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________________ ८९ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ठाठ से हुई थी। निर्वाण महिमा करना इंद्रो का जीताचार है, यह जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में कहा है "वह क्रिया लौकिक जीताचार है' यह जो लिखते हैं वह किस सूत्र के आधार से ? वायुकाय आदि की विराधना करके प्रभु के पास जाकर वंदन वगैरह करके नाम-गोत्र कहते है, उसे आप धार्मिक जीताचार कहते है और इसे व्यावहारिक जीताचार इसके लिये शास्त्राधार क्या ? प्रभु के दीक्षा-केवलज्ञानादि कल्याणकों की महिमा भी क्या सांसारिक जीताचार होगा? उसे तो आप धार्मिक जीताचार ही कहेंगे, तो निर्वाणमहिमा सांसारिक जीताचार क्यों ? मध्यस्थ व्यक्ति को स्पष्ट रीति से समझ में आएगा कि डोशीजी मताग्रह से काल्पनिक अर्थ कर के सूत्रों को अपने तरफ खींचने की कोशिश करते है परंतु उसमें सफल नही हो पाते । आगे देखिये सूत्र में "धम्मत्ति कटु" स्पष्ट पाठ है उसके प्रसिद्ध सर्वमान्य अर्थ को मताग्रह से बदलने की कोशिश करते है परंतु उसमें भी असफल है । ग्राम धर्म-देश धर्म मनुष्यों में होते है देवों से उसका संबंध नही है कुलधर्म तो जीताचार में ही आएगा । वह भी धार्मिक जीताचार ही मानना पड़ेगा । ___ सद्गुरु के समीप सूत्राशय समझने की डींगे लगाने वाले डोशीजी को किसी सद्गुरु ने "धम्मत्तिक?" में धर्म का अर्थ क्या है ? वह समझाया ही नहीं है यह बात मध्यस्थ सज्जन व्यक्ति के समझ अवश्य आएगी क्योंकि इस प्रकरण मे विशेषतः पृष्ठ ६४ पर सूत्र में आए धर्म शब्द का क्या अर्थ करना उस दुविधा में संदेहजन्य ही उस शब्द को अंत मे छोड़ दिया है । सही अर्थ करे, तो मूर्तिपूजा की सिद्धि होती है, उस जाल में से छूटने के लिये कल्याणकारी धर्म मानकर दाढ़ाओं की पूजा करनेवाले परमात्मा के भक्त ऐसे इंद्रादि सभी देवों को मिथ्यादृष्टि बना दिया है । मूर्तिद्वेष के दुराग्रह की कोई सीमा ? आगे डोशीजीने चक्रवर्तियों की अस्थि, परमात्मा के शरीर की राख आदि को लेकर अनिष्ट आपत्ति दी है । वह समझे बिना, या तो जानबूझकर पाठ छिपाकर आपत्ति देते है । टीकाकार श्री स्पष्ट कर रहे हैं "योगभृत्तचक्रवर्ति" यानि चारित्रधारी चक्रवर्ती की अस्थियाँ देव ले जाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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