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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हैं, पूजते हैं, उनकी मान्यता ठीक नहीं पाई जाती, वास्तव में यह भी राग का ही अविवेक हैं,"मानों की शास्त्र-शास्त्रकारों की आलोचना करके उनमें भूल निकालने का अधिकार किसी ने डोशीजी को सौंपा हों । खुद को परमविवेकी (?) मानकर इंद्रादि जो परमविवेकी हैं उनको अविवेकी मानने की बालचेष्टा भी वे कर रहे है । .. प्रभु की पवित्र अस्थियों को इंद्रादि देव रत्नडाभलों में रखते हैं, पूजते हैं उसको आप मिथ्यात्व क्रिया, जीताचार, रागभाव से की जानेवाली क्रिया बता रहे हैं । शास्त्र-शास्त्रकारों की भूलें निकालने का आपका स्वभाव ही हो गया है । अगर वह मिथ्यात्व क्रिया अप्रशस्त रागभाव प्रयुक्त क्रिया होती तो शास्त्रकार उसका फल संसारभ्रमण, दुर्गतिगमन इत्यादि बताते ! किन्तु उन्होंने हितकारी-कल्याणकारी, अंत में मोक्षकारक फल क्यों बताया ? __स्थानकवासी वर्ग वर्तमान में गुरू की अस्थियों के कुंभ उनकी बोलियाँ लगाते हैं । सांडेराव में "कमलविहारधाम" में कन्हैयालालजी-कमल का अस्थिकुंभ हैं । मेवाड-गोगुंदा में पुष्कर धाम में उपाध्याय श्री पुष्करजी की अस्थियों का कुंभ है, स्थानकवासी सतियाँ तिक्खुत्तो के पाठ से उन्हें वंदन भी करती है। और परमात्मा के दाढ़ा पूजन से द्वेष करते हैं । पक्षांधता की कोई सीमा है ?
प्रभु के शव को स्नान कराना, चंदन से चर्चित करना, वस्त्र अलंकार पहिनाना यह सब बेशक धर्मकरणी है । तीर्थंकर के स्थापना निक्षेप की तरह द्रव्य निक्षेप भी पूजनीय है । जो वस्त्राभूषण आदि भावनिक्षेप में नही थे वे द्रव्य-स्थापना निक्षेप में हो सकते हैं। सबके कल्प अलग-अलग हैं । यह बातें पहले कर चुके है। यह तो प्रत्यक्षसिद्ध भी है। स्थानकवासी आचार्यमुनि वगैरे मुनि अवस्था में स्नानादि नही करते, बेंड बाजे के साथ जुलूस उनके नही निकलते,उनके मृत्यु के बाद शव में यह होते ही है । श्री चंपालालजी महाराज को भी खींचन से पालखी मंगवाई उसमें बिठाकर २-४ बेंड के जुलूस के साथ ले जाया गया ऐसा सुनने में आया है । अहमदनगर में आचार्य आनंदऋषिजी की अंतिम क्रिया जुलूस के साथ बडे
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