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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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विशेषण को खींचकर उसके विपरीत अर्थघटन का प्रयत्न यह बता रहा है कि येन-केन प्रकारेण शास्त्रकारोने बतायी ये जिनप्रतिमाएं अन्य देवों की सिद्ध हो जावे तो डोशीजी को उसमें अपार खुशी है । जैन कहलाते हुए भी जिनप्रतिमा से कैसा वैर ! हा.हा.हा......
(इ) वस्त्र परिधान - समीक्षा साक्षात् तीर्थंकर और स्थापना तीर्थंकर के कल्प अलग-अलग है। दीक्षा के बाद तीर्थंकर स्नान नही करते प्रतिमाओं को अभिषेक का वर्णन सर्वत्र आता है, इसलिए वे प्रतिमाएँ तीर्थंकर की नहीं ऐसा कौन कह सकता है ? वर्तमान में भी जैन मंदिरो में अभिषेक आंगी में वस्त्रपरिधान इत्यादि होते ही है, तो क्या आप कहेंगे ये प्रतिमाएँ तीर्थंकर की नहीं ? सभी उन्हें जिनप्रतिमा ही मानते हैं । अत: सिद्ध होता है प्रतिमा पूजा का कल्प अलग है, अतः वस्त्र परिधान में कोई विरोध नहीं है ।
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आगे वस्त्र परिधान करना या अर्पण करना की व्यर्थ लंबी चर्चा चलायी है । परिधान करावें या अर्पण करे दोनों ही प्रकार से तीर्थंकर की भक्ति ही मानी गई है ।
(ई) पूजन विधि - समीक्षा → उपर बताये मुजब साक्षात् तीर्थंकर पूजन और स्थापना तीर्थंकर पूजन का कल्प अलग होता है । दोनो निक्षेपों में फरक है एक भाव निक्षेप, दूसरा स्थापना निक्षेप है । अत: उनके पूजनविधि वगैरे में फरक है ही । वर्तमान में भी जिनप्रतिमाओं में यह विधि प्रचलित है, वह कथानक का अनुकरण नहीं अपितु अनादि काल से इस प्रकार का स्थापना कल्प प्रचलित है, इसीलिये जैनेतर देव-देवी, बौद्ध आदि में भी ऐसी ही विधियां प्रचलित है। इससे यही सिद्ध होता है वे तीर्थंकर की मूर्तियां
है ।
( उ ) शरीर वर्णन में भिन्नता - समाधान यह भी कपोल कल्पना है । “विचित्रा सूत्राणां गतयः " सूत्र रचना में विभिन्नता हो सकती है । उससे तीर्थंकरों की प्रतिमा न होना सिद्ध नहीं होता है। तीर्थंकरो का शिखनख और अन्य मनुष्यों का नख-शिख शरीर वर्णन होता है यह डोशीजी
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