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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
३७. मूर्तिपूजा विषयक ग्रंथों की अप्रामाणिकता → समीक्षा
इस प्रकरण में डोशीजी ने मूर्तिपूजक आचार्य एवं उनके ग्रंथादि की भरपेट निंदा की हैं, अनेक कटाक्ष- अभद्र शब्दों का प्रयोग किया हैं । जिसका विशेष उत्तर देने की आवश्यकता नही है । उनको प्रत्युत्तर उन्हीं की भाषा में प. पू. लब्धिसूरीश्वरजी म. ने मूर्तिमंडन में 'लोकाशाह मत समर्थन का पर्यालोचन' में दिया है । जिसकी तृतीय आवृत्ति 'श्री लब्धिसूरि ग्रंथमाला, छाणी' से हाल में ही प्रकाशित हुई है ।
निगम शास्त्रों के लिये किसी अनामी व्यक्ति ने संघपट्टक की प्रस्तावना में लिख दिया, दूसरा कोई प्राचीन प्रमाण न होने से उसी को डोशीजी प्रमाणरूप में पेश कर रहे है । ऐसे इक्के दुक्के व्यक्ति कल्पना से निराधार बातें करें वह प्रमाण नहीं होता है ।
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मूर्तिपूजा - निरूपक ग्रंथो को आगमविरोधी कह देने से वे आगमविरोधी नही बनते हैं । स्थानकवासी मान्य ३२ आगमों में जैसे हिंसादि पापों का निषेध है, वैसे मूर्तिपूजा का एक वाक्य में भी कहीं पर भी निषेध नहीं हैं तो उसमें मिथ्यात्वादि दोष कैसे लग सकते हैं ? आगमविरोधी कैसे ? उल्टा अनेक आगमों में मूर्तिपूजा बतायी है। इससे तो कल्पित स्थानकवासी पंथ ही आगमविरोधी सिद्ध होता है ।
आगे ढ़ेर सारे उदाहरण दिये हैं । उन सब के उत्तर पू. लब्धिसूरिजी म. ने दे दिये हैं । इसमें डोशीजी श्राद्धविधि पृ. १५७ का पाठ देकर घोड़े को अग्नि में होमकर पुण्य मानने की मान्यता मूर्तिपूजकों की होने की संभावना व्यक्त करते है । इसमें डोशीजी जान बूझकर पाठ को छिपाकर उसका गलत अर्थ करके अपना मूर्तिपूजकों के प्रति उग्रद्वेष को प्रदर्शित करते हैं । श्राद्धविधि ग्रंथ के हिंदी भाषांतर में यह पाठ है "लोक में भी कहा है कि भक्तिमान् पुरूष देव के सन्मुख कर्पूर का दीप प्रज्वलित करके अश्वमेघ का पुण्य पाता है ।" गुजराती भाषांतर में "लौकिक शास्त्रमा कहेल छे के
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