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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १८१ वस्तुतः टीकाओं को मूलाशयरहित-विरूद्ध मानना यह आभिनिवेशिक, बुद्धि से हो रही आगमों की आशातना है । स्थानकवासी संप्रदाय के विद्वान् मूर्धन्य आचार्य श्री क्या फरमाते हैं, देखिये - "आ. अभयदेव-सूरि द्वारा ९ अंगों पर रचित ये वृत्तियाँ इन (नवों ही) अंगो के गूढार्थपूर्ण सूत्रों और शब्दों पर स्पष्ट प्रकाश डालनेवाली हैं । न तो वे अतिसंक्षिप्त हैं और न ही अति विस्तारपूर्ण । सूत्रार्थ स्पर्शिनी एवं शब्दार्थ विवेचन प्रधान शैली को अपनाकर भी अभयदेवसरिने इन वृत्तियों में जहाँ-जहाँ उन्हें आवश्यकता प्रतीत हुई, शब्दों और सूत्र के अर्थ का सुबोध शैली में सुंदर ढंग से विवेचन किया है आगमों के अध्ययन में रूचि रखनेवाला जिज्ञासु सूत्रों एवं शब्दों के गहन-गूढ रहस्य को भलीभांति हृदयंगम करने में सक्षम हो सकता है... अतः इन वृत्तियों के अध्ययन निदिध्यासन से अध्येता को सहज ही यह अनुभव होने लगता है कि अभयदेवसूरिने इन ९ वृत्तियों के रूप में वस्तुतः उसे आगमों के निगूढ़ रहस्य को उद्घाटित कर देने वाली ९ कुंजियाँ ही प्रदान कर दी है।'' जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग ४ पृ. १६८ (आ. श्री. हस्तीमलजी म.) अब तटस्थ व्यक्ति विचारे टीकाओं को मूलाशयविरूद्ध मानना आगमों की आशातना हैं या नहीं ? स्थानकवासी आचार्य देवेन्द्र मुनि जी ने भी टीकाओं की प्रामाणिकता अनिवार्यता एवं विश्वसनीयता को स्वीकार किया हैं । (देखें - जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा) डोशीजी के अलावा किसी भी विद्वान संत की इस विषय में दो राय नहीं है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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