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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा साल का उत्पन्न हुआ है जिसकी नही तो सूत्रपरंपरा नही अर्थ परंपरा है इसलिये अपने-अपने बुद्धि से अर्थ करते हैं । काउसग्ग भी अपनी कल्पना से कम करते हैं । जिससे स्पष्ट होता हैं कि अजीब ढंग का बिना कोई परंपरा का आवश्यक स्थानकवासियों का है, मूर्तिपूजकों का तो एक समान परंपरानुसारी है । खुद मूल के पाठ को भी उडा के सूत्रलोप का महापाप करते हैं और 'चोर कोतवाल को डांटे' नीति से निर्दोषों पर टूट पडते हैं ।
पं. बेचरदासजी की शास्त्रविरूद्ध विचारधारा को कोई भी मूर्तिपूजक विद्वान्-आचार्यादि महत्त्व नहीं देते हैं, उसका खंडन भी हुआ है । अपनी अप्रामाणिक सिद्धि के लिये अप्रमाणिक हवाला देना बुद्धिमत्ता नहीं है ।
SAX पंव सागा :
फरे हुए पड़े में पानी नहीं रिक्ता
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