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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ८. दाढ़ा - पूजन - समीक्षा इसमें डोशीजी की उत्सूत्र - प्ररूपणा पराकाष्ठा पर पहुंची है। वे लिखते है- ‘“जो इन्द्रादि देव तीर्थंकर की दाढ़ा लेते है तथा वंदनादि करते है वे आत्म-कल्याणार्थ नहीं न उनके इस कृत्य को शास्त्रकार ने आत्मकल्याणकारी माना है ।'' शास्त्र में सामानिक देवों के मुख से शास्त्रकार स्पष्ट रुप में फरमा रहे हैं " एयणं देवाणुप्पियाणं पुव्वि सेयं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पुव्वि पच्छावि हियाए सुहाए निस्सेसाए अणुगमित्ताए भविस्संति" इसमें स्पष्टरुप में दाढ़ापूजन को हितकारी, कल्याणकारी, मोक्षकारक माना है फिर भी डोशीजी ऐसे लिखने की हिम्मत करते है, आश्चर्य है !! ८७ "केई जिणभत्तीए केई जीयमेयं, केई धम्मत्ति कट्टु गेण्हंति" इस में भी डोशीजी ने चालाकी की है। इसमें वे एक हिस्से को ही धर्मकोटी मे ले जाना चाहते हैं, परंतु जिणभत्ती से दाढ़ा - ग्रहण करते हैं वह भी धर्म भावना ही है । अत: दो हिस्से धर्मभावना से ग्रहण करते हैं ऐसा शास्त्रकार स्पष्ट लिख रहे हैं और शास्त्रकारों ने उनकी वह भावना गलत है, मिथ्यात्व के घर की है, ऐसा कहीं पर भी नहीं बताया है । फिर शास्त्रवचनों का शास्त्रकारों के आशय से विरुद्ध अर्थ करके डोशीजी महाअनर्थ क्यों कर रहे है ? ऊपर के पाठ में जहाँ शास्त्रकारोंने दाढ़ा पूजन को धर्म कोटी में गिना है, वहाँ डोशीजी कहते है " वास्तव में दाढ़ापूजन से धर्म का कोई संबंध नही है" क्या इस प्ररूपणा के लिये डोशीजी के पास कोई सूत्र प्रमाण है ? कहाँ से लावे ? उत्सूत्र कल्पनाओं में शास्त्रप्रमाण कहाँ से मिलेगा ? जहाँ शास्त्रकार खुद दाढ़ापूजा बता रहे हैं वहाँ डोशीजी कहते है "अस्थिपूजा जैन समाज कों मान्य ही नहीं है" शास्त्रवचन को मिथ्या, अपनी मान्यता को सही करना चाहते है । इंद्रादि परमविवेकी देव धर्मबुद्धि से दाढ़ा लेते हैं, पूजते हैं वहाँ डोशीजी कहते है " जो धर्म मानकर ग्रहण करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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