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________________ १७८ — जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा का मौलिक इतिहास" भाग-४ पृ. १६२ "साररूप में कहा जाय तो अनंतकाल तक भयावह भवाटवी मे भटकाने वाले उत्सूत्र व्याख्यान अथवा प्ररूपण के भय से भीरू बने अभयदेवसूरि ने अति विनम्र शब्दों में स्वयं द्वारा अनेक प्रकार की त्रुटियाँ होने की सम्भावना व्यक्त करते हुए क्षमायाचनापूर्वक जिनभक्त विद्वज्जनों से उन त्रुटियों को शुद्ध कर लेने की प्रार्थना की है।" जिन टीकाकारश्री में इतनी उच्च कोटी की शास्त्रसापेक्षता-भवभीरूता हो उनके द्वारा छद्मस्थता के कारण भूल हो तो क्वचित् ही संभव है । वैसे तो गौतमस्वामीजी की भी छद्मस्थता के कारण भूल हुई थी वे आपके हिसाब से अप्रमाण होंगे क्या? ऐसे टीकाकार जगह-जगह पर मूर्ति-मूर्तिपूजा की बातें टीका में जोड़ शास्त्र के अर्थों में गोलमाल करे यह बात तटस्थसमझदार अभिनिवेश रहित पुरूषों के गले कदापि नहीं उतरेगी । कदाग्रही अभिनिवेशी व्यक्ति मताग्रह से ऐसा माने उसका कोई इलाज नही हैं । दूसरी बात इन टीकाओं का संशोधन तत्कालीन आगम विशेषज्ञ द्रोणाचार्यजी और अन्य महाश्रुतधरों ने किया है। देखिये 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' भाग४ लेखक आ. श्री हस्तीमलजी पृ. १५२ "महाश्रुतधरैः शोधितासु तासुचिरन्तनैः । ऊरीचक्रे तदा श्राद्धैः पुस्तकानां च लेखनम् ॥११४|| इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट रूपेण यह प्रकट किया है कि ज्ञानवयोवृद्ध श्रुतधर आचार्यों ने अभयदेवसूरि द्वारा रचित नवांगी वृत्तियों का संशोधन किया ।" उपरोक्त मौलिक इतिहास के पाठ से सिद्ध है कि तत्कालीन विशिष्ट ज्ञान वृद्धोंने उनके टीका का संशोधन किया था, यह स्थानकवासी भी मानते हैं । उसमें आगम विरूद्ध - आगम के आशयविरूद्ध कुछ होता तो उसे वह कैसे रहने देते ? प्रमाणित कैसे करतें ? ___वर्तमान में तो पू. अभयदेवसूरिजी म. के काल में जो सम्प्रदाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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