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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ठाणांग सूत्र तृतीय स्थानक-शुभदीर्घायुष्य प्रकरण में
'कल्याणं' समृद्धि तद्धेतुत्वात् साधुरपि कल्याणमेवं 'मंगलं' विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गलं दैवतवि दैवतं चैत्यमिव-जिनादिप्रतिमेव चैत्यं श्रमणं पर्युपास्य...' इसका भावार्थ-कल्याण यानि समृद्धि का हेतु होने से साधु भी कल्याण कहा जाता हैं, मंगल=विघ्नक्षय का हेतु होने से साधु भी मंगल कहलाएगा, देवता जैसा होने से दैवत और चैत्य-जिन प्रतिमा उसके समान होने से साधु भी चैत्य कहलाएगा। ___इस पाठ का सुज्ञ विचार करें - कल्याण - मङ्गल - दैवत - चैत्य साधु को कहा हैं ये शब्द साधु के पर्यायवाची शब्दों में आते नहीं हैं परंतु कहीं कार्य - कारणभाव को लेकर कहीं पर उपमा के द्वारा ऐसा प्रयोग बताया है। जैसे "अग्निर्मनुष्यः" मनुष्य खूब क्रोधी होने से उसे आग कहा, उससे मनुष्य का अग्नि नाम है, पर्यायवाची शब्द है ऐसा नहीं कहा जाता। परमात्मा तेज में सूर्य के समान होने से कोई उपमा से उन्हे सूर्य कहे इससे उनका पर्यायवाची शब्द सूर्य नही कहा जाता है । वैसे ही प्रस्तुत पाठ में
चैत्य-जिनप्रतिमा के समान होने से साधु को चैत्य कहा इससे चैत्य शब्द साधु का वाचक नहीं कहलाता है । यहाँ पर जैसे जिन प्रतिमा पूज्य है वैसे साधु भी पूज्य है इसलिये साधु को उपमा से चैत्य कहा है। व्यवहार प्रचलन में साधु को चैत्य नहीं कहा जाता ।
बृहत्कल्प छट्ठा भाग-गा. ६३७५ टीका में चैत्य शब्द का नाम निशान ही नहीं हैं पाठ ही झूठा दिया हैं । सत्य पाठ यह है - "आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नम् आत्मकर्म चेति औद्देशिकस्य साधूनुद्दिश्य कृतस्य भक्तादेश्चत्वारि नामानि । इसमें रेखांकित पाठ का डोशीजीने चैत्योद्देशिकस्य बना डाला । संस्कृत के हिसाब से संधि करने पर भी पूर्वोक्त पाठ का चेत्योदेशिकस्य बनता हैं किन्तु इस में चैत्य शब्द है ही नहीं।
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