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________________ ८३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दूसरा अप्रामाणिक निर्णय उसमें नहीं दे सकते । एक ही काल में वल्लभी और माथुरी वाचनाएँ हुई । १२ साल के दुष्काल के कारण विस्मृत ग्रंथ लिखाये गए, उस समय गुरू परंपरा में पाठ में फेरफार की शक्यता रहती है। इससे दूसरी वाचना संदेहजन्य नहीं होती है । इसीलिये टीकाकार ने भी "गौतम स्वामीजी प्रश्न करते है सूर्याभदेव की ऋद्धि कहाँ गई ?" उस स्थान पर वाचना भेद बताकर उस वाचना भेद की टीका की है । उससे सिद्ध होता है वाचना भेद को संदेहजन्य टीकाकार मानते नहीं है । ४. जीताचार की करणी में भगवान ने आज्ञा दी है। समीक्षा → इसके खंडन में डोशीजीने जीताचार के दो भेद किए है, । धार्मिक और सांसारिक-व्यावहारिक जीताचार । वह तो ठीक है लेकिन जिनेश्वर परमात्मा की मूर्तिपूजा-दाढ़ापूजन धार्मिक जीताचार में ही आएँगा चूंकि इनके साथ ही "हियाए-सुहाए...'' पाठ है, वहीं पर नमुत्थुणं से स्तवना हैं इसका डोशीजी को ख्याल नहीं रहा है। नाग-भूत प्रतिमा, बावड़ी आदि पूजन व्यावहारिक जीताचार में आएगा चूंकी इसके साथ "हियाए सुहाए"... पाठ नहीं है, नमुत्थुणं से स्तवना नही है । ५. सूर्याभ सम्यग्दृष्टि और भव्य है, अत एव उसकी मूर्तिपूजा उपादेय आनंद-अंबड श्रावक के अधिकार में सम्यक्त्व के आलापक में इतर देवों को देवबुद्धि से मानना नहीं, उनके मूर्तियों की पूजा आदि नहीं करना बताया है उससे सिद्ध होता है की सूर्याभ ने जिनप्रतिमाओं की पूजा की डोशीजी हेमचंद्रसूरि इत्यादि पूर्वमहापुरूषों को कलंकित करने हेतु उनके प्रसंगो में से अमुक वस्तु ग्रहण करके लोगो की आँखो मे धूल डालते है । हेमचंद्रसूरिजी सिद्धराज के साथ शिवमंदिर में गये । सिद्धराज को जैन धर्म के सन्मुख बनाने हेतु महादेव स्तोत्र की रचना की और बोले, उसमें शिव की स्तुतियाँ नहीं थी अपितु तीर्थंकरों की स्तुतियाँ हैं । महादेव तो तीर्थंकर ही हो सकते हैं, गीतार्थ महान् आचार्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानकर अपवाद मार्ग का विशेष लाभ हेतु अवलंबन करते है, वह तो जो फल मिलता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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