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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा के समकक्ष में देखें तो अन्ययूथिक देव के विरोध में स्वयूथिक परिगृहितचैत्य=अरिहंतचैत्य ही आयेगा । यह एकदम स्पष्ट मध्यस्थ व्यक्ति के लिये युक्तियुक्त है। जिससे अरिहंत चैत्य का अर्थ जिन प्रतिमा ही होगा । शेष रहा स्वयूथिक अर्थ जो अन्ययूथिक का विरोध है वह अर्थापत्ति से लेना पड़ेगा । अन्ययूथिक को वंदन नहीं करना। मतलब स्वयूथिक को करना यह सिद्ध है। सूत्र शैली से उसे सूत्र में साक्षात् ग्रहण नही किया है। अर्थापत्ति से उसका ग्रहण हो जाता है । अतः कोई आपत्ति नही रहेगी ।
आगे डोशीजी ने बालक जैसे दो प्रश्न पूछे हैं जिनके उत्तर
(१) कल्पनाएँ-करना अपने मत के मताबिक अर्थ मानना ये सब आप में चलता है। शुद्ध परंपरा में तो परंपरागत अर्थ नियुक्ति-भाष्य-टीकाओं द्वारा मिलते हैं । उनको ही मानते हैं, जिनकी सभी जगह एकवाक्यता है । वे ही युक्तियुक्त हैं। _ (२) कोश-प्रत्यक्षादि अनुभव से सिद्ध हैं, दोनों शब्दों का अर्थ जिनमूर्ति होता है । कहीं पर अकेले विशेष्य का प्रयोग होता है, वहीं पर विशेषण युक्त विशेष्य का अरिहंत विशेषण है, चैत्य प्रतिमा विशेष्य है । जैसे सूर्य कह सकते है, विशेषता बतानी हो तो तेजस्वी सूर्य कहते है। वैसे ही विशेषता बताने हेतु अरिहंत शब्द के साथ भी प्रयोग होता है ।
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