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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा के स्वरूप समझाने में "मूर्तिपूजा-जडपूजा करना मिथ्यात्व है" ऐसा उपदेश देते हैं तो ऐसा समकित का स्वरुप आपको मान्य किस आगम में है ? आप क्या आपके अनेक विद्वान् आचार्य भी उसे आगम में नहीं बता सकते हैं । क्योंकि मूल में है ही नहीं, तो लावे कहाँ से ? मूर्तिपूजा की बातें तो आगमों में पत्ते भर-भर के पड़ी हुई हैं । इससे समझना चाहिए जो आप मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं वह शास्त्र विरुद्ध है।
(३) मूर्तिपूजा और जिनाज्ञा - समीक्षा → इसमें डोशीजी लिखते है "सुंदरमित्र के कथनानुसार देवलोक स्थित प्रतिमाओ को तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी मान ले" परंतु उपर्युक्त प्रकार से डोशीजी के युक्ति व तर्कों पर विचार करने के पश्चात् देवलोक स्थित प्रतिमाओं को वास्तविकता से तीर्थंकर प्रतिमाए स्वीकारनी ही पड़ेगी।
डोशीजी के तथ्यहीन तर्कों से एक बाजू सांधे दूसरी बाजू टूटे जैसी स्थिति होती है, उसका उनको ख्याल ही नहीं रहा । उनका कहना है “प्रभु के रागी देवेन्द्र जैसे होने से रागभाव में आकर मूर्ति बनवा लें तो भी वह और उसकी पूजा, धर्म के शुमार नही हो सकती ।" परंतु खुद शास्त्र जगहजगह पर उन प्रतिमाओं को शाश्वत बता रहे है तो देवेन्द्र उसे बनवाएँ यह बात शास्त्रविरुद्ध सिद्ध होती है। अत: डोशीजी द्वारा स्वीकारी हुई जिनप्रतिमा, उनकी पूजापद्धति सभी शाश्वत है और "हियाए-सुहाए..." और नमुत्थुणं पाठ से धर्मकोटि में ही उसका समावेश है।
डोशीजी "कथाओं के प्रमाण उपादेय नही होते है" ऐसा जगहजगह पर लिखते विचार नहीं करते है की खुद सूत्र-आगम को ही अप्रामाणिक कर रहे है । क्या आप रायपसेणी इत्यादि सूत्रों को प्रमाण मानते हैं या नहीं ? जो मानते हैं तो ऊपर की बात बारंबार दोहराना श्रद्धा में संदेह व्यक्त कर रहा है।
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