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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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भाग-१-२ में छपा हुआ है, तटस्थ जिज्ञासु वह पढ़कर निर्णय कर सकते है कि स्थानकवासी समाज से वे बहिष्कृत हुए या जिनाज्ञा विरुद्ध समझकर उन्होने उस पंथ का त्याग किया ।
'कापरडाजी तीर्थ का संक्षिप्त इतिहास' पुस्तिका में भी ज्ञानसुंदरजी म. का संक्षिप्त जीवन चरित्र दिया है उसमें पृ. १७ पर “स्थानकवासी समाज में घेवर मुनिजी (यह ज्ञानसुंदरजी म. स्थानकवासी. के नाम है) का अच्छा सम्मान था वे उच्च कोटि के साधु माने जाते थे इसलिये उधर से निकल जाने से उन लोगों को पश्चाताप होना स्वाभाविक था किन्तु कोई मार्ग नहीं दिख पडता था उधर रहने के लिये जितने प्रयत्न करने चाहिए वे सब किए गये किन्तु सफलता नहीं मिली और एक वीरात्मा के समान. अतिस्पष्ट उल्लेख है इससे तटस्थ व्यक्ति सत्यता समझ सकते हैं ।
यह
बांठियाजी लिखते है " आपके दिए गए उद्धरण बेबुनियादी अयथार्थ एवं आगमविरुद्ध हैं, ज्ञानसुंदरजी के उद्धरण ऐसे है या डोशीजी का अर्थ घटन अयथार्थ आगम विरुद्ध है, उसका निर्णय दोनों किताबों को पास मे रखकर पढ़ने से पाठक खुद ही करेंगे ।
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पृ. १० पेरा २ चर्चा में हमेशा मूर्तिपूजक समाज को मात खानी पड़ती । क्योंकि वे इसे जिनागम सम्मत सिद्ध करने में हमेशा विफल रहे ।
समीक्षा → हा, हा हा... यह बात बिलकुल असत्य है । 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' पुस्तक पृ. ४१२ से ४१५ में दिये हुए नाभानरेश का फैसला, जिसे नाभानरेश की आज्ञा लेकर छपाया है, लौंकागच्छ और स्थानकवासी पुस्तक में जेठमलजी और पं. वीर विजयजी का वाद जिसका उत्तम विजयजीने रास लिखा है उससे भी सिद्ध होता है स्थानकवासी ही हमेशा मात खाते रहे । ऐसे दूसरे भी अनेक दृष्टांत है । मेघजीऋषि वगैरह की बातों से वास्तविकता प्रकट होती है । तटस्थ व्यक्ति प्रामाणिक निर्णय खुद ही करें । कच्छ मे स्था. छोटालालजी म. व आ. यशोदेवसूरिजी के
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