SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रस्तुत सूत्र - प्रस्तुत प्रकरण में भी आगे “कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं ... पडिलाभे माणस्स विहरित्तए" ऐसा बताकर साधु के लिये श्रमण - निग्रंथ शब्द का प्रयोग किया है। जिन शब्दों से उद्देश कीया उन्ही शब्दों से निर्देश होना चाहीये था । अगर साधु अर्थ में चैत्य शब्द का प्रयोग आगम में होता तो यहाँ पर "कप्पइ मे अरिहंत चेईयाणि फासुएसणिज्जेणं ...." ऐसा प्रयोग होता। ऐसा प्रयोग नही हुआ है यही बताता है कि आगमकारों को चैत्य शब्द का साधु अर्थ में प्रयोग मान्य नही है। ___ डोशीजीने अपने पक्ष की सिद्धि में एक कुतर्क और बताया है "जिनमूर्ति किसी के ग्रहण कर लेने मात्र से अपूज्य अवंदनीय नही हो जाती'' इसका जवाब अभयदेव सूरिजी की टीका में मिल जाता हैं, "मिथ्यात्वस्थिरीकरणादि दोषप्रसङ्गात्" मिथ्यात्वी के अधिकार में प्रतिमा जाने पर प्रायः वे उसका स्वरूप बदल देते हैं, नाम बदल देते हैं जैसे बद्री में बद्रीनाथजी, पैठण मे नेमिनाथजी विट्ठल नाम तिरूपति वगैरह अनेक उदाहरण हैं । जहाँ स्वरूप और नाम बदलकर सरागी रूप देते हैं उसी प्रकार से पूजन विधि भी बदली जाती है, वहाँ पर जाए तो स्पष्ट रूप से मिथ्यात्व स्थिरीकरण का दोष लगता ही है। क्वचित् स्वरूप नहीं बदले तो भी उनके अधिकार में रही प्रतिमा वे अरिहंत समझकर नहीं पूजते-मिथ्यात्वी देव की समझकर पूजते हैं, सरागी देव मानकर पूजते हैं, वह मंदिर भी मिथ्यात्वियों का हुआ, तो, जैन वहाँ जावे तो स्पष्ट रीति से मिथ्यात्व का पोषण है ही । वे लोग कहेंगे देखो हमारे देव कितने प्रभावशाली हैं, जैन लोग भी दर्शनादि के लिए आते हैं। यहाँ पर डोशीजी ने मूर्तिपूजकों के एक तर्क का उसके तात्पर्य को समझे बिना ही खंडन किया है, वास्तव में वह तर्क योग्य है सुतर्क है । "जिस प्रकार सम सूत्र मिथ्यादृष्टि के हाथ में जाने से विषम हो जाते हैं उसी प्रकार जिन मूर्ति भी अन्य के अधिकार में जाने से अवंदनीय हो जाती हैं।" यह तर्क है । इसके खंडन में मूर्तिपूजकों पर उनको अनभिमत पक्ष उठाकर आरोप लगाया है। हम भी यही मानते हैं, सूत्र स्वयं जड है मिथ्यादृष्टि के हाथ में आने से विपरीत अर्थ करने से वह विषम कहलाते हैं, सम्यग्दृष्टि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy