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________________ १११ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हिसाब से तो केवल आपकी खुद की कल्पना ही प्रमाणभूत है, उसकी सुज्ञजनों में कोई कीमत नही है। "जो साधु जैन पथ से भ्रष्ट होकर अन्यतीर्थी बन गया है वह तो अन्यतीर्थी में गिना जा चुका है फिर उसे पृथक् बताने की क्या आवश्यकता है ?'' इस ज्ञानसुंदरजी के तर्क को जो आप कुतर्क बता रहे है, वह उचित नहीं है, उनका तर्क सुतर्क और उचित ही है, आपकी कल्पना ही कुतर्क है । चूंकि- अन्यतीर्थी में गये हुए तथा वेश बदलने पर उनको समझदार समकिती ने न तो वंदन किया, न वंदन करते हैं, उसको अपना नही समझते हैं यह प्रसिद्ध है, तो उसे सूत्र में बताने की आवश्यकता ही क्या है ? आपके हिसाब से साधु अर्थ करने पर तो सूत्र का संदर्भ ही नहीं घट पाएगा । ___दूसरी बात 'चैत्य' का साधु अर्थ आप किस आधार पर करते है ? जयमलजी म. ने ११२ अर्थ बताए यही आधार हैं न ? जयमलजी म.सा.ने वे कल्पना से लिखे या किसी आधार से ? यह भी विचारणीय है, चूंकि उन्होने बताया अलंकरण दीर्घब्रह्माण्ड ग्रंथ तलाश करने परभी कहींपर देखने में नहीं आता । विद्वान् जन विचारे कि चूर्णि, टीका आदि में शास्त्रकारों ने प्रभु वीर की अक्षुण्ण परम्परा से प्राप्त जो "चैत्य' शब्द की विवेचना है, वह सही है अथवा जो स्थानकवासी बंधुओं ने अपनी कल्पना के आधार पर लिखा है वही सही है ? मान भी लो उस ग्रंथ में साधु अर्थ किया हुआ है, तो भी आगम साहित्य में वह प्रमाण नही गिना जाएगा। क्योंकि ४५ आगम या ३२ आगम में एक भी स्थल आप बता नहीं सकते जहा साधु के अर्थ में चैत्य शब्द का प्रयोग हुआ हो । आगम शैली में 'निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा', 'साहु वा साहुणीवा "भिक्खु वा भिक्खुणी वा' इस प्रकार साधु-साध्वी के लिये प्रयोग आते हैं। 'चैत्यं वा चैत्यानि वा' ऐसा एक भी स्थल पर प्रयोग मिलता नहीं हैं । और चैत्य शब्द स्त्रीलिंग मे नहीं बोला जाता है तो साध्वी के लिये क्या प्रयोग करेंगे? यह भी बड़ी आपत्ति है चैत्य का अर्थ साधु करने में है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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