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________________ - जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा चलाने के लिये प्रतिमापूजा की । ये कल्पनाएँ पक्षपात के कारण सीधे-सरल आगम पाठ को अर्थ बदलकर अपनी मान्यता मे घसीटने हेतु है इसका ख्याल सुज्ञ कर सकेंगे। अपने इस पर विचार करें- सूर्याभ देव-इंद्र आदि के विशिष्ट स्थान देवलोक में शाश्वत हैं अपने-अपने विशिष्ट पुण्य से जीव वहाँ पर उत्पन्न होते हैं और उसी विशिष्ट पुण्य से मिले हुए अपने-अपने विमानादि पर आजन्म निष्कंटक अधिकार पुण्य से ही बनाये रखते हैं । सूर्याभदेव-इंद्र इत्यादि का स्थान कोई अन्य देव-जीतकर कब्जे में करें ऐसी स्थिति देवलोक में होती ही नहीं है । और अपनी जीवन लीला भी विशिष्ट पुण्य से सुखपूर्वक अपने भव तक चलती ही है । तो उसके लिये अन्य देवदेवी की मूर्तिपूजा की उन समझदार देवों को आवश्यकता ही क्या ? दूसरी बात डोशीजी के हिसाब से वे प्रतिमाएं अरिहंत की नहीं अपित किसी देव की है। (कौन से देव की इस प्रश्न का उत्तर तो डोशीजी के पास है ही नहीं !!!) ऐसा कौन देव है जो वैमानिक विमानाधिपति-इंद्र वगैरे से भी ऊँचा हो ? जिसकी पूजा से इंद्रादि की इच्छाएं पूर्ण हो ! ___एक और बात-परंपरागत आचार के अनुसार सूर्याभ देवादि पूजा करते हैं, ऐसा मान भी लो तो दूसरे स्थान-द्वार, तोरण, नागदन्ता, वावडी वगैरेह में भी पूजा वगैरेह है । मूर्ति और दाढा की पूजा में ही "हियाए सुहाए..." बुद्धिशाली सामानिक देव क्यों कहते हैं । दूसरी पूजा में यह पाठ क्यों नही बोलते ? आपके हिसाब से तो सभी समान ही है न ? एक में पेच्च दुसरे में पच्छा इत्यादि तो डोशीजी की भोले जीवों को फसाने हेतु कल्पना जाल है । पच्छा का अर्थ अगले जन्म में होता ही है । यह तो सूत्र शैली है । अन्यथा संयम पालन के फल में न तो पेच्च है, न तो पच्छा है, तो डोशीजी उसका अर्थ कैसे करेंगे? कल्पना से ही करेंगे न? सूत्र प्रमाण क्या मिल सकेगा? प्रभु वीर से चली आती परंपरागत व्याख्या-टीकाओं को अपनाए बिना प्रामाणिक अर्थ, कल्पना से - संभव ही नहीं है । टीकाकार अर्थ अपनी विशाल गुणग्राही बुद्धि से ही नहीं करते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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