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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १०९ १५. आनन्द श्रमणोपासक →समीक्षा उपासक दशांग के प्राचीन प्रतिओं में "(१) अण्ण-उत्थियपरिग्गहियाणि (२) अण्ण उत्थिय परिग्गाहियाणि चेइयाइं (३) अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंत चेइयाई" ये तीन प्रकार के पाठ मिलते हैं । इसमें से २-३ नंबर के पाठ को होर्नल साहेब ने प्रक्षिप्त माना है, ऐसा आप लिखते है और आप उनकी आधी बात लेते है आधी छोड़ते है ये कौन सा न्याय ? आप लिखते है और "हम... प्राचीन प्रति के आधार से शुद्ध पाठ देते है" और आगे चेईयाइं वाला पाठ दिया । यह आपका कदाग्रह मात्र है क्योंकि तीन में से यह पाठ ही शुद्ध इसलिये आपके पास क्या प्रमाण ? आपको मत मोह से अरिहंत शब्द खटक रहा है। होर्नल साहब की तरह दोनो २-३ प्रक्षिप्त माने तो-तो ठीक था, परंतु प्रथम पाठ से अर्थ बराबर घट नही पाता, और तीसरे पाठ से अरिहंत प्रतिमा की आपत्ति आती है जो आपको अनिष्ट है, इसलिये यह चालाकी की । परंतु दूसरे-तीसरे पाठ का भाव समान ही है। 'चेइय' शब्द अरिहंत प्रतिमा अर्थ में रुढ़ बताया है, अतः चेइयाई, अरिहंत चेइयाइं दोनो का अर्थ एक ही होगा। तीसरे पाठ में अरिहंत शब्द स्वरूप विशेषण है जैसे तेजस्वी सूर्य में । दूसरी बात आपके पूर्वाचार्य हुकमीचंदजी, वीरचंदजी, घासीलालजी सभी ने अरिहंत चेइयाइं पाठ ही प्रमाण माना है। क्या आप उनसे भी ज्यादा बुद्धिशाली है ? तेरापंथी अंगसुत्ताणि में भी प्रामाणिकता से अरिहंत चेइयाई पाठ ही स्वीकृत किया है । दूसरे पाठों को पाठांतर में दिया है। महत्व की बात तो यह है कि इसी आगम से सिद्ध मूर्ति-मूर्तिपूजा के पाठ को कुतर्कों से उड़ाने की, असिद्ध करने की कितनी भी कुचेष्टा करने पर भी वह असिद्ध नहीं हो पाएगा । उसको असिद्ध करने के लिए आप प्राचीन प्रति का कुतर्क दे रहे है । वह भी उड जाता है । वह इस प्रकार आ. श्री, अभयदेव सूरिजी की टीका को हज़ार वर्ष ऊपर हुए, उनके सामने 'अरिहंतचेईयाणि' पाठ ही था, जो टीका से स्पष्ट सिद्ध है "अन्ययूथिक परिगृहीतानि वा 'अर्हच्चैत्यानि' अर्हत्प्रतिमा लक्षणानि" इस टीका पाठ में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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