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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दस-बीस शब्दों से कहीं वस्तु को मात्र दो-चार शब्दों में करने स्वरूप संक्षेप को सूत्रों में नहीं मान सकते क्योंकि - उपासकदशांग की पद संख्या - ११,५२००० और एक पद में ५१,०८,८४,६२१।। श्लोक होते हैं । अतः उपासकदशांग ५८,८५,३९,०८,३९,६८,००० इतने श्लोक प्रमाण का था, वर्तमान में केवल ८१२ श्लोक प्रमाण मिल रहा है अतः स्पष्ट है जैसे किसी तालाब का १ घडे मे समावेश शक्य नहीं वैसे ही उपासकदशांग के सभी पदार्थों का वर्तमान में मिल रहे उपासकदशांग में होना शक्य(संभव) नहीं है। यह तटस्थ व्यक्ति सरलता से समझ सकता है। कदाग्रही नहीं समझ सकेंगे।
समवायांग में उपासकदशांग की नोंध में आये 'चेइयाई' का अर्थ व्यंतरायतन होना संभव है। टीकाकार को भी अभिप्रेत है ऐसा प्रतीत होता है । यह डोशीजी की बात उचित मालूम होती है। परंतु उसके सिद्धि में दिये कुतर्क विचारणीय है । उस समय जिनमंदिर होते तो तीर्थंकर उनमें ही ठहरते यह अज्ञान विप्रलपित है । जैनमंदिर में उतरा नहीं जाता वहाँ पर शयन करना इत्यादि ८४ आशातना में आता है। इससे सुसाधु भी उसमें उतरते नहीं है, यह प्रतीत है। .
....चैत्यं तच्चेह व्यंतरायतनम् नतु भगवतामर्हतामायतनम्...' यह दूसरे स्थान की टीका पाठ उठाकर प्रस्तुत सूत्र के साथ जोड़ने की चालाकी डोशीजी करते है और उसका अर्थ भी गलत कर रहे है कि टीकाकार चैत्य शब्द का अर्हत् मंदिर होने का निषेध ही करते है । वस्तुतः रायपसेणी उपांग के सूत्र नं. २ ('अंबसालवणे नामं चेइए होत्था ।...') के मलयगिरिजीकृत टीका का यह पाठ है । उसी स्थान में उसका व्यंतरायतन अर्थ करना है, अर्हत् मंदिर नही । यह अर्थ टीकाकार को अभिप्रेत है और उससे यह स्पष्ट होता है कि दूसरे स्थानों में चैत्य का अर्थ अर्हत् मंदिर होता है। यह बात अतिप्रसिद्ध है, सर्वमान्य है जिससे पाठक वह अर्थ यहाँ पर करने की भूल न करें। इसलिये टीकाकार को यह स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता महसूस हुई है। यह अर्थ तच्चेह इस शब्द से स्पष्ट होता है ।
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