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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१४९ अलग अपेक्षा से है इसलिये दोष नहीं है ।
(७) पर्वत पर के घास आदि के जलने पर पर्वत जलता है और भाजन(पात्र) में से पानी टपकने पर भाजन टपकता है, कैसे कह सकते हैं ? व्यवहार में ऐसा प्रयोग होता है अतः व्यवहार सत्य होने से ऐसा प्रयोग अविरूद्ध है।
(८) पांच वर्ण भ्रमर में होते हैं, तो उसे काला कैसे कह सकते हैं ? उसमें कालावर्ण उत्कट है अतः काला भ्रमर कहा जाता है, वह भावसत्य
(९) हमेशा जिसके पास दंड है उसे दंडी, छत्र है उसे छत्री कहे यह तो बराबर परंतु क्वचित् दंड-छत्र न होने पर भी उस वक्त उसे दंडी, छत्री कहना बराबर नहीं है ? योगसत्य होने से वैसा प्रयोग होता है, अतः विरूद्ध नहीं कहलाता । जैसे मुंहपति डोरी पर सूखती हो तभी भी मुंहपति ही कही जाएगी, न कि कपड़े का टुकड़ा।
(१०) कहाँ समुद्र और कहाँ तालाब उसे समुद्र के समान कैसे कह सकते हैं ? उपमासत्य के हिसाब से समुद्रवत् तडागः प्रयोग अविरूद्ध है ।
उपरोक्त सभी उदाहरणो में अनुपपत्ति का समाधान उन-उन सत्यों को मानने पर होता है, मुख्य बात तो यह है कि विरूद्ध जैसे लगने पर भी वैसे प्रयोग लोक में होते है वे असत्य नहीं कहलाते हैं । टीका देखने से यह ज्ञात होता हैं । स्थापना को स्थापना मानना, मूर्ति को मूर्ति, चित्र को चित्र, जंबूद्वीप के नक्शे को नक्शा मानना इसमें कोई भी विसंगति हैं ही नहीं, इसलिये यह स्थापना सत्य में आ ही नहीं सकता, तो उसे किस सत्य मे गिनेंगे? जनपद सत्य में उसे गिन सकते हैं । उस-उस देश में आकारवाली वस्तु को मूर्ति, चित्र आदि कहते हैं, इसलिये वह प्रयोग उस देश में प्रमाणभूत हैं दूसरे देश में उसके लिये दूसरा शब्दप्रयोग होता है ।
डोशीजीने जानबूझकर टीका के दूसरे-उदाहरणों को दिया है, स्थापना सत्य को छोड दिया है इस डोशीजी की वृत्ति को आपने पीछे अनेक स्थलों
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