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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१७७ 3६. क्या दीका आदि भी मूल की तरह माननीय
है → समीक्षा जैसे कोई कृतघ्नी व्यक्ति अपने परमोपकारी वडिल का उपकार भूलकर उसी का अपकार करता है, वैसे ही डोशीजी अर्थ-गंभीर आगमों के अर्थ जिनकी टीकाओं के बिना अशक्य है । अतः उन्हीं टीकाओं का सहारा लेकर स्थानकवासी मुनियों द्वारा भाषांतर किये होने पर भी खुद की कल्पित मान्यता का विरोध आने पर उसी को अप्रमाण करने जा रहे हैं । खुद की सिद्धि के लिये मूर्तिपूजक समाज के द्वारा उत्सूत्र-प्ररूपणा के कारण संघ से बहिष्कृत ऐसे पंडित बेचरदासजी की विचारधारा का हवाला दे रहे हैं, जिसकी कोई कीमत नही है।
डोशीजी "टीका मानने में पहले मतभेद था ही नहीं, न किसीने टीका आदि के विरूद्ध एक शब्द भी उच्चारा..." इत्यादि ज्ञानसुंदरजी की बात का खंडन करते है, वह अज्ञानता है। उसमें प्रभावक चरित्र का हवाला "दुष्ट रक्तदोष लागू पड़ने से ईर्ष्यालु लोगों ने उत्सूत्र प्ररूपणा के कारण शासनदेव ने कोढ़ उत्पन्न किया" इस प्रकार दिया है, वह लोगों को भ्रमित करने हेतु अधूरा दिया है । प्रत्येक शुभकार्य में ईर्ष्यालु तो ऐसा कुछ न कुछ कहते ही हैं । समझदार विद्वानों का विरोध हो तो ही वस्तु में तथ्य होता है ।
और बाद में देव के प्रभाव से कोढ़ चला जाने पर इर्ष्यालुओं के भी मुंह बंद हो गये तो विरोध किसका रहा? यह बात डोशीजी ने जानबुझकर छिपाई
आगे अभयदेवसूरिजी म. के ठाणांग वृत्ति के अंत का पाठ "सत्सम्प्रदायहीनत्वात्.......'' इत्यादि से टीकाकारश्री ने जो कहा है ‘स्खलना होना संभव है' अतः सिद्धांतानुगत अर्थ को विवेकी ग्रहण करे, उससे टीकाकारश्री की लघुता-भवभीरूता ही प्रतीत होती है। इस आशय के उल्लेख टीकाकारश्रीने अनेक स्थलों पर किये है । उत्सूत्र प्ररूपणा के भयबोधक ही वे उद्धार है। इसे स्थानकवासी विद्वान् आचार्य भी स्वीकारते हैं - देखिये - "जैन धर्म
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