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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा है, उससे स्वयंसिद्ध होता ही है । साधु-साध्वी प्रतिक्रमण में, संयम साधना में सहायक देवों का स्मरण करते हैं, जैसे अविरति गृहस्थ को कार्य हेतु स्थानकवासी साधु-साध्वी याद करते ही है । सूर्याभ जैसे प्रभावशाली देवइंद्र वगैरे व्यवहार-संसार हेतु मिथ्यात्वी देवों का पूजन वगैरह करे इस डोशीजी के तर्क का उत्तर पीछे ((३) सूर्याभ की मूर्तिपूजा ... में दे दिया है ।
डोशीजी कह रहे है देवलोक में सभी देव सम्यक्त्वी नहीं होते । प्रतिमा केवल चार है, जिसे सभी देव पूजते होंगे, इससे सिद्ध है प्रतिमापूजन धार्मिक दृष्टि से नहीं होता है, अन्यथा मिथ्यात्वी देव उन्हे क्यों पूजे ? यह कल्पना तथ्यहीन है, फिर भी डोशीजी के ऊपर के शब्दों से स्पष्ट ध्वनित हो रहा है, खुद के मन मे पड़ा है की वे जिनप्रतिमाएँ है । धार्मिक दृष्टि से हो तो फिर मिथ्यादृष्टि देव उन्हें क्यों पूजने लगे ? ये शब्द उस बात को स्पष्ट कर रहे है ।
सभी पाठक डोशीजी के पुस्तक पृ. नं. ५६ प्रथम परिछेद को ध्यान से पढ़े तो डोशीजी के विचित्र मानसिकता का ख्याल आएगा । "सुंदरमित्र ने सम्यक्त्व को क्या बाधा है ?" इससे डोशीजी ने शाश्वत प्रतिमाएँ मिथ्यात्वी देवों की है ऐसा सिद्ध करने की कोशिश की है। आगे " और देवलोक में भी... मिथ्यादृष्टि देव उन्हे क्यों पूजने लगे ?" इसमें डोशीजीने शाश्वती प्रतिमा जिनेश्वर परमात्मा की मानकर आपत्ति दी है । ये प्रतिमाएँ किनकी हैं ? इसमें डोशीजी स्वयं ही शंकित ही है ।
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शुद्ध गुरूपरंपरा-गुरूगमविहीन लोग आगम के अर्थ करने में असफलसंदिग्ध ही रहते हैं । सूर्याभ देव के पूरे प्रकरण में अनेक स्थल पर डोशीजी की डावाँडोल मानसिक स्थिति का ध्यान से पढने वाले पाठकों को ख्याल आएगा, टीका को माने तो मूर्तिपूजा सिद्ध होने से अपने मत का त्याग होता है और अपने मत को पकड़े रखे तो आगम पाठ का सही अर्थ ही नहीं कर सकते !! डोशीजी की बडी दयनीय स्थिति मालूम होती है !! देवलोक में भी सभी देव सम्यक्त्वी है ही नहीं, धार्मिक दृष्टि से पूजन
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