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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा .
४१ समीक्षा → आगम के अर्थों का तोडमरोडकर अर्थ स्थानकवासी ही करते है, मूर्तिपूजक नही ! ज्ञानसुंदरजी की "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास'' पुस्तक में उसे बताया है। अभी-अभी देखने मे आई "लौकागच्छ
और स्थानकवासी' किताब में पं. श्री. कल्याण विजयजी म. ने भी इसे सप्रमाण सिद्ध किया है । डोशीजी की पुस्तक पढ़ने पर पाठक अच्छी तरह से समझ सकेंगे तोड-मरोड़कर अर्थ कौन करते है। स्थानकवासी पंथ का शंखनाद करने वाले लोंकाशाह स्वयं ही संस्कृत-प्राकृत के ज्ञाता नहीं थे, तो अर्थ कैसे समझते ? वही अधूरा ज्ञान उनकी परम्परा में चलता आया
उसके लिए दूसरा भी प्रमाण है "संपूर्ण मूर्तिपूजक समाज में सभी हजारो सालों से चली आ रही प्राचीन नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-टीका के आधार पर अर्थ करते आये हैं - सभी उसको मान्य रखते हैं. एक वाक्यता है, जब की स्थानकवासी अलग-अलग संप्रदायों के जितने भी आगम छपे है, मूर्तिपूजा के पाठों के अर्थ में कहीं पर भी एकवाक्यता नहीं है, प्रायः अपनीअपनी बुद्धि से किये काल्पनिक अर्थ ही दृष्टिगोचर होते है । स्थानकवासी परम्परा के पास स्वयं का कोई भी ऐतिहासिक-प्रामाणिक साहित्य नहीं है, अतः ज्ञान का आदित्य (सूर्य) भी नहीं है। दिगंबर विद्वान पंडित टोडरमलजी ने 'ढुंढक समीक्षा' में स्थानकवासी आगमों के पाठों को तोड़-मरोड़कर अर्थ करते हैं, यह बात अत्यंत स्पष्टतापूर्वक कही है।
पृ. ९ → श्री ज्ञानसुन्दरजी म. (जो मरुधर केसरी कहलाते) पहले स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित हुए, स्थानकवासी समाज से वे बहिष्कृत किए जाने पर वे मूर्तिपूजक समाज मे जा मिले और वहां जाकर आपने वहाँ "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक लिखी, जिसमें आपने आगम के कुछ खोटे उद्धरण देकर मूर्तिपूजा को जिनागम सम्मत बताने का प्रयास किया । आपके दिए गए उद्धरण कितने बेबुनियादी अयथार्थ एवं आगम विरुद्ध है,
समीक्षा → ज्ञानसुंदरजी का विस्तृत जीवन वृत्तांत 'आदर्श जीवन'
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