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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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(परंपरा) इत्यादि सामग्री थी वह तो है ही नहीं । स्थानकवासी साधु आदि मताग्रह से खुद की कल्पना से जो जिसके मन में आया आगमों का अर्थ करते हैं । ना ही विशिष्ट श्रुतधरों के पास संशोधन, उसको डोशीजी प्रमाण मानेंगे और अपनी लघुता बतानेवाले भयभीरू उत्सूत्रप्ररूपणा से डरनेवाले टीकाकार के टीकाओं को अप्रमाण मानेंगे ? महा मिथ्यात्व का ही यह दोष है । मिथ्यात्व ही व्यक्ति को सत्यासत्य का भान होने नही देता है ।
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जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ४ पृ. १७६ " विक्रम की ११वीं १२वीं शताब्दी के आगम मर्मज्ञ, वृत्तिकार, विपुल साहित्य के सृष्टा आचार्य अभयदेव जैन जगत् में नवाङ्गी वृत्तिकार के रूप में विख्यात हैं । आगमों के गहन - गूढ़ार्थ का सुगम सरल शैली में बोध करा देनेवाली आपकी नवाङ्गी वृत्तियाँ विगत ९ शताब्दियों से आगमों के अध्येताओं को मार्गदर्शन करती आ रही हैं और भविष्य में भी सहस्त्राद्वयों तक मुक्ति पथ के पथिकों को दुरूह मुक्तिपथ के परमप्रमुख पाथेय आगमिक ज्ञान के अर्जन में सहायकता प्रदान करती रहेंगी । इसी कारण आचार्य अभयदेव सूरि का प्रातःस्मरणीय पवित्र नाम जैन जगत् के इतिहास में सदा -सदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा ।" ऐसे टीकाकार श्री की प्रशंसा शास्त्रसापेक्षता - उत्सूत्रप्ररूपणा भीरूता आदि प्रगट करते और भी अनेक उल्लेख उपरोक्त इतिहास में स्थानकवासी परंपरा के विद्वान् - मान्यता प्राप्त आचार्य श्री हस्तीमलजी ने किये हैं । जिससे तटस्थ व्यक्ति अवश्य निर्णय करें टीकाकार श्री की टीकाएं प्रमाणभूत है या नहीं ?
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निशीथ सूत्र की पीठिका में स्थानकवासी उपाध्याय अमरमुनिजी कहते है "छेदसूत्रों का अपना स्वयं का मूलग्रंथ भी भाष्य और चूर्णि के बिना यथार्थत: समझ में नहीं आ सकता । यदि कोई भाष्य और चूर्णि का अवलोकन किए बिना छेदसूत्र गत मूल रहस्यों को जान लेने का दावा करता हैं, तो मैं कहूँगा या तो वह भ्रान्ति में है, या दंभ में है ।"
जयध्वज पृ. ६७० पर जयमलजी म. जिन्होंने आवश्यकादि की टीकाएँ
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