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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
७९ में बताया है "...संथुणइ संथुणित्ता सत्तट्ठपयाइं पच्चोसक्कइ पच्चोसक्कित्ता वामं जाणुं अंचेइ... जाव संपत्ताणं । "इसमें सभी जगह संबंधभूत कृदंत का उपयोग करके क्रियान्तर का पूर्व क्रिया के साथ संबंध बताया है, इसलिये स्तुतियाँ मूर्ति के सामने की और नमुत्थुणं सिद्धों के सामने यह कल्पना उचित नही है। मताग्रह से की हुई उत्सूत्र मालूम होती है। जिनप्रतिमाओं के सामने सभी क्रियाएं हो रही है यह मध्यस्थ व्यक्ति के लिये एकदम स्पष्ट बात है । डोशीजी के अर्थ बदलने के, छुपाने के ये स्पष्ट उदाहरण है ।
३. सूर्याभ की मूर्तिपूजा को शास्त्रकार ने हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी और मोक्षकारी होना बताई है।
समीक्षा → इसमें डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के ऊपर अपशब्दों की वृष्टि कर रहे है । परंतु वह अपराधी व्यक्ति अपराध छीपाने के लिये निरपराध को डाँटे, उस कोटि में आता है । देखिये
सूर्याभ के प्रश्नों के उत्तर शास्त्रकार देते हैं कहकर ज्ञानसुंदरजी ने सूत्रपाठ पेश किया है, उसमें कहाँ भोले भाईयों के आँखो में धूल डाली ? डोशीजीने दिये हुए कोष्टक में तीर्थंकर वंदनफल संयम पालनफल, धन रक्षाफल, और मूर्तिपूजा फल ये सब शास्त्र में बताए है इसलिये, उन्हें शास्त्रकार बता रहे है । कहने में दोष क्या है ? हां, धनरक्षा फल द्रव्यासक्त व्यक्ति के मुख से और मूर्तिपूजा फल सामानिक देवों के मुख से शास्त्रकार फरमा रहे है, यह जरूर है । ___ डोशीजी की चतुराई देखिये-सूर्याभ के सामानिक देव = सूर्याभ की गैरहाजरी में सूर्याभ का काम-काज संभालने वाले सूर्याभ के समान-समकक्ष समृद्धिवाले महत्वपूर्ण देव । इसको ढंककर, डोशीजी उसको सामान्य परिषद देव बता रहे है। ऐसा कहने से उनके मुख से निकले शब्द महत्वपूर्ण नहीं इस प्रकार भोले लोगों की आँखों मे धूल फेंकने का प्रयत्न खुद ही कर रहे है। ____ डोशीजी कहते है सूर्याभ ने आधीनता में रहे देव, देवी विमान आदि पर निष्कण्टक अधिकार बनाये रखने के लिए व जीवन लीला को सुखपूर्वक .
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