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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा आदि अलग-अलग प्रकार से भक्ति प्रगट करते हैं वह 'कयबलिकम्मा' का अर्थ है । टीकाकार भगवंतो ने गृहदेवपूजा से यथार्थ अर्थ बताया है । ___ अब यह अतिस्पष्ट है कि दृढ़सम्यक्त्वी किसी भी हालत में मिथ्यात्वी देवों को अपने घर में स्थान नहीं देगा। उसके हृदय में तो नित्य अरिहंत परमात्मा का ही वास होता है तो घर में वह कुलदेवता इत्यादि इतर देवों को भी स्थान नहीं ही देता है। अगर सत्व कम हो, उनके उपद्रव से रक्षा के लिये रखता है परंतु श्रद्धा तो परमात्मा के प्रति ही होती है ऐसे श्रावक के लिये समकित के आलावे में देवाभिओगेणं आगार बताया है । कुमारपाल महाराजा जैसे सत्वशालियों को कुलदेवी द्वारा मरणांत उपसर्ग होने पर भी बलि नहीं चढ़ाई उनके जैसे सत्वशाली आगार का सेवन नहीं करते थे। वे घर में भी देवस्थान में अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा अथवा अन्य स्थापना रखकर ही उनकी पूजा करते वही 'बलिकर्म' शब्द से लेना है। तुंगीया नगर के श्रावक भी दृढ़ श्रद्धावाले थे इसलिये वहाँ पर भी बलिकर्म शब्द से ज्ञानसुंदरजीने अर्थ किया है वह उचित ही है । श्री कल्पसूत्र की टीका में भी राजा सिद्धार्थ के वर्णन में "हाया बलिकम्मा" आया है । स्थानकवासी मित्र वहाँ भी 'यज्ञ' अथवा 'कुलदेवता की पूजा' अर्थ कहते हैं, किन्तु कोई भी दृढ़ सम्यक्त्वी जीव ऐसा नहीं करता। 'बलिकर्म' का अर्थ सर्वत्र 'जिनपूजा' ही सार्थक होगा।
ज्ञाता सूत्र में मल्लिनाथ भगवान की गृहस्थावस्था में जो बलिकर्म शब्द बताया है वह पाठ अखंड रखने के लिये बताया हो ऐसा समझना। आगम के लेखन में बार-बार समान पाठ को दोहराते नहीं है, जाव कहकर संक्षेप करते हैं । उसमें से अनावश्यक शब्दों को निकालना शक्य नहीं बनता है एक-आध स्थान में वह अनावश्यक रहता है, दूसरे स्थान में उपयुक्त उस शब्द की आवश्यकता रहती है, तब पाठ को अखंड ही रखते हैं । टीकाकार कई स्थानों पर उसका उल्लेख करते हैं । कई स्थानों पर नहीं भी करते ।
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