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________________ १८० जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा लिखी है ऐसे याकिनी महत्तरा सुनू हरिभद्रसूरिजी म. के लिये बताते हैं । "वे सत्य और शुद्ध संयमी जीवन के पक्ष में थे ।" क्या ये स्थानकवासी विद्वानों के वचन भाष्य-चूर्णि टीकादि की प्रामाणिकता नहीं बताते हैं ? ___ आगे डोशीजी जो लिखते हैं "मूर्तिपूजक विद्वान् ही टीका भाष्यादि के हवाले को प्रमाणरूप नहीं मानते हैं" वह भोले लोगों को भ्रमित करने का तरीका है । जितने भी उदाहरण दिये हैं किसी में टीका भाष्यादि के अप्रमाणता की बात नहीं की है। प्रथम उदाहरण में वृत्ति-चूर्णि-भाष्यनियुक्ति-सूत्र उत्तरोत्तर बलवान् प्रमाण गिने हैं, उससे पीछे-पीछे के अप्रमाण यह अर्थ नहीं निकलता है। पूर्वधरों में १-९ यावत् १४ पूर्वी - अवधिमनःपर्यव-यावत् केवलज्ञान तक में उत्तरोत्तर बलवान् प्रमाण गिना जाता है, उससे पूर्व-पूर्व के अप्रमाण कोई नहीं कहेंगे । यही बात आगे सभी उदाहरणों में समझनी। ___ अंतिम उदाहरण में पू. नेमिसूरिजी ने भाषांतर की अपेक्षा मूल को प्रमाण माना है। स्थानकवासी पंथ में गृहस्थ प्रायः संस्कृत-प्राकृत के अनभिज्ञ होने से आगमों के भाषांतर छपवाकर उनमें उत्सूत्र अर्थ करते हैं । वे इस पाठ से बाधित हो जाते हैं । जो व्याकरण को व्याधिकरण मानते हैं, वे स्थानकवासी विद्वान (?) शुद्ध अर्थ ग्रहण करेंगे भी कैसे ? आगे टीका के बारे में उसको अप्रामाणिक बनाने में जो कुकल्पनाएँ की हैं वे ऊपर बताये मौलिक इतिहास के पाठ से बाधित हो जाती हैं । उत्सूत्र प्ररूपणा भीरू-भवभीरू टीकाकार अपनी परिस्थिति के अनुकूलमनमानी टीका बना ही नहीं सकते । उत्सूत्र प्ररूपक होने से जिन्हें संघबाह्य किया गया ऐसे पंडित के प्रमाणों की कोई विश्वसनीयता नही है । आगे डोशीजी कहते हैं "विवादग्रस्त विषयों की चर्चा हो, वहाँ इन टीकाओं का (मूलाशय रहित की गई व्याख्याओं का) प्रमाण कुछ भी महत्व नहीं रखता..." सुज्ञ लोग मूलस्पर्शी टीकाओं या नियुक्तिआदि को अवश्य मानते हैं...। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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