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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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परिगृहित वह सम कहलाते हैं। इससे जो विस्तार किया है मुद्रण लेखन से मिथ्यात्वी द्वारा सभी सूत्र अमान्य - विषम बनेंगे वे कुतर्क सभी हवा में उड़ गए | औषध के दृष्टांत में भी यही समझना ।
मूर्ति भी स्वयं जड है, मिथ्यादृष्टि उसकी मालिकी करेगा तो विपरीत बुद्धि से उसे मानेगा मिथ्यात्वी - सरागी देवरुप से मानेगा - उपासना करेगा, इसीलिए वह प्रतिमा मिथ्यात्व स्थिरीकरण दोष से अवंदनीय हो जाती है । इसलिये ऊपर बताया हुआ तर्क सुतर्क है, डोशीजी के सभी कुतर्कों का समाधान हो जाता है। मक्षीजी- केसरीयाजी की दलील भी निकम्मी अयोग्य है । जहाँ श्वेतांबरों का भी अधिकार हैं वहाँ वे अपने ढंग से पूजनादि विधि कर सकते है वहाँ मिथ्यात्व स्थिरीकरणादि दोष नही लगते हैं, उसी प्रकार इतर लोग पूजते होने पर भी तीर्थ की मालिकी जैनों की है, कोर्ट में भी यही फैसला दिया है, अतः उसमें कोई दोष नहीं है, उसमें तो जैन धर्म का गौरव बढ़ता है । जिनप्रतिमा का इतना प्रभाव है ।
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जिनप्रतिमा देव पद में है, अन्ययूथिक देव अवंदनीय हुए तो उसके साथ उनकी मान्य मूर्ति भी अवंदनीय हुई तो " अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाइं" यह कहने की क्या आवश्यकता ? इसलिए इस पद का अर्थ अन्ययूथिक परिगृहित साधु अर्थ करना" डोशीजी की इस दलील का भी समाधान पीछे के विवरण से हो जाता है अन्ययूथिक प्रतिमा ग्रहण करके उसका स्वरुप बदल देवे वह तो अन्ययूथिक दैवत में आएगी स्वरुप न बदलकर सरागी मानकर पूजे वह 'अन्ययूथिक परिगृहित चेइयाई' में आएगी । इससे यह भी सिद्ध होता है की सूत्र में 'चेइयाई', 'अरिहंत चेइयाइं' दोनो पाठ मिलते है उसमें ‘“अरिहंत - चेइयाइं" पाठ ज्यादा बलवान् हैं । ऐसे तो चेईयाई का अर्थ अरिहंत प्रतिमा होता ही है । तथापि अरिहंत चेइयाइं कहने से अन्ययूथिकों ने वह प्रतिमा अरिहंत स्वरूप में ही रखी है, उसका स्वरूप नहीं बदला है इसका द्योतक यह पद है ।
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आगे डोशीजीने 'सुन्दरजी की योग्यता' में किया हुआ खंडन पक्षपातपूर्ण है तर्क संगत नहीं है । ज्ञानसुंदरजी के लिये अभद्र शब्दों का
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