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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा होता है सूर्याभदेव ने भी विवेकमय धर्मबुद्धि से ही प्रतिमा पूजन किया और अन्यवस्तुओं का पूजन परंपरानुसार किया। जिस सम्यग्दृष्टि के हृदय में हमेशा के लिए अरिहंत परमात्मा स्थापित है वे अपनी स्मृति-तृषा बुझाने हेतुभक्तिहेतु मनुष्यलोक में भी मूर्ति-तस्वीरे वगेरे साधनों का सहारा लेते है, देवलोक में उनके लिए कोई भी साधन क्या नहीं होगा ? अवश्य होगा ही । इसीलिए शाश्वती प्रतिमाएँ देवलोक में हैं । सम्यग्दृष्टि देव देवलोक से मनुष्य जन्मउत्तमकुलादि सामग्री कैसे पा सकते है ? देवलोक में हमेशा विषयोपभोगपंचेंद्रियपोषण-उसी में आसक्तता होने से आपके हिसाब से दान-शील-तप
और भाव की सामग्री पुण्यबंध के लिये नहीं है। तीर्थंकरों के जन्माभिषेक में अभिषेकादि के कारण अगणित जीवों की हिंसा से उसमें भी आपके हिसाब से पुण्यबंध नहीं तो पुण्यबंध के सिवाय विशिष्ट कुलोत्पत्ति द्वारा मनुष्यजन्म में आकर मोक्ष की साधना कैसे करेंगे? शायद आप कहो साक्षात् तीर्थंकर भक्ति वगैरह से । वह तो उनको कदाचित् होता है विषयासक्त होने से वहाँ पर भी मूल शरीर से नहीं जाते है । अन्यथा - अनुपपत्ति से विशिष्ट पुण्यबंध के साधन स्वरुप शाश्वती जिन प्रतिमाएं स्वीकारनी पडेगी ही ।
पृ. ४६ में डोशीजी ज्ञानसुंदरजी की दी हुई युक्तियों का खंडन करने जा रहे है, उसमें कितनी तथ्यता है वह देखेंगे ???
१. वे प्रतिमाएँ पद्मासन से ध्यानस्थ है इसलिये तीर्थंकर प्रतिमाएँ
मनुष्यलोक में पद्मासन में तीर्थंकरो की ध्यानस्थ मूर्तियाँ है ही, उसी प्रकार देवलोक में लिखा है उसमें क्या दोष ? प्रायः लोक में पद्मासन का उपयोग ध्यानादि साधना में करते दिखाई देते है उस हिसाब से भी वे प्रतिमाएँ ध्यानस्थ होना युक्त ही है। खुद डोशीजी भी बुद्ध प्रतिमा पर्यंकासन में है उसे कायोत्सर्ग (ध्यान) मुद्रा में स्वीकार कर ही रहे है, तो जो पद्मासन में है वह ध्यान में होना युक्तियुक्त ही है। नमुत्थुणं के पाठ से वह अरिहंत प्रतिमा सिद्ध ही है।
२. सूर्याभ ने 'नमुत्थुणं' के पाठ से उनकी स्तुति की अत एव ये
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