________________
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
१२१ १८. चारणमुनि और मूर्तिपूजा समीक्षा
इसमें सर्व प्रथम डोशीजी का यह कुतर्क "यह बात ही मिथ्या है कि कोई चारण मुनि यात्रार्थ गये हों सूत्र में तो केवल शक्ति का परिचय बताया है..." सूत्र पाठ से स्वयं ही खंडित हो जाता है। सूत्र में स्पष्ट लिखा हैं 'तहिं चेइआई वंदई' वहां चैत्यों को वंदन करते हैं। अगर शक्ति की ही बात होती तो ऐसा न लिखते । परंतु यह केवल शक्ति मात्र है, ऐसा स्पष्ट निर्देश करते और इस प्रकरण में भी जा सके, आ सके, प्रभु वंदन कर सके ऐसा निर्देश करते ।
आगे डोशीजी लिखते हैं 'चेइयाइं वंदइ' का भावार्थ भगवद् स्तुति से है, मूर्ति वंदन से नही चैत्यवंदन भी स्तुति का दूसरा अर्थ है । यह बात भी गलत है । डोशीजी की व्याकरण की अनभिज्ञता का सूचन होता है । 'चेइयाइं वंदइ' दोनों शब्द स्तुत्यर्थ हो ही नहीं सकते क्योंकि एक कर्म और दूसरी क्रिया है। इसमें चेइयाई-अरिहंतो की प्रतिमाओं को यह कर्म है और वंदइ यह स्तवनात्मक क्रिया है। इससे साफ-साफ साबित होता है जंघाविद्याचारण महामुनियों ने भी प्रभु प्रतिमाओं के दर्शन-वंदन स्तवन किये हैं । जो बडे ही हीनभाग्य भारेकर्मी जीव होते हैं, वे ही प्रभुमूर्ति की निंदागर्हणा करते हैं।
मूर्तिपूजक साधुओं का प्रतिक्रमण में चैत्यवंदन परोक्ष वंदन नहीं परंतु पंचपरमेष्ठी की स्थापना जिसमें होती है ऐसे स्थापना के सामने होता है ।
दीव-सागर पन्नत्ति में मानुषोत्तर और रुचक पर्वत पर भी जिन-मंदिर बताये हैं । और भगवतीजी में चारणों का वहाँ गमन, चैत्यों के वंदन के लिये बताया है । इससे दीवसागर पन्नत्ति सूत्र की प्रामाणिकता पर भी मोहरछाप लग जाती है । ऐसे तो ठाणांग आदि में भी नाम लेकर उसकी प्रामाणिकता बताईं ही है। कोई अपनी कुमान्यता सिद्ध न हो इसलिये सूत्रों को अप्रमाणिक माने उससे वे सूत्र अप्रमाणिक नहीं बन जाते । ऐसे तो दिगंबरों के हिसाब से सभी आगमों का विच्छेद हुआ है जो है वे मूल आगम नही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org