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________________ ११७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १६. अंबड परिव्राजक और मूर्तिपूजा → समीक्षा इसमें प्रथम भूमिका में प्रमाणहीन - कपोल कल्पित लोंकाशाह तक की बातों का मिथ्याभाषण किया है। इन बातों के लिए अगर कोई ऐतिहासिक या आगमिक प्रमाण दिया होता तो - तो तटस्थ व्यक्तिओं के गले आपकी बात उतरती, परंतु आपकी स्थानकवासी परंपरा का लोंकाशाह के पूर्व अंश मात्र भी नामोनिशान नहीं दिखता है, न तो उस समय मूर्तिपूजा का विरोध भी था । तो भला आगमों में हेर-फेर क्यों करें ! वास्तविकता तो यह है कि आपके संप्रदाय द्वारा आगमों के कांट-छांट आदि प्रचुर मात्रा में हुई है, होती है जिसके किस्से पकडे गये हैं, जो पं. कल्याणविजयजीने अपनी पुस्तक में बताया है जिसे आपके संतो ने स्वीकारा है । जिसको छिपाने के लिये 'चोर-कोतवाल को डांटे' की नीति आप अपना रहे हैं । __आगे आनंदाधिकार में जो 'अरिहंत' शब्द अनेक प्राचीन प्रतिओं में मिलता है, इनके पूर्वजों ने भी जिसे अपनाया है उस गणधर प्रणीत सूत्र पर प्रक्षेप का आक्षेप करके, फिर अंबड अधिकार के सूत्र में भी गोलमाल के आक्षेप लगाकर भयंकर उत्सूत्र का पापबंधन डोशीजी कर रहे है । ___ परंतु किसी भी प्रति में अंबड अधिकार में अरिहंत शब्द सिवाय का पाठ न मिलने से "हार्यो जुगारी बमणु रमे" इस गुजराती कहावत के अनुसार अरिहंत चेइयाई का अर्थ ही साधु कर डाला । अगर आपको यह अर्थ वास्तविक मन से रूचता है, तो आप अरिहंत शब्द को उड़ाने की चेष्टा क्यों कर रहे थे ? और आनंदाधिकार में भी प्रक्षेप-प्रक्षेप का झूठा शोर क्यों मचा रहे हो जिससे सिद्ध है कि आपका खुद का मन इस अर्थ में सम्मत नहीं है । केवल स्वमतसिद्धि के लिए तोड-मरोड कर यह अर्थ किया गया है । भोले लोगों को कुछ बताना तो पडता ही है न ! ___डोशीजी के "क्या गौतमादि गणधर आदि साधु-साध्वी पूजनीयवंदनीय नहीं थे ?" इस कुतर्क का उत्तर इस प्रकार → निषेध प्रतिज्ञा में तीन वस्तु बताई हैं तो विधान में भी तीन ही बतानी चाहिए थी? परंतु 'विचित्रा सूत्राणां गति' न्याय से विधान में दो ही बताई हैं । अब निषेध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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