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________________ २६८ परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा श्रेणिक राजा का भगवान के पास जाने में जो भी जीवों की विराधना हुई है उसका पाप जो उसको भी लगा ही है, परन्तु उसके प्रतिफल में समकित की इतनी पुष्टि हो गई कि विराधना गौण हो गई। इसी तरह प्रतिमा पूजन में जो भी जीवों की विराधना तो होती है, उसका पापतो लगेगा ही, परन्तु सम्यक् दर्शन की पुष्टि इतनी हो जाए कि मिथ्यात्व का अंश भी न रहे और समकित क्षायिक हो जाए तो यह क्षायिक समकित विरति धर्म को लाने में देर नहीं करेगा और विरति धर्म आने पर इसके पूर्व किए हुए पापों को खुशी-खुशी सहर्ष तप आदि द्वारा उदीरणा कर अंत कर देगा। जिस तरह आप अपने पत्र में लिखते है कि चातुर्मास में मुनिराजों को वंदन करने जाने से जो पाप लगता है वहां सामायिक पचक्खाण आदि का लाभ भी होता है। ठीक इसी प्रकार मूर्ति पूजा में जो पाप लगता है वहां तीर्थंकर प्रभू की भक्ति पूजा आदि से सम्यक्त्व की पुष्टि इतनी होती है कि मिथ्यात्व का पाप दूर-दूर भाग जाता है। याद रखिये प्रतिमा, प्रतिमा पूजन (जो कि भगवान की अनुपस्थितिके कारण है) दर्शन शुद्धि का कारण है सामयिक पचक्खाण आदि चारित्र शुद्धि का कारण है। दोनों की शुद्धि से ही आगे बढा जा सकता है और आगे समवायांग सूत्र के बारे में रायपसेणी सूत्र के बारे में अचित फूलों के बारे में लिखा परन्तु आपके ही समाज द्वारा प्रकाशित समवायांग सूत्र में कहीं पर अचित शब्द नहीं है, जबकि आपने अचित शब्द बढाया है। प्रत्यक्ष प्रमाण है समवायांग सूत्र में तो स्पष्ट उल्लेख है कि जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि और थल में उत्पन्न होने वाले चंपा आदि फूल, इतना स्पष्ट होने पर भी अपनी मान्यता के विपरित प्रमाण आने से अचित शब्द जोड़कर लोगों को भ्रमित करना कैसान्याय? क्या जल में उत्पन्न होने वाले फूल अचित होते है ? इस प्रश्न को ही आपने उड़ा दिया। यदि ये फूल अचित वैक्रिय होते तो ये • शब्द वैक्रिय या अचित नहीं लिखकर और जल-थल-शब्द लिखकर आगम सूत्रों की रचना करने वालों ने क्या भूल की है, जिसको आप जैसे विद्वान सुधार रहे है। धन्य है आपकी विद्वता को। आगे आपने भगवान महावीर के बारे में लिखा कि दीक्षा लेने तक प्रवर्तियों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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