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥
अर्थ-श्री जिनेश्वर देवों का दर्शन करने से तथा साधु पुरुषों को वन्दन करने से-छिद्रवाले हाथ में जिस तरह जल टिक नहीं सकता है, उसी तरह दीर्घकाल पर्यन्त पाप टिकता नहीं है ।
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परिशिष्ठ-६ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
| (४९) ढुंढक मत विचार |
श्वेतांबरो में ढुंढीये प्रगट हुए है । वो अपने आपको
सच्चा धर्मात्मा मानते है जो मिथ्यात्व है...
कुदेव-कुगुरुको नमस्कारादि करनेसे भी श्रावकंपना बतलाते हैं। कहते हैं धर्मबुद्धिसे तो नहीं वन्दते हैं, लौकिक व्यवहार है; परन्तु सिद्धान्तमें तो उनकी प्रशंसा-स्तवनको भी सम्यक्त्वका अतिचार कहते हैं और गृहस्थोंका भला मनानेके अर्थ वन्दना करने पर भी कुछ नहीं कहते ।
फिर कहोगे—भय, लज्जा, कुतूहलादिसे वन्दते हैं, तो इन्हीं कारणोंसे कुशीलादि सेवन करनेपर भी पाप मत कहो, अंतरंगमें पाप जानना चाहिये। इस प्रकार तो सर्व आचारोंमें विरोध होगा।
देखो, मिथ्यात्व जैसे महापापको प्रवृत्ति छुड़ानेकी तो मुख्यता नहीं है और पवनकायकी हिंसा ठहराकर खुले मुँह बोलना छुड़ानेकी मुख्यता पायी जाती है; सो यह क्रमभंग उपदेश है। तथा धर्मके अंग अनेक हैं, उनमें एक परजीवकी दयाको मुख्य कहते हैं, उसका भी विवेक नहीं है। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिरूप व्यवहार न करना इत्यादि उसके अंगोंकी तो मुख्यता नहीं है। मुखपट्टी आदिका निषेध
तथा पट्टीका बाँधना, शौचादिक थोड़ा करना, इत्यादि कार्योंकी मुख्यता करते हैं; परन्तु मैलयुक्त पट्टीके थूकके सम्बन्धसे जीव उत्पन्न होते हैं, उनका तो यत्न नहीं है और पवनकी हिंसाका यल बतलाते हैं। सो नासिका द्वारा बहुत पवन निकलती है उसका तो. यल करते ही नहीं। तथा उनके शास्त्रानुसार बोलनेहीका यल किया है तो सर्वदा किसलिये रखते हैं ? बोलें तब यल कर लेना चाहिये। यदि कहें भूल जाते हैं, तो इतनी भी याद नहीं रहती तब अन्य धर्म साधन कैसे होगा? शौचादिक थोड़े करें, सो सम्भवित शौच तो मुनि भी करते हैं; इसलिये गृहस्थको अपने योग्य शौच करना चाहिये। स्त्री-संगमादि करके शौच किये बिना सामायिकादि क्रिया करनेसे अविनय, विक्षिप्तता आदि द्वारा पाप उत्पन्न होता है। इस प्रकार जिनकी मुख्यता करते हैं उनका भी ठिकाना नहीं है। और कितने ही दया के अंग योग्य पालते हैं, हरितकाय आदिका त्याग करते .. हैं। जल थोड़ा गिराते हैं; इनका हम निषेध नहीं करते।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-६
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मूर्तिपूजा निषेधका निराकरण
तथा इस अहिंसाका एकान्त पकड़कर प्रतिमा, चैत्यालय, पूजनादि क्रियाका उत्थापन करते हैं; सो उन्हींके शास्त्रोंमें प्रतिमा आदिका निरूपण है, उसे आग्रहसे लोप करते हैं! भगवती सूत्रमें ऋद्धिधारी मुनिका निरूपण है वहाँ मेरुगिरि आदिमें जाकर "तत्थ चेययाइं वंदई" ऐसा पाठ है। इसका अर्थ यह है कि वहाँ चैत्योंकी वंदना करते हैं। और चैत्य नाम प्रतिमाका प्रसिद्ध है। तथा वे हठसे कहते हैं चैत्य शब्दके ज्ञानादिक अनेक अर्थ होते हैं, इसलिये अन्य अर्थ है, प्रतिमाका अर्थ नहीं है। इससे पूछते हैं—मेरुगिरि नन्दीश्वर द्वीपमें जा-जाकर वहाँ चैत्य वन्दना की, सो वहाँ ज्ञानादिककी वन्दना करनेका अर्थ कैसे सम्भव है ? ज्ञानादिककी वन्दना तो सर्वत्र सम्भव है। जो वन्दनायोग्य चैत्य वहाँ सम्भव हो और सर्वत्र सम्भव न हो वहाँ उसे वन्दना करनेका विशेष सम्भव है और ऐसा सम्भवित अर्थ प्रतिमा ही है; और चैत्य शब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इसी अर्थ द्वारा चैत्यालय नाम सम्भव है; उसे हठ करके किसलिये लुप्त करें ? ।
तथा नन्दीश्वर द्वीपादिकमें जाकर देवादिक पूजनादि क्रिया करते हैं, उसका व्याख्यान उनके जहाँ-तहाँ पाया जाता है। तथा लोकमें जहाँ-तहाँ अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है। सो वह रचना अनादि है, वह रचना भोग-कुतूहलादिके अर्थ तो है नहीं। और इन्द्रादिकोके स्थानोंमें निष्प्रयोजन रचना सम्भव नहीं है। इसलिये इन्द्रादिक उसे देखकर क्या करते हैं? या तो अपने मन्दिरोंमें निष्प्रयोजन रचना देखकर उससे उदासीन होते होंगे, वहाँ दुःखी होते होगे, परन्तु यह सम्भव नहीं है। या अच्छी रचना देखकर विषयोंका पोषण करते होंगे, परन्तु अरहन्तकी मूर्ति द्वारा सम्यग्दृष्टि अपना विषय पोषण करें यह भी सम्भव नहीं है। इसलिये वहाँ उनकी भक्ति आदि ही करते हैं, यही सम्भव है।
उनके सूर्याभदेवका व्याख्यान है; वहाँ प्रतिमाजीको पूजनेका विशेष वर्णन किया है। उसे गोपनेके अर्थ कहते हैं देवोंका ऐसा ही कर्तव्य है। सो सच है, परन्तु कर्तव्यका तो फल होता है; वहाँ धर्म होता है या पाप होता है ? यदि धर्म होता है तो अन्यत्र पाप होता था यहाँ धर्म हुआ; इसे औरोंके सदृश कैसे कहें ? यह तो योग्य कार्य हुआ। और पाप होता है तो वहाँ “णमोत्थुणं" का पाठ पढ़ा; सो पापके ठिकाने ऐसा पाठ किसलिये पढ़ा ?
___ तथा एक विचार यहाँ यह आया कि-"णमोत्थुणं" के पाठमें तो अरहन्तर्क भक्ति है; सो प्रतिमाजीके आगे जाकर यह पाठ पढ़ा, इसलिये प्रतिमाजीके आगे जं अरहंतभक्तिकी क्रिया है वह करना युक्त हुई।
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परिशिष्ठ-६ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
तथा वे ऐसा कहते हैं देवोंके ऐसा कार्य है, मनुष्योंके नहीं है; क्योंकि मनुष्योंको प्रतिमा आदि बनानेमें हिंसा होती है। तो उन्हींके शास्त्रोंमें ऐसा कथन है कि-द्रौपदी रानी प्रतिमाजीके पूजनादिक जैसे सूर्याभदेवने किये उसी प्रकार करने लगी; इसलिये मनुष्योंके भी ऐसा कार्य कर्तव्य है।
यहाँ एक यह विचार आया कि-चैत्यालय, प्रतिमा बनानेकी प्रवृत्ति नहीं थी तो द्रौपदीने किस प्रकार प्रतिमाका पूजन किया? तथा प्रवृत्ति थी तो बनानेवाले धर्मात्मा थे या पापी थे? यदि धर्मात्मा थे तो गृहस्थोंको ऐसा कार्य करना योग्य हुआ, और पापी थे तो वहाँ भोगादिकका प्रयोजन तो था नहीं, किसलिये बनाया? तथा द्रौपदीने वहाँ "णमोत्थुणं' का पाठ किया व पूजनादि किया, सो कुतूहल किया या धर्म किया? यदि कुतूहल किया तो महापापिनी हुई। धर्ममें कुतूहल कैसा? और धर्म किया तो औरोंको भी प्रतिमाजीकी स्तुति-पूजा करना युक्त है।
तथा वे ऐसी मिथ्यायक्ति बनाते हैं जिस प्रकार इन्द्रकी स्थापनासे इन्द्रका कार्य सिद्ध नहीं है; उसी प्रकार अरहंत प्रतिमासे कार्य सिद्ध नहीं है। सो अरहंत किसीको भक्त मानकर भला करते हों तब तो ऐसा भी माने; परन्तु वे तो वीतराग हैं। यह जीव भक्तिरूप अपने भावोंसे शुभफल प्राप्त करता है। जिस प्रकार स्त्रीके आकाररूप काष्ठ-पाषाणकी मूर्ति देखकर वहाँ विकाररूप होकर अनुराग करे तो उसको पापबंध होगा; उसी प्रकार अरहंतके आकाररूप धातु-पाषाणादिककी मूर्ति देखकर धर्मबुद्धि से वहाँ अनुराग करे तो शुभकी प्राप्ति कैसे न होगी? वहाँ वे कहते हैं बिना प्रतिमा ही हम अरहंतमें अनुराग करके शुभ उत्पन्न करेंगे; तो इनसे कहते हैं—आकार देखनेसे जैसा भाव होता है वैसा परोक्ष स्मरण करनेसे नहीं होता; इसीसे लोकमें भी स्त्रीके अनुरागी स्त्रीका चित्र बनाते हैं; इसलिये प्रतिमाके अवलम्बन द्वारा भक्ति विशेष होनेसे विशेष शुभकी प्राप्ति होती है।
फिर कोई कहे प्रतिमाको देखो, परन्तु पूजनादिक करनेका क्या प्रयोजन है?
उत्तरः--जैसे कोई किसी जीवका आकार बनाकर घात करे तो उसे उस जीवकी हिंसा करने जैसा पाप होता है, व कोई किसीका आकार बनाकर द्वेषबुद्धिसे उसकी बुरी अवस्था करे तो जिसका आकार बनाया उसकी बुरी अवस्था करने जैसा फल होता है; उसी प्रकार अरहन्तका आकार बनाकर धर्मानुरागबुद्धिसे पूजनादि करे तो अरहन्तके पूजनादि करने जैसा शुभ (भाव) उत्पन्न होता है तथा वैसा ही फल होता है। अति अनुराग होनेपर प्रत्यक्ष दर्शन न होनेसे आकार बनाकर पूजनादि करते हैं। इस धर्मानुरागसे महापुण्य होता है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-६
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तथा ऐसा कुतर्क करते हैं कि जिसके जिस वस्तुका त्याग हो उसके आगे उस वस्तुका रखना हास्य करना है; इसलिये चंदनादि द्वारा अरहन्तकी पूजन युक्त नहीं है।
समाधानः—मुनिपद लेते ही सर्व परिग्रह त्याग किया था, केवलज्ञान होनेके पश्चात् तीर्थंकरदेवके समवशरणादि बनाये, छत्र-बँवरादि किये, सो हास्य किया या भक्ति की? हास्य किया तो इन्द्र महापापी हुआ; सो बनता नहीं है। भक्ति की तो पूजनादिकमें भी भक्ति ही करते हैं। छद्मस्थके आगे त्याग की हुई वस्तुका रखना हास्य करना है; क्योंकि उसके विक्षिप्तता हो आती है। केवलीके व प्रतिमाके आगे अनुरागसे उत्तम वस्तु रखनेका दोष नहीं है; उनके विक्षिप्तता नहीं होती। धर्मानुरागसे जीवका भला होता है।
फिर वे कहते हैं—प्रतिमा बनानेमें, चैत्यालयादि करानेमें, पूजनादि करानेमें हिंसा होती है, और धर्म अहिंसा है; इसलिये हिंसा करके धर्म माननेसे महापाप होता है; इसलिए हम इन कार्योंका निषेध करते हैं। उत्तरः-उन्हीके शास्त्रमें ऐसा वचन है:
सुचा जाणइ कल्लाणं सुबा जाणइ पावगं।
उभयं पि जाणए सुबा जं सेय तं समायर ॥१॥ यहाँ कल्याण, पाप और उभय-यह तीनों शास्त्र सुनकर जाने, ऐसा कहा है। सो उभय तो पाप और कल्याण मिलनेसे होगा, सो ऐसे कार्यका भी होना ठहरा । वहाँ पूछते हैं केवल धर्मसे तो उभय हल्का है ही, और केवल पापसे उभय बुरा है या भला है ? यदि बुरा है तो इसमें तो कुछ कल्याणका अंश मिला है, पापसे बुरा कैसे कहें ? भला है, तो केवल पापको छोड़कर ऐसे कार्य करना ठहरा। तथा युक्तिसे भी ऐसा ही सम्भव है। कोई त्यागी होकर मन्दिरादिक नहीं बनवाता है व सामायिकादिक निरवद्य कार्योंमें प्रवर्त्तता है; तो उन्हें छोड़कर प्रतिमादि कराना व पूजनादि करना उचित नहीं है। परन्तु कोई अपने रहनेके लिए मकान बनाये, उससे तो चैत्यालयादि करानेवाला हीन नहीं है। हिंसा तो हुई, परन्तु उसके तो लोभ-पापानुरागकी वृद्धि हुई और इसके लोभ छूटकर धर्मानुराग हुआ। तथा कोई व्यापारादि कार्य करे, उससे तो पूजनादि कार्य करना हीन नहीं है। वहाँ तो हिंसादि बहुत होते हैं, लोभादि बढ़ता है, पापहीकी प्रवृत्ति है। यहाँ हिंसादिक भी किंचित् होते हैं, लोभादिक घटते हैं और धर्मानुराग बढ़ता है। इस प्रकार जो त्यागी न हों, अपने धनको पापमें खर्चते हों, उन्हें चैत्यालयादि बनवाना योग्य है। और जो निरवद्य सामायिकादि कार्योंमें उपयोगको न लगा सकें उनको पूजनादि करनेका निषेध नहीं है।
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परिशिष्ठ-६ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा फिर तुम कहोगे—निरवद्य सामायिकादिक कार्य ही क्यों न करें ? धर्ममें काल लगाना; वहाँ ऐसे कार्य किसलिये करें?
उत्तरः-यदि शरीर द्वारा पाप छोड़ने पर ही निरवद्यपना हो, तो ऐसा ही करें; परन्तु परिणामोंमें पाप छूटने पर निरवद्यपना होता है। सो बिना अवलम्बन सामायिकादिमें जिसके परिणाम न लगें वह पूजनादि द्वारा वहाँ अपना उपयोग लगाता है। वहाँ नानाप्रकारके आलम्बन द्वारा उपयोग लग जाता है। यदि वहाँ उपयोगको न लगाये तो पापकार्यों में उपयोग भटकेगा और उससे बुरा होगा; इसलिये वहाँ प्रवृत्ति करना युक्त है।
तुम कहते हो कि-"धर्मक अर्थ हिंसा करनेसे तो महापाप होता है, अन्यत्र हिंसा करनेसे थोड़ा पाप होता है"; सो प्रथम तो यह सिद्धान्तका वचन नहीं है और युक्तिसे भी नहीं मिलता; क्योंकि ऐसा माननेसे तो इन्द्र जन्मकल्याणकमें बहुत जलसे अभिषेक करता है, समवशरणमें देव पुष्पवृष्टि करना, चँवर ढालना इत्यादि कार्य करते हैं सो वे महापापी हुए।
यदि तुम कहोगे—उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रियाका फल तो हुए बिना रहता नहीं है। यदि पाप है तो इन्द्रादिक तो सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा कार्य किसलिये करेंगे? और धर्म है तो किसलिये निषेध करते हो ?
भला तुम्हींसे पूछते हैं-तीर्थंकरकी वन्दनाको राजादिक गये, साधुकी वन्दनाको दूर भी जाते हैं, सिद्धान्त सुनने आदि करनेके लिये गमनादि करते हैं, वहाँ मार्गमें हिंसा हुई। तथा साधर्मियोंको भोजन कराते हैं, साधुका मरण होनेपर उसका संस्कार करते हैं, साधु होनेपर उत्सव करते हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी देखी जाती है; सो यहाँ भी हिंसा होती है; परन्तु यह कार्य तो धर्मक ही अर्थ हैं, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। यदि यहाँ महापाप होता है, तो पूर्वकालमें ऐसे कार्य किये उनका निषेध करो। और अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करते हैं, उनका त्याग करो। तथा यदि धर्म होता है तो धर्मके अर्थ हिंसामें महापाप बतलाकर किसलिये भ्रममें डालते हो?
इसलिये इस प्रकार मानना युक्त है कि-जैसे थोड़ा धन ठगाने पर बहुत धनका लाभ हो तो वह कार्य करना योग्य है; उसी प्रकार थोड़े हिंसादिक पाप होनेपर बहुत धर्म उत्पन्न हो तो वह कार्य करना योग्य है। यदि थोड़े धनके लोभसे कार्य बिगाड़े तो मूर्ख है; उसी प्रकार थोड़ी हिंसाके भयसे बड़ा धर्म छोड़े तो पापी होता है। तथा कोई बहुत धन ठगाये और थोड़ा धन उत्पन्न करे, व उत्पन्न नहीं करे तो वह मूर्ख है; उसी प्रकार बहुत हिंसादि द्वारा बहुत पाप उत्पन्न करे और भक्ति आदि धर्ममें थोड़ा
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-६
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प्रवर्ते व नहीं प्रवर्ते, तो वह पापी ही होता है। तथा जिस प्रकार बिना ठगाये ही धनका लाभ होनेपर ठगाये तो मूर्ख है; उसी प्रकार निरवद्य धर्मरूप उपयोग होनेपर सावद्यधर्ममें उपयोग लगाना योग्य नहीं है ।
इस प्रकार अपने परिणामोंकी अवस्था देखकर भला हो वह करना; परन्तु एकान्तपक्ष कार्यकारी नहीं है । तथा अहिंसा ही केवल धर्मका अङ्ग नहीं है; रागादिकोंका घटना धर्मका मुख्य अङ्ग है। इसलिये जिस प्रकार परिणामोंमें रागादिक घटें वह कार्य करना ।
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तथा आखड़ी लेनेका पाठ तो अन्य कोई पढ़ता है, अंगीकार अन्य करता है। परन्तु पाठमें तो "मेरे त्याग है" ऐसा वचन है; इसलिये जो त्याग करे उसीको पाठ पढ़ना चाहिये। यदि पाठ न आये तो भाषाहीसे कहे; परन्तु पद्धतिके अर्थ यह रीति है ।
तथा प्रतिज्ञा ग्रहण करने-करानेकी तो मुख्यता है और यथाविधि पालनेकी शिथिलता है, व भाव निर्मल होनेका विवेक नहीं है। आर्त्तपरिणामोंसे व लोभादिकसे भी उपवासादि करके वहाँ धर्म मानता है; परन्तु फल तो परिणामोंसे होता है।
इत्यादि अनेक कल्पित बातें करते हैं; सो जैनधर्ममें सम्भव नहीं हैं।
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दिगंबर पंडित टोडरमलजी द्वारा लीखित मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ के कुछ अंश
जिनेश्वर भगवान साक्षात् कल्पवृक्ष दर्शनाद् दुरितध्वंसी, वन्दनाद् वाञ्छितप्रदः । पूजनात् पूरक: श्रीणां, जिनः साक्षात् सुरद्रुमः ॥
अर्थ- श्री जिनेश्वरदेव का दर्शन पाप का विनाश करता है, वन्दन वाञ्छित को देने वाला होता है और पूजन लक्ष्मी को पूरने वाला होता है । इसलिए श्री जिनेश्वर भगवान साक्षात् कल्पवृक्ष हैं ।
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परिशिष्ठ-७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
(५०) मूर्ति - श्रेष्ठ आलंबन |
आराधना में आगे बढ़ने के लिए... .. उपासना में उज्जवलता लाने के लिए.... भक्ति में भव्यता का रंग प्रकट करने के लिए.... परमात्मा की मूर्ति एक सफल एवं पुष्ट आलंबन है ।
नयन और मन से सम्मिलित बनकर परमात्म मूर्ति को देखकर जो एक दिव्य भावना एवं भक्ति का पवित्र स्त्रोत भक्त आत्मा के अंतर पट पर प्रवाहित होता है उसका अद्भुत आनंद वही भक्त अनुभूत कर सकता है, उसे शब्द में संजोना बडा मुश्किल है।
मूर्ति के प्रतिकृति, प्रतिमा, बिम्ब, अर्चा आदि पर्यायवाची नाम है जिसके माध्यम से ही हम यह रौद्र एवं दुःखपूर्ण भवसागर पार करने की क्षमता धारण कर सकते है ।
भवसागर को पार करना है, तैरना है तो प्रवहण नौका समान जिनमूर्ति है । साक्षात् प्रभु के विरह में प्रभु के जैसे ही कार्य करने की अप्रतिम शक्ति जिनमूर्ति में समाविष्ट है ।
कोई यदि प्रश्न करें कि बिना मूर्ति ही हम आराधना के क्षेत्र में प्रगति हासिल कर सकेंगे तो यह बात तथ्य से सम्मत नहीं है। जैसे अन्ध मनुष्य के लिए बिना लकडी जैसे आलंबन माईलों का पंथ काटना अशक्य है वैसे ही भवजंगल का दुर्गम पंथ को अल्लंघन-पार करना और मोक्ष मंजिल तक मूर्ति के आलंबन बिना पहुंचना सचमुच अशक्य है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
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मूर्ति से निराकार वस्तु हमारी बुद्धि से - समझने के लिए साकार बनती है।
अलक्ष्य एवं परोक्ष वस्तु लक्ष्य एवं प्रत्यक्ष बन जाती है ।
परिकर रहित प्रतिमा सिद्धावस्था की एवं परिकर सहित प्रतिमा अरिहंतावस्था की प्रतीक है ।
जब उपासक भक्त योग मुद्रा में शांतरससभर प्रभुप्रतिमा के सन्मुख स्थित हो जाता है, तब वह प्रभु में तन्मय-तदरूप बनकर प्रभु का दर्शन पूज, अनुभवन करता है यह वास्तव में प्रभु प्रतिमा का प्रकृष्ट प्रभाव एवं उपकार है और उसकी श्रेष्ठ सफलता है ।
___ मूर्ति सिर्फ पाषाणमयी नहीं है, उसे पत्थर कहना अयोग्य एवं अनुचित है । जब हम हमारे श्रद्धेय एवं प्रिय व्यक्ति की फोटु की भी कितनी अदब या बहमान रखते है, तो यह तो देवाधिदेव तीर्थंकर की प्रतिमा है, हमारी अनादि अचंकाल के राग-द्वेषादि कल्मष एवं पापमल धोनेवाली परमपवित्र मूर्ति है, उसके सामने कितना आदर एवं बहुमानभाव होना चाहिए? - महान आचार्यप्रवर द्वारा अंजनशलाका के परमपवित्र मन्त्रों से, प्रतिष्ठाविधि के आमान्य से, लक्षण एवं विधिविधान की प्रक्रिया से प्रतिमा में प्राण का आरोपण किया जाता है, जब मूर्ति प्राणवान् बनती है, मूर्तिमान् सौंदर्य बन जाती है । मूर्तिकार भी अश्रान्त परिश्रमपूर्वक न सिर्फ मूर्ति बनाता है बल्कि विधिपूर्वक निर्माण में अपनी भावात्मकता को भी संयोजित करता है । _ 'मूर्ति और पाषाण में क्या भेद है ? कुछ नहीं है ।' इस प्रकार कथन धृणास्पद भी है। सदृश वस्तु में भी विशेष से असदृश की कल्पना दुनिया में की जाती है। यदि ऐसा न हो तो दुनिया में स्त्रीत्व के समान धर्म से माता, बहन, लडकी आदि में कोई भेद ही नहीं रहेगा ।
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परिशिष्ठ-७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
भारत का ध्वज और दुकान में मिलता त्रिरंगी कपडे में भी कोई फर्क नहीं रहेगा।
रिजर्व बैंक के रूपये के नोट का टुकडा एवं कागज़ के टुकडे में भी फिर क्या तफावत रहेगा?
दुनिया में जब विशेष धर्म के आरोपण से उन वस्तुओं में विशिष्ठता की परिकल्पना की जाती है तब सामान्य धर्म गौण बन जाता है। यह सत्य की अवगणना करने का किसी का सामर्थ्य नहीं है । जैसे, लग्नविधि के परिसंस्कार से थोडे ही क्षणों में स्त्री में पत्नीत्व का आरोपण हो जाता है। त्रिरंगी कपडा जब भारत ध्वज बन जाता है तब उसकी अदब भारत का प्राईम मिनिष्टर भी पूरी तरह से रखता है, कागज जब रुपया बन जाता है तब उसकी किंमत कितनी बढ जाती है, उसी तरह विशेष धर्म में प्रतिमा में देवत्व एवं परमात्मत्व का विन्यास होने से उसका मल्य अनंत हो जाता है। तब प्रतिमा श्रद्धालु जन के लिए एक विशिष्ठ आस्था का महान केन्द्र भी बन जाती है।
कोई कहता है कि मूर्ति तो जड है... जड की उपासना से क्या लाभ है ? लेकिन याद रहे की जड की यदि उपेक्षा की गई तो दुनिया का कोई व्यवहार भी नहीं चलेगा । प्रभु का नाम मन्त्र भी जड है क्योंकि वह अक्षर या शब्द है, फिर भी उसे स्मरण करनेवाला चेतन होने से उसकी स्पष्ट असर सबको अनुभूत है।
शास्त्रग्रन्थों में, पुस्तकों में, तार-टपाल में, न्युझपेपर में, जाहेरातो में और वस्तुओं के लेबल में नाम एवं अक्षर के बिना ओर क्या है? लेकिन उन्हें पढने से हमें कई प्रकार का ज्ञान, संवेदन, मन में तरंगे एवं लहरे पैदा होती है।
विज्ञान के नितनये आविष्कार के युग में जड की शक्ति समझना कठिन नहीं है । रेडियो, टी.वी., फोन, केल्क्युलेटर, कोम्प्युटर,
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
प्लेन, कार, रोबोट यन्त्र आदि जड होते हुए भी कितना कार्यशील रहता
है ।
तो फिर... अनेक शुभ भावना एवं विधि के परिष्कार से युक्त प्रभु प्रतिमा में इतनी प्रभावकता एवं चमत्कृति आये इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।
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कितने लोग कहते है कि मूर्ति तो स्थापना है, लेकिन स्थापना में भी चमत्कार है । वह निक्षेप एवं नय भी है । पूर्वकाल में सती स्त्री जब उसका पति विदेश में जाता है तो पति के पादुका या फोटुचित्र पर ही अपने दिन पसार करती थी । भरत ने भी बड़े भ्राता श्रीराम के विरह में राज्य सिंहासन पर श्रीराम की पादुका स्थापित की थी और उसके माध्यम से उनके द्वारा ही राज्य चलता है ऐसा घोषित किया
था ।
मूर्ति में मनोवैज्ञानिक असर भी गहरी है, जो व्यक्ति के मन भीतर तक छू लेता है । स्थूल से सूक्ष्म की ओर, प्रत्यक्ष से परोक्ष की ओर एवं संकीर्णता से कोचले में से निकल कर विशाल अंतर व्योम की ओर ले जाने की उसमें सक्षम शक्ति निहित है । पापी को पाप के गहरे अंधेरे में से निकालकर प्रभु मूर्ति पुण्य के प्रकाश की ओर ले जाने की भी उसमें अद्भुत शक्ति है ।
नामदेव नामक लुटेरा भी प्रतिदिन परमात्ममूर्ति के सामने दस मिनट बैठने की प्रतिज्ञा से एक दिन उसके जीवन में एसा चमत्कार हुआ कि उसने सदैव के लिए खून, हत्या, लूट वगेरे सब पापों को तिलांजलि दी और वह संत नामदेव बन गया ।
बैजु बावरा भी अपने प्रतिस्पर्धी एवं शत्रु संगीत सम्राट् तानसेन का खून करना चाहता था लेकिन एक दिन वह किसी मंदिर में पहुंच गया और वहाँ प्रभुभक्ति में संगीत के माध्यम से ऐसा तल्लीन बन गया,
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परिशिष्ठ-७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा जिससे उसकी रौद्रभावना खत्म होकर उसने शत्रु तानसेन के साथ शत्रुता मिटाकर पक्का मित्र बना दिया ।
मन्त्रीश्वर पेथडशाने आबू के पर्वतीय विभाग में सुवर्णसिद्धि को सफल करके जब वहाँ के रमणीय जिनमंदिर में वे आदीश्वर प्रभु की मूर्ति का दर्शन करते है तब अपनी सुवर्ण के प्रति मूर्छा खत्म हो जाती है और वहाँ प्रभु के सामने प्राप्त हुई सभी सुवर्ण महोरों का
उपयोग सात क्षेत्र में ही करने का संकल्प करते है। .. मूर्ति की प्रभावकता के ऐसे कई हजारों प्रसंग भूतकाल के और वर्तमानकाल के है, जो कि अत्यंत प्रेरणादायक है ।
यह है मूर्ति की अद्भुत प्रभाविकता... | यह है मूर्ति की मानसिक गहरी असर । मूर्ति एक आकार है, और आकार यानी-चित्र की सर्वत्र असर
बच्चों को पहले या आज प्राथिमक ज्ञान देने के लिए सचित्र पुस्तकों का उपयोग ही किया जाता है । सायन्स, भूगोल, हिस्टरी आदि कई विषयों को बड़े विद्यार्थीयों को सीखाने के लिए भी प्रचुर मात्रा में चित्र, आकार एवं नक्शे आदि का उपयोग किया जाता है । जैन धर्म के तत्त्वों को पदार्थों को समाझाने के लिए भी सचित्र पुस्तकों का उपयोग होने लगा है।
कहा जाता है कि एक ओर हजार शब्द है और दूसरी ओर सिर्फ एक ही चित्र है तो दोनों में से चित्र की असर ज्यादा रहेगी। विज्ञापन एवं जाहेरातकला के विकास में भी आकार एवं चित्र की ही तो महत्ता है । अकाल के समय का करुण दृश्य एवं कत्लखाने के अति करुण चित्र एवं शाकाहार प्रदर्शनी वगैरे देखकर आज भी जनसमूह के दिल में अनुकंपा-जीवदया की लागणी पुष्ट हो जाती है ।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
२९७ चित्र की असर ज्यादा काल तक हमारे मन भीतर में गहरे रूप में अवस्थित रहती है। इसलिए तो कामुकता एवं वासना को भडकानेवाले चित्रों एवं दृश्य देखना ब्रह्मचर्य और जीवनशुद्धि के लिए नितांत वर्जित है । वर्तमान समय में पाश्चात्य अंध अनुकरण से या
आधुनिक विलासभर वातावरण से जगह-जगह पर खराब एवं विकृत चित्रों दृश्यमान होते जा रहे है । बिभत्स और विकृत चेष्टावाले पोष्टरें
और सिनेमा-टी.वी. के वीडिओं केटेस के कामुकता एवं हिंसा की उत्तेजना करनेवाले दृश्यों से भारतीय सुसंस्कारी प्रजा में भी नैतिकता एवं संस्कारिता का स्तर कितना घटता जा रहा है ? कितनी हिंसा का व्याप बढा है ? यह हम नजरों से देख रहे है ।
आज महती आवश्यकता है कि...
खराबी और भ्रष्टता के सामने सुंदरता का अधिक फैलाव हो इसलिए हम हमारी संस्कृति के धरोहर समान मंदिरो का महत्व बढाये...
एक अंग्रेजी लेखक ने इस तरह ब्यान दिया था - यदि भारतीय महाप्रजा का विनाश करना है, तो उसके मूल समान भारतीय संस्कृति का विनाश कर दो... क्योंकि संस्कृति मर जायेगी... प्रजा अपने आप मर जायेगी । लेकिन संस्कृति को खत्म करना है तो क्या करना? तो जिससे संस्कृति आज तक इतनी पनपी है, जहाँ से दिव्य प्रेरणाएँ मिलती है. ऐसे मंदिरों को ही खत्म कर दो... ।
To kill people to kill Culture To kill Culture to kill Temple.
यही कारण से यदि हमारे में सद्बुद्धि, संस्कारिता एवं दीर्घदृष्टिता है तो हम मंदिरों का विरोध नहीं बल्कि पूर्ण समर्थन करेंगे। विरोध मंदिरो का नहीं, अपितु जगह - जगह पर फैला रहे हजारों लाखों थियेटरो, टी.वी., वीडियो, झी.टी.वी., एम.टी.वी. वगेरे सेंकडों
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परिशिष्ठ-७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
चेनलों जो हमारी भारतीय संस्कृति की अस्मिता को खत्म करने की सुरंगे है उनका ही बहिष्कार एवं विरोध करें ।
अपनी मुख्य प्रस्तुत बात है नाम, आकृति, चित्र एवं मूर्ति में क्रमशः भावोद्दीपन की शक्ति अधिक निहित है ।
महाराष्ट्र की अजंता एवं एलोरा के गुफामंदिरों में जो हजारों सालों के प्राचीन है, उनमें भी कैलाश गुफा का शिल्प जीवंत एवं बेनमून है । जहाँ तीर्थंकर-जिनेश्वरों की भी मूर्ति है, जिन्हें देखते ही मानो हमारे सामने साक्षात् भगवान है ऐसी परिकल्पना साक्षात् होती
है।
आज
आज से करीब दो हजार वर्ष से भी पहले हुए महाराजा संप्रति ने सवा करोड जिनप्रतिमाओं का निर्माण करवाया था, उनमें से वर्तमान में भी हजारों प्रतिमाएं जिनमंदिर में विराजित है, जो अत्यंत... चित्ताकर्षक एवं नयनरम्य है।
आधुनिक सुप्रसिद्ध भूस्तरशास्त्री विद्वान ने लिखा है कि यदि दस मील की परिधि में खुदाई की जाय तो संस्कृति का एक प्राचीन अवशेष तो कम से कम मिलेगा ही।
भगवान महावीर के पश्चात् महाराजा श्रेणिक, नंदीवर्धन, उदायी, चंडप्रद्योत, संप्रति, खारवेल, चन्द्रगुप्त, कुमारपाल आदि अनेक राजाओं ने जैन मूर्तिओं की स्थापना की थी एवं जैन धर्म का महात्त्वपूर्ण प्रसार किया था ।
मोहनजोदडों और हडप्पा जो कि करीब ५,००० वर्ष पूर्व की संस्कृति थी, उस भूमि के खनन करने से भगवान आदिनाथ आदि की मूर्तियाँ उपलब्ध हुई है।
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
प्राचीन भारत में स्तूप, गुफाएँ, मंदिरों का अतिशय सर्जन हुआ। बिहार, उडीसा के भुवनेश्वर की उदयगिरी, खंडगिरि की हाथी गुफाएँ, सितानवाजल की गुफा, नासिक के पास २,४०० वर्ष प्राचीन गुफा, एलोरा के गुफामंदिर, गुजरात में गिरनार के, मथुरा के स्तूप ये सब जैनमूर्ति, जैन स्थापत्य एवं जैन चित्रकला का बेनमून ज्वलंत प्रतीक है ।
पूरे एशिया में ही नहीं, बल्कि पूरे दुनिया में आश्चर्यकारी ऐसे शत्रुंजय पर्वत (गुजरात) के छोटे विभाग में हजारों जिनप्रतिमाओं से युक्त अनेकानेक जिनमंदिरो का निर्माण यह विश्व का अभूतपूर्व रिर्काड है ।
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आबु देलवाडा अचलगढ, राणपुर, कुंमारीयाजी तारंगा आदि अनेक तीर्थों का इतिहास एवं इनकी भव्यता आज भी इतनी ही प्रेरणादायक है ।
किमती रत्नों से लेकर मामूली रेत से बनी हुई लाखों नहीं, अपितु करोडों जिनमूर्तियों से यह भारतवर्ष की धरातल विभूषित एवं मंडित बनी हुई है । आज भी वह परम्परा अक्षुण्ण चालु है, जिसमें हजारों लाखों दानप्रेमी भक्तभावुकों द्वारा मंदिरों की भव्यता एवं जिनशासन की शोभा वृद्धिगत हो रही है ।
1
'अपनी आत्मा को पवित्र एवं महान बनाने का केन्द्रस्थान मंदिर है, जहाँ भक्तियोग की उपासना - साधना की जाती है। मंदिर का वातावरण पवित्र होता है, ईफक्टिव और रिसेप्टिव होता है, वहां पर निर्मल भावों का शुभ परमाणु का संचय होता है। जहां पर बैठने से बुरे विचार, विनष्ट हो जाते है, परमात्म मूर्ति देखने से देहाभिमान गलित हो जाता है, एवं आत्मविशुद्धि के साथ उत्कृष्ट एवं प्रबल पुण्य का निर्माण होता है ।
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परिशिष्ठ - ७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
जिस प्रकार युद्धप्रयाण के समय सैनिक भरत बाहुबली, अर्जुन, हनुमान, खारवेल, महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे वीरों के आदर्श सामने रखकर अपने में अतुल शक्ति का संचय करता है, उसी प्रकार आत्मा भी परमात्म मूर्ति सन्मुख भक्तियोग के माध्यम से उच्च आदर्श को सामने रखते हुए अपनी आत्मशक्ति का उजागर करता है एवं भगवद्भ तक पहुँचने की पराकाष्टा भी कभी प्राप्त कर लेता है ।
वर्तमान में भी बडे स्थानों में, प्रमुख मार्ग में महान एवं राजकीय पुरुषों का स्टेच्यु - प्रतिमा लगाई जाती है, जिससे जनता को उनके कार्यों की प्रेरणा मिलती है ।
अमेरिका के न्यूयोर्क में प्रवेश करते ही वहाँ पर स्वतंत्र देवी का ६० फूट ऊंचा स्टेच्यु बनाया गया है, जिसे देखने से प्रेक्षक के मन में अमेरिकन लोगों की स्वातन्त्र्य की भावना का अनुमान किया जाता है ।
मन एक समुद्र जैसा है, उसमें कई लहरे तरंगे पैदा होती रहती है । प्रभु प्रतिमा दर्शन से भी मन में वीतरागता की भावना जागती है, मन में आनंद हर्ष की लहरें फैल जाती है, जीवन में उच्च प्रेरणा मिलती है ।
जिनेश्वर भगवंत को साक्षात् कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है, जिनके पावन दर्शन से दुरित - पापों का ध्वंस होता है, वंदन से वांछित इष्ट की प्राप्ति होती है एवं पूजन से लक्ष्मी की पूर्णता मिलती है ।
भक्त सिर्फ दर्शन ही नहीं, वंदन, पूजन, ध्यान, स्तवन आदि में उल्लसित एवं लीन बनकर आत्म संतृप्ति को पाता है ।
ज्ञानी महर्षि पुरुषों कहते है कि जो मूर्ति को जिनसम मानकर भक्ति से दर्शन, वंदन, पूजन करता है, उसके पाप का पंक साफ हो जाता है, विनय, विवेक, औदार्य, संयम, सेवा आदि सद्गुणपुष्प की
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
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सौरभ उसके जीवन- बाग़ में खिलती है, और भयानक भव समुद्र को तीरने का अद्भुत सामर्थ्य उसे सहजता में प्राप्त हो जाता है ।
अध्यात्मयोगी श्री देवचन्द्रजी ने कहा है
" अतिदुस्तर जे जलधिसमो संसार जो ते गोपदसम कीधो प्रभु आलंबने " ।
प्रभु आलंबन से अति दुष्कर संसार समुद्र मानो एक छोटा-सा खड्डा जैसा बन जाता है ।
-
कोई ऐसा भी मान सकता है कि हम तो बहुश्रुत ज्ञानी हो गये है, तो ऐसे आलंबन की हमें क्या आवश्यकता है ? हम तो सीधा निरालंबन ध्यान प्राप्त कर लेंगे। लेकिन यह कहना वास्तव में अनुभव एवं शास्त्रसापेक्षभाव की कमी है। शास्त्र में यही क्रम बताया है कि शुभ आलंबन से ही निरालंबन की ओर जाने की क्षमता प्राप्त होती है, यह क्म का उल्लंघन नहीं हो सकता । इसलिए दर्शन, पूजा आदि का शुभ आलंबन निरंतर सेवनीय है ।
यदि कोई जिनपूजा में हिंसा का स्वीकार कर उसे त्याज्य मानता है, तो फिर उस व्यक्ति को सर्वत्र बाधा आयेगी । वह न तो प्रवचन श्रवणादि के लिए उपाश्रय जा सकता है, या न कोई भी धर्मकार्य कर सकते है क्योंकि उसमें भी अंगप्रत्यंग हिलाने में स्वरूप हिंसा जरूर होती है । भवन निर्माण, साधर्मिक भक्ति आदि में सर्वत्र बाधा आयेगी ।
इसलिए मानना चाहिए कि द्रव्यपूजा में जो हिंसा है, वह सिर्फ स्वरूप हिंसा है, बल्कि हेतु हिंसा या अनुबंध हिंसा नहीं है । और जिनपूजा में जो शुभभावों का अति उल्लास - भाव पैदा होता है, प्रभु के प्रति कृतज्ञता - बहुमान आदि गुण प्रगट होते है । उससे ही कई पापों का विलीनीकरण हो जाता है। और भी कई तर्क एवं समाधान
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परिशिष्ठ-७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पूजा के पक्ष में जिन्हें समझकर कभी पूजा आदि सुंदर आलंबन त्याग करने की धृष्टता न करें।
विश्व में कोई काल या क्षेत्र ऐसा नहीं होगा कि जहाँ पर मूर्ति एवं मूर्तिपूजा का अस्तित्व विद्यमान न हो । अनादिकाल से प्रभुमूर्ति अनेक उपासकों को पवित्र करती आ रही है।
पूर्वोक्त प्राचीन शिलालेखों से, गुफा-स्तूपों से, पुराण-वेद शास्त्रों से, आगामों से और भी कई शोध-प्रमाण से जैनमूर्ति की अतिप्राचीनता को निःसंदेह स्वीकार किया गया है, जिसे कोई विद्वान पुरुष अपलाप नहीं कर सकता।
जरा...देखिए... जैन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भी... जहाँ भक्त आत्मा को जिनमूर्ति के प्रति भक्ति, पूजन, वंदन, सत्कार-दर्शन का अनुपम लाभ कितना मिला था ? ,
__आज से करीब लाखों वर्ष पूर्व हुए श्रीपाल एवं मयणा सुंदरी को उज्जैनीनगरी में श्रीकेशरीयाजी ऋषभदेव के प्रभु की मूर्ति समक्ष श्री सिद्धचक्रयन्त्र की भक्ति की और सात सौ कुष्टरोगीयों के साथ उनका कुष्ट रोग गायब हो गया ।
___रावण ने अष्टापद पर्वत पर चौवीस तीर्थंकरों की मूर्ति सन्मुख मंदोदरी राणी के साथ सुंदर तालबद्ध संगीतमय प्रभुभक्ति की पराकाष्टा में तीर्थंकर नामकर्म का निर्माण किया ।
__ आज से करीब ८५,००० वर्ष पूर्व श्री कृष्ण की सेना पर जरासंध ने जरा नामक दुष्ट विद्या छोडी, जिसके दुष्प्रभाव से सेना मूछित बन गई, उस समय श्रीकृष्ण ने अट्ठम तप के प्रभाव से पद्मावती माता द्वारा श्री पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति पाताललोक में से, जो कि अतीत चोविसी के नव में दामोदर भगवान के समय में अषाढी श्रावक ने भराई थी, संप्राप्त हुई और उस मूर्ति के स्नान-प्रक्षाल जल का सेना
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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
३०३ पर छिटकाव करने से जराविद्या का प्रभाव विनष्ट हो गया । पुनः सैन्य सज्ज बनने से श्रीकृष्ण ने शत्रु पर विजय पाया, जिसके हर्ष में आकर उन्होंने शंख बजाया तब से वहाँ पर गाँव का नाम शंखेश्वर प्रसिद्ध हुआ
और मूर्ति भी शंखेश्वर पार्श्वनाथ के रूप में सुप्रसिद्ध बनी, आज शंखेश्वरतीर्थ में वह मूर्ति विश्वभर में सुविख्यात, अतिप्राचीन एवं महाचमत्कारिक मानी जाती है ।
पुरुषादानी श्री स्थंभव पार्श्वनाथ भगवान की भव्य मूर्ति के स्नात्रजल से नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव सूरिजी का कुष्ट रोग दूर हो गया था।
श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिने कल्याणमंदिर स्तोत्र की रचना करते हुए शिवलिंग का प्रस्फुट होकर श्री अवंति पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई और जिनशासन की अद्वितीय प्रभावना हुई ।
ऐसे एक नहीं, हजारों दृष्टांत है, जिनके आदर्शों से हमारे में भी श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रभुमूर्ति के श्रेष्ठ आलंबन के प्रति भावुकता बनी रहती है।
__ आइए, हम सब भावात्मक बनकर प्रभुप्रतिमा से प्रवाहित होता शांतसुधारस का अनुभव कर तृप्त बनें ।
कलापूर्णसूरि प्रवचन सुधा पुस्तक
के कुछ अंश
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अन्यलींगी द्वारा प्रभु प्रतिमाजी की रक्षा (जब मूर्ति विरोधिद्वारा मन्दिर तोडे जाने लगे तब अन्य धर्मीने प्रभु रक्षाकी सं.७०० से ११००)
an Amman idol in rural Tamil Nadu
Before and After: The Mahavira sculpture. bare..
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*(१) मूर्तिपूजा की प्राचिनता....
- मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अवशेष (जिस पर वि.सं. १ से वि.सं. ३०० तक के उल्लेख है।)
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પંચ નમુકકા
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(कांगडा - वि.सं.१०० का उल्लेख)
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मूर्तिपूजा की प्राचिनता.... - मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अवशेष (जिस पर वि.सं. १ से वि.सं. ३०० तक के उल्लेख है।)
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(२) दक्षीण भारत में तामिलनाडु में जैन गुफाएँ
(जिस पर वि.सं. ३०० का उल्लेख है।)
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दक्षीण भारत में तामिलनाडु में जैन गुफाएँ
(जिस पर वि.सं. ३०० का उल्लेख है।)
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(३) भारत बहार कम्बोडीया में विश्व का सबसे बड़ा जैन मन्दिर जिस पर वि.सं. ३०० से ४०० तक के उल्लेख है ।)
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भारत बहार कम्बोडीया में विश्व का
सबसे बडा जैन मन्दिर जिस पर वि.सं. ३०० से ४०० तक के उल्लेख है।)
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भारत बहार कम्बोडीया में विश्व का
सबसे बडा जैन मन्दिर जिस पर वि.सं. ३०० से ४०० तक के उल्लेख है।)
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(४) ग्वालीयर, अजंटा - इलोरा एवं उदयगिरी-खंडगिरी (ओरीस्सा) की गुफाएँ (वि.सं. ३०० से वि.सं. ४०० तक के उल्लेख है ।)
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ग्वालीयर, अजंटा - इलोरा एवं
उदयगिरी-खंडगिरी ( ओरीस्सा) की गुफाएँ (वि.सं. ३०० से वि.सं. ४०० तक के उल्लेख है । )
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(५) हरप्पा संस्कृति के मोहे-जो-दरो,
हरप्पा, लोथल, आदि से मिले वि. पूर्व ३५०० साल की प्रभु प्रतिमाएँ।
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(६) हजारो मन्दिर बने खंडेर
(मूर्ति विरोधिओ द्वारा लोगो की श्रद्धा भ्रष्ट होने से जैनशासन के हजारो मन्दिर आदि आज खंडेर बन गए है । (जैसे मेवाड- ड- मारवाड - पंजाब - मध्यप्रदेश - दक्षीण आदि)
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हजारो मन्दिर बने खंडेर (मूर्ति विरोधिओ द्वारा लोगो की श्रद्धा भ्रष्ट होने से जैनशासन के हजारो मन्दिर आदि आज खंडेर बन गए है। (जैसे मेवाड-मारवाड-पंजाब-मध्यप्रदेश-दक्षीण आदि)
अतिशय क्षेत्र
नेमिनाथ नेमगिरी जिंतूर
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हजारो मन्दिर बने खंडेर
(मूर्ति विरोधिओ द्वारा लोगो की श्रद्धा भ्रष्ट होने से जैनशासन के हजारो मन्दिर आदि आज खंडेर बन गए है । (जैसे मेवाड - मारवाड - पंजाब - मध्यप्रदेश - दक्षीण आदि)
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हजारो मन्दिर बने खंडेर ( मूर्ति विरोधिओ द्वारा लोगो की श्रद्धा भ्रष्ट होने से जैनशासन के हजारो मन्दिर आदि आज खंडेर बन गए है। (जैसे मेवाड-मारवाड-पंजाब-मध्यप्रदेश-दक्षीण आदि)
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हजारो मन्दिर बने खंडेर ( मूर्ति विरोधिओ द्वारा लोगो की श्रद्धा भ्रष्ट होने से जैनशासन के हजारो मन्दिर आदि आज खंडेर बन गए है। (जैसे मेवाड-मारवाड-पंजाब-मध्यप्रदेश-दक्षीण आदि)
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(७) आज के समय में जगह जगह खुदाई से निकल रही जैन प्रतिमाएँ।
(इन प्रतिमाओ को मूर्ति ध्वंसको से बचाने के लीए जमीन में डाल दीया गया था सं.७०० से ९००)
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आज के समय में जगह जगह खुदाई से निकल रही जैन प्रतिमाएँ । ( इन प्रतिमाओ को मूर्ति ध्वंसको से बचाने के लीए जमीन में डाल दीया गया था सं. ७०० से ९०० )
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dain Ederation Intere
आज के समय में जगह जगह खुदाई से निकल रही जैन प्रतिमाएँ ।
( इन प्रतिमाओ को मूर्ति ध्वंसको से बचाने के लीए जमीन में डाल दीया गया था सं. ७०० से ९०० )
with inscriptions, Tirthankara & Yaksha idols the mist of ghen t Kumarabedu (13 Kang from Mysore Palmatkal reminds us of the gloring Base EROTO
hotos by: Nitin HP Bangalore For more details, visit www.JAINHERITAGECENTRES
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आज के समय में जगह जगह खुदाई से
निकल रही जैन प्रतिमाएँ। (इन प्रतिमाओ को मूर्ति ध्वंसको से बचाने के लीए जमीन में डाल दीया गया था सं.७०० से ९००)
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(८) मुस्लिमो द्वारा जैन मन्दिरो का मस्झिद में परिवर्तन.
(मूर्ति विरोधीओ ने एक समय हजारो जैन मन्दिरो को नाश कर उस जगह अपनी मस्झिद बना दी सं.१००० से १५०० के बीच )
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27/12/2011
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मुस्लिमो द्वारा जैन मन्दिरो का मस्झिद में परिवर्तन.
( मूर्ति विरोधीओ ने एक समय हजारो जैन मन्दिरो को नाश कर उस जगह अपनी मस्झिद बना दी सं. १००० से १५०० के बीच )
16/2/2000
Below Fatehpur Sikri lies a Jain city
ASI team unearths 34 exquisite sculptures, all pointing to 11th century Jain temple
Remains of an 11th century Jain temple near the Akbar fort (Top). A Saraswati dating back to 1010 AD (Right). Egress photos by Naveen Jo
SANTWANA BHATTACHARYA FATEHPUR SIMRI, FEBRUARY 15
win a jungle on December 7, 1999. That was a day before the surveyor from the Archaeological Survey of India (ASI) identified the mound near the fort of Fatehpur Sikri and or dered the f felling of trees
And within a fortnight, the ASI team laid open the superstructure of an 11th century Jain temple, just half a lon away from Mughal Emperor Akbar's fa mous fort complex
These was habitation and it was destroyed. The divine images were broken and scattered helter skelser by the latter day invaders" is how ASI Director General Ajay Shankar briefly put it While
trenches at the site, the ASI team
came upon one of the richest archacological caches found since the glorious days of Sir John Mar
ASI DG dies in mishap
NEW DELHI Aja Shankar, secre tary to the government and ASI D rector General, died on Monday night in a car accident near Nashik He was 57. Shankar warn an nanodal tour to Pune, Nashik and Au rangabad. At about 9pm, the car be was traveling in collided with a trac for brolley near Nashk, He was de cared dead when taken to hospital
"Dumped one upon the other, it seemed the sculptures were just waiting for us to bring them out into the open," said 26 year-old archaeologist from
Orissa, Arakhita Pradhan. In fact, the Indian Exprese team which visited the site saw sculptures of Jain Tashankara and carved red-stone potteries, still half buried between the layers of
carth
Not one or two. But at least 34 exquisite sculptures of various the sizes
medium and one EXPRESS
hig have already been re
trieved by the EXCLUSIVE
ASI team from a 250-sq yard plot at Hir Chhabili ka-Tilla in Sikri village. And these findings have pushed back the untiquity of Fatehpur Sikri to 2nd Century AD
www.jinvaani.org | www.facebook.com/JainismPhilosophy
"We've found branded red stone potteries, orsamented with mica dust, from the Gupta pe riod. And the most remarkable thing about these sculptures in that they have inscriptions on them making their dates inde putable," said RK Dikshit, sistant.com servator, in charge of the Fatehpur Sikri Most breathtak of 1
was, of course, the six-foot-high partly broken, ibang Saraswati from the Jain pantheon. Of a rare beauty, it was found in a face-down position.
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was dug out on January 29 It's changed the entire worth of the site," said Dharamvir Shanna
AST's superintending archaeolo gist who is responsible for initialing the excavation
The excavation, according to Sharma, shows that Fatehpur Sik was a pre-Mughal city with tem ples around its periphery. "But we are yet to ascertain when they were demolished," he said, clearly the but hodging on whether it s Mughals or a Hindu invader of a previous period who was respon ble for the wide-scale destruction CONTINUED ON PAGE
Below Fatehpur Sikri,
lies an ancient Jain city
Says historian Harbans Mulia, who specialises on Medieval India and plans to take a
and Kartikeya on right side) to 9 10th Century Jain sculptures (a Sarawati from the Gurjar Pr luradynasty)
trip to the site "Ta "Tim not surprised by the lindings Medieval society workest in a different manner. De molitions in that age were con ducted at an act of conquest or
However, more than the unique Sarwati (incidentally. dressed only in ornament) is the 60-cm redstone land in which 23
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(९) अन्यलींगी द्वारा प्रभु प्रतिमाजी की रक्षा
(जब मूर्ति विरोधिद्वारा मन्दिर तोडे जाने लगे . तब अन्य धर्मीने प्रभु रक्षाकी सं.७०० से ११००)
तिरुमला- तिरुपति यह जेन मंदिर है- एक सत्य
जैन गजट/ सोमवार, 29 जुलाई, 2013
क्या आप जानते हैं तिरुपति बालाजीएक जैन मंदिर है
जैन गजट/ सोमवार, 29 जुलाई, 2013
मूल में यह प्रतिमा तीर्थकर नेमिनाथ की जिसको सब तरफ से अत्यन्त भव्य बेमोल जडजवाहिर हीरे रत्नों से पूरी तरह से ढंक दिया है। रवीं शताब्दी की यह नेमिनाथ की
प्रतिमा मूल रूप इस चित्र के 15 अनुरुप है। प्रेषक- भरत कुमार काला, मुम्बई
कृष्णराव एस टी. कहते हैं- मैं एक हिंदू इतिहासकार हूँ। मैंने 'बुखारिया संधि' के नाम से एक प्राचीन आलेख (इस्क्रिप्सन) पढ़ा। यह आलेख-दस्तावेज (इस्क्रिप्सन) बेंगलोर की सेंट्रल लायब्रेरी, पुरातत्व संभाग कर्नाटक में उपलब्ध है। १४ वीं शताब्दी में जैनों और वैष्णवों में एक संथि हुई थी कि जैनों को तिरुमलाई (तिरुपति) के नेमिनाथ जैन मंदिर को वैष्णो को सौंप देना होगा और वैष्णव श्रवणबेलगोला के बाहुबली प्रतिमा (स्टेच्यु) को नष्ट नहीं करेंगे। अन्यथा बुखारिया राजा विजयनगर राज्य के स्थापनकर्ताओं में से एक है। उसके राज्य के सभी जैनों को दंडित कर देगा...
___- अनुवादक भरत कुमार काला, मुम्बई अंग्रेजी का मूल (वेबसाईट और एस.एम.एस. से प्राप्त आधार पर)
प्राचिन प्रतिमाए
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(१०) तीर्थंकर कालिन प्रभु प्रतिमाएँ
(भरत महाराजा की अंगुठी के मणी से
निर्मित प्राचिन प्रभुजी)
जीवीत स्वामि दीयाणा
(महावीरस्वामि कुलपाकजी)
अतिप्राचिन केशरियाजी
धुलेवा
| शंखेश्वर पार्श्वनाथ (गत चौविसी में निर्मित)
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तीर्थंकर कालिन प्रभु प्रतिमाएँ
गुरु सुधर्मास्वमि द्वारा अंजनशलाका कीए हुए एवं कपिल केवली द्वारा
प्रतिष्ठीत श्री पार्श्वनाथजी (शिलालेख वि.सं.पूर्व ५०० का है)
શ્રી ભદ્રેશ્વર પાર્શ્વનાથ (ભદ્રેશ્વરજી)
गत चोवीसी में निर्मित विश्व कि सवसे प्राचिन प्रतिमा &
नेमनाथ प्रभुजी गिरनार (गुजरात)
श्री सच्चिया माता द्वारा निर्मित महावीर स्वामि (वि.सं.-पूर्वे ७०)
ओसियाजी (राजस्थान)
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नाकोडा भैरव के दर्शन करते हुए आ. महाश्रमण
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वितराग परमात्मा की मूर्ति को नमन वन्दन न करने का फल अविरत देव को नमन वन्दन करना अनंत में भवभ्रमण
साध्वी दिप्तिजी
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a mactatorixaxजबपुर
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(११) स्थानकवासी गुरु की गुरुमूर्तियाँ.... (सम्यक्दर्शन देने वाली प्रभुमूर्ति का निषेध करने वाले अपने
गुरु की मूर्तिया कैसे निर्मित करते है.... देखो)
उपा. मिश्रीमलजी म. गरुमति
आ. आत्मारामजी की गुरुमूर्ति । - लुधीयाणा
णमोलाए सववरण:
श्रीपवन्यजीमाहाराजकीजय
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स्थानकवासी गुरु की गुरुमूर्तियाँ... (सम्यक्दर्शन देने वाली प्रभुमूर्ति का निषेध करने वाले अपने
गुरु की मूर्तिया कैसे निर्मित करते है... देखो)
साध्वीजी उमरावकुंवरजी गुरुपादुका की स्थापना
णमोअरिहंताण
णमा सिहाण | णमोआयरियाणं णामोउवज्झायाण
स्थानकवासी संत गुरुमूति - औरंगाबाद
Rainbowar
nemama
Setupe
Narau
मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.
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स्थानकवासी गुरु की गुरुमूर्तियाँ....
(सम्यक्दर्शन देने वाली प्रभुमूर्ति का निषेध करने वाले अपने
गुरु की मूर्तिया कैसे निर्मित करते है ... देखो )
चरण पादुका
रत्नचंद्रजी म. की मूर्ति
स्थानकवासी गुरु की गुरुमूर्तियां
पू.
मिश्रीमलजी
`चरणपादुका स्थपना
महामंत्र नवकार ताणं
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To
. गुरु के चरण के दर्शन करते नवदीक्षीत
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(१२) मन्दिर निर्माण
( जैन शासन के आधार जैन तीर्थंकर मन्दिर का निषेध उसका फल देव-देवी के मन्दिर बनवाना )
अब केवल मुहपर मुहपत्ति बाँधने के सिवा कहां रहा मूर्ति-विरोध? स्थानकवासी द्वारा अब अपने अधिष्ठायक की स्थापना
बटुक भैरव - बीदडा स्थपक -दीनेशमुनी (मानव मन्दिर – बीदडा, कच्छ)
पू. विमलमुनि द्वारा स्थापित जैन मन्दिर व यक्ष मन्दिर, अंबाला
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पू. डॉ. हेडगेवार पू. श्री गुरुजी स्मृति मंदिर स्मृति चिन्ह
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(१३) जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर...... (प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले
खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?....) JAI GURU MISHRI
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अनशिप JAIN MUNT MISA
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जय गुरु अम्बेश
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भारत INDIA
जय गुरु सौभाग्य
Issued in 1991
पावनधाम. फतहनगर राजस्थान
aurahmahe
पावन धाम - जैतारण
2715
आ. तुलसी समाधिमन्दिर, गंगा शहर
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जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर.... (प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले
खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?....)
MIN ARSameel मानार्य तुलगी सगी माल
आ. तुलसी समाधिमन्दिर – गंगाशहर
समाधिमन्दिर - सिकन्द्राबाद
आ. भिक्षु समाधिस्थल
1616वपमपाएगहाजत
विमानस्य/ SPECIAL.COVER
31-413
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श्री गोडी पार्श्वनाथजी जैन मंदिर, पुणे SHRI GODI PARSHWANATHUI IAIN MANDIR, PUNE
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जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर.... - (प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले
खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?....)
मन्दिर में छोटे से दिपक में पाप माननेवालों का खुद के आडंबर में | रात में झगमगाती रोशनी में असंख्य तेउकायकी भयंकर विराधना
आचार्य देवेन्द्र मुनि
देवेन्द्र धाम, उदयपुर
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RASOHA
पारसधाम – मुंबइ (बोरीवल्ली)
पारसधाम – मुबइ (घायकोपर)।
SEASONA
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जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर.... (प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले
___ खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?...)
अजरामर स्वामिकी
पाट पूजा
(लींबडी) गणेशलालजी गुरुमन्दिर
भारत INDIA
मोकगायकगारrinsexeeta
उमराव वर जी अर्चना 500 KINRAOKINNERJI-ARCHANA VO
मान्या.LDEONDASSALJALERIAL
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जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर.... (प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले
खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?....)
आ. महाप्रज्ञ समाधिस्थल
मूर्तिपूजा के विरोधी द्वारा निर्मित गुरु मन्दिर समाधिमन्दिर आदी
श्रीशील गुरुणी पाव
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गणेशधाम
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Wewjainenbrarong
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सहय
जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर.....
( प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?... )
नमो अरिहंताणं नमो सिद्धां नमो आपरियाण नमो वाणं नमो लोए सव्यसाहू एनकारी सत्य पावणासो मंगला ग मंगलम
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(अर्चना धाम, अजमेर
वाचार्य मधुकर मुनिज
गुरू मधुकर बड़े उपकारी हैं अर्चना गुरुणी की महिमा बड़ी भा
पू. आर्चनाजी की समाधि स्थल - अजमेर
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कसरी पावन धान ATH FROM
पावनधाम - जैतारण
Sred ADARY 300 2004
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जगह जगह निर्मित स्थानकवासी समाधिमन्दिर.... (प्रभु के कल्याणको की जगह निर्मित तीर्थो में जाने का निषेध करने वाले
खुद के गुरु समाधि मन्दिर कैसे बना लेते है ?....)
समाधिमन्दिर – गोगुन्दा
पुष्कर धाम
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(१४) प्रभु के दर्शन..... (प्रभु प्रतिमा का निषेध करने वालो को ही प्रभु आलंबन का स्वीकार करना पडा)
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णमो अरिहताण। णमो सि णमो आयरियाण। णमो उक्ज
- प्रभु के पास...
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(१५) शासन प्रभावना का निषेध (प्रभु भक्ति निमित हो रहे आडंबर के निषेध
फल खुद के पीछे आडंबर बढाना)
स्थानकवासी संत द्वारा
आरंभ - समारंभ
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UTrches Madlapaning
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नवकारतिर्थ
नवकार
दिन
आडंबर में पाप मानकर प्रभु पूजा से दूर रहनेवालों का
खुद का आडंबर देखिये !
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(१६) महापूजन पढवाना..... (मोक्षफल प्रदायक महापूजन के निषेध का फल मनघंडत पूजा - पूजन पढवाना )
पू. रुपचंदजी म. प्रभु के आडंबर का विरोध करने वलों का
खुद का आडंबर देखिये !
श्वेतांबर मन्दिर पर स्थनकवासी कब्जा... क्यूँ ?
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महापूजन पढ़वाना
विप्रबर जैन मन्दिर
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भास्कर मुनि द्वारा (ऋषिमंडल) महापूजन
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महापूजन पढवाना.... (मोक्षफल प्रदायक महापूजन के निषेध का फल → मनघंडत पूजा-पूजन पढवाना)
भास्कर मुनि द्वारा समय समय पर आयोजित हो रहे ऋषिमंडल महापूजन
अब कलश को वासक्षेप...???
प्रभु के समवसरण की स्थापना द्वारा
महाविदेह की भावयात्रा...
भरगnिt
प्रभु की जगह कलश की स्थापना ???
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(१७) कलश की स्थापना प्रभुमूर्ति (स्थापना निक्षेप) उत्थापन का फल → कलश की स्थापना उसकी पूजा उसका प्रभाव बढाना....
नवकार कुंभ की स्थापना करते आचार्य श्री शिवमुनीजी
जमा अरिस्ताण
रखान्टमायण
गुरु गणेश धाम
कलश
कलश स्थापना
र तीचे
26 जनवरी 2012 हाप्रभावी नवकार कलश भवन में दर्शनीय अद्भुत कलाकृतिय नाम अनुरूप साधना हेतु समर्पित प्राकृतिक एवं पहुंच पत्र, पैसठिया का, पन्दरिया यंत्र, चोतिशियां उर्जा से सम्पन्न नवकार कलश भवन में जहां अनेक यंत्र मंत्र स्थापित किए गए है। दिल्ली वन
निर्मित शक्ति सम्पन्न कलस अपनी उर्जा प्रवाहित भक्तगणों का लगातार नवकार तीर्थ में आवागमन | वहीं कलश भवन में चहुँ ओर नवकार महामंत्र से | जिनके आवास-निवास की समुचित व्यवस्था ट्रस्ट एका अनेक शास्त्रीय मंगल गाथाएं एवं भगवान महावीर द्वारा की गई है। म गणधर, श्री पार्श्वनाथ जी, श्री आदिनाथ जी, श्री| आप सभी श्रद्धान्तुजलों से पाप परी विन कामी जी, श्री घण्टाकर्ण जी की मणिभद्र जी एवं नवकार तीर्थ में पधारकर नवकार महामंत्र की साधन वीश्री पद्मावती माता जी के साथ-साथ विजय कर अपनी कर्म निर्जरा करें।
स्थानकवासी द्वारा निर्मित नवकार कलश मन्दिर
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(१८) प्रभु के दर्शन.... (प्रभुप्रतिमा का निषेध करने वालो को ही प्रभु आलंबन का स्वीकार करना पडा)
500
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भारत INDIA 300-3500
भारत
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जयमलजी महाराज JAIMAL JI MAHARAJ
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300
भारत INDIA
भारत IND
आचार्य तुलसी ACHARYATULA
UMRAD RINNAR BARU
500 प्रभु प्रतिमा के विरोधियों को खुद के फोटो (स्थापना) का कीतना शोक है ?
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नम्रमुनि द्वारा प्रतिमा स्थापन...
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देहादि णिमित्तंपि हु जे, कायवहम्मि तह पयट्टति
जिणपूआ कायवहम्मि, तेसिमपवत्तणं मोहो ॥४५॥ शरीर, व्यापार, खेती आदि सांसारिक कार्यो में तथा संत सतियों की जन जयन्तियां, शमशान यात्रा, किताबें छपवाना, मर्यादा-महोत्सव, दीक्षा महोत्सव चतुर्मास में वाहन द्वारा संत-सतियों के दर्शनार्थ जाना, बडे – बडे स्थानक, सभ भवन, समता भवन बनवाना आदि धार्मिक कार्यो में हिंसा करते ही हैं। लेकिन जीवहिंसा का बहाना बनाकर जो लोग समकित ओर मोक्ष देनेवाली जिन पूजा को नहीं करते है। यह उनका मिथ्यात्व है! मोह है!! मूर्खता है!!!!
श्रावक प्रज्ञप्ति ( उमास्वातिजी महाराज) और एकावतरी १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य श्री हरिभद्रसूरि म. कृत
चतुर्थ पंचाश्क महाग्रन्थ से उद्धृत
Jim Conternetionar
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________________ 9. A मीशवश्चकमामातियांचसापा। ऋष्कवितागायाफलिदमयारमाजे श्मविमाणावितश्नगारदिनाच्या खिकणाशमादानियश नाईविषा गाश्वमहाशदानिफनिदमया दमफालियामयाणलवणेजाजा। श्मदिमायाजोयशिगमहिना गा। बानडयालगाएगवंदाविमाशायामा विवरायवनपट मीनाणामिनभवनिम्नसंपळा निखावविवाहितमानधागतिमा बायस्ववियागीयामपरिक्रणायन सावल Mणमानववसामुनी व्यायान्यनिकलाममा समा महावागवावास्तवाचालिमा लारामनियामार्ग की भावना मान प्रकाशिदागीभनिसलागवत्रियागण्य दवाणदामादणाकालमरमामासाकतिमि PA R राधारमानी कामयाब नामावलीमाहाधिपयशव REशायडिबुझााव माहवाशायदा मसिदिस्य सरसारखमाबसणारय- सिच oraसावधादाममा न मिणमिवामपक्षात Jaypratap sumamal कनवालावनी aateauसकोमलताना बोरासीमानाMARDARSHAN Nireनातवासाvिaahu मसालनयाधमान randsबहिनदीमानिगाय ! वाड्यालसमानाका RedwaranNTRENAPOO ना Shamimarआहारमsantal पEिRIशाददममाsमियो DMRTAapherdnaa t mangalsod अनलाammarATHIमार्थ MARATHomसिंहाथ Pageमावनिक pashurmuraria (जैनत्व जागरण ग्रंथमाला-१) For Personal & Private Use Only Po