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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ८१ पूर्वतन टीका-गुरु परंपराओं के आधार पर करते हैं । जिसका जिक्र ज्ञानसुंदरजी ने दूसरे प्रकरण "जैनागमों की प्रामाणिकता'' में किया है । उत्तराध्ययन मूलसूत्र में 'पच्छा कडुअविवागं' में अगले जन्म के अर्थ में 'पच्छा' शब्द आया ही है । अतः आगमप्रमाण से भी पच्छा = अगले जन्म में सिद्ध है। पृ. ५२ पर → डोशीजी लिखते है "सुंदर मित्र ने मूर्तिपूजा और चारित्र का फल बिलकुल समान ही बताया है'' यह ज्ञानसुंदरजी पर गलत आक्षेप है क्योंकि खुद शास्त्रकार ही समान बता रहे है, उसको ज्ञानसुंदरजी ने पेश किया है। बाकी सभी कारण, कार्यसिद्धि में समानरीति से उपयोगी नहीं बनते है, कोई अनंतर कोई परंपरा कारण होता है। मूर्तिपूजा परंपरा कारण संयम अनंतर कारण इसको तो सब (ज्ञानसुंदरजी भी) मानते ही है । ज्ञानसुंदरजी पर आक्षेप करते खुदने भी वही नीति अपनायी है इसका डोशीजी ने विचार ही नहीं किया । आपने कोष्टक में तीर्थंकर वंदन फल और संयमफल दोनों को समान बताएं हैं वह आपको मान्य है ? वहाँ आपको एक परंपर दूसरा अनंतर कारण समाधान करना ही पडेगा । वही समाधान मूर्तिपूजा - संयम में है । उसका पक्षराग के कारण डोशीजी को विचार ही नही आया । __ मूर्तिपूजक ग्रंथ के तीन उद्धरण दिये हैं उसमें प्रथम आवश्यक हारिभद्रीय में साधुओं को द्रव्यस्तव-मूर्तिपूजा इत्यादि नही करनी चाहिए साधुओं के संयम के साथ उसका विरोध है। उसमें गृहस्थों के लिये उसे हेय नही माना है। दूसरे सागरानंदसूरिजी के उद्धरण में भी यही बात है। डोशीजीने किसी इरादे से उस उद्धरण को अधूरा दिया है, छिपाया है । महानिशीथ के उद्धरण से पाठकों को अधूरी बात बताकर भ्रमित करने की चालाकी की है । उसके संदर्भ देखने से वह बात चैत्यवासियों के अविधि चैत्य में साधुओं को नहीं जाना चाहिये यह बताती है, साधुओं को मंदिर में - विधिचैत्य में जाने का निषेध है ही नही । इस प्रकार अलग संदर्भ में दिये उद्धरणों को अलग संदर्भ में लगाकर लोगों के आंखों में धूल डालना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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