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________________ १२२ - जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा हैं, तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे? डोशीजी कहते है - "दीवसागर प्रज्ञप्ति में अनिष्ट फेरफार हुए हैं । यह वह ही कह सकता है जिसने उस ग्रंथ को शुरू में देखा हों और अब देख रहा हो अथवा विशिष्ट ज्ञान से ही बता सकते हैं अथवा उनकी प्राचीन हस्तप्रतें और अभी की प्रतों में फेर हो तभी यह संभव है, वैसा तो कुछ हैं ही नहीं, तो किस आधार पर कह सकते वास्तविकता तो यह है उसमें जिनभवन वगैरह मूर्तिपूजा को सिद्ध करने वाले शब्द आते हैं, जिन प्रतिमाओं की बातें आती हैं, जिसके कल्पनाओं द्वारा भी अर्थ परिवर्तन वगैरे शक्य नहीं है इसलिये शास्त्र को ही अप्रमाणिक कर दिया । इस सूत्र में अनिष्ट परिवर्तन तभी सिद्ध होगा जब मूर्तिपूजा आगम विरुद्ध सिद्ध होगी और मूर्तिपूजा आगम विरुद्ध तभी सिद्ध होगी जब इस सूत्र में अनिष्ट परिवर्तन सिद्ध होंगे । इस प्रकार अन्योन्याश्रयदोष आपकी कुकल्पना में आता है। दोनों में से एक भी बात की सिद्धि आपके सैंकड़ो आचार्य इकट्ठे हो जाए तो भी संभव नहीं हैं ।। __ आगे ज्ञानसुंदरजी का खंडन करते है "लोंकागच्छीयमूर्तिपूजक यतियों के अर्थों को प्रमाण में देते हैं, उन्हें हमारे पूर्वज बनाते हैं... वह अनुचित है।" ज्ञानसुंदरजी ने उचित ही कहा हैं । अगर आप उनको आपके पूर्वज न मानो तो आपकी परंपरा लोंकाशाह से कैसे मिलेगी ? उन यतियों में से आप में साधु प्रगट हुए। आगे आप लिखते हैं "स्था० समाज के सुसाधुओं की.....आपके समाज के साधु भी नहीं कर सकते..." यह मिथ्या स्वप्रशंसा है और ऐसे तो बराबर भी हैं चूंकि उनके लोकविरूद्ध - लोकनिंदित आचारों की तुलना हमारे समाज के साधु कैसे करेंगे ? नही ही करेंगे । पृ. १४१ पर डोशीजी "वहाँ जाने का मुख्य कारण नंदनवनादि की सैर करने का ही हो सकता है...'' ऐसे उद्गार महाज्ञानी चारण मुनिओं के लिये निकालते हैं। जिनमंदिर दर्शन-वंदन-हेतु नंदनवनादि जाने को सैर सपाटा की संज्ञा देते हैं। जिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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