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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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है । परम उपकारी प्रभु के शरीर के ऐसे हाल परमविवेकी इंद्रादि देव कर सकते है क्या ? अग्निसंस्कार से पूर्व प्रभु के जड शरीर को चंदन विलेपन वगैरह से उसकी पूजा क्यों करते हैं ? अगर जडपूजा में मिथ्यात्व है, पाप है तो इंद्रादि देव क्यों करते हैं ?
दूसरी बात आप गुणों की सेवा भक्ति-पूजा वगैरह की बात लिखते है वह कैसे संभव है ? गुण तो अरुपी हैं। पूजा दो प्रकार से होती है द्रव्य और भाव । द्रव्यपूजा अरुपी गुणों की असंभव हैं, और हिंसा के कारण आपको अनिष्ट भी है । भाव पूजा भी आपके हिसाब से असंभव है आप प्रभु की आज्ञा पालन को भाव पूजा मानते है । गुण अलग वस्तु है प्रभु आज्ञा पालन अलग है | अगर आप कहो धर्म - धर्मी अभेद द्वारा गुणवान् व्यक्ति की पूजा से गुणों की द्रव्य पूजा हो जाएगी तो आत्मा अरुपी है, अत: जड शरीर को माध्यम बनाए बिना आप द्रव्य भाव कोई भी गुणपूजा कर ही नहीं सकते है, अतः जड़पूजा को व्यर्थ मानना उचित नहीं है ।
आप लिखते है "मूर्ति पूजा में ऐसे कोई गुण दृष्टि गोचर नही होते हैं ।" आग्रहमुक्त होकर सोचने पर गुण दृष्टिगोचर होंगे। आगम एवं प्रत्यक्ष अनुभवों द्वारा अनेक जीवों के जीवन में बदलाव चारित्र - केवलज्ञान तक की प्राप्ति दृष्टिगोचर होती ही है। डोशीजी मात्र जिनपूजा के द्रव्यत्व में अटक जाते हैं। किन्तु शास्त्रकार मनीषियों ने जो जिनपूजा का रहस्य उद्घाटित किया है, वह निश्चित ही आत्मलक्षी व आत्मस्पर्शी है ।
जिसे डोशीजी पाषाण कहते हैं, सम्यक्त्वी लोग उन्हें भगवान् कहते हैं । जड़पूजा - मूर्तिपूजा जिनागम विपरीत लिखते है तो आपको मान्य ३२ सूत्रो में कहाँ-कहाँ पर मूर्तिपूजा का नामोल्लेखपूर्वक निषेध किया है ? बतावो रायपसेणी (राजप्रश्नीय) वगेरे सूत्रो में मूर्तिपूजा बताई है, उससे तो उसका विधान ही स्पष्ट रीति से समझ में आता है ।
पृ. ९ मूर्तिपूजक समाज जिन-जिन मुद्दों के आधार से मूर्तिपूजा को जिनाज्ञानुसार बतलाते है, उनमें कितनी सत्यता है, आगम पाठों को किस प्रकार तोड़ मरोड़ कर उनका अर्थ किया है ।
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