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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा का अन्वय सुगमता से शक्य है । आगे उपासकदशांग में आनंद अधिकार में जिनप्रतिमा के सिवाय अन्यदेवों को वंदन नमस्कार नहीं करने का स्पष्ट पाठ होते हुए भी यह कहना कि "आनंदाधिकार और सारे उपासक दशांग में भी मूर्तिपूजा का नाम निशान तक नहीं है'' मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का दोष है । समवायांग में आनंदादि श्रावकों के खुद के जिनमंदिरादि बताये हैं तो वे मूर्तिपूजा करते थे यह अतिस्पष्ट है । और दूसरे रायप्पसेणी वगैरह आगमों मे शाश्वत प्रतिमा इत्यादि अधिकारों में वंदनादि के साथ "पूयणिज्जपज्जुवासणिज्ज'' (पूजनीय-पर्युपासनीय) आदि बताया ही है यहाँ पर भी उपलक्षण से वह समझना चाहिए, क्या जो वंदनीय होते हैं वे पूजनीय नहीं होते ? इसलिये यहाँ पर "मूर्तिपूजा का नाम निशान नहीं है" कहना भोले लोगों की आँखो में धूल डालना है।
आगे भोले लोगों को भ्रमित करने के लिये 'विजयानंदसूरि ने यह तो स्वीकार कर लिया है कि उपासकदशांग सूत्र में मूर्तिपूजा का पाठ नही है' ऐसा कहना धोखेबाजी है ! विजयानंदसूरिजी ने इतना ही कहा हैं 'यद्यपि उपासकदशांग में यह पाठ नहीं हैं । इसका मतलब समवायांग में जो बताया हैं की उपासकदशांग में श्रावकों के जिनमंदिर इत्यादि की बात है वह श्रावकों के जिनमंदिर का पाठ वर्तमान में उपासकदशांग मे नहीं है। इस भाव को छिपाकर विजयानंदसूरिजी के नाम से गप्पे लगाना सज्जनता नहीं है ।
आनंद श्रावक की प्रतिज्ञा में जिन प्रतिमा नहीं थी ! 'समणेणिग्गंथे...पडिलाभेमाणे विहरित्तए' इतना ही कहा, इससे कोई आपत्ति नही है । 'विचित्रा सूत्राणां गति' सूत्रकार सभी जगह एक शैली से नहीं चलते हैं । ऐसे आगम में अनेक उदाहरण आते हैं।
सूत्र संक्षेप-खंडन की डोशीजी की बात में सबसे पहला विरोध खुद ही लिखते है "सूत्र संक्षेप होने की बात ठीक है'' और खुद ही उसको कुयुक्ति कहते है, अतः खुद के वचन में विरोध है।
आगे जो संक्षिप्त का मतलब 'किसी वस्तु को उडा देना नहीं... वस्तु का सद्भाव अवश्य होता है...' इत्यादि बातें युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होती है। .
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