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— जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा और उनके पक्षधरों की पक्षांधता से की गई कुकल्पना है। इसमें प्रमाण कोई पेश नहीं किया है । औपपातिकसूत्र में ही आगे असुरकुमार वर्णन में उन देवों का शरीर वर्णन ऊपर से ही किया है । प्रथम नयन का वर्णन फिर नासिका, होंट - जीभ - केश का वर्णन है, जिससे यह सिद्ध होता हे कि शास्त्रकार किसी भी नियत क्रम से वर्णन नहीं करते हैं । इस असुरकुमार वर्णन से सिद्ध होता है की डोशीजी ने जानबूझकर भोले लोगो को फंसाने हेतु यह वर्णन भिन्नता की कुकल्पना रची है।
(ऊ) प्रतिमा परिवार - समीक्षा → कल्पना के गपगोले लगाए है । प्रभु प्रतिमा के परिकर में इस प्रकार प्रतिमाएँ वर्तमान में भी दिखाई देती हैं । जघन्य से १ करोड देवता हमेशा सेवा में होते है इनमें से ये हैं । इंद्र आदि हमेशा सेवा में हाजिर नहीं होते प्रसंग-प्रसंग पर आते है। इससे सिद्ध है वे तीर्थंकर प्रतिमाएँ है।
(ए) नाम निश्चित्तता-समीक्षा → इसका समाधान पीछे "वे शाश्वत है' में आ ही गया है । विशेष किसी भी काल में भरत-ऐरावत महाविदेह मिलाकर इन ४ नामवाले तीर्थंकर होते ही हैं । यहाँ आगम खुद नाम के शाश्वतता में प्रमाण है । इंद्रादि प्रभावशाली सम्यग्दृष्टि देव दूसरे मिथ्यात्वी अपने सेवक की पूजा करे वह कैसे कोई भी सुज्ञ स्वीकारेगा?
और डोशीजी के हिसाब से ये मिथ्यात्वी शाश्वत देव कौन? कौन से देवलोक में ? उनकी पूजा से क्या लाभ ? आदि आगम प्रमाण तो डोशीजी दे ही नहीं सकते है ? जिससे सिद्ध है वे प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की हैं ।
(२) सूर्याभ साक्षी की अनुपादेयता - समीक्षा → डोशीजी ज्ञानसुंदरजी के खंडन में खुद ही खुद की युक्तियों में फंस गए है। चक्रवर्ती, राजा, व्यापारी वगैरह क्रमशः चक्ररत्नादि-बंदूक तोपादि-कलम बही आदि का पूजन परम्परानुसार करते हैं, धर्मबुद्धि से नहीं । परंतु वे चक्रवर्ती आदि सुज्ञजन अपने अपने इष्ट देवों की प्रतिमाओं का पूजन धर्मबुद्धि से ही करते हैं, व्यवहार से नहीं । वह धर्म खुद का माना हुआ होता है वह बात अलग है यह तो वर्तमान में भी प्रत्यक्ष सिद्ध है । इससे तो स्पष्ट रुप से सिद्ध
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