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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रयोग भी विवेकहीन है । ज्ञानसुंदरजी की पुस्तक और डोशीजी की पुस्तक का मिलानकर मध्यस्थ व्यक्ति पढ़े तो उन्हें यह पता चलेगा। 'अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि चेइयाइं" इस सूत्र पाठ में जैन और भ्रष्ट शब्द नहीं है यह तो डोशीजी भी मानते ही है, सर्वसिद्ध है। वे कहते हैं यह विशेषण अच्छी तरह से लग सकते है अब विचार कीजिए - विशेषण लगाना मतलब सूत्रो में कल्पित शब्दों को जोड़ना। उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने कुतर्क किए वे भी व्यर्थ हैं । चूकि हम तो काल्पनिक शब्द जोड़े बिना टीका के आधार से अर्थ करते हैं, उस यथार्थ अर्थ को नहीं मानने की जिद से ही आपको शब्द जोडने पड़ते हैं। इस प्रकार कल्पित शब्दों को जोड़कर सूत्रों को अपनी मान्यता की तरफ खींचना-उत्सूत्र प्ररूपणा है । मिथ्यात्व है !
आगे, "अक्कलमंद सुंदरजी । मूर्खता का प्रदर्शन तो स्वयं कर रहे हैं" इत्यादि से भाव को समझे बिना ही टूट पडे है। प्रकरण से आगे पीछे के संदर्भ से "अरिहंत और जैन एक" का मतलब अरिहंत के साधु कहो या जैन साधु, दोनों एक ही हैं, भिन्न भिन्न नहीं हैं । भाव समझे बिना शब्दों को पकड़कर टूट पड़ना खुद की ही मूर्खता गिनी जाती है ।
डोशीजी खुद की पुस्तक के पृ. १०४ पर बताते है "आनंद श्रावक की प्रतिज्ञा मनुष्य से संबंध रखने वाली है । आलाप-संलाप मनुष्य से ही होता है, आहारादि भी मनुष्य को दिया जाता हैं । मूर्ति का तो इन बातों से संबंध ही नहीं है ।" यह उनकी शास्त्र की अज्ञता है । केवल अज्ञता ही नहीं परंतु जान बूझकर लोगों को भ्रम में डालते है चूंकि सूत्र में तो अन्यतीर्थिक देव भी बताएँ हैं, वे तो मनुष्य नहीं हैं । देव से उनकी मूर्तियाँ ही लेनी पडेगी उनसे आलाप-संलाप कैसे संभव है ? जिस प्रकार से अन्य तीर्थिक देव में पाठ का समन्वय करेंगे उसी प्रकार से अन्यतीर्थिक परिगृहीत जिनप्रतिमा में भी समन्वय होगा, वह इस प्रकार-शास्त्र में अनेक स्थलों में ऐसे स्थल आते हैं अनेक विधान होते हैं अनेक विधेय होते हैं । उसमें विधेय का संबंध जिसके साथ लगे उसी के साथ लगाते हैं । अतः मूर्ति के साथ वंदन-नमस्कार का साधु के साथ आलाप-संलाप, अशनादि दान
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