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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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कालीन है । मतमोह से उसे न मानना अभिनिवेश का ही फल है ।
ठाणांग-समवायांग में शाश्वती प्रतिमा बतायी हैं, वे तीर्थंकरों की है जिसकी सूर्याभप्रकरण में सिद्धि की गई हैं । प्रतिमाएँ हैं, तो मूर्तिपूजा भी सिद्ध ही हैं । उपपातादि में, देवलोक में वह शास्त्रसिद्ध हैं ।
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भगवती-ज्ञाता-धर्मकथा उपासकदशांग के पाठों से मूर्तिपूजासिद्धि क्रमशः तुंगिका श्रावक- - द्रौपदी-आनंद श्रावक के प्रकरण में पीछे की गई हैं ।
अंतकृद्दशा-प्रथमवर्ग प्रथम अध्ययन और अष्टमवर्ग प्रथम अध्ययन में चंपानगरी की बात आयी उसका वर्णन औपपातिक में हैं उसमे 'बहुला अरिहंत चेइया' पाठ है । प्रभु वीर के काल में भी अनेक अरिहंत चैत्य (जिनमंदिर) विद्यमान थे ये सुस्पष्ट है । वह यहाँ आ ही जाता है। गौरवभय विस्तार - भय से बार-बार वर्णन शास्त्र में नहीं देते हैं कहीं पर 'वण्णओ' कहकर पूर्व की भलावण करते हैं । कहीं पर नहीं भी करते तो भी वह समझी ही जाती हैं । इसी सूत्र में तृतीय वर्ग प्रथम अध्ययन में भद्दिलपुर नगर में 'वण्णओ' कहकर औपपातिक के चंपानगरी के वर्णन का अनुसंधान (बहुला अरिहंत चेइया) किया है । (देखिये - अंगसुत्ताणि भाग - ३ लाडनूँ )
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अनुत्तरोपपातिकदशा में प्रथम वर्ग प्रथम अध्ययन जातिपद में " रायगिहे नयरे रिद्धत्थिमियसमिद्धे" द्वारा औपपातिक, चंपानगरी के वर्णन (बहुलाअरिहंत चेइया) की भांति है, वैसे ही तृतीय वर्ग प्रथम अध्ययन में "काकंदीनामं नयरी होत्था रिद्धत्थिमियसमिद्धा ।" से भी चंपा के वर्णन की भांति है जिससे भी 'बहुला अरिहंत चेइया' आ ही जाता है। (देखियेअंगसुत्ताणि भा- ३ लाडनूं)
प्रश्नव्याकरण 'चेइयट्ठे' से सिद्ध है चैत्य की आशातना निवारण करे । इसमें डोशीजी कुतर्क करते हैं - क्या मूर्ति मंदिर की सेवा आहारादि से करें ? मूर्ति जड़ है वह आहारादि कैसे ग्रहण करेगी इत्यादि सब निरर्थक हैं। पू. टीकाकार श्री ने चैत्य - जिनप्रतिमा उनके प्रयोजन में कर्मनिर्जरा की
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