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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१७५ अपेक्षा वाला वैयावच्च करें यह स्पष्ट लिखा हैं । आशातना निवारण भी वैयावच्च हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में 'जक्खा वेयावडीयं कुव्वंति' यक्ष हरिकेशी मुनि की वैयावच्च (आशातना निवारण) करते थे, उसमें कोई विरोध नही
विपाकसूत्र में द्वितीय श्रुतस्कंध के दसों अध्ययनों में सुबाहु आदि जमाली की तरह चारित्र ग्रहण करते हैं जिससे जिनपूजा 'कयबलिकम्मा' शब्दों से सिद्ध होती है।
उववाई-रायपसेणी-जीवाभिगम की चर्चा पीछे अंबड-श्रावक-सूर्याभदेव प्रकरण में आ गयी है।
पन्नवणा 'स्थापना सत्य' का स्पष्टीकरण भी पीछे आ गया है। जंबुद्वीप-सूर्य-चंद्रप्रज्ञप्ति में पाठ स्पष्ट है ।
निरयावलिका-कप्पवडंसिया-पुष्पिका-पुष्पचूलिका-वह्निदसा इन पांचों में अनेक जगह पर चंपा आदि नगरी वर्णन में औपपातिक की भलावण रिद्धस्थिमियसमिद्धे से है उसमें 'बहुला अरिहंत चेइया' से "जिनमंदिर"
और "हाया कयबलिकम्मा" द्वारा जिनपूजा बताई गयी है। देखियेउवंगसुत्ताणि खंड २ लाडनूं ।। _अनुयोग द्वार में 'अक्खे वराडए...' से आवश्यकादि की स्थापना बतायी है वह उपलक्षण से है । सभी वस्तुओं की स्थापना हो सकती है, तो तीर्थंकर-आचार्य की स्थापना भी उपलक्षण से आ ही जाती है।
व्यवहार की बात पीछे आ गयी हैं । दशाश्रुतस्कंध मे राजगृही वर्णन में औपपातिक की भांति समझना। 'बहुला अरिहंतचेइया' से जिनमंदिर आते ही है, ण्हाया कयबलिकम्मा से जिनपूजा भी आती है। _आवश्यक में 'अरिहंतचेइयाणि' पाठ चूर्णि और हारिभद्रीय टीका में भी हैं जिसको करीब १३००-१४०० साल हुए, उन्होंने भी पूर्व सूत्र-अर्थ परंपरा से ही आया पाठ दिया है । जंब की स्थानकवासी पंथ ४००-५००
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