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________________ ११० जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा मूल से प्रतीक 'अर्हच्चैत्यानि' लिया है जो अरिहंतचेईयाणि का संस्कृत रूप वर्तमान में मिलती प्राचीन से प्राचीन ताडपत्री प्रतियाँ करीब १००० सालों की मिलती हैं, उनको अभयदेवसूरिजी के वक्त लिखी मानो तो भी उन नई प्रतियों का सूरिजी ने उपयोग नही किया होगा। प्राचीन स्कंदिलाचार्यनागार्जुन वाचना की प्रतियों का उनकी टीका में उपयोग हुआ होगा, इसीलिए इतने पाठ भेद भी मिलते हैं । आगम संशोधक पूं जंबूविजयजी म.का भी यह मन्तव्य है । (देखो आचारांग प्रस्तावना) यह स्पष्ट ही है, की कोई भी टीकाकार उस समय प्राप्त प्राचीन और शुद्ध प्रति का ही उपयोग करेगा । एवं सभी मनीषियों ने इसे एकमत से स्वीकार किया है। इससे सिद्ध होता है कि वर्तमान में मिल रही सभी प्राचीन प्रतियों से भी ज्यादा प्राचीन प्रतियों में 'अरिहंत चेईयाणि' पाठ था । डोशीजी ने मूर्तिपूजकों द्वारा अरिहंत' पाठ बढ़ाया आदि गलत आक्षेप दिये हैं, उसके उत्तर तो मध्यस्थ व्यक्ति को ज्ञानसुंदरजी की पुस्तक में से ही मिल जाएंगे । उन्होंने लिखा ही है- "आचार्य अभयदेवसूरि की टीका हमारे स्थानकवासी विद्वान् भी प्रामाणिक मानते हैं और न उस समय मूर्तिविषयक ऐसी चर्चा भी थी, की जिसको कोई पक्षपात कह सके अतएव उन्होंने स्पष्ट लिखा हैं कि "अर्हत् प्रतिमा, अन्य तीर्थियों ने ग्रहण कर ली है यदि श्रावक उन प्रतिमा को वंदन करे तो उसको मिथ्यात्व स्थिरीकरण दोष लगता है...'' जगन्नाथपुरी मे शांतिनाथजी की प्रतिमा, बद्रीजी में पार्श्वनाथजी, कांगड़ा मे ऋषभदेवजी की प्रतिमा, अन्यमतियों ने ग्रहण कर ली और अपनी विधि से पूजते है यह प्रत्यक्ष है वहाँ जाकर श्रावक को वंदनपूजन करना कल्पता नहीं है । इससे सिद्ध है टीकाकार ने किया हुआ अर्थ ही प्रमाणयुक्त है। आपके स्थानकवासी संत हुक्मीचंदजी, पीरचंदजी वगैरेने 'अरिहंत चेईयाई' पाठ प्रमाण मानकर "जिनप्रतिमा अन्य तीर्थिकों ने ग्रहण कर ली हो" अर्थ किया हैं वे भी क्या आपके हिसाब से अप्रामाणिक हैं ? तो आपके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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