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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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आगे दिगंबर-कुदकुंदाचार्य रचित अष्टपाहुड (डोशीजीने षट्पाहुड लिखा वह अशुद्ध है) का पाठ चैत्य का ज्ञान अर्थ बताने हेतु दिया वह भी अयोग्य हैं । वहाँ पर उस ग्रंथ में चेदिहरं शब्द का अर्थ चैत्यगृह=जिन मंदिर किया है और निश्चय नय से निर्मल आत्मा का वास साधु में होने से साधु चैत्यगृह है, ऐसा कहा है । व्यवहार से पाषाणादि का चैत्यगृह होता है । इसलिये न तो उसमें ज्ञान अर्थ में चैत्य शब्द है, और न व्यवहारोपयोगी साधु का चैत्यगृह अर्थ है ।
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ये तीनों पाठ संक्षेप में देकर लोगों को गुमराह किया हैं। आगे बताते है जैसे बौद्ध साहित्य में चैत्य बौद्ध भिक्षु है वैसे जैन साहित्य में जैन साधु, चैत्य का अर्थ हो सकता है । सुज्ञ विचार करें अगर चैत्य का अर्थ जैन साधु होता तो उस अजैन 'शब्दार्थ परिजात' कोष में बौद्धसाधु अर्थ ही क्यों दिया जैन साधु अर्थ क्यों नहीं दिया ? इससे स्पष्ट है चैत्य का जैन साधु अर्थ नहीं होता है। दूसरी बात संपूर्ण ३२ सूत्रों में, ४५ आगमो में भी साधु का पर्यायवाची चैत्य शब्द कहीं पर भी दिखाई नही देता है ।
समवायांग में ‘“चेइयरुक्खे" ति बद्धपीठवृक्ष' ऐसा टीकाकारों ने अर्थ किया है इसलिये स्वेष्ट सिद्ध नहीं होने से डोशीजी को लोक प्रकाश ग्रंथ तक दौड़ना पड़ा । परंतु उससे भी डोशीजी की इष्ट सिद्धि शक्य नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञानोत्पत्ति वृक्ष के लिये 'चैत्यवृक्ष' शब्द रूढ़ जैसा है । चैत्यवृक्ष शब्द का अर्थ तो समवायांग टीका में दिया है, वही है । उत्तराध्ययन, अध्ययन ९, श्लोक ९ की टीका में भी " अधोबद्धपीठिके उपरि चोच्छ्रितपताके वृक्षे" ऐसा ही अर्थ किया है । जो समवायांग के अर्थ के समान ही है इस अर्थ को लाडनू (तेरापंथी) वालो ने लिया है (देखिये उत्तरज्झयणाणि पृ. १७२) इससे सिद्ध होता है कि चैत्यवृक्ष- बद्धपीठ वृक्ष ऐसे वृक्ष के नीचे तीर्थंकर परमात्मा को केवलज्ञान की प्राप्ति होने से व्यवहार भाषा में केवलज्ञानोत्पत्ति वृक्ष को चैत्यवृक्ष कहा जाता है । इसलिये पू. विनयविजयजी म. ने लोकप्रकाश ग्रंथ में चैत्यवृक्ष का अर्थ ज्ञानोत्पत्तिवृक्ष किया है उससे चैत्यशब्द का ज्ञान अर्थ सिद्ध नहीं हो सकता हैं आगमों में ज्ञान के लिये तो नाण, नाणी ऐसे
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