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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सज्जनता नहीं है।
आगे टीका का अधूरा पाठ देकर यह ही काम कर रहे है । देखिये"इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वः भूयानपि च पुस्तकेषु वाचनाभेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थित वाचनाक्रम प्रदर्शनार्थ लिखितः ।" इतना पाठ दिया है इसके आगे का टीका पाठ "इत ऊर्ध्वं तु प्रायः सुगमः प्राग्व्याख्यातस्वरुपश्च न च वाचनाभेदोऽप्यतिबादर इति स्वयं परिभावनीयः, विषमपदव्याख्यातु विधास्यते इति ।" इसको जान बूझकर छोड दिया है।
इस संपूर्ण पाठ से टीकाकार कह रहे है - प्राक्तन ग्रंथ = सूर्याभविमान वर्णन तक के ग्रंथ से लगाकर यहाँ तक अनेक पुस्तकों में वाचना भेदअलग-अलग वाचनाओं में अलग-अलग पाठ है । इसलिए सम्मोह (टीका कौन-सी वाचना को लेकर की है यह सम्मोह) निवारण हेतु जिस वाचना को आगे करके हमने टीका की है उसके सुगम-सरल शब्दों को भी टीका में लिखा है- विवेचन किया है । इसके आगे सरल है और वाचनाभेद भी ज्यादा नहीं है अतः जैसे पूर्व में पद पद की व्याख्या की है वैसे आगे नहीं करेंगे, परंतु विषमपद की व्याख्या ही करेंगे ।
इस टीका पाठ को घुमाकर डोशीजीने "हियाए सुहाए..." के साथ ही जोड़ दिया है, टीकाकार उस बारे में कहते ही नहीं है । वह तो टीका अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है की विमान वर्णन से लगाकर प्रायः पद पद की व्याख्या है और आगे नही है ।
आगे डोशीजी कहते है "जिस पाठ को आपके टीकाकार महाराज संदेहजन्य बता रहे है'' डोशीजी यह अज्ञानवश लिख रहे है या जान बूझकर लोगो को भ्रम में डाल रहे है । टीकाकार ने कहाँ पर उस पाठ को संदेहजन्य बताया है ? संदेहजन्य कहना टीकाकार को इष्ट नहीं है । टीकाकार तो वाचनाभेद लिखते है, उसका मतलब टीकाकार को उसमे संदेह है यह नहीं होता है। प्रज्ञापना सूत्र की टीका में मलयगिरिजी म. ने वाचनाभेद का खुलासा किया है । गणधरों के वक्त में भी वाचना भेद थे । इससे एक प्रामाणिक
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