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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१७३ 3५. बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प → समीक्षा
प्रकरण में ज्ञानसुंदरजी के चौथे प्रकरण पृ. ११० में ३२ आगमों में मूर्तिपूजा के पाठ दिये हैं उनकी सत्यता को ढंकने हेतु डोशीजीने कटु शब्दों का प्रयोग किया है।
इसमें डोशीजी बता रहे हैं "बत्तीस सूत्रों के पाठ से मूर्तिपूजा सिद्ध करने का इकरार करते हैं, किन्तु पाठक जब इस प्रतिज्ञा के बाद के जितने भी पाठ देखेंगे, वे सब उल्टे ही नजर आयेंगे" यह बात सत्य नहीं हैं । चूँकि तटस्थ पाठक अवलोकन करें तो ३२ में से २६ पाठ तो सूत्र के ही है। आचारांग-दशवैकालिक दो पाठ नियुक्ति के हैं। नियुक्ति की प्रामाणिकता मूल सूत्रों से सिद्ध हैं - "सुत्तत्थो खलु पढमो बीओनिज्जुत्ति मिस्सिओ'' यह अनुयोग-सूत्रों की व्याख्या के संदर्भ में नंदिसूत्र एवं भगवती २५ शतक तृतीय उद्देश में मूलसूत्र का पाठ है, वैसे ही नंदिसूत्र आदि में 'संखित्ताओ निज्जुत्तिओ' अनुयोगद्वार सूत्र में अणुगम अनुयोग द्वार में 'सुत्ताणुगमे य णिज्जुत्तिअणुगमे य ये सब मूलसूत्र के पाठ स्पष्ट बता रहे हैं कि नियुक्ति भी प्रमाण है । इसलिये उपरोक्त दोनों पाठ भी प्रमाणभूत हैं। उत्तराध्ययन टीका पाठ भी नियुक्ति के भाव को लेकर ही हैं । आगे बृहत्कल्पभाष्य और निशीथचूर्णि के दो पाठ भी - तटस्थ व्यक्तिओं के लिये प्रमाणभूत हैं । तटस्थ स्थानकवासी विद्वान संत भी अमरमुनिजी निशीथपीठिका-संपादकीय पृ. ३ में स्पष्ट बता रहे हैं “यदि कोई भाष्य
और चूर्णि का अवलोकन किए बिना छेद सूत्रगत मूल रहस्यों को जान लेने का दावा करता है तो मैं कहूँगा, या तो वह भ्रान्ति में है या दंभ में है।"
सूयगडांग में शीलांकाचार्य टीका पूर्व टीकानुसारी है । उसका पाठ भी सूत्रानुसारी ही हैं चूंकि मूलसूत्र आर्द्रकीय अध्ययन सूत्र संक्षिप्त ही है, विस्तृत आर्द्रकुमार का चरित्र तो पूर्वपरंपरानुसारी टीका के बिना कहाँ से लाएँगे ? खुद की कल्पना से बनाया चरित्र प्रमाण नही होता है । इसलिये वि.सं. २१४ में रचित गन्धहस्ती टीकानुसारी चरित्र ही प्रमाणभूत है, पूर्वधर.
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