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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३ स्नान, फूल, जुलूस आदि धर्म से कोई संबंध नहीं और दीक्षा लेने के पहले वंदनीय पूजनीय नहीं होते। यहां आपने पूरा विषय ही बदल दिया है। ____ आपने प्रतिमा पूजन के पहले स्नान करना, स्नान हिंसा का कारण और ऐसा हिंसा का कार्य धर्म के लिए करना मिथ्यात्व है कर आपने लिखा है जिस तरह भगवान महावीर गृहस्थ अवस्था में ये सब करते है जिनको मिथ्यात्व नहीं कहा जा सकता, ठीक इसी तरह गृहस्थ भी पूजा करने के पहले स्नान आदि करता है तो उसे , मिथ्यात्व कैसे कहा जाए?
मूर्ति पूजा मानने वालों में भी साधु साध्वी जो है स्नान करते नहीं ? स्नान करना यह गृहस्थजीवन का प्रसंग है। जिस तरह भगवान ने दीक्षा लेने के बाद स्नान आदि त्याग दिया। ठीक इसी तरह मूर्ति पूजा मानने वाले समाज के साधु-साध्वी भी स्नान आदिकात्याग करतेही है।
और कोई भी मूर्ति पूजा मानने वालों में स्नान को धर्म मानकर नहीं परन्तु गृहस्थ का एक आचार मानकर और शरीर शुद्धि आदि मानकर ही करते है। जैसा कि भगवान महावीर ने भी दीक्षा लेने जाते वक्त गृहस्थ का आचार समझकर ही स्नान आदि किया है यदि यह आचार नहीं होता तो वे ऐसा करने का मना कर सकते थे। उनको जबरदस्ती तो कोई स्नान नहीं करा सकता था। पहाड़ों पर चढने त आपको जीवों का कचर घाण दिखता है परन्तु चौमासे में गुरुवंदन जाते वक्त कचः घाण नहीं दिखता धन्य है आपकी न्याय दृष्टि को ? और रात को 4-5 बजे यात्रा करना बैंडबाजों के साथ नगर प्रवेश करना यह सब अतिशयोक्ति पूर्ण ही है और शास्त्र विरुद्ध भी है। मूर्ति पूजक समाज में भी ऐसी कई प्रवर्तियाँ रुढ हो गई है जो शास्त्र विरुद्ध ही है। जिसका समय-समय पर विरोध होता रहा है हो रहा है, जिसके लिए कुछ पत्र - पत्रिकाए भेज रहा हूँ । अब बहुत लिखा जा चुका है अतः थोड़ा सा....और . .
याद रखिये ध्यान दीजिये कि जैन दर्शन का कोई भी समुदाय चाहे दिगम्बर हो, श्वेताम्बर हो, स्थानकवासी हो, मूर्ति पूजक हो, मौलिक सिद्धांत, लक्ष्य एक ही है मूलभूत सिद्धांत जैसे नवतत्व, निगोद, मोक्ष देवलोक, नरक आदि में कोई फर्क नहीं लक्ष्य में भी कोई फर्क नहीं, हेतू में भी कोई फर्क नहीं, सिर्फ लक्ष्क्षा पाने
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